वर्ष २०१२ उत्तर प्र...
 
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वर्ष २०१२ उत्तर प्रदेश की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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वो आधा मेरे ऊपर थी,
और आधा नीचे,
मेरी तो सांस ऊपर की ऊपर,
और नीचे की नीचे!
एक बात कहूँ?
अगर यही तृप्ता होती,
तो अवश्य ही, मैं इतनी देर न लगाता!
झपट पड़ता!
भंभौड़ देता!
लेकिन अश्रा!
नहीं!
अभी नहीं!
मैं उसके नीचे से खिसका,
उसने मेरी जांघ पकड़ ली,
मेरी चीत्कार निकली!
लेकिन गले से नीचे ही रही!
मैंने फ़ौरन ही उसका हाथ हटा दिया वहाँ से!
अब करवट बदल ली मैंने!
उसको हटा दिया था!
वो फिर भी सट के लेटी थी!
उसका हाल वो जाने,
मेरा हाल बहुत खस्ता था!
भुरभुरा हो गया था मैं!
उसने अपने नितम्ब मुझसे सटाये!
मेरा तो कलेजा मुंह को आया!
"अब सो जाओ" मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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"नहीं" वो बोली,
"मैं मर जाऊँगा" मैंने कहा,
"नहीं" वो बोली,
"समझा करो?" मैंने कहा,
"नहीं" वो बोली,
ये भी नहीं, और वो भी नहीं,
जो वो चाहती थी,
वो मैं नहीं!
किस तराजू में लटका था मैं!
कभी वहाँ,
कभी यहां!
कभी बाट हलके,
कभी बाट भारी!
"अश्रा, सो जाओ" मैंने कहा,
"नहीं" वो बोली,
'"अच्छा सुनो" मैंने कहा,
"नहीं" वो बोली,
"सुन तो लो?" मैंने कहा,
"नहीं" वो बोली,
मैं चुप!
उसने और धकियाया मुझे,
मेरी हालत खराब!
"सुनो?" मैंने कहा,
"नहीं" वो बोली,
अब मैंने अपना हाथ आगे बढ़ाया,
और उसके होंठों पर रख दिया,


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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पकड़ लिया उसका जबड़ा!
"सुनो" मैंने कहा,
वो कसमसाई,
और मेरे हाथ पर काट लिया!
बहुत तेज!
जोश में काटा था!
मेरी चीख निकल जाती सच में!
"मेरी बात तो सुनो कम से कम?" मैंने कहा!
"बोलो" वो बोली,
"यहां से हो आते हैं, उसके बाद देखता हूँ कौन है खिलाड़ी! कितने हैं दांव-पेंच तुम्हारे पास!" मैंने कहा,
वो पलटी,
और चिपक गयी मुझसे!
अब मैंने भी भर लिया उसको बाजुओं में!
"अब सो जाओ!" मैंने कहा,
"नींद नहीं आ रही" वो बोली,
"मुझे तो सोने दो?" मैंने कहा,
हट गयी!
गुस्सा हो गयी!
मैंने तपाक से आँखें बंद कीं!
और लेटा रहा,
अब न आये वो!
अब न आये वो!
यही सोचता रहा!
और तभी आ लिपटी मुझसे!
मेरे ऊपर अपना घुटना रख लिया उसने!


   
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श्रीशः उपदंडक
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मैंने हाथ आगे बढ़ाया,
गाउन हट गया था उसका,
बदन गर्म था उसका बहुत!
मेरा कौन सा ठंडा था!
मैं भी तो खौल ही रहा था!
फ़र्क़ इतना था,
कि उसका पता चल रहा था,
और मैं उबाल को,
फूंक से बिठाए जा रहा था!
मैंने जो छुआ उसे,
सनसनाहट सी मचल गयी मेरे बदन में!
ये रात,
बड़ी भारी पड़ रही थी मुझ पर!
वो मुझे हलाक़ करना चाहती थी,
और मैं बच रहा था!
बार बार!
और देखो,
क़ातिल भी मेरी बगल में ही लेटा था!
मैंने करवट बदल ली,
उसकी तरफ पीठ कर ली,
उसने हंगामा खड़ा कर दिया!
बिस्तर पर झगड़ा शुरू हो गया!
मेरी कमर पर,
नाखूनों के निशान पड़ गए!
अश्रा तो बहुत खतरनाक है!
आज पता चला मुझे!


   
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श्रीशः उपदंडक
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ज़िद्दी!
अल्हड़!
धुन की पक्की!
ये रात,
क़यामत की रात बना दी उसने मेरे लिए!
मैं मेंढक की तरह,
बचता फिरूँ,
इस कामुक-नागिन से!

बड़ी बुरी हालत थी!
थकावट के मारे,
कमर टूटी जा रही थी,
इस अश्रा के मारे,
मैं टूटे जा रहा था!
वो डसने को तत्पर थी,
मैं फुदकने को तैयार था!
मैंने बहुत मिन्नत की,
बहुत फ़रियाद लगाईं,
बहुत हाथ जोड़े,
बहुत समझाया,
लेकिन वो टस से मस नहीं!
और मेरा कुछ बस नहीं!
अच्छा लाया मैं अश्रा को अपने साथ!
एक से ऊपर का समय हो चला होगा,
और यहाँ,
घमासान मचा था!
हाथापाई की नौबत आई हुई थी!


   
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श्रीशः उपदंडक
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एक दूसरे की टांगें दबाई जा रही थीं!
और एक वो पलंग!
किचक-किचक की आवाज़ कर रहा था!
एक एक चीज़ ने दुश्मनी कर रखी थी मुझसे!
और एक ये अश्रा!
सरगना थी उन सब की!
आखिर मैं उठ बैठा!
वो भी उठ गयी!
खिलखिलाकर हंसी!
मुझे गुस्सा आया!
मैंने गुस्से में एक दो भड़कीले शब्द कह दिए!
वो और हँसे फिर!
मुसीबत गले आन पड़ी थी!
बदन में वैसे ही दर्द था,
अब और कसरत बस की नहीं थी,
और ये समझ नहीं रही थी!
मैंने आराम से समझाया उसको,
प्यार से,
बहुत देर तक!
मुझे उबासियां आ रही थीं!
कमर अलग से गालियां सुना रही थी!
आखिर में,
कोई दो बजे,
उसको रहम आया मुझ पर!
और हम सोये फिर!
अलग अलग करवट!


   
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श्रीशः उपदंडक
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मेरे तो खर्राटे बजने लगे!
बहुत बुरा द्वन्द था ये,
बारह से दो बजे तक का!
लेकिन अब निजात मिल गयी थी!
वो भी सो गयी,
और मैं भी!
सुबह देर से उठे हम!
बी उठ चुके थे,
लेकिन किसी ने दरवाज़ा नहीं बजाया था,
मैं उठा कोई नौ बजे,
और अश्रा नहीं उठी थी अभी तक!
रात को बहुत ज़ोर-आज़माइश की थी उसने,
थक गयी होगी!
मैंने सोने दिया उसको!
मैं नहाने चला गया,
निवृत हुआ,
और वापिस आया,
और अब जगाया अश्रा को!
अश्रा जागी,
और अंगड़ाइयां लीं उसने!
अब मैंने दरवाज़ा खोला,
और बाहर आया,
शर्मा जी बाहर गलियारे में टहल रहे थे,
नहा-धोकर तैयार थे!
उन्होंने चाय मंगवा ली थी,
चाय आई, तो दो चाय मैं ले गया,


   
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श्रीशः उपदंडक
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साथ में ब्रेड-बटर था,
ये सही किया था,
रात खाना नहीं खाया था हमने!
चाय पी,
नाश्ता किया,
और फिर भोजन भी कर लिया,
ठीक कोई साढ़े ग्यारह बजे,
हम होटल से निकल गए!
अब पहुंचे हम बस अड्डे,
भरत सिंह का गाँव कोई,
चालीस किलोमीटर दूर था,
वहाँ के लिए बस पकड़ी,
और चल दिए,
बस भरी नहीं थी,
खाली ही थी,
एक घंटे में पहुँच गए हम उस रास्ते पर,
जहां से रास्ता जाता था उनके गाँव के लिए,
अब पैदल पैदल चले हम!
फिर एक ट्रेक्टर मिला,
उसकी ट्रॉली में सवार हो गए!
आहा!
जो भी खाया पिया था,
सब हजम हो गया!
रास्ते ऐसे,
कि हाथी भी गिर जाए!
आखिर वो भयानक यात्रा हुई समाप्त!


   
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श्रीशः उपदंडक
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टांगें अभी तक काँप रही थीं!
और यहाँ से भी थोड़ा पैदल का रास्ता था,
चले हम!
और तब दूर से एक गाँव दिखाई दिया,
यही था भरत सिंह का गाँव!
आखिर,
पहुँच ही गए!
घर पहुंचे,
चारपाई पर बैठे,
पानी पिया,
आस पड़ोस वाले इकठ्ठा हो गए!
हमे देखने कि कौन आ गए ये!
अजीब से लोग!
अब तो भैया आराम किया!
भरत सिंह ने, खाना तैयार करने को कहा,
हो गयी शुरू खाने की तैयारी!
दूसरी चारपाइयां बिछीं अब!
और अब आराम से पसर गए हम!
गर्मी थी यहां,
ताप बहुत था,
हवा चल नहीं रही थी,
बिजली थी नहीं!
एक टेबल-फैन रखा था वहाँ,
लेकिन शांत!
हमे ही देख रहा था!
कि लो, आ गए! करो इनकी सेवा!


   
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श्रीशः उपदंडक
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मैं रुमाल से हवा कर रहा था!
तभी मुझे एक बालक ने पंखा दे दिया,
मैं पंखा झलने लगा,
मेरे सामने वाली चारपाई पर,
अश्रा बैठी थी,
उसने पंखा ले लिया मुझसे,
और हवा करने लगी,
अपनी भी और,
मेरी भी!
कोई घंटे के बाद,
खाना बना!
अब खाना खाया हमने!
बढ़िया खाना था!
शुद्ध देहाती खाना!
खाना खाया,
आराम किया,
और फिर शाम हुई,
शाम को राहत हुई थोड़ी,
अब भरत सिंह ने अपने खेत दिखाने को कहा,
हम तैयार हो गए!
अश्रा को वहीँ छोड़ा,
और हम चल दिए,
बढ़िया हरियाली थी वहां!
अब मौसम भी ठीक था!
हम बातें करते करते,
उनके खेतों तक जा पहुंचे!


   
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श्रीशः उपदंडक
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अब उन्होंने वो जगह दिखाई!
जहां वो दोनों आदमी मिले थे उनको,
सारी कहानी,
फिर से कह सुनाई!
जब वो कहानी सुनाते थे,
तो वही क्षण जीने लगते थे!
इस से कहानी,
और जीवंत हो उठती थी!
हमे और आगे ले गए वो,
और हम चलते रहे,
काफी दूर चले आये,
एक जगह रुके,
सामने इशारा किया उन्होंने,
और बताया,
कि वो घोड़ा-गाड़ी,
यहां से मुड गयी थी,
उस तरफ!
ये दक्षिण दिशा थी!
अर्थात, इसी दिशा में वो पिशाच-ग्राम था!
लेकिन कहाँ?
ये ही पता लगाना था!
और इसका पता अब,
बाबा नेतनाथ को ही लगाना था!
वही जानते थे पता लगाना उनका!
पिशाचों के पास,
ख़बीस कभी नहीं जाते!


   
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श्रीशः उपदंडक
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पिशाच अत्यंत खतरनाक हुआ करते हैं!
रक्त-पान करते हैं!
इसी कारण से नहीं जाते ये ख़बीस!
पिशाच अकेले विचरण नहीं करते!
ये समूह में,
गुट में,
जोड़े में विचरण करते हैं,
इनमे प्रबल शक्तियां हुआ करती हैं!
ये अत्यंत भयानक योनि है!
इनकी आयु का भी कुछ पता नहीं होता!
सभी जवान ही मिलेंगे!
रूप बदलने में माहिर हुआ करते हैं,
सर्वकालबली होते हैं!
हाँ, बरसात में विचरण नहीं करते!
तब ये अपनी आरामगाह में रहा करते हैं!
ये तिलिस्मी हुआ करते हैं!
पल में ही,
महल,
धन,
तालाब,
सब बना देंगे,
आपकी नज़रों के सामने!
ये माया नहीं होगी,
ये वास्तिविक ही होगी!
यही है विशेषता!
गाँवों में, अक्सर आसपास,


   
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श्रीशः उपदंडक
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ये पिशाच स्त्री का रूप धर,
वो भी मादक स्त्री का रूप धर,
अपने आपको देवी बताते हैं!
ऐसे ही, इन पिशाचों के कई मंदिर हैं,
जिनमे इन्हे भी पूजा जाता है!
लेकिन भरत सिंह को मिले पिशाच,
सभ्रांत थे!
ये एक अपवाद ही था!
नहीं तो भरत सिंह का,
कभी कोई नामोनिशान भी नहीं मिलता!
कभी भी!
एक अंश भी नहीं!
भक्षण हो जाता भरत सिंह का!
मनुष्यों का मांस इन्हे,
रक्त इन्हे,
अत्यंत पसंद होता है!
इसी कारण से,
नर-पिशाच की संज्ञा,
अक्सर सुनने को मिल जाती है!
अर्थात,
जो मानव मांस खाये!
मानव का रक्त पिए!
ब्राम स्टोकर का ड्रैकुला, इसी की पहचान है!
बस ये ड्रैकुला,
दूसरों का रक्त पीकर,
उनको भी वैम्पायर बना देता है!


   
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श्रीशः उपदंडक
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ये फ़र्क़ है, नहीं तो गुण वही हैं!
अब सबसे पहले,
तलाश करना था वो पिशाच-ग्राम!
हम वापिस लौटे अब और फिर,
बातें करते करते,
खेत पर आ गए!
वहाँ बैठे,
भरत सिंह, पानी ले आये,
ट्यूब-वैल से,
ठंडा पानी था!
पिया हम सभी ने!
कुछ और भी बातें हुईं,
और फिर चल पड़े वापिस,
घर पहुंचे,
खाने की तैयारियां हो रही थीं!
अश्रा बैठी हुई थी चारपाई पर,
पंखा झल रही थी!
बिजली अभी तक नहीं आई थी!
हम बैठ गए,
अश्रा ने कुछ बातें कीं मुझसे,
कुछ पूछा,
मैं जवाब दिया उसको,
फिर भरत सिंह आये,
खाने की पूछी,
भूख तो लगी ही थी,
तो खाना लगवा दिया गया!


   
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श्रीशः उपदंडक
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खाना लगा,
तो हमने खाना शुरू किया!
अश्रा भी खाने लगी!
और हम भोजन करते रहे!

भोजन हो गया पूरा!
पेट भर गया था!
डकार ने खबर कर दी थी!
घीया-चने की दाल थी,
चूल्हे की बनी हुई!
अब इसके आगे तो इन्द्र की थाली भी,
बेमायनी थी!
हाथ-मुंह धो,
मैं तो पसर गया था चारपाई पर!
खाने के नशे से,
जोड़ जोड़ खुलने पर विवश था!
वैसे भी कल रात नींद नहीं पूरी हुई थी,
कल रात, बड़ी भयानक रात गुजरी थी,
अपना हाथ भी अपना नहीं लगा था,
डर लगता था जब खुद ही मैं अपने हाथ से,
कोई मच्छर भगाता था!
बार बार, अपने हाथ से,
अश्रा और अपने बीच की दूरी को,
मापता था!
जब दूरी पर्याप्त होती थी,
तो एक झपकी ले लिया करता था!
इसी कारण से,


   
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