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वर्ष २०११ यमुनानगर की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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वर्ष २०११ यमुनानगर…..मै इस भयावह शमशान में शर्मा जी के साथ आया था, रात्रि २ बजे, और मेरे साथ २ महिलायें, एक शादीशुदा, अपने पति के साथ और एक अविवाहित अपने पिता समेत यहाँ आये थे, ३ दिनों की अथक मेहनत पश्चात ये अवसर आया था, मै उनको उस शमशान में बने एक कमरे में ले आया, और उनको वहाँ बिठाया, वो कुल मिला के ४ लोग थे, २६ वर्षीय स्त्री नंदिता और उसका पति प्रवीण, अरुणा अविवाहित थी और उसके पिता कमल, अरुणा को उसके पिता ने संभाल के पकड़ रखा था, और नंदिता ने भी उसको टेक लगा रखी थी, अरुणा की उम्र कोई २३ वर्ष होगी, वो एक हस्त-शिल्प से सम्बंधित एक कार्यालय में नौकरी करती थी, समस्या इसी अरुणा के साथ हुई थी!

अरुणा का परिवार शांत और सुखी परिवार था, उसके परिवार में माता-पिता, एक बड़ी बहन, जिसका विवाह २ वर्ष पहले हो चुका था, और एक छोटा भाई था, पिता की एक मिठाई की दुकान थी, काम बढ़िया था तो परिवार में कोई भी कमी जैसी बात नहीं थी, भाई अभी पढाई कर रहा था, अरुणा पढाई समाप्त करके नौकरी कर रही थी और नौकरियों के आवेदन भी कर रही थी,

मुझे अरुणा की समस्या के बारे में मेरी एक परिचित महिला ने बताया था, अरुणा के परिवार वालों से अरुणा का हर इलाज जो संभव था, करवाया था, परन्तु कोई लाभ नहीं हुआ था, उसका झाड-फूंक का इलाज भी करवाया लेकिन वो भी असफल!

अरुणा का ये परिवार यमुना नगर में रहता था, एक बार अरुणा को कार्यालय के काम से सूरजकुंड मेले में आना पड़ा, करीब ५ दिनों तक वो यहीं रही, और ५ दिनों के बाद वो वापिस अपने घर चली आई, लेकिन जब वो आई तो काफी बदली बदली सी थी, उसका चुलबुला स्वभाव अब गंभीर हो गया था, जब कार्यालय जाती थी तो ही बात करती थी, और जब वापिस आती थी तो अपना दरवाज़ा बंद करके अन्दर ही बैठी रहती थी, खाना भी कम ही खाया करती थी, ये बदलाव परिवारजनों ने भी महसूस किए और उस से इस विषय पर बात की, लेकिन उसने गोलमोल जवाब देकर उनके सवालों को टाल दिया!

कोई २० दिनों के बाद वो बीमार हो गयी, उसको अस्पताल में दाखिल करवाया गया, वो वहाँ एक हफ्ते रही, फिर छुट्टी होने के बाद घर पर आ गयी, उसका स्वास्थ्य तो सुधर गया था, लेकिन व्यवहार वैसा ही रहा, कोई बदलाव नहीं आया, उसका इलाज कराया गया, ऊपरी इलाज भी करवाया लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ, इसका जिक्र अरुणा की माता ने मेरी एक


   
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श्रीशः उपदंडक
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परिचित महिला से किया, उन्होंने मुझसे बात करवाई, मैंने तब अरुणा का कोई कपडा मंगवाया दिल्ली, अरुणा का भाई वो कपडा दे गया!

मै जब रात्रि-समय अलख में बैठा तो मुझे सारा रहस्य पता चल गया! अरुणा बेहद खतरनाक स्थिति में थी, दिन प्रति दिन वो मृत्यु की ओर बढे जा रही थी, ये बात मैंने शर्मा जी के अतिरिक्त किसी और को नहीं बताई, अरुणा को बचाना अत्यंत आवश्यक था, मैंने तब शर्मा जी से कहा की वो अरुणा की घर पर इत्तला कर दें कि हम आ रहे हैं!

हम अप्रैल माह में ११ तारीख को वहाँ पहुँच गए! हमको लेने अरुणा के पिता और उनका पुत्र आये थे, नमस्कार से स्वागत हुआ तो मैंने वहीँ अरुणा के बारे में पूछा, उन्होंने बताया कि अभी तक कोई सुधार नहीं है उसमे और उसकी हालत दिन-बा-दिन खराब होती जा रही है, डॉक्टर्स को कोई बीमारी नहीं मिल पा रही है!

मैंने तभी अरुणा के पिता से कहा कि वो अभी अपने घर फ़ोन करें और ये पूछें कि अरुणा क्या कर रही है? उन्होंने फ़ोन किया और पूछा,"अरे ज़रा देखना अरुणा क्या कर रही है अभी इसी समय?

और जो जवाब आया उको सुन के अरुणा के पिता, भाई यहाँ और माता जी वहाँ डर गए!

अरुणा अपने बिस्तर से उतर कर फर्श पर बैठी थी, उसने अपने दोनों हाथ अपनी पीठ पर, कंधे के ऊपर से ले जाकर, रखे हुए थे, बाल खुले हुए थे! और वो बहुत तेज-तेज झटके खा रही थी! जन उसकी माता जी ने उसको पकड़ना चाहा तो किसी ने उनके पेट में एक लात जैसी मारी! वो नीचे गिरीं तो अरुणा दौड़कर आई और उनके ऊपर लेट गयी और बेहोश हो गयी!

अब हम जल्दी से अरुणा के घर जाने की फिराक में थे, अरुणा के भाई ने गाडी दौड़ा दी! हम लोग जल्दी जल्दी अरुणा के घर पहुंचे! दरवाज़ा खुला हुआ था, वो मुझे बैठने को बोले तो मैंने उनको सीधे अरुणा के कमरे में जाने की बात कही, वो मुझे फ़ौरन अरुणा के कमरे में ले गए, अरुणा की माता जी वहीँ कमरे के बाहर बैठी हुईं थीं, उन्होंने नमस्कार किया तो मैंने भी, मैंने उनसे कहा, "माता जी, अरुणा कहाँ है?

"मैंने उसको बहुत रोका, लेकिन वो जल्दी-जल्दी कपडे पहन कर बाहर चली गयी" उन्होंने रोते रोते कहा,

"घबराइये मत, उठिए वहाँ बैठिये आप" मैंने उनको एक कुर्सी की तरफ इशारा करते हुए कहा,

वो वहां से उठीं और उस कुर्सी पर बैठ गयीं, मैंने पूछा, "माता जी, जब अरुणा के पिताजी का फ़ोन आया तो आप उसको कमरे में देखने गयीं, आपने क्या देखा, मुझे बताइये ज़रा?"


   
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श्रीशः उपदंडक
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"मै उस समय रसोई में थी, जब इनका फ़ोन आया, तब मै उसको कमरे में देखने गयी, कमरे का दरवाज़ा अन्दर से बंद तो नहीं था, हाँ भिड़ा ज़रूर हुआ था, मैंने उसको आवाज़ दी तो कई आवाज़ें देने पर भी उसने दरवाज़ा नहीं खोला, मैंने थोडा जोर लगाया तो दरवाज़ा खुला, मैंने देखा की वो फर्श पर बैठी हुई थी, बाल खुले हुए थे, और ऐसा लगा की उसके हाथ किसी ने पीछे से पकड़ रखें हों, वो अपने पाँव ऐसे चला रही थी जैसे कि कोई उसको मार रहा हो और वो छोटने कि कोशिश कर रही हो, मै अन्दर भागी, तो मेरे अन्दर घुसते ही किसी ने, मुझे लगा, लात अड़ाई, जो मेरे पेट में लगी, जैसे किसी ने लात मारी हो, मै पीछे कि तरफ गिरी, अभी मै इनको फ़ोन करने वाली ही थी, मैंने जैसे ही फ़ोन उठाया, वो वहाँ से अपने हाथ-पांवों पर दौड़ी-दौड़ी आई और मेरे ऊपर आ कर लेट गयी, और निढाल हो गयी, मैंने कैसे भी करके उसको उठाया तो वो एक दम से खड़ी हो गयी! और अन्दर कमरे में भाग गयी, ५ मिनट के बाद कपडे पहन के आई और बिना बताये बाहर चली गयी, मैं बहुत आवाज़ लगायीं लेकिन उसने अनसुना कर दिया" ऐसा बोल के वो फिर से सिसकियाँ लेने लग गयीं,

मैंने उनको हिम्मत बधाई और मै शर्मा जी के साथ अरुणा के कमरे में घुसा, असहनीय दुर्गन्ध से मेरा सामना हुआ, मैंने कलुष-मंत्र पढ़ा मेरे सामने सब कुछ स्पष्ट हो गया! वहाँ नीचे फर्श पर इंसानी विष्ठा का ढेर लगा था! सड़े-गले मानव-अंग पड़े थे, जिनमे कीड़े रेंग रहे थे, लोहे के ९ थाल पड़े थे, जिनमे रक्त भरा हुआ था! ऊपर छत पर कीड़े-मकोड़े रेंग रहे थे, लाल रंग के, काले रंग के, और पीले रंग के! लेकिन उनकी आँखें नहीं थीं! मैंने कलुष-मंत्र मंत्र को दुबारा पढ़ा, इस बार मुझे वहाँ ९ आकृतियाँ दिखाई दीं! काली-स्याह आकृतियाँ! ये सभी एक दूसरे से टकरा रही थीं! ये आकृतियाँ न भूत थीं, न प्रेत, और न ही महाप्रेत! ये मुझे पिशाचिनी का निवास-स्थान लग रहा था!

मै कमरे से बाहर आया, हाथ मुंह धोया और फिर शर्मा जी के साथ बाहर चला गया, अरुणा का घर काफी बड़ा था, कोई ३०० गज में, दो तरफ से खुला, यानि की वहाँ मकान की जो कतार थी उसमे ये आखिर में था, मकान के दायें हाथ पर एक सड़क थी, सड़क के साथ ही एक बाउंड्री बनही थी, कोई ६ फीट ऊंची, उस पर लोहे की बाढ़ लगी थी, सामने एक खुला पार्क जैसा, मैंने बाढ़ के बाहर झाँका तो मुझे एक दम साफ़ मैदान सा दिखाई दिया, बंजर सा मैदान! सारा नज़ारा उनके मकान की छत से देखा जा सकता था, सो मै उनकी छत पर चला गया! बाढ़ के पार देखा तो बियाबान मैदान था! पेड़, झाड आदि ही थे वहाँ!

हम नीचे आ गए, मैंने अरुणा के पिता से पूछा, "ये मकान आपने कब लिया था?"

"कोई ८ साल पहले" वो बोले,

"अच्छा, यहाँ कोई पहले भी रहता था क्या?" मैंने पूछा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"हाँ, एक सरकारी अधिकारी थे यहाँ पर, उन्होंने ने ही ये मकान बेचा था"

"ह्म्म्म! अच्छा, मै खड़ा हुआ और मकान को गौर से देखा, और फिर बैठ गया,

इतने में ही चाय आ गयी! हमने चाय पी, उसके बाद मैंने अरुणा के पिता जी से छत पर बने एक कमरे को हमे देने के लिए कहा, वो मान गए और हम अपना सारा सामान वहाँ ले गए, वहाँ एक तख़्त पड़ा था, सामान वहीँ रख दिया, उसके बाद वहाँ उन्होंने एक और फोल्डिंग-पलंग बिछवा दिया, अब हम बैठ गए वहाँ! तब मैंने वहां शर्मा जी को, आवश्यक सामग्री लिखने हेतु कहा, मै सामग्री बतायी और शर्मे जी ने उसको लिख लिया, वो उसको लेकर अरुणा के पिता के पास चले गए, और अरुणा के भाई के साथ शर्मा जी वो सारी सामग्री लेने चले गए, करीब आधे घंटे के बाद मेरे पास सारी सामग्री आ गयी, अब मैंने पूजन शुरू किया, आधे घंटे तक सशक्तिकरण करने के पश्चात मैंने स्वयं और शर्मा जी को तन्त्राभूषण धारण करवा दिए, और उनके ऊपर मैंने १७ मंत्र-प्रयोग किये! मैंने उनको अपने साथ रखना था, अतः उनका सशक्तिकरण आवश्यक था, मैंने सामग्री में से शराब की एक बोतल और बकरे का मांस निकाला, एक थाली में मांस डाल कर उसको शराब से भर दिया! अब मैंने एक कारिन्दा प्रकट किया! कारिन्दा प्रकट हुआ! मैंने उसको 'खोज' करने के लिए रवाना किया! जाते-जाते उसने अपना भोग लिया और उड़ चला! ५ मिनट के बाद दुबारा हाज़िर हुआ, उसने बताया कि अरुणा घर वापसी के लिए निकल चुकी है, वो बेहद गुस्से में है! मैंने कारिंदे को थपथपाया! और उसको वापिस भेज दिया!

इस से पहले कि अरुणा अपने कमरे में पहुंचे, मेरा और शर्मा जी का वहाँ पहुंचना ज़रूरी था! हम दौड़ के नीचे आये और अरुणा के कमरे में चले गए! हमने अपने साथ उसके पिता और भाई को भी ले लिया! कमरे में बाहर से आते समय केवल उसका भाई और पिताजी ही दिखाई दें, हमने इस तरह कि व्यवस्था कर ली!

अरुणा धडधडाती हुई आई और कमरे में घुस गयी! उसके घुसते ही मैंने कमरे कि कुण्डी लगा दी! उसने हमको क्रोध से देखा! फिर ज़मीन पैर बैठ गयी! ज़मीन पर बैठ कर उसने अपने हाथ ३ बार ज़मीन पर मारे! और गुस्से में बोली, " चले जाओ! सब चले जाओ! जान बचाना चाहते हो तो सब चले जाओ!"

"हम ज़रूर जायेंगे! ज़रूर जायेंगे ओ लड़की! लेकिन उस से पहले मै तेरे बारे में जानना चाहता हूँ, या तो तू आराम से बता दे नहीं तो तेरी टांगें तोड़ दूंगा!" मैंने चिल्ला के कहा!

अरुणा उछली और सीधे कड़ी हो गयी, अपने भाई कि तरफ देख के बोली, "तू मारा जाएगा कमीने, जा यहाँ से चला जा"


   
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श्रीशः उपदंडक
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उसका भाई मारे डर के कांपने लगा! मैंने तब उसके भाई और और उसके पिता जी को वहाँ से निकाल दिया! मैंने फिर से दरवाज़ा बंद कर लिया! अपने साथ लाये हैंडबैग में से मैंने एक इंसानी हड्डी निकाली और फिर ५ घूँट शराब पी, उसके बाद मैंने अपने थूक को उस हड्डी पर मल दिया! और उस हड्डी को मंत्रोचारण से अभी मंत्रित कर मैंने उसके और अपने बीच एक रेखा खींच दी! अरुणा बड़े गौर से ये देखे जा रही थी, मेरे हाथ, उँगलियों पर उसकी नज़रें टिकी हुई थीं! मैंने अब फिर से कलुष-मंत्र का प्रयोग किया और शर्मा जी के नेत्रों पर भी लगाया! उनको भी वहीँ सब-कुछ दिखाई देने लगा! रेखा के बाहर आग जैसी गर्मी भड़की थी! तभी अरुणा के पास एक एक करके ज़मीन के अन्दर से ८ पिशाच निकले! उन्होंने अरुणा को पीछे ढक लिया!

मै और वो ८ पिशाच कम से कम २० मिनट ताका बिना कोई हरक़त किये एक दूसरे को घूरते रहे!

उन्होंने अरुणा को ढक के रखा हुआ था! तभी एक पिशाच ने हमारे ऊपर एक कटोरा राख उठा के मारी! वो कटोरा हमारे तक पहुंचा लेकिन अस्थि-कवच से वो टकराया और फट गया! राख कमरे में फ़ैल गयी! मेरे कपड़ों पर भी राख फ़ैल गयी थी! मैंने एक मंत्र पढ़ा और वो हड्डी शराब के एक घूँट से फिर से अभिमंत्रित की और उस हड्डी पर मैंने कुल्ला कर दिया! अब मैंने वो हड्डी उन पर फेंक के मारी! आठों के आठों गायब हो गए! और अरुणा वहाँ अकेली खड़ी रह गयी! मैंने अरुणा को आवाज़ दी, उसने मेरी आवाज़ सुनी लेकिन सर नीचे करके अनसुनी करती रही! अब वो पिशाच फिर से लौटे, इस बार उनके हाथों में मानव-आतें थीं! उन्होंने उनको खाया! और सभी एक एक करके एक दूसरे से कंधे मिला के खड़े हो गए! उनमे से एक ने अरुणा को उठाकर अपनी गोद में बिठा लिया! और उसको भी वो आंतें खिलाने लगे! अरुणा भी उनका भक्षण करने लगी! मै उनका आशय समझ गया! उनका आशय था, 'ये हम में से एक है अब, इसको वे लोग पिशाच बनायेंगे' मैंने तभी एक मंत्र पढ़ा और एक शक्ति प्रकट की, मानव-भक्षण करने वाले पिशाचों पर कोई मानव-भक्षी शक्ति ही काबू करती है, साधारण नहीं! मैंने जो शक्ति प्रकट की थी वो महा-कपालिनी थी! मानव-मांस-भक्षी!

इसका रूप बड़ा रौद्र होता है मित्रो! इसकी आँखें एक दूसरे से समान अनुपात में नहीं होतीं! बल्कि बहुत दूर दूर होती हैं! गले में मानव-मुंड धारण करती है! कमर में मानव की जिव्हा से बनी जिव्हा-माल धारण करती है! पाँव में मानव-रीढ़ की बनी पायजेब धारण करती है! इसका एक पाँव दीर्घ और एक लघु होता है! मुख गले के समीप होता है! नाक की जगह सिर्फ २ नसिकाएं ही होती हैं! कान फटे हुए होते हैं, अघोरियों के अभेद्य रक्षक परम बलशाली, क्रूर और स्थूल-देहधारी होती है! सभी अघोरी इसको नमन करते हैं! मैंने भी किया! महा-कपालिनी के प्रकट होते ही वो पिशाच वहाँ से भागे! सारे ज़मीन में घुस गए! अरुणा को


   
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श्रीशः उपदंडक
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उन्होंने एक धक्का मारा! अरुणा वहीँ गिर गयी! मैंने फिर अरुणा को आवाज़ दी, लेकिन अरुणा ने फिर से मुझे अनसुना कर दिया!

मैंने महा-कपालिनी को प्रकट कर उन पिशाचों को अपने शक्ति-सामर्थ्य का परिचय दे दिया था! मुझे महा-कपालिनी को वापिस भेजना पड़ा, मेरी विवशता थी, मै उसका 'भोग' उसको यहाँ नहीं दे सकता था! उसका भोग अन्यत्र शमशान था! आप सब समझ गए होंगे की मेरे कहने का क्या आशय है!

फिर से वहाँ ज़मीन में हलचल हुई! अब वहाँ वो पिशाच ८ नहीं, कम से कम २० आये थे! सभी कद्दावर! सभी स्थूल-कायाधारी! उसमे से एक ने मेरी खींची हुई रेखा को देखा, वहाँ तक आया और बोला, "क्या चाहता है तू?"

"इस लड़की को आज़ाद कर दो अपने चंगुल से, अभी इसी वक़्त!" मैंने कहा,

उसने मेरी बात सुनके अपने पीछे खड़े सारे पिशाचों को देखा और सभी ने भयानक अट्टहास किया! जैसे मेरा मज़ाक उड़ा रहे हों!

"ऐसा तो कभी नहीं हो सकता! ये मेरे साथी खिद्दा की बीवी है" उसने बताया!

"खिद्दा की माँ की XXXX! बुला साले हरामी खिद्दा को आज उसकी का काम ख़तम करूँगा!" मैंने ये कहा और फ़ौरन एक मंत्र पढ़ा! शराब का घूँट भरा और उसकी धार को रेखा के पार फेंक दिया! वहाँ धुंआ उठने लगा! सभी पिशाच वहाँ से भागे!

"अरुणा? अरुणा?' मैंने कई आवाजें दी उसको लेकिन उसने फिर से अनसुना कर दिया!

"गुरु जी, इसको मै उठा लाऊं वहाँ से?" मेरे पीछे से शर्मा जी बोले,

"नहीं शर्मा जी नहीं, ये महापिशाच है, अपने स्थान के स्वयं सिद्ध हैं, और काफी पुराने भी लग रहे है, आप वहीँ रुको जहां आप हो अभी!" मैंने उनको बताया,

तभी वहाँ कई औरतों के रोने की, चीख-पुकार की आवाजें आयीं! वहां ज़मीन के अन्दर से दो चोटीधारी महा-पिशाच निकले! वो ऊपर आये और उनके पीछे आई एक औरत! एक दम भक्क काली! केवल उसकी आँखें ओ दिखाई दे रही थीं! पीली आँखें!

"तू कौन है रे?" उसने अरुणा के सर पर हाथ फेरते हुए मुझसे पूछा,

"तुम्हारा काल हूँ मै" मैंने जवाब दिया!

"अच्छा! हमारा काल!" उसने हंस के कहा!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"हाँ कमीनी पिशाचिनी, तुम सभी का काल!" मैंने चिल्ला के कहा!

"सुन बाबा की औलाद! ये मेरी बहु है, खिद्दा की बीवी" उसने कहा,

"बुला उस साले खिद्दा को मेरे सामने, साले का अगर मै न आज डमरू बजा दूँ तो यहाँ से जाऊँगा नहीं, तेरा गुलाम बन जाऊँगा!"

"खिद्दा की बीवी को हाथ लगाया न तो तेरा सत्यानाश कर दूँगी मै!" वो बोली उसने अरुणा के बाल तोड़े और खाती चली गयी!

अब मुझे भयानक क्रोध आया! भयानक क्रोध! मैंने अपना हाथ काटा, रक्त लिया और उसको अपने दूसरे हाथ में भरा, शराब मिलाई और मै वो रक्त पी गया! और मैंने एक मंत्र पढ़ा, मै नीचे बैठा और खड़ा हो गया!

मेरे अन्दर अब श्री श्री मणिभद्र-क्षेत्रपाल के एक गण ने प्रवेश किया! ये देख सारे प्रेत वहाँ से भाग खड़े हुए! वो स्त्री वहाँ से ही लोप हो गयी! मैंने वो रेखा पार की, और अरुणा के पास पहुंचा, अरुणा को उसके बालों से उठाया और उसको रेखा के उस पार फेंक के मारा! फिर मै वहाँ से रेखा पार करके अपने स्थान पर आ गया! शर्मा जी ने मेरे मुख में एक 'सामग्री' डाली मै फिर से यथावत हो गया! अरुणा का पाश टूट चूका था!

मैंने अरुणा को देखा, वो बेचारी डर के मारे बेहोश होने ही वाली थी की मैंने, उसको उसके कंधे से पकड़ लिया! वहाँ उसके पिता और भी को बुलाया, और उसको वहाँ से ले जाने को कहा!

वे दोनों उसको वहाँ से ले गए! मैंने शर्मा जी के साथ वहीँ रुकने की ठानी और दरवाज़ा अन्दर से बंद कर लिया! तब मैंने उस स्थान को अपने दो ख़बीसों की निगरानी में रखा, और वहाँ, कमरे से बाहर आ गया, कमरे को ताला लगा दिया, क्यूंकि अब मै अरुणा को देखना चाहता था, अरुणा को उसकी माता जी ने स्नान करवा दिया था, अब वो संयत तो नहीं थी, परन्तु प्रश्नों का उत्तर हाँ या न में दे सकती थी, मेरा उस से बात करना परम-आवश्यक था, मैंने वहाँ से अरुणा के पिता, माता और उसके भाई को हटवा दिया, और केवल अरुणा को ही कमरे में रहने दिया, बाहर प्रातःकाल का आरम्भ होने ही वाला था, मैंने अरुणा को बिस्तर पर लिटाया, तभी बाहर मुझे किसी स्त्री के रोने की आवाज़ आई, मै और शर्मा जी बाहर गए तो अरुणा की बड़ी बहन नंदिता और उसका पति आये थे, अरुणा की माता जी ने संभवतः उनको फ़ोन कर दिया था, नंदिता रोटी हुई मेरे पास आई, मुझे हाथ जोड़ कर नमस्कार किया, वो जैसे कमरे में घुसी, अरुणा भी उठी और दोनों बहनें गले मिलके रोने लगीं, मैंने वहाँ से निकल जाना बेहतर समझा, मै शर्मा जी को ले कर बाहर आ गया, मैंने नहाने के लिए ऊपर चला गया, मेरे बाद


   
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श्रीशः उपदंडक
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शर्मा जी भी स्नान आदि से निवृत हो गए, मैऔर शर्मा जी काफी थक गए थे, हमने एक एक कप चाय मंगवाई और फिर हमारी आँख लग गयी!

करीब एक बजे मेरी नींद खुली, मैंने अरुणा के पिता जी को बुलवाया, अरुणा के घर में मातम सा छाया था, घर में एक दो नए लोग भी दिखाई दे रहे थे, मैंने अरुणा के पिता जी से पूछा, " अरुणा कैसी है अब?"

"वैसे तो ठीक है लेकिन बेहद डरी हुई है, और हम सभी का यही हाल है गुरु जी, अगर आप न आते तो न जाने क्या हो गया होता, मेरी बेटी को खा गए होते वे, आप ने मेरी बेटी को बचा लिया गुरु जी, मै कैसे आपका धन्यवाद करूँ?" उन्होंने हाथ जोड़ कर ऐसा कहा,

"अरे आप घबराइये नहीं, हम सब कुछ निबटा देंगे, आपकी बेटी और आपका परिवार इस समस्या से हमेशा के लिए निजात प्राप्त कर लेगा, आप न घबराइये!" शर्मा जी ने उनके हाथ पकड़ कर कहा,

"सुनिए, आप एक काम कीजिये, जान नीचे अरुणा का कमरा है, वहाँ से उसका सारा सामान निकलवा दीजिये बाहर, और दो मजदूरों का प्रबंध कीजिये, मुझे उस कमरे में खुदाई करवानी है" मैंने बताया,

"गुरु जी, जैसा आप कहेंगे मै करवा दूंगा, मै अभी मजदूरों का प्रबंध करवाता हूँ, प्रबंध होने पर मै आपको सूचित करता हूँ" वो ऐसा कहके नीचे चले गए,

"गुरु जी, आप वहाँ खुदवायेंगे?" शर्मा जी ने कहा,

"हाँ शर्मा जी, समस्या इस घर में ही है, इस घर के नीचे कोई रहस्य दफ़न है, मै वो जानना चाहता हूँ, या तो अरुणा का ये परिवार ये जगह छोड़ दे, या फिर अरुणा से हाथ धो लें ये लोग, इसीलिए मै वहाँ का रहस्य उजागर करना चाहता हूँ" मैंने कहा,

"ठीक है गुरु जी" शर्मा जी ने कहा,

इतने में ही अरुणा का भाई दौड़ा-दौड़ा ऊपर आया, मैंने पूछा, "क्या बात है?"

"गुरु जी अरुणा के पेट में दर्द है, तड़प रही है, आप ज़रा देख लीजिये" वो गिडगिड़ाया,

हम नीचे भागे, अरुणा नीचे कमरे में दर्द के मारे दोहरी हुई पड़ी थी, उसने अपने दोनों हाथ अपने पेट पर रखे हुए थे, मैंने वहाँ से सभी को हटाया, अब कमरे में मै, शर्मा जी और अरुणा ही रह गए, मैंने अरुणा को देखा, एक मंत्र पढ़ा और अरुणा के सारे बदन पर फेर दिया, मात्र कुछ की क्षणों में अरुणा का दर्द समाप्त हो गया, लेकिन मैंने एक भयानक दृश्य देखा! मैंने देखा,


   
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अरुणा ने अपनी आँखें बंद कर रही थीं, वो सुकून महसूस कर रही थी, मंत्र-प्रभाव से लेकिन, उसके कपडे नीचे योनि को ढकने वाले खून से सन गए थे, उसमे से खून टपक रहा था, मैंने फिर से एक और मंत्र का उच्चारण किया, कलुष-मंत्र पढ़ा, और आँखें खोल के जा देखा तो मै सन्न रह गया! अरुणा के गर्भ में प्रारभिक अविकसित भ्रूण था! ये भ्रूण पिशाच-भ्रूण था!

मैंने ये बात शर्मा जी को बतायी, वो भी दंग रह गए! मेरे कहे अनुसार शर्मा जी बाहर गए और वहाँ इस बात से सभी को अवगत करवा दिया, सभी अवाक रह गए! मैंने तब अरुणा के पिता जी को कह कर, उनकी पत्नी से अरुणा के कपडे बदलवाने को कहा, और वो खून-आलूदा कपडे मुझे देने को कहा,

मेरे पास वो खून-आलूदा कपडे आ गए, मैंने उसको एक पन्नी में रखा, तभी २ मजदूर भी आ गए, मै उनको लेके फ़ौरन उस कमरे की तरफ ले गया, ताला खोला और मजदूरों को वहाँ एक निशाँ और परिमाप लगवा कर शर्मा जी की निगरानी में खुदाई शुरू करवा दी, शर्मा जी के नेत्रों को में मंत्र-खचित कर आया था, उनको वहाँ खड़े खबीस भी दिखाई दे रहे थे, मैंने वो कपडे उठाये और ऊपर चला गया! मैंने सामान निकाल कर क्रिया आरम्भ की, २ महाशक्तियों का आह्वान किया! परा-शक्तियां प्रकट हुई! मैंने उनके आह्वान से अपने तन्त्राभूषण प्राण-सृजित किये और नीचे कमरे में आ गया! तब तक कमरे में ४ फीट खुदाई हो चुकी थी,

अचानक, एक मजदूर की कुदाल के एक ज़ोरदार प्रहार से वहाँ रखा एक बड़ा सा पत्थर नीचे खिसक गया, वो मजदूर नीचे गिरते-गिरते बचा! अब मैंने खुदाई बंद करवा दी, और अरुणा के पिता जी से मजदूरों का हिसाब चुकता करवाने को कह दिया! मजदूर चले गए, और एक सीढ़ी का प्रबंध करने को कहा, सीढ़ी का प्रबंध १० मिनट में ही हो गया, मैंने वो सीढ़ी कमरे में रखवाली और तब मैंने शर्मा जी से दरवाज़े में अन्दर से चटकनी लगाने को कहा, और मैंने फिर अपना बैग खोला, उसमे से तमाम आवश्यक वस्तुएं निकाल लीं, मैंने खिसके पत्थर के पास गया, ये गड्ढा कोई ३ गुणा ४ फीट के लगभग था, नीचे काफी अँधेरा था, तल नहीं दिखाई दे रहा था, मैंने अपनी टोर्च जलाई, टोर्च की रौशनी नीचे की, नीचे रौशनी पड़ते ही, मुझे तल पर हज़ारों सांप, कीड़े-मकौड़े, ज़हरीले बिच्छू दिखाई दिए!

मैंने तभी एक अभिमंत्रित अस्थि नीचे फेंकी! नीचे सारे रेंगते सांप, कीड़े-मकौड़े, बिच्छू गायब हो गए, मैंने सीढ़ी उठा के नीचे लटकाई, सीढ़ी कोई ६ फीट नीचे जा कर तले पर टकराई, मैंने थोडा जोर दिया तो सीढ़ी थमी हुई लगी! मैंने अपनी दोनों शक्तियों को नमन किया, स्वयं को और शर्मा जी को प्राण-रक्षा मंत्र और देह-रक्षा मंत्र से बाँधा और हम टोर्च लेकर नीचे कूद गए! नीचे काफी अँधेरा था, दुर्गन्ध के मारे हालत खराब थी, सही से खड़े होने की जगह भी नहीं थी, गर्दन झुकाए हुए ही आगे बढ़ना था, वहाँ पेड़ों की सी जड़े अटी पड़ीं थीं, तभी मैंने एक संकरे से


   
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रास्ते पर टोर्च की रौशनी मारी, वहाँ देखा तो आगे एक दालान सा दिखाई दिया, लेकिन वहाँ पहुँचने पर रास्ता बंद हो गया था, मैंने फिर आसपास नज़र दौडाई तो कोई रास्ता नहीं दिखाई दिया, हम वापसी के लिए मुड़े, तभी मुझे लगा की कोई हमारे पीछे से भागता हुआ आ रहा है, मैंने पीछे देखा, वहाँ पिशाचों की पूरी एक टोली थी! मेरी एक शक्ति ने उनको आगे बढ़कर पकड़ना चाहा, वे भागे आगे आगे और हम उनके पीछे! आगे फिर एक दालान सा आया, फिर वैसी ही एक जगह! लेकिन यहाँ से मैंने देखा की सूरज की रोशनी अन्दर आ रही है, मै समझ गया, हम उत्तर दिशा की ओर बढे थे, यानि की हम उस मैदान के नीचे थे! अब हमको वापिस जाना था, ये रास्ता यहीं से था! हम वहाँ से बाहर आये, सीढ़ी पर चढ़े, और कमरे में आ गए, सारे कपडे मैले-कुचैले हो गए थे! खैर, तब मै और शर्मा जी छत के ऊपर आये और बाहर मैदान की ओर देखा, फिर अपनी घडी को, शाम के ६ बज रहे थे! हमने अपने कपडे बदले, रात होने से पहले मै और शर्मा जी वहाँ मैदान में जाना चाहते थे, हमने देर नहीं की और वहाँ की तरफ चल पड़े, हम अरुणा के भाई के साथ साथ चले, करीब आधा किलोमीटर पर एक जगह वो बाउंड्री टूटी हुई मिली, हम उसमे से अन्दर घुस गए, अरुणा के भाई को वापिस भेज दिया, अब मै और शर्मा जी, जल्दी जल्दी उस मुहाने तक पहुंचे जहां से सूरज की रौशनी अन्दर आई थी, वो जगह हमको मिल गयी, मैंने एक मंत्र का जाप किया, मै हैरान रह गया! यहाँ तो महा-पिशाचों की पूरी बस्ती थी! जैसे की कोई पिशाच लोक! उन सबसे लड़ने में ही कम से कम ५ वर्ष भी कम थे! अब केवल एक कार्य ही किया जा सकता था! उस जगह को ही कील देना! ये कीलन अनंतकाल तक कार्य करेगा, न ये बाहर आयेंगे, न कहीं जायेंगे! १४,००० वर्ष पिशाच योनि के लिए निर्धारित हैं उसके बाद इनका योनि-भोग समाप्त होता है और फिर योनि-परिवर्तन, मैंने उस जगह की २१ जगह की मिटटी उठाने के लिए शर्मा जी से कहा, मै शर्मा जी की निगरानी करता रहा! मिटटी हमने उठा ली, और मै वहीँ क्रिया करने लगा, करीब १५ मिनट के बाद मैंने वो जगह कील दी! उसका कीलन-कार्य समाप्त हो गया!

फिर हम वहाँ अरुणा के घर आ गए, मैंने अरुणा को, उसके पिता को अपने साथ उसी रात एक शमशान में आने को कहा, तब नंदिता और उसके पति ने भी साथ आने को कहा! दो-तीन दिन की मेहनत हो चुकी थी हमारी!

अब हम इस शमशान में थे,अरुणा अभी भी कमज़ोर थी, मुझे उसके भ्रूण को समाप्त करना था, मैंने क्रिया आरम्भ की, पूरे दो घंटे लगे, बलि-कर्म हुआ, भोग आदि दिए गए! मेरे पास उसके जो खून-आलूदा कपड थे, उसकी भस्म उसके गर्भ के ऊपर रख कर क्रियान्वन किया गया था, क्रिया-फल ने अरुणा के गर्भ में पल रहा भ्रूण ख़तम कर दिया! अरुणा को नवजीवन प्राप्त हुआ!

आज अरुणा ठीक है! बिलकुल ठीक! मेरी सलाह के अनुसार उन्होंने वो घर बेच दिया है, जैसे कि पहले मकान-मालिक ने!


   
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श्रीशः उपदंडक
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कई शक्तियां ऐसी है, जिनका अस्तित्व रचियता ने निर्धारित किया है, रचियता की प्रत्येक सजीव और निर्जीव वस्तु सम्मानजनक है! वो पिशाच-बस्ती आज भी वहीँ है और अनंतकाल तक वहीँ रहेगी! कभी कभार हमारे और इन पार-लौकिक शक्तियों के मार्ग एक दूसरे को काट जाते हैं, उसी ऐसे किसी बिंदु पर अरुणा का मार्ग काटा होगा किसी पिशाच ने! या अरुणा ने! मेरा ध्येय उसका बचाना था,

जिसमे में सफल हो गया था!

----------------------------------साधुवाद---------------------------------

 


   
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