"बस, थोड़ा विश्राम कर लें, उसके बाद चलते हैं" वे बोले,
"कोई एक घंटे बाद?" मैंने पूछा,
"हाँ, इतना ही" वे बोले,
अब मैं उठा और अश्रा के पास चला गया,
बता दिया कि एक घंटे के बाद हम लोग,
यहां से चले जाएंगे,
शर्मा जी ने भी सुना,
और फिर हम लेट गए,
अपने संसार में,
बहुत गड्ढे पार करने थे,
गरमी बर्दाश्त करनी थी!
उस क्लच से जूझना था!
उस ब्रेक की आवाज़,
जो कान में पीड़ा पैदा करती थी,
उस से जूझना था!
मैं और अश्रा आपस में बातें करते रहे,
वो भी सुनाती रही,
मैं सुनता रहा,
मैं सुनाता रहा,
वो सुनती रही!
शर्मा जी लेटे हुए थे,
अपने माथे पर,
अपनी कोहनी रखे हुए,
और इस तरह एक घंटा बीत गया,
एक घंटे से भी अधिक समय हो चुका था,
बाबा नेतनाथ उठे,
और खखार कर गला साफ़ किया अपना,
और अपना सामान समेटने लगे!
अब हम खड़े हुए,
और वे सब भी,
मन्नी ने सारा सामान संजो लिया था,
भरत सिंह ने,
अपना गमछा अपने गले में डाल लिया था,
अश्रा ने,
मेरा सहारा लेकर,
मुझे आड़ बना कर,
अपने वस्त्र ठीक कर लिए थे,
मैंने भी अपने वस्त्र ठीक किये,
और अब हम इकट्ठे हो कर,
बाहर की ओर चले!
और तभी नकुश और महिष दोनों ही आ गए,
अब बाबा नेतनाथ ने उनसे आज्ञा मांगी कि,
अब हम चलेंगे,
नकुश मायूस हो गया!
मुस्कुराया!
"चार बरस के बाद कोई मेहमान आया है गाँव में" वो बोला,
चार बरस!
चार बरस पहले,
भरत सिंह आये थे, इसी गाँव में!
एक दावत में!
"आपने बहुत बढ़िया मेहमान-नवाजी की नकुश!" बाबा ने कहा,
"अभी कुछ नहीं कर पाया, सोचा आप और रहोगे यहां" वो बोला,
"हमे अपने संसार में भी तो लौटना है न!" बाबा ने कहा,
"हाँ, ये आवश्यक भी है, जानता हूँ" बोला नकुश!
"इसीलिए आज्ञा चाहते हैं अब" बोले बाबा,
"आप जाना ही चाहते हैं, तो मैं रोकूंगा नहीं आपको" बोला नकुश,
और फिर,
वो कमरा,
भरता चला गया,
एक एक करके बहुत से लोग,
वहां आते चले गए,
करीब पचास के करीब,
वे सुंदरियाँ अलग!
सभी के चेहरे पर,
प्रेम और सौहार्द के भाव थे!
उसी क्षण से,
मेरी ये मान्यता खंडित हो गयी,
कि पिशाच,
रक्त पीने वाले,
मानव-भक्षण करने वाले,
और मनुष्य से चिढ़ने वाले होते हैं!
नहीं!
ऐसा नहीं है!
ये झूठी और,
खोखली मान्यता थी!
यहां आकर तो,
ऐसा लग रहा था कि,
न जाने कब से ये हमे जानते हों!
प्रतीक्षा कर रहे हों हमारी,
वो भी,
कई बरसों से!
चार स्त्रियां अश्रा की तरफ बढ़ीं!
उसको ले गयीं अपने साथ!
हम सभी बैठ गए थे अब!
लोग बढ़ते जा रहे थे!
जैसे कि कोई विदाई समारोह हुआ करता है!
थोड़ी देर में अश्रा आई!
नहायी धोई सी!
उसका बदन,
चमक उठा था!
जैसे चांदनी से लीप दिया हो उसका बदन!
गले में,
छोटे छोटे सफ़ेद फूलों की,
माला पहना दी गयी थी उसे!
अंगूठी!
एक अंगूठी भी उसकी,
बाएं हाथ की,
छोटी ऊँगली में पहना दी गयी थी!
उसमे जो भी रत्न था,
अपनी काली रंग की आभा से,
दमक रहा था!
अब हम खड़े हुए,
नकुश आगे आया,
"अब कब आओगे भाई?" पूछा उसने भरत सिंह से!
"जब आप बुलाओगे!" वो बोले,
"आप जब मर्ज़ी आ सकते हैं" वो बोला,
और भरत सिंह को गले लगा लिया!
फिर हम सबसे गले मिला,
और अब बाबा ने हाथ जोड़कर,
आज्ञा मांगी!
उस भीड़ ने,
रास्ता बना दिया अपने बीच में से,
भरत सिंह का हाथ पकड़े,
नकुश,
अब चल पड़ा था!
हम सभी ने,
सभी को नमस्कार किया!
और चल पड़े बाहर!
हम बाहर आये,
तो फूल बिछे थे!
कालीन बना दिया गया था उनका!
वो भीड़,
हमारे साथ साथ चली!
हमारे पीछे पीछे!
नकुश, भरत सिंह का हाथ थामे,
आगे आगे चले जा रहा था!
और हम उसके पीछे!
हम लौट रहे थे!
अपने संसार में,
और कुछ ही देर में,
ये ग्राम,
अब कभी न मिटने वाला इतिहास बनने वाला था!
अश्रा मेरा हाथ पकड़े थी,
हम तो जैसे कोई,
अति-विशिष्ट अतिथि थे उस ग्राम के!
खिड़कियों से भी लोग,
देख रहे थे हमे!
हाँ, छत पर कोई नहीं था!
मुझे बताया था बाबा ने,
कि ये भूमि है,
हम भूमि के नीचे हैं!
कुछ समझ नहीं आ रहा था!
जितना गुरुत्व हम झेल रहे थे,
उतना ही ये सब!
बस इतना,
कि ये हमसे काफी लम्बे-चौड़े थे!
हम चलते रहे नकुश के पीछे पीछे,
और वो भीड़ हमारे पीछे!
फिर एक जगह जाकर,
भीड़ रुक गयी!
अब केवल महिष और नकुश ही,
वहाँ बचे थे!
सामने एक रास्ता था,
उजाला था वहाँ,
अर्थात दिन जैसा उजाला,
मैंने घड़ी देखी,
दो से अधिक का समय था!
अब यहाँ नकुश रुका,
महिष भी रुका,
और अब वे दोनों हमसे मिले,
बड़े ही प्रेम से,
"दुबारा कब आएंगे भाई?" पूछा नकुश ने मुझसे,
"अवश्य ही आऊंगा भाई! अवश्य!" मैंने कहा,
और वो अब गले मिला मुझसे!
"आप भी! और आप भी!" बोला नकुश, अश्रा से और शर्मा जी से!
बाबा के सामने गया,
"हमारा मेहमान बनने के लिए मैं आपका ऋणी हो गया बाबा! आपका सदैव स्वागत है! मैं इस गाँव का मुखिया हूँ!" वो बोला,
बाबा मुस्कुरा पड़े!
और नकुश को गले से लग लिया!
फिर महिष को भी!
और आगे रास्ते पर जाने के लिए,
अपने हाथों से इशारा कर दिया उसने!
हम आगे बढ़े,
और बढ़ते चले गए!
नकुश और महिष,
हमे देखते रहे गए!
मैं बार बार पीछे मुड़कर उन दोनों को देखता!
वो दोनों वहीँ खड़े थे!
हम आगे बढ़ते रहे!
और फिर वही टीला आ गया,
हम उस टीले पर चढ़ने लगे!
एक एक करके!
मैंने पीछे मुड़कर देखा,
अब वो जगह, जहां वे खड़े थे,
ओझल हो चुकी थी!
मैं आगे बढ़ा,
और बाबा के पास पहुँच गया!
बाबा टीले पर खड़े थे,
उतरते ही,
हम अपने संसार में पहुँच जाने थे!
दिन का उजाला खिला हुआ था!
लेकिन सूरज नहीं दीख रहा था!
पेड़ लगे थे काफी घने,
शायद उनमे छिपा था कहीं!
अब बाबा रुके,
हम भी रुक गए,
और आहिस्ता से,
नीचे उतरे!
हम भी उतरते चले गए!
और फिर आ गए नीचे!
अब बाबा ने अपना झोला लिया मन्नी से,
मन्नी ने झोला दिया,
झोले से पानी की बोतल निकाली,
और दो टोर्च भी!
पता नहीं किसलिए!
और उन्होंने मंत्र पढ़कर,
वो पानी हम पर छिड़क दिया,
जैसे ही पानी पड़ा,
आँखों में पीड़ा हुई,
मैंने आँखें रगड़ीं अपनी.
सभी ने,
सभी ने,
बस बाबा नेतनाथ ने नहीं!
और जब आँखें खुलीं,
तो अँधेरा था!
घुप्प अँधेरा!
रात का स्याह अँधेरा!
आकाश में चाँद भी थे,
तारे भी,
और उस जंगल में,
कीट-पतंगे भी उड़ रहे थे,
उन टोर्च की रौशनी के आसपास,
जो बाबा ने और मन्नी ने पकड़ी थीं!
झींगुरों की आवाज़ें आ रही थीं!
मंझीरे अपनी सुरताल ठोक रहे थे!
झाड़ियों में,
कहीं फंसे हुए जुगनू, टिमटिमा रहे थे!
हमारा स्वागत किया था उन्होंने,
हमारे इस संसार में!
ये क्या हुआ?
वो उजाला कहाँ गया?
और ये अँधेरा?
इसका जवाब मात्र बाबा के पास था!
मैं भाग पड़ा वापिस,
टीले पर चढ़ गया,
शर्मा जी और अश्रा भी भागे मेरे साथ ऊपर ही,
मैं टीले पर पहुंचा,
और सामने देखा,
जहां कल गाँव की रौशनी दिखाई दे रही थीं,
अब वहाँ स्याह अँधेरा था!
दूर दूर तक स्याह अँधेरा!
अश्रा और शर्मा जी भी,
चकित थे!
विस्मय!
हम लौट पड़े नीचे की ओर!
और आ गए बाबा के पास!
"कुछ नहीं दिखा?" उन्होंने पूछा,
"नहीं! कुछ भी नहीं!" मैंने चकित होकर पूछा,
"दिखेगा भी नहीं! जब तक वे न चाहें!" वे बोले,
नहीं समझ आया बाबा!
ज़रा समझाओ!
वे मुस्कुराये!
मुझे देखा,
"हम यहां आये थे कल?" उन्होंने पूछा,
"हाँ?" मैंने कहा,
"घड़ी देखो" उन्होंने कहा,
मैंने घड़ी देखी,
उन्होंने टोर्च की रौशनी डाली मेरी घड़ी पर,
ये क्या??
सवा नौ?
रात के सवा नौ?
मतलब हमे केवल पंद्रह ही मिनट हुए हैं?
और वो,
वो जो हम बीस घंटे उनके साथ थे,
वो क्या था?
दिमाग फटने को तैयार अब!
परखच्चे उड़ जाते!
यदि बाबा नहीं समझाते!
"सुनो! वे समय से परे हैं! उन्हें ये मालूम था कि हम वहाँ आने वाले हैं! याद है वो पहरेदार? जो पेड़ पर था? कूदा था उस से?" उन्होंने पूछा,
"हाँ?" मैंने कहा,
"वो इसीलिए तैनात था! और भरत सिंह का वो थाल, वो क्यों छोड़ा था भरत सिंह के पास?" उन्होंने पूछा,
मैं कुछ नहीं बोला,
दिमाग काम ही नहीं कर रहा था!
"वे जानते थे कि हम आएंगे उनके पास! चार बरस तक इंतज़ार किया उन्होंने! हमारे चार बरस! उनका तो एक पल भी नहीं! वो थाल इसीलिए छोड़ा गया था!" वे बोले,
ओह!
ये क्या रहस्य है?
ये सब क्या है?
वे कैसे जानते थे?
कैसे?
उन्होंने तो हमको देखा भी नहीं?
फिर?
फिर कैसे?
"वे सब जानते हैं, समझे? सब! अब समझे?" उन्होंने कहा,
मैंने हाँ में धीरे धीरे गर्दन हिलायी अपनी!
"बाबा?" मैंने पूछा,
"हाँ?" वे बोले,
"यदि मैं आऊँ यहां कभी दुबारा, तो क्या मैं मिल सकता हूँ उनसे?" मैंने पूछा, मेरे इस सवाल के उत्तर में, मेरे कई प्रश्नों के उत्तर छिपे थे!
"हाँ! वे मिलेंगे! लेकिन!" वे बोले,
"क्या लेकिन?" मैंने कहा,
दिल धड़का मेरा!
"जब वो चाहेंगे, तभी आप यहां आओगे! दुबारा!" वे बोले!
ओह!
अब समझा!
इच्छा!
उनकी इच्छा!
वहां, जो कुछ भी था,
उनकी इच्छा का मूर्त रूप था!
हमे वही सब दिखाया जा रहा था,
जिस से हम परिचित हैं!
कक्ष!
दीवारें!
छत!
बाग़!
बगीचा!
वो वस्तुएं!
सब!
सब हमारी इच्छा से जन्मी थीं!
और वो मूर्त रूप था!
सबकुछ असली था!
उन्होंने क्या मेहमान-नवाजी की थी?
उन्होंने हमारी इच्छा को मूर्त रूप दिया था!
वो भोजन!
जैसा स्वाद मैंने चाहा,
वैसा!
अश्रा का सौंदर्य!
जैसा मैंने चाहा वैसा!
ये थी मेहमान-नवाजी!
ये अत्यंत गूढ़ रहस्य था!
बाबा नेतनाथ,
सब जानते थे!
फिर दिमाग में धमाका हुआ!
बाबा नेतनाथ?
कैसे जानते थे सब?
ये भरत सिंह?
भरत सिंह ने बताया था कि,
वो मिला था बाबा से,
कोई सही व्यक्ति ढूंढने के लिए,
भरत सिंह जा पहुंचा था बाबा नेतनाथ के पास!
और बाबा नेतनाथ ने हाँ की!
किसलिए?
बाबा का क्या उद्देश्य था?
बाबा ने अश्रा को क्यों मना नहीं किया?
अश्रा का तो कोई औचित्य ही नहीं था?
शर्मा जी?
मैं?
क्यों?
क्यों सहज ही मान गए थे?
किस कारण से?
अब न रहा गया!
बिलकुल भी नहीं!
सब सहज नहीं था! कोई रहस्य अवश्य ही था बाबा के पास!
आग लगी थी मेरे सर में!
तड़प रहा था मैं!
झुलस चुका था!
मैं तब,
बाबा के हाथ जोड़े,
और अपना यही संशय,
उनके समक्ष ज़ाहिर कर दिया!
वे मुस्कुराये!
मेरे करीब आये!
मेरे सर पर हाथ रखा!
"तुम्हारा संशय उचित है! मैं आया हुआ हूँ यहां कई बार!" वे बोले,
"तो बाबा वो, मिट्टी को उछालना? गाड़ी आगे पीछे करना? कभी इधर मुड़ना, कभी उधर? ये क्या?" मैंने पूछा,
"खबर! उनको खबर करना!" वे बोले!
अब मैं,
गिरते गिरते बचा!
सही सोचा था मैंने!
मैं चुपचाप खड़ा था,
रहस्य खुल रहे थे!
वो बीस घंटे हमारे जीवन के,
कहाँ गए?
वो रात?
कहाँ गयी?
ऐसे शून्य में लोप नहीं हो सकती,
वो बाग़?
घास?
वो मंदिर?
वो हीरे?
वो त्रिशूल?
वो सब सच था तो,
वो बीस घंटे कहाँ गए हमारे?
अब मैंने बाबा से ही प्रश्न पूछा!
रहा नहीं गया!
"वो बीस घंटे नहीं, मात्र पंद्रह मिनट थे! हमारे पंद्रह मिनट!" बाबा बोले,
मैंने घड़ी देखी,
पौने दस बज चुके थे!
"अब चलो" बाबा ने कहा,
मैं लटके सर के साथ,
चल पड़ा आगे,
अश्रा ने मेरा हाथ पकड़ लिया,
सहसा याद आया,
वो सफ़ेद फूलों की माला!
वो अश्रा के गले में थी!
