वर्ष २०११ संवाई माध...
 
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वर्ष २०११ संवाई माधोपुर की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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"बागी है जी" उसने कहा,

"बागी?" मैंने पूछा,

"हाँ जी, रिश्तेदार ही है, लेकिन मन फेर लिया उसने, मार डाले सभी घरवाले, मेरे बीवी बच्चे और माँ और बाबा, मैं कैसे करके इन्हे बचा लाया, इन्हे छोड़ आऊँ, फिर आदमी जोड़ के बदला लूँगा उस से" उसने कहा,

"आदमी कहाँ से जोड़ोगे छ्त्रसिंह?" मैंने पूछा,

"कुम्भा के पास हैं आदमी, वो आदमी बड़ौल( मजबूत, एक तरह से खूंखार) है, उसको पता चलेगा तो सर काट देगा सबके" वो बोला,

"अच्छा!" मैंने कहा,

अब उसने मुकदी और उद्दू को वापिस टोकरी में आने के लिए कहा, वे झट से टोकरी में घुस गए! छिप गए, ऐसे कि जैसे कोई देख न ले! ये कुशहा मुझे कोई कुशवाहा लगा, कोई कुशवाहा लड़ाका!

'अच्छा, इसीलिए आप वहीँ जा रहे हो" मैंने कहा,

"हाँ, जल्दी से पहुँच जाऊं तो चैन मिलेगा मुझे" उसने अपनी छाती सहलाते हुए कहा,

"मुझे कुछ और बताओ, ताकि तुम्हारी और मदद कर सकूँ" मैंने कहा,

"क्या बताऊँ?" उसने पूछा,

"कब चले थे अपने गाँव बेड़वा से?" मैंने पूछा,

"चौदह रोज हो गए हैं" वो बोला,

"तुम्हारे गाँव से कितने दिनों का रास्ता है कुम्भा के गाँव का?" मैंने पूछा,

"आठ-नौ दिन लगते हैं" वो बोला,

"इसका मतलब कुशहा ने चौदह रोज पहले सभी को मारा?" मैंने पूछा,

"नहीं, सोलह रोज पहले, मैं अपनी बहन के साथ मंदिर गया हुआ था, रास्ते में खबर मिली कि क्या हुआ वहाँ और ढूंढ हो रही है मेरी, मैं फिर वहीँ से भाग लिया इनको लेकर" वो बोला,


   
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श्रीशः उपदंडक
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कब से भाग रहा है! तभी से भागमभाग! सोच के ही दिल सिहर जाता है! इसकी ये भाग अब समाप्त करनी थी! लेकिन उसको बदला लेना था, बस अपनी बहन और भांजे को छोड़ आये एक बार भनौट!

भनौट! जो कि यहाँ से बहुत दूर था! कमसे कम दो सौ किलोमीटर के आसपास! फिर उसको भनौट गाँव भी जाना था! वो भी दूर हो होगा! हिमात की दाद दी मैंने उसको उसकी! वो वास्तव में ही एक हिम्मती आदमी रहा होगा! लड़ाका! पहलवान सा! मजबूत बदन वाला! पहले के लोग ऐसे ही हुआ करते थे! मजबूत जिस्म और मजबूत जीवट वाले!

"एक बात और छ्त्रसिंह!" मैंने पूछा,

"पूछो?" उसने कहा,

"तुम बेड़वा के रहने वाले हो, और तुम इनको बेड़वा से ला रहे हो?" मैंने पूछा,

"नहीं, बेड़वा से नहीं, मैं रहने वाला बेड़वा का हूँ लेकिन इनको मैं चुरू से ला रहा हूँ, मैं वहाँ अपने चाचा के साथ रहता हूँ बाल-बच्चों के साथ, वो फ़ौज में हैं" वो बोला,

'अच्छा, क्या नाम है आपने चाचा का?" मैंने कुरेदा!

"सुरजन सिंह" उसने कहा,

"फ़ौज ने हैं!" मैंने कहा,

"हाँ" वो बोला,

"और तुम क्या करते हो?" मैंने पूछा,

"खेती-बाड़ी" उसने कहा,

जितना मैं उस से बात करता जाता, उस समय का इतिहास मेरे सामने जीवंत हो जाता! वो अपने चाचा की खेती-बाड़ी सम्भालता था! उसके पास उसकी बहन आयी थी मिलने के लिए, कोई कुशहा बागी हो गया, उसने सभी को मार डाला, यही पता चला, अब मुझे ये जानना था कि ये किस समय हुआ था, ताकि मुझे सटीक समय मिल सके!

"बहन किसी त्यौहार में आयी थी छ्त्रसिंह तुम्हारे पास?" मैंने पूछा,

"न, मिलने आयी थी वो, साल में कभी कभार आती थी" वो बोला,

'अच्छा, तुमको सोलह रोज रोज हो गए चले हुए?" मैंने पूछा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"हाँ जी, छपते छिपाते, जंगलों के रास्ते आते हुए सोलह रोज हो गए" वो बोला,

"महीना कौन सा चल रहा है छ्त्रसिंह?" मैंने पूछा,

"बैसाख है जी" वो बोला,

"और साल?" मैंने पूछा,

अब उसने कोई ठेठ भाषा बोली जो मुझे समझ नहीं आयी! न वो समझ सका और न मैं समझा ही सका! फिर भी जो कुछ बोला, उसके अनुसार जब मैंने बाद में आंकलन किया था तो उसको करीब दो सौ वर्ष हो चुके थे! ऐसा मुझे किसी शक्ति की मदद से पता चला था! दो सौ वर्षों से वो कभी जंगलों में, कभी पहाड़ों पर छिप रहा था, वो टोकरी उठाये!

अब मुझे उस पर बहुत दया आयी! कब से भटक रहा था! मेरे बस आँखों में आंसू आने की ही देर थी!

वो भोला-भाला सा खड़ा था! सत्य से अनभिज्ञ, वे दोनों भी बेचारे जो टोकरी में बैठे थे छिप कर इस इंतज़ार में कि किसी को उसका बाप मिलेगा, किसी को उसका पीटीआई और कोई उसके संग आदमी जोड़ेगा ताकि कुशहा से बदला लिया जा सके!

मन तो हुआ कि मैं उसको सब सच सच बता दूँ! लेकिन वो यक़ीन करता न करता! पता नहीं! तब स्थिति और विकट हो जाती!

"अब मुझे जाने दो" वो बोला,

"चले जाना!" मैंने कहा,

"कोई आ जाएगा यहाँ, मार डालेगा तुमको भी" वो बोला,

"कोई नहीं मारेगा यहाँ!" मैंने कहा,

वो चुप हो गया, लेकिन डर नहीं गया उसका!

'अच्छा, छ्त्रसिंह, अगर मैं तुमको भनौट ले जाऊं तो कैसा रहेगा?" मैंने पूछा,

वो खुश हो गया!

"मैं तुमको कुम्भा से मिलवाऊंगा, और इनाम भी दिलवाऊंगा! ले चलो मुझे, या मुझसे रास्ता बता दो" वो बोला,

"क्या इनाम दिलवाओगे?" मैंने पूछा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"जो चाहो, धन, ज़मीन, जो चाहो, बहुत बना हुआ आदमी है कुम्भा!" वो बोला,

बना हुआ! अर्थात धनी!

"ठीक है, मैं ले चलूँगा" मैंने कहा,

"ले चलो, अभी! अभी ले चलो!" वो उत्सुक हो कर बोला!

"ले चलूँगा!" मैंने कहा,

"कब?" उसने कहा,

"आज ही" मैंने कहा,

वो खुश!

उसने मेरी तारीफ़ कर डाली!

लेकिन मैं गम्भीर हो गया था!

इसकी आपबीती पर!

 

अब मुझे निर्णय ले लेना था, निर्णय ये कि मैं उनको पकड़ लूँ और मांदलिया में डाल कर बंद कर दूँ! इसके लिए मुझे उसको समझाना था, समझ जाये तो ठीक नहीं तो ज़बरदस्ती पकड़ के मांदलिया में डाल देना था, ये उनके भले के लिए ही था, नहीं तो किसी दुष्ट प्रकृति के तांत्रिक या गुनिया ने पकड़ लिया तो ये हमेशा के लिए क़ैद हो जायेंगे! सो, ज़बरदस्ती भी हो जाती तो कोई बुरी बात नहीं थी!

"छ्त्रसिंह, तुम भनौट जाना चाहते हो न?" मैंने जानते हुए भी पूछा,

"हाँ!" उसने कहा,

"भनौट यहाँ से बहुत दूर है, और दुश्मन कभी भी आ सकता है, वो मुझे तो पहचानता नहीं, तुम्हे ही पहचानता है, है न?" मैंने पूछा,

"हाँ" वो बोला,

"तो एक काम करना होगा जैसा मैं कहूंगा, करोगे?" मैंने पूछा,

उलझ सा गया वो!


   
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श्रीशः उपदंडक
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अजीब से भाव थे आँखों में उसके इस सवाल से!

"करोगे?" मैंने पूछा,

उसने टोकरी को हाथ लगाया,

"नहीं नहीं! ऐसा मत साझो छ्त्रसिंह! मैं तुम्हारी मदद करना चाहता हूँ, जैसे ये तुम्हारी बहन, वैसे मेरी भी बहन!" मैंने कहा,

मुस्कुरा गया, समझ गया, भले ही थोड़ी देर बाद!

"क्या काम है?" उसने पूछा,

अब मैंने मांदलिया आगे की, उसने देखी और घबरा गया! उसकी प्रेत-नैसर्गिकता ने उसको जैसे सूंघ लिया!

"तुम तीनों इसमें आ जाओ छ्त्रसिंह!" मैंने कहा,

उसने उसको देखा!

गौर से!

"घबराओ मत, मैं तुमको भनौट ले चलूँगा!" मैंने कहा,

वो डरा!

"तो सुनो छ्त्रसिंह!" मैंने कहा,

उसने मुझे देखा!

"तुम अब प्रेतात्मा हो! ये दोनों भी, कितने साल हो गए तुमको भटकते भटकते, ये तुम्हे पता नहीं! न अब कुशहा बचा है और न कुम्भा बांकुरा! वे सब समय के अपने अपने खंड में अपना जीवन पूर्ण कर गए! तुम भी कर लेते, लेकिन इनको बचाने की इच्छा से तुम लौट आये!" मैंने कहा,

अब तो जैसे ये सुन वो काँप सा गया!

"अब न तुम्हारे पास शरीर है और न पञ्च-तत्व! और अगर तुम ऐसे ही भटकते रहे तो कोई तुमको पकड़ लेगा, तुम्हारी बहन अलग हो जायेगी, तुम्हारा भांजा भी! तुम कभी एक दुसरे को नहीं देख पाओगे, क़ैद हो जाओगे हमेशा हमेशा के लिए किसी के पास! दासता करोगे उसकी, जैसा वो कहेगा वैसा करना होगा! नहीं करोगे तो पीड़ा उठाओगे!" मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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उसने टोकरी को देखा, उचक कर!

"जो मैंने कहा वो सच है!" मैंने कहा,

"तुमको मैंने उठवाया है आज, बताओ, नहीं क्या? कौन पकड़ कर लाया तुमको? किसके कहने पर, जो तुम मेरे सामने खड़े हो?" मैंने पूछा,

उसने सुना तो सही लेकिन समझ नहीं सका!

कैसे समझता!

"अब ठीक यही है कि जैसा मैं कहता हूँ, वैसा करो तुम, नहीं तो बहुत पछताओगे तुम!" मैंने कहा,

"मुझे भनौट का रास्ता बता दो, मैं चला जाऊँगा यहाँ से" अब घबरा के बोला वो,

"अब तुम कहीं नहीं जा सकते!" मैंने कहा,

"मुझे छोड़ दो" वो अब गिड़गिड़ाया!

"कहीं नहीं जा सकते तुम छ्त्रसिंह!" मैंने कहा तो सही ये, लेकिन दिल धक् रह गया मेरा!

"मुझे जाने दो, मुझे इनको छोड़ना है" वो बोला,

"कहाँ जाओगे?" मैंने पूछा,

"भनौट" उसने कहा,

"वहाँ कुम्भा बांकुरा नहीं है" मैंने बताया,

"तुमको कैसे पता?" उसने पूछा,

"क्योंकि मैं जानता हूँ" मैंने कहा,

"मैं ढूंढ लूँगा उसको, जाने दो मुझे" ये कहते हुए उसने टोकरी उठा ली!

"रुको?" मैंने कहा,

वो रुक गया!

"मेरी बात मान जाओ छ्त्रसिंह!" मैंने कहा,

"नहीं, मुझे जाना है, बदला! बदला लेना है मुझे" वो बोला,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"किस से?" मैंने पूछा,

"कुशहा से" वो बोला,

"अब कोई कुशहा नहीं है इस संसार में" मैंने बताया,

"झूठ न बोलो" उसने कहा,

"मैं झूठ नहीं बोल रहा!" मैंने कहा,

"मैं जा रहा हूँ अब" वो बोला और जैसे ही कीलन की जड़ में आया वो चौंक गया, जैसे उसको कोई विद्युत् का झटका लगा हो!

"मैंने कहा था न? कहीं नहीं जाओगे तुम अब" मैंने कहा,

"ऐसा न करो मेरे साथ, मैं दुःख का मारा हूँ बहुत" वो बेचारा बोला,

"मैं जानता हूँ छ्त्रसिंह!" मैंने कहा,

"तो ये कैसा न्याय है?" उसने पूछा,

"ये न्याय तुम नहीं समझोगे" मैंने कहा,

"मुझे जाने दो" उसने अब ज़ोर से कहा!

"नहीं!" मैंने भी धमकाया उसको!

"छ्त्रसिंह, अब तुम छ्त्रसिंह नहीं बचे, अब तुम एक प्रेत हो" मैंने कहा,

"नहीं!" उसने धीरे से कहा,

"मान लो मेरी बात" मैंने कहा,

"नहीं" उसने कहा,

"नहीं मानोगे?" मैंने पूछा,

अब उसने टोकरी नीचे रखी!

और बोला, नहीं!"


   
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श्रीशः उपदंडक
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फिर उसने अपना चाक़ू निकाला! मुझे दिखाया जैसे मैं उसका शत्रु हूँ! और लपक पीडीए मेरी तरफ! जैसे ही मेरी तरफ आया मेरे तंत्राभूषणों ने अपना कमाल दिखाया और वो टकराते हुए बहुत दूर उछल गया!

"तुम कुछ नहीं कर पाओगे छ्त्रसिंह!" मैंने कहा,

अब उसको पहली बार सत्य का आभास हुआ!

"मैंने कहा था न, मेरी बात मान जाओ?" मैंने कहा,

वो भौंचक्का खड़ा था!

उसका चाक़ू उसके हाथ से गिर पड़ा!

"इधर आओ छ्त्रसिंह!" मैंने कहा,

वो खड़ा रहा जस का तस!

"मत डरो! मैं तुम्हारा कोई नुक्सान नहीं करूँगा!" मैंने कहा,

वो बेचारा सिहर गया था!

दो सौ साल! दो सौ साल का भटकाव!

 

"तुम्हे मेरा कहा मानना ही होगा छ्त्रसिंह!" मैंने कहा,

वो बेचारा असहाय सा खड़ा रहा!

"मैं तुम्हारी मदद ही कर रहा हूँ छ्त्रसिंह, मैं नहीं चाहता तुम और भटको, बस, अब बहुत हुआ!" मैंने कहा,

वो बेचारा उकडू बैठ गया!

निहारने लगा अपनी बहन और भांजे को!

"तुम्हारे साथ साथ ये भी भटक रहे हैं!" मैंने कहा,

वो मन से अशांत और तन से शांत जैसे!

"अब जैसा मैं कहता हूँ, वैसा ही करो!" मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"नहीं! मैं नहीं जानता, मुझे कुम्भा के पास जाना है एक बार! एक बार!" उसने कहा,

"कुम्भा अब शेष नहीं" मैंने कहा,

"नहीं है, मैं जानता हूँ!" उसने कहा,

"तुम कुछ नहीं जानते!" मैंने कहा,

"नहीं! नहीं, मैं सब जानता हूँ!" उसने कहा,

"कब तक धोखे में रहोगे छ्त्रसिंह?" मैंने पूछा,

"कोई धोखा नहीं, मैं इनको छोड़ आऊँ वहाँ पहले!" वो बोला,

"वहाँ? कहाँ?" मैंने पूछा,

"भनौट" उसने धीमे से कहा!

"भनौट में कोई नहीं है" मैंने कहा,

"नहीं, है" उसने कहा,

वो नहीं मानने वाला था, चाहे मैं कितना भी समझाता! वो अटका हुआ था, लम्बी सी एक समय की डोर में बीच में इसी समय-खंड की एक गाँठ में बंधा हुआ था! अब माने भी कैसे?

"ठीक है, मैं तुम्हे भनौट ले जाऊँगा!" मैंने कहा,

वो खुश हुआ!

बहुत खुश!

उठ खड़ा हुआ!

"कब?" उसने पूछा,

"कब जाना चाहते हो?" मैंने पूछा,

"आज! अभी!" उसने कहा,

"ठीक है" मैंने कहा,

अब मैं खड़ा हुआ!


   
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श्रीशः उपदंडक
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उसने सोचा मैं तैयार हुआ!

उसने तभी अपनी टोकरी उठायी!

"रुको अभी!" मैंने कहा,

उसने टोकरी नीचे रखी तभी!

फिर से मन में संशय हुआ!

उसने मुझे देखा!

"सुनो, भनौट बहुत दूर है यहाँ से, जैसा मैंने बताया था" मैंने कहा,

"फिर?" उसने पूछा,

"तुम्हे मैं ले जाऊँगा वहाँ, ये मेरा वचन है, लेकिन अगर तुम्हे वहाँ कोई नहीं मिला तो तुम वैसा ही करोगे जैसा मैं कहूंगा? मंजूर है?" मैंने कहा,

उसने सोचा!

बहुत सोचा!

"मंजूर है" उसने कहा,

बस! काम बन गया था, वो अपने ही वचन में बंध गया था और यही मैं चाहता था! मैं अब उसको मुक्त कर सकता था, वो भी उसी के चाहने पर! तरस आता है! बहुत तरस! ये मनुष्य ही है जो आँख फेरता है, नहीं तो जानवर भी ऐसा नहीं करते! वे भी प्रेम और दया का भाव जानते हैं! सर्प और नेवला भले ही मूत्र हो जाएँ, लेकिन मनुष्य कभी भी आँख फेरना नहीं छोड़ सकता! उसके मन में एक भाव निरंतर चलता है, झूठ बोलने का, झूठी शान दिखाने का, धन का अहंकार! भूमि का अहंकार! सुन्दर स्त्री का अहंकार! यश का अहंकार! विश्वासघाती होता है मनुष्य! उसके वचन का क्या मोल! लेकिन यहाँ मैंने उसको वचन दिया था, एक मनुष्य ने ही वचन दिया था, चाहता तो उनको पकड़ लेता, चाकरी करवाता उनसे! दास हो जाते मेरे! लेकिन नहीं! कभी दुखियारे के स्थान पर स्वयं को रखकर देखिये! समय का पहिया निरंतर घूमता रहता है और इतिहास अपने को दोहराता है! आज ये मेरा पड़ाव कभी तेरा पड़ाव! वचन का मोल होता है! जो वचन का मोल न रख सके वो मित्र नहीं, वो शुभचिंतक नहीं वो बैरी है! आस्तीन में छिपा सांप! इस अशरीरी से भी मुझे वचन दिया था, उसे उसका पालन


   
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श्रीशः उपदंडक
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करना था! जन एक अशरीरी वचन का पालन कर सकता है तो हम देहधारी क्यों नहीं?? कैसी अपार विडंबना है ये!

"ठीक है, मैं ले चलूँगा तुमको!" मैंने कहा,

उसने धन्यवाद सी कही जाने वाली मुद्रा बनायी!

मैं समझ गया!

''अब इस मांदलिया में आ जाओ छ्त्रसिंह!" मैंने कहा,

वो बेबस सा!

बहुत विचारा उसने!

बहुत!

फिर,

विश्वास की जीत हुई!

एक सच्चा विश्वास!

"ठीक है!" आखिर उसने कहा और वे तीनों फिर उसी मांदलिया में आ गए!

मेरा यहाँ का कार्य समाप्त!

वो टोकरी मैंने उठा कर मंत्र की जद से बाहर फेंकी, वो उस से टकराई और राख हुई! ये राख केवल मैं ही देख सकता था! या फिर वो जो देख की हद में था या वो जो कलुष-मंत्र का प्रयोग कर रहा हो!

अब मैं उठा वहाँ से! सारा सामान उठाया और बैग में भरा! फिर वो मांदलिया उठायी और उसको भी सम्भाल कर बैग में रख लिया! और बैग उठा चला पड़ा वापिस, बाहर की तरफ!

वहाँ वे सब जागे थे, गाड़ी में ही बैठे थे, मुझे देख सभी उतरा आये!

"हो गया काम?" शर्मा जी ने पूछा,

"हाँ, निबट गया!" मैंने कहा,

"शुक्र है!" रमन जी ने ऊपर की तरफ हाथ जोड़ते हुए कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"चलिए अब, घर चलें!" मैंने कहा,

तभी रमन जी अंदर गए, कमरे में जो कि थोड़ी दूर ही था वहाँ से, और फिर वापिस आ गए, शायद हिसाब करने गये थे, मैंने नहीं पूछा, वे गाड़ी में बैठे, गाड़ी की लाइट्स जलीं और फिर गाड़ी पीछे की, और फिर हम अपने रास्ते चल पड़े!

वापिस घर की और, उन तीनों को लिए!

 

हम घर पहुंचे और फिर अपने कमरे में गए, मैं सीधा स्नान करने चला गया, वापिस आया तो शर्मा जी बैठे थे, रमन जी भी वहीँ थे, विनोद जी जा चुके थे, मेरे वहाँ आते ही शर्मा जी ने सवालों की झड़ी लगा दी! और मैंने एक एक करके उनको उनके सभी सवालों का उत्तर दे दिया! वे संतुष्ट हो गए!

"गुरु जी, सबसे बड़ी बात, उस बेचारे को और उन दोनों को शान्ति मिल जायेगी अब, मेरा तो जी भर उठा उनकी आपबीती सुनकर" रमन जी बोले,

"हाँ, रमन जी, ये तो सही कहा आपने, बेचारा कितने दिनों से भटक रहा था, और रमन जी, इसका श्रेय आपको गया है कि उनको अब शान्ति मिलेगी!" मैंने कहा,

"आप नहीं आते तो कुछ नहीं होता, हम क्या करते, इसीलिए ये श्रेय आपका ही है, मेरा नहीं, हम तो माध्यम ही हैं गुरु जी" वे बोले,

"सबसे अहम् ये कि अब नहीं भटकेंगे वे, अंत हुआ अब उनके भटकाव का!" मैंने कहा,

"हाँ गुरु जी" वे बोले,

अब मैं लेट गया!

रमन जी भी नमस्कार कर उठ गए और शर्मा जी भी लेट गए! मुझे थकावट थी सो मुझे जल्दी ही नींद ने आ घेरा और मैं तो पड़ते ही सो गया! शर्मा जी कब सोये, मुझे नहीं पता चल सका!

सुबह उठे, नित्य-कर्मों से फारिग हुए, स्नानादि से भी और फिर रमन जी और विनोद जी चाय-नाश्ता ले आये, हमने चाय-नाश्ता किया और फिर मैंने रमन जी से कहा,

"रमन जी?"

"जी गुरु जी?" वे बोले,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"हमको जाना होगा भनौट" मैंने कहा,

"भनौट, जी ज़रूर, बताइये कब?" वे बोले,

"आप कब चल सकते हैं?" मैंने पूछा,

"जब आप आज्ञा करें गुरु जी" वे बोले,

"आज ही चलते हैं, हम वहाँ से वापिस चले जायेंगे, और आप यहाँ वापिस आ जाइये" मैंने कहा,

"ये सही रहेगा" शर्मा जी ने कहा,

"जैसी आज्ञा गुरु जी, मैं अभी खाना बनवा देता हूँ, खाना खा के चलते हैं" वे बोले,

"ज़रूर, ठीक है" मैंने कहा,

और फिर हमने अपना अपना सारा सामान सहेजा और अपने अपने बैग में रख लिया, हम खाना खाने के बाद यहाँ से निकलने वाले थे!

और फिर कोई दस बजे करीब हम खाना खाकर हम चार वहाँ से निकल पड़े, उसी छ्त्रसिंह की मंजिल के लिए जहां के लिए वो चला तो था, लेकिन पहुँच नहीं सका था! हम उसी भनौट के लिए निकल पड़े थे, रास्ते से ही जीप में डीज़ल डलवाया और गाड़ी फिर दौड़ पड़ी! भनौट के लिए!

मित्रगण!

करीब साढ़े तीन बजे हम वहाँ पहुँच गए! भनौट अब भी काफी आगे थे, करीब बीस किलोमीटर आगे, हमने एक जगह एक टूटी सी सराय के पास गाड़ी रोक ली, मैंने अपने बैग में से वो मांदलिया निकाल ली, अब आगे का काम मुझे यहीं से करना था! मैंने शर्माजी को सब साझा दिया और वहाँ नीचे एक जगह उतर गया, सामने बड़े बड़े पत्थर पड़े थे, मैंने अब मांदलिया अपने हाथ में ली, और उसके बाद मैंने अपने खबीस इबु का शाही-रुक्का पढ़ा! इबु हाज़िर हुए, मैंने उसको प्रयोजन बताया और फिर वो मांदलिया खोल दी! छिटक कर वे तीनों वहाँ खड़े हो गए, इबु को देख वे घबराये तो लेकिन इबु उनको उठा ले गया अपने साथ, मैं वहीँ खड़ा रह गया! कुछ देर इंतज़ार किया, इंतज़ार जैसे बहुत अधिक हो गया था! और तभी इबु वहाँ हाज़िर हुआ, वे तीनों भी, छ्त्रसिंह मायूस था, मैं जान गया था, कुम्भा तो क्या उसका नामोनिशान भी नहीं मिला होगा उसको, लेकिन मैं जो चाहता था वो कर लिया था, जो छ्त्रसिंह चाहता था वो हो गया था!


   
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श्रीशः उपदंडक
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अब मैंने उनको फिर से मांदलिया में डाल लिया, इबु को वापिस किया, इबु वापिस हुआ, और मैं भी वापिस हुआ, चालीस मिनट हो चुके थे, मैं चढ़ कर ऊपर आ गया, गाड़ी के पास,

"हो गया काम?" शर्मा जी ने पूछा,

"हाँ, पता करवा लिया!" मैंने कहा,

अब गाड़ी स्टार्ट हुई, और मेरे कहने पर गाड़ी अब अलवर की तरफ बढ़ने लगी, हम वहीँ बस-अड्डे तक जाना चाहते थे, ताकि वहा से बस पकड़ें और दिल्ली पहुँच जाएँ, यही हुआ, करीब डेढ़ घंटे में हम बस अड्डे पहुँच गए, यहाँ से हमने रमन जी और विनोद जी से विदा ली, वे बेचारे धन्यवाद कहते नहीं थक रहे थे, लेकिन जाना तो था ही, गले मिले हम और फिर हम दिल्ली की बस पकड़ कर दिल्ली के लिए रवाना हो गए!

मित्रगण!

रात को हम दिल्ली पहुंचे! शर्मा जी मेरे पास ही थे, वहीँ रुके! हमारे बीच बहुत बातें हुईं, कहानी कहाँ से शुरू हुई थी, एक लम्बे इतिहास से और अब कहाँ ख़तम होने वाली थी!

और फिर एक शुभ तिथि आयी, तंत्र में ऐसी कई तिथियाँ आती हैं जब कोई मुक्ति-क्रिया की जाती है! ऐसी ही तिथि आ गयी थी, उस दिन मैंने नियमों का पालन किया और उसी रात छ्त्रसिंह, मुकदी और उस लड़के उद्दू की आत्माओं को मुक्ति-पथ की ओर अग्रसर कर दिया! वे मुक्त हो गए उस भटकाव से! मुझे आत्म-शान्ति मिली, परम शान्ति! इसका कोई मोल नहीं! कोई मोल नहीं!

हाँ, अगले दिन मैंने रमन जी को फ़ोन कर ये सूचना दे दी थी, वे भी प्रसन्न हुए और उसी इतवार को वे दोनों मुझसे मिलने आये भी!

वो छ्त्रसिंह! टोकरी उठाये छ्त्रसिंह मुझे आज भी याद है, कि जैसे कल की ही बात हो! मित्रगण! ऐसे न जाने कितने हैं जो भटक रहे हैं! कब कहाँ टकर जाएँ, कुछ नहीं पता, बस, मैं तैयार हूँ, सर्वदा! सर्वदा!

----------------------------------साधुवाद---------------------------------

 


   
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