"जाग!"
"जाग तोमिता!"
जाग!" वो चिल्लाता!
वहाँ तोमिता नागिन की भांति अकड़ती और फुफकारती! कभी अश्व-मुद्रा में चलती और कभी खड़ी हो जाती! शरीर धूल-धसरित! मिट्टी भस्म उसकी!
"औघड़?" वो चिलाया!
मैंने त्रिशूल लहराया!
"औघड़?" वो फिर चिल्लाया!
मैंने फिर से त्रिशूल लहराया!
"तेरा काल आ रहा है औघड़!" उसने कहा और ठहाके लगाए!
मैं मुस्कुराया!
और तभी पर्णी ने हुंकार भरी!
और बैठ गयी!
चौकड़ी मार!
चुप हो गया भल्लराज!
"हूँ! हूँ!" पर्णी ने आवाज़ निकाली!
मेरे मंत्र और सघन हुए!
"तोमिता?" चिलाया भल्लराज!
"हूँ!" पर्णी ने कहा,
फिर जीभ कंठ तक बाहर निकाल ली!
"आ गयी तू!" औघड़ खुश होके बोला!
"हाआआआआआआआअ!" उसने चिल्ला के कहा,
खड़ी हुई
और तीव्र नृत्य किया!
औघड़ भी शामिल हुआ!
"ले भोग ले तोमिता!" औघड़ ने कपाल-कटोरे में घाल कर शराब दे दी!
सारी एक बार में डकोस गयी!
एक एक करके सारी बोतल!
कच्चा मांस!
भुना हुआ मांस!
सब लील गयी!
और खड़ी हो गयी!
अब तोमिता चली बुलाने धेनुका को!
वहाँ तोमिता आ पहुंची थी और मैं आधे में ही था, मैंने और तेज किये मंत्रोच्चार! मुझे गण-भार्या को पेश करना था अन्यथा अवसर चूकते ही शरीर के बैरी प्राण भाग छूटते! मैं खड़ा हुआ, चिता-भस्म से अपने को लेपित किया और फिर 'ह्रीं ह्रौं' के जाप ने श्मशान में प्राण फूंक दिए! जागृत हो गया!
"भोग दे!" ऑंधिया पुकारे!
मैं शान्त रहकर जाप करूँ!
"भोग दे!" ऑंधिया फिर पुकारे!
क्रोध में नृत्य करे!
महाप्रेत टुकुर टुकुर नैन लड़ावें!
बालकों के झुण्ड के समान भूत-प्रेत क्रीड़ा करें!
कोई छोटा, कोई मोटा! कोई लम्बा और कोई पतला!
औरतें चीखें!
मर्द हँसे!
वृद्ध सामने से गुजरें!
कोई लोट-पोट होवे!
कोई सीधा ही उठ जाए, उड़ जाए!
कोई पेड़ पर चढ़े,
छलांग लगाए!
कोई छलांग मारे और नीचे कूदे!
जागृत हो गया श्मशान!
और मैं केंद्रित!
तभी वहाँ!
एक वृक्ष टूटा!
ये रमास का जंगली वृक्ष था!
अर्थात!
धेनुका की सवारी आने वाली थी!
और यहाँ!
यहाँ मैंने तीसरा चरण समाप्त किया और चौथे पर पहुंचा!
अब खड़ा हुआ मैं!
अपना हाथ काटा!
रक्त की बूँदें मांस पर चढ़ायीं!
और भम्म!
ऑंधिया गायब!
महाप्रेत गायब!
सभी भूत प्रेतों को काठ मारा और गायब!
वहाँ!
प्रकट हो गयी धेनुका!
उसने नमन किया!
सुनहरे वर्ण की धेनुका!
सुनहरे केश!
सुन्दर दैविक देह!
रूप!
हाथ में खडग लिए!
संहार मुद्रा में!
और यहाँ!
मैंने मंत्रोच्चार बंद किया और एक विशिष्ट आसान में पांच बार नाम पुकारा!
और कपड़ा सा चिर गया!
रक्त की बूँदें गिरने लगीं!
मैं नहाने लगा उनसे!
कटे-फटे अंग गिरने लगे!
मुझे उनमे से सुगंध आये!
और!
शून्य में से एक कृशकाय नग्न स्त्री प्रकट हुई!
मैं उसको बिना देखे भूमि पर लेट गया!
हाथ आगे जोड़कर!
वो चलते चलते काँप रही थी!
आँखें भयानक उसकी!
एकदम सफ़ेद!
गाल अंदर धंसे हुए!
वर्ण भयानक काला!
रुक्ष केश, जटाएँ!
अस्थि दंड लिए हवा में चल रही थी!
क्षण-प्रतिक्षण मेरी ओर आते हुए!
वहाँ वो प्रकट!
और यहाँ!
गण-भार्या प्रकट!
हाथ में फाल लिए!
तभी वहाँ!
वहाँ धेनुका के दो सेवक प्रकट हुए!
भीषण बलशाली!
गजराज को भी एक मुष्टिका में पस्त करने वाले महारथी!
धेनुका से उद्देश्य बताया भल्लराज ने,
धेनुका के दोनों सेवक और धेनुका चले लक्ष्य भेदन करने!
मेरे यहाँ पल में प्रकट हुए!
और जैसे चलचित्र एक दम से रुक जाता है वैसे ही शिथिल हो गया!
यहाँ आभामंडल था गण-भार्या का!
दोनों लोप हुए और लोप हुई धेनुका भी!
ये देख तोते उड़े भल्लराज के!
जैसे किसी बालक से उसका खिलौना छीन लिया जाए!
जैसे किसी भूखे व्यक्ति के हाथ से अन्न छीन लिया जाए!
जैसे सच होते हुए भी असत्य ठहराया जाये!
पर्णी मूर्छित पड़ी थी!
मैंने लेटे हुए ही अपना उद्देश्य बताया, एक पल में गण-भार्या वहाँ प्रकट हुई!
और साथ में चार सेवक! एतुल, द्विन्दा, कुरुष और महाभाल!
ये भीषण महाप्रेत हैं!
सिट्टी-पिट्टी गुम भल्लराज की!
जैसे किसी निरीह को फेंक दिया गया भूख से तड़पते हुए सिंह को!
जैसे किसी मूसे को बिल्ली का भय दिखाया जाए!
भूमि पर गिर पड़ा भल्लराज!
गिरे गिरे ही पीछे चलता चला गया!
लेकिन त्रिशूल बहुत दूर था!
काट करने का मौका नहीं मिला उसको!
मारे भय के जिव्हा बाहर और नेत्र और बाहर हो कर एक दूसरे पूछ कर से बचने का उपाय ढूंढने लगे!
श्वास-नलिका में अवरोध उत्पन्न हो गया!
क्रोधित गण-भार्या अपना अस्थि-दंड उठाये भयावह रूप से शत्रु-भेदन हेतु तत्पर थी!
मैं शांत!
जिज्ञासु!
भल्लराज यदि विनती करता तो बच सकता था, परन्तु जब मृत्यु सम्मुख हो तो मस्तिष्क भटक जाता है और मृत्यु के और करीब ले आता है!
यही हाल भल्लराज का!
चिल्लाये तो कैसे?
रोये तो कैसे?
जाए तो कहाँ?
विनती? वो क्या होता है?
सब भूला भल्लराज!
जब दोनों जबड़े आपस में चिपक जाएँ तो मंत्र कैसे बोले जाएँ?
जब ग्रीवा अवरुद्ध हो तो श्वास कैसे आये?
जब काक हलक में उतर जाए शरण लेने तो शब्द कैसे निकलें!
इशारा पाते ही कुरुष ने उसकी छाती पर एक लात मारी!
उड़ चला हवा में भल्लराज! उड़ चलीं समस्त सिद्धियाँ!
भय के मरे चीख भी निकली!
अलख डर के मारे भूमि से स्पर्श करते हुए लोप होने लगी!
कपाल जैसे सामने चलचित्र देखने लगे!
वो करीब तीस फीट गिरा!
हड्डियां चरमरा गयीं!
रीढ़ की हड्डी के जोड़ खुल गए!
पसलियां टूट कर आपसे में उलझ गयीं!
मुंह से रक्त-प्रवाह होने लगा,
यकृत फट गया!
और मूर्छित!
बस!
अब बस!
मैंने विनती की!
गण-भार्या के वीर शांत हुए और फिर लोप!
गण-भार्या मेरे यहाँ क्षण में प्रकट हुई, मैं मुंह भूमि में दबाये नमन करता रहा!
और फिर लोप!
मैं विजयी हुआ!
पर्णी!
यदि मूर्छित न होती तो उसका भी वही हाल होता!
अब पर्णी की तन्द्रा भंग की गयी!
वो जगी, आसपास देखा!
अटक-बटक!
चारों और!
अलख मृत!
और भल्लराज, औंधा पड़ा रक्त-कुंड में!
वो भागी!
भागी वहाँ से!
पहुंची सहायकों के पास!
भेजे सहायक!
उठाया गया भल्लराज को!
प्राण नहीं लेने चाहिए, अथवा आपको उसकी आत्मा का तर्पण भी करना पड़ेगा!
सो प्राण नहीं लिए, नहीं तो टुकड़ों में विभक्त हो गया होता वो!
और सुबह तक, मात्र अस्थियां ही शेष बचतीं!
मैं लेट गया!
विजय-मद चढ़ गया!
आँख लग गयी!
कह सकते हैं मूर्छा आ गयी!
जब मेरी आँख खुली तो सामने बसंतनाथ, चण्डिक और शर्मा जी थे, मुझे सकुशल देख सभी खुश! भल्लराज के बारे में खबर उड़ चली थी! कोई सिद्धि बिगड़ गयी थी उसकी! ठीक ही था!
अब मैं स्नान करने गया!
रात्रि का दृश्य सामने घूम गया!
गण-भार्या का रौद्र-रूप समक्ष आ गया!
मैं वापिस आया! वस्त्र धारण किये और फिर थोडा दूध पिया!
और निकल पड़ा!
पर्णी की ओर!
वे तीनों मेरे साथ थे!
वहाँ भीड़ लगी थी!
वे ऐसे हटे जैसे पानी से काई!
मैं कक्ष में गया!
पर्णी लेटी थी!
मुझे देख वहाँ बैठी महिलायें उठ खड़ी हुई और बाहर चली गयीं!
पर्णी ने मुझे देखा और फिर अश्रु-धारा!
न उसने कुछ कहा और न मैंने!
आपस में मौन वार्तालाप हो गया!
बस इतना ही कहा मैंने उसे, "पर्णी, प्रयास करना कि भविष्य में मेरे समक्ष न कभी आओ, न ही समीप, उस दिन मैं तुम्हारा भी वही हाल करूँगा जो भल्लराज का हुआ!"
ये मेरे उस से कहे अंतिम शब्द थे!
भल्लराज का क्या हुआ, मैंने पता नहीं किया!
डेढ़ वर्ष से अधिक समय हो चला है अब और मुझे बसंतनाथ से ही पता चला कि भल्लराज बच तो गया है परन्तु लोथड़े समान!
और पर्णी!
वो असम चली गयी है!
कभी न वापिस आने के लिए!
मित्रगण!
आज याद करता हूँ,
एक है पर्णी!
असम में!
आज भी!
उस महा-द्वन्द की साक्षी!
ये घटना मैंने इसीलिए यहाँ लिखी, कि मुझे खबर मिली कि पर्णी असम से अब नेपाल चली गयी है!
बस, उसी दिन जिस दिन ये समाचार मिला, मैंने ये घटना यहाँ लिख दी!
दम्भ तो दस सर वाले का नहीं रहा!
और उसके आगे मैं और आप क्या!
क्या बिसात!
दम्भ न कीजिये कभी!
ये ऐसा मोम है जो स्व्यं कभी नहीं पिघलता, हाँ अंदर ही अंदर जलाता रहता है और अंत में चिता में ही दम तोड़ता है!
यही सीख है मेरे पूज्नीय दादा श्री की!
हर पुरुष में अघोर-पुरुष है और हर स्त्री में शक्ति!
तो मान अपमान, मेरा तेरा, छोटा बड़ा, ऊंचा नीचा, समृद्ध निर्धन जैसे शब्द मात्र लड़ने लड़ाने के लिए ही बने हैं! अवगुण सदैव से थे और रहेंगे! गुण एकत्रित कीजिये क्योंकि प्रत्येक श्वास के साथ हमारा और चिता का फांसला कम होता जा रहा है!
सोचिये!
विचारिये!
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