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वर्ष २०११ ललितपुर उत्तर प्रदेश की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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ये कोई वर्ष २०११ के सर्दियों के आसपास की बात है, शायद दिवाली से हफ्ते भर बाद की, मै शर्मा जी के साथ गोरखपुर में था, योगिनी-सिद्धि की क्रिया चल रही थी ३ दिन शेष थे, रात्रि-काल में क्रिया हुआ करती थी और दिवाकाल में आराम! फिर क्रिया समाप्त हो गयी, हम दिल्ली रवाना होने ही वाले थे कि मेरे पास एक फ़ोन आया, ये फ़ोन मेरे एक जानकार व्यक्ति का था जी कि ललितपुर उत्तर प्रदेश में रहते थे, उन्होंने एक फार्म-हाउस खरीदा था वहाँ, एक बार जब वो वहाँ सफाई करवा रहे थे तो उनके यहाँ बुलडोज़र से एक चांदी के रंग का सांप आधा कट गया था, ये साप करीब ६ फीट लम्बा था, आधा कटा सांप उनके फार्म-हाउस में ही भाग गया था, उन्होंने सोचा के शायद एक दो दिनों में मर ही जाएगा, काम फिर से शुरू हो गया, लेकिन थोड़ी देर में वो सांप फिर से नज़र आया और उसने उछल कर उस बुलडोज़र वाले के हेल्पर के पाँव में काट लिया! उसको वो अस्पताल लेके गए, लेकिन उसकी मौत रास्ते में ही हो गयी, वहाँ काम रोक देना पड़ा! एक हफ्ते बाद वहाँ फिर से काम शुरू हुआ लेकिन इस बार भी वहाँ सफाई करते हुए एक व्यक्ति को सांप ने काट लिया, और ये सांप वही आधा कटा हुआ था! उस आदमी को भी अस्पताल ले जाया गया, और उसकी जान बच गयी थी! उसके बाद उन्होंने वहाँ काम रुकवा दिया, उनको वहाँ भय बैठ गया!

उनका घर वहाँ से कोई २० किलोमीटर था, एक दिन अचानक उनके बेटे ने अपने गुसलखाने में एक सांप देखा, वो सांप आधा कटा हुआ था और उसके पिछले भाग से खून अभी तक बह रहा था, ऐसा उनके बेटे ने उनको बताया, वो चुपके से वहाँ गए, सांप एक बाल्टी के एक तरफ सिमटा हुआ था, जब उसको हिलाया गया तो उसने अपना फन चौड़ा कर दिया और फुफकारने लगा! उन्होंने घबराके गुसलखाना बंद कर दिया और सांप पकड़ने वालों को बुलाने चले गए, वो उनको लेकर आये, लेकिन जब गुसलखाना खोल गया तो वहाँ सांप नहीं था! उनके होश उड़ गए!

इसके कोई ३० दिनों के भीतर वहो सांप उनके फार्म-हाउस और घर में ५-६ बार देखा गया! अब वो बहुत डर गए थे, इस समस्या का हल चाहते थे! इसीलिए उन्होंने मुझे फ़ोन किया था!

मैंने उनको बताया कि मै गोरखपुर में हूँ और २ दिनों के बाद दिल्ली आऊंगा, तो उन्होंने दो दिनों के बाद ललितपुर आने को कह दिया!

मै दिल्ली पहुंचा, एक दो दिन आराम किया, मेरे इन ललितपुर वाले जानकार का फ़ोन रोजाना आ रहा था, मैंने एक दिन बाद आने को कह दिया! मैंने शर्मा जी से पूछा, "शर्मा जी क्या कोई साधारण सांप, यदि आधा कट गया हो, तो जिंदा रह सकता है क्या?"


   
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श्रीशः उपदंडक
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"नहीं गुरु जी, साधारण तो कतई भी नहीं" उन्होंने कहा,

"तो फिर कौन सा जिंदा रह सकता है?" मैंने पूछा,

"अगर वो मायावी है या दैवीय है तो जिंदा रह सकता है" उन्होंने कहा,

"हाँ शर्मा जी, इसका अर्थ वो सांप मायावी या दैवीय है! चलो चला जाए, देखा जाए!" मैंने कहा,

"ठीक है, मै आज ही टिकट करा लेता हूँ!" उन्होंने कहा!

"ठीक है, आप कल की करा लीजिये!" मैंने कहा,

अभी हम बात कर ही रहे थे कि ललितपुर से फ़ोन आ गया, शर्मा जी ने फ़ोन उठाया, बोले, " हाँ राजेश जी? क्या बात है? क्या............क्या हो गया??????????????" उन्होंने पूछा,

शर्मा जी सुना और फ़ोन काट दिया, मुझसे बोले, "राजेश कि पत्नी को उसी सांप ने रसोई में आज अभी काट लिया है, वो अस्पताल ले गए है उसको"

"ओह, बहुत बुरा हुआ ये" मैंने कहा,

तब शर्मा जी उठे और टिकट कराने चले गए! और मित्रो इस तरह हम अगले दिन ललितपुर पहुँच गए! वहाँ जाकर पता की उनकी पत्नी का इलाज सही हो गया है, वो बच गयीं है, चलो ये एक अच्छी खबर थी, राजेश ने हमको ये भी बताया कि वो सांप कल फार्म-हाउस में देखा गया है! मुझे भी बड़ी इच्छा हुई उसको देखने की!

राजेश ने हमको एक अलग कमरा दे दिया, सारा प्रबंध कर दिया! उस सिं हिमे खाया-पीया और रात को आराम किया, कि न जाने कितना समय लगे वहाँ!

अगले दिन हम वहाँ फार्म-हाउस पर गए, राजेश ने हमको वो जहा दिखाई जहां वो सांप कट गया था, मै वहां गया, मुझे यहाँ काफी ताप सा महसूस हुआ, लगा कि जैसे भूमि में से गर्मी निकल रही हो, मुझे वहा से हटना पड़ा, लकिन शर्मा जी और राजेश को ऐसा महसूस नहीं हुआ, मै झटका खा गया वहाँ! और वहाँ पड़े एक पत्थर पर बैठ गया, कानों में से सीटी की सी आवाज़ आने लगी, मैंने पानी की बोतल खोली और दो चार घूँट पानी पिया! थोडा संयत हुआ तो मैंने एक कलुष-मंत्र पढ़ा, आँखों पर फेरा तो मेरे सामने एक ऐसा दृश्य आया कि मेरे पांवों तले ज़मीन निकल गयी!


   
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श्रीशः उपदंडक
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ये तो गान्धर्व-पुरी थी! शापित गन्धर्वों की पनाहगाह! वहाँ के प्रत्येक वृक्ष पर मोटे-मोटे सर्प लिपटे हुए थे! गन्धर्व और गंधर्व-कन्यायों का मिलन-स्थल!

वो जो सांप कटा था वो इन्ही गन्धर्वों का था! चांदी के रूप का! गन्धर्वों से लड़ना असंभव कार्य है! इनसे लड़ना है सीधे सीधे अपनी मृत्यु को आमंत्रित करना! गन्धर्वों का वर्णन आप सभी ने भी पढ़ा होगा! ये सभी एक उच्च-योनि से सम्बंधित हैं! ये रक्षक और भक्षक दोनों तरह के होते हैं! इनका मुकाबला इनके स्थान पर केवल राक्षस कर सकते हैं! और कोई नहीं!

मैंने कलुष-मंत्र वापिस लिया और तेजस-मंत्र का जाप किया!

तेजस-मंत्र जागृत होते ही, मुझे वहाँ रक्त के छींटे और कई रेखाएं दिखाई दीं, ये सैंकड़ों से अधिक थीं! बेचारा वो सांप पीड़ा के मारे एक जगह ठहर नहीं पा रहा था! उसका बहता रक्त निरंतर ये रेखाएं बना रहा था!

मैंने राजेश और शर्मा जी को वहाँ से हटा दिया, ये बातें राजेश को समझ नहीं आने वाली थीं, इसीलिए मैंने शर्मा जी को सारी बात बता दी, बोले, "अब क्या होगा गुरु जी?"

"वही मै भी सोच रहा हूँ, अभी तक किसी गन्धर्व की नज़र उस पर नहीं पड़ी, क्यूंकि अभी उनका ये स्थल शून्य है, वे लोग यहाँ न हो कर कहीं ऋतु-परिवर्तन के लिए गए होंगे अवश्य है! अगर देखा इसको, तो समझो हम भी कुछ नहीं कर पायेंगे! उनके आगमन से पहले ही कुछ करना होगा हमको नहीं तो कहर टूट पड़ेगा यहाँ" मैंने कहा,

"तो क्या करना होगा?" वो बोले,

"उस सांप को मुक्त करना होगा हमे" मैंने कहा,

"लेकिन कैसे?" उन्होंने पूछा

"वो मै बताऊंगा आपको" मैंने कहा,

"ठीक है, लेकिन क्या वो सांप भी विरोध करेगा?" उन्होंने कहा,

"हाँ, वो किसी भी रूप में हमसे बात करेगा, विरोध करेगा, गन्धर्वों ने ये स्थान बाँधा हुआ है, न अन्य कोई सांप आएगा, न यहाँ से कोई जाएगा!" मैंने कहा,

"ये तो बड़ी समस्या है!" वो बोले,

"हाँ समस्या तो है ही!" मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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उसके बाद हम वहाँ से उठे, निकले और राजेश के घर आ गए...........वापिस....... रात्रि-समय भोजन पश्चात् मै और शर्मा जी इस विषय पर विचार कर रहे थे, एक तरह से आगे के रण-कौशल हेतु योजना बना रहे थे, कोई भी मनुष्य गन्धर्वों से लड़ नहीं सकता, ये दैवीय-शक्ति से परिपूर्ण होते हैं! मनुष्य का समस्त १०० वर्षों का जीवन इनके एक दिवस के समान है! ये अलौकिकता से पूर्ण होते हैं! हाँ प्रसन्न हो सकते हैं परन्तु इसने आप कोई विवाद जीत नहीं सकते! और यहाँ तो इनका एक सर्प कट गया था! सर्प इनका आभूषण होता है! ये इसको बाजुओं में धारण करते हैं! हम दोनों ने यह निर्णय लिए कि इस कटे हुए सर्प को किसी भी तरह से मुक्ति प्रदान की जाए!

मैं उस रात क्रिया में बैठा, गान्धर्व-विद्या जागृत की! और फिर आसुरिक-विद्या भी जागृत की! इसकी आवश्यकता समय पड़ने पर, स्वःरक्षा हेतु आवश्यक थी! तदोपरान्त हम सो गए!

सुअभ नाश्ते इत्यादि पशचात शर्मा जी ने राजेश को संग लिया और कुछ आवश्यक वस्तुएं ले आये, और फार्म-हाउस के लिए हम रवाना हो गए!

गेट में लगा ताला खोला गया, राजेश को समझा-बुझा कर बाहर ही रहने दिया, अब मै और शर्मा जी फार्म-हाउस में एक ऐसी जगह गए, जहाँ किसी की भी दृष्टि हम पर न पड़े! मैंने अलख उठायी, मंत्रोच्चारण किया! मै उस सर्प को वहाँ बुलाना चाहता था!

मैंने सर्प-मोहिनी विद्या का जाप किया! इस सर्प-मोहिनी विद्या में उस क्षेत्र के सभी सर्प आ सकते थे, इसीलिए मैंने भूमि पर अपने रक्त से एक सर्पाकृति बना कर उसको बीच में से काट दिया था, जिस से केवल आहत सर्प ही वहाँ आये! २ घंटे के जाप के बाद, सामने एक झाडी से एक चांदी के रंग का सर्प निकल, वो झाडी में ही अपना फन फैलाए हमको देख रहा था! उसके फन का व्यास कोई १२ इंच के आसपास तो होगा ही!

मैंने सर्प-मोहिनी विद्या को और तीक्ष्ण किया, वो वहाँ से हमारी ओर आया, लेकिन काफी धीरे-धीरे! वो बेचारा आधा बीच में से कटा हुआ था, रक्त और उसका मांस उसके कटे हिस्से से साफ़ दिखाई दे रहे थे! वो वहाँ से चल कर हमारे पास करीब ४ फीट पर रुक गया! उसने अपना फन ज़मीन पर मार तीन बार! उसका आशय था, कि हम उसको तंग न करें चूंकि वो स्वयं भयंकर वेदना से पीड़ित है, मैंने और शर्मा जी ने उसको नमन किया! हमारे नमन करने से वो आश्वस्त हो गया कि हम उसका बुरा नहीं चाहते!

उसने अपना फन समेटा और सामान्य हो गया, हमको देखता रहा, फिर उसने अपने कटे हिस्से को सामने किया और वहाँ फुंकार मारी! मैंने उसको पकड़ना चाहा, लेकिन उसने फिर से फन चौड़ा कर लिया, आशय था कि वो क्रुद्ध हो गया था!


   
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श्रीशः उपदंडक
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मै उसको ये स्पष्ट करना चाहता था कि हम उसके भले में हैं, बुरे में नहीं! मैंने अपनी जेब से ७ कौडियाँ निकाली और उनको स्वास्तिक के आकार में रख दिया! उसने अपना फन चौड़ा करके उनको देखा और जीभ निकालकर आगे आया! अब वो हमसे मात्र एक फीट दूर था! मैंने उसका गला देखा! ओह.............ये तो मादा थी! मुझे बहुत दुःख हुआ, बहुत दुःख!

मैंने एक बार फिर से उसको नमन किया और सर्प-सम्मोहिनी विद्या के मंत्र पढ़े! उसने भागना चाहा! सर्प-मोहिनी और सर्प-सम्मोहिनी का अर्थ और ये किस प्रकार विभिन्न हो सकते हैं, पाठकगण स्वयं विवेकपूर्ण अर्थ समझें!

उसने भागना चाहा, परन्तु सम्मोहिनी-विद्या ने उसको नहीं भागने दिया! करीब १५ मिनट में वो भूमि पर अपना फन टिकाकर लेट गयी, नेत्र पीले से सफ़ेद पड़ गए! अर्थात सम्मोहिनी-विद्या ने उसको सम्मोहित कर लिया था!

मैंने उसको उठाया, उसके कटे हिस्से का अवलोकन किया, उसके अन्दर उसका यकृत शेष था, इसीलिए वो अभी तक जीवित थी! मैंने उसके फन को एक मंत्र से पढ़े हुए धागे से बाँधा और एक बैग में डाल लिया!

अब मुझे इसको यहाँ से दूर ले जाकर इसका दाह-संस्कार करना था! मै उसको बैग में डालकर राजेश और शर्मा जी के साथ एक बरसाती नदी के पास पहुंचा, और वहाँ उस से क्षमा मांगते हुए सर्प-दाह कर दिया! वो भस्मीभूत हो गयी! मैंने वो भस्म वहाँ एक गड्ढा खोदकर उसमे दबा दी!

बस! अब सर्प-भय दूर हो गया था! फार्म-हाउस वापिस आये हम! वहाँ मैंने सर्प-हत्या-दोष-शमन मंत्र पढ़ते हुए भूमि शुद्ध कर दी!

परन्तु अभी भी मेरे मन में एक आशंका विद्यमान थी! खैर, हम वापिस आये घर, उस दिन मैंने कोई भोजन और जल ग्रहण नहीं किया, और न ही शर्मा जी ने, मैंने जीवित-सर्प-दाह किया था, ये उसीका प्रायश्चित था!

अगले दिन हम वापिस दिल्ली आ गए! मैंने राजेश को किसी निर्धन कन्या के विवाह में होने वाले खर्चे को वहन करने को कह दिया था, ये उसका प्रायश्चित था! करीब २ महीने बाद मेरे पास राजेश का फ़ोन आया, बेहद घबराया हुआ! में आशंका बलवती हो गयी,जो मैंने आशंका जताई थी वही हुआ होगा ऐसा मैंने सोचा, तब मैंने फ़ोन शर्मा जी को पकड़ा दिया, १०-१५ मिनट के बाद, शर्मा जी ने बताया कि बकौल राजेश, उसके यहाँ बड़ी अजीब-अजीब और समझ से परे घटनाएं हो रही हैं, मै समझ गया, यानि कि हमको फिर वहाँ जाना होगा दुबारा!


   
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श्रीशः उपदंडक
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मैंने शर्मा जी को कहा कि वो उसको कह दें कि हम परसों वहाँ आ जायेंगे, शर्मा जी ने ऐसा ही कहा राजेश को!

और हम नियत तिथि पर वहाँ पहुँच गए, वहाँ राजेश के चेहरे पे हवाईयां और घर में मुर्दानगी से छाई थी, मैंने राजेश से पूछा, "बताइये क्या हुआ?"

"गुरु जी, जब आप वो काम करके गए थे तो सब कुछ ठीक हो गया था, लेकिन पिछले डेढ़ महीने से यहाँ एक के बाद एक काम खराब होने लगा है" उसने बताया,

"कैसे?" मैंने पूछा,

"मेरी नौकरी पर बात आ गयी है गुरु जी, एक विभागीय जांच के आदेश हुए हैं, मेरे छोटे भाई, जो यहाँ रहता है तीसरी मंजिल पे, उसकी बीवी का असामयिक गर्भपात हो गया है, मेरे बेटे का एक्सीडेंट हुआ है, एक टांग में फ्रैक्चर है, डॉक्टर ने २ महीनों के लिए आराम करने को कहा है, मेरी बड़ी लड़की जो कि अभी पढाई कर रही है कॉलेज में, गंभीर बीमारी हो गयी है, मेरी पत्नी को अधरंग के लक्षण के कारण नियमित जांच करानी पड़ रही है, पता नहीं क्या हो रहा है, एक के बाद एक काम खराब, अभी परसों मेरी स्कूटी चोरी हो गयी है, नुक्सान पर नुक्सान हो रहा है, गुरु जी, आप देखिये मामला क्या है?"

तब मैंने शर्मा जी को इशारा किया कि वो सारी बात राजेश को बता दें, शर्मा जी ने सारी बात राजेश को बता दी, राजेश का मुंह खुला रह गया!

"गुरु जी, ये गन्धर्व क्या होते हैं? कोई भूत प्रेत इत्यादि?" उसने विस्मय से पूछा,

"नहीं भूत-प्रेत इत्यादि नहीं राजेश साहब! ये बहुत बहुत आगे की योनि है, ये देवताओं,दानवों इत्यादि के सारथि, प्राचीन-खजानों की रक्षा करने वाले होते हैं, ये जहां वास करते हैं वहाँ भूत-प्रेत, पिशाच, जिन्नात आदि भाग खड़े होते हैं, यहाँ तक कि वो इसके आवास-क्षेत्र के ऊपर से भी नहीं उड़ते!" मैंने बताया!

"ओह.......आपने बताया कि वहाँ फार्म-हाउस की भूमि में शापित गन्धर्व आवास कर रहे हैं, ये शापित कैसे हुए?" उसने जिज्ञासावश पूछा,

"शापित अर्थात परित्यक्त गन्धर्व, जाति से बहिष्कृत गन्धर्व हैं ये, जब भी कोई गन्धर्व नियमों का विरोध करता है, उल्लंघन करता है उसको परित्यक्त कर दिया जाता है" मैंने बताया.

"अच्छा गुरु जी" उसने मासूमियत से कहा,

"लेकिन आप चिंता न कीजिये, देखते हैं कि क्या किया जा सकता है" मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"हाँ गुरु जी, बचाओ इस झमेले से हमको" उसने हाथ जोड़ कर कहा,

उसके बाद हम उठे और मै शर्मा जी के साथ राजेश के दिए गए कमरे में आ गए, शर्मा जी ने कहा," गुरु जी? अब कुआ हो सकता है?"

"शर्मा जी, ये तो वहीँ जा के पता चल सकेगा कि करना क्या है!" मैंने लेटते हुए कहा,

"लगता है उनका ऋतु-परिवर्तन हो गया है, वो वापिस आ गए हैं!" उन्होंने आशंका व्यक्त की,

"हाँ यही कारण है शायद" मैंने कहा,

"कुछ तो करना ही होगा, नहीं तो राजेश का परिवार उनका कोपभाजन बन जाएगा" उन्होंने भी लेटते हुए कहा,

"हाँ शर्मा जी, गन्धर्व यदि प्रतिशोध पर आ जाएँ तो कोई उनका विरोध नहीं कर सकेगा, यहाँ तक कि कोई अन्य अपरित्यक्त गन्धर्व भी इनकी मदद करने के लिए अग्रसर होगा!" मैंने बताया,

"ओह..........." उन्होंने अफ़सोस जताया,

"आज रात्रि हमको क्रिया करनी होगी,शक्तियां जागृत करनी होंगी, स्वःरक्षण हेतु!" मैंने कहा,

"ठीक है गुरु जी" शर्मा जी ने कहा,

फिर हम दोनों थोडा आराम करने के लिए सो गए, रात्रि समय क्रिया-सम्पादन करनी थी! रात्रि-समय मैंने क्रिया आरम्भ की और ३ घन्टे के बाद आवश्यक क्रिया संपूर्ण हो गयी! अब सुबह हमको उस फार्म-हाउस पर जाना था, कुछेक अन्य वस्तुएं अपने बैग में रखीं और सोने चले गए,

सुबह उठ कर स्नानादि पश्चात, मात्र दूध पीकर हम फार्म-हाउस पहुँच गए! मैंने राजेश को घर भेज दिया,स्वयं ही ताल खोला और अन्दर प्रवेश कर गए! उस समय यही कोई सुबह के ७ बजे थे!

फार्म-हाउस में शमशान जैसी शान्ति पसरी थी, वहाँ के क्या छोटे और क्या बड़े पेड़ -पौधे सभी मुरझाई स्थिति में मूक साक्षीरूप में खड़े थे!

मैंने कलुष-मंत्र का जाप किया! मंत्र बोलकर मैंने अपने हाथ की एक ऊँगली को फूंका और अपने नेत्रों पर रखा, फिर शर्मा जी के नेत्रों पर रखा! और आँखें खोल दीं! आँखें खुलते ही हमको वहाँ ३ गन्धर्व-कन्याएं दिखाई दीं, वो वहाँ फूलों के आसन पर सोयी हुईं थीं! गन्धर्व-कन्याओं का


   
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श्रीशः उपदंडक
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सृजन गन्धर्वों और अप्सराओं के मिलन से होता है! समस्त अप्सराओं के ये पति होते हैं, श्रृगार, संगीत आदि कलाओं के ये प्रघाड़ जानकार होते हैं! इसनकी कन्याएं किसी भी योनि में सबसे अधिक सुन्दर एवं शांत होती हैं!

वो तीनों कन्याएं निद्रालीन थीं, उनके ऊपर से सर्प रेंग रहे थे! मैंने उनको जगाना अथवा उकसाना उचित नहीं समझा, मैंने कलुष-मंत्र वापिस किया और बाद में वहाँ आने का निर्णय लिया!

हम वहाँ से वापिस आ गए, वहाँ केवल तीन ही कन्याएं थीं, कोई प्रहरी नहीं था, कोई अन्य गन्धर्व भी नहीं था! वहाँ केवल इन्ही का वास था!

दिनभर मैंने उचित क्रियाएं कीं, शक्ति-संचारित की, शक्ति-भोग दिया और एक अभय-सिद्धि का प्रयोग किया! अभय -सिद्धि ऐसे ही अवसरों पर काम आती हैं, नहीं तो उचित समय पर आपकी जिव्हा आपका साथ छोड़ देगी और आप उनके घात का शिकार हो जायेंगे!

हम वहां संध्या-अवसान से थोडा पहले फिर पहुंचे, फिर वैसा ही मुर्दानगी भरा वातावरण था! मैंने उस स्थान पर खड़े होकर कलुष-मंत्र का जाप किया और स्वयं के और शर्मा जी के नेत्रों का अभिमन्त्रण किया! पारलौकिक-दृश्य हमारे समक्ष था!

वो तीनों कन्याएं एक-दूसरे के केश संवार रही थीं, अचानक उनकी दृष्टि हम पर पड़ी, वो तीनों खड़ी हुईं! उनके सर्प अपना अपना फन चौडाए हमको देख रहे थे!

"कौन हो तुम?" उनमे से एक बोली

"मानव, हम मानव हैं!" मैंने कहा,

"यहाँ आने का कारण?" उसने पूछा,

मैंने साड़ी घटना से उनको परिचित करा दिया! उन्होंने सारी घटना वृत्तांत से सुनी! फिर बोली,

"जिसने किया वो भुगतेगा अवश्य, तुम जाओ यहाँ से, ये अच्छा किया, उसका दाह-संस्कार कर दिया, नहीं तो पाप के भागी तुम भी बनते मानव!"

"लेकिन जो कुछ भी हुआ वो अज्ञानवश हुआ, इसमें किसी की कोई गलती नहीं" मैंने कहा,

"हमे क्रोध न दिलाओ मानव, पछताओगे बहुत" उसने मुझे धमकाते हुए कहा,

"परन्तु मैंने भी वचन दिया हैं, कुछ नहीं होने दूंगा!" मैंने अडिगता से कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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उसने अपलक मुझे देखा और एक पद्म-नाग मुझ पर फेंक दिया! वो हमारी तरफ आया तो मैंने भंजन-मंत्र से उसको वापिस उछाल दिया!

अब उसने अपने केश खोले और कुछ केश तोड़े, और वो केश चितकबरे सर्प बन गए, फुफकार से कर्ण-पटल में चुभन होने लगी! उसने वो सर्प भूमि पर गिराए! वो अपना मुख ऊपर किये हुए हमारी ओर आये! तब मैंने कशंक-मंत्र पढ़ा! हमारे चारों ओर एक सुरक्षा-आवरण बन गया! जैसे ही उन सर्पों ने हम पर वार किया उनके मुख से रक्त-धारा फूट गयी! कशंक-चक्र को भेदना उनके बसकी बात नहीं थी! तब वे सर्प वापिस पलटे और लोप हो गए!

उन कन्यायों की हैरत का कोई ठिकाना न रहा! परन्तु वो मुस्कुरायीं और बोली," सामर्थ्य-पूर्ण हो, क्यूँ व्यर्थ में जीवन दांव पर लगाते हो? चले जाओ वापिस!"

"मैंने दांव जब भी लगाया है कभी नहीं गंवाया गन्धर्व-कन्याओं! मृत्यु-वरण स्वीकार है परन्तु वापिस जाना नहीं!" मैंने कहा! मेरा ऐसा उत्तर सुनकर उनको क्रोध आ गया! उनमे से एक ने आगे आकर मुंह चौड़ा किया! और एक सर्प प्रकट किया! ये सर्प उड़ने वाला होता है, इसको कौन्दुल-सर्प कहा जाता है! आज भी इस संसार में वर्षा के बाद ये सर्प आपको अपनी नग्न आँखों से दिख सकता है! जिस ओर वायु-प्रवाह होता है ये उसकी विपरीत दिशा में उड़ता है! भूमि पर कभी नहीं उतरता! ये सर्प अत्यंत-विषैला और आकार में घट-बढ़ सकता है! कौन्दुल-सर्प आगे बड़ा उड़ता हुआ! मैंने मौनिक-मंत्र पढ़ा! जैसे ही वो हमारे आवरण से टकराया, मौनिक-मंत्र के प्रहार से भूमि पर गिरा और भस्म हो गया!

ये देख वो तीनों कन्याएं हतप्रभ रह गयी! उनमे से एक बोली, "अपना परिचय दो!"

मैंने अपना परिचय दे दिया! और अब मैंने उनसे परिचय माँगा! उन्होंने अपना परिचय नहीं दिया! उनमे से एक बोली, "ये जो तू खेल दिखा रहा है, वो हमारे लिए खिलौनों के समान है!" और वे तीनो ठिठोली करते हुए हंसती रहीं!

मुझे भी हंसी आ गयी! मैंने कहा, "आप स्वयं खिलौना प्रयोग कर रही हैं, आप यदि हथियार चलायें तो मै भी हथियार से उसका उत्तर दूँ!"

उनके मेरे ऐसे तीक्ष्ण उत्तर की आशा नहीं थी! वो भड़क गयीं!

उनमे से एक ने मेरे ऊपर एक शक्ति-प्रहार किया, अग्नि-पुंज प्रकट हुए, मैंने शमन-मंत्र से वो शांत कर दिए! वे फिर से अचंभित!

उन्होंने मेरे ऊपर सर्प-माला फेंकी, मैंने उसको भी खंडित कर दिया! ये था अभय-सिद्धि का प्रयोग!


   
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श्रीशः उपदंडक
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उन्होंने अनेक प्रकार से मुझे जांचा! मैंने उनके घात एक के बाद एक निष्फल कर दिए!

अब वे तीनों नीचे अपने आसन पर बैठ गयीं! तीनों ने अपने हाथ एक साथ मिलाये और कुछ जाप करने लगीं!

अचानक भूमि-कम्पन हुआ! गर्जन हुई! मै समझ गया! अब है वास्तविक परीक्षा की घडी!

उन तीनों का रूप बदल गया! वो जितनी सुन्दर थीं उतनी ही कुरूप बन गयीं! अव्यवस्थित-केश, धूम्र-चर्म! स्थूल-देह! मुंड-माल! आदि आदि!

ये उनकी माया थी! मुझे धनक रही थीं! उन्होंने अट्टहास किया! प्रबल अट्टहास!

मै जहां खड़ा था, वहीँ खड़ा रहा! रत्ती-मात्र भी नहीं हिला! उनमे से एक ने मुझ पर एक कपाल मारा फेंक कर! मैंने दौधिक-कवच से स्वयं और शर्मा जी को सुरक्षित किया!

उन्होंने फिर मुझ पर लौह-वज्रिका फेंक कर मारी, मैंने उस से भी अपना बचाव किया! उन्होंने विभिन्न प्रकार की माया का प्रयोग किया और मै उस माया को काटता रहा!

उनमे से एक ने मुझे से कहा, "अभी भी समय है, वापिस जा! वापिस जा!"

"नहीं! नहीं जाऊँगा वापिस!" मैंने कहा,

"हम तेरा भला चाहते हैं बुरा नहीं, हमारी बात मान ले मानव! कोई भी मानव हमको पराजित नहीं कर सकता!" उन्होंने अट्टहास किया!

"मै जानता हूँ! कोई मानव आपको नहीं हरा सकता! और मै आपसे कौन सा हार-जीत का युद्ध कर रहा हूँ, वार तो आप कर रहे हैं और मै केवल अपनी रक्षा कर रहा हूँ!"

"कब तक रक्षा करेगा अपनी?" उन्होंने कहा,

"जब तक कर सकता हूँ!" मैंने कहा,

उन्होंने तब एक महामाया का प्रयोग किया! वहाँ वायु में भयानक शोर हुआ! एक तक्षक-समान दीर्घ फन-धारी सर्प प्रकट हुआ! अब मुझे करालिका-शक्ति जागृत करनी थी, नहीं तो हमारा नाश अवश्यम्भावी है! मैंने करालिका-शक्ति जागृत की ये शक्ति गन्धर्वों की ही शक्ति है, इसको सिद्ध किया जाता है! सिद्धि क्लिष्टतम होती है!

मैंने करालिका-शक्ति जागृत की! उनको भी हैरत हुई! लेकिन इस से पहले मै कोई प्रयोग करता उस सर्प ने दूर से ही एक फुफकार मारी, उसका वेग हमे महसूस हुआ, शरीर में वेदना भर गई,


   
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श्रीशः उपदंडक
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चेतना लोप होने लगी! आँखों के समक्ष तमरूपी वातावरण हो गया, शरीर के अंगों ने काम करना बंद कर दिया, अपने हृदय का द्रुत-स्पंद कर्ण-पटल पर सुनाई देने लगा! मै और शर्मा जी कुछ क्षणों के बाद धराशायी हो गए! करीब १५ मिनट के बाद चेतना वापिस लौटी! मै उठ के खड़ा हुआ, शर्मा जी को देखा,शर्मा जी भी उठ गए! अब वहाँ कब मंजर बदल गया था! मुझे लगा कि अंत-समय का दृश्य है ये! तभी मुझे किसी पायजेब के खनक जैसी आवाज़ आई! मैंने पीछे पलट के देखा तो वहाँ अत्यंत सुंदर, सुशोभित कन्याएं खड़ी थीं!

मुझे और शर्मा जी को ये दृश्य समझ में नहीं आया!

तभी उनमे से गुलाबी वस्त्र धारण किये वो तीनों कन्याएं आई! ब्रह्म-सुगंध! पुष्पों से लदी हुई! माथे पर स्वर्ण-टीका! केशों में स्वर्नखचित आभूषण! नाक में बड़ी-बड़ी चुंधियाती नथें! नेत्रों में काजल! समस्त देह पर आभूषण धारण किये हुए! उनमे से एक आगे आई! और मेरे सामने आकर मुस्कुराते हुए बोली, "मानव! तुम्हारी विद्या प्रशंसनीय है!"

अब मुझे समझ आया कि हम अभी तक जीवित हैं!

मैंने नमन करते हुए कहा, " संपूर्ण जगत में यदि कोई आज सबसे अधिक प्रसन्न है तो वो मै हूँ!"

मेरा ऐसा कहना था कि वहाँ खड़ी हुई अन्य कन्याएं खनखनाके हंस पड़ीं!

अब दूसरी कन्या आगे आई और बोली, " मानव! तुमने हमारा परिचय माँगा था, ये है हमारा परिचय- मै धन्न्मालिनी हूँ, ये मेरी बहन रूप्मालिनी और ये मेरी सखी कनकमालिनी! ये स्थान हमारा आवास है! हम यहाँ पर अनगिनत वर्षों से परित्यक्त अवस्था में रह रही हैं! ये सर्प हमारे आभूषण हैं, हमारी सेविकाएँ! जिस सर्प का तुमने दाह-संस्कार किया वो भी हमारी ही सेविका थी!

तुम्हारे अतिरिक्त यदि कोई अन्य होता तो अब तक यमलोक में पहुँच चुका होता! लेकिन तुम्हारे शिष्टाचार, आचार, शक्ति-सामर्थ्य को हमने स्वयं देखा! आपके ये तर्क, शीलता, विनम्रता प्रशंसनीय हैं!"

मैंने उसको नमन किया और वो पीछे हट गयी! अब तीसरी कन्या आगे आई और बोली, "हे मानव! हम प्रसन्न हैं! अति-प्रसन्न! तुमको हमने सर्प-हत्या से मुक्त कर दिया! जिस विषय में आप आये वो भी पूर्ण हो गया! सुनो, आज से २ दिवस पश्चात हमारे गन्धर्व यहाँ आयेंगे, हम चाहती हैं कि आप उनसे भी मिलो!"

उसने ऐसा कहा और पीछे हट गयी! मैंने उसको भी नमन किया!


   
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श्रीशः उपदंडक
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इसके बाद जैसे नभ में सूर्य को काले बादल ढांप लेते हैं और फिर सूर्य के ऊपर से आवरण सा हटता है ऐसा कह के वो अदृश्य हो गयीं!

हम दोनों काफी देर तक उसी शून्य में निहारते रहे, उनके प्रतिबिम्ब अभी तक हमारे चक्षु-बिम्ब पर विद्यमान थे!

थोड़ी देर बाद दृष्टि सामान्य हुई, इस पृथ्वीलोक का क्रंदन कानों में पड़ने लगा! श्वास सामान्य होनी शुरू हुई! पक्षियों की चहचाहाहट सुनाई देने लगी! एक घंटा लगा गया सामान्य होने में!

मै वहाँ से उठा, शर्मा जी भी उठे! वृक्षों में प्राण-संचार होने लगा! मुरझाये पौधे संयत होने लगे!

मैंने शर्मा जी से कहा, "शर्मा जी, क्या कहते हो, गन्धर्वों से मिलना है?"

"हाँ गुरु जी, ऐसा दिव्य-अवसर न जाने फिर कभी प्राप्त हो न हो!" उन्होंने कहा,

"ठीक है! जैसा आप कहो!" मैंने कहा!

उसके बाद हमने राजेश को फ़ोन किया! राजेश वहीँ अपने किसी परिचित के पास था, ४ घंटे बीत चुके थे! वो दौड़ा-दौड़ा आया!

हम गाडी में बैठे! शर्मा जी ने कहा, "राजेश जी, क्या आपने किसी निर्धन कन्या का समस्त खर्च वहन किया अभी तलक?"

"अभी नहीं शर्मा जी, अभी तो स्वयं की ही हालत खराब है!" उसने कहा,

"अब कुछ नहीं होगा, सब ठीक हो गया है, परन्तु आप ये कार्य शीघ्रातिशीघ्र कीजिये!" मैंने कहा,

"जैसा आप कहें गुरु जी" उसने कहा,

उसके बाद हम राजेश के घर की ओर रवाना हो गये! दो दिनों के पश्चात मै और शर्मा जी वहाँ आये! और गन्धर्वों से मिलन हुआ! गन्धर्व-कन्याओं से भी! मौखिक-वार्तालाप आदान-प्रदान हुआ! अब उनका अगला ऋतु-परिवर्तन ज्येष्ठ माह में था, वो भी सिंहल-द्वीप में!

गन्धर्वों से मुझे एक श्याम-भस्म प्राप्त हुई! ये भस्म क्रिया के समय पयोग होती है, सुगन्धिवर्धक और भस्म होने के पश्चात पुनः यथावत हो जाती है! प्रेत-बाधा ग्रस्त किसी भी मनुष्य को यदि इसकी मात्र एक धूनी दे दी जाए तो प्रेत-बाधा का अंत हो जाता है!

इसके उपरान्त मै और शर्मा जी वहाँ से वापिस दिल्ली प्रस्थान कर गए!


   
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श्रीशः उपदंडक
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करीब तीन महीनों के बाद राजेश ने बताया कि उसकी पारिवारिक, सामाजिक और आर्थिक सुधर गए हैं! विभागीय-जांच में वो निर्दोष पाया गया है!

मैंने मन ही मन गन्धर्वों को नमन किया!

मित्रगण! ये समस्त सृष्टि एक रहस्य है! जी वस्तुएं हमको दिखती हैं स्थूल रूप से, उनका सूक्ष्म-रूप भिन्न होता है! संसार में हर घटना के पीछे एक कारण निहित होता है! जब कोई व्यक्ति इस कारण को समझ लेता है तो वो आधुनिक-जगत में वैज्ञानिक कहलाता है! परन्तु जो उसने खोजा, वो तो निरंतर से यहाँ विद्यमान रहा है! आज का मनुष्य अभी भी संपूर्ण तत्व-ज्ञान से अनभिज्ञ है!

इस पृथ्वी पर ८४ लाख योनियाँ वास करती हैं! परन्तु विज्ञान आज तक उनको नहीं खोज पाया है! नित्य नए जीव खोजे जाते हैं! जल में, थल में, नभ में आदि आदि! ये गन्धर्व योनि भी उन्ही में से एक है! ये शाश्वत योनि है! किसी भी युग का इनको प्रभाव नहीं होता! क्यूँ? इस क्यूँ का उत्तर बहुत बहुत दीर्घ है!

इस सूत्र में कई तथ्य, शब्द, अशरीरी-अस्तित्व कई लोगों को मनघडंत लग सकते हैं! लेकिन आँखें बंद कर लेने से सूर्य लोप नहीं हो जाते! हमारे भी पूर्वज रहे हैं, सभी के होते हैं, तभी तो हमारा अस्तित्व है! बीज से बीज उत्पन्न होता है! हमने अपने पर-पर-दादा नहीं देखे! तो क्या उनका अस्तित्व कभी रहा ही नहीं??

शेष अवलोकन और अन्वेषण मै  आपपर छोड़ता हूँ!

----------------------------------साधुवाद---------------------------------


   
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