वर्ष २०११ मिर्ज़ापुर...
 
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वर्ष २०११ मिर्ज़ापुर की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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"प्राण कौन ले जाता है?" मैंने पूछा,

"यम से पहले पाप प्राण हारता है और यम को पकड़ाता है" उसने कहा,

"सबसे मौखिक ज्ञान क्या?" मैंने पूछा,

"पंचतत्व" उसने कहा,

"पशु कौन" मैंने पूछा,

"जिसके इंद्री-ज्ञान हो और उलट करे वो" उसने उत्तर दिया!

बिलकुल सही!

"शेष क्या पर्णी?" मैंने पूछा,

"धमेक्ष यक्ष की साधना" उसने कहा,

धमेक्ष यक्ष!

ब्रह्म-यक्ष!

अलौकिक यक्ष!

दिव्य-ज्ञान देने वाला!

अमोघ सिद्धि देने वाला!

धमेक्ष यक्ष!

अब उद्देश्य स्पष्ट हुआ!

 

"मै तैयार हूँ तुम्हारी सिद्धि के लिए" मैंने कहा,

मैंने इतना कहा और वो मुझ से चिपक गयी!

उसके आंसूं निकल आये!

मैंने आंसू पोंछे उसके!

"ये आंसू क्यों?" मैंने पूछा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"चौदह वर्ष में मिले हो आप" उसने कहा,

"मै तैयार हूँ पर्णी, तुम्हे सिद्धि प्राप्त हो, इस से उत्तम क्या!" मैंने कहा,

झूम उठी वो!

अब मालूम नहीं!

नहीं मालूम कि ये,

प्रपंच है या कोई बदला!

या सच्चाई!

अभी तक तो सच्चाई थी!

मैंने अपने दिमाग को दिलासा दी!

सबकुछ ठीक है!

सवाल थोड़े कम कर!

"आप परसों मौनिया रहना, आज मेरे संग शयन करना, मै परसों क्रिया आरम्भ करुँगी" उसने कहा,

"जैसा तुम चाहो" मैंने कहा,

काम-पुरुष!

हाँ!

यही था मै!

उसका!

और वो मेरी औघड़!

जैसा वो चाहे वैसा मुझे करना था!

"आपका बड़ा एहसान!" वो बोली,

"एहसान कैसा?" मैंने पूछा,

"आप नहीं जानते" वो बोली,


   
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श्रीशः उपदंडक
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खैर, आगे वो जाने!

"मै चलूँगा अब" मैंने कहा,

"नहीं, अभी नहीं" वो बोलो,

"समझा करो" मैंने कहा,

"नहीं न" उसने कहा,

स्त्री सुलभ चरित्र वो!

"मै आ जाऊँगा वापिस, थोड़ी देर में" मैंने कहा,

"जाओ और तुरंत आओ" वो बोली,

अधिकार से!

और मेरा भी यही हुआ, तुरंत गया, शर्मा जी को बताया और तुरंत गया!

पर्णी ने सारा खाना और पीना लगा रखा था!

"पर्णी?" मैंने कहा,

"बोलो?" उसने कहा,

"सच बताना, अभी अंक-शायनी बनी हो?" मैंने पूछा,

"नहीं" उसने कहा,

"कभी हूक नहीं हुई?' मैंने पूछा,

"हुई!" उसने कहा,

"कब?" मैंने पूछा,

जब आपने चण्डिक को सही ठहराया!

अब मै घूमा!

"कभी पुरुषालिंगन किया है?" मैंने पूछा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"नहीं!" उसने कहा,

"आज बड़ा बनाऊँ या कल जैसा?" उसने पूछा,

"कल जैसा" मैंने कहा,

"भाग तो नहीं जाओगे?" उसने सरलता से पूछा!

"नहीं" मैंने कहा,

असमंजस!

घोर असमंजस!

 

पैग बनाये गए और पिए गए! उस रात पर्णी ने ऐसा कुछ न किया, मैं संयत सा वापिस लौट आया अपने कक्ष, शर्मा जी को सारी बात बता दी, वे भी क्या कहते, मैं वचन दे आया था, उस सिद्धि का कुछ न कुछ फल तो मुझे अवश्य ही मिलता! उस रात मैं सो गया,

आया अगला दिन,

मैं पर्णी के पास पहुँच, उसने तैयारी आरंभ कर दी थी, जब मैं वहाँ पहुंचा तो दही-बड़े बनाये जा रहे थे! विट्ठी तैयार थी, और दो अन्य लडकियां उसकी मदद कर रही थीं! दरअसल धमेक्ष यक्ष हो दही बड़े ही चढ़ाये जाते हैं, वो एक प्राचीन विद्या है! धमेक्ष दिव्य-ज्ञान का सूत्र है! इसको ध्याने से ऐसा कोई प्रश्न नहीं जिसका उत्तर प्राप्त न हो! और मोक्ष में ये अत्यंत सहायक है! पर्णी इसको ध्या रही थी! उसकी इच्छा पूर्ण हो यही मेरी कामना थी!

धमेक्ष आज का अपभ्रंश धमेख है, ऐसी ही इस नाम का एक स्तूप सारनाथ में है, वाराणसी के समीप! यहाँ कभी पहले धमेक्ष का एक मंदिर हुआ करता था! यही वो स्थान है!

"आइये" वो बोली,

मैं बैठ गया,

वहीँ, पास ही,

आज चन्दन का उबटन लगाया था उसे, सुगंध ऐसी कि भौंरा स्व्यं ही अंतर्ध्यान हो जाए!

"पर्णी, बलदरूप-योजन पूर्ण किया?'' मैंने पूछा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"हाँ, जब मैं उनत्तीस की थी तब" उसने कहा,

"ये ठीक है" मैंने कहा,

"पर्णी, तुम्हारी आयु कितनी है?'' मैंने पूछा,

"बत्तीस बरस" उसे कहा,

"अच्छा" मैंने कहा,

"पर्णी, मुझे क्या करना है?'' जानते हुए भी मैंने पूछा,

"मौनिया" उसने कहा,

"समझ गया" मैंने कहा,

अब मैं उठा वहाँ से!

पर्णी ने रोका, लेकिन मैं नहीं रुका!

मैं वापिस आ गया,

आकर सारी बात बता दो शर्मा जी को,

वो चिंतित तो हुए लेकिन मेरी पटुता से वाक़िफ़ थे वो!

और अब आया मौनिया दिवस!

मैं पर्णी के पास गया!

पर्णी बहुत खुश!

"रात्रि आठ बजे श्रृंगारन होगा!" उसने मेरे कान में कहा,

मैंने गरदन हिला कर सहमति जताई!

संध्या समय मेरा मौन समाप्त हुआ!

पर्णी आज उच्च-कोटि की औघड़ लग रही थी!

सबकुछ सोचा-समझा!

लिबास, लबादा सब औघड़ का!


   
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श्रीशः उपदंडक
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हाँ, रंग नीला था, नेपाली औघड़ों जैसा!

और मैं!

मैं भी तैयार था!

 

और!

फिर बजे आठ!

मैं पहुंचा सीधे क्रिया स्थल!

पूरी तैयारी थी!

नीले रंग के वस्त्रों में सजी-धजी पर्णी!

पारिजात पुष्पों की माला धारण किये!

"आ गए?" उसने पूछा,

"हाँ, आ गया!"

"सुनो, आज मेरा साथ देना" उसने कहा,

''अवश्य" मैंने कहा,

" सब छोड़ देना, समझे?" उसने कहा,

"हम्म" मैंने कहा,

उसने सारी सामग्री आदि सजाई,

दीपक जले थे, बड़े बड़े! उन्होंने का प्रकाश था वहाँ,

और उनकी रौशनी में हम दिखायी दे रहे थे,

दो भूत!

इस संसार से अलग!

अलहैदा!


   
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श्रीशः उपदंडक
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नौ दिए!

नौ थाल!

एक पत्थर पर, एक शीला पर रखे तीन दिए!

पूरब दिशा खुली हुई!

ये स्थान था धमेक्ष का!

धमेक्ष!

महा-यक्ष!

जो ध्यायेगा सो पायेगा!

अब!

क्रिया आरम्भ!

"साधक?" उसने पूछा,

"जी?' मैंने कहा,

उसने अब मेरे वस्त्र उतारने आरम्भ किये,

एक एक करके,

फिर लंगोट, वो मैंने खोली,

फिर उसने उतारे,

एक एक करके,

क्रिया समय शरीर पर तंत्राभूषण के अतिरिक्त और कुछ नहीं होना चाहिए, अन्यथा वही अंग रोगी हो जाएगा, दिन में रात और रात में दिन!

समझ जाना मित्रगण!

स्याह में सफ़ेद और सफ़ेद में स्याह!

अब भस्म-लेप!


   
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श्रीशः उपदंडक
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उसने मुझे लेपा!

पूरी तरह से,

मेरे केश खोले,

मुझे तंत्राभूषण पहनाये,

और स्व्यं भी ऐसा किया,

उसकी देह देख कर तो प्रेत भी मचल जाते!

भस्म-लेप से और सुंदर हो उठी!

ये सांसारिक सौंदर्य नहीं मित्रगण!

एक औघड़ की निगाह से देखिये!

अब उसने मेरे शरीर पर तांत्रिक चिन्ह अंकित किये! कुल बावन चिन्ह! और मैंने भी किये उसके शरीर पर! कुल चौबीस!

अब उसने मेरा पूजन किया!

और मैं अब बैठ गया उसके साथ!

क्रिया आरम्भ!

धमेक्ष आह्वान के मंत्र गूँज उठे!

प्रेतों की क्या बिसात तो धमेक्ष के आड़े आयें?

राख हो जायंगे!

रात गहराई!

और गहन हुए मंत्र!

धमेक्ष के साथ चौरासी सुंदरियां होती हैं! इक्कीस यक्ष-मित्र! और दो महा-यक्षिणियां!

मंत्रोच्चार यौवन पर पहुंचा!

मैं उत्सुक!


   
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श्रीशः उपदंडक
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मंत्रोच्चार का सहायक!

और तभी जैसे भूमि में कंपन उई!

आकाश जैसे सोते सा जागा!

जैसे दामिनी जागी!

जैसे काई फटी!

और!

ताप बढ़ने लगा वहाँ!

मुझे उत्तेजना आरम्भ हुई,

एक नशा सा!

अब पर्णी ने मुझे एक माला पहनाई, मदार की जड़ से बनी एक माला!

मैंने धारण की!

उसने मुझे एक पेय दिया,

मैं अर्धसुप्त!

पेय अवश्य ही देसी शराब था,

नेत्र बंद!

मुझे याद है, वो उठी थी,

बस, उसके बाद,

याद नहीं,

बोझिल देह हुई मेरी,

मैं ढुलक गया बैठे बैठे!

चौरासी सुंदरिओं की अधिष्ठात्री यमिका का आगमन होने वाला था,

कुछ ही देर में!


   
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श्रीशः उपदंडक
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मैं उस समय होश खो बैठा था! ये मंत्र-माया थी! मन्त्रों में महा-शक्ति होती है मित्रगण! मरे को भी जिला उठाने में संसरत होते हैं, ये एक ध्वनि उत्पन्न करते हैं, ये कोई जादू नहीं, ये ध्वनि प्रकृति से मांग करती है अमुक कार्य को करने की! षष्ट-ऐन्द्रिक ज्ञान से आगे और ज्ञान भी है, ये बत्तीस प्रकार के हैं, षष्ट-ज्ञान प्रकृति प्रदत्त है, ये मूल रूप से प्रत्येक प्राणी को मिलता है, यदि माशा छोड़ दें तो हम भी पशु ही हैं, भाषा से विवेक और सहज ज्ञान सुलभ होता है! आपने देखा होगा, जब किसी भी पशु का बच्चा होता है तो वो माता के स्तनो

पर ही जाता है, उसको कैसे पता कि यहाँ से दूध मिलेगा? और स्तनों से ही मिलेगा? ये ज्ञान मनुष्यों में नहीं, वो रो कर जतलाता है, इस प्रकार मनुष्य जानवरों में निम्न-श्रेणी का जीव है! अन्य जीव पैसा होते ही सम्पूर्ण होते हैं, जैसे खाना,भागना, क्रीड़ा करना परन्तु मनुष्य नहीं, उसको सिखाना पड़ता है, बार बार! लगातार! मंत्र इसी श्रेणी को आगे करते हैं! ऐसे ऐसे मंत्र हैं कि आप एक पल में ब्रह्माण्ड घूम सकते हैं, अपने सूक्ष्म शरीर के साथ! अवलोकन कर सकते हैं! साक्षात! हाँ स्थूलत्व हमें इस संसार से जोड़े रखता है! यही स्थूलत्व हमे माया, काम, मोह, लालच आदि से जोड़ता चला जाता है! ये ऐसे दुर्गुण हैं जिनका कोष कभी रिक्त नहीं होता! जैसे पाप का घड़ा निरंतर बढ़ता जाता है और पुण्य का भरता जाता है! पुण्य का घड़ा बहुत छोटा होता है, और पाप का बड़ा! जैसे दूध जलाने से मावा बनता है उसी प्रकार से इस मावे को हम पुण्य और मथने या जलाने को कर्म कहते हैं! कर्म कोई भी हो, निष्पाप होता है, हाँ उसका फल पाप और पुण्य से पूर्ण होता है! जैसे चाक़ू से किया गया घाव पाप है तो शल्य-चिकित्सा से किया गया वही कर्म पुण्य हो जाता है! पुण्य यदि धन सहित हो तो रिक्त होता है! धन रहित हो तो फलित होता है! अब ये विषय बहुत दीर्घ है, ये सम्मुख चर्चा का विषय है, कुछ भावार्थ लिख कर व्यक्त कभी नहीं किये जा सकते और मैं यहाँ पर और प्रवचनी हो गया हूँ, ऐसा लगता है, अतः, विषय पर ही आता हूँ!

"साधक?" मुझे जगाया उसने!

मैंने नेत्र खोले!

"बैठ जाओ" उसने कहा,

कैसे बैठूं? शरीर में जान कहाँ?

समझ गयी वो!

उसने संचरण-मंत्र प्रयोग किया और मेरी नाभि में उतार दिया!

मैं जैसे गुब्बारे में भरी हवा सा बैठ गया उठ कर!


   
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श्रीशः उपदंडक
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मुझे भारी उत्तेजना!

कामासक्ति से भरपूर!

"खड़े हो जाओ" उसने आदेश किया,

मैं खड़ा हो गया,

"परिक्रमा करो" उसने कहा,

मैंने अब उसकी परिक्रमा की!

कुल चौरासी बार!

ये एक अंगीकार भंगिमा थी!

अर्थात मुझे चौरासी अंगनाओं से सम्भोग करना था!

रति शान्ति करनी थी!

बहुत कठिन कार्य है ये!

यदि असफल तो मेरा रक्त निकल जाएगा जननेन्द्रिय से!

मृत्यु तक!

रक्त गिरकर बह जाएगा और!इस संसार में ऐसा कोई चिकित्सक या चिकित्सा नहीं जो मेरा उपचार करे!

वो अन्तः है!

मैं बाह्य!

मेरी उत्तेजना दिखती है! उसकी नहीं!

उसने लिंग-पूजन किया!

मेरा नहीं!

मंत्र का!

लिंग पूजन मंत्र!


   
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श्रीशः उपदंडक
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मंत्र तीन श्रेणियों के हैं!

पुरुष, स्त्री एवं नपुंसक!

 

मित्रगण!

मन्त्रों का विषय बहुत ही क्लिष्ट एवं दीर्घ है, कभी बाद में इसकी चर्चा करूँगा! हाँ, एक बात बताता हूँ जो मुझे मेरे दादा श्री ने बताई थी, इस पृथ्वी पेर सबसे अल्प क्या? ज्ञान! हाँ, ज्ञान अल्प है, या यूँ कहें कि हम अल्पज्ञ हैं, अब ज्ञान तो सर्वत्र बिखरा पड़ा है,,अल्प कैसे?

बताता हूँ!

प्रकृति में ज्ञान हर जगह बिखरा पड़ा है, जिसको खोज लिया जाता है वो खोज हो जाती है! जो नहीं खोजा गया वो अभी भी वहीँ पड़ा है! हम अपने नेत्र से देखते हैं, और ज्ञान अर्जित करते हैं! नाक से सूंघते हैं और ज्ञान अर्जित करते हैं, जिव्हा से स्वाद लेकर हम ज्ञान लेते हैं! कर्णों से सुनते हैं और ज्ञान लेते हैं! अब माध्यम, जैसे हाथ, उसकी उंगलिया, पाँव, ये माध्यम हैं! अर्थात हम इन्ही इंद्रियों के कारण ही ज्ञान अर्जित करते हैं! परन्तु विडंबना देखिये! यही इंद्रियां हम पर शासन करती हैं! हम इनके गुलाम हो जाते हैं वही देखना, सुनना, खाना चाहते हैं जो ये इंद्रियां कहती हैं! और इसमें हम समस्त जीवन काट देते हैं! इसको जीवन नहीं कहा जाता! अपितु मरण कहा जाता है! अब प्रश्न ये कि इस ऐंद्रिय-दोष से बचा कैसे जाए!? बहुत सरल है! आप सामने वाले को स्व्यं समझिये, अर्थात उसकी जगह स्व्यं को रख दीजिये! उस से क्या होगा? वो भी बताता हूँ! कोई अमीर नहीं, न ही कोई गरीब! कोई आपसे सुन्दर नहीं और न कुरूप! कोई छोटा नहीं कोई बड़ा भी नहीं! भिखारी को देखो, तो स्व्यं को रख दो उसकी जगह! रोगी को देखो तो स्व्यं को रख दो! ये हैं सर्वप्रथम ज्ञान! और शरीर! वो कब आपके बस में है? आपके हाथ और पलक क्या अपने आप बचाव नहीं करती खुद का? जब वे बस में नहीं तो आपका शरीर कहाँ से वश में है आपके? अच्छा खाना तन को नहीं, मन को खिलाइये! स्वाद तो जिव्हा तक का है, उसके बाद सब बराबर! आप खोआ खाओ, देसी घी खाओ, छप्पन भोग खाओ, तब भी आपकी विष्ठा में से दुर्गन्ध नहीं जायेगी! तो ये दुर्गन्ध कहाँ है? आपके अंदर! मेरे अंदर! इसका श्रृंगार? मूर्ख किया करते हैं! ये है ज्ञान! हाँ, ज्ञान और संज्ञान! दोनों में बहुत बड़ा सम्बन्ध है! संज्ञान ज्ञान से पहले आता है, ज्ञान बाद में! ज्ञान सीखा जाता है, संज्ञान लिया जाता है! ज्ञान से महीन कोई नहीं, और दीर्घ भी कोई नहीं! सुईं की नोंक पर भी समा जाए और समस्त ब्रह्मांड में भी स्थान शेष न रहे!


   
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श्रीशः उपदंडक
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कोई किसी के माता-पिता नहीं, कोई भाई-बहन नहीं, कोई स्त्री नहीं, कोई संतान नहीं! सब अपना अपना भोग भोगने आये हैं! कोई क्या बनकर और कोई क्या बनकर! परन्तु! ज्ञान सिखाता है कि ये पिता समान, तो सभी का आदर कीजिये, ऐसे ही भाई, बहन और माता!

जब नेत्र में किरकिरी आ जाती है तो संसार धूमिल लगने लगता है! वैसे ही ऐंद्रिय-दोष होने पर सब लब्बोलुबाब वाला लगने लगता है, जबकि वास्तविकता पृथक ही होती है!

हम दुखी क्यों हैं? कारण है हम!

वो समृद्ध क्यों है? कारण है वो स्व्यं!

उसके पुण्य संचित हैं!

इसी कारण से वो समृद्ध है!

हमारे संचित नहीं!

बस!

पुण्य बटोरिये!

ज्ञान किसी से भी मिले तो ले लीजिये, कोई छोटा-बड़ा नहीं होता!

एक महिला को अवसाद था कई सालों से! कारण नौकरी में उन्नति नहीं हो रही थी! मैंने कहा कि होगी भी नहीं! लाख जतन कर लो! कारण वो स्व्यं है! समाज में रहते हो तो सामाजिक बनो! उसने ऐसा कोई कार्य नहीं किया, बल्कि दूसरों से ईर्ष्या ही रखी! कहाँ से होगी उन्नति? उसने यही किया, छह महीने में आदरभाव में डूबी रही और उन्नति हो गयी!

मित्रगण! यहाँ तो हाथ को हाथ है! घमंड किस बात का!

खैर!

पर्णी ने सभी क्रियाएँ कर ली थीं पूर्ण!

बस!

अब प्रतीक्षा थी तो बस!

यमिका आगमन की!

 


   
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श्रीशः उपदंडक
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अब पर्णी ने मुझ पर दैहिक मंत्र मारा! और मदिरा पान कराया, एक, दो, तीन, चार, पांच कपाल कटोरे! मदिरा ने असर दिखाया और मैं चला बेहोशी के आलम में! मुझे सबकुछ घूमता नज़र आया और झक्क! सब सुनाई देना बंद हो गया! ये दैहिक मंत्र का प्रभाव था! झक्क! अब दिखना बंद! और ऐसे ऐसे मेरी इंद्रियां शिथिल पड़ती चली गयीं!

मुझे इतना स्मरण है की पर्णी रौद्र मुड़ता में मेरे ऊपर बैठी, मेरा लिंग अपनी योनि में प्रवेश करवाया और आरम्भ हुआ मर्दन! मैं शांत सा पड़ा था!

उसने मंत्रोच्चार बढ़ते चले गए!

और मेरा मर्दन भी!

वो मुझे चांटे मारती!

गाली गलौज करती!

मेरे पेट में और अंडकोष में उसके वजन से दर्द होता!

मैंने कई बार उसको हटाया,वो और ज़ोर से बैठी!

उसने फिर एक कामुक-प्रहार किया, मेरे कर्ण पकड़ कर उसने शिवांग-मंत्र पढ़ दिया! मुझमे काम वास करता चला गया, मैं भी परस्पर सहयोग करता रहा,

ऐसा काफी देर चला,

वो थकने लगी! और फिर एकदम से गिर गयी!

मुझे असहनीय दर्द हो रहा था, परन्तु मेरे हाथ शिथिल थे, शरीर शिथिल था! वो उठकर फिर से मेरे ऊपर बैठी और महानाद किया! उसके केश मेरे मुंह में घुसने लगे, मैं जिव्हा से भी बाहर न फेंक सका!

उसने फिर से रति-क्रीड़ा आरम्भ की,

यहाँ मैं त्रस्त हो गया था!

पीड़ा अब कलेजे तक जा पहुंची थी! तभी वो उठ बैठी!

एक टांग मेरे बाएं हाथ पर रख कर और दूसरी दायें हाथ पर रख कर! अटटहास किया!

"प्रकट हो! यमिका! प्रकट हो" उसने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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सांय सांय! हवा चले!

घास, तिनके मेरे मुंह में, आँखों में धंसे!

ऊपर से पीड़ा!

जैसे मैं कोई संयंत्र हूँ, काम संयंत्र!

पीड़ा के मारे मैं पाँव भी नहीं हिला पा रहा था!

तभी मुझे रक्त की गंध आयी!

पर्णी के रक्त!

जो शायद मेरे लिंग-प्रदेश पर लगा था!

पर्णी लौटी!

उसने मेरे सर पर पाँव रखा और गले पर त्रिशूल!

गुस्से में काल-गामिनी सी प्रतीत हो!

"प्रकट हो यमिका?" उसने कहा,

और तभी पर्णी भूमि पर पछाड़ खा गिर पड़ी, मैं एक करवट और लुढ़क गया!

यमिका आन पहुंची थी!

पहला चरण पूर्ण हुआ था!

अब पर्णी मेरे समक्ष आयी!

और हंसने लगी!

"मरेगा!" उसने उपहास से कहा,

"मरेगा! आज ही मरेगा, कामपुरुष" हा! हा! हा! हा!" भयानक हंसी हँसे!

मैं समझ गया!

समझ गया कि धमेक्ष के हाथों मृत्यु!

ये कैसी परीक्षा?


   
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