मिर्ज़ापुर! भारत का एक प्राचीन शहर, उत्तर प्रदेश का ये जिला वैसे तो अंग्रेजों ने बसाया था, लेकिन ये शहर काफी प्राचीन है, अपने पीतल-उद्योग और कालीन के लिए मशहूर है ये शहर! इसी शहर में गंगा विंध्याचल क्षेत्र को छोटी है और आगे के लिए सफ़र तय करती है, दिल्ली और कलकत्ता से समान दूरी है और ऐसे ही वाराणसी और इलाहबाद से समान दूरी पर है! इसी के घात पर मेरी मुलाक़ात एक औघड़ बसंत नाथ से हुई थी, वो यहीं का निवासी था, और यहीं निवास किया करता था, मेरी प्रघाड़ता तो नहीं थी उस से लेकिन उसकी और मेरी विचारधारा अवश्य ही मिलती थी! उसके पास कुछ अनूठी सिद्धियाँ थीं, जो उसने मुझे सिखाने को कहा था, मई उसी सन्दर्भ में उसके पास आया जाया करता था!
ऐसे ही एक सिलसिले में मैं वहाँ गया था वर्ष २०११ की शीत ऋतू में, मैं वहाँ पर कुल छब्बीस दिन रहा और दो सिद्धियाँ मैंने सीख ली थीं, बाद में उनको लगातार तीन वर्ष तक जागृत भी करना था, इसी दौरान मेरी मुलाक़ात वहाँ लोमा औघड़ से हुई, वो नेपाल का रहने वाला था, और अधिकतर कामाख्या में ही वास करता था, उसी लोमा औघड़ के पास एक अनूठी साध्वी थी, अनूठी इसलिए कि लोम ने उसको भी औघड़ बना दिया था! मेरी मुलाक़ात उस से भी हुई थी, गज़ब की औघड़ थी वो औरत!
लोमा औघड़ के पास वैसे तो बहुत साध्वियां थीं लेकिन ये साध्वी पर्णी उनमे से अलग थी, घमंडी और अपने आपको स्व्यं शक्ति-स्वरुप समझने वाली! औघड़ में यदि दम्भ हो तो विनाशकारी होता है, औघड़ को शांत और निर्मोही होना चाहिए, ये उसके गुण हैं, परन्तु यहाँ उल्टा था, लोमा में कुछ नमी थी लेकिन इस पर्णी में कतई नहीं! ऐसे ही मेरे एक जानने वाले औघड़ चण्डिक से वो उलझ गयी, चण्डिक ने मुझे बुलाया मैंने दोनों का पक्ष सुना और पर्णी को गलत सिद्ध कर दिया! बस, यही से फटाव होता चला गया, मेरे सुनने में आया कि उसने लोमा को भी मेरे खिलाफ भड़का दिया था! और फिर यदि बारूद खुले में पड़ा हो तो उसको चिंगारी की आवश्यकता नहीं होती! धूप की गर्मी ही उसको सुलगा देती है!
और ऐसा ही हुआ!
पर्णी उलझ गयी एक सुबह मुझसे!
बात केवल इतनी थी कि चण्डिक से पानी गिर गया था उस पर, तो वो लगी बकने अनाप-शनाप! 'देख-लूंगी, तेरे उस यार औघड़ को भी देख लूंगी!' उस समय मैं मदिरा की झोंक में था,
मैं वहीँ पहुँच गया और बात आगे बढ़ती चली गयी! चण्डिक ने क्षमा माग ली, और बसंत नाथ ने किस्सा ख़तम करने को कहा,
कुछ दिनों के बाद मैं दिल्ली वापिस आ गया,
करीब महीना बीता होगा,
चण्डिक का फ़ोन आप्य कि लोमा की मौत हो गयी है और अब उसके डेरे की रानी उसकी चिलम वो पर्णी है! मैंने सुना और बात सुनी-अनसुनी कर दी!
एक महीना और बीता,
मेरे पास चण्डिक का फ़ोन आया कि वो पर्णी आयी थी चण्डिक के यहाँ और मेरा पता पूछ रही थी, चण्डिक ने मना कर दिया था,
फिर कुछ दिन बीते,
आखिर में चण्डिक ने अपनी जान छुड़ाने के लिए उसको मेरा पता दे दिया,
और दिसंबर के आखिरी हफ्ते में वो दिल्ली आयी, मुझसे मिली और मुझे चुनार आने का निमंत्रण दिया, वहाँ एक विशाल आयोजन था! उसी का निमंत्रण था ये! अब बहुत दूर से आयी थी सो मैंने हाँ कर दिया!
मुझे याद है, वो सत्ताइस दिसंबर की रात थी जब मैं चुनार पहुंचा शर्मा जी के साथ, मेरी उस से मुलाक़ात हुई, उसने मुझे एक कक्ष में ठहराया और कहा कि खाना मैं उसके साथ ही खाऊँ! मैंने भी हाँ कर दी!
रात हुई!
आयोजन आरम्भ हुआ!
और मैं वहाँ शिरकत करने निकला शर्मा जी के साथ!
औघड़ नाच रहे थे, सुलपे पजर रहे थे, शराब खुल के चल रही थी, साध्वियां बेसुध नाच रही थीं!
और मैं तलाश कर रहा था पर्णी को!
आखिर में,
शर्मा जी ने उसको ढूंढ लिया,
वी एक मंच पर बैठी थी, उसके साथ था चण्डिक और बसंत नाथ!
मैं वहीँ चल दिया!
मैं मंच पर गया तो चण्डिक ने मुझे ऊपर खींच लिया, मैंने फिर शर्मा जी को खेंच लिया, पर्णी ने मुझे देखा और कहा, "कहाँ थे?''
"स्नान कर रहा था" मैंने कहा,
"बस हो गया, अब निकलते हैं" उसने कहा,
और मैं वहाँ बसंत नाथ और चण्डिक से बातें करने लगा,
करीब बीस मिनट बीते,
"चलिए अब" वो बोली, चलो" मैंने कहा,
हम सभी चल पड़े,
तभी पर्णी ने मुझे बताया कि एक विशेष कार्य है, उसके साथ मैं ही चलूँ तो बेहत होगा, मुझे कोई आपत्ति नहीं थी, मैंने सभी को ये बात बता दी, शर्मा जी को समझा दिया, अब वे मुडे और मैं पर्णी के साथ मुड़ गया!
पर्णी!
रहने वाली नेपाल की थी,
गोटी-चिट्टी!
मांसल देह!
विशाल वक्ष-स्थल!
अब मैंने विशाल कहा तो आप समझ लीजिये!
भारी मांसल गर्दन, अर्थात शरीर की कोई भी हड्डी मांस के बिना नहीं थी!
उंगलियां भी मांसल थीं,
वजन भी एक भरे पूरे मर्द के बराबर और पढ़ी लिखी!
उसने उस समय नयी धोती पहन रखी थी, बदन कसा हुआ था, उसके बाह्य अंग अपना यौवन चीख चीख के मादकता जता रहे थे! गज-गामिनी सी मस्त चाल उसकी!
आयु यही कोई तीस-पैंतीस बरस!
हम दोनों अंदर आ गए,
अंडा एक लड़की थी, पर्णी ने उसको सामान लेने को कहा और फिर चटाई बिछा दी! हम बैठ गए!
"कितनी उम्र है आपकी?" उसने पूछा,
"चालीस बरस" मैंने कहा,
"लगता नहीं" उसने कहा,
"हूँ, यक़ीन करो" मैंने कहा,
"कब से भौर भरी?" उसने पूछा,
"सत्रह से" मैंने बताया, उसने और जानना चाहा तो मैंने सब बता दिया, आरम्भ से लेकर tab तक!
लड़की सामान ले आयी, पर्णी ने उसको बाहर भेज दिया,
बैग से एक अंग्रेजी बोतल निकाली और उस से पहले उसने श्रृंगार किया, कपडे बदले और बाल खोले, कुल मिलाकर फ़िल्मी दृश्य था!
अब मैंने उस से पूछा तो उसने बताया कि वो उन्नीस बरस की आयु में भौर भर चुकी थी!
रहने वाली थी नेपाल की, उसका बाप भी औघड़ था और एक भाई भी औघड़ था और वो असम में रहता था!
अब सामान खोला उसने, मछली और मुर्गा था, लोटे में पानी था और दो स्टील के गिलास!
"लो बनाओ" उसने कहा,
मैंने एक मंत्र पढ़ा और भोग दे कर गिलास बनाया!
मछली का टुकड़ा उठाया और गिलास नीचे! एहसान कर दिया बिलखती हुई दारु पर!
"बताओ पर्णी, क्या काम है?" मैंने पूछा,
"अभी बहुत श्यामा बाकी है!" उसने कहा,
श्यामा अर्थात रात!
"तुम्हारी कितनी साध्वी हैं?" उसने पूछा,
"कोई नहीं" मैंने कहा,
"मजाक?" उसने कहा,
"नहीं! सत्य" मैंने कहा,
उसने मेरे घुटने पर हाथ टिकाते हुए मेरी आँखों में देखा और बोली, "मुझसे झूठ??"
मैंने उसका हाथ हटाया और कहा, "बिलकुल सच"
वो लगातार देखती रही मुझे!
खतरनाक विष था उसकी आँखों में!
ज्वलंत नाग विष समान!
"ऐसा क्यों पूछा मैंने, नहीं जानना चाहोगे?" उसने पूछा,
"नहीं" मैंने कहा,
वो हंस पड़ी और मेरे कानों से झूलती जटा पकड़ ली!
"कोई तो पार पायेगी, है न?" उसने अजीब सा प्रश्न किया!
"पार?" मै समझ नहीं पाया और प्रश्न उछाल दिया!
"हाँ, पार" उसने कहा!
अब एक तीसरा बड़ा गिलास!
उसने पिया औए अपने होंठ मेरा हाथ उठाकर उस से पोंछ दिए!
अटपटा तो लगा मुझे!
बहुत!
लेकिन अब हो गया जो होना था!
शायद मदिरा का असर था!
"सुनो ओ..." वो अटक गयी कहते कहते!
"बोलो?" मैंने कहा,
"मै तुन्हे क्या बोलूं? साधक, औघड़, तांत्रिक, जोगी, भैरव या फिर टुकड़ा?"उसने कहा,
"टुकड़ा?" मैंने कहा,
बड़ा अजीब सा शब्द था! टुकड़ा??
वो घमंडी थी, कोई बात नहीं, लेकिन इतना घमंड?
"कैसा टुकड़ा?" मैंने पूछा,
अब चौथा गिलास!
गले से नीचे उतरा!
मदिरा को मोक्ष मिला!
न जाने कब तक क़ैद रहती बोतल में!
"हाँ, टुकड़ा" उसने कहा,
अब मैंने बहस करना उचित नहीं समझा, इसीलिए चुप हो गया!
"सुनो?" उसने कहा,
"बोलो" मैंने कहा,
"आग से हाथ ताप रहे हो?" उसने कहा,
बड़ी बहकी बहकी बात करने लगी थी वो!
"कैसी आग?" मैंने पूछा,
"दिखाऊं?" उसने कहा,
"दिखाओ?"मैंने कहा,
उसने अपनी धोती ऊपर की, पाँव से, उसकी मांसल पिंडली देख के मेरी हूक उठी, मैंने गालियां देकर बिठाया उसे, उसकी सुडौल पिंडलियाँ ऐसी जैसे नारियल के वृक्ष की गर्दन! एक पल को मै सकपका गया!
पांचवां पैग!
मैंने स्वयं बनाया!
जल्दी जल्दी!
उसकी पिंडली पैर पीछे की तरग दहकती अलख का निशाँ था, गोदना! अब उसे वो दिखाने के लिए घूमना पड़ा, और जो वो घूमी मै घूम गया!
घूम गया!
उसकी कमर मेरी तरफ हुई, उसके नितम्ब का भारी कसा मांस मेरे घुटने से टकराया, मेरे होश उड़े! कबूतर हुए! बोलो तो मुसीबत, चुप रहो तो गुटर गूं!
ये कैसा प्रपंच है?
जो कहना है साफ़ कहे?
मै भी इंसान हूँ!
भूलो मत!
"कुछ दिखा?" उसने कहा,
'हाँ" मैंने कहा,
"क्या?" उसने पूछा,
"अलख" मैंने कहा,
मंद तो नहीं है?" उसने पूछा,
"नहीं" मैंने उत्तर दिया!
कैसी है?" उसने पूछा,
"भड़की हुई" मैंने उत्तर दिया,
मैंने उत्तर दिया और वो मेरे ऊपर पुश्त करके लेटी!
अब मै क्या कहूं! जानबूझकर या फिर असर-ए शराब?"
एक पल को मै भी भौंचक्का!
"मैं भी भड़की हुई हूँ बरसों से!" उसने कहा,
अब ये क्या!
क्या अर्थ लूँ मैं?
भड़की अलख!
शब्द अच्छे थे,
कामुक भी!
और विषयरस से भरपूर!
"मैं समझा नहीं पर्णी?" मैंने कहा,
"सब समझ गए हो तुम, बस कहलवाना चाहते हो!" उसने कहा,
चोर पकड़ा गया!
रँगे हाथ!
संकीर्ण और बंद गली में!
"नहीं ऐसा नहीं है" मैंने कहा,
"समझ गए हो" उसने कहा,
हां!
सच था, मैं समझ गया था!
अब?
क्या कहूं?
आप क्या कहते मित्र
बताओ?
कोई क्या कहता? क्या कहते आप?
ऐसे चुप न रहो?
बताओ?
उठ जाते?
मैंने भी यही सोचा!
उस समय!
मैं उठ गया!
मेरे हाथ पकड़ बिठा लिया गया,
मछली को आज फांसना ही था उसने!
"कहाँ चले?'' उसने कहा,
"जाने दो" मैंने कहा,
"कहाँ?" उसने पूछा,
"तुम नशे में हो" मैंने कहा,
"नहीं, सुरूर है मुझे, नशा नहीं!" उसने कहा,
मेरी हालत ऐसी कि जैसे बर्फ पिघल रही हो, अपने ही पानी में!
उसने मुझे बिठा लिया!
फिर एक और पैग!
उसने भी लिया, और मैंने भी!
एक बात कहूं?
मर्द मर्द होता है,
मन में कहीं उसकी मर्दानगी चोरी कराती रहती है!
ऐसे ही मेरा चोर!
वो और आ गयी मेरे करीब!
मुझसे उसका चेहरा कुछ इंच ही दूर!
"कुछ समझे?" उसने कहा,
"हाँ" मैंने कहा,
"तैयार हो?" उसने पूछा,
"नहीं" मैंने कहा,
झूठ!
सरासर झूठ!
पेट भरा भी हो तो खाने को मना किया जा सकता है, फेंका नहीं जा सकता! कम से कम छुआ तो जा ही सकता है, खुश्बू तो ली ही जा सकती है!
मैंने गलत कहा क्या?
मन औघड़ हूँ!
इंसान भी हूँ! और इंसान हूँ तो प्रवृतियां भी इंसानी हैं!
छू लूं?
खुश्बू ले लूं?
सोचा!
नहीं! नहीं!
पर्णी जैसे आज इस औघड़ को जांच रही थी,
पल्लू नीचे कर किया,
उसके वक्ष की विबहक्ति-रेखा स्पष्ट हो गयी, फ़ौरन ही मेरे चोर ने जायज़ा ले लिया! परिमाप का!
अरे वाह रे औघड़!
घिर गया!
गिर गया!
लेकिन मैं संभला!
पैग ख़तम किया,
"मुझे छुओ" उसने कहा,
"छुओ?" मैंने प्रश्न किया.
स्व्यं से!
कैसे?
किस तरह!
चोर!
फिर से हंसा!
जानते हुए भी अनजान!
हा! हा! हा!
पर्णी मदमत्त थी,
था तो मैं भी!
झूठ नहीं बोलूंगा!
सच में!
मैंने छू लिया!
उसके गर्म मांस को छो लिया मैंने,
नशा चौगुना हो गया!
उसने आँखें बंद की,
और मेरी आँखें चौड़ी हुईं!
वो काम-शान्ति अवस्था में गयी और मैं कामविह्वल हुआ!
वो शांत उर मुझ में तूफ़ान!
यही होता है न?
स्त्री समर्पण करती है और
पुरुष?
क्या?
क्या मित्रगण?
मुझे समझाइये?
क्या शब्द लिखूं?
स्त्री समर्पण तो पुरुष?
पुरुष तो कुछ नहीं!
दूध का उबाल देखा है?
अग्नि जितनी तेज,
उबाल उतना ही उग्र!
अग्नि शिथिल तो उबाल शांत!
मैं उग्र हो चला था.
लेकिन शांत नहीं था!
सच कहा मैंने!
अब?
शांत कैसे होऊं?
अग्नि तो शिखर पर है!
मैं उठ खड़ा हुआ!
उसकी पकड़ से छूटा!
आह!
ताज़ा हवा!
क़ैद से मुक्ति!
"क्या हुआ?" उसने पूछा,
"कुछ नहीं" मैंने झूठ कहा फिर!
"अलख नहीं साधोगे?" उसने पूछा,
"नहीं" मैंने स्पष्ट कहा,
झूठ!
फिर से झूठ!
"क्यों?" उसने कहा,
"लोमा की अलख मेरे किस काम की?'' मैंने कहा,
मर्द! वाह रे मर्द! कभी नहीं झुकना! दम्भ!
"लोमा ने कभी नहीं साधी, यूँ कहो अलख कभी नहीं भड़की!" उसने ऐसा कह, सारा मेरा रेत का टिब्बा बहा दिया फूंक मात्र से ही!
टिब्बा!
जिसके पीछे बैठा हुआ मैं साहसी बन बैठा था!
मैंने उसको देखा!
मदिरा आंखों में उतर आयी थी!
होठों के पपोटे उभर आये थे!
रक्त भर आया था उनमे!
उसका कसा हुआ ब्लाउज़ साध नहीं पा रहा था उसके स्तनों को!
मैं दूर, दूर ही सुलग रहा था, खड़ा खड़ा!
मैं संयत हुआ!
होना ही था!
यूँ कहो कि होना पड़ा!
"पर्णी?" मैंने कहा,
"बोलो?" उसने कहा,
"क्या चाहती हो तुम?" मैंने साफ साफ पूछा,
"जानते हो आप" उसने कहा,
"नहीं, सच में, सच में मैं नहीं जानता" मैंने कहा,
"अभी मदिरा बाकी है" उसने कहा,
मतलब अभी और कटना बाकी है! क़तरा क़तरा!
"बस" मैंने कहा,
"बस?" उसने हँसते हुए कहा,
"हाँ बस" मैंने कहा,
"अभी कहा मेरे मेलिया!" कह पड़ी वो!
"मेलिया?" मैंने खुद से पूछा,
यही कहा,
मेलिया तो शांत करने वाला होता है!
और इस पृथ्वी पर एक ही मेलिया है साक्षात शक्ति को शांत करने वाला!
श्री महा-औघड़!
नहीं!
ये मैं क्या सोचने लग गया!
मदिरा दोष!
हाँ, वही!
मदिरा दोष!
क्या ये मदिरा है पर्णी?" मैंने दोषारोपण किया!
और क्या करता!
"नहीं" उसने कहा,
अब वो खड़ी हुई!
अब मैं घबराया!
आयी मेरे पास!
''ऐसा क्यों पूछा?'' उसने पूछा,
"ऐसे ही" मैंने कहा, मुंह फेरते हुए!
अब चिपक गयी मुझसे!
उफ्फफ्फ्फ़!
उफ्फ्फ्फ्फ्फ्फ्फ्फ़!
मदिरा की खुश्बू और उसी गर्म साँसें!
ठण्ड के महीने में गर्म साँसें!
मैं वैसा ही रहा,
मैंने नहीं पकड़ा!
वो नशे में थी, मेरा नशा काफूर हो चला था!
बस उसको सम्भाले खड़ा था!