वर्ष २०११ हल्द्वानी...
 
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वर्ष २०११ हल्द्वानी की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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"हम्म" मैंने कहा,

मैंने अपना बैग खोल कर उसमे से और एक छोटा सा बैग निकाला और बड़ा बैग बंद कर दिया,

"दो गिलास पानी भिजवा दीजिये" मैंने रवि से कहा,

"जी" वे बोले और बाहर चले गए,

थोड़ी ही देर में आशा आ गयी पानी लेकर, एक गिलास मैंने पिया और एक शर्मा जी ने, आशा ने गिलास उठाये और चली गयी वापिस,

"गुरु जी?" शर्मा जी ने पूछा,

"हाँ?" मैंने कहा,

"क्या है यहाँ?" उन्होंने पूछा,

"इनके हिसाब से और जो मैंने सुना, यहाँ तीन भटकती हुई प्रेतात्माएं हैं" मैंने बताया,

"कभी उनका आवास होगा ये" उन्होंने कहा,

"हाँ, कुछ ना कुछ तो सम्बन्ध है ही उनका यहाँ से" मैंने कहा,

"ये फंस गए बेचारे इस चक्कर में" शर्मा जी अपने जुराब उतारते हुए बोले,

"हाँ, फंस गए!" मैंने कहा,

"खैर, अब इनको, मतलब डॉक्टर साहब और साहिब को पता तो चल गया होगा कि एक ये भी दुनिया है वजूद में!" वे बोले,

"पता? यहाँ से भागने के चक्कर में हैं ये!" मैंने कहा,

"हाँ!" शर्मा जी मुस्कुराए!

"कब्र का हाल मुर्दा ही जानता है!" मैंने कहा,

"सही कहा!" वे बोले और लेट गए, मैंने भी अपने जूते खोले और लेट गया, थकावट हो गयी थी सफ़र में! थोड़ी देर में आशा खाना ले आई, हमने हाथ-मुंह धोये और खाना खाया फिर!


   
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श्रीशः उपदंडक
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खाना खाने के बाद मैंने अपने तंत्राभूषण निकाले और शर्मा जी को भी धारण करवाए और मैंने स्वयं भी किये!

"शर्मा जी, मेरे पीछे ही रहना, ना अगल-बगल में और ना आगे" मैंने ताकीद किया!

"जी!" वे बोले,

"ये प्रेत एक ओझे को यहाँ से मार कर भगा चुका है, और एक का कीलन काट चुका है, इसका मतलब ये ताक़तवर प्रेत है" मैंने बताया,

"हाँ जी" वे बोले,

"आप रवि से कहिये कि घर के सारे लोग उनके कमरे में चले जाएँ एक बजे, उसके बाद मेरा काम आरम्भ होगा" मैंने कहा,

"जी अभी कहता हूँ" वे बोले और रवि से बात करने चले गए,

थोड़ी देर में वापिस लौटे!

"कह दिया?" मैंने पूछा,

"हाँ जी, समझा भी दिया" वे बोले,

"ठीक है" मैंने कहा,

अब मैंने तैय्यारी आरम्भ की, कुछ विशेष मंत्र जागृत किये और उनको संचार में लाने के लिए सशक्त किया!

और अब बजा रात का एक! सभी रवि के कमरे में चले गए थे! और मुझे था अब उन तीनो प्रेतात्माओं का इंतज़ार!

अब मै तैयार था! तैयार उन तीनों प्रेतात्माओं के लिए! मैंने कलुष-मंत्र का प्रयोग किया और फिर स्वयं के और शर्मा जी के नेत्र पोषित कर दिए उस से! अब दृश्य स्पष्ट हो गया था! सामने जीने पर मेरी नज़र टिकी हुई थी, मै गैलरी में एक तौलिया लेकर उस पर बैठ था, शर्मा जी मेरे पीछे बैठे थे!

"शर्मा जी तैयार हो जाइये, पौने दो बज चुके हैं" मैंने फुसफुसा कर कहा!

"जी मै तैयार हूँ" उन्होंने भी फुसफुसा के जवाब दिया!


   
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श्रीशः उपदंडक
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और तभी छत पर किसी के कूदने की आवाज़ हुई! मैंने कान लगाये उधर, नज़रें सामने जीने पर रखी!

केवल एक ही कूदा था ऊपर, अब मै खड़ा हुआ! शर्मा जी भी खड़े हुए! जीने का दरवाज़ा खुला! और तेजी से भिड़ा दिया गया! जीने से उतरने की आवाज़ आई! एक एक सीढ़ी उतरते उतरते वो मेरे सामने आ कर खड़ा हुआ! कोई साढ़े छह फीट लम्बाई होगी उसकी, शरीर उसका लगभग सारा जला हुआ था, उसके हाथ में एक कपडा सा था, देखते ही पता चलता था कि वो गुस्से में है! जलने की दुर्गन्ध फैली थी वहाँ!

"कौन हो तुम?" मैंने पूछा,

उसने मुझे गौर से देखा, फिर मेरे पीछे खड़े शर्मा जी को गौर से देखा, लेकिन जवाब नहीं दिया उसने!

"कौन हो तुम?" मैंने फिर से पूछा,

"रतन सिंह" उसने जवाब दिया!

"कौन रतन सिंह?" मैंने और कुरेदा!

"इस ज़मीन का मालिक" उसने उत्तर दिया,

उसने ज़मीन बोला, घर नहीं!

"कौन सी ज़मीन?" मैंने पूछा,

"जहां तू खड़ा है" उसने कहा,

"ये तेरी ज़मीन है?" मैंने पूछा,

"हाँ" उसने कहा,

"नहीं! ये तेरी नहीं है अब!" मैंने कहा,

वो आगे बढ़ा, मैंने अस्थि-माल आगे किया अपने गले से! वो पीछे हटा!

"तू अकेला ही है यहाँ?" मैंने पूछा,

"नहीं मेरी बीवी और बहन भी है यहाँ" उसने कहा,

"उनको भी बुला" मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"तू कौन है?" उसने पूछा,

"यहाँ का मालिक!" मैंने कहा,

"तू कैसे मालिक हो गया यहाँ का? मै हूँ यहाँ का मालिक!" उसने छाती पर हाथ मारते हुए कहा!

"नहीं! तू नहीं है!" मैंने कहा,

वो फिर से आगे बढ़ा, मैंने फिर से अस्थि-माल आगे किया! वो वहीं रुक गया!

"मेरे रास्ते से हट जा!" उसने कहा,

"क्या करेगा?" मैंने पूछा,

"जान से मार दूंगा!" उसने कहा,

"तू मरेगा मुझे जान से?" मैंने पूछा,

"हाँ!" उसने कहा,

"करके देख ले!" मैंने कहा,

अब वो आगे बढ़ा, मैंने अबकी बार अस्थि-माल नहीं आगे किया! वो एक दम झटके से रुक गया!

"क्या हुआ?" मैंने पूछा,

"कौन है तू?" उसने पूछा,

"तू नहीं जान सकता?" मैंने पूछा,

वो दहाडा!

"तेरे बस की कुछ नहीं रतन!" मैंने कहा,

"तू मुझे नहीं जानता!" उसने कहा,

"तो बता?" मैंने पूछा,

"मै फौजी हूँ" उसने कहा,

"अच्छा! तो?" मैंने और कुपित किया उसको!


   
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श्रीशः उपदंडक
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अब उसने अपना हाथ मेरी तरफ किया, जैसे कुछ फेंका हो! हवा में से रक्त की बूंदें प्रकट हुईं और मेरे ऊपर, शर्मा जी के ऊपर और गैलरी में बिखर गयीं! कुछ मेरे चेहरे पर पड़ीं! मैंने उनको साफ़ नहीं किया! वो हंसा! तब मैंने जम्बूल-मंत्र पढ़ा और वो गायब कर दी!

ये देख वो भौंचक्का हुआ!

"अरे फौजी! अब मै दिखाऊं?" मैंने कहा!

"क्या करेगा तू?" उसने पूछा,

"देखना चाहता है?" मैंने पूछा,

"क्या दिखायेगा?' उसने कहा!

"तो देख!" मैंने कहा और तामिष-मंत्र का प्रयोग करते हुए उसकी तरफ हाथ कर दिया, अंगारे धधके! उसकी तरफ चले! वो भागा पीछे! मैंने मंत्र वापिस कर लिया! वो फिर वापिस आया! सोच में पड़ गया!

"देख, ये मेरी ज़मीन है, मेरी रहेगी, तू हट जा मेरे रास्ते से" उसने कहा,

"नहीं फौजी, ये तेरी ज़मीन नहीं है!" मैंने कहा,

"तेरी है?" उसने पूछा,

"हाँ" मैंने कहा,

"तू नहीं बचेगा मुझसे!" उसने गुस्से में दांत पीसे!

तभी वहाँ वो दोनों औरतें प्रकट हो गयीं! वो भी बिलकुल जली हुई! चेहरा तो दिखाई ही नहीं दिया! जले हुए कपडे चिपके हुए थे उनके बदन से! ये तीनों मुझे किसी दुर्घटना का शिकार लगे! बेचारे!

"फौजी! शराफत से मान जा!" मैंने कहा उस से!

"ना मानें तो?" उसने उससे से कहा!

"तो फिर दूसरा रास्ता भी है मेरे पास!" मैंने कहा,

"क्या कर लेगा मेरा?" उसने गुस्से से कहा और वो औरतें हंसी!

ये नहीं मान रहे थे! मुझे अब विवश होना पड़ा!


   
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श्रीशः उपदंडक
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मैंने एक मौका और देने की सोची, जमीन तो उसकी थी ही, कभी तो रही ही थी, इसीलिए ये उस पर अपना हक़ जता रहे थे! वे तीनों मेरे सामने खड़े थे, भटकती हुई प्रेतात्माएं! इस अनंत में भटकती हुई प्रेतात्माएं! अटकी हुईं प्रेतात्माएं! अपने अंतिम क्षण में कैद प्रेतात्माएं! बस यहीं मै उनके लिए मृदु हो गया था!

"फौजी, आखिरी मौक़ा दे रहा हूँ तुम सब को, मान जाओ" मैंने कहा,

उन तीनों ने एक दूसरे को देखा, फिर मुझे और फिर तीनों ही हंसने लगे! मुझे फिर भी तरस आया!

"मान जाओ" मैंने कहा,

"तू हट जा मेरे रास्ते से, क्यूँ बेकार में जान गंवाता है?" उसने धमकाया मुझे!

"बहुत बुरा हाल करूँगा तेरा!" मैंने कहा, दरअसल मैंने डराया उसको, हो सकता है मान ही जाये!

"मेरा बुरा हल करेगा तू?" उसने कहा और हंसा!

"हाँ! और साथ में सजा पाएंगी ये, ये दोनों!" मैंने ऊँगली से इशारा किया! अब उसको गुस्सा आया, वो आगे बढ़ा

और मै भी आगे बढ़ा! करीब पांच फीट पर हम दोनों रुक गए! उसकी प्रेतमाया काम नहीं कर रही थी, मेरे तंत्राभूषणों के सामने!

"अभी भी मान जा" मैंने कहा,

वो पीछे हटा अब!

"मान जा" मैंने कहा,

"क्या चाहता है?" उसने पूछा,

"चले जाओ यहाँ से, हमेशा के लिए" मैंने कहा,

"और न जाएँ तो?" उसने पूछा,

"तो मजबूरन तुम तीनों को कैद करना पड़ेगा मुझे" मैंने कहा,

"तू करेगा हमें कैद? तेरी इतनी हिम्मत?" उसने गुस्से से कहा!

"हाँ, मैं करूँगा कैद!" मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"कर के देख ले!" उसने कहा,

"मुझे मजबूर ना करो" मैंने कहा,

"कर ले! कर ले कैद!" उसने कहा,

"नहीं मानेगा?" मैंने पूछा,

"नहीं" उसने कहा,

"कैसे मानेगा?" मैंने पूछा,

"ये जमीन खाली कर, उनको निकाल यहाँ से नहीं तो आज मार दूंगा सबको!" उसने धमकी दी!

वो झूठ नहीं कह रहा था! वो आज सभी को मारता आज! अब मै हुआ मजबूर! नहीं मान रहे थे ये सब! अब मै क्या करता! अब मैंने अपने इबु-खबीस का शाही-रुक्का पढ़ा! बिजली कौंधी! इबु-खबीस हाज़िर हुआ, झम्म की आवाज़ करता हुआ!! इबु-खबीस को देखकर उन सबकी अब जैसे नकसीर छूटी! काँप गए वे तीनो! एक दूसरे से चिपक गए! इबु-खबीस हुआ मुस्तैद अब! उसने गुस्से से उन तीनों को घूरा! वे तीनों इबु की पीली ज़हरीली आँखें देख कर कांपते रह गए!

"क्या हुआ फौजी?" मैंने पूछा,

कोई जवाब नहीं आया!

"मैंने समझाया था ना?" मैंने कहा,

कोई जवाब नहीं! एक महाप्रेत की भी क्या औक़ात ख़बीस के सामने! इधर इबु-खबीस मेरे हुक्म का इंतज़ार कर रहा था! मैंने इबु-खबीस को इशारा किया और उसने एक ही पल में तीनों को अपनी पकड़ में ले लिया! बाँध लिया उनको! अब मैंने इबु-खबीस को वापिस किया! वे तीनों कैद थे अब! डॉक्टर साहब का पूरा परिवार सुरक्षित था अब!

"शर्मा जी! रवि को बता दीजिये, सारी समस्या का अंत हो गया!" मैंने कहा,

"जी अभी कहता हूँ" वे बोले और रवि के कमरे की तरफ चले गए! और मैं अपने कमरे में! मैंने अपने तंत्राभूषण उतारे और उन्हें माथे से लगाया!


   
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श्रीशः उपदंडक
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करीब दस मिनट में मीना और रवि मेरे पास दौड़े दौड़े आये! आते ही मेरे पाँव पकड़ लिए! मैंने उनको उठाया! मीना की आँखों में आंसू थे और रवि के आँखों में कृतार्थ होने के भाव!

"डॉक्टर साहब! सब ख़तम! अब ये घर आपका, आपका अपना हुआ! अब कोई नहीं आएगा यहाँ!" मैंने कहा,

"मै और मेरा पूरा परिवार ऋणी हो गया आपका गुरु जी!" वे बोले!

सभी ने बार बार धन्यवाद दिया! और मैंने आशीर्वाद लिया उनकी माता जी से! ये था बहुमूल्य आशीर्वाद!

अगले दिन सुबह खाना खा कर हम दोनों दिल्ली वापिस हो गए! डॉक्टर साहब ने बहुत रोका, पर जाना ही था हमको!

हम दिल्ली पहुंचे! मैंने उसी रात उन तीनों को हाज़िर किया! इबु को भोग दिया! तब मुझे रतन सिंह ने अपनी आपबीती घटना सुनाई!

उन तीनों की मौत सन उन्नीस सौ तिरेसठ में हुई थी, घर में आग लगी थी, रात दो बजे, घर लकड़ी से अधिकांश बना था, फ़ौज से छुट्टी लेकर आया हुआ रतन सिंह फौजी और उसकी पत्नी विमला और रतन की बहन ममता की दम घुटने से मौत हो गयी थी, पता भी ना चला, जब तक लोगों ने आग पर नियंत्रण किया तब तक उनकी लाश बुरी तरह जल चुकी थीं! मुझे बहुत दुःख हुआ उनकी कहानी जानकर! बहुत भटके थे वे बेचारे! अब उनकी मुक्ति का समय आ पहुंचा था!

ना डॉक्टर साहब पुराना मकान बेचते, ना ये नया घर खरीदते और ना मै वहां पहुँचता और ना ये मुक्त होते! ये कड़ी से कड़ी जुड़ने जैसी बात हुई! फिर एक पावन-तिथि पर मैंने उनको समझा-बुझाकर मुक्ति हेतु मना लिया और उसी रात्रि मैंने मुक्ति-क्रिया कर उनको मुक्त कर दिया! परम-संतोष प्राप्त हुआ! एक और कर्तव्य निभा दिया था मैंने!

उस दिन के बाद से डॉक्टर साहब के परिवार में कोई दुर्घटना ना हुई! खुशियों का अंबार लग गया! खूब फला घर उनको! क्लिनिक दोगुना हो गया है! ये उन्ही तीनों प्रेतात्माओं का आशीर्वाद था! ये डॉक्टर साहब ही थे, जिनकी वजह से उनको मुक्ति मिली थी! डॉक्टर साहब अब लगातार संपर्क में रहते हैं! एक हफ्ते में एक दो बार फ़ोन कर ही लिया करते हैं!

 

मित्रगण! ऐसी ना जाने कितनी प्रेतात्माएं अभी भी भटक रही हैं! बिना किसी कारण से! अपने अंतिम क्षण में कैद!

और मै! मै तो सदैव तत्पर हूँ! तत्पर हूँ ऐसे अनेकों डॉक्टर्स के लिए जो माध्यम बनेंगे उन भटकती हुई प्रेतात्माओं की मुक्ति में!

------------------------------------------साधुवाद-------------------------------------------


   
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