वर्ष २०११ संवाई माध...
 
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वर्ष २०११ संवाई माधोपुर की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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वर्ष २०११ संवाई माधोपुर की एक घटना…..शाम का धुंधलका छा चुका था जब हम रेलवे स्टेशन पर उतरे तो, गर्मी का मौसम था, वैसे इतने बजे शाम तो नहीं होती अक्सर लेकिन उस दिन ऐसा लगा हमे, खैर, हम उतरे गाड़ी से, अपना सामान उठाया और बाहर की तरफ चले, हमको रमन जी लेने आने वाले थे, उनको बता दिया था कि हम इस दिन आ रहे हैं और चलने से पहले भी खबर कर दी थी उनको, सो वो बाहर ही मिलने वाले थे हमको, हमने रेलवे का पुल पार किया और फिर बाहर आ गए, बाहर आये तो रमन जी का फ़ोन आया शर्मा जी के पास, उनकी बात हुई और हम उनकी बतायी हुई जगह पर ही चल पड़े, और वहाँ सामने ही हमको रमन जी खड़े मिले, साथ में उनके छोटे भाई विनोद भी आये थे, नमस्कार हुई और हम जीप में बैठ गए और गाड़ी चल पड़ी उनके गाँव के लिए! बातचीत हुई कि कोई दिक्कत परेशानी तो नहीं हुई हमको सफ़र में आदि आदि!

करीब पौने घंटे में हम हम उनके गाँव में प्रवेश कर गए, अब तक शाम घिर चुकी थी और बत्तियां भी जलने लगी थीं घरों की, और तभी रमन जी ने गाडी एक बड़े से अहाते में लगा दी, यही मकान था उनका, मकान क्या पुरानी सी हवेली थी, अपनी शानोशौक़त को अब तक बरकार रखे हुई थी! दीवारें गवाह थीं उसकी! मजबूत और मोटी मोटी दीवारें!

"आइये गुरु जी" रमन जी ने कहा,

और विनोद साहब ने मेरा सामान उठाने का आग्रह किया तो मैंने मना कर दिया, हम फिर रमन सिंह जी के घर में चले गए, उनकी धर्मपत्नी आयीं, मिलीं हमसे और फिर उनकी दो बड़ी बेटियां भी मिलीं, बेटा भी मिला, नमस्कार हुई और रमन जी हमको एक कमरे में ले गए, कमरे में एक डबल-बैड बिछा था और तीन कुर्सियां भी थीं, वहीँ पुरानी आलिशान कुर्सियां! मजबूत पुश्त वाली कुर्सियां! अभी भी चमक बाकी थी उनमे! मैंने सामान एक तरफ रख दिया, फिर हम बैठ गए! मैंने कमरा देखा, बड़ा कमरा था, अंग्रेजी ज़माने का सा कमरा लगता था वो!

"आइये गुरु जी, हाथ-मुंह धो लीजिये" रमन जी ने कहा,

"हाँ, हाँ!" मैंने कहा,

और अब मैं खड़ा हुआ, संग शर्मा जी भी खड़े हो गये!

हमने हाथ-मुंह धोये अपने और फिर तौलिये से पोंछे, उसके बाद हम वापिस अपने उसी कमरे में आ बैठे!


   
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श्रीशः उपदंडक
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उनकी बेटी पानी ले आयी थी, हमने पानी पिया,

"ये मेरी छोटी बेटी है नुपुर, अभी इसने स्नातक की परीक्षा उत्तीर्ण की है" वे बोले,

"बहुत बढ़िया!" मैंने कहा,

बिटिया भी मुस्कुरायी!

चली गयी फिर गिलास और जग लेकर!

और तभी चाय आ गयी! चाय के साथ नमकीन, मिठाई और कचौड़ी आदि थीं, हमने लज्ज्त से खायीं और चाय पी! अब जाकर राहत सी हुई!

अब जूते खोल हम लेट गए बिस्तर पर!

कमर सीधी करनी थी इसीलिए, गाड़ी में बैठे बैठे आये थे इसीलिए! अब जाकर कमर सीधी हुई थी!

"हाँ, रमन जी, वो लेकर आइये?" मैंने कहा,

"हाँ जी" वे बोले,

उन्होंने विनोद जी को भेज दिया वो लेने जो फेंक के मारी गयी थी रमन जी पर, उनके खेत में!

मित्रगण! अब मैं आपको बताता हूँ कि हम यहाँ क्यों आये थे, दिल्ली से यहाँ, इस गाँव में!

हमारे यहाँ आने से एक हफ्ते पहले की बात है, मेरे एक जानकार जो कि गंगापुर में रहते हैं, उनका फ़ोन आया कि उनके एक जानकार हैं, बेहद पुराने, सहपाठी रहे हैं, उनको कुछ समस्या है, मैंने उनसे कहा दिया था कि वो मुझसे संपर्क कर लें, और उसी दिन शाम को रमन जी का फ़ोन आ गया मेरे पास, उन्होंने जो बताया था वो बड़ा ही अजीबोगरीब था! फ़ोन पर बात पूरी और सही नहीं हो पाती सो मैंने उनको यहाँ दिल्ली बुला लिया, और वे दो दिन बाद दिल्ली आ गए मुझसे मिलने! साथ में उनके विनोद जी भी थे, उनके छोटे भाई, उन्होंने बताया कि कोई महीने भर पहले की बात होगी उनके खेत में विनोद के साथ एक अजीब सा वाक़या पेश आया!

"कैसा वाक़या?" मैंने पूछा उनसे,

उन्होंने विनोद की तरफ देखा,

और विनोद ने खखार के गला साफ़ किया अपना पहले और फिर बोलना शुरू किया, "गुरु जी, एक शाम की बात है, मैं खेत में ही था उस शाम, मैं खेत में बने अपने कमरे में बैठ हुआ था, तभी


   
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श्रीशः उपदंडक
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मुझे कुत्तों के भौंकने की आवाज़ आयी, मैंने सोचा कोई जानवर होगा और ध्यान नहीं दिया, लेकिन फिर शोर बढ़ता चला गया, मैं उठकर बाहर आया, बाहर आसपास देखा तो कोई नहीं था, फिर कुत्तों को देखा, वे एक दिशा में देख भौंक रहे थे, वहाँ पेड़ लगे हैं, मैंने देखा वहाँ एक आदमी खड़ा है, सर पर एक टोकरी सी उठाये! मैंने आवाज़ देकर पूछा कि कौन है? लेकिन कोई उत्तर नहीं आया, तब मैंने सोचा कि गाँव का ही कोई होगा, लेकिन फिर सोचा गाँव का ही होता तो जवाब तो देता? फिर सोची मैंने कि उसके पास ही जाऊं, मैं उसके पास जाने लगा, वो मुझे आते देख मेरी तरफ ही घूम गया!" वे बोले,

"अच्छा! फिर?" मैंने पूछा,

"फिर जी मैं उसके पास गया, वो तो पत्थर सा खड़ा था वहाँ! मैंने पूछा कि कौन हो भाई आप? लेकिन उसने कोई जवाब नहीं दिया!" वे बोले,

"अच्छा! वेश-भूषा कैसी थी उसकी?" मैंने पूछा,

"जी देहाती ही लगता था मुझे तो, उसने सफ़ेद रंग का कुरता और नीचे धोती पहन रखी थी और जूतियां थीं, लाल रंग की" वे बोले,

"और कुछ विशेष?" मैंने पूछा,

"हाँ जी, कान में बालियां थीं सोने की, और गले में मानकों की माला थी, माला शायद दो तीन तो होंगी ही!" वे बोले,

"कुछ बात हुई उस से" मैंने पूछा,

"नहीं जी, उसके सर पर जो टोकरी रखी थी वो भारी थी शायद, वो बार बार उसको खिसकाता था" वे बोले,

"क्या था टोकरी में?" मैंने पूछा,

"पता नहीं जी" वे बोले,

"फिर?" मैंने पूछा,

"मैंने उस से कई बार पूछा, कौन हो, कहाँ से आये हो, कहाँ जाओगे, लेकिन वो कुछ नहीं बोला!" वे बोले,

"हूँ! फिर?" मैंने पूछा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"जी मैं फिर वहाँ से वापिस चल दिया, मैंने सोचा होगा कोई कुछ बेचने वाला, और मैं चल पड़ा वापिस, अभी आधे रास्ते में ही था मैं, कि मैंने पीछे देखा, वो वहाँ नहीं था!" वे बोले,

"अच्छा!" मैंने कहा,

"मैंने उसको तलाश भी किया, देखा भी, इतनी जल्दी कोई कैसे वहाँ से जा सकता है भला? लम्बा चौड़ा मैदान, कहाँ जाएगा वो? मैंने सोचा कि शायद मुझे वहम हुआ है और मैं वापिस चल पड़ा और अपने कमरे में आ गया!" वे बोले,

"अच्छा! फिर?" मैंने पूछा,

तब पानी माँगा विनोद साहब ने, मैंने पानी का गिलास उनको उठा के दे दिया!

 

पानी पी लिया था विनोद जी ने, फिर से गला साफ़ किया खांस कर और कुर्सी की कमर से पीठ लगा ली और बोले, " लेकिन मैंने सोचा कि इतनी जल्दी कोई कैसे गायब हो सकता है? कहीं कोई भूत-बाधा तो नहीं? यही सोच के मुझे भय चढ़ गया, मैं वहाँ से कमरा बंद कर सीधा घर के लिए निकल पड़ा, बार बार वहाँ देखता जहां वो आदमी था" वे बोले,

"तो आप घर आ गए वापिस?" मैंने पूछा,

"हाँ जी" वे बोले,

"अच्छा" मैंने कहा,

"घर आकर मैंने सारी बात भाई साहब से बताई, इन्होने इसको मेरा वहम बताया पहले तो लेकिन फिर जब मैंने उनको बताया कि कोई उस मैदान से इतनी जल्दी कैसे गायब हो सकता है एक-दो मिनट में ही तो ये माने फिर!" वे बोले,

अब मैंने रमन जी को देखा,

"आपने क्या देखा था पहली बार?" मैंने पूछा,

"गुरु जी, कोई दोपहर की बात होगी उस दिन, मैं खेत पर ही था, उसी कमरे में, मैं वहाँ एक बेल्ट बदलने आया था, और काम कर रहा था, तभी मैंने कुत्तों के भौंकने की आवाज़ सुनी, सभी एक साथ भौंक रहे थे, मुझे विनोद ने जो बताया था मुझे उसका ध्यान आया, मैं बाहर गया, वहीँ पेड़ों की तरफ देखा तो वैसा ही एक आदमी खड़ा था वहाँ जैसा विनोद ने बताया था, पहले तो मेरी घिग्घी बंध गयी, फिर जी मैंने चालीसा पढ़ा और पढ़ते हुए उसके पास जाने को


   
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श्रीशः उपदंडक
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तैयार हुआ, बड़ी हिम्म्त जुटाई जी मैंने, जब में उसके पास जा रहा था तो वो आदमी मेरी तरफ ही आने लगा, मैं तो डर गया था, डर के मारे चालीसा भी भूल गया! बस कांपने की देर थी गुरु जी!" वे बोले,

"अच्छा! फिर क्या हुआ?" मैंने पूछा,

मुझे उत्सुकता बहुत हो गयी थी उस समय!

"वो मेरे पास आया, कोई चार फीट पर रुक गया, लम्बा-चौड़ा जवान आदमी था वो, उम्र रही होगी कोई तीस के आसपास, दाढ़ी और मूंछें भारी थीं उसकी स्याह काली! उसने एक भारी सी टोकरी उठायी हुई थी, विनोद ने सही कहा था उसकी टोकरी बहुत भारी थी, वो उसको बार बार खिसका कर उसका संतुलन बनाता था!" वे बोले,

"क्या कहा उसने आपसे?" मैंने पूछा,

"जी उसने पूछा कि भनौट वाला रास्ता कहा है?" वे बोले,

"भनौट? ये क्या है, कोई स्थान या जगह है क्या? या कोई गाँव आदि?" मैंने पूछा,

"जी हमारे वहाँ तो कोई नहीं, न कोई स्थान और न अन्य कोई जगह, गाँव का पता नहीं गुरु जी" वे बोले,

"अछा, फिर क्या हुआ?" मैंने पूछा,

"मैंने उस से कहा कि भनौट तो यहाँ कोई नहीं है, न कोई जगह न कोई गाँव, उसने कहा कि वहाँ कुम्भा बांकुर रहता है, वहीँ जाना है उसको" वे बोले और चुप हुए,

"कुम्भा बांकुर? ये कौन है या कौन था, आप जानते हैं क्या?" मैंने पूछा,

"नाम ही पहली बार सुना हमने तो गुरु जी!" वे बोले,

"अच्छा, फिर क्या हुआ?" मैंने पूछा,

"मैंने उस से पूछा कि वो कहाँ से आ रहा है? तो उसने मुझे बताया कि वो बेड़वा से आया है, अब ये बेड़वा क्या है, ये भी नहीं मालूम जी हमको! ये नाम ही नहीं सुना कभी मैंने तो, इतनी उम्र हो गयी, बाप दादा के मुंह से भी नहीं सुना!" वे बोले,

"फिर?" मैंने पूछा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"मैंने उसको कहा कि वो गलत जगह आ गया है, वो वापिस ही जाए और वहाँ से ही पता चलेगा उसको कि उसको जाना कहाँ है, कोई नाम हो, कोई जगह हो तभी पता चलेगा" वे बोले,

"तो क्या बोला वो?" मैंने पूछा,

"बस इतना ही कि मैं चला जाऊँगा अपने आप, और पीछे मुड गया, मैं देखता रहा उसको, वो वहीँ पेड़ो के बीच डगर पर चलता हुआ, टोकरी सम्भालता हुआ चला गया!" वे बोले,

"भनौट, कुम्भा बांकुर, बेड़वा! इनके बारे में कोई जानकारी नहीं जुटाई आपने?" मैंने पूछा,

"कोई होता सच में तो पता चलता न गुरु जी?" वे बोले,

"हाँ, ये भी ठीक है" मैंने कहा,

"और गुरु जी फिर उसके बाद कोई हफ्ते भर की बात होगी, मैं खेत पर ही था, साथ में मेरे मेरे एक मित्र भी थे, सूरज जी, वे छुट्टी आये थे गाँव, सो मेरे साथ ही थे, हमारा खाने-पीने का कार्यक्रम था उस दिन शाम को, हाँ शाम हो चुकी थी" अब विनोद बोले,

"अच्छा, फिर क्या हुआ?" मैंने पूछा,

"तब भी वहाँ कुत्ते भौंके बुरी तरह से! जैसे आपसे में झगड़ गए हों! हम दोनों ही बाहर निकले और जो देखा उसको देखकर हम दोनों ही घबरा गए!" वे बोले,

"क्या देखा था ऐसा?" मैंने पूछा,

"वही आदमी! वही आदमी खड़ा था वहाँ! उसने टोकरी नीचे रख दी थी और हमको उस टोकरी में दो लोग बैठे दिखायी दिए, उनका चेहरा तो नहीं देखा, बस सर ही देख पाये थे, वो आदमी गुस्से में था, हम घबरा गए और कमरे में भागे, कमरा अंदर से बंद कर लिया, वो आदमी आया और उसने कमरे के दरवाज़े पर लात मारनी चालु की, वो तो दरवाज़ा मजबूत था, नहीं तो उस दिन वो मार ही डालता हमको, हमारे पास अपनी सुरक्षा के लिए एक लाठी भी नहीं थी!" वे बोले,

"ओह! फिर?" मैंने पूछा,

"फिर जी वो एकदम से शांत हुआ, मैंने दरवाज़े की झिरी में से देखा उसने वो टोकरी उठा ली थी और सर पर रख ली थी फिर वो पीछे मुड़ा और दरवाज़े पर कुछ फेंक के मारा, वो चीज़ दरवाज़े से टकरायी और गिर गयी!" वे बोले,


   
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श्रीशः उपदंडक
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(वही चीज़ मैंने मंगवाई थी विनोद साहब से)

"अच्छा, फिर?" मैंने पूछा,

"करीब आधा घंटा हो गया, मैंने दरवाज़ा खोला, सामने देखा, कोई नहीं था वहाँ, हाँ फिर मेरी नज़र उस चीज़ पर पड़ी, मैंने वो उठा ली और कमरे में रख दी, और जी उसके बाद हमने अपना सामान उठाया वहाँ से और दोनों ही सर पर पाँव रखकर भाग खड़े हुए घर के लिए, घर में आकर ही सांस ली!" वे बोले,

बड़ी अजीब सी बात बतायी थी उन्होंने! लेकिन वो आदमी अचानक से गुस्सा क्यों हुआ था? टोकरी में कौन था जिसको वो उठा के घूम रहा था? और आखिर ये है कौन? जो भनौट जाना चाहता है! बड़े उलझे हुए सवाल थे, और जवाब उनका कोई था नहीं!

"उसके बाद क्या हुआ?" मैंने पूछा,

अब रमन जी बोले, "गुरु जी, ये बात हमने अपने गाँव में ही रहने वाले एक पंडित जी को बतायी, उन्होंने हमको एक दूसरे गाँव भेजा, वहाँ हम गए और उनके जानकार से मिले, उसने हमारी सारी बात सुनी और बताया कि वहाँ प्रेत-बाधा लग गयी है और उसका प्रबंध करना होगा!" वे बोले,

"प्रबंध किया?" मैंने पूछा,

"हाँ जी, वे आये और वहाँ उन्होंने एक पूजा की और सारा खेत कील दिया उन्होंने, यही बताया था उन्होंने, अब हम संतुष्ट हो गए था कि चलो ये लूत कटी!" वे बोले,

"अच्छा! फिर?" मैंने पूछा,

"अब सुकून था कि अब ऐसा कुछ नहीं होगा, लेकिन उसके दो दिन बाद ही कुछ ऐसा हुआ कि लगा कीलन सफल नहीं हुआ!" वे बोले,

"कैसे?" मैंने पूछा,

"एक दोपहर की बात होगी, मई और विनोद खेत में ही थे, किसी काम में लगे थे, लेकिन तभी मेरी नज़र दूर उन्ही पेड़ों के पास गयी, वहाँ वो आदमी उकडू बैठा हुआ था और लग रहा था जैसे हमको ही देख रहा हो! टोकरी उसने अपने साथ ही रखी थी, नीचे और उस पर हाथ रखा हुआ था, लेकिन वो हमारे खेत तक नहीं आया, लेकिन भय तो भय होता है, न जाने कब आ धमके, सो जी हम अपना काम-काज छोड़ भाग निकले वहाँ से!" रमन जी ने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"हाँ, कीलन सफल नहीं हुआ, वो जो पेड़ हैं, वो किसकी ज़मीन में हैं?" मैंने पूछा,

"हैं तो हमारी ज़मीन में, लेकिन वहाँ खेती नहीं होती" वे बोले,

"और उन पेड़ों के पीछे क्या है?" मैंने पूछा,

"खाली रास्ता है जी, बियाबान सा ही पड़ा है वहाँ" वे बोले,

"अच्छा!" मैंने कहा,

 

तो मित्रगण! ये था वो कारण, सारी बात सुनकर ही मैंने उनको कहा था कि मैं और शर्मा जी वहाँ आयेंगे, हम खुद देखेंगे कि वहाँ चल क्या रहा है और वो आदमी है कौन? इसीलिए हम वहाँ आये थे!

और तभी विनोद अपने साथ वो चीज़ ले आये जो फेंक के मारी गयी थी उनके खेत में बने उस कमरे के दरवाज़े पर! मैंने उसको गौर से देखा, ये लोहे का, एक घिसे और जंगदार लोहे का टुकड़ा था, आकार में तिकोना था, बड़ा भी था, आधा फीट का कम से कम! और गौर से देखा तो वो मुझे किसी भाले या बरछी का फाल सा लगा, हाँ वो फाल ही था, उसका कसने का कड़ा वक़्त के साथ टूट गया था!

"ये तो भाले का फाल है!" मैंने कहते हुए शर्मा जी को कहा,

उन्होंने उसको लिया! हाथ से वजन का अंदाजा लगाया, करीब तीन सौ ग्राम का तो होगा ही!

"हाँ, ये भाले का ही फाल है!" वे बोले,

अब रमन जी ने देखा उसको, और वे भी बोले कि ये भाले का ही फाल है! और मुझे दे दिया, मैंने देखा, ये अब घिस गया था नहीं तो कम से कम आधा किलो का तो होगा ही उस समय! मैंने विनोद जी को वो फाल फिर दे दिया वापिस, उन्होंने उसको रख लिया और वहीँ बैठ गये फिर!

और फिर खाना आ गया, हम लोग खाना खाने लगे! खाना स्वादिष्ट था थोड़ा फ़ालतू ही खा गए!

खाना समाप्त हुआ!

"कल मुझे दिखाइये अपने खेत" मैंने कहा,

"हाँ जी, कल दिखाता हूँ" वे बोले,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"कितनी दूर हैं?" मैंने पूछा,

"अधिक दूर नहीं है" वे बोले,

"ठीक है फिर" मैंने कहा और मैं लेट गया अब!

शर्मा जी भी लेट गए!

"आप आराम कीजिये गुरु जी, किसी भी चीज़ की आवश्यकता हो तो आवाज़ दे दीजिये" रमन सिंह बोले और विनोद के साथ उठ कर बाहर चले गये!

"गुरु जी?" शर्मा जी ने पूछा,

"हाँ शर्मा जी?" मैंने पूछा,

"ये तो कोई भूला-भटका लगता है" वे बोले,

"सही कहा आपने, मुझे भी यही लगता है!" मैंने कहा,

"कई है जो भूले-भटके हैं! जो जाग जाते हैं और फिर ऐसे ही उनका भटकना ज़ारी रहता है!" मैंने कहा,

"हाँ गुरु जी" वे बोले,

उसके बाद और भी बातें हुईं हमारी इस खूबसूरत शहर के बारे में! औ फिर रात घिरते ही हम सो गए!

सुबह उठे, नित्य-कर्मों से फारिग हुए, और फिर चाय नाश्ता आ गया, वो निबटाया!

वहीँ बैठे थे रमन जी, मैंने कहा, "रमन जी, चलें क्या खेत पर?"

"मैं सोच रहा था खाना खा लेते आप पहले?" उन्होंने बोला,

"खाने की कोई जल्दी नहीं रमन साहब!" मैंने कहा,

"जी, ठीक है फिर, चलिए" वे बोले,

उन्होंने विनोद को बुलाया, विनोद साहब आये और खेत से सम्बंधित कोई सामन उठा लिया, हम खड़े हुए और फिर जीप में बैठे, चल पड़े खेत की तरफ! रास्ता बेहद शानदार था, प्रकृति ने खूब जलवा बिखेरा था वहाँ! और वैसे भी प्रकृति हमेशा से ही खूबसूरत रचनाएं किया करती है! यहीं यहाँ देखने को मिला! ऊंचे टीले और शांत स्थान! बहुत खूबसूरत!


   
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श्रीशः उपदंडक
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करीब बीस मिनट बीते और गाड़ी एक कच्चे रास्ते पर चल पड़ी उतर कर! यहीं थे उनके खेत! और फिर गाड़ी एक जगह जाकर रोक दी गयी!

"लो गुरु जी, आ गए हम" वे बोले,

अब हम उतरे गाड़ी से!

जगह बहुत सुंदर थी! बहुत सुंदर! शहर की भीड़-भाड़ से अलग! स्वर्ग कहूं तो भी कम है!

खैर,

"आइये गुरु जी" विनोद जी बोले,

"चलिए" मैंने कहा,

और अब हम एक पगडंडी पर उनके पीछे पीछे चल पड़े!

"गुरु जी, ये हैं हमारे खेत!" वे बोले,

काफी बड़े खेत थे!

"और गुरु जी, वहाँ जो पेड़ हैं, वहीँ से आता है वो आदमी" वे बोले, उन पेड़ों की तरफ इशारा करके!

"चलो, वहीँ चलते हैं" मैंने कहा,

और अब हम वहीँ चले!

वहाँ पहुंचे!

ये पेड़ों का झुरमुटा था, कई पेड़ एक साथ लगे हुए थे, काफी बड़ी और खाली जगह थी,

वहाँ!

"यहीं से आता है वो?" मैंने पूछा,

"हाँ जी" रमन जी बोले,

"अच्छा!" मैंने कहा,

अब मैंने वहाँ का मुआयना किया, वो स्थान पथरीला था, बियाबान सा, कोई इमारत नहीं थी वहाँ, कोई खंडहर भी नहीं, पीछे एक कच्चा सा रास्ता था, जंगली पेड़ पौधों से घिरा हुआ, और


   
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श्रीशः उपदंडक
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कुछ खास नहीं! हाँ, पेड़ बहुत पुराने थे वहाँ, कुछ ठूंठ हो गए थे अब! यही बताते थे कि वहाँ कभी लोगबाग आते जाते होंगे! मैंने अंदाजा लगाया!

"ये रास्ता कहाँ जाता है?" मैंने पूछा,

"पहाड़ियों तक जाता है, नीचे एक गाँव है पुराना" वे बोले,

"कितनी दूर?" मैंने पूछा,

"होगा जी कोई दस-बारह किलोमीटर" वे बोले,

"अच्छा, लोगबाग कम ही आते जाते हैं इस रास्ते पर शायद" मैंने कहा,

'हाँ जी, कभी कभार, इस तरफ काम तो कुछ है नहीं, हमारे गाँव से तो बहुत कम जाते हैं, हमारे लिए तो शहर ही जाना होता है" वे बोले,

"अच्छा, चलिए खेत में चलें" मैंने कहा,

"चलिए गुरु जी" वे बोले,

और अब हम वापिस हुए वहाँ से! कुछ ख़ास नहीं था वहाँ, सो वापिस आ गए हम बातचीत करते करते! खेत में बने कमरे में बैठे, यहाँ कुछ सामान रखा हुआ था, खेत का ही सामान था वो!

"रमन जी, पिछली बार कब देखा था वो आदमी?" मैंने पूछा,

"कोई दस दिन हो गए जी!" वे बोले,

'अच्छा! कुछ कहा तो नहीं उसने?" मैंने पूछा,

"नहीं जी, वो वहीँ खड़ा था कुछ देर के लिए, फिर चला गया पता नहीं कहाँ" वे बोले,

अब मैंने पानी माँगा उनसे पीने के लिए, प्यास लग आयी थी, विनोद जी गाड़ी तक गए और पानी की बोतल ले आये, हमने पानी पिया फिर, प्यास बुझाई!

"आज हम यहीं रुकेंगे दोपहर तक, क्यों शर्मा जी?" मैंने पूछा,

"जी ज़रूर!" वे बोले,

और मैं अब लेट गया वहाँ बिछे तख़्त पर! शर्मा जी ने भी मुझे खिसकने को कहा और वे भी लेट गए!


   
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श्रीशः उपदंडक
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और वे दोनों अपने अपने कामों में लग गए!

"गुरु जी, वहाँ कुछ देखा?" उन्होंने पूछा,

"हाँ, लेकिन वहाँ ऐसा कुछ भी नहीं है" मैंने कहा,

"इसका मतलब वो कहीं और से आता है?" वे बोले,

"हो सकता है" मैंने कहा,

"टेढ़ी पहेली सी लगती है ये तो!" वे बोले,

"है तो पहेली ही!" मैंने कहा!

"चलो जी देखते हैं!" वे बोले,

"हाँ, जाने से पहले मैं कुछ खेल खेलकर आउंगा वहाँ, देखते हैं क्या होता है!" मैंने कहा,

"ठीक है गुरु जी!" वे बोले!

 

करीब एक घंटा बीत गया हमको लेटे लेटे! वे दोनों अपने अपने कामों में लगे रहे! मैं उठा तब,

"शर्मा जी, चलिए मेरे साथ" मैंने कहा,

"चलिए" वे उठते हुए बोले,

अब हम उठे, जूते पहने और अंगड़ाई लेते हुए बाहर आ गए! विनोद वहीं थे, वे आये हमारे पास,

"कोई आवश्यकता है गुरु जी?" उन्होंने पूछा,

"नहीं विनोद जी, मैं ज़रा वहाँ तक जा रहा हूँ" मैंने कहा उन पेड़ों की तरफ इशारा करते हुए!

तभी वहाँ रमन जी भी आ गए! उनको भी बता दिया! और हम चले पड़े दोनों ही उधर! कोई ख़ास दूरी नहीं थी, बस कोई दो सौ मीटर! हम चल पड़े, वहाँ पहुंचे, और अब मैंने कलुष-मंत्र पढ़ा, और फिर अपने और शर्मा जी के नेत्र पोषित किये! और नेत्र खोल दिए, दृश्य स्पष्ट हो गया! वहाँ कुछ भी पारलौकिक नहीं था! वहाँ ऐसा कोई स्थान नहीं था जहां उस आत्मा का वास माना जाए, वो कहीं और से आता था उसी रास्ते पर और यहीं रुक जाता था, फिर पता पूछता था! इसका मतलब वो नहीं आया था कई दिनों से वहाँ! अब मैंने मंत्र वापिस ले लिया


   
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अपना, और फिर वहाँ मैंने एक क्रिया से खेल खेलना चाहा! मैं वहाँ जो कोई भी आता था उसको घेरने चाहता था! ताकि पता चले! मैंने वहाँ हाथ से एक गड्ढा खोदा, फिर एक पत्थर लिया उसको अभिमंत्रित किया और उस गड्ढे में रख कर उसको ढांप दिया मिट्टी से! और फिर एक लकड़ी ली, और एक मंत्र पढ़ा! ये मंत्र पिशाच आदि के लिए उपयोग में लाया जाता है! इस मंत्र से प्रेत पकड़ लिए जाते हैं, लेकिन ये मंत्र सिद्ध करना बहुत टेढ़ी खीर है! सिद्ध मंत्र की गंध से ही भूत-प्रेत दूर भाग जाते हैं! उनको प्रत्यक्ष कर उनको बाँधा जा सकता है! अब मैंने उस लकड़ी से उस स्थान पैर कुछ निशान लगा दिया, वो स्थान मैंने दाग़ दिया उस मंत्र से! अब वहाँ जो भी गुजरता वो क़ैद में पड़ जाता वहाँ आते ही! उसकी सारी प्रेत-माया धरी की धरी रह जाती! लेकिन उस समय वहाँ कोई नहीं था!

"चलो शर्मा जी" मैंने कहा,

"चलिए" वे बोले,

"दाग़ दिया आपने?" उन्होंने पूछा,

"हाँ, दाग़ दिया!" मैंने कहा,

"ये बढ़िया किया आपने!" वे बोले,

"हाँ, अब आते ही यहाँ इस स्थान में क़ैद हो जाएगा वो!" मैंने कहा,

"अब पता चलेगा!" वे बोले,

"हाँ, अब हम यहाँ रात को आयेंगे, देखते हैं क्या हुआ?" मैंने कहा,

"ठीक है" वे बोले,

और हम वापिस उसी कमरे तक आ गए! वहाँ वे दोनों पहले से ही मौजूद थे!

"आ गए गुरु जी?" रमन जी ने कहा,

"हाँ" मैंने कहा,

"आइये बैठिए" वे उठते हुए बोले,

हम बैठ गए!

"कुछ दिखा गुरु जी?" उन्होंने पूछा,

"अभी तक तो कुछ नहीं" मैंने कहा,


   
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"अच्छा" वे बोले,

अब शर्मा जी ने उनको समझा दिया!

"रात को आना है यहाँ?" उन्होंने पूछा,

"हाँ" मैंने कहा,

"ठीक है गुरु जी" वे बोले,

और उसके बाद हम वहाँ से वापिस घर के लिए निकल पड़े!

घर पहुंचे, सीधे अपने कमरे में गए, जूते खोले और लेट गए, तभी विनोद जी आ गए,

"गुरु जी, खाना तैयार है" वे बोले,

"ठीक है" मैंने कहा,

अब हम हाथ-मुंह धोने चले गए!

वापिस आये तो खाना खाया और फिर थोड़ी सी झपकी लेने के लिए आँखें बंद कर लीं! लेटते ही नींद ने आ घेरा! खाना बढ़िया था दरअसल, अधिक खाने से खाने का नशा सा हो गया था!

हम सो गए!

जब नींद खुली तो चार बजे थे! बहुत सोये थे हम! तभी अंदर आ गए रमन जी!

"चाय गुरु जी?" उन्होंने पूछा,

"हाँ" मैंने कहा,

वे वापिस हो गए!

चाय के लिए कह के आ गए!

थोड़ी देर में ही चाय भी आ गयी, हमने चाय पी! और तब मैंने एक बार फिर से वही भाले का फाल मंगवाया, विनोद जी उसको ले आये, अब मैंने उसका ध्यान से मुआयना किया, उलट-पलट के देखा, एक जगह कुछ उकेरा हुआ सा दिखा, ये दो अनगढ़ सी संख्याएँ थीं और हिंदी के अंकों में लिखीं थीं, ये थीं छब्बीस! आगे वाली संख्याओं को जंग खा चुका था, और लगता था कि जैसे ये फाल बहुत दिनों तक पानी के अंदर रहा है!

"शर्मा जी, ये संख्या छब्बीस ही है न?" मैंने पूछा,


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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उन्होंने गौर से देखा!

"हाँ! लगती तो छब्बीस ही है!" वे बोले,

"लेकिन इसका क्या अर्थ हुआ?" मैंने पूछा,

"पता नहीं जी, आगे की संख्या नदारद है" वे बोले,

"हाँ, जंग लग चुका है इसको" मैंने कहा,

"हाँ जी" वे बोले,

अब उन दोनों ने भी वो संख्या देखी!

फिर मुझे दे दिया!

मैंने और गौर से देखा! वो पुराना लोहा था! सांचे में ढाला हुआ! अपने समय में तो किसी सांड को भी भेद सकता होगा! और तभी मुझे उसके कड़े के पास एक और संख्या दिखी, ये एक ही थी, हिंदी के अंक का आठ बना था! लेकिन इनका अर्थ क्या था ये नहीं समझ आया!

"शर्मा जी, ये आठ ही लिखा है न?" मैंने उनको वो फाल देते हुए पूछा,

"हाँ आठ ही है" उन्होंने देखकर कहा!

"छब्बीस और आठ! क्या मतलब हुआ?" मैंने पूछा,

"पता नहीं जी" वे बोले,

"अरे रमन जी?" मैंने पूछा,

"हाँ जी?" वे बोले,

"उसने कुरता पहना हुआ था और नीचे धोती?" मैंने पूछा,

"हाँ जी, धोती थी या तहमद, ये नहीं पता जी, लेकिन उसकी धोती या तहमद नीचे जूतियों तक आयी हुई थी" वे बोले,

"और टोकरी में कौन था?" मैंने पूछा,

"लगा था कि दो लोग है, जैसे छिपे हुए हों" वे बोले,

"अच्छा!" मैंने कहा,


   
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