सुबह हुई तो घाट पर गए हम!
घाट पर,
कुत्ते और चील-कौवे लगे हुए थे एक जगह,
खींचमतानी सी चल रही थी उनमे,
जब पास गए,
तो ये एक चिता थी,
यहां के लोग अक्सर ऐसे ही शव-दाह किया करते हैं,
शव आधा ही जला था,
छाती, उदर और जांघें, पाँव सब बचे हुए थे,
किसी पचास वर्ष के अधेड़ का सा शव था ये,
रात में बरसात हुई थी,
शायद उसी में अग्नि ज़ोर नहीं पकड़ सकी होगी,
बेचारे शव की दुर्गति हो रही थी,
मैंने एक लकड़ी उठायी,
और सभी कुत्तों को भगाया वहाँ से,
कुत्ते भागे,
लेकिन दूर जा आकर,
भौंकने लगे,
कौवे उड़ तो गए,
लेकिन उनकी कांव कांव ने कान फाड़ दिए,
मेरे साथ शर्मा जी, और दो लोग और थे,
हमने किसी तरह से ईंधन इकठ्ठा किया,
कुछ उपले-कंडे थे वहाँ,
वे लाये,
कुछ लकड़ियाँ भी थीं,
वो लीं,
और उस शव को ढका,
जहां शव के पाँव बंधे थे,
अब खुल गए थे,
वो बांधे,
आंतें जल तो चुकी थीं,
लेकिन कुत्तों और कौवों ने उधेड़ दी थीं,
वो ठीक कीं,
इकठ्ठा कीं उसकी आंतें,
घुटने बांधें,
अकड़ गयीं थीं टांगें,
फिर से हमने एक नयी चिता बना दी,
अब मंत्र पढ़े,
न उसका नाम जानते थे हम,
और न पता ही,
और फिर अग्नि दे दी,
उस शव के परिजन भी नहीं आये थे अभी तक,
हम चारों वहीँ बैठे रहे,
आग कभी बुझती,
तो बाबू लाल फूस डाल देता उसमे,
आखिर आधे घंटे में,
ज़ोर पकड़ लिया आग ने,
और जो कुत्ते भौंक रहे थे,
वे भी शांत हो गए!
हम वहीँ बैठे रहे,
करीब दो घंटे के बाद कुछ देहाती लोग आये,
ये इसी शव के परिजन थे,
बाबू लाल ने उनसे स्थानीय भाषा में बात की,
उन सभी ने बहुत बहुत धन्यवाद किया हमारा!
वे लोग ईंधन भी लाये थे,
वो भी लगा दिया उसमे,
और अब हमारा काम समाप्त हुआ,
हम अब चले वहाँ से,
और नदी में स्नान करने चले गए!
कहने को ही नदी थी वो,
पानी घुटने भर भी नहीं था उसमे!
ये स्थान था उत्तर प्रदेश का गढ़वाल क्षेत्र!
बहुत सुंदर स्थान है ये!
प्राकृतिक सम्पदा से लबालब!
वन क्षेत्र काफी सघन है यहां!
और हम यहां बाबा कमरू से मिलने आये थे,
बाबा कमरू अत्यंत वृद्ध हैं,
अब नहीं आते तो,
शायद कभी नहीं आ पाते उनके पास!
उनका आशीर्वाद ले ही लिया था हमने!
दर्शन कर ही लिए थे!
एक आयोजन भी था वैसे यहां,
वो आज ही था,
इसीलिए हम लोग सुबह सुबह टहलते टहलते यहां तक,
आये थे,
कि चलो स्नान आदि ही कर लें!
और सामने वो चिता थी,
अधजली चिता,
बेचारी की दुर्गति हो रही थी!
ये भी कर्म-फल हैं!
मरने के बाद भी देह को चैन नहीं!
कहने को तो मिट्टी है,
लेकिन ऐसी बेक़द्री देखि नहीं गयी!
खैर,
स्नान कर लिया!
और फिर टहलते टहलते हम वापिस चले!
आ गए वापिस,
चाय तैयार थी!
तो चाय पी!
साथ में आलू के पकौड़े भी थे,
दो दो वो भी दबा दिए!
लोगबाग आ जा रहे थे!
भोजन बन रहा था,
हींग और हरे धनिये की सुगंध फैली थी!
आज भोज था,
उसी की तैयारियां चल रही थीं!
अब मैं और शर्मा जी अपने कमरे में आ बैठे!
कमरा क्या था जी वो,
कुटिया सी थी!
बस यूँ कहो कि,
ईंटों से बनी थी!
और ऊपर उसके सीमेंट की चादर थी!
एक बिस्तर था वहां,
नीचे बिछा हुआ,
दरी पड़ी थी और एक मरा हुआ सा गद्दा था!
दीवारों पर खूंटियां गड़ी थीं,
हमारे कपड़े यहीं टंगे थे!
तौलिया आदि!
हम यहीं आ बैठे,
पंखा भी वही था, बाबा आदम के ज़माने का!
शायद दुनिया के पहले पंखे की नकल की गयी थी!
ऐसे धीरे चलता था कि जैसे हवा ही उसे चला रही हो,
वो नहीं चला रहा था!
और आवाज़ ऐसी करता था,
जैसे किसी सरकारी बरमे से आती है!
हम बैठ गए जी वहाँ!
मैं बाहर ही देख रहा था,
बाबा कामरू का पुत्र,
लगा हुआ था अपने काम पर!
सभी को निर्देश देता हुआ!
बहुत सरल स्वभाव का है ये,
नाम है दर्शन!
उम्र कोई चालीस के आसपास होगी,
ब्याह हुआ है,
लेकिन पत्नी गाँव में है!
वर्ष में दो बार ही गाँव जाता है,
एक होली पर,
और एक दिवाली पर!
मेरी खूब बातें होती हैं इस से!
गोरखपुर वाले जीवेश का,
दूर का ही सही, रिश्तेदार है!
जीवेश नहीं आ सका था,
वो नेपाल गया हुआ था किसी काम से,
अब लेट गए हम!
और आँखें बंद कर लीं.
बाहर से आती आवाज़ें,
लगातार कानो से टकराती रहीं!
अभी आँख लगी ही थी कि,
बाबू आया मेरे पास,
उसने आवाज़ दी,
मैं जागा,
पूछा उस से,
तो उसने बताया कि,
अश्रा बुला रही हैं मुझे!
अश्रा?
वो, अश्रा???
अच्छा!
हाँ!
हाँ!
अश्रा!
मैं झट से खड़ा हो गया!
और चला बाबू के साथ!
ले गया मुझे एक बगीची में!
सामने ही बैठी थी अश्रा!
मुझे देखा तो भागती हुई आई!
और लिपट गयी!
मैं भी लिपट गया!
"कैसी हो अश्रा?" मैंने पूछा,
"ठीक हूँ, आप कैसे हैं?" उसने पूछा,
"ठीक हूँ" मैंने कहा!
और अब उसका चेहरा देखा!
उसकाS गोरा रंग देखा!
बदन भर गया था उसका अब!
चार बरस पहले ऐसी न थी!
थी तो तीखी लेकिन अब धारदार हो गयी थी!
हम बैठ गए!
"कब आयीं?" मैंने पूछा,
"अभी" वो बोली!
मैं देखता रहा उसको!
काली काली बड़ी बड़ी आँखें,
और उन पर सजी काली काली घुमावदार पलकें!
और पलकों का श्रृंगार करती हुई उसकी वो सुतवां भौंहें!
मैं अश्रा के बदन को निहार रहा था!
यूँ कहिये कि भौंरे की तरह उस कली का,
आस्वादन करने के लिए,
अपने चक्षु-दंश कहाँ गड़ाऊँ,
ये सोच रहा था!
पराग तो हर जगह था उसमे!
मधु समान!
चार बरस पहले ऐसी न थी ये अश्रा!
थी तो वैसे,
क्या कहूँ....
कच्ची सेमल के फूल की कली जैसी!
लेकिन अब,
अब तो और स्निग्ध हो गयी थी!
और फिर काम का क्या है!
जब मर्ज़ी नींद से खड़ा हो जाता है!
कोई खबर किये बिना!
यहां भी ऐसा ही हुआ था!
"और वो तृप्ता कैसी है?" मैंने पूछा,
"बढ़िया है!" वो बोली,
"वहीँ हैं अभी?" मैंने पूछा,
"हाँ" वो बोली,
"आई है क्या?" मैंने पूछा,
"नहीं" वो बोली,
तृप्ता!
उसकी बड़ी बहन!
"मेरा पता कैसे चला यहां?" मैंने पूछा,
"बाबू ने बताया" वो बोली,
जब उसने बाबू कहा,
तो उसके होंठों में एक जुम्बिश हुई!
उसके होंठ कुछ ऐसे खुले,
की मैं ही खुल गया अंदर से!
सच में मित्रगण!
बला की खूबसूरत अश्रा,
और बला की कटार उसके वो दोनों होंठ!
हालांकि उसने कोई लिपस्टिक नहीं लगाई हुई थी,
लेकिन उसके होंठों में जो रक्त था,
वो गुलाबी था!
सुर्ख गुलाबी!
ऊपर से,
उसकी नाक और होंठ के बीच की,
वो दरार!
वो दरार,
दरार नहीं लग रही थी,
गड्ढा नहीं लग रहा था,
सागर सा लग रहा था!
और मैं!
मैं गोते लगाने को तैयार!
डूबने को तैयार!
साँसें फुलवाने को तैयार!
अजीब सी हालत थी मेरी!
जो बस में था, अब बस में नहीं रखे जा रहा था!
और उसके होंठों की वो किनारियां!
किसी धारदार हथियार से कम नहीं!
वो भी ऐसी धार,
जो काट दे तो खून उसी क्षण ही न निकले,
थोड़ा ठहर कर निकले!
दर्द तब उठे,
जब तूफ़ान गुजर जाए!
और उसके गालों की वो रोयेंदार लहरें,
वो थीं तो रोयेंदार भले ही,
लेकिन किसी जाल से भी अधिक मज़बूत!
और देखो!
फंसने को जी चाहे!
ऐसी हालत थी!
मन में मेरे तो,
कसक क्या ठसक ठसक भी मची थी!
उसने आँखें ऊपर उठायीं,
मुझे देखा,
ओह!
मैं तो पिघला!
उसकी आँखों के अंदर जैसे ज्वाला थी!
एक ऐसी ज्वाला,
जो जलाती तो है,
लेकिन शीतल ताप से!
मेरे रोंगटे खड़े हो गए!
पसीना चूने लगा पेशानी से!
साँसें गरम हो चलीं!
मेरे होंठ उस तपिश को महसूस करने लगे थे!
जिव्हा सूखने लगी थी!
स्वर बंद हो गया था,
गला ख़ुश्क़ था!
रहा न गया!
सच में न रहा गया!
चूम लिए मैंने उसके होंठ!
अब रहा ही न जाए तो क्या करूँ!
उसने मना भी नहीं किया!
कोई अवरोध नहीं था!
इसीलिए द्रुत गति से भाग चला था मैं!
अब तो खींच लिया मैंने उसे अपने अंक में!
ओह! क्या बताऊँ!
उस से स्पर्श हुआ,
तो मेरी काम-हिम पिघली!
बह चली धारा बनकर!
न जाने कहाँ टक्कर मारेगी अब!
कौन कौन सा बाँध तोड़ेगी,
पता नहीं!
"बहुत सुंदर हो गयी हो अश्रा!" मैंने बनावटी भाषा का प्रयोग किया!
अजी करना ही पड़ा!
स्वर जैसे किसी खरगोश के से,
हो गए थे मेरे तो!
"चार बरस में ये सुंदरता याद नहीं आई?" उसने पूछा,
बात तो सही थी!
प्रश्न सटीक था!
दमदार था सवाल!
"आई! बहुत याद आई!" मैंने फिर से बनावटी भाषा का प्रयोग किया, इस बार ज़रा अपने हाथ नचाकर!
"एक बार भी नहीं आये आप?" वो बोली,
"आया था, समय नहीं मिल पाया" मैंने कहा,
जबकि आया ही नहीं था मैं!
समय कहाँ से मिलता!
झूठ बोला था मैंने!
"झूठ?" उसने पूछा,
मैं पकड़ा गया था!
"सच!" मैंने कहा,
"रहने दीजिये" वो बोली,
"रहने दिया" मैंने कहा,
वो मुस्कुरा गयी!
ये है स्त्री-मन!
मात्र शब्दों के जाल में फंस जाया करती है!
अपना सर्वस्व दान दे देती है!
और हम पुरुष!
भौंरे की तरह,
नयी नयी कलियाँ खोजते फिरते हैं!
आस्वादन करते हैं,
औ फिर चार चार बरस भूल जाते हैं!
और फिर दुबारा,
कहानियां गढ़ा करते हैं!
मैं प्रत्यक्ष उदाहरण हूँ इसका!
दूर क्यों जाएँ!
"कब आये थे?" उसने पोछा,
"चार दिन हुए" मैंने कहा,
"कोई और अश्रा मिली क्या?" उसने पूछा,
ये प्रश्न था?
या फिर झन्नाटेदार भाव-तमाचा!
भाव-तमाचा ही था!
मैं हंस पड़ा!
"नहीं! कोई नहीं!" मैंने कहा,
"और कब तक हो?" उसने पूछा,
"कल तक" मैंने कहा,
चौंक पड़ी!
"इतनी जल्दी?" उसने पूछा,
"अब तुम देर से आओ तो मैं क्या करूँ?" मैंने कहा,
"आ तो गयी न? चार बरस तो नहीं हुए?" उसने कहा!
लो जी!
यहां मेरी वो धारा,
अब नदी बन चुकी थी!
और ये अश्रा,
बाँध बांधे जा रही थी उसमे,
प्रश्नों के बाँध!
"आज की रात तो संग ही हो न मेरे?" मैंने पूछा,
चुप!
मुझे देखे!
मैं प्रतीस्क्षा करूँ!
"बोलो?" मैंने प्रस्ताव रखते हुए कहा,
"केवल आज रात?" वो बोली!
मुंह कसैला कर दिया उसके इस जवाब ने!
मैंने फिर से चिपका लिया उसे अपने से!
यही उचित था!
किसी भी प्रश्न का उत्तर नहीं था मेरे पास!
कम से कम,
उस समय!
वो मंद मंद मुस्कुरा रही थी!
और मैं मंद मंद घुले जा रहा था!
मैं उसे स्पर्श कर,
अपने आपको करीब ला रहा था उसके,
और वो मेरे स्पर्श से दूर जाए जा रही थी!
बर्दाश्त के बाहर था वो सब!
"तुम कब वापिस जाओगी?" मैंने पूछा,
"अभी रहूंगी कोई चार दिन" वो बोली,
"चार दिन?" मैंने पूछा,
"हाँ जी, चार दिन" वो बोली,
"हम्म्म, ठीक है" मैंने कहा,
"क्या हुआ?" उसने पूछा,
"कुछ नहीं, मुझे भी रहना होगा चार दिन फिर तो!" मैंने कहा,
वो मुस्कुरा गयी!
हंस पड़ी!
अश्रा!
अश्रा रहने वाली है हिमाचल की,
हिमाचल में ऊना की,
जिस तरह हिमाचल खूबसूरत है,
वैसे ही अश्रा भी खूबसूरत है!
मैं, अपने आपको पारखी समझता हूँ,
कह सकते हैं आप कि,
अपने ही मुंह मियां-मिट्ठू!
लेकिन सच में, अश्रा को भी मैंने परखा था,
कोई चार बरस पहले,
केदारनाथ के एक स्थान पर!
मुझे याद है वो दिन,
संध्या का समय था उस दिन,
मैं उस दिन शर्मा जी और अपने एक जानकार संगी,
नकुल के साथ था,
तब ये अश्रा अपनी बड़ी बहन तृप्ता के संग थी,
वे दोनों बातें कर रही थीं,
मेरा ध्यान सबसे पहले तृप्ता पर गया,
सुगठित देह थी उसकी,
पतली सी कमर,
और सम्पूर्ण नारी-सौंदर्य!
पीठ किये खड़ी थी तृप्ता!
मेरी तरफ!
और मेरी जिस से नज़रें मिलीं,
वो अश्रा ही थी!
तृप्ता घूमी,
और मैं हिला!
नारी रूप में अप्सरा सी थी वो!
उसने सूट पहना हुआ था,
काले रंग का,
काले रंग में उसका गोरा बदन ऐसे दमक रहा था,
कि जैसे काली चादर पर सफ़ेद गुलाब का फूल!
मुखड़ा ऐसा,
जो एक बार देख ले,
जम जाए उसकी नज़र!
आँखों से ही रसपान कर ले!
और मैंने तो,
तृप्ता का समस्त भूगोल ही खींच लिया था मस्तिष्क में!
आप आशय समझ सकते हैं मेरा!
मैंने नकुल से पूछा उसके बारे में,
