वर्ष २०१२ उत्तर प्र...
 
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वर्ष २०१२ उत्तर प्रदेश की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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वो हटाये,
और फिर एक और पोटली निकली,
और उसमे थाल का आकार दिखाई दिया,
अब कपड़ा हटाया उसका,
और एक चमचमाता हुआ सोने का थाल दिखाई दिया!
मुझे पकड़ा दिया उन्होंने,
बहुत भारी था वो थाल!
चौदह किलो वजन था उसका!
करोड़ों रूपये की सम्पदा थी वो!
थाल भी लाजवाब था!
क्या बेहतरीन नक्काशी सी थी उसकी किनारियों पर!
नीचे रखने के लिए,
चार गुटके भी लगे थे,
सोने के,
ये जैसे चिपके हुए थे,
ध्यान से देखा,
तो ये रिपिट जैसे थे,
अंदर से ठोके हुए थे!
सारा परिमाप शानदार था!
किसी बादशाही रसोई का सा लगता था वो थाल!
तीन फ़ीट का घेरा था उसका,
आधा-पौना फ़ीट गहरा!
उसको पकड़ने के लिए,
कुन्दे भी लगे थे,
ये भी रिपिट कि तरह से ही लगे थे!
कुन्दे भी सोने के ही थे!


   
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श्रीशः उपदंडक
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बहुत चौड़े,
मेरे दो हाथ लगते,
तो एक कुन्दा पूरा होता!
मैं तो ताकता ही रह गया उसे!
अब मैंने शर्मा जी को दिया वो थाल,
उन्होंने पकड़ा,
उलट-पलट के देखा उन्होंने,
और वाह वाह कहा!
था ही लाजवाब!
अब चढ़ा आवेश!
जैसे मैं तो चिपक गया था इस थाल से!
मैं भी जाना चाहता था उनके साथ!
और तभी बाबा नेतनाथ आ गए,
मैंने चरण छुए उनके!
पहचान गए मुझे!
आशीर्वाद दिया उन्होंने,
बिठाया,
हालचाल पूछे,
अब बाबा के पीछे पड़ गया मैं!
मुझे भी जाना है!
मैं भी जाऊँगा!
और वे मान गए!
खुल गयी मेरी क़िस्मत!
मैं बहुत खुश हुआ!
भाग खुल गए थे मेरे तो!
मैंने बाबा के चरण पकड़ लिए,


   
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श्रीशः उपदंडक
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इस एहसान के लिए!
मित्रगण!
भरत सिंह,
जिला प्रतापगढ़ के निवासी हैं!
वहीँ गाँव है उनका,
और वहीँ दूर कहीं जंगल में,
इन पिशाचों का भी गाँव है!
बस्ती है उनकी!
कहाँ,
ये ढूंढना था,
इतना पक्का था,
कि भरत सिंह के गाँव से,
कोई पंद्रह कोस दूर है!
दक्षिण में!
अब यही ढूंढना था!
यहां से,
ये लोग दो दिन बाद जाने वाले थे,
और हम दोनों भी उनके संग जाने वाले थे!
तय हो गया ये कार्यक्रम!
और अब हम लौटे वहाँ से,
अपने कक्ष में आये,
शर्मा जी,
बाहर चले गए टहलने के लिए,
बगीचे में,
घास पर लेटने,
पेड़ की ठंडी छाँव का आनंद लेने!


   
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श्रीशः उपदंडक
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मैं कक्ष में ही रहा,
अश्रा का फ़ोन बजा,
मैंने बुला लिया उसे,
ये खुशखबरी मैं देना चाहता था उसे!
वो कोई दस मिनट में आ गयी!
बैठी,
अब मैंने सारी बात बतायी उसको,
उसे भी उत्सुकता हुई!
और ज़िद पकड़ बैठी संग चलने की,!
लेने के देने पड़ गए!
क्या सोचा,
और क्या हुआ!
मैंने उसको बहुत समझाया,
लेकिन नहीं मानी वो!
मेरा बनाया हुआ फन्दा,
मेरे ही गले में पड़ गया!
अब करो उसकी देखभाल!
चिपकाए रहो उसे अपने संग!
घूरते रहो उसका सौंदर्य!
और अंदर ही अंदर,
पिघलते रहो!
फुरफुरी सी छूट गयी मेरी तो!
मैंने फिर से समझाया,
फिर से न मानी वो,
मैंने फिर से उसको उसके पिता से,
अनुमति लेने को कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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उसने हाँ कर दी,
कि मना नहीं करेंगे वो!
फंस गए हम तो!
लग गयी लूत पीछे!
तो साहब,
अब टेक दिए घुटने,
टेकने ही पड़े,
मैं भी चलूंगी,
मैं भी चलूंगी,
ये टेप सुन सुन कर,
कान पक गए मेरे उस समय!
कर दिए हाथ खड़े फिर!
कोई चारा नहीं था अब!
हाँ कहनी पड़ी!
मैंने हाँ कही,
मुझसे लिपटी वो!
जैसे कोई लता लिपट जाती है,
किसी वृक्ष से!
कोई बात नहीं!
गलती मेरी ही थी,
अब कर दी गलती,
तो भुगतनी भी थी!
मैंने अब उसको तैयार रहने को कहा,
कपड़े, लत्ते सब तैयार रखे,
न जाने कितने दिन लगें,
इसके लिए भी तैयार रहे वो!


   
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श्रीशः उपदंडक
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वो तैयार थी!
अब भेजा मैंने उसको उसके पिता के पास,
आज्ञा लेने,
वो चली गयी,
इठलाती हुई!
मस्त होकर चलती हुई,
अपने केश,
अपने नितम्बों से हिलाती हुई!
मैं देखता ही रहा!
सौंदर्य अतुलनीय है उसका!
मेरा उसको कामुक दृष्टि से देखना,
यही सिद्ध करता है!
कामुक!
हाँ!
बहुत कामुक है वो!
अंग-अंग में कामुकता भरी है उसके,
ऊँगली के एक एक पोर में!
एक एक रोम में,
वो चली गयी!
और मैं सपने लेने लगा,
उस पिशाच गाँव के!
कल्पना करने लगा,
कि कैसा स्वागत होगा हमारा वहाँ!
क्या होगा!
और क्या नहीं!


   
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श्रीशः उपदंडक
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शर्मा जी आ गए थे,
और आते ही लेट गए,
बताया उन्होंने कि देह में,
आलस भरा है!
खुमारी है नींद की,
वहाँ मक्खियाँ नहीं सोने दे रहीं!
बार बार नाम और पता पूछने,
आ जाती हैं!
इसीलिए उठ आये थे वहाँ से,
अब करवट बदल कर,
सो गए थे,
थोड़ी देर में ही,
खर्राटे गूँज उठे!
मैं भी सोने की कोशिश करने लगा,
और थोड़ी ही देर में,
नींद लग गयी!
जब मेरी नींद खुली,
तो साढ़े ग्यारह बजे थे,
अब भूख लगी थी,
करीब बारह बजे,
बाबू आया,
उसने भोजन की पूछी,
और फिर उसने भोजन का प्रबंध किया,
कर लिया भोजन,
और फिर से लेट गए!
अब नींद तो नहीं आई,


   
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श्रीशः उपदंडक
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लेकिन भोजन के कारण खुमारी सी चढ़ गयी थी,
उबासियां आ रही थीं,
इसका भी जुगाड़ कर दिया बाबू ने,
नमकीन लस्सी ले आया था,
मैंने तो दो गिलास खींच मारी!
मजा आ गया था!
अब मैं बाहर गया,
बगीचे में,
और सबसे छांवदार पेड़ के नीचे बैठ गया,
बैठा, तो बोझिल हुआ,
बोझिल हुआ,
तो लेटा,
लेटा, तो फिर से खुमारी चढ़ी!
तभी अश्रा का फ़ोन बजा,
मैंने बात की,
उसने पूछा कि मैं कहाँ हूँ,
मैंने बता दिया कि मैं बगीचे में हूँ,
उसने आने को कह दिया,
थोड़ी देर में आ गयी वो!
बैठ गयी मेरे संग ही,
मैं लेट गया फिर,
उसने बताया कि आज्ञा लेली है उसने,
उसके पिता जी ने, बाबा नेतनाथ से,
बात कर ली है,
ये खबर सुनकर,
मुंह कड़वा हो गया!


   
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श्रीशः उपदंडक
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मुझे तो लगा था कि नेतनाथ जी मना कर देंगे,
लेकिन ऐसा नहीं हुआ!
हुआ यूँ, कि अश्रा स्वयं भी गयी थी बाबा के पास,
अब बाबा क्या करते, अश्रा की ज़िद ही ऐसी थी!
"हो गयी जी की?" मैंने पूछा,
"हाँ!" वो बोली,
"बढ़िया है" मैंने कहा,
और आँखों पर,
अपनी कोहनी रख ली,
उसने हटा दी मेरी कोहनी!
दरअसल,
वो बैठी ऐसे थी,
अपने घुटने मोड़कर,
कि उसके बदन के कटाव मुझे दीख रहे थे,
कहने को तो,
कोई बात नहीं थी,
लेकिन अश्रा समर्पित थी मेरे लिए,
इसीलिए उस पेड़ की,
ठंडी छाँव में भी मैं,
अपने अंदर ताप महसूस करने लगा था!
मैंने हाथ उठाया,
और उसके बदन पर रखा,
उसकी सुडौल पिंडली मेरी हाथ में आई,
मुझमे तो आवेश चढ़ गया,
छूते ही!
रक्तचाप बढ़ने लगा था मेरा!


   
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श्रीशः उपदंडक
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मैंने हाथ हटा लिया,
और फिर दूसरी जगह रखा,
अब उसकी मांसल जांघ पर हाथ आया मेरा,
झटके खा गया मैं तो!
आँख खुल गयीं!
झट से हाथ हटा लिया,
नहीं तो कुछ ज़्यादा ही झटकों के चक्कर में,
मुझे काम का झटका लग जाता!
मैंने हाथ हटाया, तो वो हंसी!
"क्या हुआ?" उसने पूछा,
''आग!" मैंने कहा,
"कैसी आग?" उसने कामुक लहजे में कहा,
अब जैसे किसी केले का पत्ता फाड़ो,
तो जैसी आवाज़ होती है,
ऐसे फट गया था मैं!
"तुम्हारे बदन की आग!" मैंने कहा,
"अच्छा?" उसने कहा,
"हाँ, जल गया था मैं" मैंने कहा,
"अभी कहाँ जले?" उसने पूछा,
लो!
अब मैं भस्म हुआ!
भस्म तो हुआ ही,
लेकिन ठंडा नहीं हुआ!
दहक रहा था बुरी तरह से!
उसने अपना हाथ उठाया,
और मेरी छाती पर रख दिया,


   
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श्रीशः उपदंडक
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कमीज का बटन खोला,
और मेरी छाती के बालों पर हाथ फिराने लगी!
ओह!!!!!!
भट्टी सुलग गयी साहब!
लपटें उठने लगीं!
मैं सुलगने लगा,
मेरा काम झुलसने लगा!
प्यास जाग उठी!
होंठ सूख गए!
हलक सूख चला,
जिव्हा आराम करने के लिए,
तालू का सहारा लेने लगी!
नथुने फड़कने लगे!
कान गर्म हो गए!
और बदन में काम-कीट रेंगने लगे!
मैंने उसके हाथ को पकड़ लिया,
दबा दिया अपनी छाती पर,
हाथ दहक रहा था उसका,
मैंने दबाया तो उसने,
अपने नाख़ून गड़ा दिए मेरी छाती पर,
ज़ोर से!
मेरे बाल पकड़ लिए छाती के,
अब छुड़ाऊं तो मुसीबत,
न छुड़ाऊं तो मुसीबत!
मैंने आँखें खोलीं अपनी,
उस से मिलीं,
उसकी आँखों में काम नज़र आया मुझे,


   
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श्रीशः उपदंडक
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चिंगारी भड़क उठी थी!
मैं फूस की तरह बस,
जलने ही वाला था!
मैंने उसका हाथ छोड़ा,
उसने फिर से नाख़ून गड़ाए,
मेरी बगल के पास,
मैंने अपना हाथ उठाया,
उसके कंधे पर रखा,
और उसके केशों से खेलने लगा!
उसने मेरी भुजा को बार बार चूमा!
आँखें बंद कर!
मेरा हाथ फिसला,
और उसके अंतःवस्त्र की किनारी पर आ रुका,
वो हल्का सा नीचे हुआ,
और मैंने उसका गोरा छिपा हुआ बदन देखा!
मेरे काम में तो, जी अभी भंवर की तरह घूम रहा था,
फव्वारा सा छूट पड़ा!
मैंने झट से हाथ हटा लिया अपना!
मेरी धड़कन बढ़ गयी थी!
मेरे दिल पर हाथ रख कर,
उसने जायज़ा लिया,
अपनी आँखें खोलीं,
मुझे देखा,
होंठ सूख चले थे उसके,
मैं उठ बैठा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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और उसके होंठ अपने होंठों से,
गीले कर दिए!
लेकिन अब मैं सूखने की कगार पर था!
कुछ ही क्षण शेष रहे होंगे,
कि मैं संयत हुआ!
श्वास-नियंत्रण किया,
और अलग कर लिया उस से अपने आप को!
कटते कटते बचा था मैं,
उसके उस समर्पण के कुल्हाड़े से!
वो और मैं,
देखते रहे एक दूसरे को,
अपलक,
घूरते रहे!
बातें करते रहे एक दूसरे से,
नाप-तोल चलती रही!
मैंने उसके बदन का,
पूर्ण चक्षुपान कर लिया था!
उसने गले में एक चैन पहनी हुई थी,
सोने की,
उसमे एक छोटा सा स्वास्तिक था,
ये स्वास्तिक उसके वक्ष-स्थल के,
बीच में फंसा था,
मैंने बाहर निकाला उसे,
और अपनी उँगलियों पर रखा,
पत्तियां हिलीं,
पेड़ झूमा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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हवा चली,
और धूप ने सेंध मारी!
धूप उस स्वास्तिक पर पड़ी,
और वो चमका!
लश्कारा मारा उसने!
मैंने अब उस स्वास्तिक को,
छोड़ दिया!
वो झूल गया!
लश्कारे मारता हुआ!
मैं खड़ा हुआ,
उसका हाथ पकड़े हुए,
"चलो उठो" मैंने कहा,
उसने हाथ खींचा मेरा,
नहीं जाना चाहती थी वो!
"उठो, तैयारी करनी है" मैंने कहा,
वो उठ गयी,
मुझे देखा,
"ऐसे मत देखा करो!" मैंने कहा,
वो हंस पड़ी!
शरारत की उसने फिर,
फिर वैसे ही देखा,
मैंने फिर से टोका,
वो फिर से हंसी!
"मेरे संग ही रहोगे न?" उसने पूछा,
"हाँ, चिपका के रखूँगा!" मैंने हंस के कहा,
वो रुक गयी!


   
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श्रीशः उपदंडक
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मैं भी रुका,
"चलो?" मैंने कहा,
चल पड़ी,
धीरे धीरे,
उसने कुरता पहना था प्याजी रंग का सा,
उस पर घास चिपकी थी,
मैंने साफ़ कर दी,
मेरे सर से,
उसने तिनके साफ़ कर दिए,
अब हम चल दिए,
"परसों सुबह निकल जाएंगे" मैंने कहा,
"पता है" वो बोली,
अब पता तो होगा ही,
मेरा पूछना ही गलत था,
पूछना नहीं, बताना!
अब हम चल पड़े,
बगीचे में पौधे लगे थे,
कई क़िस्म के,
फूल वाले,
बहुत सुंदर बगीचा था वो!
हम चले और बाहर आ गए,
यहां से वो अपनी राह गयी,
और मैं अपनी राह!

आयोजन भी समाप्त हो गया था!


   
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