वर्ष २०१२ उत्तर प्र...
 
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वर्ष २०१२ उत्तर प्रदेश की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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सबकुछ सही निबट गया था,
उस रात औघड़ों की चांदी थी,
जम कर मदिरा चली थी,
कोई कहीं लेटा था कोई कहीं लेटा था!
कोई हंस रहा था,
कोई रो रहा था!
कोई मंत्र ही पढ़े जा रहा था,
कोई अपनी साध्वी-संग रति-प्रयास में लिप्त था!
कुल मिलाकर,
एक नया ही संसार था वहां,
मैंने यहां आने से,
अश्रा को मना कर दिया था,
कि यहां न आये वो,
कोई साला कुछ कह गया,
या देख गया,
तो और मार-पीट हो जायेगी!
पीटना पड़ेगा किसी न किसी को!
घटिया क़िस्म के लोग ऐसा ही किया करते हैं,
कई तो काम-पिपासु साध्वियां,
हाथ-पाँव तक पड़ लेती हैं रति-सुख के लिए,
मना करो तो लड़ने-भिड़ने को तैयार!
नग्न हो जाती हैं!
ऐसी पिपासु होती हैं कई साध्वियां!
ये सभी वर्ग से हैं,
बीस वर्ष से लेकर पचास वर्ष तक!
अजीब सा माहौल होता है!
इसीलिए माने मना कर दिया था उसको!
और वो आई भी नहीं थी,


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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और मुझे भी सचते रहने को कहा था उसने!
अभी मैं आगे जा ही रहा था, कि नशे में धुत्त,
एक साध्वी आई,
और लिपट गयी मुझसे,
मैंने हटाया उसको,
शर्मा जी ने भी खींचा उसको!
गाली-गलौज करने लगी वो तो!
तभी बाबू मिल गया वहां,
उसने उस औरत को छुड़ा दिया हमसे!
बच गयी जान!
नहीं तो और मुसीबत होती!
हमने खाया-पिया वहाँ,
और फिर आराम से,
बचते-बचाते वहाँ से, निकल ही आये!
आ गए अपने कक्ष में,
अश्रा का फ़ोन आया,
और बता दिया उसे कि हम आ गए हैं अपने कक्ष में,
कुछ और बातें हुईं और,
फिर सोने की तैयारी हुई!
और सो गए!
सुबह हुई,
उठे,
नहाये धोये और फिर से बोरियत भरा दिन!
वो भी काटा जी किसी तरह से!
हाँ, अश्रा से अधिक देर नहीं मिला,
वो भी व्यस्त रही और मैं भी!


   
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श्रीशः उपदंडक
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रात हुई,
और फिर सुबह,
मेरे पास मन्नी आया था,
उसने बता दिया कि यहां से गाड़ी साढ़े ग्यारह बजे है,
दस बजे तक निकलना है,
हमने सारा सामान तैयार कर लिया,
मैंने अश्रा को फ़ोन किया,
तो अश्रा ने बुला लिया मुझे अपने पास ही,
अब मैं उसके पिता जी से मिला,
भले आदमी हैं वे,
उन्होंने ख़याल रखने को कहा अश्रा का,
ख़याल तो रखना ही था!
और फिर कोई दस से पहले ही,
हम चल दिए वहाँ से,
अश्रा ने हरे रंग की साड़ी पहनी थी,
मेरी जीभ बार बार बाहर लटक जाती थी,
उसको चलता देख कर!
अब वो यहां से मेरे साथ ही रही,
मेरा हाथ पकड़ा आकर चलती थी,
हमने सवारी पकड़ी,
और चले फिर स्टेशन,
अब स्टेशन पर टिकट लिए,
और गाड़ी का इंतज़ार किया,
गाड़ी कुछ देर से चल रही थी,
ये तो आम बात है!
इंतज़ार किया,


   
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श्रीशः उपदंडक
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और फिर आ गयी गाडी भी,
अब घुस गए गाड़ी में,
रेलवे अधिकारी से जुगाड़-तुगाड़ किया,
और हमे सीटें मिलनी शुरू हुईं,
सबसे पहले मैंने बाबा को बिठाया,
और उसके बाद मैंने अश्रा को,
एक घंटे में ही,
सभी को सीट मिल गयीं,
लेकिन अलग अलग डिब्बों में,
एक जगह दो सीट हमे मिल गयीं थीं,
यहां अब मैंने अश्रा को बिठाया,
और संग बैठा उसके,
गाड़ी जब चली,
तो अधिक भीड़ न थी,
इस रास्ते पर इतनी भीड़ नहीं होती वैसे,
और रास्ता ऐसा लम्बा, कि चालीस घंटे लग जाएँ!
मैं तो ऊपर लेटने चला गया,
मुझे देखा ऊपर जाते हुए,
तो उसने भी ऊपर आने को कहा,
अब उसको भी ऊपर चढ़ा दिया!
अपने सामने वाले बर्थ पर,
लेट गए,
हम दोनों,
आमने सामने,
वो मुझे देखे,
मैं उसे देखूं!


   
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श्रीशः उपदंडक
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उसकी प्यारी बड़ी बड़ी आँखें, मुझे बहुत अच्छी लगें,
देखने का ढंग,
वो तो उस से भी अच्छा!
आँखें बंद करे,
तो तकलीफ हो!
आँखें खोले,
तो बदन में जुम्बिश हो!
खैर,
इस जुम्बिश को दबाता रहा मैं,
और आँख बंद कर लीं,
मुझे नींद आ गयी तभी,
वो भी सो गयी होगी,
गाड़ी की आवाज़ मधुर से लगे,
जब कैंचियां आएं तो,
और अच्छा लगे!
लोहे से लोहा टकराये,
घिसे,
और उसकी गंध उठे!
हिले बदन गाड़ी के साथ साथ!
इसी हिल-हिल में नींद आ गयी थी!
मैं तो सो गया था,
लम्बी तान लेकर!
करवट बदली और सो गया!
जब नींद खुली,
तो गाड़ी खड़ी थी,
कोई रेलवे-स्टेशन था,


   
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श्रीशः उपदंडक
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अश्रा को देखा,
वो सो रही थी,
मैंने सोने दिया उसका,
और नीचे उतर आया,
अब पानी ले आया मैं दो बोतल,
जब आया तो करवट बदल रही थी अश्रा,
मुझसे नज़र मिली,
तो उठ गयी,
हाथ आगे बढ़ाया,
मैंने पानी दे दिया,
वो लेट गयी फिर से,
और पानी पिया,
मैंने भी पिया और नीचे ही बैठ गया सीट पर,
अभी तो मजिल बहुत दूर थी!
पहले इलाहबाद आना था,
और फिर उसके बाद प्रतापगढ़!
इलाहबाद से गाड़ी बदल लेनी थी!
नहीं तो बस से चले जाना था!
फिर शाम हुई,
और फिर रात!
खाना खाया हमने,
बस खा ही लिया किसी तरह से,
नहीं तो खाना खाने लायक नहीं था,
पेट भरने वाली ही बात थी!
लेट गए हम फिर से,
लाइट बंद कर दी मैंने,


   
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श्रीशः उपदंडक
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बस रात्रि वाली बत्ती जलती रही,
उस मंद सी रौशनी में,
अश्रा मुझे ही देख रही थी!
बहुत सुंदर लग रही थी अश्रा!
एकदम अप्सरा सी!
एक अप्सरा,
जो लेटी थी मेरे सामने!
उसने कुछ इशारा किया,
मुझे समझ नहीं आया,
फिर से इशारा किया,
अब समझ आया,
वो पूछ रही थी कि क्या वो मेरे पास आये?
मैं तो काँप उठा!
नहीं नहीं!
मैंने इशारा कर दिया!
मैं तो गिर ही पड़ता नीचे!
अगर वो आ जाती तो!
वो मुस्कुरा पड़ी!
फिर से शरारत!
मैं भी मुस्कुरा गया!
देर रात तक हम ऐसे ही खेलते रहे!
कभी वो मुस्कुराती,
कभी मैं!
आखिर में नींद ने शांत कर दिया हमको!
हम सो गए!
सुबह नींद मेरी जली ही खुल गयी,


   
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श्रीशः उपदंडक
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अश्रा सो रही थी,
उसके वक्ष पर उसकी साड़ी सही की मैंने,
उसके पाँव पर भी,
बहुत सुंदर पाँव हैं उसके!
जैसे ही मेरे हाथ उसके पाँव से लगे,
वो उठ गयी!
मुझे देखा,
मुस्कुराई,
फिर नीचे उतरने को कहा उसने,
उतार दिया उसको नीचे,
अब मैं और वो,
कुल्ला करने चले,
मैं दातुन रखता हूँ अपने पास,
बाहर सफर में,
कीकर की दातुन,
एक उसको भी दी,
हम चले गए कुल्ला करने,
मौसम बढ़िया था,
हल्की ठंडक थी,
गाड़ी की मधुर आवाज़ लगातार आ रही थी,
अच्छी गति से भाग रही थी गाड़ी!
हम वापिस हुए अब,
कुल्ला-दातुन कर लिया था!
आ गए अपनी सीट पर,
लोग सोये हुए थे अभी!
मैं चढ़ा गया ऊपर,


   
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श्रीशः उपदंडक
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और उसको भी चढ़वा दिया,
लेट गए फिर से,
अब तो लेटे लेटे कमर भी सात का अंक बन गयी थी!
फिर दोपहर हुई,
खाना खाया,
शर्मा जी आये मिलने,
कुछ देर बैठे,
और फिर चले गए वापिस,
मित्रगण!
हम रात को इलाहबाद पहुंचे!
कमर टूट गयी थी!
बुरा हाल था!
अभी तो साठ-पैंसठ किलोमीटर की यात्रा बाकी थी!
सोचते ही,
दिमाग में कबूतर उड़ गए!
गाड़ी देखी,
कोई नहीं थी!
बस ही बेहतर थी!
पहुंचे अब बस पकड़ने के लिए,
और फिर कोई घंटे के बाद,
बस भी मिल गयी!
भरत सिंह का गाँव प्रतापगढ़ से भी आगे थे,
इसका मतलब,
हम रात तक ही पहुँचते वहाँ,
देर रात तक!
चलो जी!


   
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श्रीशः उपदंडक
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बैठ गए बस में!
बस में बड़ी भीड़ थी!
हालत खराब थी!
मेरी तो टांगें ही पूरी नहीं आ रही थीं!
मोड़ के बैठा हुआ था मैं!
और वो बस!
ऐसी चला रहा था कि,
कोई बुग्घी भी आगे निकल जाए!
गलत बस ले ली थी हमने!
आखिरकार!
हमने जंग जीत ही ली!
और जब हम पहुंचे वहां,
प्रतापगढ़, तो पौने बारह हो रहे थे!
थकावट के मारे बेहोशी आने वाली थी!

पहुँच तो गए!
लेकिन अब जाएँ कहाँ?
यहां तो कोई जानकार भी नहीं,
कोई हो, तो भी हम छह आदमी,
कैसे रह पाएंगे वहाँ!
अब या तो किसी धर्मशाला में रुको,
या फिर कोई होटल लो,
और कोई रास्ता नहीं था,
बस इक्का-दुक्का वाहन जा रहे थे,
या दुपहिया वाहन,
साड़ी दुकानें बंद थीं,
खोमचे भी बंद थे,


   
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श्रीशः उपदंडक
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अब तो होटल का भी किसको पता होगा!
शर्मा जी ही आगे गए,
एक, पुलिस की गाड़ी खड़ी थी,
वहीँ गए वो,
और आये वापिस,
पुलिसवाले ने बताया कि रेलवे-स्टेशन के पास ही कोई जगह मिल जायेगी,
अब वहाँ तक कैसे जाएँ?
अभी सोचा ही था,
कि एक सवारी आ गयी,
दो लोग बैठे थे उसमे,
दारु पी कर मजे कर रहे थे,
उनसे बात की,
वे तैयार हो गए हमे छोड़ने को,
हम बैठ गए,
और पहुँच गए स्टेशन,
उसको पैसे दिए,
और फिर एक होटल भी लिया,
यहां तीन कमरे लिए हमने,
मैंने अपना कमरा देखा,
कामचलाऊ ही था, लेकिन था ठीक-ठाक,
अब बाबा नेतनाथ और मन्नी एक कमरे में,
शर्मा जी और भरत सिंह एक कमरे में,
और अश्रा, मैं एक कमरे में!
अब मेरी हवा हुई ज़रा टाइट!
मैंने सामान रखा अपना सबसे पहले,
जूते खोले,


   
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श्रीशः उपदंडक
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और लेट गया!
साले गद्दे ऐसे थे,
जैसे पत्थर!
अश्रा चली गयी गुसलखाने में,
मैंने उसका बिस्तर पर रखा बैग उठकर,
रख दिया अलमारी में,
अलमारी भी लगता था कि,
कलक्ट्रेट से मंगवाई थी!
भारी-भरकम!
बीस-पच्चीस मिनट हो गए,
और बाहर निकली वो,
नहायी हुई!
बाल झिड़कती हुई!
बाल वो झिड़क रही थी,
फटकार मुझे लग रही थी!
आज रात कैसी गुजरेगी?
यही सोच सोच के,
मैं हवा से भी हल्का हुए जा रहा था,
बारह बज चुके थे!
अब मैं भी नहाने चला गया!
शुक्र था कि पानी आया हुआ था,
मैं नहाया अब!
और आया बाहर!
अश्रा पेट के बल लेटी थी बिस्तर पर,
गाउन पहने हुए,
मैंने नज़रें हटाईं वहाँ से!


   
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श्रीशः उपदंडक
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और बाल सुखाये अपने,
रात के कपड़े पहने और आ गया लेटने!
थकावट तो थी ही,
एक बला और साथ लेटी थी!
थकावट तो देखी जाती,
लेकिन घबराहट नहीं सही जाती!
मैंने उसको आगे सरकने को कहा,
वो आगे तो सरकी, लेकिन ज़रा सी,
बात नहीं बनती,
मैंने फिर से कहा,
वो और सरकी,
चलो,
एक कंधे तक की जगह बनी!
अब लाइट बंद कर दी मैंने,
और लेट गया,
सीधा,
दोनों हाथ,
आपस में फंसा कर!
आँखें बंद कर लीं!
अब क्या होगा?
तब क्या होगा?
इन्ही दो सवालों में घिरा था मैं!
और तभी उसका हाथ आया,
मेरे सीने पर,
मेरी ओर सरकी वो!
मैं भीगी बिल्ली सा लेटा रहा!


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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चुपचाप!
ज़रा भी नहीं हिला!
"सो गए?" उसने पूछा,
फुसफुसा कर!
मैं तो काँप गया!
नींद उड़ गयी मेरी,
रौशनदान से कूद,
जा भागी!
"हम्म" मैंने कहा,
अब वो और करीब आ गयी!
मैं सूखे पत्ते की तरह से काँप गया!
लू सी लग गयी मुझे!
फुरफुरी सी छूट गयी!
वो और समीप आ गयी,
अपना घुटना मेरी जाँघों पर रख दिया!
अरे!
मैं तो अब कछुआ हुआ!
जैसे कछुआ डर के मारे अपनी गर्दन, हाथ-पाँव अंदर कर लेता है, ऐसा ही मैंने किया! फ़र्क़ इतना कि मैंने अंदर नहीं किये!
अब उसने मेरी छाती पर हाथ फिराना शुरू किया,
मैंने पकड़ लिया हाथ,
और समझाया कि,
थका हुआ हूँ बहुत!
फुस्स हो जाऊँगा!
समझा करो!
बाद में देखेंगे!


   
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श्रीशः उपदंडक
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यही कहा मैंने,
न उसने मानना था, न वो मानी,
हलके से हंसी,
और अपना सर,
मेरी छाती पर रख दिया!
ओह!
उसके अंग मुझसे छुए!
और मैं फूला गुब्बारे की तरह!
कहीं फट न जाऊं,
इसी उलझन में अटका रहा!
उसने मेरा हाथ उठाया,
और अपनी कमर पर रख दिया!
मेरी तो सांस ही छूट जाती!
मैंने हाथ ज़रा भी नहीं हिलाया!
पत्थर सा बना रहा!
नहीं हिलाया हाथ!
हिलाता,
तो मैं हिल जाता,
मैं हिलता,
तो बिखर जाता!
मेरी हालत, बहुत दयनीय थी!
तभी मेरा हाथ ढुलका,
और उसकी कमर से नीचे जा टकराया!
मेरे तो हाथ में जान ही नहीं रह गयी थी!
सुन्न हो गया था!
अश्रा ने तभी अपने आपको मेरे और ऊपर किया,


   
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