वर्ष २०११ मिर्ज़ापुर...
 
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वर्ष २०११ मिर्ज़ापुर की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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ये क्या हुआ?

मैं असमंजस में था!

तभी पर्णी ने मेरे चेहरे पर एक जमकर लात मारी!

उसकी एड़ी मेरी नाक पर लगी और नकसीर शुरू!

मैं अपना ही रक्त पीने लगा!

ऊसने फिर से एक लात मेरे लिंग-प्रदेश पर मारी, मैं कराह उठा!

मेरे अंडकोष में जैसे चिराव आ गया!

असहनीय पीड़ा!

फिर पसलियों में लात!

फिर चिमटे से मेरे ऊपर वार!

अब मैं समझ गया था!

ये मेरा इस्तेमाल था!

लेकिन पर्णी!

तुझे नहीं पता!

तूने मुझे आँका नहीं!

सही से नहीं आँका!

मैं शांडिल्य का पोता हूँ!

मैंने उसी समय यामिश-मंत्र का जाप किया!

और, मेरे इर्द-गिर्द मिट्टी में भंवर पड़ने लगीं!

अब घबराई पर्णी!

मैं दैहिक मंत्र से मुक्त हुआ!

ऐवांग मंत्र का जाप किया!


   
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श्रीशः उपदंडक
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और............

शत्रुता निभाने का समय हो चला था अब!

अब धमेक्ष को नहीं आने दूंगा मैं पर्णी!

मैंने कोषांड मंत्र का जाप करते हुए, गुरु-नमन किया! अघोर-पुरुष का ध्यान किया!

और!

खड़ा हो गया!

मैं!

 

मैं उठ खड़ा हुआ!

क्रोध से पर्णी को देखा!

औ स्त्री थी, हाथ नहीं उठा सकता था, नहीं तो वो हाल करता कि याद रखती हमेशा!

द्वन्द भी नहीं था!

क्योंकि द्वन्द स्त्री से नहीं होता!

हाँ, वो औघड़ थी!

इस से मैं उसके साथ तांत्रिक-संग्राम कर सकता था!

हम दोनों की नज़रें टकरायीं!

वो हंसी!

मैंने कुरूंड-मंत्र का जाप कर यमिक को वापिस किया!

भन्न!

भन्न करती हुई यमिका लोप हुई!

अब जैसे हाथों से अस्त्र-शस्त्र गिरे पर्णी के!

"तुम्हे पता होना चाहिए था कि मैं कौन हूँ पर्णी!" मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"मैं जानती हूँ" उसने दम्भ से कहा,

"फिर भी?" मैंने पूछा,

"हाँ फिर भी" उसने गुस्से से कहा,

"अब क्या होगा तेरा पर्णी?" मैंने पूछा,

"तेरा क्या होगा?" उसने पूछा,

हवा में लाठी भांजी उसने!

"किसी को बुला ले पर्णी मदद के लिए" मैंने कहा,

"तेरे लिए मैं काफी हूँ" उसने कहा, दम्भ से!

मुझे हंसी आ गयी!

चवन्नी रुपये को मुंह चिढ़ा रही थी!

गिर गिर के खनक रही थी!

"पर्णी, मेरे सामने से हट जा, नहीं तो तेर वो हाल करूँगा कि तू कभी खड़े हो कर पाँव नहीं देख सकेगी! क्योंकि पाँव काम करना बंद कर देंगे!" मैंने अब धमकी दी!

"और तेरी? तेरी तो इहलीला ही समाप्त है आज!" उसने अपना त्रिशूल मुझे दिखा कर कहा!

"इतना सरल नहीं पर्णी" मैंने कहा,

और तभी वहाँ एक और औघड़ आया!

औघड़ भल्लराज!

पर्णी के भाई का गुरु!

ओह!

तो खिचड़ी पक रही थी,

उबाल आ रहे थे!

और हैरत ये!


   
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श्रीशः उपदंडक
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कि मुझे गंध भी नहीं आयी!

पर्णी ने उसको नमन किया!

"क्या यही है वो?" भल्लराज ने पूछा,

"हाँ! मुझे इसका रक्त पीना है!" दांत भींच कर कहा उसने!

अब मैंने अट्ठहास किया!

"सुन औघड़?" वो बोला,

"इसके पाँव पड़ ले, क्षमा मांग ले, जीवन दान मिल जाएगा" उसने कहा,

"जीवनदान? और तू?" मैंने कहा!

"जिव्हा काट दूंगा तेरी आज!" वो भड़का!

"पर्णी, अब तू जा यहाँ से, ये दिग्गज आ गया है, तेरा कोई काम नहीं अब शेष!" मैंने उपहास किया!

"अच्छा?" उसने गुस्से से कहा,

"सुन औघड़! एक दिन का समय देता हूँ तुझे, या तो क्षमा मांग ले या फिर तैयार रह मरने के लिए, भल्लराज नाम है मेरा, बंगाल का सबसे बड़ा औघड़ हूँ" उसने कहा,

"तू? इतना घमंड?" मुझे अब गुस्सा आया!

वो कुछ नहीं बोला,

"चल पर्णी" वो मुड़ा और पर्णी को एक चादर में उढ़ा चलने लगा,

जाते जाते पर्णी ने मेरे मुंह पर थूका!

हो गया फैसला!

अब कल होगा संग्राम!

पर्णी!

अबोध पर्णी!

 


   
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श्रीशः उपदंडक
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वे दोनों चले गए पाँव पटकते हुए! भुनभुनाते हुए!

मैं आगे आया और कपडे पहने,

दर्द अभी भी था मेरे,

बहुत अधिक,

चला भी नहीं जा रहा था!

चलना पड़ा, आधा किलोमीटर की दूरी दसियों कोस सी लगी!

रात के पौने बारह बजे थे!

मैंने कक्ष खटखटाया,

शर्मा जी उठे और दरवाज़ा खोला,

मेरे नाक से बहते हुए रक्त को देख घबरा गए!

"क्या हुआ?" उन्होंने पूछा,

:कुछ नहीं, चोट है" मैं बैठते हुए बोला,

"गम्भीर तो नहीं?" उन्होंने पूछा,

"नहीं, नकसीर छूती है" मैंने कहा,

"कैसे?" उन्होंने पूछा,

अब मैंने उनको सारी बात बताई!

भड़क उठे वो!

उन्होंने उस औरत को जहां तक हो सकता था कोसा! गाली गलौज! वो तो तैयार थे उस भल्लराज औघड़ को गेंद बनाने को! लेकिन मैंने उनको समझाया बुझाया!

उन्होंने मेरा चेहरा साफ़ किया,

मेरे केश आदि ठीक किये,

खाना लाकर खिलाया,


   
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श्रीशः उपदंडक
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और हम सो गए!

सुबह मैं देर से उठा, तब तक शर्मा जी ने जैसे मुनादी करवा दी थी! चण्डिक और बसंतनाथ बहुत गुस्से में थे! उन्होंने पर्णी से भी बात कर ली थी लेकिन पर्णी नहीं मानी थी!

"सोच लिया" बसंतनाथ बोले,

"क्या?" मैंने कहा,

"तबाह कर दो हराम के जनों को" वे बोले,

मैं मुस्कुराया!

"चण्डिक, क्या कहते हो?" मैंने राय ली!

"सही कहा बस्सु गुरु जी ने, कर दो काम" वो बोला,

वो भी गुस्से में था!

"हाँ शर्मा जी?" मैंने पूछा,

"दो टुकड़े कर दो!" वे बोले,

उनका क्रोध जायज़ था,

"और कोई घाड़ नमिले ने, तो मैं तैयार हूँ!" उन्होंने कहा,

बहुत बड़ी बात!

मैं निःशब्द!

वे मुझसे बीस बरस बड़े हैं!

दांत भी देते हैं बेटे की तरह!

ज़िद भी करते हैं!

एक पिता की तरह!

"अब ऐसा न कहना, आपके लिए तो मुझे किस से टकरान अहि उसो भी नौ पड़ाव पार करने होंगे!" मैंने कहा,

चूम लिया!


   
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श्रीशः उपदंडक
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चूम लिया मेरा माथा उन्होंने!

मैं धन्य हुआ!

कोई भी बुज़ुर्ग ऐसा करे तो समझो समस्त पुण्य आपको दान कर दिए उसने! इसे कहते हैं दान!

तो,

तय हो गया!

पर्णी और भल्लराज!

इनको आवश्यक है कि,

अभिमान सदैव भक्षण करता है स्व्यं का!

मैंने हाँ कर दी!

अब कोई क्षमा नहीं!

कैसी क्षमा?

मैंने कोई पाप नहीं किया था?

मैंने तो सोची थी कि उसको सिद्धि मिले?

पर अब कैसी सिद्धि!

ये तो बैर था

 

कोई इतना भी गिर सकता है ये तो कल्पनातीत था!

पर अब तो बाण छूट चला था कमान से!

अब नहीं!!

पर्णी!

तैयार हो जा!

भल्लराज!


   
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श्रीशः उपदंडक
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तेरे भी दिन आ गए!

पर्णी का जो हो सो हो लेकिन तेरे दिन आ गए!

मुझे चुनौती दे डाली!

अब भुगत!

भुगत अब अपने कर्मों का हिसाब!

औघड़ होना इतना आसान नहीं!

अरे!

शक्तियों का मद बहुत बुरा होता है!

कौन दास होना चाहता है किसी मनुष्य का?

विवशता!

केवल विवशता!

नहीं जाने तुम लोग!

कुछ ऐसे विचारों में खोया रहा मैं!

शाम हुई,

उहापोह में!

मैं शमशान गया, पूजन किया और फिर तत्पर हुआ!

बसंतनाथ वहीँ मिला!

"पर्णी यहाँ से आधा किलोमीटर दूर वंशिखा स्थान पर होगी उस भल्लराज के साथ, भल्लराज औघड़ है, बेहद क्रूर और चपल, सावधान रहना!" उसने कहा,

"आप चिंता न करें" मैंने कहा,

"येरुम-विद्या का ज्ञाता है!" उसने कहा,'

अर्थात एक साथ चार वार करने वाला!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"कोई बात नहीं" मैंने कहा,

मैं तो भरा बैठा था!

लेकिन हां!

अभी तक मैं कड़वा नहीं था उस पर्णी के लिए!

अबोध पर्णी!

भड़का दिया गया था उसको!

भल्लराज ने!

रात हुई!

जैसे रणभेरी चिल्ला उठी!

मैं शमशान में बैठा!

करीब दस बजे!

मैंने तंत्र-श्रृंगार किया और आज नौ कपाल लिए!

मुझे बसंतनाथ ने सारी सामग्री दे दी!

मैंने भूमि-पूजन किया!

दिशा कीलन किया!

स्थान-शोधन किया!

और एक चिता समक्ष आ बैठा!

पूजन किया, इक्कीस परिक्रमा कीं,

उसके मुख की और मैंने एक मुर्गे का बलि-कर्म किया, और कलेजी निकाल ली!

और, अब आसन बिछा तैयार हुआ!

त्रिशूल बाएं गाड़ा!

और खड़ा हो चिमटा खड़खड़ा दिया!


   
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श्रीशः उपदंडक
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समस्त भूत-प्रेत अपनी चाल भूल गए!

अब भस्म-स्नान किया!

ये औघड़ तैयार था!

घंटा भर लग गया इसी काम में!

वहाँ!

पर्णी तैयार और भल्लराज भी तैयार!

जैसी तैयारी यहाँ वैसे वहाँ!

हाँ, कपाल ग्यारह थे!

येरुम-विद्या के लिए!

उसने महानाद किया!

मैंने उत्तर दिया!

अब मैंने वाचाल और कर्णपिशाचिनी का आह्वान किया!

दोनों मुस्तैद!

बिसात बिछ गयी!

और आरम्भ हुआ संग्राम!

 

अब संग्राम का समय था! उसने हुंकार भरी और मैंने भी हुंकार भरी! पर्णी उसके दायें बैठी थी, अलख में ईंधन देने का कार्य सौंपा गया था उसको! यहाँ मेरे अलख भड़की! मैंने ईंधन डाला और फिर विजयनाद कर दिया! अब मेरे कर्णों में उनके शब्द गुंजायमान हो उठे!

"अभी भी समय है!" भस्म फेंकते हुए बोला भल्लराज!

मैं हंसा बहुत तेज!

इतना तेज के श्मशान के वासी भूत-प्रेत भी हंसने लगे! मैंने त्रिशूल निकाल कर लहराया! अर्थात क्षम मांग ले और भक्षण से बच जा!


   
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श्रीशः उपदंडक
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थू!

थूक फेंका उसने!

मैंने तभी रिपुलाक्ष-मंत्र पढ़ा कर वहाँ पत्थरों की और राख की बारिश कर दी! उसने फ़ौरन ही उसकी काट कर दी और मुझे अपशब्द निकाले! मैंने फिर से मांस के लोथड़े फिंकवाये! उसने त्रिशूल से घेराबंदी कर उनको बेकार कर दिया!

संग्राम आरम्भ हो चुका था!

अब मैंने अपने सामने भूमि पर चाक़ू से एक चिन्ह कुरेदा, बनाया और उसके पांच कोनों पर मांस के टुकड़े रख दिए!

वो औघड़ समझ गया!

उसने भी अष्टकोण घेरा बनाना आरम्भ कर दिया!

मैं हंसा और फिर एक कपाल-कटोरा भर के शराब पी!

और एक नर-कपाल उस चिन्ह में रख दिया!

शराब के छींटे दिए!

और वहाँ केराक्ष प्रकट हुआ!

केराक्ष एक महाप्रेत है! लम्बा-चौड़ा और अतुल्नीय बल! मैंने भोग दिया उसको! और वो चल पड़ा अपना उद्देश्य जान!

भूमि हिला सी दी उसने अपनी उड़ान से! जिन्न जैसा शरीर उसका!

केराक्ष वहाँ प्रकट हुआ!

भल्लराज हंसा!

और मूर्दीक मंत्र चला कर उसको खदेड़ दिया उसने!

ये मूर्दीक मंत्र जानता है! वाह!

अब उसने अष्टकोण में एक कपाल रखा!

शराब के छींटे दिए!


   
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श्रीशः उपदंडक
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स्त्री के केश रखे!

एक कंघा, बिंदी और परांदा रखा!

और हूम हूम की ध्वनि से उसने वहाँ कुंडा चुड़ैल प्रकट कर दी!

भयानक रूप उसका!

विशाल काया!

पांवों में घुँघरू बंधे उसके!

हाथों में शिशु-कपाल!

चीत्कार करती हुई कुंडा अपना उद्देश्य जान उड़ चली मदमाती हुई!

लक्ष्य भेदन हेतु!

मैंने फ़ौरन एक पोटली खोली और उसमे से पंचधातु में जड़ी एक अस्थि हाथ पर रखी और द्रुश्चिक-मंत्र का जाप किया!

कुंडा पहुंची और मंत्र में क़ैद हो कर भूमि में समा गयी! जहां समायी थी वहाँ के मिट्टी करीब एक फीट उठ गयी!

मैंने अट्ठहास लगाया!

कुंडा पकड़ ली गयी थी!

वो यही नहीं रुका!

उसने भेदिका नामक डाकिनी का आह्वान किया!

ये विभक्त हो जाती है!

इसके हाथ अलग और पाँव अलग और सर, धड़ अलग होकर भी एक ही रहती है! अक्सर ऐसे ही विचरण करती है! सिद्ध होने पर ग्यारह दिन तक किसी स्त्री में प्रवेश कर साधक से सहवास करती है! प्रलयकारी और महादुष्ट शक्तियों में से एक है! इसको सिद्ध भी किसी पलाश के वृक्ष पर बैठ कर किया जाता है!

ऐसी है ये भेदिका डाकिनी!

परन्तु मैं तत्पर था!


   
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श्रीशः उपदंडक
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भेदिका का आह्वान चल रहा था! अब मैंने इस संग्राम को और गहन किया, मैंने यमरूढ़ा का आह्वान किया! यमरूढ़ा अत्यंत प्रबल महाशक्ति है, स्पर्श मात्र से ही प्राण खींच लेती है शरीर से! श्मशान-वासिनी है और साम्राज्ञी की भांति रहती है, चौबीस यम-डाकिनियों द्वारा सेवित है, और प्रत्येक यम-डाकिनी ग्यारह डाकिनी-सखियों से सेवित है! मैंने पृथ्वी में त्रिशूल गाड़ा और फिर आसन से उठा! अट्ठहास किया और फिर उनकी दिशा की ओर तीन बार फूंक मारी! अब बैठ गया और जाप आरम्भ हुआ, कुछ क्षण बीते! और भल्लराज ने अट्ठहास किया!

वहाँ भेदिका प्रकट हुई और मैंने गहन मंत्रोच्चार से यमरूढ़ा को प्रकट कर ली, भूमि पर शाष्टांग लेट कर मैंने नमन किया! इसीलिए कहते हैं कि औघड़ों से दूर रहिये, तांत्रिकों से दूर रहिये क्योंकि वे भूत-प्रेत और क्षुद्र देवी-देवताओं को पूजा करते हैं! यही कारण है! सच्चाई ये है कि ये क्षुद्र नहीं ये भी शक्ति-वाहिनियां हैं! मसान को वीर कहा जाता है, मसान वीर हैं बलधामा गदाधारी के! बलधामा का सभी भूत-प्रेत का कार्य यही मसान करता है! अब मसान देव श्रेणी में तो नहीं है, परन्तु कार्य वही करता है! तो इसको तांत्रिकों ने और औघड़ों ने अपना लिया! मित्र है ये उनका! बहुत मसान हैं! बेलिया, कॅमेडिया, ऑंधिया, कालिया आदि आदि ये सभी किसी न किसी रूप से अपने प्रधान का कार्य करते हैं परन्तु इनको श्रेय नहीं मिलता! तो औघड़ इनको श्रेय देते हैं!

चलिए आगे बढ़ें!

वहाँ भेदिका प्रकट हुई और क्रंदन करती, झूमती और शोर मचाती चल पड़ी अपने साधक की उद्देश्य पूर्ति के लिए!

और यहाँ अपने साधक के प्राण बचाने तत्पर हुई यमरूढ़ा!

भेदिका भाल लिए आयी वहाँ!

यमरूढ़ा द्वारा मार्ग अवरुद्ध हुआ!

चिल्लाती हुई शून्य में लहर खाती गायब हो गयी!

मैंने भी नमन करते हुए यमरूढ़ा को वापिस कर दिया!

लोप हुई वो!

यमरूढ़ा ने मेरा प्राण-रक्षण किया!

खचाक!


   
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श्रीशः उपदंडक
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मेढ़े की गरदन ज़मीन पर गिरी और बिलबिलाता धड़ पकड़ लिया गया भल्लराज ने, खून का फव्वारा छूटा और एक पात्र में रक्त ले लिया गया मेढ़े का! मंत्र पढ़ते हुए!

हा! हा! हा! हा!

अट्ठहास किया भल्लराज ने!

"औघड़?" वो चिल्लाया,

मैं हंसा!

"अब तक तो मैंने खेल खिलाया, अब द्वन्द देख!" चिल्लाया भल्लराज!

मैं फिर हंसा!

उसने रक्त बिखेरा वहाँ, अपने चेहरे पर मला!

एक घूँट उसने पिया!

और एक घूँट पर्णी ने!

अब पर्णी पर मंत्रोच्चार आरम्भ किया उसने!

मैं समझ गया!

आ गयी समझ!

ये धेनुका सहोदरी का आह्वान था!

परम-शक्तिशाली धेनुका!

सुमेषा गांधर्वी की सहोदरी!

मैं फ़ौरन आसान पर बैठा और अपने सामने सभी कपाल रख लिए!

और मैंने अब आह्वान किया!

गण-भार्या का!

गण-भार्या, भार्या है एक गण की!

ये गण एक वेताल का प्रधान सेवक है!


   
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श्रीशः उपदंडक
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मैंने मंत्रोच्चार गहन किया!

अन जैसे समय रुका!

चमगादड़ जैसे भाषा समझने लगे!

उल्लू क्षण-प्रतिक्षण भविष्य का कयास लगाने लगे!

अब मैंने नेत्र बंद कर लिए!

 

धेनुका! गांधर्वी-सहोदरी! प्रबल शक्तिशाली! महा शक्तिशाली! गण-भार्या! वेताल की भार्या! महाप्रबल और रौद्र-रूपा भीषण प्रहारी! एक वार और विनाश! हम दोनों ही आह्वान कर रहे थे! हम साधक थे, भिन्न-भिन्न रूप से पूजन कर रहे थे! उद्देश्य उसका केवल एक था मेरा हंता होना! और मेरा कि उसको जीवन भर मृत्यु के लिए तरसा दूँ! ताकि भविष्य में फिर कभी किसी के साथ ऐसा न हो!

वहाँ,

वहाँ पर्णी के ऊपर मंत्रोच्चार आरम्भ किया, उसको अश्व-रुपी मुड़ेरा में बिठाया और अपना पाँव उसकी कमर पैर टेक कर उसके शरीर को तीन बार चिन्हित किया! पर्णी धड़ाम से गिर पड़ी! शरीर वक्राकार होना आरम्भ हुआ! तोमिता, धेनुका की सखी है, वो पहले किसी स्त्री में वास करती है, ये मन्त्रों में बाँधी जाती है नहीं तो शरीर के परखच्चे उड़ा दे! उसी के आगमन की ये तैयारी थी!

पर्णी!

वक्राकार शरीर किये पड़ी थी, कभी कभी छटपटाती भी थी! कभी गुर्राती भी थी, कभी थूकती भी थी, काभी टांगें खोल लेती थी, कभी प्राणायाम की मुद्रा में बैठ जाती थी, कभी हंसती थी और कभी चिलाती थी! कभी रोती थी!

भल्लराज!

कभी उसको पूजता! कभी दुत्कारता! कभी खींचता और कभी बिठाता! औघड़ की औघड़-लीला चल रही थी!

"जाग! जाग तोमिता जाग!" भल्लराज चिल्लाता!

"जाग!"


   
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