मैंने तो नाम ही पहली बार सुना था!
कौन रहे होंगे ये मिर्ज़ा फ़ख़रुद्दीन, पता नहीं!
"ये पेटी तो फ़ारसी है" मैंने कहा,
"ये फ़ारस की ही है" वो मुस्कुरा के बोला,
मेरे तो होश फाख्ता हो गए!
"मिर्ज़ा साहब ने कब दी थी ये आपको?" मैंने पूछा,
"करीब पांच सौ साल पहले, आपके पांच सौ वर्ष!" वो बोला,
मेरे हाथ से तो वो,
गिरते गिरते बची!
"क्या वे भी आया करते थे?" मैंने पूछा,
"वो तो यहां रोज़ ही आया करते थे, यहीं भोजन किया करते थे, यहीं रात को सोया करते थे! उनको यहां आये बिना चैन नहीं पड़ता था!" वो हंस के बोला,
क्या बात थी!
इतिहास मेरे हाथ में था!
पांच सौ वर्ष पहले की वो पेटी,
मेरे हाथ में थी!
"तो ये, आपको निशानी के लिए दी थी उन्होंने?" मैंने पूछा,
"मेरी बहन के विवाह के लिए दे गए थे वे!" वो बोला,
"तो बहन अपने साथ नहीं ले गयी?" मैंने पूछा,
"हमारे रिवाज़ अलग हैं!" वो बोला,
सही बात थी!
मैं तो इंसान की तरह ही सोच रहा था!
हाँ!
उनके रिवाज़ अलग ही होंगे हमसे!
और मिर्ज़ा साहब,
अपने इंसानी रिवाज़ के हिसाब से दे गए होंगे!
मैंने पेटी बंद कर दी,
और उस बड़ी पेटी में रख दी,
और उसे भी बंद कर दिया,
और नकुश को पकड़ा दी,
नकुश ने ले ली,
और रख दी एक तरफ,
फिर आगे हुआ थोड़ा सा,
और कुछ उठाया,
ये एक त्रिशूल था!
लोहे का बना हुआ,
लेकिन जंग नहीं लगा था उस पर!
अभी तक,
काले रंग के डोरे बंधे थे उस पर!
मुझे दिया हाथ में उसने!
मैंने पकड़ा,
बड़ा ही भारी था!
करीब पच्चीस किलो का!
अब जो उठाता होगा इसको,
वो कितना मज़बूत होगा,
मैं सोचने पर विवश था!
"किसका है ये?" मैंने पूछा,
"बाबा त्रिभंग नाथ जी का!" वो बोला,
बाबा त्रिभंग नाथ जी का!
पहली बार सुना ये नाम मैंने!
"कब हुए थे ये बाबा?" मैंने पूछा,
"आपकी आठवीं पीढ़ी में, पूर्वजों की" वो बोला,
मेरा मुंह खुला रहा गया,
मैंने जल्दी जल्दी अपने पूर्वजों को,
याद करना आरम्भ किया,
छह तक मैं जानता हूँ,
सात और आठ तक नहीं!
मोटा मोटा कोई ढाई सौ साल,
या दो सौ या सवा दो सौ!
"बाबा....." मैंने कहा,
"हाँ, सिद्ध हैं वे" वो बोला,
मेरी बात पूरी हो, इस से पहले!
मेरे हाथ कांपे!
वो त्रिशूल पकड़ा दिया मैंने नकुश को!
नकुश ने थाम लिया,
और रख दिया!
"वे यहां आते थे?" मैंने पूछा,
"हाँ! अतिथि बनकर! अधिकार से!" वो बोला,
अचरज!
आश्चर्य!
"फिर? कहाँ गए वो?" मैंने पूछा,
"आइये" वो बोला,
अब हम बाहर चले, उसके पीछे,
ये एक खूबसूरत सा बगीचा था!
फल लगे थे सभी वृक्षों पर!
कमाल था!
तभी सामने कुछ दिखा,
ये तो एक मंदिर था!
श्री महाऔघड़ का!
ओह!
ऐसा कैसे सम्भव?
"यहां! यहां 'समाधि'(यहां समाधि का अर्थ है, देह-त्याग) ली थी उन्होंने!" वो बोला,
चक्कर सा आ गया!
इतना जटिल लगा ये समझना कि,
एक सिद्ध,
पिशाच-ग्राम में, समाधिलीन हुआ था!
"और अंत्येष्टि किसने की थी?" मैंने पूछा,
"उन्होंने स्वयं!" वो बोला,
अब तो चक्कर पर चक्कर आने लगे!
दिमाग ने हाथ खड़े कर दिए!
चादर तान,
सो गया वो तो!
और मैं शोर मचा मचा के,
जगाता रहा उसको!
समस्त जीवन बीत जाएगा ऐसे ही कुछ,
प्रश्नों का उत्तर जानने में!
कि,
बाबा त्रिभंग नाथ यहां क्यों आये थे?
क्यों आते थे अतिथि बनकर?
क्यों यहीं 'समाधि' ली?
बाहर क्यों नहीं?
बाहर मायने,
हमारा संसार!
वहाँ क्यों नहीं?
ये और वो!
वो और ये!
ऐसे ऐसे प्रश्न!
मैंने हाथ जोड़ लिए!
शर्मा जी ने भी हाथ जोड़े!
शीश झुकाया!
"आइये" वो बोला,
अब हम चले वहाँ से,
आये वापिस,
एक दूसरे कक्ष में ले गया वो हमे!
यहाँ सभी बैठे थे,
बाबा नेतनाथ भी,
मन्नी भी,
अश्रा भी,
अब अश्रा ने पहले वाले वस्त्र ही पहने थे,
हाँ,
चेहरे पर,
वही तेज था!
वैसा ही श्रृंगार!
भरत सिंह भी वहीँ बैठे थे,
अब हम भी बैठ गए!
अश्रा मेरे पास आ बैठी थी!
अब भोजन लगवा दिया उन्होंने!
पहले बड़े बड़े बर्तन लगवाए थे उन्होंने!
और फिर भोजन परोसा गया!
ऐसी ख़ुश्बू!
ऐसी ख़ुश्बू कि,
बर्तन भी चबा डालूं!
और जैसा बताया था भरत सिंह ने भोजन के बारे में,
ठीक वैसा ही था!
बेहतरीन!
लाजवाब!
पेट भर के खाया!
बल्कि एक दो रोटी,
फ़ालतू ही खा लीं!
उसके बाद फिर कुछ मीठा!
वो भी खाया!
कर लिया भोजन!
बहुत सत्कार किया उन्होंने!
मुझे एक पल को भी ऐसा नहीं लगा कि,
वे सब पिशाच हैं!
खूंखार पिशाच!
जिनका तो नाम ही खतरनाक है!
जिनसे कोई भिड़ना नहीं चाहता!
ऐसे पिशाच!
लेकिन ये?
ये ऐसे कैसे?
कितना फ़र्क़ है इनमे!
क्या वो मात्र,
किवदंतियां ही हैं?
मेरा तो, दिमाग,
जाम हो चुका था!
आगे नहीं बढ़ रहा था!
अब हम खड़े हुए,
तो नकुश मुझे ले गया अपने साथ!
बाहर,
और मेरे कंधे पर हाथ रखा!
"हम वैसे नहीं हैं भाई!" वो बोला,
मैं मुस्कुराया,
"हमारे यहां न जाने कब से मनुष्य आते रहे हैं! आते रहेंगे!" वो बोला,
मैं मुस्कुराया!
वो भी मुस्कुराया!
"हमारे यहाँ पर, तीन गाँव हैं" वो बोला,
तीन गाँव!
जीभ आ गयी मेरी तो,
दांत के नीचे!
"हाँ! तीन गाँव! सभी ऐसे ही हैं, हमने आजतक कभी भी किसी भी निरीह मनुष्य को तंग नहीं किया, बल्कि मदद ही की उनकी!" वो बोला,
मैं समझ सकता हूँ!
उनका व्यवहार ही ऐसा था!
आक्रामकता क़तई नहीं थी!
आपका पूरा वाक्य सुनते थे वो,
तब उत्तर देते थे,
बीच में कभी, बात नहीं काटते थे!
कोई भी प्रश्न हो,
बेहिचक उत्तर देते थे!
आप बता ही नहीं सकते थे कि,
वे पिशाच हैं!
एक अत्यंत क्रूर योनि!
यहाँ आकर, मेरी वो मान्यता,
पूर्णतया खंडित हो चुकी थी!
अब अंदर चला मैं!
सीधा वहीँ जहां वे सब बैठे थे,
अब नकुश ही था वहाँ अकेला,
बाकी सब इधर उधर जा चुके थे!
अब भरत सिंह मूल उद्देश्य पर आ गए,
उन्होंने,
वो थाल लिया,
और कपड़ा हटाया उस पर से,
थाल निकाल लिया बाहर!
"लो! भाई, ये आपकी अमानत है!" बोले भरत सिंह!
नकुश ने भरत सिंह को देखा,
मुस्कुराया,
"ये अभी तक रखा है आपने?" पूछा नकुश ने,
"हाँ, आपकी अमानत है ये, मेरी नहीं" वे बोले,
नकुश के भाव चकित करने वाले थे!
उसने थाल ले लिया,
रख दिया वापिस वहीँ!
"ये आपको इसीलिए दिया था कि आपका काम चले" बोला नकुश!
"मेरा काम मेहनत का है! खूब चल रहा है! किसी भी चीज़ की ज़रूरत नहीं है!" बोले भरत सिंह!
भरत सिंह की,
इस ईमानदारी पर तो,
मैं भी रीझ गाय!
ये ईमानदारी नहीं होती,
तो आज कैसे आते हम यहां!
मैं तो ऋणी हो गया था भरत सिंह जी का!
तभी वही दो स्त्रियां आयीं,
एक पोटली लिए,
नकुश को थमा दी,
नकुश ने,
मुझे देखा,
और फिर अश्रा को!
अश्रा की तरफ देखा,
और पोटली बढ़ा दी आगे!
"लो बहन! एक भाई की तरफ से!" बोला नकुश!
मैं समझ गया था,
इसमें गहने हैं!
"नहीं नकुश! नही भाई! कोई आवश्यकता नहीं" मैंने कहा,
वो हंस पड़ा!
"अपनी बहन को दे रहा हूँ, इसमें कोई हर्ज़ या आवश्यकता नहीं भाई!" बोला वो!
"नहीं! मैं नहीं लूंगी, नहीं!" मुस्कुरा के बोली अश्रा!
"ठीक है! कोई बात नहीं! उधार रहा आपका हमारे ऊपर!" वो बोला,
और पोटली वापिस पकड़ा दी उन स्त्रियों को!
वे स्त्रियां चली गयीं!
अब सारे काम निबट चुके थे,
अब चलने का वक़्त था!
मैं बाबा नेतनाथ की ओर देख रहा था,
उनसे जैसे ही नज़र मिली,
मैंने अपनी बात कही,
"क्या प्रस्थान करें?" मैंने कहा,
"अभी बाहर रात्रि है!" बोला नकुश!
अभी भी रात्रि?
समय ठहर गया है क्या?
यहीं आकर,
दिमाग रुक जाता था!
ये कैसा अजीब रहस्य था!
दो दो समय,
आपस में रगड़ खाकर चल रहे थे!
एक हमारा समय,
और एक इनका समय!
बड़ा अजीब सा ही,
मामला था ये तो!
मैं अपने जीवन में,
पहली बात ही कभी गया था,
किसी पिशाच नगरी में,
पिशाच-ग्राम में!
और जो अनुभव हुआ था,
वो तो दिमाग को सुजा देने वाला,
सोच के परखच्चे उड़ा देने वाला था!
कल्पना का तो कहीं अस्तित्व ही नहीं था!
कल्पना से भी परे के रहस्य थे यहां!
"आप विश्राम कीजिये" वो बोला,
वो उठा,
हम भी उठे,
और चल दिए उसके पीछे,
एक कक्ष आया,
लेकिन पहले कहाँ था ये कक्ष?
पहले तो नहीं था?
अब कहाँ से आया?
और वो,
वो जहां से हम,
उस बगीचे में गए थे,
वो रास्ता कहाँ है?
नहीं आया समझ कुछ भी!
कुछ भी!
अब नींद किसे आती?
लेकिन हम लेट गए,
अश्रा मेरे संग ही लेटी,
"थकी तो नहीं?" मैंने पूछा,
"नहीं" वो बोली,
"जल्दी ही थक जाओगी!" मैंने कहा,
मेरा आशय भांप गयी वो!
मुस्कुरा पड़ी!
हम थोड़ा दूर ही लेटे थे,
कुछ अंतरंग बातें होती तो,
सबको न सुनाई दें, इसीलिए!
"मैं कभी नहीं सोचा था कि ऐसा भी संसार है!" मैंने कहा,
''अद्भुत है सब!" वो बोली,
"सच में!" मैंने कहा,
फिर वो चुप,
मैं चुप!
फिर मुझे,
सजी-धजी अश्रा की याद आई!
"बड़ी ही सुंदर लग रही थीं तुम अश्रा!" मैंने कहा,
"सच में?" उसने पूछा,
"हाँ, सच में!" मैंने कहा,
"झूठ?" उसने पूछा,
"नहीं! सच!" मैंने कहा,
मुस्कुरा पड़ी वो!
हम बातें करते रहे,
और फिर थोड़ी देर बाद,
आँख भी लग गयी!
कम से कम,
मेरी तो!
जब आँख खुली,
तो सब सोये हुए थे!
मन्नी अपने सामान का तकिया बनाये हुए,
लेटा था!
मैंने अश्रा को देखा,
वो भी सो रही थी!
बाबा नेतनाथ,
वो भी सो रहे थे!
शर्मा जी,
वे भी सो रहे थे!
सभी सो रहे थे!
मैंने अपनी घड़ी देखी,
रात के दो बजे थे,
फिर ध्यान से देखा,
घड़ी बंद सी लगी मुझे!
कान से लगाई,
चल रही थी!
शायद भ्रम रहा होगा मेरा!
अश्रा, अपने दोनों हाथ,
अपने सर की नीचे किये हुए सो रही थी,
उसकी हाथ में पड़ा हुआ एक कड़ा,
चमक रहा था!
उसके गले में पड़ा स्वास्तिक,
बाहर पड़ा हुआ था,
आँखें उसकी अधखुली सी थीं!
मैं चुपचाप लेटा ही रहा,
छत को देख रहा था!
मैंने दूरी का हिसाब लगाया,
लेकिन हिसाब बना ही नहीं!
चाहत कभी पंद्रह फ़ीट पास,
तो कभी बीस फ़ीट दूर लगती थी!
प्रकाश अवश्य ही फैला हुआ था!
चारों ओर!
मैंने फिर से आँखें बंद कीं,
और सोने की कोशिश करने लगा,
लेकिन खूब जतन करने के बाद भी,
नींद नहीं आई,
मैं उठ गया,
खिड़की से बाहर देखा,
अँधेरा था!
ये क्या?
कमरे में उजाला,
बाहर अँधेरा?
ये क्या?
मैं उस कक्ष से बाहर आया,
बाहर?
नहीं!
नहीं!
नहीं आ सका!
बाहर आने का रास्ता ही नहीं था!
हम सब,
जैसे क़ैद थे वहाँ!
बस खिड़की ही खुली थी!
मैंने खूब ढूँढा वो दरवाज़ा,
लेकिन नहीं मिला!
घबराहट तो हुई,
लेकिन सोचा,
ये भी कोई माया ही होगी!
मैं खिड़की के पास आ गया,
वहीँ बैठ गया,
बाहर देखा,
घुप्प अन्धकार था!
कोई शोर नहीं था!
रात के प्रहरी,
झींगुर और मंझीरे,
किसी की भी आवाज़ नहीं थी!
मैंने पीछे देखा,
और सन्न रह गया!
अश्रा नहीं थी वहाँ!
मैं खड़ा हुआ,
तेजी से आया,
और आसपास देखा,
नहीं थी अश्रा वहाँ?
अब दिल धड़का मेरा!
मैंने बायीं ओर देखा,
वहाँ उजाला था,
जैसे अँधेरा चीयर कर,
उजाला आ रहा हो अंदर!
घबराहट में बाबा नेतनाथ को भी नहीं जगा सका मैं!
मैं उजाले की तरफ भागा,
वहाँ एक दरवाज़ा सा दिखा,
मैं भागा अंदर!
और जैसे ही आया वहाँ,
एक और आश्चर्य!
यहां सभी लेटे हुए थे!
सभी!
अश्रा भी!
वैसे ही जैसे मैंने उसको देखा था!
मैं पीछे मुड़ा,
वो दरवाज़ा देखा,
फिर वहाँ देखने के लिए गया,
