वर्ष २०१२ उत्तर प्र...
 
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वर्ष २०१२ उत्तर प्रदेश की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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अब बंद था वो दरवाज़ा!
अँधेरा था वहाँ!
ये हो क्या रहा था?
लग रहा था,
कि किसी रेलगाड़ी के,
साथ जुड़े डिब्बे के तरह,
ये कमरा भी भागे जा रहा है कहीं!
लेकिन गाड़ी कहाँ है?
चालक कौन है?
मैं अश्रा के साथ बैठ गया!
एक पल को तो मैं,
घबरा ही गया था!
उसको छूकर देखा,
उसका माथा,
उसके केश!
ये अश्रा ही थी!
मुझे शान्ति हुई!
मैं फिर से खिड़की की तरफ गया!
बाहर देखा,
लगा कोई खड़ा हुआ है!
गौर से देखा,
हाँ, कोई खड़ा है पक्का!
लेकिन कौन?
कौन है वो?
मैंने और गौर से देखा,
वो एक नहीं,


   
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श्रीशः उपदंडक
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बहुत सारे थे!
बहुत सारे!
इकट्ठे खड़े थे सभी!
लेकिन अन्धकार में,
उनके सर ही बस,
हिलते दीख रहे थे!
हाथ-पाँव नहीं!
फिर बाहर आवाज़ें आनी शुरू हुईं!
जैसे चीख-पुकार मची हो!
जैसे लड़ाई चल रही हो दो गुटों के बीच!
मैंने और गौर से देखने की कोशिश की!
तभी जैसे कोई पिचकारी सी घूमी,
फच्च की आवाज़ हुई,
और मेरे माथे पर कुछ बूँदें गिरीं!
मैंने हाथ लगाया!
ये रक्त था!
ताज़ा रक्त!
गंध थी उसमे ताजापन की!
मैंने सूंघ के देखा था!
फिर से चीख-पुकार मची!
और फिर से कुछ बूँदें गिरीं,
इस बार मेरे वस्त्रों पर भी!
मैंने रुमाल से साफ़ किया उन्हें!
मैंने खिड़की के जाल से अपना हाथ बाहर निकाला,
जैसे ही निकाला,
मेरा हाथ दिन के उजाले में नहा उठा!


   
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श्रीशः उपदंडक
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बाहर अँधेरा था?
फिर ये कैसे?

ये क्या हो रहा था?
प्रकृति के सिद्धांत और नियम,
यहां आ कर,
सब खंडित हुए जा रहे थे!
आँखें एक पल को अँधेरा,
और एक पल को उजाला देखती थीं!
मैंने हाथ अंदर कर लिया अब,
बाहर अँधेरा था,
लेकिन अब कोई नहीं था,
फिर से शान्ति छायी थी!
वे सभी लोग आराम से सोये थे,
अश्रा ने करवट बदल ली थी,
वो भी आराम से सो रही थी,
मैं उठा,
और अश्रा के पास चला,
वहाँ जाकर,
बैठ गया,
अपने आसपास देखा,
कोने में फिर से अँधेरा सा दिखाई दिया,
मैं खड़ा हुआ,
और वहीँ के लिए चला,
वहाँ खड़ा हुआ,
ताज़ा हवा का झोंका आया,
बाहर,


   
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श्रीशः उपदंडक
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अँधेरा था,
हवा यहीं से ही आ रही थी!
यहाँ कोई दीवार नहीं थी!
लगता था,
कि, यही है हमारा संसार!
यहीं है वो संधि!
तभी मैंने पीछे देखा,
अश्रा ने करवट बदली,
लगता था बेचैन है वो,
उसने हाथ से अपने,
मेरी टोह ली,
देखा,
टटोला कि मैं वहाँ हूँ या नहीं,
जब नहीं मिला,
तो आँखें खोलीं,
मैं उस से दूर खड़ा था,
वो बैठ गयी,
और देखा आसपास,
मुझसे नज़रें मिलीं,
उठी,
और आ गयी मेरे पास!
ताज़ा हवा चली,
उसके केश लहराए!
उसने बाहर देखा,
उस अँधेरे को!
फिर अपने हाथ के इशारे से,


   
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श्रीशः उपदंडक
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मुझसे पूछा कि क्या हुआ?
यहां क्यों खड़े हो?
मैं मुस्कुराया,
और यही मेरा जवाब था,
उसने मेरा हाथ पकड़ा,
और ले चली वापिस वहीँ,
मैं बैठ गया,
वो भी बैठ गयी,
फिर लिटा दिया उसने मुझे,
और खुद भी लेट गयी,
मैं कमर के बल लेटा था,
तो उसने मेरी तरफ करवट बदल ली,
मैंने फिर से अपनी घड़ी देखी,
साढ़े तीन का समय था तब,
अश्रा ने अपना हाथ मेरी छाती पर रखा,
और आँखें बंद कर लीं,
मैंने भी बंद कर लीं,
और कुछ ही देर में,
नींद आ गयी, सो गए थे हम!
मेरी आँख खुली तब,
तब कोई साढ़े पांच का वक़्त था,
अश्रा सो रही थी,
बाकी सब भी सो रहे थे,
मैं उठ गया,
खिड़की से बाहर झाँका,
अब उजाला आना आरम्भ हो गया था,


   
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श्रीशः उपदंडक
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लगता था कि,
यहां इस पिशाच-ग्राम में भोर होने को है!
मैं उठा,
खिड़की तक गया,
बाहर झाँका,
बाहर पेड़ लगे थे,
हलकी हलकी हवा में उनके शीर्ष,
हिल रहे थे, इस से हवा की दिशा का पता चल रहा था,
यहाँ पुरवाई बह रही थी!
जबकि हमारे संसार में,
ये पछां की हवा थी!
खिड़की से बाहर,
कोई घर नहीं था,
खाली निर्जन स्थान था वो,
अब तक छह बज चुके थे,
और अब उठने लगे थे सब सोये हुए,
पहले शर्मा जी उठे,
फिर भरत सिंह,
फिर बाबा नेतनाथ,
और फिर सभी उठने लगे,
आखिर में,
अश्रा उठी!
जब सब उठे,
तो किसी को भी देखकर,
ऐसा नहीं लगता था कि,
सभी सोकर उठे हों!


   
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श्रीशः उपदंडक
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सभी चपल अवस्था में थे!
जैसे सोये हुए थे ही नहीं!
सजग और ताज़गी से भरपूर!
शर्मा जी और अश्रा,
दोनों मेरे पास आ गए,
बाहर देखा उन्होंने,
वही देख रहे थे जो मैंने देखा था,
हिलते हुए पेड़ और,
निर्जन स्थान!
और तभी नकुश और उसके साथ दो,
स्त्रियों ने प्रवेश किया,
उनसे नमस्कार हुई सभी की,
हम भी वहीँ आ गए,
बर्तन लगा दिए गए,
इसमें मिठाईयां लगाई गयीं,
और फिर दूध परोसा गया,
कुल्ले और दातुन की आवश्यकता नहीं पड़ी,
क्योंकि ऐसा लगा ही नहीं था कि,
हम कभी सोये थे,
यहां आ कर!
तभी मेरी नज़र अपनी क़मीज़ पर पड़ी,
वो रक्त के निशान देखने के लिए,
लेकिन अब कोई निशान नहीं था!
सारी क़मीज़ साफ़ थी!
खैर,
हमने अब दूध पिया और मिठाई भी खायी,


   
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श्रीशः उपदंडक
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मिठाई भी ताज़ा,
और दूध भी गर्म!
ताज़ा दूध,
ख़ुशबूदार!
हम निबट गए उस नाश्ते से,
बर्तन उठा लिए गए,
"आप चाहें तो बाहर घूम सकते हैं, बाग़ में" नकुश ने कहा,
ये बढ़िया बात थी!
कम से कम उस कक्ष से तो बाहर निकलते!
मैं उठा,
अश्रा मेरे साथ उठी,
शर्मा जी भी उठे,
और वे सब भी!
हम आये बाहर,
रात भर मैं यहां दरवाज़ा ढूंढता रहा,
लेकिन नहीं मिला,
और अब यहाँ दरवाज़ा था,
हम बाहर आये,
बाहर आते ही ताज़ा हवा का झोंका लगा,
धूप खिली थी,
लेकिन सूरज कहीं नहीं था!
आकाश में बादल थे,
सफ़ेद बादल,
हम आगे चल पड़े,
आगे जाते हुए, एक बाग़ दिखाई दिया,
हम अंदर चले,


   
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श्रीशः उपदंडक
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वहाँ की घास,
हल्के पीले रंग की थी!
मुलायम और ठंडी!
मैं और अश्रा एक पेड़ के नीचे बैठ गए,
शर्मा जी जूते खोल,
टहलने लगे,
बाबा नेतनाथ और दूसरे लोग,
भी बैठ गए वहीँ,
हवा में ठंडक थी!
नवंबर जैसी मीठी मीठी ठंड!
"कैसा अजीब संसार है ये!" मैंने कहा,
"हाँ, बहुत अजीब" वो बोली,
"मैंने तो कभी कल्पना भी न की थी" मैंने कहा,
"सही कहा" वो बोली,
मैं लेट गया फिर,
वो बैठी ही रही!
उसने ऊपर देखा,
फिर ऊपर ही हर तरफ देखा,
"यहां कोई सूरज नहीं है!" मैंने कहा,
"यही मैं देख रही थी" उसने कहा,
"न तारे, न चाँद" मैंने कहा,
"बड़ा ही अजीब है ये सब!" वो बोली,
"हाँ, बड़ा ही अजीब!" मैंने कहा,
सच में,
बहुत अजीब था वहाँ!
कल तक ये पेड़ नहीं थे!


   
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श्रीशः उपदंडक
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आज थे!
कल वो दूसरा बगीचा था,
आज नहीं था,
कल वो कक्ष भी थे,
आज एक भी नहीं था!
पता नहीं कहाँ चले गए थे सब!
अब चाहे,
कितना ही सर खुजा लो,
कितना ही सर धुन लो,
उत्तर नहीं थे इन सवालों के!
लग रहा था,
हम इस स्थान के साथ,
तैरे जा रहे हैं,
किसी नाव में,
लेकिन न तो वो नाव ही कहीं थी,
और न ही वो सागर!
कुछ नहीं था!
हवा में ही तैरे जा रहे थे हम सब!
हम बैठे रहे वहीँ,
बाबा नेतनाथ अब लेट गए थे,
भरत सिंह भी लेट गए थे,
एक बात और,
जो जहां लेटा था,
वहाँ छाया अपने आप आ जाती थी!
उस धूप का सीना चीरकर!
हवा बहुत ठंडी थी वहाँ,


   
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श्रीशः उपदंडक
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रोएँ खड़े हो जाते थे!
कपड़े बहुत,
ठंडे हो जाया करते थे,
बार बार हाथ फेरना पड़ता था!
और देखिये,
शर्मा जी पूर्व में जाते थे ठहलने,
और पश्चिम से आते हुए दिखाई देते थे!
अब इसका क्या कारण?
कुछ समझ में ही नहीं आ रहा था!
बस यही लगता था,
कि ये स्थान,
इन सभ्रांत पिशाचों की,
इच्छा के अनुसार चल रहा है,
जैसा वो चाहते हैं,
हमें वैसा ही दिखाई देता है!
यही एक सटीक उत्तर था!
नहीं तो सोचने के लिए,
सवाल की बुनियाद भी नहीं मिलती थी!
वो बाग़ बहुत बड़ा था,
कोई ओर-छोर नहीं था उसका!
दूर तक बस घास ही जाती थी!
वही पेड़, पौधे,
फूल लगे थे, बेहतरीन फूल!
ये जगह तो देव-स्थान सा लगता था!
पेड़ों पर फल लगे थे!
लेकिन न ही तितलियाँ, भौंरे थे,


   
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श्रीशः उपदंडक
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और न पक्षी ही!
ऐसा अजीब था सबकुछ!

ऐसा तो मैंने कभी जिन्नाती गाँव में भी न देखा था!
इनमे और उनमे,
ज़मीन आसमान का फ़र्क़ है!
जिन्नात हमसे कहीं अधिक मिलते जुलते हैं,
हमारे तौर-तरीके उनसे बहुत मिलते जुलते हैं!
उनका वक़्त हमारे वक़्त सा चलता है!
लेकिन यहां!
यहां कुछ पता नहीं चल रहा था!
ये स्वयं थे तो हमारी ही तरह,
लेकिन समझ से परे!
जो पल में है,
वो पल में नहीं!
यूँ कहो कि,
दिमाग धोखा खा रहा हो,
हर क्षण!
वो कमरा,
उसमे मात्र तीन दीवारें,
एक खिड़की,
खिड़की से बाहर अलग संसार,
कमरे में अलग संसार!
उस संसार में भी एक नया संसार!
एक में दिन,
एक में रात!
अब रात में भी दिन,


   
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श्रीशः उपदंडक
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और दिन में भी रात!
ऐसा अजीब सा था सबकुछ यहां!
न सूरज,
न चाँद,
न तारे,
न पक्षी,
न कीट-पतंगे!
कुछ नहीं!
प्रकृति के नियमों को,
झुठलाते यहां के नियम!
इनके अपने नियम!
तभी नकुश आया वहां!
मुस्कुराते हुए,
शाही अंदाज़ के वस्त्र पहने हुए,
कमर में,
सुनहरे रंग का डोरा सा बंधा था!
केश बहुत सघन थे उसके,
एकदम काले!
वो आया,
और हम खड़े हुए,
उसने बाबा नेतनाथ से बात की,
बाबा नेतनाथ ने मुझे देखा,
शर्मा जी आ गए थे वहाँ,
अब भोजन लग चुका था वहाँ,
इसीलिए बुलाने आया थे वो!
हम चल पड़े,


   
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श्रीशः उपदंडक
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मैंने अश्रा को देखा,
उसकी साड़ी को देखा,
कोई तिनका नहीं चिपका था,
घास का कोई निशान नहीं,
न ही मिट्टी का,
किसी के भी कोई ऐसा निशान नहीं था!
सभी साफ़-सुथरे थे!
हमारी घास अगर होती,
तो ज़रूर अपने निशान छोड़ देती,
एक आद तिनका तो संग ही चल पड़ता हमारे!
लेकिन यहां ऐसा कुछ नहीं था!
हम आ गए एक कक्ष में,
ये आलीशान कक्ष था!
दीवारें हरे धुंए जैसी थीं!
उन पर सफ़ेद और लाल रंग की आड़ी-तरछी रेखाएं बनी थीं!
आठ आठ फ़ीट ऊपर,
कम से कम!
अच्छे से सजाया गया था कक्ष!
और तभी कमरे में चार अनुपम सुंदरियों ने प्रवेश किया!
उनके पास डोंगे, कटोरे, थालियां आदि थीं!
सभी स्वर्ण से बने थे!
चमचमा रहे थे!
हम सब बैठ तो गए ही थे,
उन सुंदरियों ने मुस्कुराते हुए,
सभी के आगे बर्तन रख दिए,
और अब खाना परोस दिया गया!


   
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श्रीशः उपदंडक
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लाजवाब खाना था!
एकदम जिन्नात वाला!
वही स्वाद,
वही रंग,
वही ज़ायक़ा!
छक कर खाया हमने!
और जब खा लिया,
तो एक पेय दिया गया, गिलास में,
मैंने घूँट भरा,
ये जलजीरा था शायद,
स्वाद तो वैसा ही था, तीखा, नमकीन!
अब पानी के आवश्यकता नहीं थी!
किसी ने भी पानी नहीं पिया!
"आइये, विश्राम कर लें आप सभी"
हम सभी उठ गए,
और वो ले चला हमे एक अलग ही जगह!
एक कक्ष आया,
हम उसमे गए,
यहां भी सोने और विश्राम करने का पूरा इंतज़ाम था!
छत का रंग नीला था,
दीवारों का भूरा रंग!
हम लेट गए,
थोड़ी देर बाद ही,
मैं उठा,
और बाबा नेतनाथ के पास गया,
"बाबा, अब कब चलना है?" मैंने पूछा,


   
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