वर्ष २०१२ अलवर रोड़ ...
 
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वर्ष २०१२ अलवर रोड़ की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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भिड़ने की कहानी सुनाई थी, कुछ और कहानियां भी सुनी थीं मैंने इसके बारे में! दिल्ली के एक दूरसंचार निगम के अधिकारी ने भी मुझे इसकी एक कहानी सुनाई थी, वर्ष ‘९८ में वे अपने गाँव गए थे, वो अपने घर के घेर में सो रहे थे, तब ये उनका चाचा का रूप धर के आया था और कहा था कि सुबह हो गयी है, अब उठ जा, वो मंत्र-मुग्ध से उसके साथ चल पड़े थे, लेकिन जब वे आगे आये तो रास्ते पर लगी एक बड़ी सी लाइट जल रही थी, उसके इर्द-गिर्द पतंगे चक्कर लगा रहे थे, वो ठिठके, अपनी कलाई में बंधी घडी देखि, उसमे रात के डेढ़ बजे थे! उनकी तन्द्रा भंग हुई! अब जो उनके चाचा का रूप धर के आया था उनके पास आया और बोला कि ठहर कैसे गया? आगे चल न? तब उन्होंने बोला कि तू है कौन? तब वो हंसा और बोला कि आज तू बच गया नहीं तो तुझे तेरी ज़मीन में ही गाड़ देता मै! इतना कह वो गायब हो गया! ये था छलावा!

और इस कहानी में वो आदमी भी मुझे ऐसा ही लग रहा था, ऐसा ही कोई ताक़तवर छलावा! इसकी सत्ता रात्रि नौ बजे से सुबह सूर्योदय तक रहती है उसके बाद ये भूमि में समां जाता है! ऐसा ही एक छलावा दिल्ली की यमुना नदी के किनारे है, वो वहीँ रहता है, इसका को नाम नहीं होता, ये उन्मुक्त रूप से विचरण करता है, लड़ने का शौक़ीन होता है, कुश्ती में मजा आता है इसको! अक्सर मजबूत देह वाले इंसान और किसी पहलवान को ललकार देता है लड़ने के लिए और उनकी इतनी पिटाई करता है कि हड्डियां-पसलियाँ तोड़ देता है! हाँ जान से नहीं मारता! कुश्ती में जब जोर कम पड़ता है इसका तो रूप बदल लेता है,कभी भेड़िया, कभी कुत्ता, कभी सांड कभी जंगली शूकर और कभी सांप तक बन जाता है! इस से मेरा सामना आज तक नहीं हुआ था! इस पर तांत्रिक-मान्त्रिक शक्तियों का प्रभाव बहुत कम होता है, केवल भूमि के एक निश्चित भाग को कीलित कर इसको क़ैद कर दिया जाता है, बस! इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं!

अब प्रश्न सभी पाठकों के मन में ये होगा कि ये छलावा बनता कैसे है? बताता हूँ, जब भी किसी स्त्री के तीन संतान एक साथ होती हैं, अर्थात जैसे जुड़वां वैसे ही तिड़वाँ अब इनमे से जो भी संतान अल्पायु मर जाती है, उसको पेट के बल ज़मीन में दफ़न किया जाता है, इसी की रूह छलावे के रूप में अस्तित्व के रूप में आती है, मनुष्य की देह एक ख़ास विकास के बाद रुक जाती है परन्तु छलावा सदैव बढ़ता ही रहता है! ये रूप बदलने में माहिर हो जाता है! भूत-प्रेतों को अपनी सरहद में नहीं रहने देता! और पहलवान देह धारी हो जाता है! और जानते हैं? ये एक मात्र योनि है जिसका कोई वर्णन चौरासी लाख योनियों में से नहीं है! इसी कारण से शक्तियों से डरता नहीं! ये अत्यंत चालाक,चुनौती स्वीकार करने वाला, शातिर और मांस-मदिरा का अत्यंत शौक़ीन होता है! स्त्रियों के समक्ष वैसे कभी नहीं आता, परन्तु जहां ये वास


   
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श्रीशः उपदंडक
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कर रहा है, ये उनके मल-मूत्र त्याग से चिढ़कर उनको लात मार के वहाँ से भगा देता है! अब ये निश्चित रूप से एक बलवान और एक पुराना छलावा ही है, निश्चित रूप से!

जो जानकार आये थे हमारे पास, मैंने उनको दो दिनों के बाद का समय दिया था वहाँ जाने का, सौभाग्य से उस रात कालरात्रि थी, एक शुभ रात्रि हम तांत्रिकों के लिए! उस दिन हमारी आसुरिक शक्तियां चार गुना अधिक शक्तिशाली हुआ करती हैं! मैंने उनको बताया और वो हमारा धन्यवाद कर वहाँ से विदा ले चले गए! अब शर्मा जी ने जिज्ञासावश मुझसे प्रश्न किया, “गुरु जी? मैंने भी अपने बुजुर्गों से इस छलावे के बारे में सुना है, तो क्या ये आज भी हैं?”

“शर्मा जी, जहां जहां प्रकाश पहुंचा है वहाँ से ये हट जाते हैं, आजकल गाँव भी शर में तब्दील हो रहे हैं, विकास होता जा रहा है, परन्तु जो जहां क़ैद है वो वहीँ क़ैद है, ये छलावा भी उनमे से एक है” मैंने बताया,

“अच्छा! गुरु जी, तो ये क्या केवल पहलवानों से ही लड़ता-भिड़ता है?” उन्होंने पूछा,

“हाँ! अधिकतर” मैंने बताया,

“अच्छा! तो इस से बचने का कोई उपाय?” उन्होंने पूछा,

“कोई उपाय नहीं, न ताबीज़, न गंडा, कोई काम नहीं करेगा!” मैंने बताया,

“ओह! मैंने भी सुनी हैं कुछ ऐसी ही घटनाएं, इसीलिए पूछा” उन्होंने कहा,

“आपने देखा होगा, कि कई पहलवानों का एक कान टूटा होता है, या तोड़ दिया जाता है” मैंने कहा,

“हाँ! हाँ! मैंने देखा है!” उन्होंने कहा,

“इसके पीछे मूल वजह यही छलावे से बचने की है, छलावा कभी कि अंग-भंग अथवा अपंग पहलवान से नहीं लड़ता, न रोगियों से ही!” मैंने बताया,

“परन्तु मैंने सुना है कि कान काम-वासना न जागे इसीलिए तोडा जाता है?” शर्मा जी ने प्रश्न किया,

“नहीं, कान में छेद किया जाता है उसके लिए, स्त्रियों में कान का छिदवाना इसका एक उदाहरण है, आपने देखा होगा कई पुराने बुज़ुर्ग अपने कान छिदवाते थे, यही कारण है, गर्म प्रदेशों में जैसे राजस्थान आदि में आज भी यही परंपरा है!” मैंने उनके प्रश्न का उत्तर दिया!


   
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श्रीशः उपदंडक
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फिर हमारी कुछ और बातें होती रही इसी विषय पर, मेरे पास अभी दो दिनों का समय था तैयारी करने के लिए, मैंने कुछ साजो-सामान व सामग्री मंगवा ली! अपने तंत्राभूषण आदि जागृत किये, कुछ विद्याएँ जागृत कीं और कुछ मंत्र भी! दो क्रियाएं भी कीं और प्राण-संचन विद्या को भी परिपूर्ण किया! न जाने कब वो बिगड़ जाए तो उठा-पटक कर दे! ये आशंका थी!

फिर दो दिन बीते, अरविन्द के बड़े भाई का फ़ोन आ गया, उन्हें बता दिया गया कि हम वहाँ करीब सात बजे तक पहुँच जायेंगे, और फिर हम उस दिन वहाँ के लिए प्रस्थान कर गए!

हम करीब साढ़े सात बजे वहाँ पहुंचे, वहाँ नरेन्द्र और उसके बड़े भाई और उनके चार-पांच जानकार मिले हमको, उन्होंने हमको वो जगह भी दिखाई जहां इस छलावे का आतंक था, वहाँ दिन में कुछ भी नहीं होता था परन्तु रात घिरते ही वहाँ भय का माहौल छा जाता था! अब तो वहाँ कोई जाने की हिम्मत भी नहीं करता था! एक तरह से वहाँ मजदूरों ने एक क्यारी सी बना दी थी! जैसे उसकी सीमा-रेखा खींच दी हो! मैंने नरेन्द्र को बुलाया और उस स्थान में प्रवेश किया, ये पथरीला और बंजर सा स्थान था, कोई झाड-झंखाड़ भी नहीं थी और न ही कोई बड़ा पेड़, केवल दूर में कुछ जंगली रमास के पौधे लगे थे और कुछ नहीं, हाँ वहाँ मोटे मोटे पत्थर अवश्य ही थे ज़मीन ने कुछ धंसे हुए, कुछ बाहर पड़े हुए!

“तो नरेन्द्र, यही वो जगह है?” मैंने पूछा,

“हाँ जी” नरेन्द्र ने बताया,

“अच्छा!” मैंने कहा,

“गुरु जी, वो देखिये, वहाँ से उसने मुझे फेंक के मारा था! वहाँ से सीधे वहाँ, उस दीवार पर, जो अभी तक टूटी हुई है” नरेन्द्र ने दोद्नों जगह दिखा कर इशारा किया!

दूरी कम से कम बीस-पच्चीस फीट तो होगी ही वो!

“और यहाँ, उस बाबा को मारा था उसने” नरेन्द्र ने इशारा करके बताया,

“अच्छा!” मैंने देखा और कहा,

“और वहाँ, उस तरफ, उस मान्त्रिक को पीटा था उसने” नरेन्द्र ने बताया,

“ओह!” मेरे मुंह से निकला!

मैंने भूमि का मापन किया, वो छलावा कम से कम ढाई सौ गुणा ढाई सौ वर्ग फीट में काबिज़ था! वो इसको अपनी भूमि मानता होगा, इसीलिए किसी को नहीं आने देता था वो वहाँ! मल-


   
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श्रीशः उपदंडक
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मूत्र त्याग करने वाले उसे पसंद नहीं, हाँ चुनौती देने वालों को वो बख्श्ता नहीं! यही हुआ था आज तक वहाँ!

अब मैंने वहाँ से नरेन्द्र हो हटा दिया! और शर्मा जी को अपने साथ लिया! और उनसे कहा, “शर्मा जी, ये लीजिये ये लौंग हैं, आप ग्यारह जगह ये लौंग बिखेर दीजिये एक घेर बना कर, बाकी काम मै करता हूँ”

“जी अभी करता हूँ” उन्होंने कहा और लौंग बिखेरनी शुरू कर दीं वहाँ एक घेरा बना कर!

फिर मैंने अपने बैग से कुछ भस्म निकाली और उसको अभिमंत्रित कर भूमि पर इकत्तीस जगह बिखेर दिया! ये मेरा शक्ति-केंद्र था! शर्मा जी ने लौंग बिखेर दीं और मैंने भस्म! अब हमारा अखाड़ा तैयार हो गया था! या तो आज पहलवान जीतेगा या मै!

“गुरु जी, कुछ सामान मंगाना हो तो बताइये, अभी समय है, मै नरेन्द्र को साथ लेकर ले आऊंगा” शर्मा जी ने कहा,

“हाँ, एक बोतल मदिरा, पांच नीम्बू और एक किलो मांस लाइए” मैंने बताया,

जी, ले आता हूँ!” उन्होंने कहा,

और फिर वो नरेन्द्र के साथ चले गए सामान लेने और मै अपने तंत्राभूषण संभालने लगा, घंटे के बाद क्रिया आरम्भ करनी थी, मन में व्याकुलता थी और आशंका भी!

शर्मा जी कोई आधे घंटे के बाद सारा सामान ले आये, मैंने एक अस्थायी कमरे में एक अलख उठायी और फिर क्रिया आरम्भ की, शर्मा जी को बाहर बिठा दिया था ताकि कोई व्यवधान न उत्पन्न हो, मैंने अब तामस-विद्या जागृत की, यम्जोड़-विद्या धारण की और कच्चे मांस का भोग लगाया! ज्वर सा चढ़ गया शरीर में! फिर दुहर्पिका-विद्या जागृत की, और मदिरा से लेपित मांस का भोग लिया! फिर मैंने अपने बेजोड़ खबीस को हाज़िर किया! मेरा इबु-खबीस हाज़िर हुआ! मैंने उसको भोग दिया और फिर उसको तत्पर रहेने का हुक्म दिया! मैंने घडी देखी, घडी में पौने दस बज चुके थे, मै अब अलख के पास लेट गया और फिर कनंक-वाहिनी से वार्तालाप किया! कोई आधा घंटा लगा, अब मै खड़ा हुआ, वस्त्र धारण किये, तंत्राभूषण धारण किये और बाहर आ गया! शर्मा जी वहीँ मिले!

“मै भी चलूँ गुरु जी?” वे बोले,

“नहीं शर्मा जी, आप यहीं रुकिए” मैंने उनके कंधे पर हाथ रख के कहा,

“मै चाह रहा था………..” उन्होंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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“मै समझ गया! ठीक है, परन्तु मेरे रक्षा-घेरे में ही रहें, चाहे मेरे साथ कुछ भी हो” मैंने बताया,

“जी गुरु जी” उन्होंने कहा,

तब मैंने उनको भी तंत्राभूषण धारण करवा दिए, और उनकी देह को प्राण-रक्षण मंत्र से संचित कर दिया! अब हम दोनों चल पड़े वहाँ, उस स्थान की ओर!

 

मैंने अभय-सिद्धि का वरण किया और उस मैदान में जा पहुंचा! वहाँ मैंने मदिरा का एक प्याला बनाया और गटक गया! मैंने एक प्याला शर्मा जी को भी दिया, उन्होंने ने भी गटक लिया! अब मैंने अपने त्रिशूल से वहाँ एक घेरा खींच दिया, और घेरे के बीच में शर्मा जो को खड़ा कर दिया! अब मैंने तांत्रिक-नाद किया! औघड़ जाग गया! मुझे में औघड़ी-शक्ति का वास हो गया! या तो मार दे ये फिर मर जा! बस यही ख़याल था अब मन में! सोच में!

मै आगे बढ़ा, आगे जाके अपना त्रिशूल लहराया और मैंने फिर चुनौती दे ही डाली! मै चिल्लाया,” ओ पहलवान! आजा मेरे सामने!”

कोई नहीं आया!

मैंने दुवाक्ष-मंत्र का जाप किया! यदि कोई पराशक्ति सम्मुख हो ओझल तो उस को प्रदाह उठने लगती है इस मंत्र से! अक्सर भूत-प्रेत बाधाग्रस्त मनुष्य पर ये मंत्र काली मिर्च पढ़ के फेंकी जाती हैं!

तभी मेरे सामने आवाज़ आई ‘धम्म’! अर्थात उस पहलवान की आमद हो गयी थी! अब मैंने फ़ौरन कलुष-मंत्र का जाप कर डाला! नेत्र पोषित किये उस से और नेत्र खोल दिए! और नेत्र खोलते ही सामने कोई दस फीट दूर एक भयानक आदमी नज़र आया! कम से कम दस-बारह फीट लम्बा! चौड़ा और मजबूत भुजाओं वाला! जैसे कि एक दुर्दांत खबीस! गंजा! और भयानक रूप वाला आदमी! उसको किसी मनुष्य को दो-फाड़ करने में कोई देर न लगती यदि वो चाहता तो!

“कौन है तू?” मैंने पूछा,

वो रत्ती-मात्र भी ना हिला! वहीँ खड़ा रहा! हाँ उसका चेहरा स्याह था, जैसे किसी काले कपडे से ढक के रखा हो अपना चेहरा!

“जवाब दे?’ मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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अब वो सामने आया थोडा और! और रुक गया!

“क्या हुआ? मेरे सामने आ?” मैंने कहा,

वो आगे नहीं बढ़ा! उसे शायद गंध आ गयी तामस-विद्या की!

“आजा सामने” मैंने फिर से चुनौती दी उसको!

अब उसने मेरे और शर्मा जी के चारों ओर चक्कर काटने शुरू किये! मात्र एक क्षण में ही वो चक्कर काट लेता था! आपको गर्दन घुमाने की आवश्यकता ही नहीं थी!

“ठहर जा!” मैंने कहा,

वो नहीं रुका, बल्कि अब क्रोध से गुर्राने लगा! अपने दोनों हाथ ऊपर उठाता और गुर्रा के नीचे फेंकता! फिर अचानक से रुक गया! आगे बढ़ा और फिर कोई चार फीट पर रुक गया! अब मैंने उसको गौर से देखा! उसने अपने बदन पर चीथड़े से पहन रखे थे! काले रंग की चीथड़े कपड़ों के!

“आगे बढ़ पहलवान! मै वैसा नहीं हूँ जो आये थे तेरा मुकाबला करने, या तो तू हटेगा अब या मै!” मैंने अपना त्रिशूल उसको दिखाते हुए कहा!

अब वो दहाड़ा! मैंने नीचे झुक के मिटटी की एक चुटकी उठाई और उसको अभिमंत्रित किया फिर उसमे थूक कर उसकी एक गेंद बनाई छोटी सी और उस पहलवान पर फेंक दी! पहलवान हवा में उड़ गया! वार बचा गया था वो! वो फिर नीचे कूदा ‘धम्म’ की आवाज़ के साथ! उसने मुझे अब क्रोध से झुक झुक के देखा! एक बात और अब मुझे उसकी दहकती हुई लाल आँखें दिखाई देने लगी थीं! मोटी मोटी सर्प जैसी आँखें!

“ओह! पहलवान! तू तो छलावा है!” मैंने कहा और नाद किया!

मैंने अपना त्रिशूल अपने बाएं हाथ में लिया और उसकी तरफ एक ऊँगली की, मैंने कहा, “ओ छलावे! मै तेरा अहित करने नहीं आया, मुझे बता क्या चाहता है?”

“चले जाओ यहाँ से” उसने ऐसे दांत भींच कर मुझे धमकाते हुए कहा!

“और ना जाऊं तो?” मैंने जवाब दिया!

“मार दूंगा” उसने गुस्से से कहा,

“अच्छा? तू मारेगा?” मैंने फिर से ऊँगली का इशारा करते हुए उस से कहा!


   
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श्रीशः उपदंडक
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छलावे का डर अपने ऊपर हावी ना होने देना ही उस से बचने का उपाय है!

“हाँ! मार दूंगा, ज़मीन में गाड़ दूंगा” उसने गुस्से से कहा!

“अच्छा! इतनी ताक़त है तुझमे?” मैंने जैसे उसका उपहास उड़ाया!

“मुझे नहीं जानता तू” उसने अपने मजबूत हाथ से मुझे घूँसा दिखाते हुए कहा!

“मै तेरे बस में आने वाला नहीं मूर्ख छलावे!” मैंने कहा!

“चला जा! बस चला जा!” उसने कहा और अब और आगे आया!

मारे गुस्से के जैसे फट पड़ने वाला ही हो किसी भी क्षण! मुझसे मात्र तीन फीट दूर था अब वो! वो मुझे नीचे गर्दन किये देख रहा था और मै उसको अपनी गर्दन ऊंचे किये हुए देख रहा था!

“कोशिश कर ले! करके देख ले!” मैंने फिर से उपहास उड़ाया उसका!

अब तो उस से रहा ना गया! उसने अपनी लात उठाई मुझे मारने के लिए और जैसे ही उसी लात मेरे आगे किये हुए त्रिशूल से लगी वो एक झटके के साथ कोई बीस फीट दूर तक वापिस उछल गया! अब मै हंसा जोर जोर से!

“बस पहलवान! निकल गई हेकड़ी?” मैंने कहा,

अब तो जैसे उबाल आ गया उसको! गुस्से में बिफर पड़ा! और देखते ही देखते एक विशाल भुजंग में बदल गया! ऐसा भुजंग जिसको देख के हाथ भी पछाड़ खा जाए! मैंने फ़ौरन अपने त्रिशूल को चाटा और सर्प-मोचिनी विद्या का जाप कर लिया! त्रिशूल गर्म हो गया! वो भुजंग आया तेजी से रेंगता हुआ मेरे पास, मुझ पर उछलकर कूदा, वो मुझे दबोचना चाहता था, मैंने त्रिशूल की गिरफ्त मजबूत की और!! और जैसे ही वो मुझ पर गिरा मै भी गिर गया नीचे! तभी मैंने अपना त्रिशूल उस से छुआ दिया! वो मुझे छोड़ एक बड़ा सा मेढ़ा बन के भागा और दूर अँधेरे में गायब हो गया! मै खड़ा हुआ! और फिर से तत्पर कर लिया अपने आप को!

अब मुझे उसके नए पैंतरे की प्रतीक्षा थी!

 

ह्रदय-गति बढती जा रही थी! क्षण-प्रतिक्षण किसी भी घटना घटने की आशंका पाँव पटक रही थी! मेरी नज़र साने अँधेरे में टिकी थीं, परन्तु दस मिनट तक कुछ नहीं हुआ और फिर अचानक से! अचानक से सामने से एक रीछ भागते हुए आया! बड़ा सा कद्दावर रीछ! मुंह फाड़े और लम्बे-लम्बे दांत दिखाते हुए! वो गुर्रा सा रहा था! मैंने फ़ौरन कि अपना त्रिशूल उसके सामने


   
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श्रीशः उपदंडक
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किया, वो मुझसे टकराया और फिर मेरा त्रिशूल मेरे हाथ से छिटक गया! उस रीछ ने गुराते हुए मुझे देखा, मैंने अपना त्रिशूल पकड़ने के लिए छलांग लगाई, त्रिशूल मेरे हाथ में आया, मैंने एक सिंहनाद करते हुए अपना त्रिशूल उसके जबड़े में खींच के मार दिया! भयानक शोर हुआ, मेरे दोनों हाथ झन्ना गए! रीछ पीछे हटा और खड़ा हो गया! फिर ज़मीन में फुफकार मारने लगा उसने अपने आगे वाले पाँव पीछे किये जैसे कि छलांग मारने के लिए तैयार हो रहा हो! मैंने त्रिशूल को दिक्ताक्ष-वाहिनी से पोषित कर लिया! दिक्ताक्ष-वाहिनी किसी यक्षिणी की सहोदरी से निपटने के लिए प्रयोग की जाती है! आज मै ये एक छलावे के लिए कर रहा था! उस रीछ ने छलांग लगाईं! मै वहाँ से हट गया, मेरा त्रिशूल उसकी कमर पर पड़ा! वो जोर से चिल्लाया और फिर भाग खड़ा हुआ!

मैंने अनवरत वैसे ही खड़ा रहा, तभी मुझे अपने कान के पास से रक्त बहता महसूस हुआ, मैंने हाथ लगाया वहाँ, कान के पीछे शायद उसका पंजा लगा था मुझे, मैंने एक कपडा फाड़ कर सर बाँध लिया!

शर्मा जी बेसब्र थे! वो बार बार मुझे पुकार रहे थे, लेकिन मै उनकी बातों पर ध्यान नहीं दे रहा था!

रात्रि के एक बज गया था और उस छलावे और मेरा मुकाबला चल रहा था! फिर कुछ देर शान्ति रही और फिर अचानक सामने से एक जल्लाद जैसा आदमी आया और वहाँ आके ठहर गया! उसके हाथ में बड़ी फाल वाला एक फरसा था! ऐसा फरसा जो एक भैंसे का सर एक बार में ही काट दे! और किसी इंसान से तो वो उठे भी नहीं! शहतीर जैसा उसका बेंटा! एक वार में ही इंसान के दो टुकड़े कर देने वाला फरसा! एक पल को तो मै भी सिहर गया!

वो जल्लाद आगे बढ़ा धीरे धीरे! मैंने त्रिशूल को दिक्ताक्ष-वाहिनी से पोषित कर रखा था अतः मै हिम्मत जुटा कर खड़ा हो गया! वो आगे बढ़ा और मै भी! फिर जैसे दो योध्हा आगे बढ़ते हैं वो मेरे सामने दौड़ा दौड़ा आया और मै भी उसकी तरफ बढ़ा! उसने फरसा उठाया जैसे मेरे सर के दो टुकड़े कर के रख देगा, लेकिन मैंने अपना त्रिशूल हवा में उठाया, उसने ज़ोरदार वार किया, वार मेरे त्रिशूल पर पड़ा! बिजली सी कौंधी! वो झटका खाके पीछे भूमि पर गिरा और फिर एक दम से खड़ा हो गया! उसके वार का निशान मेरे पीतल के त्रिशूल पर बन गया था, ये निशान उस त्रिशूल पर आज भी है!

अब छलावे को पता चल गया था कि आज उसके टक्कर का ही मनुष्य सामने खड़ा है! वो सामने खड़ा फूट-फूट कर रोने लगा! अब वो चाल चलने वाला था, ये मै जान गया था! मैंने उस से कहा, “हार मानता है पहलवान?”


   
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श्रीशः उपदंडक
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वो और जोर से रोया अब!

“रोता क्यूँ है पहलवान?” मैंने पूछा,

फिर वो एकदम से खिलखिलाकर हंसने लगा!

“वाह! क्या बात है! तेरे से लड़के मजा आ गया!” उसने कहा,

“अच्छा! तो कुश्ती अभी ख़तम नहीं हुई, आज मैदान में!” मैंने ललकारा उसको!

“आता हूँ, तुझे जिंदा नहीं जाने दूंगा आज!” उसने कहा!

“देखते हैं कौन जिंदा रहता है!” मैंने अपना त्रिशूल लहरा के कहा!

और फिर मेरे देखते ही देखते उसने अब बिजार का रूप ले लिया! नथुने फड़काते हुए धीरे धीरे अपने खुर ज़मीन पर घिसते हुए वो आगे बढ़ रहा था!

अब मैंने श्री चौरंगी नाथ का अक्षय-मंत्र पढ़ा और उसको अपनी जिव्हा पर पोषित किया और त्रिशूल के तीनों फालों को चाट लिया! बिजार आगे बढ़ा! दौड़ के आया मेरे सामने! मै हटा वहाँ से हटते हुए मेरा त्रिशूल उसके सींगों से टकराया और वो हवा में उठ गया रंभाता हुआ और धडाम से नीचे गिर पड़ा! काफी देर तक गिरे रहने के बाद वो खड़ा हुआ और पीछे की दोनों टांगों से लंगड़ाता हुआ पीछे भाग गया!

अब उसको चोट लग चुकी थी! श्री चौरंगी नाथ के अक्षय-मंत्र ने अचूक प्रहार किया था उस पर!

फिर कुछ देर शान्ति छाई रही! कोई हरक़त ना हुई वहाँ!

“क्या हुआ ओ पहलवान?” मै चिल्लाया!

कोई नहीं आया तब भी!

“घबरा गया?” मैंने हंस के कहा,

कुछ ना हुआ फिर भी!

“अब तक केवल तूने वार किये हैं, जब मै वार करूँगा तब बचाना अपने आपको पहलवान!” मैंने दम्भात्म्क रूप से कहा!

कोई नहीं आया फिर भी!


   
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श्रीशः उपदंडक
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“अरे जा कायर! जा कायर पहलवान!” मैंने अट्टहास लगा के कोसा उसको!

“अब हिम्मत है तो आगे बढ़!” मैंने फिर ललकारा उसे!

तभी मुझे भेडिये के गुर्राने की आवाज आई!

और फिर सामने से एक काला-भूरा, आँखों में उसकी जैसे दिए लगे थे, आगे बढ़ा! उसने मेरा चक्कर काटा! मै उस पर नज़रें टिकाये रहा! फिर अचानक से वो आया मेरी तरफ! मैंने अपने गले में धारण मानव-अस्थि से बनी एक माला को हाथ से पकड़ा और ‘ ख्रीम ख्रीम जूं जूं’ का नाद करते हुए अपने त्रिशूल को उस से भिड़ा दिया! जैसे ही वो टकराया, धडाम से दूर जा गिरा!

मैंने उसको रगड़ कर चलते हुए देखा! वो अँधेरे में पुनः गायब हो गया!

 

कोई छह या सात मिनट बीते होंगे, सामने से वो छलावा प्रकट हुआ, इस बार असली रूप में, गंजा, भीषण रूपधारी! पहलवान कद-काठी का! वो वहीँ खड़ा रहा! इस बार मै आगे बढ़ा और उस से कोई दस फीट पर जाके रुक गया! अब वो शांत था! कोई वार करने के हिसाब से तो नहीं लग रहा था कतई भी, एक बार को मेरे मन में आया कि उसने हार मान ली है, परन्तु मै आश्वस्त होना चाहता था, मैंने कहा, “क्या हुआ पहलवान?”

“मै हार गया” उसने कहा,

“सच में?” मैंने हैरत से पूछा,

“हाँ” उसने कहा,

“अच्छा? तो एक काम कर, मेरे सामने आ और अपने घुटनों पर बैठ जा!” मैंने कहा!

कोई भी छलावा ऐसा नहीं करता कभी, हार मानना उसको कभी पसंद नहीं!

वो आया और मेरी आशा के विपरीत अपने घुटनों पर बैठ गया! अब मै आश्वस्त हो चला था! मैंने फिर भी आयुष-मंत्र से स्वयं को पोषित किया और उसकी तरफ बढ़ा, वो यथावत बैठा रहा! मैंने उसकी एक परिक्रमा की और उसको सम्पूर्ण रूप से देखा! उसकी मूंछें रौबदार थीं जो कि उसकी कलमों से मिल गयी थीं!

“एक बात बता पहलवान?” मैंने पूछा,

“पूछो” उसने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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“तू यहाँ कब से है?” मैंने पूछा,

“बहुत सालों से” उसने हाथ उठाके बताया,

“अच्छा!” मैंने आश्चर्य से कहा,

“हाँ” उसने बताया,

“तू फिर यहाँ से चला क्यूँ नहीं जाता और कहीं?” मैंने पूछा,

“मै यहाँ क़ैद हूँ” उसने बताया,

“ओह! क़ैद हो तुम!” मैंने जैसे खेद से कहा,

“किसने क़ैद किया तुमको?” मैंने पूछा,

“चाहल बाबा ने” उसने बताया.

“चाहल बाबा?” मै सोच में पड़ गया अब!

चाहल बाबा का नाम मैंने सुना था, अपने ज़माने के माने हुए तांत्रिक और सिद्ध थे वो! आज से करीब सौ साल पहले की बात होगी ये! उनका एक स्थान आज भी आगरा में है! मैंने मन ही मन उनको नमन किया!

“अच्छा, पहलवान, तुझे उन्होंने क्यूँ क़ैद किया?” मैंने पूछा,

“मै यहाँ के तेरह गाँवों में राज करता था, मुझे पकडवा दिया गाँव वालों ने” उसने बताया,

“तू कुश्ती करता होगा उनके लोगों के साथ, है न?” मैंने मुस्कुरा के पूछा,

“हाँ, मैंने बड़े बड़े भीम लिटा दिए ज़मीन में” उसने बताया,

“तेरी गलती नहीं! तुम छलावों का यही काम है” मैंने कहा,

“लड़ना मुझे पसंद है” उसने बताया,

“अच्छा एक बात बता?” मैंने पूछा,

“पूछो” उसने गर्दन उठा के कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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“अगर मै तुझे यहाँ से आज़ाद कर दूँ तो, तू कहाँ जाएगा?” मैंने पूछा,

“मै कहीं नहीं जा सकता, मै यहीं रहूँगा” उसने बताया,

“यहाँ रहेगा तो तू मारेगा लोगों को” मैंने कहा,

“मेरी जगह पर आयेंगे तो मारूंगा पक्का” उसने कहा,

मै उसकी ये विवशता जानता था!

“अगर मै तुझे कहीं और बिठा दूँ तो?” मैंने कहा,

“नहीं, मै कहीं और नहीं जाऊँगा” उसने कहा,

“तो तू यहीं रहेगा?” मैंने पूछा,

“हाँ” उसने कहा,

उसके वहाँ रहने का भी मै कारण जानता था! ये मै आपको यहाँ नहीं बता सकता, ये फोरम के नियमों के विरुद्ध होगा बताना!

“तो मै क्या करूँ तेरा?’ मैंने पूछा उस से,

“मुझे यहीं रहने दो” उसने बताया,

“नहीं तू फिर मारेगा उनको” मैंने कहा,

“वो गंदगी करेंगे तो सब को मारूंगा” उसने बताया,

बात उसकी जायज़ थी ये!

“पहलवान, तुझे कितनी ज़मीन चाहिए?” मैंने उस से पूछा,

“मेरे अखाड़े भर की” उसने बताया,

उसके अनुसार कम से कम पांच सौ गज!

“अच्छा! उसके बाद तू मारेगा तो नहीं किसी को?” मैंने पूछा,

“गंदगी करेंगे तो अवश्य मारूंगा” उसने कहा,

मेरे पास उसकी इस दलील का जवाब नहीं था! कोई भूत-प्रेत, जिन्न आदि होता तो मै उसका अब तक तिया-पांचा कर चुका होता! लेकिन ये एक छलावा था! वो भी क़ैद! जहां भी जाएगा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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लडेगा-भिड़ेगा! आपनी फितरत से बाज नहीं आएगा! तो बेहतर है कि इसको यहीं रहने दिया जाए, इसकी ज़मीन की चारदीवारी करा दी जाए और इसको यहीं रहने दिया जाए! अब ये मालिक पर निर्भर करता था कि क्या किया जाए? उनकी राय जानना आवश्यक था!

 

“ठीक है पहलवान! मै तेरा कोई अहित नहीं चाहता! हाँ मै कल तेरे से बात करूँगा फिर, फिर तय करता हूँ मै, ठीक है?” मैंने पूछा,

“ठीक है” उसने कहा,

तब मैंने दिक्ताक्ष-मंत्र से पोषित त्रिशूल वहीँ भूमि में गाड़ दिया, इसका अर्थ, युद्ध समाप्त!

“ठीक है पहलवान, मै जान गया तेरे बारे में सबकुछ! अब जा तू, मै कल मिलूँगा तुझसे” मैंने कहा,

पहलवान खड़ा हुआ, फिर पीछे कदम बढाए और गायब हो गया! अब मैंने अपने सर पर बंधा कपडा खोला, वो रक्त-रंजित हो गया था, मैंने ज़ख्म को दूसरे कपडे से बाँध लिया, अब मै शर्मा जी के पास गया, वो काफी दूसरे खड़े थे, चूंकि कलुष-मंत्र से उनके नेत्र पोषित नहीं थे अतः वो केवल उसके परिवर्तित रूप ही देख सके थे, वो प्राण-रक्षा मंत्र में थे, अहित करने वाली प्रत्येक वस्तु उनको दिखाई दे रही थी!

खैर, मै वहाँ से चला, अपना त्रिशूल उठाया और शर्मा जी का घेरा तोड़ा! उनको बाहर निकाल, उन्होंने मेरे सर के ज़ख्म के बारे में पूछा, मैंने बताया की शायद पंजा लग गया है, अब सुबह ही देखेंगे, मै वहाँ से शर्मा जी के साथ चला, मुझे सकुशल देखा, अरविन्द, नरेन्द्र और उसके बड़े भाई चकित थे! अब मैंने उन तीनों से उस पहलवान की शर्त बताई! मैंने कहा, पहलवान यहाँ से नहीं जाएगा, फिर मैंने उनको इसका कारण भी बता दिया! वो परेशान तो हुए परन्तु उनके पास अन्य कोई विकल्प शेष न था! अतः उन्होंने हामी भर दी!

मै सुबह चिकित्सक के पास गया शर्मा जी के साथ, इंजेक्शन लिया और पट्टी भी करवा ली, ज़ख्म ज्यादा गहरा नहीं था, मात्र एक बड़ी सी खरोंच थी, उस दिन मैंने वहीँ आराम किया और फिर रात्रि समय दुबारा से बिना मन्त्रों की सहायता लिए बिना पहलवान को बुला लिया, पहलवान आ गया, मैंने उसको बता दिया, ये ज़मीन उसी की रहेगी! परन्तु कोई वहाँ आये नहीं इसीलिए उसके चारों ओर एक चारदीवारी बनाई जायेगी, और उस भूमि पर बागवानी की जायेगी, रात्रि नौ बजे से सूर्योदय तक किसी का प्रवेश नहीं होगा वहाँ! उसने ये मंजूर कर लिया! बात तय हो गयी! सुलह कामयाब हो गयी!


   
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श्रीशः उपदंडक
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वहाँ चारदीवारी का काम अगले दिन से ही आरम्भ हो गया! मै दिल्ली वापिस आ गया उसी दिन!

मित्रगण! आज वहाँ वो चारदीवारी है, वहाँ बागवानी होती है, कुछ सब्जियां भी उगाई जा रही हैं, सारी सावधानियां बरती जा रही हैं! भवन निर्माण पूरा हो चुका है! पहलवान वहीँ मौजूद है! आज भी!

ठेकेदार ने हमारा बहुत बहुत धन्यवाद किया! और अरविन्द और उसके बड़े भाई ने भी! मैंने उनको बता दिया, भविष्य में भी समस्त सावधानी बरती जाएँ! वो इसके लिए सहमत है!

मै यदाकदा जब भी वहाँ से गुजरता हूँ तो एक नज़र भर के देख लेता हूँ उस पहलवान की ज़मीन! जो हक जमाये बैठा है वहाँ!

उस दिन के बाद से मेरी मुलाक़ात उस पहलवान से नहीं हुई!

-------------- साधुवाद!------------------

 


   
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(@rupeshthakurbhilai)
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छलावा। ये शब्द एक मित्र से सुना था, पहलवानी का शौक है इसे यह भी जानता था,पर इतना शक्तिशाली है ये योनि आज संस्मरण पढ़ने पर ही ज्ञात हुआ। जय गुरूदेव।🙏


   
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