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वर्ष २०११ हस्तिनापुर की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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एक बार की बात है मित्रो! मैं लखनऊ से वापिस आया ही था कि एक चौंका देने वाली खबर मिली मुझे, मेरे एक जानकार विजय ने बताया कि उन्होंने अपने मामा जी के खेत में एक पांच पान वाला सांप देखा था! और वो सांप किसी को भी कहीं भी उसी खेत में दिखाई पड़ जाता था! मैं इस खबर में रोमांचित हो गया! मैंने शर्मा जी को बुला लिया और उनको भी इस बारे में बताया! उनको भी बड़ा अचरज हुआ! ये बात मुझे विजय ने फोन पर बताई थी, विजय देहरादून में एक निजी कंपनी में अभियंता थे, और जिस खेत का वितरण उन्होंने दिया था वो हस्तिनापुर का था! 

मैंने विजय से पूछा कि ये दिल्ली कब आ रहे हैं तो उन्होंने बताया कि अगले महीने में आ जायेंगे वो और फिर दिल्ली में आ कर 

तो मुझसे मिलेंगे! अगले महीने की जिस तारीख को उन्होंने आना था तो अभी दस दिन दूर थी! 

मन में व्याग्रता और व्याकुलता बढ़ते जा रही थी! मैं भी ऐसे विरले सांप को देखना चाहता था, शर्मा जी का भी यही हाल था! किसी तरह से एक एक दिन काट रहे थे! 

और फिरयो दिन भी आ गया जब विजय मेरे स्थान पर आये! नमस्कार आदि हुई! चाय-पानी हुआ और फिर उसके बाद मैंने उसी सांप का जिक्र कर दिया! मैंने पूछा, "विजय साहब, आपने मुझे उस विरले पांच फन ताले सांप के बारे में जबसे बताया है, मेरे और शर्मा जी के मन में व्याकुलता ने घर कर लिया है। कब देखा आपने वो सांप?" 

"गुरुजी, मैं दो महीने पहले अपनी गागा जी के यहाँ गया था, हस्तिनापुर, वहाँ से ही मुझे पता चला उस सांप के बारे में, मुझे 

भी यकीन नहीं आया पहले तो, लेकिन जब मामा जी ने वो सांप मुझे दिखाया तो मेरे भी रोंगटे खड़े हो गए!" विजय ने बताया, 

"वाह! ज़रा मुझे उसके रूप-रंग के बारे में बताएं" मैंने व्याकुलता से कहा! 

"गुरुजी, उसकी लम्बाई कम से कम आठ फीट तो होगी ही, और मोटाई भी काफी होगी, मेरे दोनों हाथों में नहीं आएगा वो!" निजय ने अपने हाथों से एक येश बनाकर दिखाया! 

"बहुत बढ़िया! और उसका रंग!" मैंने पूछा, 

"जी रंग पूरा काला तो नहीं है, लेकिन है वो काला नाग ही!" विजय ने कहा, 

"अछा! और उसके फल के वलय? तो कैसे हैं!" मैंने उत्सुकता से पूछा! 

"पाँचों फन में वलय हैं उसके, बड़े बड़े वलय!" उसने ऊँगली से हवा में ही एक वलय बना के दिखाया! 

"वाह! और वो रहता कहाँ है? कुछ पता है क्या?" मैंने पूछा, 

"नहीं गुरु जी, ये तो नहीं पता, हाँ मामा जी को पता होगा, तो उसको देवता कहते हैं, उसका आदर-सम्मान करते हैं, किसी 

को भी नहीं बताते उसके बारे में!" उसने बताया! 


   
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श्रीशः उपदंडक
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"बहुत बढ़िया बात है! ये बहुत अच्छी बात है आपके मामा जी की!" मैंने कहा, 

"और तो और गुरुजी, मामा जी तो जब उसके लिए दूध रखते हैं हंडिया भर करतो वो उनको भी अपने पास आने देता है!!" विजय ने बताया! 

"पास आने देता है! वाह!" मैंने कहा! 

"हाँ गुरु जी" उसने कहा, 

"विजय, अब तो हमारे मन भी उसके दर्शन करने की इच्छा प्रबल हो गयी है! बताइये कब ले चल रहे हो हमे?" मैंले व्याकुलता से पूछा, 

"गुरु जी, अभी मैं दिल्ली में दो दिनों तक हूँ, उसके बाद जाऊँगा, तो मैं एक काम करता हूँ, आपके पास आ जाता हूँ उस दिन, फिर यहीं से निकल पड़ेंगे, या आप सुझाइये" उसने कहा, 

"यही ठीक रहेगा, आप तब तक आप अपना काम निपटा लो, मैं भी कुछ तैयारी कर लेता हूँ!" मैंने कहा, 

उसके बाद विजय उठा और नमस्कार करके चला गया! और हमारे मन में पलती व्याकुलता अब हद पार करने लगी! 

"गुरुजी पांच फन वाला सांप! वाह! कभी किसी जे न देखा होगा, केवल सुना ही होगा!" शर्मा जी ने कहा, 

"हाँ शर्मा जी! पांच फन और आठ फीट लम्बाई!" मैंने भी विस्मयता से कहा! 

"तो क्या वो कोई देवता हो सकता है क्या?" उन्होंने पूछा, 

"पता नहीं शर्मा जी, ये तो देशाने से ही पता चलेगा" मैंने बताया, 

"ठीक है, उस दुर्लभ सांप के दर्शन ही काफी हैं गुरु जी!" तो बोले, 

"हां, सही कहा आपने!" मैंने भी समर्थन किया! 

फिर दो दिन भी व्याकुलता में बिताये! और फिर अगले दिन विजय आ गया, उसने फोन कर दिया था तो हम पहले से ही तैयार 

हो गए थे! सो हम तभी निकल पड़े! 

हम शाम चार बजे तक हस्तिनापुर पहुँच गए, अब विजय के मामा जी के गाँव जाना था यहाँ से, सो वहीं चल पड़े, विजय ने रास्ते में अपने मामा जी से फोन पर बातें की और फिर सामान भी खरीद लिया! 

पांच बजे गांव पहुंचे! गाँव में अच्छा स्वागत हुआ हमारा! विजय के मामा फौज से रिटायर हुए थे! कुल मिला के मुझ थी उनके घर में! २ बेटे और र बेटियों के पिताथे वो! जब हम फारिग हुए तो विजय ने अपने मामा जी को हमारे बारे में बताया कि हम वहाँ किस उद्देश्य से आये हैं, उसके मामा जी ने कहा कि उसको आप कल देख सकते हैं, तो सुबह सुबह उसके लिए दूध रखते हैं, तभी चला जाए तो बेहतर हैं, हमने भी हाँ कर दी! 

हम सुबह सो कर उठे, नहाए धोये, करीब साढ़े पांच बजे करीब खेतों की तरफ चले, खेत में पहुंचे, उसी शोत में, जहां गो सांप आता था! वहाँ एक हंडिया भी राखी थी, इसमें पिछले दिन दूध आया था! विजय के मामा जे खाली हंडिया उठायीं और दूध से भरी हंडिया वहाँ रख दी.


   
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श्रीशः उपदंडक
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फिर हमको एक झाड़ी के पीछे खड़े होने को कह दिया! और स्वयं वहीं खड़े रहे! हम झाडी के पीछे 

खड़े हो गए! 

सांप किसी भी पल वहाँ आ सकता था. अत: बेसब्री ने हालत खराब कर टी! पसीने आ गए हाथों में! तशी!! एक बड़ा सांप, पांच फन-धारी तहाँ आ गया! मेरी और शर्मा जी ती आँखें फटी की फटी रह गयीं! तो सांप काफी बड़ा था, आठ फीट से भी अधिक लम्बा! मोटा और पीली पीली बड़ी बड़ी आँखें! दस आँखें! पांच फन! सभी फज एक समान थे, सभी में दो-मुंडी जीभ थी! एक अलौकिक-दृश्य! साक्षात! मैंने और शर्मा जी ने एक दूसरे को अचरजसे देखा! विजय के मामा वहीं खड़े थे, सांप ने हंडिया में एक मुंह लगाया और दूध पीने लगा! लगातार पीता रहा दूध! अब मुझे ये जानना था कि ये सांप हैं क्या? कोई देवता? 

या साधारण संकर-अवगुणधारी अथवा इच्छाधारी! मैंने वहीं से एक मिट्टी का ढेला उठाया, और सर्प-मोहिनी विद्या से अभिमंत्रित किया और फिर भूमि पर गिर दिया! दूध पीते सांप ने हंडिया में से सर बाहर निकाल और झाडी, जहां हम खड़े थे. की तरफ एक फुफकार मारी! एक संदेह समाप्त हुआ! ये साधारण संकर-अवगुणधारी नहीं है! अब दो विकल्प शेष थे, देवता अथवा इच्छाधारी 

सांप ने दूध पी लिया था, इसीलिए वो अब पलटा वापिस और जाने लगा, मैं झाडी से बाहर निकल कर आया, उस सांप के पीछे गया, विजय और विजय के मामा भी हमारे साथ चल पड़े! सांप आगे आगे चल रहा था और हम उसके पीछे पीछे! वजय के मामा को थोडा एतराज सा हुआ, तो मैंने ये कह के समझा दिया कि इसका घर देख लेते हैं, पिर नहीं रख दिया करना दूध! 

सांप काफी दूर चला गया था, और हम भी, फिर एक तालाब आया, सांप ने पीछे पलट के देखा, और फिर तालाब में घुस गया! हम भी दौड़े दौड़े वहाँ आये! सांप तालाब में तैर रहा था, मैंने सोवा शायद तो उसको पार करके आगे जाएगा, लेकिन सांप ने तालाब के बीच में जाकर अपने सर पानी में डुबो लिए! फिर उसके बाद वो ऊपर नहीं निकला! हमने करीब आधा घंटा इंतज़ार किया लेकिन सांप का कोई नामोनिशान नहीं! 

ये बहुत विचित्र बात थी! 

हम वहाँ से तापिस हो गए थे ये सांप अवश्य ही रहस्यपूर्ण था! इसका रहस्य उजागर करना ही था! मैंने शर्मा जी से कहा, "शर्मा जी, अवश्य ही ये साप या तो दैविक हैं अथवा कोई इच्छाधारी!" मैंने कहा, 

"इकाधारी?" उनको सुन के अवश्ज हुआ! 

"हाँ! मुझे संदेह है!" मैंने बताया! 

"कैसा संदेह?" उन्होंने पूछा, 

"शर्मा जी, इस पृथ्वी पर ऐसा कोई भू-पाणी नहीं है जो इतनी देर अपना सांस रोक सके!" मैंने बताया 

"हाँ! वो पानी में घुसा और गायब हो गया!" वे बोले! 


   
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श्रीशः उपदंडक
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उस रात बस हम उस सांप की बातें ही करते रहे! उसके पांच फन और उसकी दस जीरों और आँखें! एक दम निराला था सब कुछ! और फिर वो पानी में जाके गायब हो गया था! शर्मा जी ने मुझसे पूछा, "गुरु जी, ये कैसे पता चलता है कि कोई सांप इच्छाधारी है या नहीं?" 

"देवने से कभी पता नहीं चल सकता शर्मा जी" मैंने बताया, 

"तो फिर कैंसे जांचते हैं?" उन्होंने पूछा, 

"सबसे सरल तो ये है कि इच्छाधारी स्वयं ही ये प्रकट करे तो जाना जा सकता है, और अगर नहीं प्रकट करता तो विद्या प्रयोग 

से ये जाना जा सकता है!" मैंने बताया, 

"अच्छा! समझ गया मैं!" वो बोले, 

"लेकिन इच्छाधारी यदि शाड़क जाए तो कहर टूट सकता हैं शर्मा जी!" मैंने चेताया! 

"ओह! ऐसा भी हैं?" वो बोले, 

"हाँ! एक सहस्त्र वर्ष बिना भोजन के और अपने विष को संचित करता है जो फनधारी ऐसी तपस्या करता हैं तो इच्छाधारी 

रूप-परिवर्तन योग प्राप्त कर लेता है। इस तपस्या में उसमे देवत्व-गुण का समावेश हो जाता है। ऐसी ही शक्तियों से परिपूर्ण हो जाता है और इच्छाधारी बन जाता है!" 

"ओह! ये है परिभाषा इच्छाधारी की!" उन्हें भी हैरानी हुई! 

"हाँ शर्मा जी!" मैंने कहा, 

"लेकिन मैंने सुना है तांभिक ऐसे इच्छाधारी सांप को पकड़ने के इकुक होते हैं, क्या ऐसा सही है।" उन्होंने पूछा, 

"हाँ सही है। ताकि इसकी शक्तियां उस तांत्रिक के पास आ जाएँ या वो स्वेच्छा से उस से कोई भी कार्य करा सके!" मैंने 

बताया, 

"ओह! कितना अभद्र विचार है ये" उन्होंने कहा, 

"हाँ, ये है। और इसीलिए ये इच्छाधारी तांत्रिकों से दूर रहता हैं, उनको पसंद नहीं करते! अधिक तंग करने पर भयानक दंड दे देते हैं तांत्रिकों को!" मैंने बताया, 

"गुरुजी, हम पकड़ने तो नहीं आये न उसको, हम तो देखने आये हैं बस, हमें उस से और उसको हमसे कोई खतरा नहीं!" वे 

बोले. 

"हाँ! मैं कोई अहित नहीं चाहूँगा, चाहे अपना, था उसका, वो जो कोई भी है!" मैंने कहा, 

"ठीक कहा आपले" वे बोले. 

"अब मैं कल ये जांचूंगा, कि ये है कौन'" मैंने बताया, 

"ठीक है, मुझे भी जिज्ञासा है बहुत!!" उन्होंने कहा, 

"कल देखते हैं शर्मा जी, देखते हैं कल क्या होता है!" मैंने बताया, 

"ठीक!" वे बोले. 


   
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श्रीशः उपदंडक
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उसके बाद हमने खान खाया, मैं एक अलग जगह जाना चाहता था, कुछ मंत्र जागृत करने थे, अतः मैं शर्मा जी को लेके बाहर चला गया, घर से बाहर, खेतों की तरफ, वहीं जहां सांप दुध पी रहा था, लगातार सुबह और शाम! 

मैंने वहाँ जाके मंत्र जागृत कर लिए! मैंने दिवशूल-मंत्र जागृत किया! योगाक्ष-मंत्र जागृत किया! वृहदांग-मंत्र जागृत किया! 

अब मैंने वहाँ से उस तालाब तक जाने का निर्णय किया! मैं तालाब का मुआयना भी करना चाहता था, जहां वो सांप गया था! हम टहलते टहलते वहाँ तक पहुंच गए! तालाब में बगुले और दूसरे जल-पक्षी आदि अपने अपने कार्यों में लगे थे। कुछ जाल में कुलांचे मार रहे थे और कुछ छोटी-छोटी मछलियों का शिकार कर रहे थे। 

मैं तालाब के एक दम पास आया! थोडा पानी लिया हाथों में और फिर योगाक्ष-मंत्र का जाप किया! नेत्र बंद किये और फिर जेन खोले! पानी रक्त बन गया था! अर्थात ये मेरे लिए एक मनाही थी! एक चेतावनी! लेकिन प्रश्न ये था कि मुझे ये चेतावनी दे कौन रहा है? कौन? दैविक-सर्प या इच्छाधारी-सर्प? 

मैंने पानी नीचे गिरा दिया! मैंने फिर से दूसरे हाथ में पानी लिया! और दिक्शूल-मंत्र का जाप किया! जेत्र बंद किये और खोले। पानी यथावत रहा! अर्थात वहाँ कोई और नहीं हैं, कोई और पश-शक्ति वहाँ नहीं थी! केवल ये सर्प ही था!! 

मैं वहाँ से वापिस आया! लेकिन उस सांप का खेत तक का रास्ता कीलित करके आया था! अब मुझे ये देखना था कि मेरा कीलन किस विधि से काटा जाता है! मैंने मध्य-मुखी कीलन किया था, अर्थात बुरा न वाहने ताला कीलन! अब सांप रात के समय आएगा! संध्या के बाद! 

उस संध्या-समय के बाद मैं नहीं गया उसको देखजे, केवल विजय के मामा जी ही गए थे, दूध की हंडिया रखने के लिए, अब वो हंडियासुबह ही आ सकती थी, और मुझे वहीं जा कर देखना था ये! 

रात को खाना आदि खा कर हम सो गए, सुबह की प्रतीक्षा में! 

सुबह हुई, हम नित्य कर्मों से फारिंग हए और खेतों की तरफ चले गए। खेत में पहते, वहाँ से खाली हंडिया उन्होंने उठायी और भरी हंडिया वहाँ रख दी! सांप ने मेरा कीलन काट दिया था! और जिस विधि से कलन काटा गया था, उस से एक बात और तय हो गयी, एक और संदेह दूर हो गया! वो दैविक-सर्प नहीं था! अवश्य ही इच्छाधारी सर्प था! 

अब मैं उस सांप को देखना चाहता था! थोड़ी देर में तो सांप आ गया वहाँ! तो आया और कुछ दूर जाके रुक गया! तो हंडिया तक नहीं आया था! उसने तीन चार बार फुफकार मारी और अपना फन और चौड़ा कर लिया! कम से कम २५-२६ इंच व्यास रहा होगा उसका! वो करीब ४० फीट दर खड़ा था मुझसे लेकिन उसके फुफकार की आवाज़ इतनी तेज थी कि साफ़ सुनाई दे रही थी! 

विजय के मामा जी उसको हाथ जोड़े खड़े थे, मैं उनके पीछे खड़ा था! लेकिन आप नहीं आ रहा था आगे! तब मैंने पीछे हटना 


   
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श्रीशः उपदंडक
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शुरू किया, जब मैं काफी दूर एक दूसरे खेत में चला गया तो सांप तहाँ आया और बार बार मुझे दूर से देखते हुए दूध पीता रहा! दूध पीने के बाद सांप अबकी बार वहाँ से गया नहीं बल्कि धरि धरि आगे बढ़ा! उसने विजय के मामा को पार किया और मेरी तरफ बढ़ा! सभी वहाँ चकित हो गए और मैं भी मैंने तत्काल ही प्राण-रक्षा मंत्र का जाप कर अपना रक्षाण कर लिया! सांप ने तो खेत छोड़ा और जिस खेत में मैं था तहाँ प्रवेश किया! मैं भी ठिठक कर वहीं खड़ा हुआ था! घबराहट सी होने लगी थी मुझे! 

सांप आगे बढ़ा! और मैं वहीं डटा रहा! सांप ने फुफकार मारी खेत की मिट्टी में! धूल उडी! मैं वहाँ से नहीं हटा! अब सांप और पास आया! मेरे और पास! करीब ४ फीट दूर आके रुक गया! 

अब मैं उसको सामजे देस्त रहा था! साक्षात काल का रूप! उसके सभी नेत्र बड़े बड़े पीले पीले थे! जीभ लगातार लपलपा रहा था! अब मैले तामस-विद्या जागत की! उसके जागृत होते ही वो पीछे हटा और वहीं रुक गया लेकिन गया नहीं! 

सांप अब पीछे हटा और हटता चला गया. वापिस वहीं गया और फिर अपने रास्ते हो लिया, अब मैं उसके पीछे गया! विजय के मामा हतप्रभ थे! उनको समझ ही नहीं आ रहा था कि ये सब अचानक से हआ था! 

मैंने शर्मा जी से कहा, "सुनो, उस पर अंत तक नज़र बना के रखना" 

"अवश्य गुरुजी" उन्होंने कहा, और फिर हम दोनों उस सांप के पीछे चल पड़े! सांप बहुत तेज चल रहा था, हमे भागना सा पड़ 

रहा था! 

सांप तालाब तक पहुँच और फिर वहाँ रुक गया! उसने पीछे मुड़ के देखा, हम भी वहीं रुक गए! 

वो हम दोनों को देख रहा था और हम उसको! 

उसने एक और ज़ोरदार फुफकार मारी, जैसे धमकी दी हो! 

अब मैं आगे बढ़ा! शर्मा जी को भी साथ ले लिया! मैंने उसने कहा, "ये जानते हो क्यूँ नहीं जा रहा अन्दर?" 

"नहीं गुरु जी, मैं नहीं जानता" वो बोले. 

"न येचुनौती है, न ही शक्ति-परीक्षण और न ही चेतावनी" मैंने कहा, 

"तो फिर?" उन्होंने पूछा, 

"डर! ये डर हैं तामस-विद्या का!" मैंने बताया! 

"अच्छा गुरु जी!" 

"इसीलिए मुझे भी डरा रहा है ये!" मैंने कहा, 

"और आप इसे डरा रहे हो" उन्होंने कहा, 

"नहीं, डरा कोई किसी को नहीं रहा, बस आंकलन हो रहा है!" मैंने बताया 

साप हमें और हम सांप को देखे जा रहे थे! एक दूसरे को तोल रहे हों जैसे! अब सांप ने फिर से एक ज़ोरदार फुफकार मारी! उसका क्रोध साफ झलक रहा था! ऐसे ही हमें करीब पन्द्रह-बीस मिनट गुजर चुके थे! लेकिन पीछे भी कोई नहीं हट रहा था 


   
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श्रीशः उपदंडक
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और आगे भी कोई नहीं बढ़ रहा था!! 

थोडा समय और बीता फिर साप तालाब में बढ़ता चला गया, तैरने लगा और फिर तालाब के मध्य जाकर फिर से गायब हो गया! एक बात और विस्मय कर देने वाली थी, उसके जाते समय जल-पक्षी आदि भयभीत नहीं होते थे! कमाल की बात थी यह! 

हम फिर से वापिस आ गए! और कोई विकल्प नहीं था! अब मुझे अपनी एक विशेष विद्या जागृत करनी थी, इसे 'इच्छाधारी कीर्णन' कहा जाता है, इस विद्या में उपयोग होने वाली सामग्री को जंगल से ही प्राप्त किया जाता है, जैसे, विरचिटा पौधे की जड़, देसी कीकर की गीली छाल, झडबुटी के पीले फूल, कजेर के बीज, आश्व पौधे की जड़, काठगूलर के पेड़ का दूध आदि आदि, उसके बाद इस विद्या को जागृत करएक अंजन तैयार किया जाता है, अंजन आँखों में लगाने के बाद यदि कोई इच्छाधारी सांप सामने हो तो आप उसको उसके वास्तविक रूप में दर्शन कर सकते हो! और फिर संभव हुआ तो गूक वार्तालाप भी, आप अपने प्रश्न अपने मस्तिष्क में बोलते हैं और आपको उनके उतर अपने कानों में सुनाई दे जाते हैं! 

दश-महाविद्या में से एक इस 'इच्छाधारी-रशिर्णन" की अधिष्ठाता हैं! हम अघोरी लोग इस विद्या को अवश्य ही सिद्ध करते हैं, ये परम आवश्यक है! महा-प्रेत, डाकिनी, छलावा आदि सांप का ही रूप धारण करते हैं! उनको पहचानने के लिए ये विद्या अवश्य ही सिद्ध की जाती है! 

सो अब हम जंगल के क्षेत्र में गए. विजय हमारे ही साथ था, मैंने जंगल से सारी जड़ी-बूटियाँ एकत्रित कर ली, बहुत बड़ा क्षेत्र खंगालना पड़ा मुझे! करीब ढाई घंटा लग गया था! 

अब हम वहाँ से वापिस हए सस्ते में एक जगह रुक कर मैंने मदिरापान किया, ये आवश्यक होता है, अपनी शक्तियों का आह्वान करने के लिए! 

हम वापिस घर पहुंचे तो मैंने एक खाली स्थान पर बैठ कर इन एकत्रित की हुई औषधियों को धोया, साफ़ किया, एक ताम पात्र लिए और फिर अंजन बनाने की क्रिया में लग गया! कम से कम ६घंटे के बाद उसको इकट्ठा करके और फिर से एक घंटे की क्रिया करके उसको अभिमंत्रित करना था, तभी इक्छाधारी-कीर्णन विद्या काम करती है! मित्रगण! आपने ज़हर-मोहरा पत्थर अवश्य ही सुना होगा, ये कैसा भी विष हो, सांप का, किसी भी विषैले सांप का, बिच्छू का, गुहेरे के काटने का, चन्दन गोह के काटने का, बरें का, ततैय्ये का, सभी का विष नाश करता है, काटे स्थान पर इस पत्थर को रखा जाता है और फिर ये 

पत्थर वहाँ विपक जाता है, तब तक, जब तक सारा विष शरीर से समाप्त न हो जाए! अब ये जो पत्थर है, ज़हर-मोहरा, ये कहीं नहीं पाया जाता, तरन ऐसी ही चौहत्तर प्रकार की जड़ी-बूटी के मिश्रण से उनका अर्क निकाल कर, उस अर्क को छह महीने एक मिटटी के करचे घड़े में डाल कर, भूमि में दबा दिया जाता है, छह महीनों के बाद ये अर्क एक पत्थर का सा रूप ले लेता है, यही है जहर-मोहरा! 

छह घंटे बीते तो मैंने अंजन इकट्ठा कर लिया! अब एक कमरे में जाकर, इसको अभिमंत्रित करने के लिए पूजन आरम्भ किया, करीब एक घंटे के बाद मैंने अभिमन्नण समाप्त कर लिए. अब मैंने ये


   
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श्रीशः उपदंडक
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अंजन एक डिब्बी में भार के रखा लिया! मैं उठा, स्नान किया और फिर से कीर्णन-क्रिया में बैठ गया! ३घंटे बैठे रहने के पश्चात अब मैंने क्रिया पूर्ण कर ली थी! अब मैं उस सांप का 

वास्तविक रूप देख सकता था! 

मैंले अब डिब्बी अपनी जेब में रखी, कमरे से बाहर आया तो खाना तैयार था, विजय के मामा जी भी वहीं बैठे थे, और विजय भी, विजय के मामा ने कहा, "गुरु जी, कहीं कोई संकट हम पर तो नहीं आएगा ना?" 

"कैसा संकट?" मैंने पूछा, 

"कहीं कोई हारी-बीमारी या नुकसान ना हो जाए" उन्होंने आशंका जताई, 

"नहीं कोई नुक्सान नहीं होगा आपका, ना कोई हारी-बीमारी, निश्चिन्त रहें आप" मैंने बताया, 

"हमारे लिए तो देवता ही हैं जी तो" उन्होंने कहा, 

मैं उनको कोई सच्चाई नहीं बताना चाहता था, अतः मैंने कहा, "हाँ जी, सही कहा आपने, आप बस सेवा करते रहो उनकी नि:स्वार्थ" 

"जी गुरु जी" उन्होंने कहा, 

राभि-समय उन्होंने दध रखना था, अतः मैं उसी रात ये अंजन भी प्रयोग करना चाहता था, मैंने ये बात कि मैं भी सोत में जाऊँगा, विजय के मामा से कह दी, उन्हें कोई आपत्ति नहीं थी, और अब मैं भी ये खेल ख़तम करना चाहता था! इसीलिए मैं उनके साथ खेत पर चला गया, शर्मा जी और विजय भी साथ ही थे, ये बौदस का दिन था, अगले दिन पूर्णिमा थी! 

हम खेत में खड़े हो गए! 

लेकिन, आधा घंटा बीता, फिर एक, फिर दो! सांप नहीं आया! मैं भी चकित रह गया! आखिर सांप क्यूँ नहीं आया? विजय के मामा के चेहरे पर मायूसी छा गयी, मैंने र उनको समझाया और शर्मा जी के साथ उस तालाब की तरफ चल दिया! शर्मा जी ने पूछा, "गुरु जी, आज साप क्यूँ नहीं आया" 

"मुझे भी नहीं पता, तालाब पर चलके देखते हैं" मैंने कहा, 

"क्या लगता है, मिल जाएगा?" उन्होंने पूछा, 

"पता नहीं, कुछ नहीं कह सकता अभी" मैंने बताया, 

फिर हम तालाब के पास आ गए, वहाँ कुछ भी नहीं था, मैंने तब कलुष-मंत्र का जाप कर उसको जागृत किया और अपने वें 

शर्मा जी के नेत्र पोषित किये, फिर नेत्र खोले! सामने का दृश्य स्पष्ट हो गया! 

आज वहाँ कोई सर्प नहीं था वैसा, केवल छोटे मोटे दूसरे सांप ही वहीं दिखाई दिए! मैंने मंत्र वापिस किया और वहाँ से वापिस आ गाए! विजय के गागा और विजय वहाँ से दूध की हंडिया रख के चले गए थे, लेकिन मैं और शर्मा जी वहीं डटे रहे! करीब र 

घंटे, लेकिन सांप नहीं आया उस रात दूध पीने! फिर हम वापिस आ गए! 

विजय के मामा काफी चिंतित थे, मुझे बोले, "गुरु जी, आज क्यूँ नहीं आये वो?" 

"मुझे पता नहीं साहब" मैंने बताया, 


   
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श्रीशः उपदंडक
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"मुझे भय सा लग रहा हैं" वो बोले, 

"कैसा भया" मैंने पूछा, 

"उनका भय, कहीं क्रोधित तो नहीं हो गए?" तो बोले, 

"नहीं साहब, ऐसा नहीं है" मैंने बताया, 

"तो आप गुरु जी मजा लीजिये उन्हें" उन्होंने कहा, 

"तिता नहीं करो, तो अवश्य ही आयेंगे" मैंने कहा, 

फिर हमने थोड़ी देर और बातें की और सोने चले गए। 

सुबह जल्दी आँख खुल गयी, नित्य-कर्मों से निवृत होकर मैंने शर्मा जी को कहा, "शर्मा जी, चलिए, तालाब पर चलते हैं। 

"चलिए गुरुजी" उन्होंने कहा और उठ गए, 

हम निकल पड़े, 

"आज आप उसको यहीं रोकेंगे क्या?" उन्होंने पूछा, 

"नहीं, उसकी स्थिति जाननी है मुझे" मैंने कहा, 

"स्थिति! मैं समझा नहीं कुछ गुरु जी!" उन्होंने कहा, 

"बताता हूँ, सुनिए, हमने उसको जाते तो देखा है, लेकिन आते नहीं समझे आप?" मैंने कहा, 

"अच्छा! आपने ये जानना है, हाँ अब समझा" तो बोले, 

फिर हम तालाब पहुँच गए! सब कुछ शांत था वहाँ! 

"शर्मा जी, सामने नज़र बनाए रखिये आप" मैंने कहा, 

"ठीक हैं" तो बोले और नहीं बैठ गाए, 

अब मैंने भी गौर करना शुरू किया! लेकिन अभी तक कोई हरकत नहीं हुई थी वहाँ! 

मैंने एक बार फिर से पानी का मुआयना किया, एक अंजुल जल हाथों में भरा और योगाक्ष-मंत्र का जाप किया, मंत्र जागृत होते ही मैंने पानी को देखा,पानी स्वच्छ ही था, अर्थात वहाँ साप है ही नहीं! तो अब वो सांप कहाँ चला गया था? बड़ी अजीब सी बात थे ये! मैंने दुबारा पानी उठाया, फिर से अभिमंत्रित किया और भमि पर गिरा दिया, जाल यथावत ही रहा! अब ये निश्चित हो गया कियोसांप अब यहाँ नहीं हैं! 

तो अब प्रश्न ये उठता था कि वो सांप गया कहाँ? मैंने शर्मा जी को वहाँ से उठा लिया और सारी बातों से अवगत करा दिया, ये बोले, " गुरु जी तो आखिर गया कहाँ?" 

"अभी पता करता हूँ मैं शर्मा जी!" मैंने कहा, 

"मैंने अपनी आँखें मूंदी और एक देख-अमल शुरू किया! जेत्र खोले और तालाब को देखा, तालाब में पानी के सांप दिखाई दे रहे थे,लेकिन और कुछ नहीं, हाँ तालाब के टूसरी तरफ मुझे कुछ चुली सी दिखने का आभास हुआ, मैंने शर्मा जी को अपने साथ लिया और उस तालाब के दूसरे किनारे की तरफ चला, तालाब बड़ा था, आसपास झाड-झंखाड़ भरे पड़े थे, लेकिन करीब २० मिनट में हम वहाँ पहुँच गए, मैंने नीचे देखा तो एक लम्बे से सांप की केंचुली दिखाई दी, लेकिन ये उस सांप कि नहीं थी, निराशा हुई! 


   
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"शर्मा जी, लगता हैं सांप कहीं निकल गया है, और कहीं, अब यहाँ नहीं हैं" मैंने बताया, 

"ओह! अब? अब गया करेंगे?" वो बोले, 

"अब देखते हैं क्या किया जा सकता है!" मैंने कहा, 

निराश मन से हम वापिस वहीं चलने लगे, खेत में, खेत में आये तो ऐसी खबर मिली के होश उड़ गाए! खेत में सांप आया था 

और दूध शी पिया था! लेकिन वापिस उस रास्ते नहीं गया था! 

मैंने विजय के मामा से पूछा, " कब आया था? कहाँ गया?" मैंने हैरत से पूछा, 

"वो वहाँ से आया था इस बार उन्होंने इशारा करके बताया, 

जहां उन्होंने इशारा किया था. वहाँ पेड़खड़े थे, और वहाँ फसल भी लगी थी! 

लगता था कि सांप ने अपना स्थान बदल लिया है अब! अब मैंने फिर से शर्मा जी को लिया और उसी जगह चल पड़ा जो विजय के मामा ने बतायी थी! 

"तो ये जगह है वो" मैंने एक खन्दक की सी जगह को देख कर कहा, शर्मा जी आये तो उन्होंने भी देखा, 

"लेकिन यहाँ न तो कोई गड्ढा ही है और न ही कोई रास्ता यहाँ वहाँ जाने का वो बोले. 

"अब ये साप हमें छका रहा है, मेरी सहनशक्ति को परख रहा है!" मैंने कहा, 

अब मुझे कुछ न कुछ अवश्य ही करना था! मेरा कीलन वो काट चुका था! इसीलिए मैंने उस रात क्रिया में बैठने का निर्णय किया, उसी से बात बन सकती थी अब! 

मैं उस रात की क्रिया के लिए अपना सामान लेने बाजार गया और विजय और शर्मा जी को भी साथ ले गया, विजय ने पूछा, "गुरुजी, मामा जी को संदेह है कि सर्प-देवता रुष्ट हो गए हैं, मैंने उनको समझाया कि गुरुजी स्वयं जानते हैं हमसे अधिक इस विषय में, इसलिए घबराएं नहीं तो!" 

"अच्छा किया विजय! तुम भी सोच रहे होंगे कि बात तो केवल दर्शन करने की थी, लेकिन मैंने कहानी आगे और बढ़ा ढी!" 

"नहीं गुरु जी ऐसा नहीं है, जो आप कर रहें हैं, आप उचित समझते हैं" विजय ने कहा, 

"मैं जो भी कहल्या वो आपके मामा जी एवं हम सबके लिए एक आशीर्वाद होगा विजय!" मैंने बताया, 

"धन्यवाद गुरु जी!" विजय ने मेरे पाँव पकड़ लिए! 

अब हम वहाँ से निकले, और गाँव पहुँच गए, मैं स्नान करने गया तो विजय ने मेरी क्रिया हेतु एक अलग कमरे का प्रबंध करा दिया, शर्मा जी के कहे अनुसार ये प्रबंध हुआ था, जब तक मैं क्रिया काँगा, कोई अन्दर नहीं आएगा, ऐसा शर्मा जी ने कह दिया था! 

अब मैं क्रिया में बैठा! मैं जानता था कि उस समय किसका आह्वान करना हैं! ये थी सर्प-सुंदरी! 

मैंने अलख उठायी, कौंडियाँ निकाली, मदिरापान किया, और कलेजी भून ली देसी अंडे भी वहीं निकाल के रख दिए। 


   
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श्रीशः उपदंडक
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अब मैंजे रात्रि समय क्रिया आरसभ की, कोई ४ घंटे के बाद प्रलापी प्रकट हुई! फिर कौंदागिनी और फिर सर्प-सुन्दरी की सहोदरी रूपमाला! अब मैंने मांस वाला थाल उठाकर मंत्रोच्चार किया! और फिर! सर्प-सुन्दरी का आह्वान किया! सर्प-सुन्दरी प्रकट हुई! मैंने उसको नमन किया और अपना उद्देश्य बता दिया! अब मुझे उसके छने हुए शब्द मुझे मेरे कर्ण-पटल पर सुनाई दिए! उस इच्छाधारी के विषय में बताया! वो इच्छाधारी करीब तेरह सौ तर्ष पुराना सर्प है, उसकी जाति कढ़पुत्र जागों से 

सम्बंधित है जो ऐसवत भी कहे जाते है,ये वो ऐशवत चार दांतों वाला ऐरावत हाथी नहीं है, वो हाथी समुद्र-मंथन से निकला था, अधिकाँश इच्छाधारी सर्प कद्रपुत्र जाति के ही होते हैं। ये इनकी विशिष्टता होती है। यहाँ पर वो ४ माह हेतु प्रवास के लिए आया हैं, तदोपरान्त वो गंगा जी में जाकर ध्यानावस्था में चला जाएगा, आगामी सैंकड़ों वर्षों हेतु! और इस कद्रपुत्र का नाम अंक हैं! 

मैंने सर्प-सुन्दरी को शाष्टांग प्रणाम कर, नमन-वंदना कर वापिसोज दिया! जो मैं जानना चाहता था, जान लिया था! 

मैं अब उठा, देसी अंडे लिए, एक बैग में भर दिए. और फिर वस्त्र धारण कर बाहर आया, शर्मा जी दर से देख रहे थे, मेरे पास दौड़े दौड़े आ गए! मैंने कहा,"शर्मा जी, चलिए" 

उन्होंने नहीं पूछा कि कहाँ, बोले, "जी चलिए" 

हम खेत पर पहुंचे और मैंने वो सत्ताईस अंडे भूमि में अलग अलग गाड़ दिए और वापिस घर आ गए! 

सुबह उठकर मैंने विजय के मामा से कहा कि वो दूध रखें और विजय के साथ वहाँ चले जाएँ। वे मान गए। उन्होंने दूध रखा 

और वहां से चले गए! अब वहाँ मैं और शर्मा जी ही थे, सांप के इतजार में खड़े हुए! अब मैंले वो तैयार किया हुआ अंजन अपनी आँखों पर लगाया! शर्मा जी ये अंजन नहीं लगा सकते था, अतः मैंने ही वो अंजन लगाया और शर्मा जी को वहाँ से हटा दिया और दूसरे खेत में भेज दिया! 

थोड़े समय पश्चात मुझे वहाँ वही सांप आते दिखाई दिया! उसने मुझे देखा, और फिर रुक गया! लेकिन कुछ क्षणों के पश्चातही वो आगे आ गया! आगे आके उसने अपना चौड़ा फज ढीला किया और फिर दूध पीने लगा, मैर से मात्र एक मीटर ! अब मैंने इच्छाधारी-कीर्णन विद्या का मंत्रोच्चारण आरसभ किया! और जेत्र बंद कर लिए! करीब ५ मिनट के मंत्रोच्चार पश्चात आँखें 

खोल दी! 

चमत्कार हुआ! मेरे सामने एक देत-पुरुष खड़ा शा! गहरे काले केश लम्बे लम्बे! कंधे सरान वेश-राशि से ढके हुए! करीब आठ फीट की लम्बाई! माथे पर त्रिपुंड कढा हुआ! भुज-बंध धारण किये हुए और चेहरे पर अतुल्जिय तेज! आँखे दुधिया जाए ऐसा तेज! ऐसा इच्छाधारी पुरुष का मैंने जीवन में पहली बार साक्षात्कार किया था! परन्तु मेरे मन में भय के भाव भी थे! अप्रत्याशित भय! जिसकी कोई थाह नहीं!! 


   
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श्रीशः उपदंडक
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मैंने हाथ जोड़े और सर झुका कर नमन किया! उसके होठों पर मुस्कराहट आई! मेरा शय आस्था में परिवर्तित हो गया! 

समय स्थिर हो गया! मैंने बड़े विनम भाव से कहा, "आपने मुझे दर्शन देकर धन्य कर दिया जे कद्रपुत्र अंक!" 

उसने मुझे फिर से मुस्कुरा के देखा! 

"मुझे मेरी हठधर्मिता के लिए क्षमा करेंहे का" मैंने कहा! 

इतना कहते ही मुझे एक झटका सा लगा और मैं भूमि पर गिर के अचेत हो गया! शर्गा जी दौड़े दौड़े आये और उन्होंने मुझे आके उठाया, उन्होंने विजय को फोन किया और फिर विजय और शर्मा जी ने मुझे उठाकर एक पेड़ के नीचे लिटा दिया, मेरी मूळ कोई एक घंटे बाद टूटी, मैं थोडा संयत हुआ और वापिस घर की ओर चल पड़ा,अब मैं ठीक था, लेकिन बदन में प्रदाहग्नि सी महसूस हो रही थी, सर में भयानक दर्द शा और मुंह का स्वाद कड़ता हो गया था! मैंने तब स्नान करने गया और कुछ देह-शुद्धन मंत्र पढ़ कर स्नान किया, अब थोडा ठीक था, परन्तु बदन में प्रदाहाग्नि शांत नहीं हुई थी, उसके बाद मैंने खाना वगैरह खाया और आराम करने चला गया! 

तीन घंटे के बाद उठा तो बदन में दर्द के साथ साथ प्रदाहाग्नि भरी हुई थी. जैसे कई साँपों ने मुझे काट लिया हो! तब मैंने तांत्रिक क्रिया करना ही उचित समझा, और प्रिया करने चला गया! एक घंटे के बाद मैं ठीक हो गया! 

मुझे झटका क्यूँ लगा? मैं अचेत क्यू हुआइसका कारण मुझे बाद में मेरे एक जानकार वृद्ध अघोरी सरोवटानन्द ने बताया, कारण ये था, जब मैंने इच्छाधारी-कीर्णन किया था तो अंजन का प्रयोग पहले ही कर लिया था, अंजन-प्रयोग इच्छाधारी कीर्णन पश्चात करना था, जब उस कद्रपुत्र जंक ने कुछ कहना चाहा तो मेरा स्थूल-तत्व शरीर उसे ग्रहण नहीं कर सका, मेरा तंत्रिका तंत्र विफल हो गया, उसने कार्य करना बंद कर दिया, अवरोध उत्पन्न हो गया था! 

मेरे हाथ आया अवसर मेरे हाथ से निकल गया था. पुनः करने की स्थिति में मैं नहीं था, अतः उसी दिन शाम को मैं वापिस दिल्ली आ गया, मलाल तो हुआ लेकिन इस बात का गौरव भी हुआ कि अंक के दर्शन हो गए थे! मानव-जीवन में ऐसा देखना 

सौभाग्य की बात है। 

विजय वापिस चला गया, विजय के मामा का फोन आया, कि वहाँ अब वो साप तो नहीं आता परन्तु कई और सर्प वहाँ आने 

लगे हैं दूध पीने! उस वर्ष उनकी कमाई दोगुनी हो गयी थी! परिवार में स्वास्थय लाभ हुआ था और सब रुके हुए कार्य स्वत: ही बनते जा रहे थे! 

और त्रेक! क पुनः साधना हेतु गंगा जी के गुप्त-मार्ग उमाक्षी से होकर अपने ध्यान-स्थल पहुँच चुका था! कब आएगा, ये तो भविष्य ही जाने! 

मित्रगण! आज भी इस धरा पर अंक जैसे कई इच्छाधारी हैं, जो समय और अंतराल की हर सीमा को बींध देते हैं। आज भी यदा 

कदा किसी को दर्शन दे ही देते हैं! 

कद्रपुत्रत्रंक भी उनमे से एक है! 

------------------------------------------साधुवाद-------------------------------------------


   
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