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वर्ष २०१२ ऋषिकेश के पास की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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आषाढ़ की चिलचिलाती धूप थी उस दिन! धूप ऐसी, कि चीर के रख दे त्वचा को! काली पड़ जाए त्वचा! कहते हैं न, आषाढ़ी धूप में हिरण भी काला पड़ जाता है! नमी भी होती है, और वो नमी बहुत जानलेवा हुआ करती है! एक जानकारी देना चाहता हूँ, वैसे आवश्यक तो नहीं है, परन्तु ज्ञान तो तो भला इसमें बुरा क्या। यदि चैत्र में वर्षा की एक बूंद पड़ जाए तो समझना चाहिए कि सावन की हजार बूंद कम हो गईं। जेठ की वर्षा अच्छी नहीं होती क्योंकि 'तपा' का तपना श्रेयस्कर है। आषाढ़ की वर्षा खेती के लिए अत्यंत आवश्यक है। सावन में वर्षा न हो तो खरीफ की फसल नष्ट हो जाएगी तथा भादों में वर्षा न हो तो रबी की फसल पर दुष्प्रभाव पड़ेगा। पौष मास में वर्षा हो तो आधा गेहूँ और आधा भूसा होगा भले ही उसका बीज कितनी ही अच्छी तरह से बोया गया हो। ये अकाट्य ज्ञान है! आषाढ़ के माह से ही ऐसा होना आरम्भ होता है! वैसे तो ये ज्ञान और भी सूक्ष्म है, जैसे आग्नेय कोण की हवा चले तो अकाल की शत प्रतिशत संभावना रहा करती है! आषाढ़ जितना तपेगा, सावन उतना ही प्रबल होगा! इसीलिए आषाढ़ की गर्मी, धूप बहुत जानलेवा होती है! जेठ से भी अधिक! तो कुछ ऐसी ही स्थिति थी उस दिन! मैं और शर्मा जी, सामान बाँध रहे थे, हमें ऋषिकेश जाना था, वहां से भी आगे तक, वहां एक डेरा है, बाबा आदि नाथ का, वहीं से बुलावा आया था! सामान तो बाँध लिया था, बस थोड़ी धूप कम हो, तो निकलें यहां से, बस से ही जाना था, तो रात का सफर बस से कट जाता! सुबह या दोपहर तक, हम पहुंच ही जाते वहां! तभी सहायक लस्सी ले आया! गाढ़ी गाढ़ी लस्सी! रुहाफ़ज़ा शरबत मिली! अब ऐसी भीषण गर्मी में लस्सी मिल जाए तो क्या कहने! खींच लिए अपने अपने गिलास! ले गया गिलास वापिस! "आज तो ज़्यादा ही कड़क है धूप!" बोले वो, "हाँ, आज ज़ोर ज़्यादा है!" बोला मैं, "शाम को बैठ जाएँ तो कैसा?" पूछा उन्होंने, "हाँ, बढ़िया!" कहा मैंने, 

और फिर बजे कोई पांच, और हमने उठाया अपना सामान, आये बाहर वहाँ से, एक ऑटो पकड़ा 

और चले बस-अड्डा, वहां पहुंचे, तो बस तैयार ही मिली! जा बैठे! सीट भी मिल गयी बढ़िया सी, टांगें आराम से रख सकते थे, सामान रखा ऊपर, और आराम से बैठे, पानी की दो बोतल लेके 

आये ही थे, पानी पिया और कुछ ही देर में बस चल पड़ी! बस हरिद्वार की थी, वहाँ से आगे फिर सवारी लेनी थी! हरिद्वार में एक रात रुक जाते हम! यही कार्यक्रम था हमारा! तो इस तरह हम सुबह सुबह पहुँच गए, कोई चार बजे करीब, अँधेरा था, तो वहीं रुके, चाय पी 

और आराम किया, बैठे बैठे कमर अकड़ गयी थी! हम करीब साढ़े पांच बजे निकले वहां से, सवारी ली, और चले अपने एक जानकार के पास, उनके डेरे! एक घंटा या सवा लग गया हमें वहाँ पहुँचने में, और भीड़ तो सुबह से ही हो चली थी वहां, पूर्णिमा जो थी! इसीलिए! आखिर जा पहुंचे वहां! वहां संचालक से बात हुई, जानते तो थे ही, पानी पिलवाया और सहायक से कह एक कक्ष खुलवा दिया, सामान उठाया और रखा हमने वहीं अलमारी में! चादर डाल ही चुका


   
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श्रीशः उपदंडक
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था सहायक, वो चला भार और मैंने जूते खोले अपने, जुराब उतारे और बैग में से चप्पलें निकाल ली! अब जाकर आराम मिला पांवों को! शर्मा जी भी, जूते-जुराब उतार, आ लेटे! सहायक आया और पानी रख गया! अब चाय की पूछी उसने, तो हाँ कही! "सुन?" बोला मैं, "हाँ जी?" बोला वो सहायक! "प्रवेश कहाँ है?" पूछा मैंने, "वो काशी गए हैं!" बोला वो, 'अच्छा!" कहा मैंने, 

और वो चला गया फिर! थोड़ी देर बाद, चाय ले आया, साथ में कचौरियां! चाय पी, कचौरियां खार्टी और आराम किया फिर! एक बजे करीब भोजन किया और उसके कोई आधा घंटा बीता होगा, कि कमरे का दरवाजा बजा, दस्तक हुई। मैं उठा, दरवाज़ा खोला, तो सामने एक परिचित गोपाल खड़े थे! "आइये! आइये!" कहा मैंने, 

आ गए अंदर! बैठे। हालचाल मालूम किये एक दूसरे ने! "और सुनाइए गोपाल!" कहा मैंने, "बस बढ़िया सब!" बोले वो, "अच्छी बात है!" कहा मैंने, "अभी पता चला आप आये हो! तो दौड़ा चला आया!" बोले वो, "मुझे नहीं पता था आप भी यहीं हो!" कहा मैंने "मुझे हफ्ता बीता यहां!" बोले वो, "अच्छा! मैं ऋषिकेश जाऊँगा कल! सोचा आज रुक जाऊं यहाँ!" कहा मैंने, "ये तो अच्छा किया आपने!" बोले वो! तभी कमरे में, एक बड़ा सा बिल्ला आया! पीली आँखें उसकी! मोटा-ताज़ा! आते ही बैठा, और शुरू कर दी म्याऊं-म्याऊं! "आज भाई आज!" कहा मैंने, "ये यहीं का पालतू है! हर एक कमरे का मुआयना करता है!" बोले वो, "अच्छा ! पहरेदार है!" कहा मैंने, "हाँ!" बोले वो, "और यहां के श्वान?" पूछा मैंने, कि वो इसको मारते नहीं? "अरे नहीं। ये तो उनके बर्तन में से दूध पी जाता है!" बोले वौ! "अरे वाह!" कहा मैंने, "नाम क्या है इसका?" पूछा मैंने, "बिल्लू!" बोले वो! "हाँ भाई बिल्लू! यार कैसे म्याऊं म्याऊं कर रहा है!" कहा मैंने, 

और तभी शर्मा जी भी जाग गए, झपकी ले रहे थे! गोपाल जी से हालचाल पूछे उन्होंने! और फिर मैंने बिल्लू के बारे में बताया! और तभी बिल्लू उछला! और सीधा बिस्तर पर। मैंने सर पर हाथ फिराया उसके, तो उसने मेरा हाथ चाटा! 

11 

"बड़ा प्यार है!" बोले शर्मा जी! "हाँ! लाड़ला है यहां का!" बोले गोपल जी! तभी बिल्लू ने देखा बाहर कुछ! कान खड़े किये और कूद पड़ा नीचे! भाग चला बाहर! "भोजन हो गया?" पूछा उन्होंने, "हाँ जी!" कहा मैंने, "ठीक है फिर, शाम को मिलते हैं!" बोले वो, "हाँ!" कहा मैंने, 

और छोड़ने चला बाहर तक! छोड़ा तो एक स्त्री दिखी मुझे, उसने ही मुझे देखा, पहचाना उसने, मैंने भी पहचाना, आने लगी मेरी तरफ! नमस्कार की उसने! मैंने भी! "तुम सुश्रिता हो न?" पूछा मैंने! "हाँ! पहचान गए!" बोली वो, "आओ, अंदर आओ!" कहा मैंने, 

और लिव लाया उसको अंदर! "बैठो!" कहा मैंने, बैठ गयी! अपने हाथ में पकड़ा वो झोला, रख दिया वहीं! शर्मा जी से भी बात हुई, नमस्कार आदि! "सेहत बना ली सुश्री तुमने तो!" कहा मैंने, "अच्छा? मुझे नहीं लगता!" बोली वो, "बन गयी है सेहत!" कहा मैंने, "अच्छी बात है!" बोली हंसकर! "और पिता जी कैसे हैं?" पूछा मैंने, "अच्छे हैं!" बोली वो, "और भैया?" पूछा मैंने, "वो भी ठीक!" बोली वो! "और तुम बताओ!" कहा मैंने, 


   
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श्रीशः उपदंडक
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"मैं भी!" बोली वो! "कब आर्टी?" पूछा मैंने, "दो दिन हुए" बोली वो, "वहीं से? वो कौन सी जगह है?" कहा मैंने, याद करते हुए, "काठगोदाम!" बोली वो, "हाँ हाँ!" कहा मैंने, "हाँ, कल ऋषिकेश जा रही हूँ!" बोली वो, "किसके पास?" पूछा मैंने, "बाबा आदिनाथ के पास!" बोली वो! मैं चौंका! "पिता जी को निमंत्रण मिला?" पूछा मैंने, "हाँ!" बोली वो, "और मुझे भी!" कहा मैंने, "सच में! ये तो बहुत अच्छा हुआ!" बोली वो! "हाँ! कम से कम अब तुम तो हो!" मैंने ज़रा कुटिलता से कहा ऐसा! समझ गयी थी! मुस्कुराने लगी! "और वो, उस निवि का क्या हाल है?" पूछा मैंने, "वो भी ठीक है!" बोली वो, "वहीं है?" पूछा मैंने, "हाँ, वहीं है!" बोली वो! फिर उठी, झोला उठाया और पलटी! "अभी तो यहीं हो न?" बोली वो, "हाँ!" कहा मैंने, "आती हूँ शाम को, पिता जी को बता दूंगी!" बोली वो! "ले भी आना, या मैं आ जाऊँगा!" कहा मैंने, 

"मैं ले आउंगी!" बोली वो, 

और चली गयी बाहर! 

"ये वही है न, वो बाबा जगत की पुत्री?" पूछा शर्मा जी ने, "हाँ, वही है!" कहा मैंने, "हाँ, मोटी हो गयी!" बोले वो! "हाँ, हो भी तो कोई चार साल गए!" कहा मैंने, "हाँ, वैसे जब बाबा से मिले थे हम, तब ये बड़ी पतली दुबली सी थी!" बोले वो, "हाँ, तभी तो मुझे याद करना पड़ा!" बोला मैं, "इसकी एक बहन भी तो है?" पूछा उन्होंने, "हाँ, निवि!" कहा मैंने, "हाँ हाँ!" बोले वो, "आये हुए हैं बाबा, आज मिलते हैं!" कहा मैंने, "हाँ, ज़रूर!" बोले वो, उसके बाद हम चले गए थे घूमने, सारा दिन करते ही क्या, शाम को हरिद्वार की छटा अलग ही होती है! लगता है जैसे किसी प्राचीन नगर में विचरण कर रहे हों! हृदय आनंदित हो उठता है। श्रद्धा जैसे घट घट में वास करने लगती है, हर की पौढ़ी पर बैठ कर, निहारते रहे, निरंतर बही गंगा माँ! हाथ अपने आप ही जुड़ जाया करते हैं उनके मान सम्मान में! हमने भी डुबकियां लगाईं थीं! पूर्णिमा थी वो भीड़ बहुत थी, तांता लगा था लोगों का, वस्त्र पहन हम एक जगह आ बैठे थे, शर्मा जी, आलू-पूरी ले आये थे, हम वहीं खाते रहे और श्रद्धा का वो अगाध रूप, निहारते रहे! और संध्या समय हम वापिस हुए! अब बहुत भीड़ थी, आरती का समय हो चला था, हम वापिस हुए, और आ गए अपने यहां! पहुंचे कक्ष में, तो मुझे एक और जानकार दिखा, रघु! उसने देखा, तो भाग कर आया! "कब आये?" बोला वो! "आज ही!" कहा मैंने! 

"कैसे हैं आप? और शर्मा जी आप?" बोला वो, "बस बढ़िया!" बोले हम दोनों ही! "आओ मेरे साथ!" बोला वो! 

और ले चला अपने संग हमें! पहंचे उसके कक्ष में, वो यहीं रहता है, दिखा नहीं था, तो लगा था कि शायद गाँव गया होगा अपने! "बैठो, मैं आया!" बोला वो, हम बैठ गए। वहीं, निरोगधाम की पुरानी पुस्तिकाएं पड़ी थीं वहां! एक उठायी मैंने, और पृष्ठ पलटने लगा उसके! और फिर रख दी वहीं! कुर्सी पर, आराम से अपनी कमर लगा, बैठ गया! आया रघु अंदर! सामान ले आया था! बाकी सामान एक लड़का दे गया था! लगाया सामान उनसे! भरे गिलास. सलाद और तीखा माल था संग में! और हम हुए शुरू! "बाबा जगत भी यहीं हैं न?" पूछा मैंने, "हाँ, बगल में ही हैं!" बोला वो, "अच्छा! मिलना था उनसे!" कहा मैंने, "आओ फिर!" बोला वो, सामान ढका और


   
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श्रीशः उपदंडक
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हम चले फिर उसके साथ! हम पहुँच गए बाबा जगत के पास! पाँव छुए उनके। उन्होंने गले से लगाया मुझे और शर्मा जी को! और बिठाया वहीं, सुश्री आदि कोई नहीं था वहां! अब हाल चाल पूछा हमारा, हमने बताया, उनसे पूछा तो उन्होंने बताया! और फिर चल पड़ी कुछ पुरानी बातें, कई पुराने नाम आये बीच बीच में! उनकी सलामती के बारे में पता चला आदि आदि! करीब आधा घंटा बैठे हम, बताया उनको कि हम भी वहीं जा रहे हैं, वे बोले कि सुश्री ने बता 

दिया था और ये बहुत अच्छा हुआ कि हम मिल गए! और फिर हम उठे वहां से, कल यहाँ से संग संग ही निकलना था! दिन में कोई ग्यारह बजे! आये रघु के कमरे में, पव्वा ही खींचा और चले वापिस हम अपने कक्ष में! अभी हुड़क शेष थी, मैंने गोपाल का इंतज़ार किया, और कुछ ही देर में आ गए वो! "कहीं गए थे? मैं दो बार आया!" बोले वो, "हाँ, ज़रा बाबा जगत के पास गए थे!" कहा मैंने, "अच्छा! आओ अब!" बोले वो, "चलो!" कहा मैंने, और हम चल पड़े! पहुंचे उनके कक्ष में, एक स्त्री थी वहां, कोई चालीस बरस की, नमस्कार हुई उस से, नाम पता चला उसका, उषा नाम था उसका, गोपाल के संग ही रहा करती थीं वो, बेहद ही शांत और हंसमुख हैं वो! 

उषा उठी और चली बाहर, और हम हुए शुरू! "आपको वो शेष नाथ याद है?" बोली वो, "वो, भोपाल वाला?" कहा मैंने, "हाँ, वही!" बोले वो, "हाँ याद है!" कहा मैंने, "आजकल अपन डेरा चला रहा है!" बोले वो, "सच में?" बोला मैं, "हाँ! जानते तो हो ही! प्रपंची तो था ही वो?" बोले वो, "एक बाबा थे, उनकी पुत्री से ब्याह किया, बाबा के पुत्र तो था नहीं कोई, एक वही लड़की थी, शेष नाथ ने कर लिया ब्याह!" बोले वो, "अच्छा! कहाँ है?" पूछा मैंने, "काशी के पास है!" बोले वो, "अच्छा! मैं कभी नहीं मिल पाया उस से!" कहा मैंने, "पता दे दूंगा! जब जाओ तो मिल लेना।" बोले वो! 

"हाँ ठीक है!" कहा मैंने, "शर्मा जी आप पता लिख लो!" बोले वो, 

और शर्मा जी ने पता लिख लिया उसका! हमने एक पन्चा और खींचा और निकले वहां से फिर! जान ऐसे पहले मिलते गोपाल से हम, ये बता दिया था मैंने, और आ गए अपने कमरे में! 

आये, हाथ-मुंह धोये! और लेट गए, नौ का समय हो चला था, खाना मंगवा लिया था, खाया और सोये आराम से फिर फन्ना के! सुबह हुई, फारिग हुए, चाय-नाश्ता किया और चले बाहर! बाहर चले, तो फूलों की डलिया लाते सुश्री मिली! उस से नमस्कार हुई! बताया उसको कि ग्यारह बजे निकलेंगे हम, तैयार रहें! और चल दिए हम बाहर! एक जानकार हैं, परम सात्विक है, गेंदा लाल जी, मेरा बहुत सम्मान करते हैं, वहीं गए, बेहद प्रेम से मिले, खुश हो गए, उनकी दुकान पर गए थे, फिर क्या था, ये ला और 

वो ला! ये खा और वो खा! पेट भर दिया हमारा! फिर हुए गुस्सा कि बताया क्यों नहीं, वे खुद आ जाते लेने, आदि आदि! कोई दो घंटे रहे उनके साथ हम और फिर विदा ले हमने उनसे! बहुत दूर तक छोड़ने आये हमें! 

और हम फिर वापिस हुए वहाँ से, अपने यहां पहुंचे, सामान बाँधा अपन और एक एक कप चाय भी पी, कोई पौने ग्यारह बजे सुश्री आ गयी! "आओ बैठो!" कहा मैंने, "तैयार हो?" पूछा उसने, "हाँ! तुम?" कहा मैंने, "सभी तैयार हैं!" बोली वो, "ठीक है, चलो, हम आते हैं" कहा मैंने, वो


   
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श्रीशः उपदंडक
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चली गयी, और फिर हम इतने में ही गोपाल से मिले, और विदा ली, नंबर ले लिए गए थे एक दूसरे के, और इस प्रकार कोई ग्यारह बजे, हम चल पड़े ऋषिकेश के लिए! कोई पौने घंटे में पहुँच गए, अब यहां से होती थी यात्रा शुरू तो! सवारी पकड़ी हमने और चल पड़े फिर! अब लगे पूरे ढाई घंटे! आखिर जा पहुंचे एक खूबसूरत सी जगह हम! यहीं है बाबा आदि नाथ का डेरा! 

बहुत बड़ा है, दो बाग़ हैं उसमे! पाराकृतिक रूप से बहुत समृद्ध है! मैं वर्ष में एक या दो बार उनके यहां जाता ही रहता हूँ! हम जा पहुंचे, सीधा बाबा आदि नाथ से मिले। बहुत प्रसन्न हुए वो! अन्य कई लोग भी पहुंच गए थे वहां! और इस तरह हमें दो कक्ष दे दिए गए! एक हमारा, और एक बाबा जगत को! आये कमरे में! सामान रखा! पानी पिया और आराम किया! "यहां तो ठंडक सी है!" बोले शर्मा जी! "हाँ वादियों की तराई है न यहां!" बोला मैं! "अब जीवन काटा जाए तो ऐसी जगह!" बोले वो, "ये बात तो है!" कहा मैंने, तभी कमरे आई सुश्रिता! "आओ सुश्री!" कहा मैंने, "हमारे यहाँ पानी नहीं आ रहा!" बोली वो, "यहाँ से ले लो!" कहा मैंने, तो पानी भर लिया उसने एक जग में, "बैठो तो सही!" कहा मैंने, "अभी सामान रखवा रही हूँ!" बोली वो, "रुको ज़रा!" कहा मैंने, रुकी वो! "तुम आज भी उतनी ही जल्दी में ही रहती हो सुश्री!" कहा मैंने, मुस्कुराई और निकल गयी तीर की भांति बाहर! "हाँ, है तो आज भी जल्दी में ही!" बोले शर्मा जी! "कोई बात नहीं! सभी की अपनी अपनी प्रवृति है!" कहा मैंने, 

और फिर से आ गयी, पानी लिया, और फिर से बाहर! कोई बातचीत नहीं! मैं तो उसको आते-जाते ही देखें। 

उस शाम, मैं और शर्मा जी, घूमने निकले थे बाहर, उसी स्थान में, स्थान, जैसा कि मैंने बताया कि, काफी बड़ा है, दो बड़े बाग हैं वहां, उसमे किस्म किस्म के फलदार वृक्ष हैं, बेलें हैं, शाक सब्जियां वहीं उगाई जाती हैं। मवेशी भी हैं, बाहर से कुछ आये तो अनाज या चावल आदि, सब्जियों की यहाँ कोई कमी नहीं! हम ऐसे ही एक बाग में बैठ गए थे, हरी मुलायम घास थी, आराम से बैठे, अंगोछा बिछाया और लेट गए! शर्मा जी भी लेट गए थे! मौसम में ठंडक थी वहां, हाँ, पक्षी आदि बहुत ही ज़्यादा शोर मचा रहे थे! शायद सूर्य के अवसान का समय हो चला था, इसीलिए, अपने अपने घरौंदे में वापिस आ चले थे। एक छोटी सी हरे से रंग की चिड़िया थी वहां, थी तो बहत छोटी, हाथ के अंगूठे भर की, लेकिन उसका शोर! सीधा कान में तीर मारे! और यहां तो वो सौ से भी अधिक र्थी! एक और था पक्षी वहां, गाला पीला था उसका, आकार में घुड़सल बराबर होगी, लेकिन उसका गायन, ऐसा लम्बा ऐसा लम्बा कि जैसे कोई धीरे धीरे कपड़ा फाड़ रहा हो! "पूरा बाग़ सर पर उठा रखा है इन्होने तो!" बोले शर्मा जी, मैं हंसा! देखा उन पक्षियों को! "हाँ, स्वागत कर रहे हैं हमारा!" कहा मैंने, "अब हो गया स्वागत! अब तो चुप हो जाओ!" बोले हाथ जोड़ते हुए वो! "ये सूर्य के पूर्ण अवसान होने पर ही चुप होंगे!" बोला मैं, "तो हम ही मैदान छोड़ देते हैं चलो!" बोले वो, और उठे! "चलो!" कहा मैंने, 

और हम जगह ढूंढते हए,आये एक जगह, यहां केले के पेड़ लगे थे, "ये जगह ठीक है' बोले वो, "हाँ, यहीं लेटते हैं!" कहा मैंने, 


   
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श्रीशः उपदंडक
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और हम अंगोछा बिछा, वही लेट गए! 

कम से कम यहाँ उनका कानफोडू गायन तो नहीं था! "अब परसों है आयोजन!" कहा मैंने, "हाँ, उसके बाद सीधा वापिस ही तो चलना है?" पूछा उन्होंने, "हाँ, और क्या करना है यहां!" बोला मैं! "दो दिन और सही!" बोले वो, "तब तक दूध-मलाई खाओ!" कहा मैंने, "हाँ! ये बढ़िया है!" बोले वो, 

खूब बातें की हमने! कम से कम डेढ़ घंटे लेटे रहे, और फिर हम चले वापिस, सुस्ती उतर गयी थी, और अब वैसे भी हुड़क का समय आ चला था! आ गए कमरे में वापिस, पानी पिया और मैं बैठा कुर्सी पर, एक फ़ोन आया, तो बात की उनसे, फिर शर्मा जी का फ़ोन बजा, उन्होंने भी बात की अपने किसी जानकार से! और फिर रख दिया फ़ोन, "मैं आता हूँ, सामान-पानी आदि का प्रबंध करने को कहता हूँ!" बोले वो, "हाँ, ठीक है" कहा मैंने, वे गए, तो मैं बैग से निकालने लगा बोतल, निकले और रख दी पलंग पर, अखबार बिछा दिया था मैंने, और बैठ गया था, और तभी सुश्री का प्रवेश हुआ! "आओ!" कहा मैंने, 

आ गयी, सामने कुर्सी पर बैठ गयी! "यहाँ से सीधा वहीं जाओगे या कहीं और?" पूछा उसने, "वापिस वहीं जाउंगी" बोली वो, 'अच्छा, हम भी" बोला मैं, "और वो आपकी शोभना जी कैसी हैं?" पूछा उसने! एक अजीब ही लहजे से, नीचे वाले होंठ को दांतों से दबाते हुए! कुछ शरार था उसके सवाल में! "शोभना! बहुत बढ़िया है, अभी पिछले महीने ही मिला था उस से!" कहा मैंने भी, रौबदार लहजे 

"सुन कर बढ़िया लगा!" बोली वो, 

"शुक्रिया!" मैंने जानबूझकर कहा शुक्रिया! फिर चुप वो, सोच रही थी कौन सा सवाल पेश करूँ अब! "तुम मिली उस से?" पूछा मैंने, 'नही, एक बार बस, कोई साल हो गया!" बोली वो, "तो आज कैसे याद आ गयी शोभना की?" पूछा मैंने, "वो हैं ही इतनी अच्छी!" बोली, और हंसी, हंसी झूठी हंसी! 

और आ गए शर्मा जी अंदर! कुछ सामान ले आये थे और साथ में सहायक भी आया था, सुश्री ने नमस्कार की शर्मा जी से, उन्होंने भी! सामान रख दिया गया, और सुश्री भी चली गयी! 

और हुए हम शुरू फिर! खाया-पीया इत्मीनान से और रात को आराम से पाँव फैला सो गए! अगले दिन, दोपहर की बात है, मैं और शर्मा जी उसी बाग में आराम कर रहे थे, कुछ और लोग भी बैठे थे वहां, अचानक मेरी निगाह एक व्यक्ति पर पड़ी, उसको जानता था मैं, बखूबी! "सौरन?" मैं ज़ोर से बोला, पहले तो नहीं सुना उनसे, जब दोबार से आवाज़ दी, तो मुझे ढूँढा उसने, मैंने हाथ हिलाया तो देखा, उठा और मुस्कुराता हुआ आया हमारे पास! बैठा! और मेरे हाथ पकड़े! शर्मा जी की भी हाथ पकड़े! "कैसे हैं आप!" बोला वो, "सब बढ़िया! तू सुना?" कहा मैंने, "बस कृपा है जी!" बोला वो, "किसके साथ आया?" पूछा मैंने, "बाबा तेवत के संग!" बोला वो, "अच्छा! कैसे हैं बाबा तेवत?" पूछा मैंने, "बढ़िया! लेकिन आजकल खोजबीन में लगे हैं!" बोला वो, "कैसी खोजबीन?" पूछा मैंने, 


   
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श्रीशः उपदंडक
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"आपने कभी शुभागिनि का नाम सुना है?" बोला, "वो यक्षिणी?" पूछा मैंने, "हाँ, सुना है, शुभंगा? वही न?" कहा मैंने, "हाँ हाँ वही!" बोला वो! "उसकी खोजबीन?" पूछा मैंने, "नहीं! नहीं!" बोला वो! "फिर?" बोला मैं, "शुभंगा के संग एक उपिका होती है" बोला वो, "तू तो भाई आगे निकल आया!" बोले शर्मा जी! शर्मा जी के घुटनों पर हाथ रखा उसने, हंसा! "हाँ बोल?" कहा मैंने, "वो उपिका होती है, कामेषी!" बोला वो, "हाँ, तो?" कहा मैंने, "बाबा को पता चला कि कामेषी का एक स्थान है यहां!" बोला वो, "यहां?" पूछा मैंने, "हाँ, यहीं है, कोई साठ किलोमीटर दूर!" बोला वो, "तो?" पूछा मैंने, "वो स्थान नहीं मिल रहा!" बोला वो, "अबे बुद्धि खराब है क्या? अभी बोला यहीं है साठ किलोमीटर दूर, अब कह रहा है, स्थान नहीं मिल रहा!" बोले शर्मा जी! हंसा वो, शर्मा जी के पाँव छूते हुए! "एक स्त्री से मिलवाता हूँ आपको, रुको!" बोला वो आसपास देखते हुए! "किसलिए?" पूछा मैंने, "वो मर के आई है वापिस!" बोला वो, मैं हुआ खड़ा! 

क्या सुना? कहीं भांग तो नहीं खा ली इसने? "क्या कहा?" बोला मैं, "वो मर के वापिस आ गयी!" बोला वो, "पागल है क्या?" बोले शर्मा जी! "कसम खा रहा हूँ!" बोला वो, "कैसे मर के आई वापिस?" पूछा मैंने, "वो बता देगी, मैं लाता हूँ!" बोला वो, उठा और अंगोछा डाल कंधे पर, चला एक तरफ! उसी औरत को बुलाने! "क्या कह रहा है ये?" बोले शर्मा जी, "पता नहीं, मर के वापसी आई!" बोला मैं, "कहीं बेहोशी को तो नहीं कह रहा ये?" बोले वो! "आने दो पहले, फिर देखता हूँ!" कहा मैंने, वो जब तक आता, मैंने तो उत्सुकता में ज़मीन की घास ही उखाड़ दी थी! कैसे मर के वापिस आई? 

और कामेषी से क्या लेना देना इसका? और वो आता दिखाई दिया मुझे, एक स्त्री के साथ, स्त्री कोई तीस-पैतीस बरस की रही होगी! आ गया, उस स्त्री ने नमस्कार की, नाम अरुणा था उसका, रूप-रंग में बहुत सुंदर थी, कद-काठी अच्छी थी उसकी! देह भी कुल मिलाकर, अच्छी ही थी, जैसे देखभाल रखती हो वो! 

"बैठ जाओ!" कहा मैंने, वो अरुणा बैठ गयी नीचे, सीधी-सादी सी ही लग रही थी, मनुष्य का चेहरा सब बता दिया करता है, मैं भी जान गया था कि अरुणा बेहद ही शांत स्वभाव वाली और सुलझी हुई स्त्री है, उसके नमस्कार करने के तारीक से ही मैं जान गया था ये! 

"ये है अरुणा!" बोला, सोरन! "हाँ" कहा मैंने, "अरुणा, ज़रा बताओ क्या हुआ था तुम्हारे साथ?" बोला सोरन, 

अभी संकोच में थी अरुणा, होंठ कभी सिकुड़ते और कभी खुलते! "संकोच न करो अरुणा! बताओ!" कहा मैंने, 

नहीं देखा ऊपर उसने! "अरे ये हमारे ही लोग हैं, कहीं बाहर के नहीं! और बाबा कुछ न कहेंगे तुझे!" बोला सोरन! "हाँ अरुणा, संकोच न करो!" कहा मैंने, ऊपर देखा उसने, मुझे, शर्मा जी को और फिर गरदन घुमायी, सोरन को देखा! "बताओ?" बोला सोरन! मित्रगण! 

अब मुझे अरुणा ने बताना आरम्भ किया! जैसे जैसे उसकी कहानी आगे बढ़ी, मेरे तो कान और मुंह खुलते ही चले गए। शर्मा जी, वो हैरान! वो झूठ नहीं बोल रही थी! एक शब्द भी नहीं!


   
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श्रीशः उपदंडक
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उसने जो कुछ बताया, उसको मैं अपने शब्दों में ही लिख रहा हूँ, आप पढ़िए! पहले ज़रा उसके बारे में-- अरुणा की उम इकत्तीस बरस है, उसने अभी तक ब्याह नहीं किया था, रहने वाली तो देरादून के समीप की है, बाबा तेवत के पास कोई चार बरस पहले आई थी, बाबा तेवत और अरुणा की माँ, दूर के रिश्तेदार हैं, इसीलिए अरुणा की माँ ले आई थी अरुणा को बाबा के सरंक्षण में, अरुणा का कोई भाई नहीं था, पिता की मृत्यु हो चुकी थी, अब बाबा तेवत ही उसके पिता और सरंक्षणकर्ता थे! बाबा तेवत ने अरुणा को अपने डेरे की बागडोर दे रखी थी, महिला समुदाय की, इसी कारण से , उसके ओहदे से, सभी मान किया करते थे उसका, सोरन, विश्वासपात्र है बाबा तेवत का, अरुणा को छोटी बहन मानता है, और अरुणा के दुःख सुख में साझी रहता है! बाबा तेवत का सरंक्षण सदैव संग रहता है अरुणा के! अब वो कहानी--- जिस दिन मैं पहली बार मिला था अरुणा से, उस से कोई वर्ष भर पहले, अरुणा तीव्र-ज्वर से 

ग्रसित हुई, उसका खूब इलाज करवाया गया, आयुर्वेदिक भी और अंग्रेजी भी, हालत नहीं सुधरी उसकी, बल्कि और बिगड़ती गयी, गोल-मटोल अरुणा पंद्रह दिनों में ही बीस किलो वजन खो बैठी, बाबा ने ऊपरी इलाज किया, लेकिन कोई बाधा न निकली, रोग पकड़ा नहीं जा सका चिकित्सकों द्वारा, और जवाब दे दिया, अरुणा तीन दिन कोमा में रही, और चौथे दिन उसको चिकित्सकों द्वारा मृत घोषित कर दिया, सभी सन्न रह गए, अरुणा की मौत ने बाबा तेवत 

और अरुणा की माँ को भी तोड़ डाला, लगा मौत ने खूब पीछे किया बेचारी का, और लील ही गयी! छह घंटे वो बाबा के डेरे की भूमि पर लेटी रही, अपने अंतिम संस्कार का इंतज़ार करती करती! और जिस वक़्त बाबा तेवत की आँखों से आंसू निकले, सहसा ही, अरुणा ने नेत्र खोल दिए! उसको रस्सियों से बाँध दिया गया था, अर्थी से, वो कसमसाई! सारे हैरान और बाबा ने तभी की तभी सारी रस्सियाँ तोड़ डाली! उठ गयी अरुणा! जा लगी गले बाबा तेवत के! अपनी माँ के, 

और सोरन के! ये तो चमत्कार हो गया था। लेकिन बाबा के मन में एक खटका था! कहीं किसी उपद्रवी प्रेत आदि ने प्रवेश न किया हो! बस, ले गए संग अरुणा को, क्रिया-स्थल, और एक घंटे की जांच के बाद, अरुणा, अरुणा ही निकली! न उसकी बुखार था, और न ही कोई पीड़ा! हाँ, बोलना कम हो गया था! और जब कोई पंद्रह-बीस दिन बीते तो उसका शरीर भरने लगा था, लेकिन ये खबर, डेरे के अंदर तक ही सीमित रही! नहीं तो तांता लग जाता जानने वालों का, अन्य लोगों का! और तब बाबा ने उस अरुणा से बात की! अरुणा ने उन्हें बताया था कि जब वो आकाश में विचरण कर रही थी, रोते रोते, चिल्ला रही थी वो, वापिस जाना चाहती थी, लेकिन कौन सुनता उसकी! कोई नहीं था! कोई भी नहीं! वो उस समय पहाड़ों पर से गुजर रही थी, हाँ, कुछ लोग भी ऐसे ही रो-बिलख रहे थे! अरुणा ने उन सभी को देखा था! और जब अरुणा का कंठ 

अवरुद्ध हुआ, तो उसका हाथ किसी ने पकड़ा! अरुणा ने देखा, वो एक स्त्री थी, बहुत ही सुंदर 

और मृदु स्त्री! अरुणा रो पड़ी, शब्द बाहर नहीं निकले उसके! बस मंद की गुहार लगाती रही कि उसको वापिस जाना है! उस स्त्री ने चुप करवाया उसे, और उसको नीचे उतार लायी, अरुणा


   
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श्रीशः उपदंडक
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जहां उतारी गयी थी, वो कोई उपवन सा था, एक मंदिर था वहाँ! पुराना सा! और कोई नहीं! "कौन है तू?" उस स्त्री ने पूछा, 

अब अरुणा ने सब दुखड़ा सुनाया अपना! "क्या चाहती है?" पूछा उस स्त्री ने! "वापिस जाना, मुझे याद आ रही है, बाबा की, माँ की, मुझे वापिस जाना है" बोली रोते रोते! "वापिस जायेगी?" पूछा उस स्त्री ने, "हाँ!" कहते हुए रो पड़ी, गिर पड़ी उस स्त्री के पाँव! "अच्छा उठ!" बोली वो, उठ गयी अरुणा! "जा! वापिस जा!" बोली उसके सर पर हाथ रखते हुए! "आप कौन हो?" रोते रोते पूछा अरुणा ने! "मैं, कुपिका! कामेषी!" बोला बस इतना! पाँव पड़ने लगी अरुणा उसके! "जा, अब विलम्ब नहीं!" कहा और, अरुणा ने वहां अपनी देह में नेत्र खोल दिए! 

तो ये थी वो कहानी! इस कहानी से मैं जहां अचम्भित हुआ, वहीं उत्सुकता ने मार डंक सर में! बुखार सा चढ़ आया मुझे तो! शर्मा जी, वो उस अरुणा को देखें! मैं तो जैसे सकते में पहुंच गया था! जीवनदान दे दिया कामेषी ने उसको! आंसुओं से द्रवित हो उठी थी कामेषी उसके! जिसको जीवनदान मिला था, वो मेरे सामने ही बैठी थी। 

आश्चर्य ही नहीं, अकल्पनीय! "कैसा रूप था उस कामेषी का?" पूछा मैंने, "बहुत सुंदर! बहुत सुंदर!" बोली वो, 

"वस्त्र कैसे थे?" पूछा मैंने, "आभूषण से लदे हुए!" बोली वो, "वस्त्रों का रंग कैसा था?" पूछा मैंने, "काला!" बोली वो, "आयु में कितनी होगी?" पूछा मैंने, "कोई अठारह की!" बोली वो, "आवाज़ कैसी थी?" पूछा मैंने, "मृदु!" बोली वो! "और स्वभाव?" पूछा मैंने, "एक माँ जैसा!" बोली वो! 

माँ जैसा दयालु! जैसे माँ पिघल जाती है, ऐसा! "कद कैसा था?" पूछा मैंने, "बेहद ऊंचा" बोली वो, "और बदन कैसा?" पूछा मैंने, "भरा हुआ" बोली वो, "उपिका कहा था उसने?" पूछा मैंने, "हाँ, उपिका कामेषी!" बोली वो, "जहां तुम्हें उतारा गया था, वो स्थान कैसा था?" पूछा मैंने, "उपवन सा!" बोली वो, "क्या वृक्ष आदि थे?" पूछा मैंने, "हाँ, बहुत से, वहां चार बड़े से पेड़ थे, उनके बीच उतारा गया था!" बोली वो, "कैसे या कौन से वृक्ष थे?" पूछा मैंने, "ये नहीं पता" बोली वो, "कोई फल लगा था?" पूछा मैंने, "हाँ!" बोली वो, 

"कौन सा?" पूछा मैंने, "पता नहीं" बोली वो, "आकार कैसा था?" पूछा मैंने, उसने हाथ की उँगलियों से बना कर बताया! कोई ढाई इंच चौड़ा और गोल! "रंग कैसा था?" पूछा मैंने, "पीला लाल सा" बोली वो, पीला लाल? ये कौन सा फल है? इस आकार में? अंजीर? नहीं हो सकता! अंजीर तो बड़ा होता है! अरे हाँ! गूलर! पीला, कच्चा! लाल, पका हुआ! बड़ा पेड़! चार पेड़! गूलर के! 

अरुणा ने जैसे जैसे अपनी कहानी बतायी थी, वैसे वैसे उत्सुकता धूल से उठ, पहाड़ बन गयी थी! क्या कामेषी ऐसा कर सकती है? है इतना सामर्थ्य? वैसे उसका सामर्थ्य तो प्रत्येक साधक को विदित है, पर ऐसा भी? अब मैं यहां थोड़ा उलझ गया था! और जो कुछ बताया था अरुणा ने, उसमे एक शब्द भी असत्य हो, ऐसा सम्भव नहीं था, उसके प्रत्येक भाव अपने आप में पूर्ण थे, कोई दोहरापन नहीं था, मुझे विवश होना ही पड़ा उसकी कहानी पर यकीन करने पर!


   
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श्रीशः उपदंडक
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लेकिन अब सबसे बड़ा पहलू जो उभरा था, वो ये की वो स्थान इसी धरा पर कहीं है, लेकिन कहाँ? और 

बाबा तेवत को कैसे पता कि वो स्थान यहीं आसपास है? कैसे पता लगाया? क्या भौगौलिक जांच की है उन्होंने? ये तो बड़ा ही क्लिष्ट सा प्रतीत होता है। कोई अन्य शक्ति भी इसका पता नहीं बता सकती, चूंकि ये शुभंगा के मान में अपमान करने सादृश्य होगा, तो कैसे पता लगाया? 

और दूसरा ये भी, कि बाबा तेवत के मन में है क्या? क्या कामेषी को सिद्ध करना चाहते हैं वो? कामेषी का उल्लेख बहुत ही कम हुआ है, बस वहीं, जहां शुभंगा का उल्लेख होता है! और कहीं नहीं! तो मेरा मस्तिष्क भी अब झूले खाने लगा था! मैं भी जैसे बाबा तेवत के अनुसंधान में घुस गया था! न चाहते हुए भी! "अच्छा अरुणा, ये बताओ, आसपास कोई नदी या नाला आदि भी था?" पूछा मैंने, "हाँ, जब मैं आकाश में थी, और मेरा हाथ पकड़ने से पहले, मैंने एक बड़ी सी नदी की एक शाखा को देखा था, वो शाखा कट गयी थी उस बड़ी नदी से, और घूम कर, बाद में एक और शाखा के संग मिलकर, बड़ी नदी से मिल गयी थी!" बोली अरुणा! बड़ी नदी, अर्थात गंगा जी! और शाखाएं तो कई बन जाती हैं। अब कौन सी शाखा उसने देखी थी, ये ढूंढ पाना मुश्किल था! इसके लिए तो हैलीकॉप्टर चाहिए था। ताकि मुआयना हो सके, 

और ये अपने बूते से बाहर की बात थी! "कुछ और निशानी?" पूछा मैंने, उसने याद किया, ज़ोर लगाया दिमाग पर, "हाँ, उससे कहीं दूर, सामने एक पहाड़ था, पहाड़ पर, एक सफेद से रंग का मंदिर था, उस मंदिर पर तीन झंडे लगे थे!" बोली वो, पहाड़! पहाड़ पर मंदिर! सफेद रंग का। तीन झंडे! अच्छा! लेकिन ये ढूंढ पाना भी मुश्किल था! ऐसे तो बहुत मंदिर होंगे वहां! खैर, देखते हैं! अब बाबा तेवत से ही बात करनी होगी! मंशा जाननी होगी उनकी! और वैसे भी अब मेरी खोपड़ी में खुजाल तो उठ ही चुकी थी! "अच्छा अरुणा! धन्यवाद! इस नयी और रहस्यपूर्ण जानकारी के लिए!" कहा मैंने, तो वो उठी, अपना गिरा हुआ रुमाल उठाया, हाथ जोड़कर नमस्कार किया और चली गयी! "सुना आपने?" बोला सोरन! 

"हाँ!" कहा मैंने, "झूठ नहीं बोला उसने!" बोला वो, "हाँ, ये तो देख लिया!" कहा मैंने, "बस, अब समझे बाबा की परेशानी?" बोला वो, "हां, लेकिन बाबा तेवत चाहते क्या हैं?" पूछा मैंने, "वो स्थान ढूंढना!" बोला वो, "वो किसलिए?" कहा मैंने, "कामेषी का सिद्ध स्थान है वो, इसीलिए तो वहीं ले गयी थी, यदि वो स्थान मिल जाए, तो कामेषी को सिद्ध करना सरल हो जाएगा!" बोला वो, "ये बात तो तेरी सत्य है!" कहा मैंने, "तो यही चाहते हैं बाबा!" बोला वो, "लेकिन सोरन, उस से लाभ?" पूछा मैंने, "अब ये तो बाबा ही जानें!" बोला वो, हाँ, बात सच थी, बाबा ही जानें ये तो! "बाबा से कब मिलवाएगा?" पूछा मैंने, "अभी तो गए हुए हैं आ जाएंगे कोई दो घंटे के बाद, मिलवा देता हूँ!" कहा उसने, "हाँ, ठीक है!" कहा मैंने, उसने नमस्कार की, और चला गया अपने जानकारों में! "क्या अजब-गज़ब है!" बोले शर्मा जी! "हाँ ये तो है ही!" कहा मैंने, "मैंने सुने तो है ऐसे किस्से, लेकिन देखा आज पहली बार किसी को!" बोले वो, "हाँ, मैं भी मिला आज पहली ही बार!" कहा मैंने, "ऐसा कैसे होता है?" बोले वो, "ये भी एक रहस्य ही है,


   
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श्रीशः उपदंडक
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लेकिन यहां सबसे अहम ये, कि कामेषी ने उसका हाथ पकड़ा, न केवल पकड़ा, उतारा! अपने स्थान पर ले गयी, पूरी बात सुनी, और वापिस भेज दिया! ये है रहस्य!" 

कहा मैंने, "हाँ! सही कहा!" बोले वो! "अब इस मामले ने मेरे सर में गूमड़ उठा दिया है!" कहा मैंने, "बात ही ऐसी है!" बोले वो, "क्या लगता है, अरुणा झूठ बोल रही है?" पूछा मैंने, "क्यों बोलेगी, मुझे तो लगा नहीं?" बोले वो, "न मुझे ही लगा!" कहा मैंने, 

और तभी मटकती हुई, इठलाती हुई वो सुश्री आते दिखी! जहां से गुजरती तो काम-लोलुप नज़रें गड़ा देते उसके बदन पर! आ रही थी, शायद हमारी ही तरफ! और आ गयी! हुई खड़ी वहीं! "बैठो!" कहा मैंने, 

बैठ गयी! रुमाल बिछा लिया था, पांवों में पायजेब थीं, पतली पतली! बहुत सुंदर लग रहे थे उसके पाँव! ऐड़ी मांसल और गोलाई लिए हुए थी, उँगलियों के नीचे का भाग भी मांसल था, गुलाबी और पाँव के मध्य का स्थान भिंचा हुआ था! अंगूठा बहुत सुंदर, और अपनी सहचरियों के संग, अर्थात उँगलियों के संग, एक समाकार में स्थित था! अंगूठे और उँगलियों में मध्य कोई स्थान नहीं था, सभी चिपके हुए थे आपसे में, अंगूठा, सभी उँगलियों से बड़ा था और सभी उंगलियां एक समानुपात में अवतल होते चले गए थे! ऐसी स्त्रियां बहुत भाग्यवान हुआ करती हैं! जिस से ब्याह करती हैं, वो पुरुष अपने शीर्ष पर पहुँच जाता है उन्नति के! यदि ऊँगली, 

अंगूठे के साथ वाली अंगूठे से बड़ी हो, तो वो स्त्री वाचाल हुआ करती है, यदि सभी उँगलियों के मध्य रिक्त स्थान हो, तो वो दुश्चरित्रा हुआ करती है! ऐड़ी पर मांस न हो, तो संतानहीन होती हैं, अंगूठे और उँगलियों के नीचे का भाग मांसल न हो, तो सर्वदा रोगी रहा करती हैं। अंगूठे की अस्थि दीखे, तो कलहकारी होती हैं! ऐसे बहुत से शारीरिक चिन्ह हैं, जो सबकुछ बता देते हैं। स्त्री के निचले होंठ के नीचे गड्ढा हो, तो परम-भाग्यशाली होती हैं। संतान कुल-दीपक होती हैं उसकी! भौहें यदि भारी हों, तो दारिद्र्य का नाश करती हैं! यदि हल्की हों, तो काम लोलुप हुआ करती हैं, पर-पुरुषगमन से कोई गुरेज़ नहीं है उन्हें! भौंहों के मध्य रिक्त स्थान नसिका से अधिक हो, तो कुल-नाशिनी होती हैं, नसिका के समान और कम हो, तो पुरुष के लिए 

सौभाग्यशाली और कुल का नाम रौशन करने वाली होती हैं। ग्रीवा के मध्य गड्ढा हो, तो मन और वचन से पाप करने वाली, गड्ढा न हो कर, मांस उठा हुआ हो तो, सतित्व-पूर्ण होती हैं! कान यदि आगे को हों, तो दुश्चरित्रा होती हैं, पीछे हों, तो बुद्धिमान होती हैं! कान लम्बे हो, तो कूटनीतिज्ञ होती हैं! कान छोटे हों, तो सर्वनाश करने वाली होती हैं! कान का नीचे का भाग, जो लटकता रहता है, वो मांसल हो, तो काम सतत बहता है उनमे! मांसल न हो, तो काम के प्रति शीत-प्रकृति वाली होती हैं! आँखें यदि बड़ी हों, तो भाग्यवान होती हैं, छोटी हों, तो पति का नाश करती हैं। केश एकदम काले हों, तो कलहकारिणी होती हैं! केशों में मांग अधिक बड़ी हो, तो पति को शीर्ष पर ले जाने वाली, छोटी हो, तो पति के कुल का नाश करती हैं। होंठ अवलम्ब हों तो कामुक, उत्तल हो तो काम-रहित, सन्तानरहित होती हैं! नसिका तीखी और सुतवां हो,


   
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श्रीशः उपदंडक
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तो साक्षात लक्ष्मी स्वरुप होती हैं! मोती, या छोटी हों तो संतानहीन, गर्भ के रोगों से पीड़ित रहने वाली और पति का नाश करने वाली होती हैं। ऐसे बहुत से सूचक हैं! ये शारीरिक शास्त्र है, जो कदापि असत्य नहीं कहता! तो सुश्री के पाँव बहुत सुंदर हैं! "कहाँ से आ रही हो?" पूछा मैंने, "अपने कमरे से!" बोली वो, "कहाँ जा रही थीं?" पूछा मैंने, "यहीं आ रही थी!" बोली वो, "और सुनाओ!" कहा मैंने, "बस ठीक!" बोली वो, "पिता जी कैसे हैं?" पोछा मैंने, "ठीक हैं!" बोली वो! साड़ी पहनी थी उसने गुलाबी रंग की! और जो ब्लाउज पहना था, उसमे चांदी के रंग जैसा गोटा लगा था! सूरज की रौशनी पड़ती तो झिलमिला जाता था वो गोटा! "आज तो बहुत सुंदर लग रही हो!" कहा मैंने, "अच्छा?" बोली वो, 

"हाँ!" कहा मैंने, "शोभना से भी?"बोली तपाक से! मैं हंस पड़ा तभी! हंसी निकल गयी! "अब शोभना कहाँ से आ गयी बीच में?" पूछा मैंने, "उस से सुंदर तो कोई है ही नहीं! है न?" बोली वो, "हाँ ये तो है!" कहा मैंने, "तो ऐसा मत कहो" बोली वो, "नहीं कहता!" बोला मैं, बात क्यों बढ़ायी जाए आगे! "और सुनाओ!" कहा मैंने, "आज गर्मी है न?" बोली वो, पल्लू से हवा करते हुए! "हाँ, है तो सही!" कहा मैंने, "कमरे में तो जान निकल रही है!" बोली वो, "हम तभी तो लेटे हैं यहां!" कहा मैंने, "आपको देखा तो मैं भी चली आई!" बोली वो, "एहसान किया!" कहा मैंने, तो मेरी टांग पर चुकटी काटी उसने! मैं हंस पड़ा! नखरा तो हमेशा नाक पर ही रहता है उसके! "निवि के बारे में बताओ!" कहा मैंने, "ठीक है वो!" बोली वो, "साथ ले आती उसे?" बोला मैं, "मना किया उसने!" बोली वो, "क्यों?" पूछा मैंने, "पता नहीं!" बोली वो! 

"चलो कोई बात नहीं! दिल्ली कब आ रही हो?" पूछा मैंने! "जब बुलाओगे!" बोली वो, "अरे फिर तो संग ही चलो!" कहा मैंने, "ले जाओगे?"बोली वो, "क्यों नहीं?" पूछा मैंने, "पहले शोभना से पूछना तो नहीं पड़ेगा?" बोली, गुस्से से! मैं फिर से हंस पड़ा! बात ही ऐसी की थी! 

"चलो एक काम करते हैं!" कहा मैंने, "क्या?"बोली वो, "शोभना से मिलने ही चलते हैं सबसे पहले!" कहा मैंने, "मुझे नहीं जाना!" बोली वो! "क्यों?" बोला मैं, "आप ही मिलो!" बोली वो! "ये नखरा कभी उतरेगा या नहीं?" पूछा मैंने, "चढ़ाया किसने?" बोली वो, "मैंने तो नहीं, कम से कम!" बोला मैं, "झूठ न बोलो!" बोली वो, "सुनो, तुम ही उठ के भाग गयी थीं! याद है?" बोला मैं, "मुझे अच्छा नहीं लगा था" बोली वो, "और जब मैंने तुमसे बात करने की कोशिश की, तो तुमने बात ही न की! याद होगा!" कहा मैंने, "मुझे गुस्सा चढ़ा था!" बोली वो, "तो मुझसे कहती तुम?" कहा मैंने, "मुझे अपमान लगा मेरा!" बोली वो, "चलो अब छोड़ो, अरसा बीत गया! जाने दो अब!" कहा मैंने, 

काटने वाली नज़र से देखा उसने मुझे! जैसे अभी गुस्सा भड़कने ही वाला है! "अब जाने दो सुश्री! अब इस विषय में कोई बात नहीं!" कहा मैंने, 

चुप! नथुने लाल! "सुना? अब जाने दो!" कहा मैंने, 

और उसके घुटने पर हाथ रखा मैंने अपना, थोड़ा दबाया! उसको देखा, "अब भूल जाओ!" कहा मैंने, तब नथुने सामान्य हुए! गुस्सा शांत हुआ उसका! आँखें अब सामान्य हुईं। "चलोगी मेरे साथ?" पूछा मैंने, "कहाँ?" पूछा उसने, "दिल्ली?" बोला मैं, "पता नहीं!" बोली वो, "तो तैयार


   
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श्रीशः उपदंडक
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रहना! मिल गया उत्तर! कम से कम ना तो नहीं कहा!" कहा मैंने, शरारत सी खेल गयी उसकी आँखों में! जानता था, सिर्फ दिखाने का ही गुस्सा था! इराने का ही! "ये छल्ला बड़ा ही खूबसूरत है तुम्हारी नाक में!" कहा मैंने, दरअसल बात पलटी मैंने, थोड़ा माहौल बदलने की कोशिश की! छल्ला छुते हुए कहा था मैंने "अच्छा लगा?' बोली वो, "हाँ, नाक और सुंदर हो गयी!" कहा मैंने, "अच्छा लगा तो ठीक है।" बोली वो, 

और ठीक करने लगी वो छल्ला अपना! ठीक किया, मुझे ही देखते देखते! "मैं आया अभी" बोले शर्मा जी, "कहाँ?" पूछा मैंने, "आता हूँ" बोले वो, और चल दिए कमरे की तरफ, "सुश्री! शोभना ने कभी गलत नहीं कहा तुम्हें, बल्कि तुम्हारी बातें सुन, हंसती ही रहती है! इसलिए कभी ऐसी फब्तियां नहीं कसा करो!" कहा मैंने, कुछ ना बोली, बस देखती रही मुझे! 

"तुम क्या सोचती हो? तुम्हें भूल गया था मैं? मैं पूछता रहता था तुम्हारे बारे में, योगेन्द्र से, हाँ, बात नहीं की, क्योंकि तुमने मना ही करना था मुझे!" कहा मैंने, "याद किया! हुंह! झूठ!" बोली वो, "अब मानना ही तो मानो, नहीं तो मैं तो अर्जी देने से रहा!" कहा मैंने, मेरा हाथ हटा दिया अपने घुटने से तभी के तभी! गुस्सा आ गया था फिर से! "अच्छा सुनो? कल रात बाहर नहीं निकलना! कमरे में ही रहना, यहां मुझे लोग सही नहीं लग रहे, वो वहां देखो, जहां साध्वियां बैठी हैं, कई भेड़ियों की तरह से जमघट लगाये हुए हैं ये लोग!" कहा मैंने, एक ओर इशारा करते हुए, जहां ऐसा ही हो रहा था! "अपने साथ नहीं रख सकते?" बोली वो, अब ऐसे उत्तर की तो मैंने आशा की ही नहीं थी! सांप लपेटना सा पड़ जाने वाला था अगले एक दो वाक्यों में! "रह लगी मेरे साथ?" पूछा मैंने, "क्यों नहीं? रख लोगे?" बोली वो, "हाँ, रख लूँगा! ठीक है!" कहा मैंने, 

और लपेट लिया सांप गले में! अब बजाओ बीन! फिर खड़ी हुई वो, झाड़ा अपने आपको, उठाया रुमाल "कहाँ चली?" पूछा मैंने, "बाद में मिलती हूँ" बोली वो, "ठीक है" कहा मैंने, वो गयी, और शर्मा जी आते दिखे! मैं देख रहा था उस सुश्री को, उसको चलते हुए, अब सच कहूँ, तो उसकी चाल ही ऐसी मादक है, कि नज़रें हट जाएँ तो समझो किसी कीड़े ने काट लिया! और आसपास खड़े वो भेड़िये, लार टपकाएं! एक ने तो फूल मारा उसके ऊपर, वो चलती रही! और मैं खड़ा हुआ! चला उसी तरफ, शर्मा जी की बाजू पकड़ी, और ले चला उनको उस फूल मारने वाले के तरफ! वो दो थे, सीकची पहलवान! मैंने जाते ही, उसके बाल पकड़ लिए! "हां ओये? अपनी बहन पर फूल फेंका था तूने?" बोला मैं, 

इर गया था! डर के मारे कहीं गीला ही ना हो जाता! "कि..कि...किसको?" बोला वो, "अभी, वो देख, पड़ा है ना फूल? फेंका ना तूने?" कहा मैंने, फूल दिखाते हुए! "गलती हो गयी, माफ़ कर दो!" बोला टूट टूट कर! अब तक शर्मा जी सब समझ चुके थे! पकड़ा उसका गिरेबान, और दिया एक कस के झापड़! एक दो, तीन, चार! और दी लात दबा कर साले को! वो जो दूसरा था, भाग लिया डर के! "फूल फेंकता है! तेरी माँ की ** हरामज़ादे!" बोले वो, 

और फिर से झापड़! हो गया बखेड़ा! सब देखें, लेकिन बोले कोई नहीं! "हाँ रे? अब फेंकेगा फूल?" बोले शर्मा जी! वो नहीं नहीं करें! हाथ जोड़े! गुहार लगाये! 


   
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श्रीशः उपदंडक
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और तब छोड़ा उसे उन्होंने! "साले कुत्ते, नज़र आ गया तो फाड़ दूंगा बीच में से! निकल यहां से?" बोले वो, 

और वो चला मुंह रगड़ता हुआ! पीछे भी ना देखे! अच्छी-खासी खिदमत कर दी थी शर्मा जी ने उसकी! जब लोगबाग आये और कारण पूछा तो जानकार, सभी ने गालियां दी उस दिलफेंक को! अब नहीं आना था नज़र! कम से कम हमारे सामने तो नहीं! "आओ!" कहा मैंने, 

और हम चले वहीं, जहां हमारे अंगोछे पड़े थे, आये और बैठे, जूते खोले! "फूल फेंका था?" पूछा शर्मा जी ने, "हाँ, और फब्तियां भी कस रहा था!" कहा मैंने, "अब हो गयी ना सिकाई, अब नहीं करेगा!" बोले वो, "हाँ, फूल का जवाब सिकाई से मिला हरामज़ादे को!" कहा मैंने, सोरन भी आ गया था, मामला समझ ही गया था, आया और बैठा, "सही किया शर्मा जी आपने!" बोला सोरन! "साला फूल फेंकता है।" बोले वो, 

"सही रगड़ा साले को!" बोला सोरन! "है कौन ये रांड का जंवाई?" पूछा शर्मा जी ने, "पता नहीं कौन है साला!" बोला सोरन, "चाय पियोगे?" बॉल सोरन. "पिला दे यार!" बोले शर्मा जी, "लाता हँ" बोला वो चला! शर्मा जी को सभी जानते हैं! पहचानते हैं! और सम्मान भी करते हैं! अन्यथा साधारण व्यक्ति प्रवेश ही नहीं कर सकता किसी भी डेरे में! या तो किसी डेरे का सदस्य हो, या किसी का जानकार और इसी क्षेत्र से हो, लेकिन शर्मा जी के लिए सब खुला है! कभी आओ, कभी जाओ! सोरन आ गया था, चाय ले आया था एक जग में साथ में डिस्पोजेबल गिलास, तीन! चाय घाली और दी हमें! हमने अब चाय पीना शुरू किया! "और सुना सोरन!" कहा मैंने, "बस जी, कृपा है!" बोला वो, "और बालक-बच्चे ठीक सब?" पूछा मैंने, "हाँ जी!" बोला वो, "घर जाता है?" पूछा मैंने, "हाँ, चला जाता हूँ" बोला वो, "अच्छा है!" कहा मैंने, "सोरन?" कहा मैंने, "हाँ जी?" बोला वो, "तुम्हारे यहाँ एक आदमी था, बाबा छिंदक, वो कहाँ है?" पूछा मैंने, "यही हैं!" बोला वो, "उसके साथ एक जोगन थी, क्या नाम है उसका..............?" मैंने सोचने की कोशिश करते हुए 

कहा, "चन्द्रिका!" बोला वो, 

"हाँ! चन्द्रिका! वो भी है?" कहा मैंने, "नहीं जी, वो अब असम में है" बोला वो, "छिंदक को छोड़ दिया?" पूछा मैंने, "हाँ!" बोला वो, "काफी कुशल साधिका थी वो!" कहा मैंने, "हाँ, आज भी है!" बोला वो, "अच्छा!" कहा मैंने, "आती है, मिलने!" बोला वो, "अच्छा! बढ़िया!" कहा मैंने, 

अभी हम बात ही कर रहे थे कि छह-सात आदमी आते दिखाई दिए हमें, संग उनके वो दिलफेंक भी था, अब स्पष्ट था, किस उसने बताया होगा अपने लोगों को, और आया होगा उबाल उनमे से कइयों को, इसीलिए आ रहे थे, हमारी ही तरफ! "वो देखो!" कहा मैंने, शर्मा जी ने पीछे मुड़के देखा! "ला रहा है अपने जीजागण!" बोले वो! "लाने दो! बैठे रहो!" कहा मैंने, 

और वे आ गए वहीं, अपने गाल सेंकता वो दिलफेंक भी आ गया था साथ उनके! किसने पीटा इसको?" बोला एक उनमे से! 

"मैंने!" मैंने कहा, "क्यों?" बोला वो, "इसने नहीं बताया?" बोला वो, "पीटा कैसे? हाथ लगाने की हिम्मत कैसे हुई?" बोला वो, 


   
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श्रीशः उपदंडक
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अब हुए हम खड़े! और देखा उस दिलफेंक को! "ओये बहन के ** ! फूल फेंका था अपनी बहन पर, बताया नहीं तूने, अपने इस जीजा को?" कहा 

मैंने, अब जो आये थे, वो सभी लड़ने-मारने को तैयार! यहां , सोरन के जानकार भी आ जुटे थे! कम से कम पंद्रह, इसीलिए मारपीटी शुरू नहीं हुई थी अभी! "इस मादर** से पूछा कि फूल क्यों फेंका था?" बोले शर्मा जी, "लगा था उस लड़की के?" बोला वो हिमायती! "शुक्र कर की नहीं लगा, नहीं तो ये अस्पताल में होता अभी!" बोला मैं! "पुछवाओ लड़की से? कि फूल लगा था?" बोला वो हिमायती! "सुन ओ बहन के ** ! ज़्यादा हिमायत ना कर इसकी, साले कहीं इसके संग तुझे भी झंडा बना दूँ!" बोले शर्मा जी! अब सन्न वे! अगर लड़ते, तो मार ही खाते! सालों की झंडी उड़ जाती! मन मसोसने के अलावा कुछ नहीं था उनके पास! सड़ी हुई नज़रों से देखा हमें, और चलते बने! "लाया था साला अपना जीजा! सोरन, पता कर ये है कौन?" पूछा शर्मा जी ने, तभी सोरन के एक जानकार ने कुछ जानकारी दी! "ये काशी के बाबा नरसिंह के सहायक हैं!" बोला वो, "कौन नरसिंह?" पूछा मैंने, फिर मुझे बताया गया और मैं समझ गया! "अबकी बार कुछ हो तो बाबा नरसिंह से ही बात करें!" बोला मैं, "हाँ!" बोले शर्मा जी, 

और फिर सब चले गए अपनी अपनी जगह! हम भी लेट गए! "ये साले डेरे में क्या करते होंगे?" बोले शर्मा जी, "ऐसे बहुत हैं!" कहा मैंने, "अबकी बार आया तो कहूँ कुछ नहीं, उधेड़ ही दूँ!" बोले वो, "हाँ, यही ठीक है!" कहा मैंने, कुछ देर और लेटे रहे, अब आई नींद, और सो गए वहीं! पेड़ों की छाया और ठंडी हवा, नींद तो 

आनी ही थी! मैं और शर्मा जी, करवट बदल, मारने लगे खर्राटे! 

कम से काम ढाई घंटा सोये हम! फिर उठे, और भोजन किया और फिर कमरे में चले गए अपने! सोरन आ गया था हमारे पास, "आ सोरन" कहा मैंने, "बाबा आ गए हैं" बोला वो, "अच्छा, बात की तूने?" पूछा मैंने, "हाँ, आओ" बोला वो, "आओ शर्मा जी" कहा मैंने, "चलो" बोले वो, 

और दरवाज़े को कुण्डी लगा, चल पड़े हम बाबा तेवत के पास! वहां पहुंचे, उनके चरण छुए, प्रणाम कर ही लिया था, "आओ, बैठी" बोले बाबा! 

और हम बैठ गए! हाल-चाल पूछा गया एक दूसरे का, और फिर मैंने विषय सामने ला कर खड़ा कर दिया उनके! "बाबा?" कहा मैंने, "हां?" बोले वो, "आप, सुना ही, कामेषी का स्थान ढूंढ रहे हैं?" पूछा मैंने, "हाँ, एक बरस से" बोले वो, "किसलिए?" पूछा मैंने, "वो सिद्ध-स्थान है!" बोले वो, "ठीक! लेकिन करना क्या है?" पूछा मैंने, "कामेषी के सामर्थ्य के विषय में तो जान ही चुके होंगे, इसलिए!" बोले वो, "आप सिद्ध करोगे?" कहा मैंने, "अवश्य ही!" बोले वो, "लाभ?" बोला मैं "लाभ तो बहुत हैं!" बोले वो, 

"जैसे?" पूछा मैंने, "वो सिद्ध हो जाए, तो देख लेना!" बोले वो, गोल-मोल कर गए मेरी बात! उत्तर नहीं दिया उन्होंने! "कहाँ तक ढूंढ लिया?" पूछा मैंने, "दो जगह छान लीं, नहीं मिला, शायद पूरब में हो!" बोले वो, "अच्छा!" कहा मैंने, "लगा हुआ हूँ, ढूंढ ही निकलूंगा!" बोले वो, "आप 'प्रवेश' प्रयोग क्यों नहीं करते?" पूछा मैंने, उछल पड़े बाबा मेरा प्रश्न सुन कर! सटीक प्रयोग बताया था मैंने! "ये तो मैंने कभी सोचा ही नहीं!" बोले वो, "अब तक तो जान जाते!"


   
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