मेरे नेत्र खुले, वो बढ़े मेरी तरफ! उनके खड़ाऊं दिखे मुझे, लाल रंग के खड़ाऊं, मेरे सर को छुआ उन्होंने शायद, और मेरे नेत्र बंद हो गए, बदन हवा सा हल्का हो गया, कोई फूंक मार दे, तो शायद कागज़ की तरह से उड़ जाऊं, ऐसा हल्का!
मैं हवा में उड़ रहा था! यही लग रहा था मुझे तो! जब नेत्र खुले, तो मैं बहुत ऊपर था, अलख लपलपा रही थी, शर्मा जी लेटे हुए थे शायद, या मुझे ऐसा दीख रहा था, मेरा बदन वहीँ पड़ा था, मैं सीधी करवट लिए हुए लेटा था, बाबा न थे वहां, मैं ऊपर, और ऊपर उड़े जा रहा था, हवा ठंडी थी वहां, मुझे दूर, नीचे ज़मीन पर, बत्तियां जलती दीख रही थी, दूर पूरब में, एक पुल था शायद नदी पर बना हुआ, उसकी बत्तियां दीख रही थीं! पृथ्वी की हर चीज़ छोटी हुए जा रही थी! कुछ समझ नहीं आ रहा था! शायद, मैं मर गया हूँ, और ये मेरी आत्मा की उड़ान है! यही एक विचार था, उस समय जिसमे कुछ तर्क था! नीचे घुप्प अन्धकार था, जो वन-प्रदेश सा था, वो काला दीख रहा था! उस उड़ान में एक आनंद था! एक असीम आनंद!
मैं मुस्कुरा रहा था! ठंडी हवा थी वहां! चाँद ऐसे लग रहे थे, कि बस, हाथ बढ़ाओ और पकड़ लो! तारे ऐसे सुंदर जैसे रात की काले वस्त्र में चांदी के खिलते हुए दाने सी दिए हों!
"कितनी सुंदर है मेरी पृथ्वी! मेरा भूलोक! मेरी पृथ्वी के ऊपर का आकाश! कैसी अद्भुत सुंदरता! काश, भगवान सदा, सदा के लिए, यहीं टांक दे मुझे! अनंत तक!" मेरे मन में विचार आया!
तेज चलती हवा से, मेरे केश उड़ते जा रहे थे! मैं बार बार उनको संभालता! मेरे वस्त्र, फड़फड़ करते! मेरे रोएँ खड़े हो गए थे!
और अचानक!
अचानक से जैसे कोई दूर टूटी!
डोर, जिस से मैं बंधा हुआ था अभी तक!
मैं नीचे गिरे जा रहा था!
शरीर ने पर्तिकिर्या की थी,
अपने आपको तैयार कर लिया था उसने!
मस्तिष्क की गरारियां लगातार घूमे जा रही थीं!
मस्तिष्क के पास, कोई स्पष्टीकरण नहीं था इसका!
मैं कहाँ गिरने वाला हूँ?
कहाँ?
नीचे देखा, घुप्प अँधेरा!
और नीचे आया मैं!
मुझे नीचे झिलमिलाती हुई रौशनी दिखी!
दूर कई रोशनियाँ जल रही थीं, उन्ही को परावर्तित कर रही थी ये!
लेकिन क्या?
आया समझ में!
मैं जमना जी के मध्य गिरने वाला था!
मध्य में!
हैरत की बात! हैरत की बात कि मैं डरा नहीं! कोई डर नहीं लगा! मैं जैसे तैयार था नीचे गिरने को!
और अगले ही क्षण, मेरे पाँव डूब चले पानी में!
और मैं, नीचे, गहरे, काले पानी में डूब गया!
मेरे नेत्र, जो गिरने से पहले बंद हो गए थे, अब खुले! मैंने हाथ-पाँव मारे, न हाथ में कुछ आया, और न पाँव ही ठीके! सांस जो रोक रखी थी, न बंधी रह सकी! और मैं, पानी पीता चला गया! मैं, नीचे, गहरे तल में गिरे जा रहा था!
नीचे, कुछ देर बाद, मेरे पाँव रुके, मैं करीब डेढ़ सौ फ़ीट नीचे था! कौन बचाता! क्या करता मैं, मेरा दम घुट गया और हो गए, नेत्र बंद मेरे, हालांकि, पानी में, नेत्र कभी बंद नहीं होते! मेरी चेतना शून्य हो गयी! मैं शांत, उस तल पर, पड़ा रहा! एक मृत शरीर की तरह!
कितनी देर?
पता नहीं!
कब तक?
पता नहीं!
"उठो! उठो!" आई आवाज़ मुझे,
मैंने नेत्र खोले, खोले तो भौंचक्का रह गया!
वहाँ, अंदर, नीचे, पानी के, उजाला फैला था! सर उठाकर देखा, सूरज की झिलमिलाती रौशनी, तल पर पड़ रही थी! जल की छोटी बड़ी मछलियाँ, यहां वहां घूम रही थीं! वहाँ के पत्थरों पर, शैवाल जमी थीं, शंख पड़े थे, रेत चांदी के रंग की झिलमिला रही थी!
"उठो!" फिर से आवाज़ आई, मैं उठा, मैं सांस ले पा रहा था! लेकिन ये कैसे सम्भव था? शायद, मेरी आत्मा, जल के नीचे ही क़ैद हो कर रह गयी है!
और फिर वो आवाज़?
मैंने आसपास देखा, मेरे पीछे, वही लड़की खड़ी थी, जिसने वो घोंघे के खोल मारे थे फेंक कर! वो मुस्कुरा रही थी!
"उठो!" फिर से बोली वो,
मेरी तरफ हाथ बढ़ाया, मैंने हाथ थाम लिया उसका, उठ गया! ले चली एक बड़े से पहाड़ जैसे पत्थर के पीछे! वहां, और भी लोग थे, कई बालक-बालिकाएं! पुरुष, स्त्रियां और वो तीनों, वही असीर वाले! सभी मुस्कुरा रहे थे, मैं भी उनको मुस्कुराते देखता रहा!
वो आगे ले गयी मुझे!
मैं रुक गया, वो ठीक सामने, ठीक सामने, हरनव दक्षु खड़े थे! मसुकुराते हुए! मैं चल पड़ा उनकी तरफ, मैं गया आगे, और पाँव छू लिए उनके! उन्होंने मेरे कंधे पर हाथ रखा अपना, और कर दिया एक तरफ इशारा, मैं उस तरफ चल पड़ा! वहां, एक पत्थर का आसन सा बना था और उस आसन पर, बाबा अय्येष बैठे थे! मैंने हाथ जोड़े, वे मुस्कुराये, मैंने चरण-स्पर्श किये! और उन्होंने, इशारा किया एक तरफ! मैं वहां चल पड़ा, उधर, बड़ी बड़ी नदी की हरी घास, हिलोरें मार रही थी, मैंने उसको पार किया! बहुत सुंदर जगह थी! कांच सा साफ़ पानी! और उसके बीचोंबीच, बाबा हरंग खड़े थे!
मैं चल पड़ा उनके पास!
उनके केश, पानी के साथ, हिल-डुल रहे थे!
वे मुस्कुराये, और सर पर हाथ रखा मेरे!
"अब लौट जाओ!" कहा उन्होंने,
"नहीं बाबा! मैं यहीं रहना चाहता हूँ!" बोला मैं,
वे मुस्कुराये!
"हम, यहीं हैं, अभी बहुत समय शेष है!" बोले वो,
मेरे सर पर पुनः हाथ रखा, अँधेरा छाया और मैं हुआ चेतना-शून्य!
और जब मेरी आँखें खुलीं,
तो शर्म अजी मेरे पास बैठे थे,
मैं झटके से उठा,
आसपास देखा, कुछ यक़ीन नहीं हुआ, हाँ, बस इतना कि मैं पूरा गीला था!
मैं सबकुछ बता दिया उन्हें! उन्होंने उस भूमि को माथे से स्पर्श किया!
मित्रगण!
वो भूमि, सभी प्रेत-माया से आज मुक्त है!
आज उस भूमि पर, एक लाल पत्थर से बना एक मंदिर है!
मंदिर, श्री माँ महाभूतेश्वरी का!
और कुछ सफेद संग-ए-मरमर से बनी पिंडियां! इनमे दर्शन होते हैं बाबा हरंग, बाबा दक्षु, बाबा अय्येष, बाबा लक्षुक आदि के! कई लोगों ने दर्शन-लाभ उठाया है!
मैं, आज से दो माह पहले, हो कर आया था वहां!
मुझे आज भी याद हैं वो सब!
और हाँ!
वो दंड!
आज भी लालायित हूँ मैं, काश फिर से ऐसा दंड मिले! काश................
जय श्री माँ भूतेश्वरी! जय बाबा हरंग! कृपा रखना बाबा! सभी पर! सभी पर!