वर्ष २०१२ उत्तर प्र...
 
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वर्ष २०१२ उत्तर प्रदेश की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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साथ साथ चलते हैं!
मैं हैरान था,
अश्रा भी हैरान थी,
जब हम किसी भी घर के सामने से गुजरते,
सांस की तेज आवाज़ आती,
और वे लोग देखने लगते खिड़की से बाहर!
सभी एक जैसे ही थे!
एक जैसा ही रंग-रूप था उनका!
एक जैसा ही कद!
फिर एक गली में मुड़े हम!
और चल दिए आगे,
किसी भी घर में सीढ़ी नहीं थी,
जैसी कि हमारे घरों में,
अंदर घुसने से पहले होती है,
भूमि से ही आरम्भ हो जाता था कोई भी घर,
सभी एक संग बने थे,
कहीं भी कोई जगह खाली नहीं थी!
साफ़ सफाई!
बेहतरीन थी!
वो तो होनी ही थी,
इंसान ही फैलाता है गंदगी!
और ये इंसान नहीं,
पिशाच थे!
सभ्रांत पिशाच,
अब तो आगे ही पता चलना था,
कि वे दो,


   
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श्रीशः उपदंडक
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जिन्होंने गुड माँगा था,
वही सभ्रांत थे,
अथवा सभी के सभी!
ये जो ले जा रहा था,
ये भी सभ्रांत और सुशील था!
और तभी वो रुका,
"आप ठहरिये ज़रा" वो बोला,
हम रुक गए!
सभी के घरों से आता प्रकाश,
एक जैसा ही था!
पीला प्रकाश!
जैसे दिन में धूप इकठ्ठा करके,
अब इस्तेमाल हो रही हो!
धूप जैसा प्रकाश था!
सहसा मेरी नज़र आकाश पर पड़ी,
कोई तारा नहीं!
कोई चाँद नहीं!
काला आकाश!
घुप्प अँधेरे वाला आकाश!
लगता नहीं था,
कि ये हमारा आकाश है!
हमारा!
पृथ्वी वासियों का आकाश!
तभी वो बाहर आया,
उसके साथ दो नौजवान से आये साथ में!
भरत सिंह को देखा!


   
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श्रीशः उपदंडक
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मुस्कुराये!
हाथ जोड़कर,
अभिवादन किया सभी का!
भरत सिंह से मन्नी ने थाल ले लिया,
अब वे दोनों युवक,
गले मिले भरत सिंह से!
"आ गए भाई!" एक बोला!
"हाँ भाई!" भरत सिंह ने कहा,
अब भरत सिंह ने बतायी फिर से वही कहानी!
तब वे अंदर ले आये हमे!
क्या बेहतरीन कक्ष था!
एक बात और,
उस कक्ष की,
पूर्वी दीवार नहीं थी!
लगता था कि मात्र शून्य ही है!
काला सा बड़ा सा धब्बा ही था!
मैं अचंभित रह गया था वो देखकर!
दूर तक न भूमि दिखाई देती थी,
और न ही आकाश,
नहीं ही पेड़ पौधे!
न ही अन्य कुछ!
कुर्सियां, मेज़ आदि कुछ नहीं था!
बस शनील जैसे कपड़े थे नीचे बिछे हुए!
प्रकाश का क्या स्रोत था,
ये भी नहीं पता चल पा रहा था!
लेकिन प्रकाश बड़ा ही तेज था!


   
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श्रीशः उपदंडक
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ज़मीन पर गिरी एक सुईं भी,
देखी जा सकती थी!
हमको बिठा दिया उन्होंने!
हम बैठ गए!

हम बैठे रहे,
मैं छत देख रहा था!
ये किस से बनी थी?
कंक्रीट तो थी नहीं,
पटिया भी नहीं थीं वहाँ,
कोई लोहे का गार्टर भी नहीं था!
तो ये था क्या?
बाबा नेतनाथ भांप गए मेरा प्रश्न!
मुस्कुराये,
शर्मा जी को देखा,
"भूमि! ये भूमि है!" वे बोले,
"भूमि?" मैंने पूछा,
समझ नहीं आया,
सर के ऊपर भूमि?
ऐसा कैसे?
कैसा उत्तर दिया है बाबा ने?
और उलझ गया मैं तो!
"हम इस समय अपने संसार में नहीं हैं! यहाँ एक अलग ही संसार है! हमारे संसार से अलग! जो पृथक होते हुए भी, हमसे जुड़ा है" वे बोले,
नहीं समझा अभी भी मैं!
"हम भूमि के नीचे हैं" वे बोले,
नीचे?


   
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श्रीशः उपदंडक
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वो कब आये हम?
हम तो ऊपर ही थे?
नीचे कहाँ घुसे हम?
"वो टीला! चारों तरफ हैं ऐसे टीले!" वे बोले,
अब कुछ कुछ समझ में आया!
तो फिर वो पेड़?
वो नीचे लगा है क्या?
ये क्या अजब-गज़ब है?
और तभी वे दोनों आये,
उनके संग कुछ और भी लोग थे!
एक से एक खूबसूरत!
वे कुछ लाये थे अपने संग!
उन्होंने तश्तरियां रखीं!
सब खालिस सोने की बनी हुईं!
उन्होंने अब मिठाइयां डालनी शुरू कीं,
उनकी ख़ुश्बू उड़ रही थी!
ताज़ा खोवा हो जैसे,
ताज़ा बनी बर्फी हों!
जलेबियाँ भी थीं,
और इमरतियाँ भी!
और एक अलग क़िस्म की मिठाई थी,
रंग बैंगनी था उसका!
मैंने चख कर देखा,
गुलाब जैसी ख़ुश्बू थी उसमे,
और स्वाद उसका गुलकंद जैसा था!
"लीजिये! आरम्भ कीजिये" वे बोले,


   
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श्रीशः उपदंडक
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मैं तो आरम्भ कर ही चुका था!
अब सभी आरम्भ हो गए!
अश्रा भी खा रही थी,
मैं उसी को देख रहा था!
वो मुझे देख रही थी,
मेरी मिठाई उठा लेती,
और अपनी मिठाई मुझे दे देती!
वहाँ भी उसे,
मस्ती सूझी थी!
हमने खा लिया,
उन्होंने और पूछा,
मना करना पड़ा हमे!
बर्तन उठा लिए गए!
और अब दूध दिया गया!
सोने के गिलासों में!
नायाब गिलास थे वे!
चमचमाते हुए खालिस सोने से बने हुए!
दूध अपने आप में ही मीठा था!
लाजवाब था!
हल्का सा गर्म था!
दूध पिया हमने,
डकार आई!
अब उन्होंने हमसे, उनके साथ चलने को कहा,
हम उठ गए,
वे चले सब आगे,
फिर हम चले,


   
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श्रीशः उपदंडक
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और जैसे ही निकले हम उस कक्ष से बाहर,
बाहर दिन का उजाला था!
एक और झटका लगा मुझे!
गली में रात थी!
और यहाँ दिन!
ये क्या?
कौन सा समय ठीक था,
कौन सा समय ठीक बारह घंटे आगे,
या पीछे था?
दिमाग में विस्फोट होने लगे!
ये कैसी अजीब माया थी उन पिशाचों की!
एक जगह रुक गए वो!
वे कुल छह थे!
सबी मित्रवत व्यवहार करने वाले!
वे फिर से एक कक्ष में ले गए हमे,
यहाँ भी वैसा ही कक्ष था,
जैसा पहले वाला था,
हम जा बैठे वहां!
तभी वहां दो स्त्रियों ने प्रवेश किया!
क्या सौंदर्य था उनका!
क्या विशेष परिधान थे उनके!
उन्होंने नमस्कार की हमसे!
हमने भी की,
एक स्त्री ने,
अश्रा को बुलाया,
मेरे दिल में घबराहट उठी!


   
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श्रीशः उपदंडक
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अश्रा ने मुझे देखा,
फिर उस स्त्री को!
तब वो, जो भरत सिंह को मिले थे,
सामने से उठे,
और मेरे पास आ कर बैठ गए!
"आप घबराएं नहीं! आपकी सुरक्षा करना हमारा परम कर्त्तव्य है, आप तो जानकार हैं विद्याओं के, वो बाबा जी भी! घबराएं नहीं! भेज दें इन्हे इनके साथ" वो बोला,
अब हिम्मत बंधी!
बाबा नेतनाथ ने भी जाने को कह दिया!
अश्रा चली गयी उनके साथ!
मेरे दिल में धुकर धुकर सी मचती रही!
बार बार मैं उसी कक्ष से जाते हुए,
उसी रास्ते को देखता रहा,
"भाई! आप चिंता नहीं करें! आप हमारे अतिथि हैं! चिंतामुक्त हो जाएँ!" वो बोला,
अब सभी ने समझाया मुझे!
थोड़ी हिम्मत बंधी!
"भरत भाई! बहुत दिन बाद आये आप!" वो बोला,
"आप भी तो नहीं आये न!" भरत सिंह ने कहा,
"आप गुड मंगाते तो मैं चला आता आधा मांगने!" बोला वो!
हंस पड़े!
सभी हंस पड़े!
और तब अपनी पोटली खोली भरत सिंह ने!
गुड की दो भेलियाँ दीं उन्हें!
वे इतने प्रसन्न कि पूछो ही मत!
सभी छू छू के देखें उस गुड को!
"आपने एक और उपकार कर दिया भाई आज हम पर!" वो बोला,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"भाई भी कहते हो, और उपकार भी कहते हो!" भरत सिंह बोले,
"ये हमारा कर्त्तव्य है भरत भाई!" वो बोला,
"आपका नाम क्या है?" मुझ से पूछा,
मैंने अपना नाम बता दिया!
मेरे नाम के पर्यायवाची बता दिए उन्होंने!
इतने सारे, कि मैंने सुने ही नहीं थे कभी!
''और आपका नाम?" मैंने पूछा,
"जी नकुश" वो बोला,
नकुश!
बढ़िया नाम था!
"और ये मेरा अनुज है, महिष" वो बोला,
"अच्छा!" मैंने कहा,
"ये गाँव कितना पुराना है नकुश?" मैंने पूछा,
"बहुत पुराना, आप नहीं गिन सकते!" वो बोला,
मुझे उत्तर मिल गया था,
अपने प्रश्न का!
और तभी कमरे में वे दोनों स्त्रियां आयीं,
अश्रा को लेकर!
अश्रा का श्रृंगार कर दिया था उन्होंने!
मेरी तो सांस ही फूल गयी उसे देखकर!
लगा,
अभी इन्द्र महाराज आ रहे होंगे,
अपना वज्र हाथ में उठाये!
ऐरावत चिंघाड़ रहा होगा!
अनुपम सौंदर्य!
इस धरा की नहीं लग रही थी वो!


   
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श्रीशः उपदंडक
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मुझे तो विश्वास ही नहीं हुआ,
कि मेरे साथ रात बिताने वाली ही लड़की है ये!
सोने से लाद दिया था उसे!
सोलह श्रृंगार क्या होते हैं,
ये आज देखे थे मैंने!
उसकी कमर पर झूलती वो तगड़ी,
मुझे आजतक याद है!
कैसा उसका एक एक अंग,
सुशोभित किया गया था,
उन पिशाच-सुंदरियों द्वारा!
अद्भुत!
मेरे साथ आ बैठी वो!
मैंने उसकी नाक में पड़ी हुई,
वो बड़ी सी कड़ी देखी,
जिसमे असंख्य सोने की,
गेंदें पड़ी थीं!
काजल लगा था आँखों में!
मेरा जी मचलने को था बस!
झपट्टा मारने को मन मचल रहा था मेरा!
उसका गला ढक दिया गया था,
आभूषणों से!
वक्ष भी ढक दिया गया था!
कोहनी तक,
सोना ही सोना!
उँगलियों में,
सोना ही सोना,


   
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श्रीशः उपदंडक
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अंगूठों में भी सोना!
नख को ढकता हुआ!
पांवों में,
सोने के बेहतरीन आभूषण!
इस सन्सार में कभी भी,
कहीं भी,
नहीं देखे मैंने आजतक!
अश्रा भी चकित थी!
अचंभित थी!
"जैसे ये हमारे भाई हैं, आप हमारी छोटी बहन हैं! अब ये सब कुछ आपका हुआ!" नकुश ने कहा,
क्या?
ये सभी आभूषण?
सभी हुए अश्रा के?
दे दिए?
ये सच में,
पिशाच ही हैं न?
कहीं रूप बदले जिन्नात तो नहीं?
"जो आप सोच रहे हैं, भाई, वो सच नहीं! हम वही हैं जिसके लिए आप आये हैं!" नकुश ने कहा,
मेरा प्रश्न जान लिया था उसने!
अश्रा को तकलीफ होने लगी थी अब!
शायद चुभ रहे थे वे आभूषण!
नकुश ने उन सुंदरियों को आदेश किया,
वे ले गयीं अश्रा को!
तभी दो लोग और आये,


   
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श्रीशः उपदंडक
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नकुश ने उनसे भोजन लगवाने को कहा!
उन्होंने सर झुकाया,
और चले गए!
"आइये, कुछ दिखाता हूँ आपको!" नकुश ने कहा,
मैं उठा,
शर्मा जी उठे,
बाकी बैठे रहे,
हम चल पड़े उनके साथ,
वो हमे दूर ले गया,
और एक कक्ष में घुसे,
वहाँ,
जो मैंने देखा,
वो यक़ीन के लायक नहीं था!
लेकिन वो सच था!
वहाँ तलवारें, त्रिशूल, अंग्रेजी ज़माने की बंदूकें, गोलियां, दीपक, लकड़ी से बनी वस्तुएं, चादरें, सूखे हुए फूल, न जाने क्या क्या था!
ये सब इंसान द्वारा बनाया गया था!
मैं हैरानी से सब देख रहा था!
ये सब हमारे भाई रहे हैं!
वही लाया करते थे!
समझ गया मैं!
जैसे हम आये हैं,
भरत सिंह आये थे,
ऐसे ही वे सब भी आये होंगे इनके गाँव!
वे ही दे गए होंगे ये सब वस्तुएं!
निशानी के तौर पर!


   
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श्रीशः उपदंडक
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कोई कोई वस्तु तो,
ढाई सौ, तीन सौ साल पुरानी थी!
इसका अर्थ ये हुआ,
कि यहां इंसान आता रहा है!
पुराने समय से,
हमारी तरह!
ये लोग भी आये होंगे!
इसीलिए इन्होने कहा था,
कि बहुत पुराना गाँव हैं!
क्योंकि,
कुछ वस्तुएं तो ऐसी थीं,
जिन्हे मैंने कभी देखा ही नहीं था,
ऐसी ही एक वस्तु थी,
चापूस!
ये चापूस, ऐसी वस्तु थी जो नशीला प्रभाव छोड़ती थी, एक लकड़ी का पात्र सा था, उसमे पानी डाला जाए, तो वो मदिरा की तरह से प्रभाव करता है!
ये चापूस, किसी विशेष प्रकार के वृक्ष की लकड़ी से बनाया जाता था, लेकिन कौन सा? अब अज्ञात है!

तभी नकुश ने एक संदूकची उठायी,
ये तो बादशाही वक़्त की सी,
जान पड़ती थी!
हाथी-दांत से बनी थी!
मेरे हाथ में दी वो,
मैंने खोली,
छोटी छोटी कुण्डियाँ थीं उसमे,
चार,


   
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श्रीशः उपदंडक
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उसका ढक्कन पूरा खुल जाता था,
उठ जाता था,
चाहे फिर अलग रख दो!
अंदर एक छोटी सी और पेटी थी,
ये भी हाथी-दांत से बनी थी,
मैंने वो उठायी,
मेरी नज़र पड़ी एक जगह उस पर,
मैंने साफ़ किया वो,
उकेर कर कुछ लिखा गया था,
ध्यान से पढ़ा,
ये फ़ारसी थी!
با عشق، برای شما ये लिखा था!
इसका अर्थ है,
आपके लिए, सप्रेम!
मैं चकित!
ये किसने दी होगी इन्हे!
और है क्या इसमें?
"नकुश?" मैंने कहा,
"जी भाई" वो बोला,
"इसमें है क्या?" मैंने पूछा,
"आप खोल लीजिये" वो बोला,
अब मैंने वो पेटी बाहर निकाली,
लाल और पीले रंग का काम था उस पर,
रंग इतने चटख थे,
कि जैसे आज ही बनाया गया हो उसे!
उसमे भी चार कुण्डियाँ थी,


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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छोटी छोटी कुण्डियाँ,
सोने से बनीं!
और तो और,
उसमे महीन हीरे जड़े थे,
एक रेखा के आकार में,
ऐसी कुल,
चार रेखाएं थीं उस पेटी पर,
जो सामने से जाती थीं,
और पीछे से आ मिलती थीं!
इस दरार में,
रेखा की इन दरारों में,
महीन महीन हीरे जड़े गए थे!
आज तो ये काम,
मशीन से भी मुश्किल है!
खैर,
मैंने वो कुण्डियाँ खोलीं,
चिटिक चिटिक की आवाज़ हुई,
मैंने ढक्कन खोला उसका,
और आँखें फटी रह गयीं!
इसमें बेशकीमती हीरे थे,
नीले और काले,
अरबों रूपये से भी ज़्यादा के!
शर्मा जी ने हीरे उठाये,
और अपने हाथ में रख कर देखे!
"ये, ये किसने दिए?" मैंने पूछा,
"मिर्ज़ा फ़ख़रुद्दीन आलम साहब ने!" वो बोला,


   
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