उसने कोई विरोध नहीं किया!
बस! काम-चांडाल हंस पड़ा!
और मैं फंसा अपने ही जाल में!
मित्रगण!
कोई विरोध नहीं था!
वो मेरे सामने ही थी!
मैं उसके सामने थे!
काम-ज्वाला धधक रही थी!
उसकी भी,
बस स्त्रियोचित गुण के कारण,
स्पष्ट नहीं बता सकती थी!
मैं जानता था ये!
मुझे वो 'सुख' अभी पल में ही,
प्राप्त हो सकता था,
लेकिन मेरे लिए कुछ नियम हैं!
ये नियम बड़े ही कठिन हैं!
इसमें आज्ञा लेनी होती है!
और ये आज्ञा मैं अभी नहीं ले सकता था!
प्यास अभी थामनी थी मुझे!
और थामनी ही पड़ी!
और अन्य कोई विकल्प नहीं था,
मेरे पास,
बस थामने और,
थमने के अलावा!
वो समझ गयी थी!
मात्र कुछ घंटों में ही,
मेरे इतना करीब आ गयी थी वो,
कि समर्पण करने को तैयार थी!
अब मुझे सम्मान करना था उसके,
इस समर्पण का!
मैंने तभी दो गिलास पानी पिया!
और अपने आपको शांत किया!
मेरे अंदर हंस रहे काम-चांडाल ने,
बहुत बुरी बुरी गालियां सुनायीं मुझे!
वो अंदर ही अंदर मुझे दुत्कार रहा था,
धिक्कार रहा था!
न जाने क्या क्या बके जा रहा था!
मैंने खड़ा किया उसको,
और अपनी छाती से लगा लिया,
उसने भी मुझे कस कर जकड़ लिया!
"तृप्ता?" मैंने कहा,
उसने देखा मुझे!
उसके उस भाव से,
मैं और धंस गया ज़मीन में!
उसने अपना सर मेरे सीने में धंसा दिया!
"तृप्ता?" मैं फुसफुसाया!
"हूँ?" उसने सर हिलाकर पूछा,
"मैं अभी अतृप्त हूँ!" मैंने कहा,
मैंने कहा,
और उसने मेरी भुजाओं में,
अपने नाख़ून गड़ा दिए!
आनंद आ गया उस पीड़ा में!
एक अनूठा सा आनंद!
"तुम तृप्ता हो! मुझे तृप्त होना है!" मैंने फिर से फुसफुसाकर कहा!
उसने फिर से नाख़ून गड़ाए!
मुझे फिर से आनंदानुभूति हुई!
वो जो पीड़ा हो रही थी,
उस से मेरे शरीर का एक एक रोम,
आनंद के मारे चीख रहा था!
मैंने उसको और ज़ोर से भींच लिया अपने अंदर!
उसने अपना बदन शिथिल छोड़ दिया!
मेरे शरीर पर टिक कर!
दे दिया था उसने अपना बदन मेरे हाथों में!
अब इस से अधिक मैं क्या मांगता उस समय उस से!
मैंने फिर से चूमना शुरू किया उसे!
उसकी मादक गंध,
मेरे अंदर बसना शुरू हो गयी!
मेरी जिव्हा पर,
मेरी नासिका में!
मेरी त्वचा पर!
मैं एक अलग ही मद में था उस समय!
मैं अपने हाथों से,
जितना उसको भर सकता था,
भरे जा रहा था!
"मैं ऐसे नहीं जाऊँगा यहां से तृप्ता!" मैं फिर से फुसफुसाया!
कुछ न बोली वो!
सुन सब रही थी!
"मैं अतृप्त नहीं जाऊँगा तृप्ता!" मैंने कहा,
वो अब कस गयी मुझसे!
मेरे शब्द चुभ रहे थे उसको!
और ये चुभन,
मात्र एक स्त्री ही समझ सकती है!
पुरुष इसमें,
निपट्ट-गंवार हैं!
हम में उबाल आता है!
और फिर शांत हो जाते हैं!
पल में जो अभी भुजाओं में थे,
उस से दूर हो जाते हैं!
तत्क्षण उसका कोई उद्देश्य नहीं रहता!
ये पुरुष की,
नैसर्गिकता है!
परन्तु स्त्री के लिए,
ये शिखर है,
एक नया आयाम है!
उसकी यही यात्रा कभी समाप्त नहीं होती!
और पुरुष,
कुछ क्षणों बाद ही,
रुक जाते हैं!
थक जाते हैं!
शांत हो जाते हैं!
परन्तु स्त्री नहीं!
स्त्री तो यहां से आरम्भ करती है,
और पुरुष!
अल्पविराम लगा कर आगे बढ़ता है!
मैंने भी तो अल्पविराम ही लगाया था!
पूर्णविराम नहीं!
पूर्णविराम की,
हां,
भूमिका बाँध ली थी!
यही तो करता है एक पुरुष!
जीवन भर भूमिकाएं बांधता रहता है!
जैसा मैं कर रहा था!
अब मैंने अलग किया उसको,
बिठाया,
पानी पिलाया!
उसके माथे का पसीना पोंछा!
कुछ और भी,
घर-परिवार की बातें हुईं!
और उसके बाद वो चली गयी!
और मेरा बदन टूटने लगा अब!
मैं लेट गया तभी!
और पानी पिया!
अपने आवेश को संतुलित किया!
और सोचने लगा इस तृप्ता के बारे में!
इतनी सरल?
इतनी सुंदर!
कोई भी,
क्यों न प्राप्त करना चाहेगा उसको!
एक और चिंता पाल ली मन में!
तीन दिन बाद चली जायेगी तृप्ता!
फिर न जाने कब हो मुलाक़ात!
कब मिले समय!
कब जाना हो उधर कभी!
कब आना हो उसका कभी!
तभी नकुल आ गया!
हँसता हुआ!
कुटिल सी हंसी लिए!
बैठ गया वहीं,
फल लाया था, वहीँ रख दिए,
"शर्मा जी कहाँ हैं?" मैंने पूछा,
"वो बगीचे में आराम कर रहे हैं" वो बोला,
"चलो करने दो आराम" मैंने कहा,
"हाँ जी! आप भी करो आराम, थक गए होंगे!" हंस के बोला वो!
मैं भी हंस पड़ा!
क्या समझाता उसको!
समझ ही नहीं आती उसे!
इसलिए उसकी हाँ में हाँ,
हंसी में हंसी!
यही करता रहा मैं!
"वैसे एक बात है! परी है क़तई! सभी देखते हैं उसको! और वो आपको देखती है! अरे, हमारी भी कोई सुन लो!" वो बोला,
माथे पर हाथ रखते हुए!
मेरी हंसी छूट गयी!
"मेरी बात सुन नकुल, कल आयोजन है, उसके बाद हम कहाँ और वो कहाँ, कुछ पता है?" मैंने कहा,
"सो तो ठीक है, लेकिन मानना पड़ेगा गुरु जी आपको! दो चार विद्या ही सिखा दो!" वो
बोला,
"क्या करेगा?" मैंने पूछा,
"आप जानते हो गुरु जी!" वो बोला,
"गलत काम" मैंने कहा,
अब तक सेब छील दिया था उसने,
काट कर मुझे दे दिया,
मैं खाने लगा!
तभी शर्मा जी भी आ गए,
वे भी खाने लगे वो फल,
"कर लिया आराम?" मैंने पूछा,
"अब समय बिताना है तो कुछ तो करना ही पड़ेगा!" वे बोले,
"हाँ ये तो है!" मैंने कहा,
"गुरु जी का समय बढ़िया कट रहा है सबसे!" नकुल बोला,
मैं हंस पड़ा!
वे दोनों भी हँसे!
"यार नकुल?" बोले शर्मा जी,
"हाँ जी, बोलो" बोला वो,
"चाय ही पिला दे यार" बोले शर्मा जी,
"अभी लाया" वो उठा,
अपने गमछे से हाथ साफ़ किये,
और चला गया!
थोड़ी देर बाद आया वापिस,
एल लोटे में चाय ले आया था,
और प्लास्टिक के गिलास,
चाय डाली,
और दे दी सभी को,
हम पीने लगे चाय!
वो दोपहर भी काटी हमने कैसे करके!
और फिर आ गयी शाम!
अब हुई शाम!
तो लगी हुड़क!
सारा सामान-सट्टा ले आया नकुल!
और हम हो गए शुरू!
रात नौ बजे तक,
फारिग हो गए!
और उसके बाद अपना बिस्तर पकड़ लिया!
नकुल भी संग ही सो रहा था हमारे!
बात बात में,
शाबास! शाबास!
बोले जाता था!
शर्मा जी ने डाँट दिया उसे!
चुप हो गया फिर वो!
लेकिन मुझे हंसी आती रही!
सो गए जी हम फिर उसके बाद!
हुई सुबह!
जागे हम!
और हुए फारिग!
तभी फोन बजा,
ये तृप्ता थी,
हालचाल पूछे मैंने,
उसने भी!
फिर दिन में मिलने की बात हुई!
और फिर हम दिन में मिले,
बहुत बात हुईं हमारी,
अश्रा नहीं आई थी!
पता नहीं क्या बात थी!
तकरीबन दो घंटे के बाद,
वो चली गयी!
और मैं अपने कक्ष में आ गया,
शर्मा जी ऊँघ रहे थे,
और वो नकुल,
कहीं काँटा फेंकने गया होगा!
मैं भी लेट गया!
नींद आ गयी!
नकुल आया फिर,
भोजन ले आया था,
अब भोजन किया!
और फिर से आराम किया!
काम और कोई था नहीं!
खाओ, पियो,
और सो जाओ!
अगला दिन आया!
आज आयोजन था!
सब तरफ तैयारियां चल रही थीं!
मैं बाबा देवनाथ से कई बार मिल चुका था,
आज संध्या-समय उनसे फिर मिलना था,
सभी मिलने वाले थे,
संध्या आने में बहुत समय था तब,
दिन में भोजन कर ही लिया था,
काशीफल की सब्जी के साथ,
पूरियां बनी थीं!
इतनी लज़ीज़ की पूछिए ही मत!
खाने के साथ साथ,
उंगलियां भी चबा जाओ, तो भी पता न चले!
खूब छक कर खाया हमने!
जैसे पिछले कई दिनों से भूखे हों हम!
भोजन करने के बाद,
मैं बाहर आ गया था,
हवा बढ़िया चल रही थी,
तो मैं उस बड़े से बगीचे में चला आया था,
शर्मा जी कक्ष में फ़ोन पर मशग़ूल थे,
मैं बगीचे में आया,
गमछा बिछाया और लेट गया!
हवा में तीखापन था,
हल्का सा सुरूर वाला मद था,
आँखें बंद कर लीं मैंने!
अभी कोई आधा घंटा ही बीता होगा,
कि मुझे लगा कोई और भी है वहाँ,
मैंने सर उठकर देखा,
मुझसे थोड़ी ही दूर,
अश्रा बैठी थी, अकेली!
मुझे ताज़्ज़ुब हुआ!
मैंने आवाज़ दी उसे,
उसने अनसुना कर दिया,
मुझे बड़ा अजीब सा लगा!
मैंने फिर से आवाज़ दी,
फिर से अनसुना कर दिया,
मैं उठा,
उसने देखा मुझे,
किसी पत्ते के लगातार कई टुकड़े किये जा रही थी!
बेचैन लग रही थी!
मैं चला गया उसके पास!
"बैठ जाऊं?" मैंने पूछा,
उसने देखा मुझे,
और सर फेर लिया,
अपनी बड़ी बड़ी आँखों से,
मना ही किया था उसने तो!
"बैठ जाऊं?" मैंने कहा,
वो उठ गयी,
और जाने लगी!
मैंने रास्ता रोका उसका,
और पकड़ लिया उसका कन्धा!
और नीचे बिठाने के लिए,
ज़ोर लगाया!
वो कसमसाई!
छूटने की कोशिश की,
लेकिन नहीं छूट सकी!
हार कर, बैठ गयी!
मैं भी बैठ गया!
"क्या बात है? तबीयत तो ठीक है तुम्हारी?" मैंने पूछा,
कुछ बोले ही न!
मैं बार बार पूछूँ,
बोले ही न!
मैंने हाथ पकड़ा उसका,
झिड़का उसे,
उसके बाल चेहरे पर आ गए!
और सुंदर लगने लगी!
तृप्ता की तरह!
"बात क्या है?" मैंने पूछा,
उसके बाल ठीक करने के लिए,
जैसे ही हाथ बढ़ाया आगे,
उसने हाथ हटा दिया मेरा!
बहुत गुस्सा आया मुझे!
मैं खड़ा हो गया,
अपने जूते पहने,
और बिना पीछे देखे,
खट खट आगे बढ़ता चला गया!
आ गया सीधे अपने कमरे में!
दरवाज़े की तरफ पीठ करके बैठ गए,
और बातें करने लगा शर्मा जी से!
वो वहाँ से गयी या नहीं,
पता नहीं,
मैं तो लेट गया था!
आँखें बंद कीं और सो गया!
आधा घंटा ही सोया होऊंगा,
कि शर्मा जी ने जगाया मुझे,
मैंने पूछा कि क्या बात है तो,
उन्होंने बाहर इशारा किया,
मैंने बाहर देखा,
ये अश्रा थी!
मुझे बहुत गुस्सा आया था उस समय,
मैं खड़ा हुआ,
शर्मा जी उठे और बाहर चले गए,
"आओ" मैंने कहा,
वो अंदर आ गयी,
"बैठो" मैंने कहा,
बैठ गयी,
"हाँ बताओ, किसलिए आई हो?" मैंने पूछा,
उसे इस तरह का प्रश्न पूछे जाने का,
तनिक भी आभास नहीं था!
चौंक पड़ी थी वो!
उसकी दोनों आँखें बंद हो गयी थीं!
एक पल के लिए तो!
कोई उत्तर नहीं दिया उसने,
"कुछ बोलना नहीं है तो वापिस जाओ" मैंने कहा,
मैंने कहा,
और उसकी आँखों में आंसू डबडबा गए!
मेरी तो नैया को झटका सा लगा!
जैसे किसी चट्टान से टकरा गयी हो!
"क्या हुआ अश्रा?" मैंने पूछा,
अब आंसू पोंछे उसके मैंने,
अब नहीं किया विरोध उसने!
"अब बताओ अश्रा, क्या बात है, दो दिन से तुम तृप्ता के संग भी नहीं हो, तबीयत तो ठीक है?" मैंने पूछा,
"तृप्ता ने ही मना किया मुझे अपने साथ चलने को, तबीयत ठीक है" वो बोली,
तृप्ता ने मना किया?
समझ गया!
आ गया समझ!
"क्यों मना किया?'' मैंने फिर भी पूछा,
"पता नहीं" उसने कहा,
"कहाँ है तृप्ता अब?" मैंने पूछा,
"सो रही है अभी तो" वो बोली,
मुझे बहुत भोली लगी ये अश्रा!
सरल स्वाभाव की,
अब मैंने खींचा उसका हाथ!
अपने हाथ में लिया!
"कोई बात नहीं अश्रा! बुरा नहीं मानो" मैंने कहा,
उसने गर्दन हिलायी अपनी!
"तुम्हारा नंबर है कोई?" मैंने पूछा,
"हाँ", उसने कहा,
मैंने उसका नंबर ले लिया,
"जब दिल्ली जाऊँगा, तब फ़ोन करूँगा, अभी मेरा नंबर नहीं लो, ठीक?" मैंने कहा,
वो समझ गयी थी कि क्यों!
"अब आराम से जाओ! खाना खाओ!" मैंने कहा,
वो उठी,
तो मैं भी उठा,
उसके माथे पर चूमा मैंने!
उसने मेरे सीने पर!
सब कुछ बहुत जल्दी जल्दी हो रहा था!
जैसे मैंने मोहिनी छोड़ रखी हो!
वो चली गयी!
और मैं बैठ गया वहीं!
अश्रा ने दिल में जगह बना ली थी मेरे!
और तृप्ता अब कहीं दूर खड़ी थी!
लेकिन मैं अभी भी उलझा था!
फिर हुई शाम!
ये आयोजन का समय था!
मैं शर्मा जी और नकुल गए वहां,
वहाँ पूजन हुआ,
बाबा देवनाथ से भेंट हुई!
और कई दूर दूर के मेहमानों से मुलाक़ात हुई!
तृप्ता आई थी वहाँ!
मुझसे नज़रें मिलीं!
और मैंने उसे,
वहाँ से हटने को कहा,
वो हट गयी!
मैं चला वहां से,
वो मेरे पीछे पीछे आ रही थी!
मैं अपने कक्ष में आ गया!
वो भी आ गयी!
मैंने कक्ष बंद कर लिया!
और तृप्ता को देखा!
हया के मारे लाल हो रखी थी वो!
"तृप्ता!" मैंने कहा,
उसने सर उठकर देखा मुझे!
अपनी आँखों से नज़रें मिलायीं मुझसे!
"मैं कल चला जाऊँगा, इसके बाद, आऊंगा वहीँ, मिलोगी न मुझसे?'' मैंने पूछा,
वो चौंक पड़ी!
मेरे सीने से लग गयी!
लेकिन अब काम नहीं भड़क रहा था मेरा!
मुझे अश्रा का चेहरा याद आ रहा था!
वो भोली सी लड़की!
उसी का चेहरा!
मित्रगण!
मैंने समझाया उसे,
कि मुझे अभी आज्ञा नहीं है,
अभी प्यासा ही रहना है!
आज्ञा मिलते ही,
दौड़ा चला आऊंगा मैं उसके पास!
उसको समझा दिया!
उसकी गागर नहीं छलकने दी मैंने!
मैं प्यासा ही रह गया!
लेकिन इस प्यास में असीम आनंद था!
वो चली गयी!
मेरी बातों में आ कर!
ये मेरी उस से अंतिम मुलाक़ात थी!
इसके बाद मैं तृप्ता से कभी नहीं मिला!
वो कभी दिल्ली नहीं आई,
मैं कभी वहां नहीं गया,
हाँ फ़ोन आते रहे,
