मैं भी हालचाल पूछता रहा उसका!
लेकिन मिला कभी नहीं!
वो रात भी बीती,
अगला दिन आया,
तृप्ता का फ़ोन आया,
आज मैं जा रहा था,
मिलने से मना कर दिया था मैंने,
मैं आगे नहीं बढ़ना चाहता था!
उसे जैसे-तैसे समझ दिया!
अश्रा को भी समझा दिया मैंने!
वो समझ गयी!
भोली लड़की है!
शब्दों को नहीं भेद पाती!
मैं दिल्ली पहुंचा,
और उसके एक महीने बाद मैं हिमाचल गया,
हिमाचल में उसके शहर से बस सौ किलोमीटर दूर था मैं,
मैंने अश्रा को फ़ोन किया,
उसने बुलाया मुझे,
मैं नहीं जा सका!
कभी नहीं जा सका!
अश्रा से फोन पर, संबंध बना रहा!
हमेशा! आज भी है!
और इस तरह चार बरस बीत गए!
और आज,
केदारनाथ के इस स्थान पर,
अश्रा मिली थी मुझे!
तृप्ता तो पासंग भी नहीं थी अश्रा की,
इन चार बरस में क्या खूब यौवन निखरा था उसका!
और आज अश्रा!
वही अश्रा,
मेरे साथ थी!
उसकी खनकदार आवाज़,
झकझोर रही थी मुझे!
"रहोगी न मेरे साथ आज?" मैंने पूछा उस से,
वो हंसी!
जैसे मैंने उपहास किया हो!
"सच बताओ?" मैंने कहा,
"कभी तृप्ता की याद नहीं आई?" उसने पूछा,
मैं शांत हो गया था!
उत्तर भी सही ही देना था,
"नहीं, कभी याद नहीं आई" मैंने कहा,
"और मेरी?" उसने पूछा,
"आई याद, बहुत याद आई" मैंने कहा,
"तभी तो लौट गए थे वहाँ से?'' उसने पूछा,
"मज़बूरी थी अश्रा!" मैंने कहा,
और समझा दिया!
हमेशा की तरह,
मेरे शब्द-जाल में फंस गयी!
"ठीक है, मैं आ जाउंगी!" वो बोली,
मैंने भींच लिया उस,
भोली सी लड़की को!
बदन बदल गया था उसका,
लेकिन स्वाभाव नहीं!
स्वाभाव में अभी भी वो,
वही अश्रा थी!
अब उठे हम दोनों!
और चल पड़े वहाँ से,
वो लग गयी,
और मैं अलग!
लेकिन वो चार बरस!
आज टूटे थे!
मैं खुश था!
बहुत खुश!
मैं लौट आया था अपने कमरे में,
शर्मा जी को सारी बात बतायी,
उन्हें भी याद आ गयीं वे दोनों लड़कियां,
पहचान गए थे!
शाम हुई,
और हुड़क लगी!
बाबू को बुलाया मैंने,
बाबू आया,
उसको समझाया,
और सामान लाने के लिए भेजा,
वो चला गया,
और, एक और सहायक संग,
सामान ले आया!
अब हो गए हम शुरू!
मैं धीरे धीरे पी रहा था,
अश्रा से भी मिलना ज़रूरी था,
हम खाते रहे,
पीते रहे,
बज गए कोई दस,
अब मैंने फ़ोन किया अश्रा को,
वो आने वाली ही थी बस,
अब मैंने बाबू से एक और कक्ष खोलने को कहा,
उसने चाबी दे दी मुझे,
और मैं चल दिया उस कक्ष की ओर,
आ गयी अश्रा!
लेकिन समय बहुत हो चुका था,
इसीलिए मैंने उसको भेज दिया वापिस,
मुझे नशा भी था,
कहीं मैं अड़ जाता तो सारी रात उसको रहने को कहता,
और ये सम्भव नहीं था!
चली गयी वो!
और मैं कक्ष को ताला लगाकर,
आ गया वापिस,
शर्मा जी सो रहे थे आराम से,
मैं भी लेट गया,
और मेरा फ़ोन बजा,
अश्रा थी ये,
उसने कहा कि क्षमा करना,
देर अधिक हो गयी थी!
मैंने उसको ज़रा खरी-खोटी सी सुना दी!
कि कब से इंतज़ार कर रहा था मैं!
सारा दिन ऐसे ही काट दिया,
और वो सोती ही रही!
उसने भी खरी-खोटी सुनाने में कोई देर नहीं की,
बोली कि चार साल में कभी इंतज़ार नहीं किया,
आज एक रात में कहर टूट गया!
बात तो सही ही थी!
सो मैं चुप हो गया!
शुभ-रात्रि कहा मैंने और,
फ़ोन काट दिया,
इसके बाद सो गया मैं!
कल मिलने का तय हो गया था!
सुबह हुई!
आराम से नहाये धोये हम!
फिर चाय-नाश्ता किया!
और फिर घूमने चले ज़रा इधर उधर!
जब हम घूम रहे थे, तब,
मेरा एक पुराना जानकार मिला,
बड़ी गर्मजोशी से मिला!
हालचाल पूछा उसने!
वो आयोजन में नहीं आया था,
वो किसी और कारण से आया था वहां,
वो बस यहां ठहरा हुआ था,
नाम है उसका माणिक लाल,
उसको मन्नी कहते हैं,
मन्नी से मैंने आने का प्रयोजन पूछा,
उसने कहा कि, बताया कि,
उनके साथ एक ऐसा व्यक्ति है, जिसके पास एक थाल है सोने का,
इस थाल का वजन कुल, चौदह किलो है,
और मजे की बात ये,
कि ये थाल किसी इंसान ने नहीं बनाया!
अब मैं चौंका!
इंसान ने नहीं बनाया?
तो किसने बनाया?
जिन्नात ने?
प्रेत नहीं बना सकते,
तो क्या कोई गान्धर्व,
या यक्ष?
मैं हैरान था!
"तो ये थाल है किसका?" मैंने पूछा,
"पिशाच-ग्राम का!" वो बोला,
"पिशाच-ग्राम?" मैंने अचरज से पूछा,
"हाँ!" वो बोला,
ऐसा कैसे सम्भव है?
कोई पिशाच कैसे देंगे अपना थाल?
ऐसा सम्भव ही नहीं!
मनुष्य के मांस और रक्त के सदैव भूखे रहते हैं वो!
वो क्यों देंगे?
"क्या कह रहे हो मन्नी?" मैंने कहा,
"अच्छा, आप यहीं रहना, मैं आता हूँ अभी" वो बोला,
और भागा पीछे,
अपनी धोती संभालते हुए!
और कुछ देर बाद,
वो एक देहाती से प्रौढ़ को लेकर आया,
उसने प्रणाम किया,
हमने भी किया,
अब हम एक तरफ चले,
और एक स्थान पर बैठ गए,
अब मन्नी ने उस व्यक्ति से बात करवाई,
उस व्यक्ति का नाम भरत सिंह था,
पेशे से किसान था वो,
थोड़ी-बहुत भूमि थी,
वहीं खेती किया करता था,
गरीबी साफ़ झलकती थी उसके वस्त्रों से,
"वो थाल आपको ही मिला था?" मैंने पूछा,
"हाँ जी" वो बोला,
"कब?" मैंने पूछा,
"चार बरस हुए" वो बोला,
"कैसे मिला?" मैंने पूछा,
उसने दिमाग पर ज़ोर मारा,
सोचा, दिमाग में भूमिका तैयार की,
"कोई चार बरस हुए, मैं एक रात, अपने खेतों से वापिस आ रहा था, मैंने एक जानकार से, गुड मंगवाया था शहर से, पांच भेलियाँ थीं, जब मैं आ रहा था, तो मेरे पीछे पीछे कोई चलता दिखाई दिया, मैं रुक गया, देखा उन्हें, वो मेरे पास ही आ गए, बड़े लम्बे चौड़े पहलवान जैसे थे वे, दो लोग थे, मैं घबराया नहीं, कुदाल कंधे पर रखी थी, ऐसे चोर-उचक्के तो लगते नहीं थे, उन्होंने नमस्कार की, मैंने भी की, मैंने सोचा कोई परदेसी हैं, बाहर से आये हैं रास्ता पूछेंगे" वो बोला,
अब उनका वार्तालाप, भरत सिंह के शब्दों में,
"कौन है आप लोग?" मैंने पूछा उनसे,
"हम, यही रहते हैं कोई पद्रह कोस आगे" एक बोला उनमे से,
"किसी गाँव जाओगे?" मैंने पूछा,
"हाँ, वापिस ही जाएंगे, रास्ते में तुम मिल गए, तो रुक गए" वो बोला,
"मुझसे क्या काम है?" मैंने पूछा,
"ये गुड है न?" एक ने पूछा,
"हाँ" मैंने कहा,
"आधा हमे दे दो भाई" बोला एक,
"ले लो भाई! हम तो घर में चार लोग ही हैं, बच ही जाएगा, आप ले लो, बल्कि आप तीन भेलियाँ ले लो!" मैंने कहा,
मैंने तब,
तीन भेलियाँ उनको दे दीं,
वे खुश हो गए,
मैं जब चलने लगा,
तो एक ने रोका,
"रुको भाई?" बोला एक,
"हाँ?" मैंने पूछा,
"तुमने एहसान किया है हम पर भाई, और तुमने हमे भाई भी कहा है, ये लो, इसका दाम" एक बोला,
और कुछ सोने के सिक्के मुझे देने लगा,
मुझे सोने के सिक्के देखकर यही लगा कि शायद नए सिक्के हों!
"आपने भी तो भाई कहा, तो दाम कैसा! आप एक भाई की तरफ से रख लो" मैंने कहा,
"नहीं नहीं भाई! आपको लेने ही होंगे" वो बोला,
"नहीं भाई! मैं नहीं लूँगा" मैंने कहा,
वे ज़िद पकड़ गए,
मैंने भी ज़िद पकड़ ली!
दोनों हंस पड़े!
"बहुत सीधे आदमी हो भी तुम!" बोला एक,
मैं हंस पड़ा,
"पूरे गाँठ के पक्के हो!" वो बोला,
मैं फिर से हंसा,
"अब चलता हूँ घर पर बाट देख रहे होंगे घर पर बच्चे" मैंने कहा,
'ज़रूर जाओ भी! लेकिन एक बात मानोगे?" एक ने कहा,
"बताइये भाई?" मैंने कहा,
"परसों एक ब्याह है, आपका न्यौता है! आप आ जाना, हम बहुत प्रसन्न होंगे!" एक ने कहा,
अब मैंने गाँव का नाम पूछा,
उन्होंने बताया,
लेकिन जो बताया,
वो याद ही नहीं रहा,
"एक काम करना, सूरज छिपने के बाद आ जाना यहीं, हम ले चलेंगे" वो बोला,
अनजान लोग,
और ऐसा मित्रवत व्यवहार!
"आओगे न भाई?" पूछा एक ने,
"अब आप बुला ही रहे हो, तो अवश्य ही आऊंगा!" मैंने कहा!
इतना बता कर भरत सिंह चुप हुए!
मेरे होश उड़े!
ये कौन थे?
प्रेत?
प्रेत गुड क्यों मांगेंगे?
पिशाच मांगते हैं!
तो ये पिशाच थे!
लेकिन इतने शांत पिशाच?
गुड का दाम भी दे रहे थे?
मैंने नहीं सुना आज तक!
पिशाच तो खून-खराबा कर दिया करते हैं!
गुड भी छीन लेते,
और भरत सिंह गायब भी हो जाता!
एक अंश भी नहीं मिलता,
कभी भी!
ऐसा ही करते हैं ये पिशाच!
"तो क्या आप गए फिर?" मैंने पूछा,
"हाँ जैसा उन्होंने कहा था, मैं उस नियत दिन, सूरज छिपने के बाद, नए वस्त्र पहन चला गया गाँव से बाहर, वहीँ खड़ा हो गया, तभी दूर से वे आते दिखाई दिए, नए वस्त्र पहने, एक घोड़ा-गाड़ी थी उनके पास, मुझे बिठा लिया उन्होंने, और गाड़ी आगे चल पड़ी" वे बोले,
अपना वचन भी निभाया इन्होने तो!
ये कैसे पिशाच थे!
अजब-गज़ब मामला था!
मेरी कल्पना से भी बाहर!
मैं कभी सोच भी नहीं सकता था ऐसा!
न देखा था,
और न सुना था!
कमाल था!
बस कमाल!
"फिर क्या हुआ?" मैंने हैरत से पूछा,
"उनकी घोड़ा-गाड़ी अपने आप भाग रही थी! कोई लगाम भी नहीं थी! मुझे बड़ी हैरानी थी! घोड़ा बड़ा मज़बूत था! वो सरपट भागे जा रहा था! जो रास्ता मैंने आजतक देखा था, उसी रास्ते में से, एक और रास्ता, फट गया था, ये मैंने कभी नहीं देखा था! सब कुछ अजीब सा था!" वे बोले,
"डर नहीं लगा?" मैंने पूछा,
"नहीं! एक पल को भी नहीं! वे मुझसे बातें करते जा रहे थे, हंसी-ठिठोली हो रही थी, रास्ता कटे जा रहा था!" वे बोले,
"फिर?" मैंने पूछा,
"एक जगह घोड़ा-गाड़ी रुकी! वे दोनों उतरे, मैंने सामने देखा, बड़ी रौशनी थी वहाँ! बड़ी भीड़ सी थी!" वे बोले,
"कितने होंगे?" मैंने पूछा,
"करीब दो सौ तो रहे होंगे" वे बोले,
दो सौ!
दो सौ पिशाच!
उनके बीच,
अकेले ये भरत सिंह!
आज भी जीवित हैं!
कमाल है!
"फिर क्या हुआ?" मैंने पूछा,
"वे सादर ले गए मुझे! सभी से मिलवाया, सभी सजे-धजे थे वहाँ! मिठाइयों के अम्बार लगे थे, मांस पक रहा था, ख़ुश्बू ही ख़ुश्बू फैली थी वहां, पहले अफीम पिलाई थी उन्होंने, घोटा, अफीम का घोटा, हाँ, वो अफीम ही थी! बड़ा बढ़िया स्वाद था उसका, ज़रा सी भी कड़वी नहीं!" वो बोले,
वाह!
अफीम का घोटा!
आमतौर पर,
ये एक पुराना रिवाज़ है!
एक ही बर्तन सी पिलाई जाती है वो अफीम!
ये भ्रातत्व के लिए होता है!
वही घोटा पिलाया गया था,
इन भरत सिंह को!
"अच्छा! फिर?" मैंने पूछा,
"फिर जी, मुझे अंदर ले जाया गया! बड़ा आलीशान सा कमरा था वो, जैसे किसी राजा-महाराजा का कक्ष हो! मुझे बिठा दिया गया वहाँ! अब मिठाइयां लायी गयीं! वहाँ के सभी लोग, बेहद प्रेम पपूर्वक व्यवहार कर रहे थे मेरे साथ!" वे बोले,
मेरी तो सोच ही उलट दी थी,
इन भरत सिंह ने!
मैंने कभी नहीं सोचा था कि,
पिशाच भी ऐसे व्यवहार करेंगे!
"फिर क्या हुआ?" मैंने पूछा,
"मैंने छक कर खाया! बहुत लज़ीज़ भोजन था! मांस तो ऐसा था जैसे, एकदम ताज़ा हो, हिरन का मांस लगा था मुझे वो, खट्टा खट्टा सा!" वे बोले,
"फिर?" मैंने पूछा,
उन्होंने सांस भरी!
मुझे देखा,
"फिर मैंने जाने की इच्छा व्यक्त की, वे मान गए, उन्होंने एक थाल, सारे भोजन का लबालब भर दिया! कहने लगे, घर में बच्चों को खिला देना!" वे बोले,
'अच्छा!" मैंने कहा,
"हाँ! फिर वे मुझे छोड़ने भी आये, गाँव के बाहर तक, मैंने उन्हें घर आने को कहा, उन्होंने फिर कभी कह कर बात खत्म कर दी!" वे बोले,
"और वो थाल?" मैंने पूछा,
"वो मैंने सर पर उठा लिया, खाना अभी तक गरम था, उन्होंने मुझे एक कपड़ा भी दिया, मैंने सर पर रखा और उनसे विदा ली!" वे बोले,
"अच्छा! और आप घर आये, बच्चों ने खाना खाया, और इस तरह वो थाल आपके पास आ गया!" मैंने कहा,
"हाँ जी! यही बात है!" वे बोले,
अब मैं डूबा सोच में!
ये,
असम्भव,
सम्भव कैसे हुआ?
सोच ही रहा था कि.............
मेरा फ़ोन घनघनाया,
ये अश्रा थी,
मैंने बात की,
और बाद में बात करने को कह दिया,
भोली लड़की,
फिर से मान गयी!
हाँ,
लड़की ही कहूँगा मैं उसे,
तो अब इन,
भरत सिंह ने मेरे होश,
उड़ा दिए थे!
पिशाच ऐसे सभ्रांत कब से हो गए?
माना वे सामर्थ्यवान हैं,
परन्तु भरत सिंह को ले जाना,
और खाना खिलाना,
फिर घर तक छोड़ना,
ये अजीब बात थी!
ये गले नहीं उतर रही थी!
मैंने अब तक जो देखा था,
सुना था,
वो सब उलट ही था!
कनपटी गरम हो गयीं दोनों!
सोचने पर विवश कर दिया!
लेकिन फिर से एक प्रश्न!
कि,
अब क्यों जाना चाहते हैं ये भरत सिंह?
वापिस उनके पास?
किसलिए?
"लेकिन एक बात बताइये, आप अब क्यों जाना चाहते हैं वहाँ?" मैंने पूछा,
भरत सिंह समझ गए मेरी बात!
हँसे,
और मुझे देखा,
शर्मा जी को देखा,
"वो थाल!" वे बोले,
"थाल?" मैंने अचरज से पूछा,
"हाँ जी, मेरे घर में दो बार चोरी हुई उस थाल के लिए, डकैती ही पड़ी थी, लेकिन थाल हाथ नहीं लगा, तबसे मन में भी है, मैं नहीं चाहता कि किसी और के हाथ लगे वो थाल, मैं वापिस करना चाहता हूँ" वे बोले,
बेहद शरीफ थे वे!
कोई और होता,
तो अब तक कहीं औने-पौने दाम में बेच दिया होता!
लेकिन इन्होने नहीं बेचा!
एक प्रकार से अपनी मित्रता निभायी थी उन्होंने!
अब फिर से एक प्रश्न था!
कि भरत सिंह को कैसे पता चला कि वो प्रेत हैं?
वो प्रेतों के संग,
दावत खा कर आये थे?
मैंने ये प्रश्न पूछ ही लिया उनसे!
"मैं अगले दिन वो थाल वापिस करने गया, वो जो रास्ता फटता था मुख्य रास्ते से, अब नहीं था वहां, बस कीकर और जंगली पेड़ लगे थे वहाँ, मैंने बहुत आगे पीछे देखा, कहीं नहीं मिला, अब हुआ खटका मुझे, कि मैं तो प्रेतों के संग गया था!" वे बोले,
"कभी फिर वापिस आये वो?" मैंने पूछा,
"नहीं जी, कभी नहीं" वे बोले,
"तो ये मन्नी कहाँ से मिला?" मैंने पूछा,
"मैंने बहुतों से पूछा, सभी थाल के पीछे पड़े थे, कोई योग्य आदमी नहीं मिला, आखिर में ये मिले, बाबा नेतनाथ तैयार हो गए!" वे बोले,
बाबा नेतनाथ!
बहुत शाइन और सरल स्वाभाव के हैं!
बुज़ुर्ग हैं!
लालच तो कभी छू के गया ही नहीं!
अप्सरा-साधना में पारंगत हैं!
मेरे दादा श्री के जानकार हैं!
इसीलिए तैयार हुए होंगे वो!
अब समझ में आ गया था!
"भरत जी, क्या मैं वो थाल देख सकता हूँ?" मैंने कहा,
"हाँ जी, क्यों नहीं" बोले भरत सिंह!
और अब चले हम उनके साथ!
बाबा नेतनाथ स्नान के लिए गए थे,
उनके कुछ शिष्य ही बैठे थे वहां,
हम अंदर गए,
भरत सिंह ने,
एक बड़ी सी कपड़े की पोटली उठायी,
उसको खोला,
दो झोले भी थे उसमे,
