वर्ष २०१२ उत्तर प्र...
 
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वर्ष २०१२ उत्तर प्रदेश की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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तो नकुल ने बताया मुझे कि वो कौन हैं!
वे दोनों बाबा गिरिराज की पुत्रियां हैं!
तृप्ता ने तो मेरे अंदर,
अगन लगा दी,
अतृप्ति की अगन!
मैं निहारता गया उसको!
जब तक कि उसने मुझे नहीं देखा,
मुझे देखा उसने,
सकपकाई,
ताड़ गयी मेरा आशय!
और चल पड़ी अश्रा को लेकर वहां से!
अश्रा ने ही मुझे देखा था पीछे मुड़कर!
तृप्ता ने नहीं!
वो ऐसे चल रही थी,
जैसे भूमि पर एहसान कर रही हो!
गज-गामिनी जैसे!
मेरा सीना भर उठा अजीब से भाव से!
अब बस, उस से बात हो जाए किसी तरह!
और कुछ ही देर बाद,
जब वो चली गयीं,
मैं बावरा हो गया!
मैं उठा और हो लिया नकुल के साथ,
और पूछा कि कहाँ ठहरी हैं ये दोनों?
नकुल ले गया,
और एक जगह रुक गया,
और सामने एक कक्ष दिखाया,


   
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श्रीशः उपदंडक
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खपरैल से बना कक्ष था वो,
झोंपड़ी जैसा!
लेकिन काफी बड़ा!
और तभी अश्रा बाहर निकली!
मुझे देखा,
मैं तो ठूंठ सा खड़ा हुआ देख रहा था वहाँ!
मुझे तृप्ता का इंतज़ार था!
अश्रा अंदर गयी,
और तृप्ता के संग बाहर आई!
मुझे देखा उन्होंने!
मैंने तृप्ता को इशारा किया,
अपने पास आने का!
दोनों ही अंदर भाग गयीं!
बड़ी बुरी हालत!
शिकारी के हाथ से शिकार छूट गया था!
और शिकारी बहुत भूखा था!
मैं वहीँ खड़ा रहा,
थोड़ी देर में,
अश्रा बाहर आई,
मुझे देखा,
और जाने को कहा,
इशारा किया!
हाथ जोड़े,
कि मैं जाऊं!
मैंने बुलाया उसे,
हाथ के इशारे से!


   
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श्रीशः उपदंडक
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उसने आसपास देखा,
और मुझे जाने को कहा,
मैंने मना किया!
वो हंसने लगी!
मेरी तो नैया सीधी धार में आ गयी!
मैं तो खेने लगा उसको तेज तेज!
मैंने फिर से इशारा किया आने का,
उसने इशारा किया इस बार,
कि बाद में आउंगी!
मेरी नैया अब दौड़ने लगी!
मैं तो विजयी सा होकर,
लौट पड़ा!
नकुल मुस्कुराने लगा!
भांप गया कि पासा सही फेंका है मैंने!
मैं अपने कक्ष में आ गया!
बैठ गया,
और फिर लेट गया!
बाहर की तरफ मुंह लटकाये,
पेट के बल!
काफी देर हुई,
मैं भूमि पर, अपने हाथों से,
कुछ लिखे जा रहा था,
न जाने क्या क्या!
और तभी, वे दोनों गुजरीं वहाँ से,
मेरे कक्ष के अंदर देखते हुए!
मुझ में तो जान आ गयी!


   
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श्रीशः उपदंडक
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झट से खड़ा हुआ!
और चला पड़ा बाहर,
जल्दबाजी में,
शर्मा जी के जूते पहन लिए थे,
जूते पूरे नहीं आ रहे थे,
लेकिन चिंता किसे थी!
खर्रम-खर आगे जाता चला गया,
उनको देखा,
वे सबसे अलग जा रही थीं,
उस भवन के पीछे की ओर!
दिल धड़का!
अब अँधा कहा चाहै?
दो आँखें!
बस!
मैं भी चल पड़ा उनके पीछे पीछे!
वे खड़ी थीं वहाँ!
मैं तो सीधा ही जा पहुंचा!
जैसे बावरे किया करते हैं!
अब नज़दीक से देखा मैंने तृप्ता को!
कितना संतुलित,
सुगठित,
कामुक,
लावण्यमयी,
बदन बनाया था उसका बनाने वाले ने!
उसकी आँखें ऐसी थीं,
कि एक बार देख लो,


   
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श्रीशः उपदंडक
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तो नज़र हटे ही नहीं!
उसका एक एक अंग!
चुम्बकत्व से आवेशित था!
मन तो कर रहा था,
चिपक ही जाऊं चुंबक से में!
"क्या नाम है तुम्हारा?" मैंने पूछा,
"तृप्ता" वो बोली,
ओह तृप्ता!
मैं अतृप्त हूँ!
"और तुम्हारा?" मैंने पूछा,
"अश्रा" वो बोली,
पहली बार आवाज़ सुनी मैंने अश्रा की!
ऐसी कामुक आवाज़ कि मेरी हड्डियां भी काँप गयीं!
पाँव के तलवों में,
पसीने छूट पड़े!
कोई कम नहीं था!
तृप्ता और अश्रा!
दोनों ही रूपवान थीं!
या यूँ कहो कि मैं,
काम-ज्वाला में,
सब कुछ जलाने को तैयार बैठा था!
अश्रा उस समय ज़रा नाजुक सी थी!
और तृप्ता! फलों से लदे वृक्ष के समान!
"दोनों बहन हो?" मैंने पूछा,
"हाँ! मैं बड़ी हूँ और ये छोटी" बोली तृप्ता!
अब मैं दोनों को देखूं!


   
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श्रीशः उपदंडक
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एक अशआर याद आ गया!
हुस्न और इश्क़, दोनों में तफ़रीक़ है,
क्या करूँ मेरा दोनों पे ईमाँ है!!!!
किसको छोड़ूँ!
और किसको लपकूँ!
बुरा फंसा!
अब मेरी और भी बातें हुईं उनसे,
मेरे बारे में पूछा उन्होंने,
मैंने बता दिया!
वो तो दोनों ही,
बसंत से लदीं थीं!
और मैं!
मुझ पर कभी बसंत आता,
कभी पतझड़!
कभी हेमंत!
कभी शरद!
कभी ग्रीष्म!
कभी शीत!
छह ऋतुएँ मेरे ऊपर से बार बार,
गुजरे जा रही थीं!
फिर तृप्ता ने जाने को कहा,
नहीं जाने देना चाहता था मैं!
लेकिन क्या करता!
वहाँ शायद अभी,
अगन नहीं सुलगी थी!
मैं ही फुंके जा रहा था!


   
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श्रीशः उपदंडक
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वे चली गयीं!
मैं कभी अश्रा को देखता,
कभी तृप्ता को!
उनकी कामुक चाल ने,
छलनी कर दिया मेरा मस्तिष्क-पटल!
काम दहाड़ें मार मार कर,
उकसाए जा रहा था मुझे!
और मैं शांत किये जा रहा था उसे,
क्षण!
प्रतिक्षण!
मैं भी लौट पड़ा!
खुश था मैं!
कम से कम बात तो हो ही गयी थी!

मैं लौट आया कमरे में अपने!
और लेट गया!
शर्मा जी सोये हुए थे!
मैंने उठाया उन्हें,
वे जागे,
तभी नकुल भी आ गया!
सामान ले आया था,
खाने पीने का!
हम हो गए शुरू फिर!
आज तो खुश था मैं!
शर्मा जी को अब सारी बात बता दी!
वे हंस पड़े!
अब नकुल पीछे पड़ गया!


   
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श्रीशः उपदंडक
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बोला कि गुरु जी कोई तरीका हमे भी बताओ!
हम तो भटकते ही जा रहे हैं रेगिस्तान में,
एक झाड़ी भी नहीं मिली आज तक!
मेरी और शर्मा जी की हंसी छूटी!
मैंने उसको कहा कि,
इसमें क्या तरीका?
साफ़ साफ़ बात करो,
घबराना किसलिए?
अपनी कमज़ोरियाँ और अपनी परेशानियां,
सभी को बताओ,
नहीं तो ये कमज़ोरियाँ जीने नहीं देंगी,
और परेशानिया मरने नहीं देंगी!
उसको समझ ही नहीं आया!
मेरी तारीफ़ ही करता रहा!
बोला यहां आज तक,
एक बेर भी नहीं मिला,
और गुरु जी दो दो काशीफल लिए घूम रहे हैं!
अब और हंसी छूटी!
और वो अफ़सोस मना रहा था!
बार बार कह रहा था,
कि इतना समय हो गया,
किसी ने भी आँख उठकर नहीं देखा,
और गुरु जी को देखो,
उनको ही उठा लाये!
चढ़ गयी थी उसको!
हमारे ठहाके गूंजे!


   
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श्रीशः उपदंडक
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तभी कोहनी मारी नकुल ने,
मैंने देखा उसे,
उसने आँखों से अपनी,
बाहर देखने को कहा,
मैंने बाहर देखा,
वही दोनों जा रही थीं!
मैं लपका वहाँ के लिए!
और पहुँच गया!
"इतनी रात?" मैंने पूछा,
"बस घूम रहे हैं!" अश्रा बोली,
"भोजन कर लिया?" मैंने पूछा,
"हाँ, आपने?" पूछा उसने,
"चल रहा है" मैंने कहा,
"तो आप भोजन छोड़ आये?" तृप्ता ने पूछा,
"भोजन छूट जाए कोई बात नहीं, तृप्ता नहीं छूटनी चाहिए!" मैंने कहा हंस कर!
वो भी हंस पड़ी!
अश्रा नहीं हंसी!
तनिक भी नहीं!
"अब समय सही नहीं है, वापिस जाओ अब" मैंने कहा,
अश्रा लौट पड़ी!
तृप्ता ने आवाज़ दी उसे रुकने को,
नहीं रुकी,
खट खट चलती चली गयी!
और फिर तृप्ता भी जाने लगी!
जैसे ही जाने लगी,
मैंने रोक लिया उसे,


   
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श्रीशः उपदंडक
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हाथ पकड़ लिया उसका!
कुम्हला गयी!
हाथ नहीं छुड़ाया उसने!
अजी फिर क्या था!
फाटक खुला था!
बस घुसने की देर थी!
मैंने झट से चूम लिए उसके होंठ!
और छोड़ दिया उसको!
वो शर्माते हुए चली गयी!
मैं छाती चौड़ी कर,
लम्बे लम्बे डग भर,
लौट आया अपने कक्ष पर!
मदिरा का नशा तो छू हो गया था,
अब वो नशा सर में घूमने लगा!
मैंने नहीं बताया किसी को भी!
नहीं तो वो नकुल पेट पीट लेता अपना!
जब मैं आया,
तो नकुल ने देखा मुझे,
मेरे कंधे पर थाप दी उसने!
शाबास! शाबास!
यही बोलता रहा वो!
लगता था कि,
देख लिया था उसने मुझे उसे चूमते हुए!
एक गिलास भरा उसने और,
दे दिया मुझे!
मैं खींच गया!


   
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श्रीशः उपदंडक
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फिर से शाबास! शाबास! कहता रहा!
उसके बाद भोजन किया!
और सो गए हम!
दो दिन बाद आयोजन था!
अब तो लग रहा था कि,
दस बारह दिन बाद होता तो कितना भला होता!
खैर!
नींद आ गयी थी आराम से!
सुबह हुई,
तो हल्की हल्की बारिश सी थी!
रिमझिम सी!
नकुल हमारे साथ ही सोया था,
वो भी उठ गया!
उठते ही,
शाबास! शाबास!
यही कहता रहा!
रात भर सपने लिए थे उसने शायद!
उसी का नतीजा लगता था मुझे ये तो!
हम उठे,
नहाये धोये,
निवृत हुए,
और फिर नकुल चाय ले आया,
हमने चाय पी,
और साथ में कुछ नमकीन भी लिया!
बारिश अब तेज थी!
यहां का मौसम ऐसा ही रहता है अक्सर,


   
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श्रीशः उपदंडक
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कब बारिश,
कब धूप!
कुछ पता नहीं!
सभी लोग,
अपने अपने कक्ष में चुपचाप,
छिपे पड़े थे!
हमारी तरह ही!
कोई ग्यारह बजे,
मौसम खुला!
और बारिश ने रहम खाया हम पर!
हाँ,
पेड़-पौधे जवान हो चुके थे!
हरियाली ही हरियाली थी!
लेकिन मैं तो,
अपनी हरियाली ढूंढ रहा था!
उसके बिन तो बंजर ही था सब कुछ!
कहाँ है मेरी वो हरियाली!
मैंने नकुल को भेजा,
वो समझ गया,
चला गया,
थोड़ी देर बाद आया,
बताया कि अभी तो कक्ष बंद है!
चलो जी!
थोड़ा इंतज़ार और सही!
बारह बज गए!
अब लोगों की हलचल शुरू हो गयी थी!


   
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श्रीशः उपदंडक
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वहाँ और भी स्त्रियां थीं,
लेकिन मैं तृप्ता को ही ढूंढ रहा था!
और मेरी जैसे मदद की सूर्य महाराज ने!
धूप आ जा रही थी!
और इस बार जैसे ही आई,
मुझे सामने से आती तृप्ता दिखाई दी,
लाल रंग की साड़ी में
लाल रंग का ब्लाउज!
सुनहरे डोर वाला!
मैं खड़ा हुआ,
नकुल ने मौक़ा भांपा!
और बाहर चला गया,
शर्मा जी पहले से ही बाहर गए हुए थे!
मैं बाहर निकला,
तृप्ता के सामने आया,
उसने नमस्ते की,
मैंने हाथ पकड़ा उसका और,
ले आया अपने कक्ष में!
उसको उलट पलट के देखा,
आज तो कहर ढा दिया था,
उसके बदन ने!
साड़ी में खुल गया था पूरा,
अंगों में मादकता भरी थी!
मेरे सीने में धौंकनी चली अब!
घर्रम-घर! घर्रम-घर!
मैंने बिठा दिया उसे!


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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और खुद भी बैठ गया!
"आज तो मार के ही छोड़ोगी तुम!" मैंने कहा!
वो मेरा आशय भांप गयी!
अपने कजरारे नयन नीचे कर लिए उसने!
अपने दोनों हाथों की उंगलियां,
आपस में लड़ाने लगी वो!
"आज तो कुछ हो कर ही रहेगा! अब मेरे बस में नहीं!" मैंने कहा,
वो,
जस की तस बैठी रही!
मैं उसका वो,
कसा हुआ ब्लाउज ही देखता रहा!
वो सुनहरे डोरे,
फंदे से लग रहे थे मुझे!
जी करता था,
कि खोल दूँ वो फंदे!
फिर डर गया मैं!
आगे नहीं सोच सका मैं!
"कभी दिल्ली आई हो?" मैंने पूछा,
"नहीं" वो बोली,
"अच्छा है!" मैंने कहा!
नहीं समझी वो!
"क्यों?" उसने पूछा,
"मेरे न जाने कितने दुश्मन बन जाते फिर!" मैंने कहा,
वो हंस पड़ी!
मैं भी हंस गया!
"अपना नंबर दो मुझे" मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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उसने बोला,
और मैंने उसका नंबर फ़ोन में डाल लिया!
और मैंने उसको अपना नंबर दे दिया!
"अश्रा कहाँ है?" मैंने पूछा,
"वहीँ है" वो बोली,
"क्या हुआ?" मैंने पूछा,
"कुछ नहीं" वो बोली,
"वैसे बहुत सुंदर हो तुम तृप्ता! सच में ही तृप्ता हो तुम!" मैंने कहा,
मुस्कुराते हुए,
सर नीचे कर लिया!
वो पढ़ी-लिखी थी!
स्नातक हो चुकी थी,
अब आगे पढ़ रही थी,
सलीक़ा था उसमे!
मैंने उसका चेहरा ऊपर किया,
तो आँख बंद कर लीं उसने!
"आँखें खोलो?" मैंने कहा,
कुछ न बोली,
"खोलो?" मैंने कहा,
नहीं खोलीं!
मैंने उसके गुलाबी होंठ छुए!
होंठ छूते ही,
उबाल सा उठा मुझ में!
मैंने न जाने कितनी बार!
कितनी बार!
उसके वो होंठ चूमे!


   
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