"वो आयेगा?" उन्होंने संशय जताया,
"जी" वो बोले,
"और नहीं आया तो उसको खींच लेंगे" मैंने कहा,
"जी" उन्होंने गर्दन हिलाई!
वहाँ सभी को रोमांच हो गया ये सुनकर!
"गुरु जी मै भी चलूँगा" संजीव ने कहा,
"ठीक है, चलिए" मैंने कहा,
तब तक सामान ले आया जय! उसको अवगत कर दिया रात के बारे में!
मैंने सारा सामान लिया और उनका मिश्रण बनाने लगा!
"जय, वहाँ जाने से पहले, एक जोड़ी कपडे रख लेना अपने" मैंने कहा,
"जी, रख लूँगा" उसने कहा,
मैंने कुछ और भी मिश्रण तैयार किया और फिर उसको अपने बैग में रख लिया! और फिर आई शाम और फिर आई रात!
हम सभी निकल पड़े! वो अपनी गाड़ी में और हम अपनी में!
रत को गाँव पहुँच गए हम! जय ने अपने गाँव के दोस्त को भी संग ले लिया था, ये सही रहा था, इस से स्थानीय लोगों को समझाया सकता था हमारा उद्देश्य! हम सीधे वहीं उसी खेत की तरफ बढे, वहाँ एक ट्यूब-वैल था, उसी के ऊपर एक बल्ब जल रहा था, लेकिन उस बल्ब को कीट-पतंगों अपने नृत्य से ढांप रखा था! अब जय हमे वहाँ लेकर गया जहां उसको उस सांप ने काटा था, मैंने टोर्च ली और वो जगह देखी, वो जगह समतल थी, हाँ कुछ घास थी वहाँ बड़ी बड़ी!
"यहीं काटा था?" मैंने जय से पूछा,
"जी हाँ" उसने बताया,
"उसके बाद वो सांप कहाँ गया था?" मैंने पूछा,
उसने इशारा किया एक तरफ! मै वहीं चला! आगे कीकर और ढाक के पेड़ खड़े थे, कुछ नीम के भी थे, मै आगे चला तो सामने एक खाली सा मैदान दिखाई दिया, मैंने टोर्च की रौशनी मारी उस तरफ तो कुछ रेतीली सी जगह दिखाई दी, मै अब वहीं चला! वे लोग मेरे साथ साथ चल रहे थे! तभी मुझे किसी सांप के हिसहिसाने की आवाज़ आई! मैंने वहाँ टोर्च मारी तो वहाँ एक बड़ा सा सांप कुंडली मारे बैठा था! काले रंग का सांप! नाग! सभी की रूह कांप गयी अन्दर तक!
"शश!" मैंने सभी से कहा!
"कोई नहीं हिलना" मैंने फिर से कहा,
अब मैंने सर्प-मोहिनी विद्या प्रयोग की! और सांप के करीब चला! उसने एक जोरदार फुकार मारी! ये धमकी थी उसकी! जता रहा था कि मेरे करीब नहीं आना नहीं तो मृत्यु से साक्षात्कार करा दूंगा! मै रुका, मंत्र पूरे किये और आगे बढ़ा! सांप अब शांत हो कर बैठा रहा!
मै उसके और करीब चला गया, करीब दो फीट दूरी रह गयी मेरी और उसकी! अब वो पलटा और पीछे हट गया! अब सबकी अटकी हुई सांसें बाहर आयीं! मै थोडा और आगे गया तो अब मैंने कलुष-मंत्र प्रयोग करने का मन बनाया, कलुष-मंत्र पढ़ा और नेत्र खोले! दृश्य स्पष्ट हुआ!
जो मैंने देखा वो अत्यंत भयावह था! वहाँ सैंकड़ों सांप थे रात्रि-विचरण करते हुए! परन्तु पद्म-नाग नहीं था वहां! वहाँ सांप, गोह और बिच्छू आदि घूम रहे थे! मै थोडा और आगे गया, सामने देखा तो भूमि के मध्य भाग में एक बाम्बी दिखाई दी मुझे! यही तो मैं ढूंढ रहा था! पर रात्रि होने के कारण मैंने इरादा बदला और प्रातःकाल आने का निर्णय लिया! अब मै वापिस मुड़ा! और सभी को अपना निर्णय सुना दिया! अब हम वापिस चले शहर वहाँ से!
रस्ते में शर्मा जी ने पूछा, "वो पद्म-नाग दिखाई दिया?"
"नहीं" मैंने कहा,
"ऐसा क्यूँ?" उन्होंने पूछा,
"पता नहीं, सुबह देखते हैं" मैंने कहा,
"ये तो समस्या हो जाएगी" वो बोले,
"होनी तो नहीं चाहिए वैसे" मैंने कहा,
"अब सुबह आना है?" उन्होंने पूछा,
"हाँ" मैंने कहा,
"ठीक है" वे बोले,
"शर्मा जी, शहर में गाड़ी लगाना ज़रा ठेके के पास" मैंने कहा,
"ठीक है" वे बोले,
कुछ ही देर में हम ठेके के पास थे, दूसरी गाड़ी भी आ पहुंची तो रमन भी आ गए, हमने दूसरी गाड़ी भेज दी घर की ओर और हमने मदिरापान आरम्भ किया तब!
"समस्या लगता है अधिक ही गंभीर है" रमन बोले,
"हाँ है तो, लेकिन हल निकल जायेगा" मैंने कहा,
"गुरु जी, आप ही निकालेंगे हल तो" वे बोले,
"चिंता ना कीजिये" मैंने कहा,
"गुरु जी? एक बात पूछंगा मै, क्या पद्म-नाग और नागों से विशेष है?" अब शर्मा जी ने पूछा,
"हाँ शर्मा जी!" मैंने कहा,
"वो कैसे?" उन्होंने पूछा,
"ये पद्म-नाग ही है जो श्री महा-औघड़ की जटा को बांधता है, उनका भुज-बंध बनता है! और इस पृथ्वी पर मात्र यही ऐसा सर्प है जो दीर्घदेह-सर्प(किंग-कोबरा) का शिकार नहीं बनता! हालांकि आकार में छोटा है, परन्तु कई रसायनों से युक्त है, उच्च-कोटि के रसायन, इसकी केंचुली को यदि कोई फालिज़ पड़ा रोगी ग्यारह दिनों तक दूध के साथ खाए, मात्र एक इंच, तो उसके फालिज़ का नाश हो जाता है!" मैंने बताया!
"अच्छा? और क्या गुण हैं?" अब रमन ने पूछा,
"यदि कोई बाँझ स्त्री ऐसे किसी पद्म-नाग को दुग्दाहार कराये इक्कीस दिवस तो उसके बांझपन का भी नाश होता है! वो संतानवान होती है!" मैंने बताया,
"वाह! और?" शर्मा जी ने जिज्ञासावश पूछा,
"बताता हूँ! जिस स्थान पर ये पद्म-नाग बैठा हो, उस स्थान कि यदि मिट्टी एक काले रंग के कपड़े में बांध कर घर में कहीं टांग दी जाए तो उस घर में कभी भी टोना-टोटका सफल नहीं होता! आर किसी भी भूत-बाधा एवं प्रेत-बाधा से घर पूर्णतया सुरक्षित रहता है!" मैंने बताया,
"कमाल है! और गुरु जी?" रमन ने पूछा अब!
"यदि दर्पण में किसी पद्म-नाग को देखा जाए, मात्र एक बार तो उस व्यक्ति का व्यवसाय उन्नति करता रहता है! बेरोज़गार को रोजगार मिल जाता है!" मैंने बताया!
"वाह! और? आप बताते रहिये!" शर्मा जी ने कहा,
"ठीक है! बताता हूँ! यदि किसी व्यक्ति को कोई दुसाध्य रोग हो जैसे कि तपेदिक, रक्त-अर्बुद, ग्रीवा-अर्बुद तो वो व्यक्ति यदि इस पद्म-नाग के समक्ष अपना निवेदन करे और उसको एक वर्ष तक दुग्ध उपलब्ध कराये तो उसका रोग समूल मिट जाएगा!" मैंने कहा,
"वाह! पद्म-नाग तो कल्याणकारी है गुरु जी" रमन ने कहा,
"गुरु जी और बताइए" शर्मा जी ने पूछा,
"सुनिए, यदि किसी व्यक्ति का कोई परिजन घर से गुस्सा होकर अथवा कहीं खो गया है तो यदि वो व्यक्ति इस पद्म-नाग के समक्ष उस व्यक्ति का नाम ले और बारह दुग्ध-पात्र का दूध उसको दान करने का संकल्प ले तो ऐसा खोया हुआ व्यक्ति इक्कीस दिन से पहले अपने घर वापिस आने की राह पकड़ लेता है!" मैंने बताया!
"धन्य है ये पद्म-नाग!" शर्मा जी ने हाथ जोड़कर कहा!
"शर्मा जी, यदि किसी कन्या के विवाह में अड़चन आ रही हो, तो यदि उस कन्या का ज्येष्ठ भ्राता अथवा मामा अथवा उसका चाचा अथवा घर का कोई बुजुर्ग सदस्य अथवा वो कन्या जब रजस्वला हो तो इस पद्म-नाग का जब दर्शन करे तो एक मंत्र बोले ( ये मंत्र मै यहाँ नहीं लिख सकता) मात्र एक उच्चारण से ही उस कन्या का विवाह आगामी पूर्णिमा तक होना तय हो जायेगा! वर घर तक स्वयं आएगा!"
दिव्य सर्प पद्म-नाग! जय हो!
तब मदिरा निबटाई और वहाँ से उठे, गाड़ी में बैठे और चल दिए घर की ओर, घर पहुंचे, खाना तो खाना था नहीं, इसीलिए स्नान आदि कर आराम से बिस्तर पर पसर कर चल दिए निन्द्रालोक में विचरण करने!
सुबह जब मेरी नींद टूटी तो घड़ी देखी, चार बजे थे, नित्य-कर्मों से फारिग हुआ और स्नान करने चल दिया, वहां से आया तो शर्मा जी भी उठे मिले!
"स्नानादि से फारिग हो जाइये" मैंने कहा,
"हाँ" वे बोले और उठे!
वे भी फारिग हो गए, तभी संजीव चाय ले आया, चाय पीने लगे!
"संजीव, वे दोनों उठ गए?" मैंने पूछा,
"हाँ जी, पिताजी स्नान कर रहे हैं" उसने बताया,
हमने चाय ख़तम की और उठ खड़े हुए, अपना बैग उठाया और आ गए कमरे से बाहर, बाहर आये तो जय स्नान करने गया था! रमन ने नमस्कार किया और फिर हुम वहीं सोफे पर टिक गए! अब जय भी आ गया बहार और फिर अपने कमरे में जाकर कपड़े पहने, चाय पी और हम निकले वहां से अब! जय का दोस्त वहीं गाँव में रह गया था, सो वो हमको वहीं मिलने वाला था,
गाड़ी स्टार्ट की और दौड़ पड़े, रास्ता खाली था, बस इक्का-दुक्का बड़े ट्रक सड़क किनारे खड़े थे!
हम जब गाँव पहुंचे, साढ़े पांच हो चुके थे! जय का दोस्त आ चुका था वहाँ, मैंने अपना बैग एक स्थान पर रखा और एक चाकू निकाल लिया उसमे से! अब मैंने उन लोगों को वहीं खड़ा किया और शर्मा जी को लेकर आगे बढ़ा जहां पिछली रात मैंने वो सैंकड़ों सांप देखे थे! मैंने अब ठहर के कलुष-मंत्र चलाया और अपने और शर्मा जी के नेत्र पोषित किये! नेत्र खोले, दृश्य स्पष्ट हुआ! बाम्बी के इर्द-गिर्द ज़मीन के नीचे बहुत सारे सर्प दिखाई देने लगे! हम आगे बढे! रुके, फिर बढे!
"कहीं दिख रहा है वो पद्म-नाग?" मैंने पूछा,
"नहीं जी" वे बोले,
"ठीक है, आगे चलते हैं" मैंने कहा और आगे बढे!
"गुरु जी? वो कौन सा है?" उन्होंने एक सर्प की ओर इशारा करके कहा, मैंने गौर से देखा!
"नहीं, ये छोटा नाग है" मैंने कहा,
हम आगे बढे, उसके मुहाने तक आ गए!
"यहाँ नहीं है" मैंने कहा,
"कहाँ चला गया?" उन्होंने पूछा!
"होगा तो यहीं" मैंने कहा,
"चलिए दिशा बदलते हैं" वे बोले,
"हाँ सही सुझाव दिया आपने" मैंने कहा,
हमने हर तरफ से देखा वो पद्म-नाग नहीं दिखा हमको वहाँ!
"अब क्या हो?" शर्मा जी ने पूछा,
"होगा! वो ऐसे नहीं मानेगा तो दूसरा तरीका अपनाना पड़ेगा!" मैंने कहा,
"ठीक" वो बोले,
हमने फिर से जांच की, खूब टटोला लेकिन नज़र आखिर नहीं आया वो! अब हम वापिस लौटे!
वे लोग बेसब्री से हमारी प्रतीक्षा कर रहे थे!
"क्या हुआ गुरु जी?" रमन ने पूछा,
"नहीं है यहाँ, कहीं निकल गया है" मैंने कहा,
"अब क्या होगा?" वे घबरा के बोले,
"देखते जाइये" मैंने कहा,
मैंने अब एक चारपाई मंगवाई, वो ट्यूब-वैल वाले कमरे से एक चारपाई ले आये, मैंने अब जय को उस पर बैठने को कह दिया, वो बैठ गया! मैंने सर्प-न्यौत विद्या जागृत की, और एक टहनी काट ली पेड़ से, उसके पत्ते छीले और फिर जय की कमर पर मंत्र पढ़ते हुए ग्यारह बार छुआइ!
"जिस तरफ से तुमको खुशबू आ रही हो, उस तरफ मुंह करके बैठ जाओ" मैंने कहा,
उसने घूम घूम के देखा और एक जगह उसको हरसिंगार की खुशबू आई! वो वहीं मुंह मोड़ के बैठ गया!
"हाँ आ गयी खुशबू हरसिंगार की?" मैंने पूछा,
"हाँ जी" उसने कहा,
"ठीक है, ऐसे ही बैठो, नज़र सामने रखो बस" मैंने कहा,
"जी" उसने कहा,
अब मैंने सर्प-न्यौत विद्या का आह्वान कर दिया और हाथ में लिए हुए काले तिल जय के सर पर मंत्र पढ़कर फेंकता रहा! करीब पंद्रह मिनट बीत गए!
अब मैंने एक लोटे में जल लिया और जय से सामने जाकर वो जल छिड़क दिया! और फिर जय से बोला, "कुछ दिखा?"
"नहीं" उसने कहा,
मैंने और जल छिड़का!
"कुछ दिखा अब?" मैंने पूछा,
"नहीं!" उसने कहा,
मैंने और जल छिड़का,
"अब?" मैंने पूछा,
"नहीं" उसने कहा,
और जल छिड़का!
"अब?" मैंने पूछा,
"नहीं" उसने कहा,
और जल छिड़का!
"अब?" मैंने पूछा,
"हाँ........हाँ" उसने डर के मारे कहा!
"डरो नहीं, क्या दिखा?" मैंने पूछा,
"सांप" उसने कहा,
"कौन सा?" मैंने पूछा,
"वही" उसने टकटकी लगाये हुए कहा,
"कहाँ है?" मैंने पूछा,
"सामने पेड़ की जड़ में" उसने ऊँगली से इशारा किया!
वहाँ एक आम का पेड़ था! करीब सौ फीट दूर! और किसी को कोई सांप नहीं दिख रहा था! परन्तु वो वहीं था!
"कैसा है वो सांप?" मैंने पूछा,
"वही लगता है मुझे तो" उसने कहा,
"ठीक है, वही है अब देखो ज़रा उसको" मैंने कहा,
उसे गौर से उस पेड़ को देखा! किसी और को वो सांप नहीं दिखा!
"अब बताओ?" मैंने जय से पूछा,
"वो वहीं बैठा है" उसने कहा,
"ठीक है, अब वो आगे आयेगा" मैंने कहा,
अब मैंने पानी अंजुल में लाकर मंत्र पढ़ा और नीचे गिरा दिया!
"चल पड़ा! चल पड़ा वो गुरु जी!" वो चिल्लाया!
सांप आगे चल पड़ा था! ये विद्या थी जो उसको खींच रही थी!
"अब बताओ?" मैंने पूछा,
"वो रुक गया है अब" उसने कहा,
मैंने फिर से पानी गिराया!
"हाँ, अब चल पड़ा!" उसने कहा,
"ठीक है" मैंने कहा,
"वो आ रहा है!" वो चिल्लाया!
सभी के रोंगटे खड़े हो रहे थे! लेकिन सांप किसी को नहीं दिख रहा था!
"ठीक है, उसको देखते जाओ" मैंने कहा,
अब सांप विद्या के कारण आगे बढ़ा और फिर कोई चालीस फीट पर रुक गया! अब सभी को दिखाई दिया वो सांप! सभी की घिग्घी बंध गयी डर के मारे! और जय पसीने पसीने हो गया!!
"सबको दिखा वो सांप?" मैंने उसकी तरफ इशारा करते हुए पूछा, ।
"हाँ जी, वो रहा!" रमन बोले!
"जय अब बताओ" मैंने कहा और अभिमंत्रित पानी नीचे गिराया!
"वो आ रहा है, मुझे डर लग रहा है!" जय ने कहा,
"डरना नहीं, ना ही भागना यहाँ से नहीं तो और लोगों को भी काट लेगा ये!" मैंने बताया,
सांप अब आगे बढ़ रहा था! क्रोध में फुफकारता हुए! ज़मीन पर फन पटकता हुआ! वो गुस्से में था, इसलिए क्यूंकि उसको ज़बरन बुलाया जा रहा था! वो आगे आया और दस फीट पर रुक गया!
"कोई नहीं डरना, ना ही हिलना" मैंने सभी को चेताया!
अब मैं सांप और जय की बीच खड़ा हो गया, दोनों से पांच-पांच फीट का अंतर बनाते हुए! वहाँ वो सांप फन फैलाए अपनी जीभ लपलपा रहा था! मैंने अब एक और विद्या का चलन किया, ये है सर्प-मोहिनी! इसके प्रभाव से सांप प्रबल गुस्से में आता है! और जब विद्या के पाश में आता है तो वो वही करता है जो उस से करवाया जाता है!
"जय?" यहाँ आओ उठकर" मैंने कहा,
वो घबराया!
"आओ?" मैंने कहा,
वो नहीं आया!
"आओ जय? नहीं तो इसका परिणाम बहुत बुरा होने वाला है!" मैंने अब गुस्से से कहा,
वो अब भी नहीं आया! वहाँ सांप गुस्से के मारे फटे जा रहा था!
"आओ जय?" मैंने गुस्से से कहा!
वो नहीं आया! उसको जैसे काठ मार गया हो! जड़ता का शिकार हो गया हो! अब मैंने शर्मा जी को इशारा किया! और जैसे ही शर्मा जी वहाँ से हिले, सांप ने उनको गुस्से से देखा! कभी उनको कभी मुझे!
"जय?" मैंने उसका ध्यान बंटाया!
शर्मा जी ने उसको उसके हाथ से पकड़ा और मेरे पास ले आये खींच कर! बहुत विरोध किया उसने! डर के मारे जैसे बेहोश हो जाने वाला था वो! किसी तरह से ले आये उसको मेरे पास! उसके आंसू नहीं थम रहे थे और यहाँ जान पर बनी थी!
"जय?" मैंने कहा उस से!
उसने कोई ध्यान नहीं दिया मुझ पर! बस रोता रहा! अब मुझे क्रोध आया उस पर! मैंने उसके कान पर एक दिया खींच कर थप्पड़! गिरते गिरते बचा, परन्तु मुझे देखा और हाथ जोड़ लिए कांपते कांपते!
"जय, तू मरवाएगा सभी को?" मैंने गुस्से से कहा,
उसने फिर से हाथ जोड़े!
"सुन रहा है? मुझ पर विश्वास रख, नहीं तो आज तेरी जान जाएगी ही!" मैंने कहा और मैंने उसको पकड़ कर हिलाया!
"हाथ जोड़ इसके समक्ष!" मैंने कहा उस से!
उसने हाथ जोड़े!
"इसके सामने झुक जा और दंडवत प्रणाम कर" मैंने कहा,
वो झुका और प्रणाम किया!
जैसे ही सांप ने उसको देखा, मारे क्रोध के हिस्स हिस्स कर फन पटका उसने! सांप समझ गया था कि मैं क्या चाहता हूँ उस से और क्या करवाऊंगा!
"जय! ये सांप इस से आगे नहीं बढेगा! घबरा मत! इस से क्षमा मांग! क्षमा मांग कि मुझ से अनजाने में गलती हुई, जानबूझकर नहीं, मांग क्षमा?" मैंने कहा,
उसने डरते डरते टूटे-फूटे शब्दों में क्षमा मांगी!
"साफ़ साफ़ बोल?" मैंने कहा,
उसने हिम्मत करते हुए, रोते रोते क्षमा मांगी! सांप ने फुकार मारी!
"अब जा और उस चारपाई पर बैठ जा, कहीं नहीं जाना वहां से" मैंने कहा,
वो चला गया! और बैठ गया चारपाई पर!
"शर्मा जी, अब आप जाइये पीछे, इसको पीठ नहीं दिखाना, ऐसे ही पीछे जाइये" मैंने कहा,
वो वैसे ही पीछे चल दिए!
अब वहाँ मै और वो पद्म-नाग ही थे! अब मैंने अपनी जेब से मीन-मस्तक शैल निकाला और उसको अभिमंत्रित किया और फिर सामने अमीन पर रख दिया! और मंत्र पढ़े!
"स्वीकार करें" मैंने कहा,
उसने फुकार मारी!
"स्वीकार करें" मैंने कहा,
उसने फिर फुकार मारी! "स्वीकार करें" मैंने फिर से कहा,
उसने अबकी बार बहुत तेज फुकार मारी! सर्प-मोहिनी निरन्तर अपना कार्य कर रही थी!
मैंने फिर से वो मीन-मस्तक शैल उठाया और फिर से अभिमंत्रित किया और फिर से वहीं रख दिया!
"स्वीकार करें!" मैंने कहा,
उसने फिर से फूंकार मारी!
"स्वीकार करें!" मैंने कहा,
उसने फिर से एक जोरदार फुकार मारी!
"मुझे विवश ना करें" मैंने कहा,
उसने अब अपना फन फैलाया और मेरी ओर चला! रुका कोई दो फीट समीप आ कर!
मैंने फिर से वो मीन-मस्तक शैल उठाया और पुनः अभिमंत्रित कर उसके सामने रख दिया!
"स्वीकार करें" मैंने हाथ जोड़ कर कहा!
उसने उस शैल को देखा लेकिन चाटा नहीं! और मैं चाहता था वो चाटे उसे!
"स्वीकार करें" मैंने फिर से कहा,
उसने नहीं चाटा! और ना ही फुकार मारी अब! ।
"स्वीकार करें" मैंने फिर से कहा,
कुछ नहीं किया उसने! बस उस शैल को देखता रहा!
ज़िदैल एवं क्रोधी सर्प ऐसा ही करते हैं! ये कोई विशेष बात नहीं थी! मैंने फिर से मीन-मस्तक शैल उठा लिया
और जेब में रख लिया! उसने स्वीकार नहीं किया था! वो गुस्से में फुनफुना रहा था! उसने एक दो बार ज़ोर से फन नीचे करते हुए काटने की धमकी दी थी! मुझे मेरी हद बता रहा था वो! और अब मैं विवश था! विवश इसलिए कि मेरा अगला विद्या प्रयोग उसको कष्ट देता अपितु मै ऐसा नहीं चाहता था परन्तु इसी कारणवश विवश था! अन्य विकल्प नहीं था मेरे पास शेष! अब मैंने अपने एक छोटे से बैग से एक दक्षिणमुखी कौड़ी निकाली! उसको अभिमंत्रित किया और उसके सामने रख दी! वो उसको देख पीछे हटा!
"स्वीकार करें!" मैंने कहा,
वो शांत!
"स्वीकार करें!" मैंने कहा,
वो फिर से शांत!
"स्वीकार करें!" मैंने फिर से कहा!
अब वो फुकारा!
"स्वीकार करें!" मैंने कहा,
फिर से शांत!
"स्वीकार करें!" मैंने पांचवीं और अंतिम बार कहा!
वो यथावत ही रहा!
मैंने कौड़ी उठा ली और फिर से अम्भिमंत्रित किया! और फिर से नीचे रख दिया!
"पलाश उड़े!" मैंने कहा,
वो आगे आया!
"पाश उड़े!" मैंने कहा,
वो और खिसका आगे!
मेरी और उसकी नजरें टकरायीं एक दूसरे से! मेरी विद्या साथ न होती तो मुझे अब तक अनगिनत बार डस चुका होता!
"स्वीकार करें!" मैंने कहा,
वो थोडा सा झुंझलाया और फिर पीछे हट गया! नहीं स्वीकार किया उसने! कभी कभी इसी प्रयास में सुबह से शाम हो जाती है! कोई कोई सांप बेहद जिद्दी और घमंडी होता है! ये तो था ही पद्म-नाग!
मैंने कौड़ी उठायी! और अपने मुंह में रख ली जीभ के नीचे! महारुद्र-मंत्र का जाप किया और फिर कौड़ी मुंह से निकाल दी! मुंह से कौड़ी निकालते ही उसकी नज़र कौड़ी पर टिक गयी! मैंने कौड़ी नीचे रखी अब!
"स्वीकार हो!" मैंने उस से कहा!
वो आगे आया!
"स्वीकार हो!" मैंने कहा,
वो और आगे आया! इतना कि मै उसको पकड़ सकता था! उसके चमचमाते हुए त्वचा-आवरण ने मुझे मंत्र-मुध्द कर दिया! दो-ढाई किलो का सर्प और इतनी मान-प्रतिष्ठा! इतना स्व-सम्मान! क्रोध की पराकाष्ठा!
"स्वीकार हो!" मैंने कहा,
अब उसने कौड़ी से नज़रें हटायीं और मुझसे मिलाईं! मैंने भी मिलाईं!
"स्वीकार हो!" मैंने कहा!
वो अब आगे बढ़ा! बिलकुल मेरे पास! मेरे जूते से मात्र छह इंच दूर!
"स्वीकार हो!" मैंने कहा!
वो वहीं रुक गया! मै बैठ हुआ था, वो चाहता तो मुझे डस लेता! मैंने उसी के सामने हाथ बढ़ाया,उसने मेरे हाथ को देखा, मैंने कौड़ी उठाने के लिए जैसे ही उंगलियाँ खोली उसने एक ज़ोरदार फुफकार मारी! मेरे हाथ के रोमकेशों पर उसकी गरम साँस टकराई! मैंने हाथ वहीं रोक लिया! वो नहीं चाहता था कि मैं अब वो कौड़ी उठाऊं! मै अपना हाथ धीरे धीरे पीछे लाया और खींच लिया!
"स्वीकार हो!" मैंने कहा!
उसने फन उठाकर मुझे देखा, फिर फन टेढ़ा कर उसने बैठे हुए जय को देखा! जय को उसने जब देखा तो जय की किल्ली निकल गयी! भागने लगा वो वहाँ से! शर्मा जी ने उसको पकड़ के बिठाया!
"स्वीकार हो!" मैंने कहा और हाथ जोड़े उसके, उसके बिलकुल फन के पास जाकर! उसने कोई फुफकार नहीं मारी!
अब सांप पीछे हटा! और मेरे साथ से चलता हुआ वो ठीक जय की चारपाई के पास जाकर कुंडली मार बैठ गया।
जय पर जैसे बिजली टूटी! रोते रोते बिफर गया! मै कौड़ी उठा, भाग के वहाँ आया! शर्मा जी को हटाया! मै वहाँ खड़ा हुआ और, दूसरे सभी को वहाँ से जाने के लिए कह दिया! सभी भागे वहां से!
"जय?" मैंने कहा,
जय ने मुझे नहीं देखा बस उस सांप को देखता रहा! मैंने सांप को देखा, वो एकटक जय को देखे जा रहा था! भय का माहौल था वहाँ!
"जय? जैसा मै कह रहा हूँ, वैसा करो अब, शांत हो जाओ!" मैंने कहा,
वो कांपने लगा भय से, लेकिन शांत हो गया, हाँ, सिसकियाँ नहीं बंद हुईं उसकी!
"जय, हाथ जोड़ो!" मैंने कहा,
उसने हाथ जोड़े!
"क्षमा मांगो" मैंने कहा,
उसने क्षमा मांगी!
"प्राणदान मांगो" मैंने कहा,
उसने प्राणदान मांगे!
अब मैंने जय के हाथ में कौड़ी पकड़ा दी! सांप ने जीभ लपलापाई!
"हे पद्म-नाग, इस जातक को क्षमा कर दीजिये, जो भी हुआ, भूलवश हुआ" मैंने हाथ जोड़ते हुए कहा!
"जय, एकदम शांत रहो" मैंने कहा, ।
अब मै उसके और जय के मध्य आ गया, नीचे झुक और सांप के समीप गया! मैंने मीन-मस्तक शैल निकाला और भूमि पर रख दिया!
"स्वीकार करें!" मैंने कहा,
कोई प्रतिक्रिया नहीं!
"स्वीकार करें!" मैंने पुनः कहा,
उसने कोई भी प्रतिक्रिया नहीं दी!
"स्वीकार करें!" मैंने फिर से कहा,
सांप ने गौर से मुझे देखा, जीभ बाहर की, जायजा लिया, फिर जय को देखा और फिर मुझे, फिर पीछे मुड़कर सभी लोगों पर नज़र डाली! सबकी सांस अटकी अब!
उसने फिर से जय को देखा और फिर मुझे, फिर उसने मीन-मस्तक शैल हो देखा, झुका, फन ढीला किया और उस मीन-मस्तक शैल को चाट लिया! बता नहीं सकता कितनी अमूल्य शांति मिली मुझे! और मै उस पद्म-नाग का कृतार्थ हो गया उसी क्षण!
अब जो करना था शीघ्र ही करना था! पद्म-नाग का विष बहुत विषैला और जानलेवा होता है, इसमें कई जानलेवा रसायनों का मिश्रण सम्मिलित होता है, चिकित्सकों के पास इसके सभी रसायनों की विष-हरण औषधि नहीं होती! कोई न कोई अवयव रक्त में रह ही जाता है, ये प्रभाव प्रत्येक डसे हुए व्यक्ति में उसके शारीरिक अवं तंत्रिका तंत्र के अनुसार और अनुपात में उठते हैं, कई लोग अंधे हो जाते हैं सदा के लिए, कई लोगों को लकवा मार जाता है, कई लोगों को हाथ-पांव में सूजन अथवा कम्पन रहने लगती है! और कई लोगों को विस्मृति-दोष हो जाता है और कई लोगों का शरीर-तंत्र जब इस विष के उस विशेष अवयव से लड़ता है तो उसको जय जैसे प्रभाव झेलने पड़ते हैं! जय के साथ यही हो रहा था! तीस दिन के चक्र में ये अवयव बार-बार उठ जाता था
और उसके ऐसी प्राण-हारी स्थिति में धकेल देता था! दूर-देहात में तो अक्सर कई लोग इसके दंश से चिकित्सिय सहायता मिले बिना प्राण त्याग देते हैं! पद्म-नाग की जाति में एक और प्रजाति है, जिसको कन्दुप कहा जाता है, भौगौलिक भाषाओं के कारण इसको अनेकों नाम से पुकारा जाता है, ये अत्यंत दुर्लभ सर्प है! पत्थर पर फुकार मार दे तो उसको भी काला कर दे! गजराज भी उसको सम्मान देते हैं, जिस वृक्ष पर कन्दुप बैठ हुआ हो, गजराज भी उस पेड़ को नहीं हिलाते! खैर!
समय तेजी से बीता जा रहा था! मीन-मस्तक को चाट लिया था पद्म-नाग ने! अब मैंने उसके गले में विषमोचिनी धागे को तोड़ दिया! और फेंक दिया!
"जय, अपने जूते-जुराब उतारो उस पांव के, जहां तुमको काटा था इसने" मैंने कहा,
उसने पाँव ऊपर उठाया और जूते-जुराब उतार दिए!
"अब ये मीन-मस्तक शैल उठाओ" मैंने कहा,
वो डरा!
"डरो नहीं" मैंने कहा,
"उठाओ?" मैंने ज़ोर से कहा!
उसने डरते डरते उठाया!
"इसके अपने उस जगह रखो जहां काटा था" मैंने कहा,
उसने रखा!
"अब हिलना नहीं" मैंने कहा,
अब पद्म-नाग ने मुझे देखा और फिर जय को! और फिर उस मीन-मस्तक शैल को!
"जय, हाथ जोड़ कर खड़े हो जाओ" मैंने कहा,
वो खड़ा हुआ, मीन-मस्तक शैल उसके पाँव के अंगूठे के ऊपर ही रखा था!
अब मैंने ह्रीं-उलूक-मंत्र पढ़ा! सांप ने मुझे देखा और फुकार मारी! इस मंत्र से उसको कष्ट हुआ! दम घुटता है! । आँखें बड़ी हो जाती हैं, फन पर ज़ोर पड़ता है! ऐसा ही उसके साथ हुआ! उसने गुस्से से हिस्स हिस्स की आवाज़ की! मैंने मंत्र पढना जारी रखा!
तब अत्यंत कष्ट होने पर पद्म-नाग ने वो मीन-मस्तक शैल चाट कर गिरा दिया! मैंने मंत्र पढना छोड़ दिया! पद्म-नाग कष्ट-मुक्त हुआ! और जय को प्राण-दान मिला! मैंने पद्म-नाग को सम्मान देते हुए उसके कष्ट हेतु क्षमा मांगी!
कुछ क्षण बीते! और तभी पद्म-नाग पलटा और खेत की मिटटी में अश्व-गति से दौड़ता हुआ चला गया वापिस! मै उसको देखता रहा जब तक वो ओझल न हो गया!
मैंने कर्तव्य निर्वाह कर दिया था! मै उस पद्म-नाग को स्मरण कर प्रणाम किया! बहुत दयावान सर्प था वो, मुझे आज भी स्मरण है!
उन लोगों ने चमत्कार देखा था! सभी आ गए मेरे पास! पांव छूने लगे!
"रमण जी, आपका पुत्र जय अब विष-रहित है! आगामी नागपंचमी को यथा-सामर्थ्य निर्धनों को दान देना, भोजन खिलाना और सर्पो को दूध पिलाना" मैंने कहा!
"जो आज्ञा गुरु जी" वे बोले!
और फिर नागपंचमी पर उन्होंने अपना वचन निभा दिया!
आज जय बिलकुल ठीक है! इसी वर्ष उसका विवाह भी हो चुका है! मै और शर्मा जी सादर आमंत्रित थे वहां!
ये अद्भुत संसार हैं, और उतने ही अद्भुत ये सर्प! कभी सर्प-हत्या न कीजिये, वंश-बेल कट जायेगी! कभी कष्ट न दीजिये, पितृ तड़प जायेंगे! कभी न पकडिये उन्हें! आपकी प्रगति अवरुद्ध हो जाएगी!
उचित सम्मान कीजिये उनका! उनके मार्ग से हट जाइये! यही उनका आदर है और यही है सत्कार!
------------------------------------------साधुवाद-------------------------------------------