बाबा बोड़ा! नटरंग! नटरंग एक संज्ञा मात्र ही नहीं है! जो शिव-कला में पूर्ण निपुण हो, वही नटरंग कहलाता है! मुझे बड़ी ही हैरत थी! हैरत इस बात की, कि वो तपन नाथ, इस हीरे की परछाईं को भी न छू सका! और एक बाबा बोड़ा थे, जिन्होंने अपना 'अपमान' तक करवा डाला था उस तपन नाथ के लिए! कोई और रहा होता, ऐसा महान, तो जब उसका त्रिशूल खण्डित हो जाता तो लौट जाता वो वहां से! परन्तु ये, ये बाबा बोड़ा, अपने वचन में बंधे, वचन का मान रखते हुए, अभी तक यहां थे? उनकी कुछ महाविद्याएं चल नहीं पायीं थीं! नहीं? मैं ऐसा क्यों कह रहा हूँ? चल नहीं पायी थी नहीं! मनाही कर दी गयी थी! यहां भी सिद्धि का मान रखा उन्होंने! सम्भवतः वे आज अपने वचन और मान की आन में बंधकर, अपना अपमान करवा बैठे थे! वे चाहते तो पता नहीं क्या क्या आकर देते, परन्तु, जो उचित था, उस द्वन्द की सीमा में, वहीँ उन्होंने किया! क्या बाबा को इसका भान नहीं था? था! कई बार उन्होंने ये जतला भी दिया था! और अब, जबकि उनका त्रिशूल ही खण्डित हो गया, यही बाबा बोड़ा का अंत हुआ! यहां उस वचन का अंत हो गया था!
"मुझसे बिना पूछे?" बोला वो दम्भी!
बिन पूछे? आखिर वो था कौन? कौन था वो ये पूछने वाला? इसीलिए, एक क्रोध की दृष्टि डाली उस तपन नाथ पर!
"अरे जाओ?" बोला वो,
और बैठ गया उकड़ू उनके सामने!
"तुम तो शुरू से ही द्वंद में नहीं थे? क्या मुझे इसका आभास नहीं था? अरे वो है क्या? तुम अगर चाहते तो कब का ये द्वन्द निबट जाता? क्या देख नहीं रहा हूँ मैं?" बोला वो,
बाबा कुछ न बोले, खामोश ही रहे!
"क्या? क्या किया तुमने? वो? वो अभी तक वैसा ही है? है न?" बोला वो,
बाबा ने क्रोध के मारे नेत्र बन्द कर लिए अपने!
"जाओ! अब कहता हूँ जाओ! निकल जाओ यहां से! कोई ज़रूरत नहीं! उसके लिए मैं अकेला ही बहुत हूँ! समझे? जाओ?" बोला वो,
अपमान! और बड़ा अपमान! कैसे कड़वे घूँट पिए होंगे उन्होंने! सर हिलाते रहे वो अपना! उन्हें जैसे यकीन तो था, लेकिन इस प्रकार होगा, ये नहीं सोचा होगा उन्होंने!
"अब खड़ा हो?" बोला वो,
खड़ा? रही सही तमीज़ भी त्याग दी उसने!
"सुना नहीं?" बोला तपन नाथ!
बाबा के नेत्र बन्द ही थे, कि तभी, एक ज़ोर से आवाज़ हुई! बाबा बोड़ा खड़े हो गए, तपन नाथ को पीछे किया अलख तक भागे! रुके!
"भाग! भाग तपन! भाग!" चिल्लाये वो ज़ोर से, बहुत ज़ोर से! जितना चिल्ला सकते थे! तपन नाथ ने न आव देखा न ताव! सब भूल-भाल गया और आगे मुड़ भागने लगा! उसको देख, वो औघड़ भी भागा! बाबा पीछे भागे और उठाया अपना अस्थिदंड! और किया उसी तरफ! भू-कम्पन्न सा हुआ! जैसे दौड़ते हुए हाथी से रुक गए हों उधर! पीछे पलट कर बाबा ने देखा!
"तपन?" बोले वो,
"ह......?" इतना ही बोला सका वो!
"नहीं थाम सकता मैं! जा! जा भाग! नदी पर कर जा!" बोले वो,
और जैसे किसी को धकिया रहे हों, ऐसे मुंह बनाया उन्होंने! अगले ही पल अस्थिदंड ने पकड़ी आग! भक्क! और बाबा जा गिरे पीछे! जैसे ही गिरे, मर्मान्तक सी चीख गूंजी! बस एक बार! बस एक बार ही!
मेरा मुंह खुला रहा गया! पल भर में ये क्या हुआ? बाबा ने किसका बचाव किया? तपन नाथ का? इतने के बावजूद भी? मैंने भी अजीब सी आवाज़ें निकालनी शुरू कर दी थीं! मेरे मुंह से भय का पानी रिस रहा था! उस पल मैं थर-थर कांप रहा था!
"क्या देख रहे हो?" पूछा जीवेश ने,
''अ......आ........!" बोला गया मुझ से बस!
"क्या हुआ? क्या हुआ वहां?" पूछा उसने,
"ह....हां.....!" कहा मैंने,
"बाबा कहां हैं?" बोला वो,
"गिरे पड़े हैं....अ....." कहा मैंने,
"कहां?" पूछा उसने,
"व...वहीँ....वहीँ....." कहा मैंने,
"अलख के पास??" बोला वो,
"ह...हां....." कहा मैंने,
"और वो? तपन नाथ?" पूछा उसने......
इसके बाद, जीवेश मुझे झिंझोड़ता रहा, मेरे से जवाब कुछ न बना, बस मैं, अपने कन्धे से उसका हाथ हटाता ही रहा! देख लगी हुई ही थी, सो नेत्र खोले और फिर से देख के साथ उस स्थान पर पहुंचा!
वहां अलख मन्द पड़ गयी थी, अब उसमे धौंकनी सी घर्र-घर्राती सी आवाज़ नहीं थी! बाबा बोड़ा, नहीं मुंह के बल लेटे थे! वे मूर्छित थे शायद! मैंने अवलोकन किया, आगे एक तरफ, उस शिवाल औघड़ का तो जैसे मलीदा बन गया था, सर फूट गया था, सर के दो टुकड़े हो गए थे, हाथों में हाथ बंधे थे बायीं तरफ, जैसे किसी ने छाती पर खड़े होकर, सर को फोड़ डाला हो, ऐसा लगता था! लेकिन वो तपन नाथ? वो कहां था? वो यहां कहीं नहीं था! क्या वो बच निकला था? क्या उसने क्षमा मांग ली थी इस महाशक्ति से? क्या इतना समय शेष रहा था उसके पास? वो यहां कहीं नहीं था! पीछे आहट हुई, और मेरी देख घूमी, बाबा बोड़ा, बैठ गए थे, खड़े हुए, सामने देखा, मुस्कुरा गए! वे सब जानते थे जैसे, पीछे पलटे और अलख तक आये! अलख को नमन किया उन्होंने! एक महानाद श्री महाऔघड़ का बोला और उस शान्त सी पड़ी अलख को, फू कर, बुझा दिया! वे पलटे और चलने को हुए, साहस ही रुके! आकाश को देखा और प्रणाम किया! फिर एक बार खुल कर हंसे! घुटने पकड़ कर हंसे! और फिर खड़े हुए, अपने खुले केश बांधे, और लौटने लगे वापिस! मुझे वहीँ स्तम्भित कर दिया गया था, मैं उनके पीछे पीछे न चल पा रहा था! मेरी देख की सीमा रोक दी गयी थी! धीरे धीरे वे चलते चले गए दूर, फिर अंधेरे में लोप हो गए!
उसके बाद, मैंने उन्हें कभी न देखा......आज तक भी नहीं...
मित्रगण!
दो रोज़ बाद हम काशी पहुंच गए थे, यहां हमारे साथ वो ब्रह्म जी भी आये थे, ब्रह्म जी के आंसू थमने का नाम ही न लें! बहुत समझाया, बहुत समझाया! उन्होंने श्री जी से मिलने की इच्छा व्यक्त की, मानी गयी, बात की गयी उधर, श्री जी के डेरे पर, वे सभी कुशलपूर्वक थे!
हम वहां पहुंचे, सभी से मिले! हम विजयी हुए या नहीं, पता नहीं, नहीं कह सकता था! मुझे फिर कुछ रहस्यमय सा पता चला!
जानते हो मित्रगण! बाबा बोड़ा, अपने वचन में बंधे थे! वचन जिसके लिए बाबा बोड़ा न कभी अपने प्राणों का मोह भी न किया! बाबा बोड़ा जानते थे कि उनका सामन मुझ से तो कदापि नहीं होगा! उनका कोई शत्रु था ही नहीं! न मन में ही कोई शत्रुता ही थी! यदि मुझे शत्रु मान लिया होता उन्होंने, तो सम्भव है, परिणाम कुछ और ही होता! बाबा बोड़ा अपने समकक्ष से ही भिड़े! भिड़े, मात्र तपन नाथ की रक्षा हेतु! रक्षा, उसकी देह की! न कि उसकी विद्याओं की! यदि ऐसा ही होता, तो प्रश्न उठता है कि क्यों नहीं तपन नाथ की सभी विद्याएं कील दीं उन्होंने? नहीं! यदि कील देते तो वचन से मुक्त नहीं होते! ये बहुत दूर तलक की बात है, मेरे जैसे एक सामान्य, औसत बुद्धि वाले मनुष्य की समझ में नहीं आने वाली!
वो सिद्ध-योगी? कौन था?
वो सिद्ध-योगी बाबा धर्म नाथ द्वारा सिद्ध सिद्धि का फल था!
क्या उस सिद्ध-योगी का कोई जवाब बाबा बोड़ा के पास नहीं था?
अवश्य ही था! सिद्ध-योगी उपरान्त ही वे नटरंग हुए थे!
तो उसका प्रयोग क्यों नहीं किया गया बाबा बोड़ा द्वारा?
किस हेतु? एक दम्भी, घटिया सरभंग को, उच्च-गति? नहीं!
और वो स्तनपान करवाती स्त्री?
वो मां जाया दाई! महाप्रबल महारक्षण करने वाली मां जाया! मोटे शब्दों में, मां कमला की महासहोदरी, मां लोणार!
और वो मण्डली?
भल्लकौटिक मण्डली! श्री भैरव जी के एक महावीर दण्डघण्ट के प्रहरी! द्वारपाल, इनमे से दो, भाट का कार्य करते हैं! सुविष, हविष, रविष एवं क्षुविष! ये चारों ही महाभट्ट, महायोद्धा हैं!
बाबा का त्रिशूल खण्डित करने वाली शक्ति कौन?
नटांगि!
ये कौन?
श्री शिव द्वारा सरंक्षित गण, भल्ल, मल्लाट और काञ्जरीक! ये काञ्जरीक श्रेणी वही है, जिन्हें राजस्थान में कंजर कहा जाता है! ये समाज से बेचारे बहिष्कृत रखे गए हैं, अब स इन्हीं पता नहीं कब से! ये नटांगि इस श्रेणी की देवी है! ये महाप्रबल है, अतः, कोई सिद्ध-योगी साधना पश्चात ही इसकी साधना कर सकता है!
तो क्या बाबा को ये पता नहीं था कि उनका त्रिशूल उनके इस वार से खण्डित हो जाएगा?
क्यों नहीं पता था! या यूं न समझा जाए, कि ये कोई संकेत ही था!
और अस्थिदंड में अग्नि? वो क्या था?
वो बाबा बोड़ा का, स्वयं-रचित महाप्रयोग था! उस अस्थिदंड पर कोई वार करे, ऐसा सम्भव ही न था! स्मरण रहे, उन्होंने एक बार उसे उल्टा भी कर लिया था! तभी वे तटस्थ हो गए थे!
तो फिर???????????
तो फिर तपन नाथ का क्या हुआ?
तपन नाथ उस प्रबल शक्ति-वेग द्वारा उठाकर फेंक दिया गया था दूर नदी के बीचोंबीच! उसकी मृत्यु तो उस वेग से छूते ही हो चुकी थी! उसकी देह के कई टुकड़े नदी की जलधारा में बहते चले गए थे!
क्या बाबा बोड़ा को इस विषय में ज्ञान था?
बखूबी था, इसीलिए उन्होंने अपने कर्तव्य का पालन भी किया था, उन्होंने तपन नाथ को द्वन्द के मध्य, उसको क्षमा मांगने के लिए भी कहा था, उस तपन नाथ ने ये नहीं सोचा कि वे ऐसा क्यों कह रहे हैं? अपितु, इस बाबा की कमज़ोरी और भय कह दिया!
तो क्या तपन नाथ को बचा सकते थे बाबा?
नहीं! बाबा उस द्वन्द से तटस्थ हो चुके थे, वे बता चुके थे, इस भल्लकौटिक के समक्ष उन्होंने यही तो कामना की थी कि उनका सर्वस्व वे हर लें, द्वन्द हो और वे मृत्यु को प्राप्त हों! ऐसा, श्री जी ने नहीं होने दिया! बाबा बोड़ा एक सख्त, महाशक्तिशाली प्रतिद्वंदी अवश्य ही थे श्री जी के सम्मुख, परन्तु वे इस तन्त्र-क्षेत्र में स्वयं ही एक सागर हैं, उनका इस प्रकार के नीच मनुष्य से वचनबद्ध होकर, स्वयं ही अपना 'त्याग' करना अनुचित ही था! अतः, इस बार श्री जी ने ही वार किया! बाबा बोड़ा स्वयं को बीच में ले आये, अभी भी, तपन नाथ को अवसर दिया बचने का, परन्तु ऐसा होना नहीं था, और हुआ भी नहीं!
तो बाबा बोड़ा कहां हैं अब? क्या जीवित हैं?
हाँ बाबा बोड़ा जीवित हैं, कहां हैं, ये तो ज्ञात नहीं, वे एक स्थान पर कभी टिकते नहीं!
क्या बाद में कभी उनसे कोई वार्तालाप हुआ?
नहीं, कभी नहीं, श्री जी से भी नहीं!
द्वन्द के मध्य कोई वार्तालाप?
हाँ, हुआ था! मुझे नहीं बताया गया इस विषय में!
मित्रगण!
ये था द्वन्द! तपन नाथ का वही हुआ, जैसा उसे बताया गया था! इस धरा पर, एक से बढ़कर एक साधक आज भी हैं! अज्ञात और दूर रहने वाले! उनमे दम्भ नहीं! दम्भ तो छू कर नहीं जाए उन्हें!
सही कहते हैं, कहा जाता है कि, थोथा चना, बाजै घना!
मुझे कभी अफ़सोस नहीं उस तपन नाथ का! कोई अफ़सोस नहीं! ऐसा घटिया और नीच तो जीने लायक़ है ही नहीं!
और बाबा बोड़ा! धन्य हैं बाबा बोड़ा!
उनके विषय में तो मैं, कुछ लिखा भी नहीं सकता! ऐसे महासाधक की परछाईं भी छू लो तो उद्धार हो!
जय श्री जी! जय बाबा धर्मं नाथ! जय बाबा बोड़ा!
साधुवाद!
बाबा बोड़ा का ये संस्मरण स्मृतिशेष पूज्य गुरुदेव के यादे, सामर्थ्य और ज्ञान को पुनर्जीवित कर दिया।
Ye mudraksh kya hota hai
बहुत समय बाद में संस्मरण पढ़ा, और वो भी बाबा बोड़ा का,बेहद जबरदस्त द्वंद,
जय गुरुदेव .