अब मुझे रात की बची हुई नींद,
अपने आगोश में लेने के लिए,
मचल रही थी!
लकिन अभी समय नहीं हुआ था सोने का,
हुड़क तो लग ही रही थी,
लेकिन हुड़क का मामला बड़ा कड़क था,
कहीं बहक जाता तो, पतझड़ आ जाता,
इसीलिए हुड़क को दबा लिया था!
लेकिन भरत सिंह बढ़िया आदमी थे!
शौक़ रखते थे,
उनके पास गांजा था, सो साहब अब,
चिलम में भरा, और लगा लिए पांच-छह कश,
खेंच कर!
आहा! मजा सा आ गया! जान सी भर गयी बदन में!
शर्मा जी ने भी चिलम का मान रखा था,
उन्होंने भी कश मारे थे खेंच खेंच कर!
और वो गांजा भी ज़बरदस्त था!
सीधे ही टक्कर मार दी थी उसने!
गांजा, चिलम, ये अघोरियों के श्रृंगार हुआ करते हैं!
नेपाल में एक अलग ही गांजा मिलता है,
ये बेहतरीन होता है,
दो कश में ही,
सारा सौरमंडल दिखाई दे जाता है!
उनके गांजे में, शिलाजीत भी मिलाया जाता है,
ये शिलाजीत, लंगूर की विष्ठा से प्राप्त होता है,
बाज़ार में जी शिलाजीत उपलब्ध है, ये सब,
नकली है, कृत्रिम है!
मात्र लंगूर ही इस शिलाजीत के असली पारखी हैं!
शिलाजीत का पचय मात्र लंगूर की आँतों में ही होता है!
वहीँ से ये पूर्ण होता है!
मात्र लंगूर की विष्ठा ही ऐसी है, जिसमे से सुगंध आती है,
और ये लंगूर,
बहुत ही छिप कर विष्ठा-त्याग करते हैं!
ये सत्य है!
पढ़ने में अजीब लगता है,
परन्तु यही सत्य है!
तो उस गांजे से, पौरुष बढ़ जाता है!
इसीलिए इसको कामवर्धक कहा जाता है!
आजकल जो बाज़ार में कामवर्धक औषधियां मिलती हैं,
उनमे इसी शिलाजीत का अंश भर होता है!
तो भरत सिंह ने हमे गांजा उपलब्ध करवा दिया था!
अब नींद बढ़िया आनी थी!
अब चाहे सांप रेंगे, या फिर छिपकली,
पता ही नहीं चलना था!
और वही हुआ!
खुले में चारपाई लगवायी हमने,
अश्रा आज अंदर ही सोनी थी!
इस से बड़ा और कोई चैन था ही नहीं!
कल की नींद भी पूरी करनी थी!
तो साहब! हम सो गए!
खर्राटों से भरत सिंह का घर गूँज उठा!
सुबह देर से जागे!
नहाये धोये!
और फिर चाय पी!
चाय के संग परांठे भी खाये!
सुरग(स्वर्ग) का सा भोजन था वो!
देसी घी की सुगंध बढ़िया थी!
घर का ही घी था, शुद्ध!
तो मजा तो आना ही था!
और आया भी!
दोपहर में, मेरी बात हुई,
बात, बाबा नेतनाथ से,
मैंने पूछा उनसे कि पता कैसे चले,
तो उन्होंने इत्मीनान से कहा कि पता चल जाएगा,
चिंता की बात ही नहीं!
ये बढ़िया बात थी!
अश्रा बार बार मुझे कनखियों से देख लेती थी!
मैं मुस्कुरा जाता था,
वो कटु-मुस्कान बिखेरती!
बात कम ही होती थी उस से! लेकिन एक बात है,
कहना चाहूंगा,
वो पल पल मेरी निगाह में थी!
उसके बदन को मैं,
अपने चक्षुओं से सरंक्षण दिया करता था!
उसके सौंदर्य का रसपान,
वो मैं लगातार किये जा रहा था!
उसी शाम,
बाबा नेतनाथ ने,
हमको बुलाया,
और भरत सिंह के साथ हम सभी,
चले खेतों की ओर,
वहाँ पहुंचे,
अश्रा घर पर ही थी!
हर दस मिनट में मुझे,
फ़ोन कर दिया करती थी!
वो घंटी मारती,
और मैं काट देता,
यही था संपर्क!
मैं नज़र में था उसकी!
और वो मेरी!
खेत पर जाकर,
मन्नी और बाबा ने एक छोटी सी क्रिया की,
एक कटोरी ली,
और कटोरी में,
कुछ डाल कर,
उस से प्रश्नोत्तर किये!
बाबा को उत्तर मिलते रहे!
ये धूर्म-विद्या थी!
पकड़-विद्या!
बाबा को उत्तर मिलते चले गए!
और अब उन्होंने कल का दिन निर्धारित कर दिया!
कल खोज होनी थी!
मैं बहुत प्रसन्न था!
अब हम घर लौटे!
भोजन किया,
अश्रा ने मुझसे बाहर चलने को कहा,
अब एक ही रास्ता देखा था मैंने तो,
वही खेत वाला,
वहीँ ले चला उसे,
खेत पहुंचे,
और बैठ गए वहाँ घास पर!
पक्षियों ने शोर मचा दिया!
दो तीन खरगोश भी आ धमके घूमते घूमते वहाँ!
देसी खरगोश थे,
चितकबरे से!
पानी पीने आये थे शायद!
अश्रा ने अब तक का हाल जाना,
मैंने बता दिया कि कल का,
कार्यक्रम निर्धारित कर दिया है बाबा ने,
इसका अर्थ था कि,
हमे कल जाना था वो पिशाच-ग्राम ढूंढने!
ये बड़ा ही मुश्किल काम था!
इतना सरल होता,
तो सभी को दिखाई दे जाता!
लेकिन ये कहीं था अवश्य,
इस गाँव से पंद्रह कोस!
ये दूरी बहुत अधिक थी!
पैदल चलना वो जंगलों में,
अत्यंत दुष्कर कार्य था!
अतः,
भरत सिंह ने एक काम बढ़िया किया,
उन्होंने एक जीप ले ली किराए पर,
मैं चला सकता था उसे,
इसमें कोई दिक्कत नहीं थी,
बस रास्ता ठीक हो,
गड्ढे अधिक न हों,
और कहीं तालाब आदि न हों!
खैर,
मैं ले आया वापिस अश्रा को,
घर पर,
उसके बाद विश्राम किया,
उसको समय नहीं दे पा रहा था मैं,
वो जानती थी,
और समझ भी रही थी!
अब बाबा नेतनाथ ने,
हम सभी की गर्दन में एक धागा बाँधा,
ये तिलिस्म से बचाव के लिए था,
भरत सिंह ने भी बाँधा वो धागा,
और फिर उसी रात,
नेतनाथ बाबा ने अपना कार्य करना आरम्भ का दिया,
अब बस, इंतज़ार था तो कल का!
रात हुई,
और हम सो गए,
आराम से सोये थे हम!
बढ़िया नींद आई थी!
अश्रा अंदर कमरे में सोती थी!
मेरे लिए बढ़िया बात थी!
और फिर सुबह हुई,
हम फारिग हुए,
चाय-नाश्ता किया,
और फिर भोजन,
उस दिन मौसम बढ़िया था,
धूप खुल के नहीं खिली थी!
नहीं तो मुसीबत हो जाती,
अब नेतनाथ ने,
सारा सामान उठवाया,
और जीप में रखवा लिया,
हम सभी अब जीप में बैठे,
और लेकर ऊपरवाले का नाम,
चल पड़े,
भरत सिंह अपना थाल,
अपने सर पर रख कर लाये थे बाहर,
अब गाड़ी में पीछे बैठे थे,
गाड़ी में क्लच की समस्या थी,
लेकिन चल रही थी!
हम चल पड़े,
खेत पहुंचे,
और फिर भरत सिंह के बताये अनुसार,
एक कच्ची जगह पर गाड़ी उतार दी,
रास्ता ऐसे तो ठीक ही था,
लेकिन बीच बीच में मिट्टी के बड़े बड़े ढेले मिल रहे थे,
हम पार करते हुए चले गए,
जीप में जान थी,
खींच रही थी सभी को!
कभी-कभार रुकना पड़ता,
भरत सिंह के अनुसार ही,
उनके बताये रास्ते पर चलते रहे हम,
एक जगह रुके,
यहाँ एक रास्ता आ गया था,
अब इस रास्ते पर डाल दी गाड़ी,
और दौड़ चले!
पौना रास्ता तय हो गया!
जंगल ही जंगल था वहाँ!
झाड़-झंखाड़ लगे थे!
अब रोक दी गाड़ी मैंने,
पानी पिया,
और बाबा नेतनाथ गाड़ी से उतरे,
सामने गए,
मिट्टी उठायी,
एक मुट्ठी,
और हवा में उड़ा दी,
फिर पीछे देखा,
और मुझसे पीछे चलने को कहा,
मैंने गाड़ी मोड़ ली,
अश्रा संग ही बैठी थे मेरे,
सामने देख रही थी,
कभी कभार नज़रें मिला लेती थी!
गाड़ी मुड़ गयी,
बाबा नेतनाथ बैठे अब,
और हम चल दिए पीछे!
गाड़ी भाग चली,
रास्ता कच्चा तो था,
लेकिन ऊबड़-खाबड़ नहीं था,
आराम से चल रहे थे हम,
बहुत जगह रुके,
बहुत जगह जांच की,
लेकिन पता ही नहीं चल रहा था!
बाबा नेतनाथ,
बार बार मिट्टी उछालते थे!
और जैसा वो कहते,
मैं वैसा ही करता!
शाम हो चली थी,
और हम अभी तक ढूंढ रहे थे!
तभी बाबा ने एक जगह गाड़ी रुकवाई,
और नीचे उतरे,
ज़मीन पर एक चतुर्भुज बनाया,
उसको ज़ीक़ा कहते हैं.
उसके मध्य चार और पत्थर रखे!
और आँखें बंद कर लीं,
फिर आँखें खोलीं,
और वे पत्थर फेंक दिया दूर,
ज़ीक़ा मिटा दिया,
और आये मेरे पास,
पश्चिम में चलने को कहा,
वहाँ कच्चा रास्ता था,
सूखे पेड़ थे,
डाल दी गाडी वहीँ के लिए,
चलते रहे धीरे धीरे,
बड़ा ही खराब रास्ता था,
घुमा घुमा के गाड़ी ले जानी पड़ती थी!
टांगों में दर्द हो रहा था,
ब्रेक और क्लच आदि दबा दबा कर!
तभी बाबा नेतनाथ ने मेरे कंधे पर हाथ मारा,
रुकने को कहा,
मैं रुक गया,
वे उतरे बाहर,
मिट्टी उठायी,
और फेंकी ज़मीन पर,
फिर से बैठे गाड़ी में,
और बाएं मुड़वा दी,
मैंने मोड़ ली,
आगे चलते रहे हम!
तभी बड़े बड़े से पत्थर दिखाई दिए!
भरत सिंह ने झाँका बाहर!
कुछ याद आया उन्हें!
उन्होंने बाबा नेतनाथ से कहा,
कि उन्हें याद आ गया!
यही जगह थी वो!
ऐसे ही पत्थर थे वहाँ!
यक़ीन के साथ कहा था उन्होंने!
और अब गाड़ी रुकवा दी उन्होंने!
इंजिन बंद करवा दिया,
मैंने पानी पिया अब,
अश्रा के हाथ में था पानी,
सभी उतरे नीचे,
मैं भी उतरा!
कमर सीधी की,
अकड़ गयी थी उस सीट पर!
कंधे फड़काए!
थक गए थे कंधे!
मैं गया बाबा नेतनाथ के पास,
वे कुछ देख रहे थे अपने आसपास,
तभी मिट्टी उठायी उन्होंने,
और सामने फेंकी!
वो मिट्टी सामने न जाकर,
बाएं मुड़ गयी!
और बिखर गयी!
वे मुस्कुरा पड़े!
मन्नी से सामान उठाने को कहा,
मन्नी ने सामान उठा लिया,
और बाबा ने अपना एक झोला,
अपने एक कंधे पर लटका लिया!
अब तक,
संध्या का अवसान हो चुका था,
मैंने गाड़ी को एक बड़े से पत्थर के साथ खड़ा किया,
और लॉक कर दिया,
चाबी जेब में रखी,
भरत सिंह ने अपना वो थाल,
अपने सर पर रख लिया!
अब हम चल पड़े बाबा नेतनाथ के पीछे,
वे आगे आगे और हम पीछे पीछे,
अश्रा मेरा हाथ थामे चल रही थी!
बाबा आगे बढ़ते जा रहे थे,
अपने हाथ में टोर्च लिए,
एक टोर्च शर्मा जी के पास थी,
हम पत्थरों से बचते बचाते,
झाड़ियों से अपने आपको बचाते,
आगे बढ़ते रहे!
रात घिर गयी थी अब तक!
कपड़ों पर,
अजीब अजीब से कीड़े-मकौड़े आ बैठते थे,
उनको छिटक कर भगाना पड़ता था बार बार!
कोई कोई तो,
मुंह और नाक में घुसने को तैयार होता,
इसीलिए रुमाल रखकर चल रहे थे हम!
हम एक चढ़ाई सी पर चढ़े,
यहाँ बड़ा ही तंग रास्ता था!
एक एक करके ही आगे बढ़े हम!
हम ऊंचाई पर चढ़ गए!
अब बाब नेतराम ने अपने झोले से,
बोतल निकाली,
उसमे से पानी लिया,
पानी अभिमंत्रित किया,
और हम सब के ऊपर छिड़क दिया!
वो पानी ऐसा लगा जैसे कि खौलता हुआ सा हो!
एकदम गरम!
और बाबा ने बुलाया सभी को,
हम आ गए उनके पास,
उन्होंने सामने ऊँगली से इशारा करके दिखाया,
वाह!
लगता था कि जैसे मिट्टी के मकान बने हों,
बड़े बड़े!
उनमे खिड़कियाँ भी थीं,
बहुत चौड़ी चौड़ी!
कम से कम एक एक दस फ़ीट की तो होगी ही!
अब नीचे उतरने को कहाँ उन्होंने,
सबसे पहले शर्मा जी चले,
फिर मैं और अश्रा,
और फिर भरत सिंह,
फिर मन्नी और फिर बाबा नेतनाथ!
हम आ गए थे इस पिशाच-ग्राम!
हम नीचे उतरे,
गाँव बहुत ऊंचाई पर बना था!
उस टीले से समतल सा लग रहा था!
भरत सिंह में जोश आ गया था!
अब वो आगे आगे चल रहे थे!
जोश से भरे हुए,
हम आ गए थे उस गाँव के मुहाने तक,
कि एक बड़ी ही भयानक सी आवाज़ आई!
"वहीँ ठहर जाओ!"
हम वहीँ ठहर गए!
लेकिन वहाँ कोई था नहीं!
तभी एक पेड़ से कोई कूदा नीचे!
पेड़ों पर पहरेदार!
मैं उसको देखूं,
कभी पेड़ को देखूं!
बेल-पत्थर का सा पेड़ था वो!
और जो हमारे सामने आया,
वो तो कद्दावर था बहुत!
पहलवान जैसा!
पहाड़ जैसा!
काले लम्बे बाल थे,
चौड़ा सीना,
जो वस्त्र पहना था उसने,
चमक मार रही थी उसमे!
जैसे शनील!
उसने सभी को देखा,
बारी बारी से,
बाबा नेतनाथ ने हम सबको अपने हाथों से घेर रखा था!
"किसलिए आये हो यहां?" उसने पूछा,
"मिलने आये हैं किसी से" बाबा नेतनाथ ने कहा,
"किस से?" उसने पूछा,
अब बाबा ने भरत सिंह को देखा,
भरत सिंह ने वो थाल अपने सर से उतारा,
उस पर लिपटा कपड़ा खोला,
और वो थाल निकाल लिया!
थाल देखते ही वो आदमी,
चौंक पड़ा!
उसने ले लिया थाल अपने हाथ में,
उसको गौर से देखा,
और फिर वापिस दे दिया भरत सिंह को,
"समझ गया कहाँ जाना है!" वो बोला,
शायद थाल पहचान गया था वो!
और समझ भी गया था सारा मामला!
उसने फिर से सभी को देखा,
और हाथ जोड़कर खड़ा हो गया!
"आप सभी का स्वागत है!" वो बोला,
सभी की जान में जान आई!
"आइये मेरे साथ" वो बोला,
और ले चला हमे अपने साथ,
घरों के अंदर से प्रकाश आ रहा था,
हाँ, किसी भी घर का दरवाज़ा नहीं था!
सभी खुले थे,
सभी घर एक जैसे ही थे!
पीले रंग के!
वो ले जाता गया हमको!
और हम चलते चले गए!
इस संसार में,
ऐसे भी संसार हैं!
ये सब,
