वर्ष २०११ संवाई माध...
 
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वर्ष २०११ संवाई माधोपुर की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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"छिपे हुए?" शर्मा जी ने कहा,

"हाँ जी" वे बोले,

"कैसे पता?" उन्होंने पूछा,

"उनका सर ही दिखायी दिया था बस, वे चाहते तो बाहर देख सकते थे" वो बोला,

"हाँ, छिपे हुए होंगे!" मैंने कहा,

"किस से?" शर्मा जी ने पूछा,

"सोचो, वो टोकरी में छिपा के ला रहा होगा किसी को अपने साथ!" मैंने कहा,

"हो सकता है!" वे बोले,

"यही होगा!" मैंने कहा,

"लेकिन किसको?" उन्होंने पूछा,

"ये तो वही बतायेगा!" मैंने हंस के कहा,

"हां जी!" रमन जी ने कहा,

"बड़ा रहस्य है जी संसार में!" विनोद जी ने कहा,

"हाँ! बहुत रहस्य छिपे हैं!" मैंने कहा,

"देखते हैं इसका क्या रहस्य है!" शर्मा जी ने सिगरेट निकालते हुए कहा!

 

और फिर रात हुई! हम सब तैयार हुए वहाँ जाने के लिए, अँधेरा छा चुका था! सो इसीलिए दो बड़ी बड़ी टॉर्च ले ली गयीं, मैंने अपने बैग में से कुछ सामान निकाल लिया था, जिसकी आवश्यकता पड़ने पर ज़रुरत पड़ सकती थी, और फिर हम करीब नौ बजे वहाँ से गाड़ी में बैठ चल दिए खेत की तरफ! सन्नाटा था वहाँ पसरा हुआ, इस समय तक तो आधे से ज्यादा गाँव बिस्तर में घुस चौथाई नींद ले चुका था! और हम अब निलके थे अपने काम पर! हो सकता है कोई लपेटे में आ गया हो, कोई आभास ही मिले! बस इसीलिए हम चल पड़े थे! करीब आधे घंटे में हम वहाँ पहुंचे! सच कहूं तो वे दोनों बहुत घबराये हुए थे! वहाँ बिजली तो थी लेकिन कोई भी रौशनी कहीं नहीं जल रही थी! स्याह अँधेरा नाच रहा था वहाँ लम्बे लम्बे डिग भर के! हर


   
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श्रीशः उपदंडक
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जगह! खेत पर पहुंचे, तो गाड़ी की रौशनी में सामने की भूमि दिखायी दी, और फिर दूर खड़े पेड़ भी! भयावह माहौल था वहाँ!

हम उतरे गाड़ी से नीचे, शर्मा जी ने टॉर्च जलायी और फिर विनोद जी ने भी! घबराहट तो थी उनके मन में लेकिन शर्मा जी को संयत देख वे भी संयत हो गए थे या फिर कोशिश की थी, बारहहाल, सब सही था! हम फिर पगडण्डी पर चलते हुए उनके खेत पर बने कमरे में पहुंचे, दरवाज़े का ताला खोला और सभी अंदर आ गए!

"आप दोनों यहीं रुकिए" मैंने कहा,

"जैसी आज्ञा गुरु जी" रमन जी बोले,

"मैं देख कर आता हूँ वहाँ" मैंने कहा,

"जी" वे बोले,

"आइये शर्मा जी" मैंने कहा,

"चलिए गुरु जी" वे बोले,

और फिर हम बाहर निकले कमरे से और फिर कहे के बीचोंबीच से होते हुए वहीँ उस स्थान के लिए जहां वे पेड़ खड़े थे, पहुँच गए!

गहन सन्नाटा!

अँधेरा अपने चरम पर था!

टॉर्च की रौशनी उसको जहां तक बींधती वो बिंध जाता और अरे-परे और सघन हो जाता! हवा बड़ी मंद चल रही थी, सो पेड़ भी जैसे सारा दृश्य देख रहे हों, ऐसे शांत खड़े थे! अब मैं एक जगह जाकर खड़ा हो गया, शर्मा जी को पीछे रोक दिया, मैंने अब एक मंत्र पढ़ा, और फिर आँखें खोली, कान लगाए सही तरह से, कोई आवाज़ नहीं आयी, किसी की भी, फिर मैंने कलुष-मंत्र पढ़ा, उसको लड़ाया, और अपने नेत्र पोषित किये , फिर चारों ओर देखा, कुछ नहीं दिखायी दिया, कुछ भी नहीं, अभी तक कोई जद में नहीं आया था! मायूसी सी छा गयी दिल पर! वो जो कोई भी था आज नहीं आया था, आता तो अवश्य ही मुझे संकेत मिलते, लेकिन ऐसा कुछ बही नहीं हाथ लगा था! और अब हम फिर से वहीँ आ खड़े हुए थे जहां से चले थे! खाली हाथ!

मैं पीछे आया वापिस, कलुष-मंत्र वापिस किया!


   
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श्रीशः उपदंडक
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शर्मा जी के पास आया!

"कुछ पता चला?" वे बोले,

"नहीं, कोई नहीं आया" मैंने कहा,

"ओह! नहीं आया वो आज" वे बोले,

"हाँ" मैंने कहा,

"अब?" वे बोले,

"अब! अब इंतज़ार!" मैंने कहा,

और फिर हम वापिस आ गए उसी कमरे में, वे बेसब्री से राह देख रहे थे! आते ही उन्होंने अपने अपने ढंग से सवाल पूछने शुरू किये तो शर्मा जी ने सारी बातें उनको जो अब तक हुईं थीं वो बता दीं! वे सुनते रहे, और क्या कर सकते थे!

खैर,

हम वहाँ से तभी वापिस हुए, दरवाज़े को ताला लगाया और फिर गाड़ी में बैठ वापिस आ गये! खाली हाथ आना हमेशा कचोटता है और अब भी कचोट रहा था, लेकिन किया भी कुछ नहीं जा सकता था, मन ही मार कर बैठ जाना था सो बैठ गए!

घर आये और फिर अपने कमरे में आये सीधे, जूते खोले और लेट गए अपने बिस्तर पर! अभी तक ये बात निकली नहीं थी ज़हन से कि वो क्यों नहीं आया?

"वैसे गुरु जी एक बात पूछूं?" शर्मा जी ने पूछा,

"हाँ?" मैंने कहा,

"वो, दो हफ्ते होने को आये आया नहीं, कोई कारण?" उन्होंने पूछा,

"कुछ नहीं कहा जा सकता!" मैंने कहा,

"कोई वजह?" उन्होंने और कुरेदा!

"बताता हूँ, जब भी कोई आत्मा भटकती है तो वो पल पल उसी समय-कण में जीती है, विचरण करती है, बार बार वहाँ आती है जो उस से सम्बंधित होता है, ये जगह उस से सम्बंधित है या नहीं, ये नहीं पता, लेकिन उसने एक गाँव का पता पूछा, भनौट, और बहनौत


   
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श्रीशः उपदंडक
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यहाँ दूर दूर तक है नहीं, अब वो भनौट को ही ढूंढ रहा होगा, भनौट का रास्ता! वही ढूंढ रहा होगा! आएगा, वो यहाँ भी आएगा!" मैंने कहा,

"आएगा?" उन्होंने पोछा,

"वो एक बार नहीं, दो तीन बार आया है न! तो इस बार भी आएगा!" मैंने कहा,

"हाँ! आये तो कुछ पता चले, सबसे बड़ी बात है उसकी वो टोकरी!" वे बोले,

"हाँ, पता चले क्या है उसमे" मैंने कहा,

"कोई दर्दभर ही कहानी लगती है उसकी!" वे बोले,

"हो सकता है" मैंने कहा,

"इन्होने बताया न, कि वो किसी को छिपा रहा था उसमे!" वे बोले,

"हाँ, अब न जाने कौन हैं वो!" मैंने कहा,

"पता नहीं, अभी तो सब रहस्य ही है!" वे बोले,

"हाँ शर्मा जी!" मैंने कहा,

"वैसे गुरु जी एक बात तो है!" वे बोले,

"क्या?" मैंने कहा,

"वो आएगा तो ज़रूर! क्योंकि उसने जिसको छिपाया है टोकरी में, वो उनको कहीं सुरक्षित स्थान तक ज़रूर छोड़ेगा!" वे बोले,

"हाँ! कुम्भा बांकुरा!" मैंने कहा,

"हाँ!" वे बोले,

और फिर ऐसे ही बातें करते करते, अपनी अपनी बात कहते, उत्तर देते हम सो गए! अब जो होना था वो कल!

और हुई जी फिर सुबह! हम जल्दी ही उठ गए थे, नित्य-कर्मों से फारिग हुए और स्नानादि से भी, तभी रमन जी गर्मागर्म चाय ले आये! साथ में कचौड़ियाँ भी, हमने मजे से नाश्ता किया, चाय भी बढ़िया थी और कचौड़ियां भी! उसके बाद हम बैठ गए वहीँ, कमरे में ही, रमन जी के


   
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श्रीशः उपदंडक
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घर में कोई आया था शायद कोई पडोसी होगा, उसी से कुछ इधर-उधर की बातें कर रहे थे रमन जी, और फिर विनोद जी भी आ गए, नमस्कार हुई और वे हमारे साथ आ बैठे!

"आज चलेंगे गुरु जी वहाँ?" उन्होंने पूछा,

"हाँ जी" मैंने कहा,

"ठीक है जी, वैसे दोपहर में जाना है हमको वहाँ, शहर से एक नयी बेल्ट मंगवाई थी, वही लगवानी है, तब जाकर कहीं पानी का काम शुरू होगा" वे बोले,

"अच्छा! अच्छा!" मैंने कहा,

"खाना खा कर चलते हैं फिर" वे बोले,

"ज़रूर!" वे बोले,

और फिर दोपहर भी आ गयी,

खाना भी खा लिया, और फिर हम चारों चले वहाँ, खेत की तरफ, गाड़ी चली धीरे धीरे, और हम भी हिचकोले खाते खाते उसके साथ चल पड़े! पहुँच गए खेत पर! सीधे कमरे में ही पहुंचे, पानी की बोतल और बेल्ट आदि सामान उतार लिया गया, और हम बैठ गए वहाँ! वहाँ तखत बिछा था सो उसी पर बैठ गए, खेस पहले से ही बिछा था, जूते उतार मैं और शर्मा जी वहीँ बैठ गए, और वे दोनों अपने अपने काम में लग गए!

मैं और शर्मा जी बातें करते रहे और यही कोई आधा घंटा बीता गया और तभी अचानक वे दोनों मेरे पास भागते भागते आये!

"क्या हुआ?" मैंने पूछा,

"वो...वो सामने झुरमुटे के पास..." वे बोले,

मैं खड़ा हुआ, अपने जूते पहने, शर्मा जी भी खड़े हुए और उन्होंने अपने जूते पहने और हम बाहर आ गए! मैंने देखा सामने उन्ही पेड़ों के झुरमुटे के पास एक आदमी खड़ा था, सर पर टोकरी उठाये! इधर ही देखता हुआ! उसके कद को देखकर लगता था कि जैसे कोई लम्ब-तड़ंग पहलवान है!

"आइये शर्मा जी!" मैंने कहा,

"चलिए!" वे भी बोले,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"मैं जहां कहूं रुकने को आप रुक जाना, आगे नहीं बढ़ना!" मैंने कहा,

"जी गुरु जी" वे बोले,

और हम धीरे धीरे आगे बढ़े!

अब मैंने शर्मा जी को हाथ के इशारे से रुकने को कह दिया! वे रुक गए!

जैसे ही मैं अब उसके पास गया, उसने टोकरी को नीचे रखा और टोकरी के आगे आ कर खड़ा हो गया! उसने अपनी बगल में से एक चाक़ू निकाल लिया! चेहरा भयानक था उसका! मरने मारने को तैयार!

"कौन हो तुम?" मैंने पूछा,

उसने कोई उत्तर नहीं दिया!

बस वैसे ही डटा रहा!

"कौन हो तुम?" मैंने फिर से पूछा,

कोई उत्तर नहीं!

मैं टोकरी में होती हलचल देखी, कोई था उसमे, एक का सर दिखायी दे रहा था, बीच में मांग थी और मांग में सिन्दूर, ये कोई स्त्री ही थी! टोकरी काफी बड़ी थी!

"क्या चाहते हो?" मैंने पूछा,

उसने अब भी कोई जवाब नहीं दिया!

"मेरे तुमसे लड़ने झगड़ने या कोई नुक्सान पहुंचान एक कोई इरादा नहीं है, न

अनुभव क्र. ६४ भाग २

By Suhas Matondkar on Sunday, September 14, 2014 at 12:52pm

मेरे पास कोई हथियार ही है, ये देखो" मैंने अपने दोनों हाथ ऊपर करते हुए कहा,

उसने मेरे हाथ देखे और फिर अपना चाक़ू वाला हाथ पीछे किया!

"अब बताओ कौन हो तुम?" मैंने पूछा,

उसने अब भी कोई उत्तर नहीं दिया!


   
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श्रीशः उपदंडक
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अब मैं वहाँ बैठ गया! ताकि उसको मेरे ऊपर विश्वास हो जाए!

"बताओ, कौन हो तुम?" मैंने पूछा,

उसने मुझे गौर से देखा, फिर शर्मा जी को भी देखा और फिर वो भी बैठ गया, उकडू!

"डरो नहीं, मुझे बताओ, कौन हो तुम, कहाँ जाओगे?" मैंने पूछा,

"भनौट" उसने कहा,

बहुत धीरे से बोला था वो, यदि ये शब्द मैंने सुना नहीं होता तो मुझे समझ भी नहीं आता!

"भनौट! अच्छा! कोई गाँव है ये?" मैंने पूछा,

"हाँ" उसने कहा,

"किसके पास जाओगे?" मैंने पूछा,

"कुम्भा बांकुरा" वो बोला,

"भनौट में ही रहता है वो?" मैंने पूछा,

"हाँ" उसने भोलेपन में जवाब दिया!

अब तक उसे मुझपर विश्वास हो चला था, उसने चाक़ू रख लिया बगल में वापिस!

"कहाँ से आ रहे हो?" मैंने पूछा,

"बेड़वा" उसने कहा,

"अच्छा!" मैंने कहा,

वो लगातार मुझे देखे जा रहा था! लगातार! बिना पलक झपकाए!

"इस टोकरी में कौन है?" मैंने पूछा,

और जैसे मैंने पूछ कर कोई बवाल खड़ा कर दिया! वो खड़ा हो गया, वो खड़ा हुआ तो मैं भी खड़ा हो गया! उसने टोकरी उठाने की कोशिश की तो मैंने कहा, "सुनो? कहाँ जा रहे हो? भनौट नहीं जाना क्या?"

वो रुक गया!

"रास्ता बता दो" उसने अब विनती से और हाथ जोड़कर कहा!


   
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श्रीशः उपदंडक
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बेचारा!

"बता दूंगा! बता दूंगा!" मैंने कहा,

वो चुपचाप खड़ा रहा!

"नाम क्या है तुम्हारा?" मैंने पूछा,

उसने आसपास देखा, जैसे कोई सुन न ले!

"छत्रसिंह" उसने कहा,

"अच्छा!" मैंने कहा,

"बहुत दूर से आ रहे हो लगता है!" मैंने कहा,

"हाँ" उसने कहा,

"ये कुम्भा बांकुरा आपका दोस्त है?" मैंने पूछा,

"बहनोई है" उसने कहा,

''अच्छा! कुम्भा आपका बहनोई है!" मैंने कहा,

"हाँ" वो बोला,

"तो यहाँ कौन से रास्ते से आ गए? भनौट वाला रास्ता तो पहाड़ी के पीछे से है" मैंने कहा,

"वहाँ देख लिया" उसने कहा,

"नहीं मिला?'' मैंने पूछा,

"नहीं" उसने कहा,

"अब समझा मैं! इसीलिए रास्ता भटक गए हो आप!" मैंने कहा,

वो समझ ही नहीं सका!

वो तो अपने सही रास्ते पर था! हाँ मित्रगण! वो सही रास्ते पर था! भनौट गाँव पड़ता है जिला अलवर राजस्थान में! मैंने भनौट के विषय में जानकारी जुटाई थी! तभी मुझे पता चला था, वो सही रास्ते पर था, लेकिन भनौट वहाँ से बहुत दूर था! बहुत दूर! और वो जहां से आया था वो भी बहुत दूर था! बेड़वा गाँव जिला बांसवाड़ा तहसील गढ़ी में पड़ता है! वो वहाँ का था!


   
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श्रीशः उपदंडक
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इतनी लम्बी यात्रा! वो भी इनको लेकर! नहीं वो ठहरता ठहरता आया था, लेकिन किसलिए? यही जानना था! और ये ज़रूर भी था! ये बेचारा उन दोनों के साथ जो इसको टोकरी में थे, भटक रहा था, कब से, ये आगे खुल जाना था!

 

"हाँ, आप रास्ता भटक गए हो, यही लगता है मुझे!" मैंने कहा,

वो नहीं समझ पाया!

भटका कैसे?

वो तो सही जा रहा था!

दरअसल वो सही था, मैं ही उसको भटका रहा था!

जैसा मैं चाहता था!

"छ्त्रसिंह, आपकी मैं कोई मदद कर सकता हूँ?" मैंने पूछा,

भौंचक्का बेचारा!

किस आदमी से पाला पड़ गया आज उसका!

"बताओ छ्त्रसिंह?" मैंने पूछा,

अब क्या बोले वो!

"आओ, आओ मेरे साथ!" मैंने कहा,

"नहीं! नहीं!" अब वो जैसे डरा!

"डरो मत!" मैंने कहा,

"नहीं" वो बोला,

बेचारा अपनी टोकरी उठाने लगा!

"रुको! भनौट बहुत दूर है यहाँ से, कम से कम तीन रात और चार दिन का रास्ता है, तुम गलत रास्ते से आये हो! मैंने कहा,

उसने पीछे मुड़कर देखा!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"डरो नहीं, मैं ले जाऊँगा आपको वहाँ, ये भी सुरक्षित रहेंगे!" मैंने कहा,

"नहीं! नहीं!" वो डर गया!

उसने टोकरी उठा ली, उसने संतुलन बनाया!

"सुनो? सुनो?" मैंने कहा,

वो झप्प से लोप हुआ!

बहुत डर गया था, मैं समझ सकता था!

लेकिन मैं बहुत कुछ समझ गया था! वो भटका हुआ था, उसके साथ कोई दर्द भरी कहानी जुड़ी थी! और अब मुझे ये जानना था! और इसका पता मुझे बताने वाला था वो भाले का फाल! लेकिन इसके लिए मुझे एक शमशान या शिवाने की आवश्यकता थी, जहां से मैं एक क्रिया कर सकता था! मैंने उसको देख लिया था और ये पर्याप्त था, अब मैं इस कहानी के पेंच निकाल सकता था बाहर!

अब मैं वापिस हुआ!

शर्म जी तक आया!

"गया वो?" वे बोले,

"हाँ" मैंने कहा,

"कुछ बताया उसने?" उन्होंने पूछा,

"हाँ, जो मैं जानना चाहता था वो सब बता दिया उसने, जो रह गया है, वो अब जान लूँगा!" मैंने कहा,

"चलो ठीक है" वे बोले,

"आइये" मैंने कहा,

"लेकिन गुरु जी?" वे बोले और रुके,

"हाँ?" मैंने भी रुका,

"इसके लिए आपको स्थान नहीं चाहिए?" उन्होंने पूछा,

"चाहिए" मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"मैं बात करता हूँ अभी रमन जी से" वे बोले,

"हाँ ठीक है" मैंने कहा,

और हम चल पड़े वापिस!

कमरे में पहुंचे!

वे बेसब्री से इंतज़ार कर रहे थे, शर्मा जी ने सारी बात बता दी उनको, सुनकर वे भी गम्भीर हुए!

"अरे रमन जी?" शर्मा जी ने कहा,

"जी?" वे बोले,

"यहाँ कोई श्मशान या सिवाने हैं क्या?" शर्मा जी ने पूछा,

"हाँ जी, है तो, यहाँ से कोई चार किलोमीटर होगा" वे बोले,

"कौन सञ्चालन करता है उसका?" उन्होंने पूछा,

"जी हैं एक महाब्राह्मण, वहीँ रहते हैं" वे बोले,

"क्या अभी बात हो सकती है उनसे?" उन्होंने पूछा,

"हाँ जी, क्यों नहीं" वे बोले,

"चलें क्या?" उन्होंने पूछा,

"बस अभी चलते हैं, ज़रा सा काम बाकी है" वे बोले,

"कोई बात नहीं" वे बोले,

और फिर करीब आधे घंटे के बाद हम घर पहुंचे, वहाँ से हमने अपना सामान उठाया, और फिर चल पड़े उस श्मशान की ओर!

हम एक घंटे में पहुंचे वहाँ!

ये जगह शांत और बढ़िया था! एक बार में ही मन में बस गयी! बस काम बन जाए वहाँ! यही सोचा मैंने!

"मैं आया अभी गुरु जी" रमन जी ने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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अब वे गये वहाँ अंदर बात करने! हम वहीँ गाड़ी में बैठे रहे, करीब दस मिनट में वे आये और मुझे बुलाया, मैं उतरा और शर्मा जी भी और हम चल पड़े अंदर! वहाँ वे महोदय बैठे थे, उन्होंने मुझ से अनेक प्रश्न किये मैंने उनके हर प्रश्न का उत्तर दिया, आखिर बात बन गयी, बस इतना कि बलि-कर्म नहीं होगा वहाँ, सो तो करना ही नहीं था, सो मना कर दिया मैंने भी! और फिर कुछ पैसे आदि देकर बात तय हो गयी! अब हमे यहाँ रात को आना था, और वहाँ से निकल पड़े हम!

अब स्थान का प्रबंध हो गया था और अब मुझे क्रिया के लिए सामग्री लेनी थी, सो हम शहर चले गये सामान लेने के लिए, बाज़ार पहुंचे, बढ़िया बाज़ार था, पुराने क़िस्म का! मैंने सारा सामान ले लिया और फिर वहाँ हमको रमन जी ने कुछ कचौड़ियां और कुछ और भी खिलाया और फिर चाय! मजा आ गया! अब हम चले अपने गाँव की तरफ! आज सारा नतीजा निकाल देना था!

 

दिन का अवसान हुआ और फिर संध्या ने पाँव पसारे, मैंने अपना सारा सामन जांचा, अपने तंत्राभूषण आदि तैयार किया और अन्य सामान भी, आज 'पकड़' क्रिया थी, तो इस से सम्बंधित मैंने सारा सामान तैयार कर लिया, स्नान के लिया गया और स्नान कर वापिस आया, वस्त्र पहने, तब तक हल्का-फुल्का खाना बनवा लिया था रमन जी ने सो थोड़ा बहुत खा लिया और ठीक नौ बजे हम वहाँ से निकल पड़े श्मशान के लिए, करीब एक घंटा लगा हमको वहाँ पहुँचने में, एक सेवादार ने दरवाज़ा खोला और एक बरगद के नीचे गाड़ी खड़ी कर दी, मैंने अपना सामान उतारा और वहीँ रख दिया, फिर रमन जी अंदर गए उन महाब्राह्मण से मिलने के लिए, वे बाहर आये और उन्होंने एक देवक भेजा मेरे साथ, खुशकिस्मती से एक चिता अभी भी सुलग रही थी, मुझे वहीँ उसके पास ही स्थान दे दिया गया, अब मैंने वहाँ तैयारिया कीं, मैंने सबसे पहले अपने माथे पर उस चिता की भस्म रगड़ी, मंत्र पढ़ते हुए! फिर उठने से पहले एक परिक्रमा कर उसको नमन किया! फिर एक जगह आकर मैंने अपना त्रिशूल गाड़ दिया, अलख बना ली, चिता की लकड़ियों से ही और मंत्र पढ़कर अलख नमन किया, अघोर-पुरुष नमन किया और फिर गुरु नमन! जगह बहुत अच्छी थी, छोटा सा श्मशान और सुंदर श्मशान! मैंने चारों ओर देखा, शांत! शांत माहौल था वहाँ, आदमी क्या कोई पशु भी नहीं था वहाँ! पक्षी भी अपने अपने घरौदों में रात काट रहे थे! निशाचर जीव अपने अपने नित्य-कर्म पर निकल चुके थे!

अब मैंने एक महामंत्र पढ़ा! और मैंने अलख को भोग दिया! मैंने आने से पहले वो भाले का फाल अपने पास रख लिया था, वो मैंने अब अपने सामने रखा! और अब 'पकड़' क्रिया आरम्भ की! खबीस यहाँ आ नहीं सकता था, वो चिता वाले स्थान में प्रकट नहीं होता! तो मुझे उस छ्त्रसिंह


   
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को पकड़ने के लिए एक और ताक़तवर ताक़त चाहिए थे और ये था बौराड़! खोजी और जुझारू! ये एक महाप्रेत होता है, उच्च कोटि का! ये सामान्यतया मनुष्यों से बैर नहीं रखता! बेहद शक्तिशाली होता है, अक्सर काले रूप में प्रकट होता है, कभी कभी कटी-फटी देह के रूप में प्रकट होता है! जब ये मानस-देह धरता है तब इसमें सभी स्थूल-तत्व गुण विद्यमान होते हैं, अंतर करना सम्भ्व नहीं होता!

अब मैंने उसका ही आह्वान किया! भोग समक्ष रखा, मरे मंत्र तीव्र नहीं थे, सरल ही मंत्र होते हैं बौराड़ के! और मैं जैसे जैसे मंत्र पढता गया वैसे वैसे बौराड़ जागृत होने लगा! वायु मेरे स्थान पर बहने लगी तेज! धूल और मिट्टी उड़ने लगी! और कोई आधे घंटे में बौराड़ अट्ठहास करता हुआ वहाँ प्रकट हो गया! काले लिबास में, न चेहरा दिखा न कोई अन्य अंग! यही है बौराड़! कई मन्त्रों में बौराड़ का नाम भी आता है जब किसी व्यक्ति कोई डाकिनी-बाधा हो जाया करती है तो!

मैं खड़ा हुआ!

उसको भोग अर्पित किया!

उसने मेरे से प्रयोजन पूछा,

मैंने उसको प्रयोजन बता दिया!

उसको वो फाल भी पकड़ा दिया, तब उसका हाथ मुझे दिखायी दिया, मेरी जांघ और उसकी कलाई! इतना ताक़तवर! लेकिन मन्त्रों में बंधा! उसने फाल को छुआ और नीचे फेंक के मारा और उड़ चला मिट्टी उड़ाते हुए!

मैं बैठ गया!

बौराड़ रवाना हो चुका था!

अब मुझे प्रतीक्षा थी!

मैंने झट से अपनी मांदलिया निकाल ली, उसको कपडे से साफ़ किया! और अपने सामने रख दिया!

कुछ समय बीता!

और फिर मेरे सामने बौराड़ प्रकट हुआ! टोकरी उठाये डरा-सहमा छ्त्रसिंह! उसको बौराड़ ने उसकी गुद्दी से पकड़ा हुआ था! उसने उसको मेरे सामने लाकर धक्का दे दिया! मैंने फ़ौरन ही


   
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श्रीशः उपदंडक
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पाश-मंत्र पढ़कर जड़ कर दिया उन प्रेतात्माओं को! मैंने बौराड़ की प्रशंसा की, किसी भी प्रेत, महाप्रेत को उसकी प्रशंसा बहुत भाति है, मात्र इसी से ही वो मित्रता पाल लिया करते हैं! उसके बाद अपना भोग ले वहाँ से बौराड़ लोप हुआ! उसने अपना काम कर दिया था!

अब रह गए हम चार वहाँ पर!

मैं, छ्त्रसिंह और टोकरी में बैठी वो दोनों प्रेतात्माएं! वे अभी भी छिपी हुईं थीं! और आँखें फाड़, हैरत से छ्त्रसिंह मुझे देख रहा था!

वो सब समझ गया!

"मुझे छोड़ दो, भनौट जाना है" वो हाथ जोड़कर बोला,

सच में, मुझे उसके भोलेपन पर बहुत तरस आया उस समय! एक लाचार प्रेत! विनती करता हुआ!

मैं बैठ गया अपने आसन पर!

"भनौट बहुत दूर है छ्त्रसिंह!" मैंने बताया उसको,

"मुझे छोड़ दो, मैं अब नहीं आउंगा वहाँ, मुझे रास्ता बता दो, मैं चला जाउंगा" उसने कहा,

फिर से विनती!

फिर से मेरा दिल पसीजा!

"कैसे जाओगे?" मैंने पूछा,

"मैं चला जाऊँगा" वो बोला,

"कोई पकड़ लेगा" मैंने कहा,

उसने चाक़ू निकाला और मुझे दिखाया,

मैं मुस्कुराया!

"छ्त्रसिंह! मैंने अभी तुमको उठवाया है, ऐसे कोई भी उठा लेगा तुमको! तुम सच्चाई से अनभिज्ञ हो, नहीं जानते हो कुछ भी!" मैंने कहा,

वो मायूस!

शायद समझ नहीं सका!


   
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"छ्त्रसिंह, इस टोकरी में कौन है?" मैंने पूछा,

अब वो और डरा!

"मैं कोई नुक्सान नहीं पहुंचाऊंगा तुमको और इनको भी, मैं वचन देता हूँ" मैंने कहा,

अब बोले नहीं वो!

मैंने बहुत पूछा! नहीं माना!

"देख छ्त्रसिंह! मैंने कहा न, मैं नुक्सान नहीं पहुंचाऊंगा!" मैंने कहा,

अब उसने टोकरी में बैठे, छिपे दोनों लोगों से बात की, उसने नाम लिया, "मुकदी'' (या मुकुन्दी बोला था) और फिर दो तीन बार और लिया, टोकरी में से एक औरत खड़ी हो बाहर आ गयी, चेहरा ढके! उसने फिर से एक नाम लिया "उद्दू" (नाम उदय होगा उसका)अब एक लड़का, पतला सा, सर पर साफ़ बांधे बाहर आया!

"कौन हैं ये?" मैंने पूछा,

"मेरी बहन और उसका लड़का" वो बोला,

अब मेरा दिमाग घूमा! मैं सन्न! वो अपनी बहन और भांजे को छिपा रहा था! ओह! किसलिए?

 

मुझे अचरज तो हुआ बहुत! वो इनको छिपा क्यों रहा था? किसी का डर था क्या? क्या कारण था?

"छ्त्रसिंह, तुम इन्हे छिपा क्यों रहे हो?" मैंने पूछा,

उसने आसपास देखा, झुककर देखा!

"कुशहा पीछे पीडीए है हमारे, मार देगा, बहुत मारे गए हैं, मैं बचा के लाया इनको, अब छोड़ने जा रहा हूँ कुम्भा बांकुरा के पास, इस मुकदी की ससुराल है वहाँ" वो बोला,

"ओह!" मरे मुंह से निकला!

बेचारा! बचा कर ला रहा होगा इनको और ये हाथ लग गये होंगे किसी के, वार पीछे से या अकस्मात् हुआ होगा, पता भ नहीं चल होगा! निरीह लगे अब वे मुझे सभी, सबी वे तीनों!

"कौन है ये कुशहा?" मैंने पूछा,


   
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