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वर्ष २०११, बोड़ा! एक महान औघड़!

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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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धूमैत्रि का पूजन मात्र ही शत्रु-पीड़ा से मुक्ति दिला देता है! ये शत्रु-विजय, शत्रु-उच्चाटन, शत्रु-विद्वेषण, शत्रु-भय समाप्ति हेतु किया जाता है! मारण विधि मैं नहीं लिखूंगा, ये उचित भी नहीं है! एक बात का स्मरण रहे, जिस से प्राण-भय रहे, या प्रतिष्ठा-भय रहे, उसे ही शत्रु समझना चाहिए! यदि मैत्री से शत्रुता समाप्त होती हो, तो उसको शत्रु नहीं कहा जा सकता! अतः, इस शब्द शत्रु को, पहले परख लें! विधि आपको बता देता हूँ! कच्ची और चिकनी मिट्टी से, एक आकृति मूर्ति रूप में बनाइये, छोटी ही सही रहती है! इसको धूप में सुखा लीजिये, तब, इसको काले रंग से रंग दीजिये! और, उसी रात्रि, घर से कहीं दूर जाकर, किसी निर्जन स्थान पर, हाथों से गड्ढा खोद लें, इस मूर्ति को इसमें दबा दें! तदोपरान्त एक मन्त्र का इक्कीस बार उच्चारण करें! उच्चारण पश्चात, उस स्थान पर, मूत्र-प्रवाह कर दें! पीछे लौटें, पीछे नहीं देखें, चाहे कोई आवाज़ आये, या न आये! घर आएं, हाथ-मुंह धो लें, इस प्रयोग के विषय में किसी से भी वार्तालाप न करें, और न ही ये प्रयोग अन्य किसी को बताएं! शत्रु से उत्पन्न पीड़ा का नाश होगा! शत्रु-भय समाप्त हो जाएगा! शत्रु, मित्रवत व्यवहार करने लगेगा! सामान्य ही रहें! अपनी तरफ से कुछ पहल न करें! 
दूसरा प्रयोग, ये प्रयोग, विवाद आदि को समाप्त करने के लिए प्रयोग करें, लाभ होगा, या स्थिति एवम परिस्थितियां अनुकूल हो जाएंगी! प्रयोग इस प्रकार से है, जिस से विवाद चल रहा हो, उसका नाम, मेहंदी की स्याही से, बरगद के पत्ते पर लिखें! पता ज्ञात हो, तो पता भी लिख ही दें! इस पत्ते को, शराब की छींटें देकर, किसी बड़ी सी नागफनी के बीच में, या किसी अरण्ड के पेड़ में, या किसी बेरी के पेड़ में, बाँध दें, लपेट कर! उक्त मन्त्र का इकत्तीस बार जाप करें, घर लौट आएं, पीछे नहीं देखें, अनटोका प्रयोग अधिक फलप्रद होता है, अतः कोई टोके नहीं! विवाद, पन्द्रह दिनों में ही इस स्थिति में आ जाएगा कि उसका निर्णय निकले! सबकुछ शान्ति से निबट जाएगा! 
दोनों ही प्रयोगों के बाद, फल प्राप्ति उपरान्त, चूँकि धूमैत्रि घोर तांत्रिक देवी हैं, अतः तामसिक पदार्थ का ही भोग मांगती हैं! इसीलिए, आधा किलो कलेजी, बकरे की( बकरे की ही हो, विशेष ध्यान दें, कह दें कसाई से) उनका मन्त्र ग्यारह बार पढ़कर, किसी श्वान को खिला दें!
"जीवेश!" कहा मैंने,
"आदेश!" बोला वो,
"ये, गूब(बकरे की कलेजी) ले आओ!" कहा मैंने,
"जो आदेश!" बोला वो,
और उठा, नमन किया, आज्ञा ली, और चला गया! और कुछ ही देर में, गूब ले आया, रख दी वहीँ थाल में!
"आदेश!" बोला वो,
"मदिरा!" कहा मैंने,
"ब्रह्मादेश!" बोला वो,
और दो गिलासों में मदिरा परोस दी!
"दो, टुकड़े, सेंक लो!" कहा मैंने,
"आदेश!" बोला वो,
और चिमटे की नोंक में, दो टुकड़े पिरोये उसने, अलख पर सेंकने लगा! जब आग सी पकड़ती कलेजी तो हटा लेता और फिर रख देता!
"आदेश?" बोला वो,
"रख दो!" कहा मैंने,
और एक पत्ते पर, रख दी उसने वो कलेजी!
"जय जय अघोरेश्वर! जय जय तेरी राजी!" कहा मैंने,
यही कहा जीवेश ने!
"लो!" कहा मैंने,
"आदेश!" बोला वो,
और एक टुकड़ा, उसने लिया, एक मैंने, अलख को नमन किया, और फिर, खाने लगे हम! बढ़िया सिंक गयी थीं कलेजियां! टुकड़े भी बड़े बड़े थे! मजा ही आ गया!
"मदिरा!" कहा मैंने,
"आदेश गुरु कौ!" बोला वो,
और घुटने बैठ, मुझे दे दिया गिलास!
"लो!" बोला मैं,
"आदेश!" बोला वो,
कलेजी काटी और चबाई मैंने! उसने भी यही किया!
"जीवेश?" बोला मैं,
"आदेश?" बोला वो,
"उठाऊं अब?" बोला मैं,
"हां हां!" बोला वो,
"जय जय अलक्ष!" कहा मैंने,
और एक महामन्त्र जपने लगा! मन्त्र पढ़ता, और अलख में ईंधन झोंकता! रुका और पूरा टुकड़ा अब, मुंह में रख लिया!
चबाते हुए, पढ़ने लगा मन्त्र मन ही मन! पढ़ता और कंधे सहलाता अपने! बार बार! जीवेश जानता था कि अब होगा क्या!
"जीवेश?" बोला मैं,
"आदेश?" बोला वो,
"देखो अब!" कहा मैंने,
"आदेश! गुरु आदेश!" बोला वो,
अलख से कुछ लकड़ी निकालीं, रखी एक तरफ, आग बुझी और धुंआ छूटा! धुंआ छूटा तो आँखों में पड़ा! पड़ते ही, आँखें चिपचिपायीं!
"सुन ले? सुन ले?" बोला जीवेश, अलख की उन लकड़ियों से!


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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"जलेगी!" कहा मैंने,
और मारी मैंने फूंक फिर!
"जल जा? ओ सौतना?" बोला जीवेश!
अब जीवेश के स्वरों में, देहाती पुट आने लगा था, उसका निकास देहात से ही है! उसके पिता जी, बड़े साधक रहे हैं! लेकिन ये जीवेश, ये अलमस्त है! मस्तमौला! उसने जब ये बोला तो मैं बिना हंसे न रह सका!
मैंने एक दो फूंक और मारी और आग पकड़ ली उन लकड़ियों ने! अब जीवेश न सम्भाल लिया मोर्चा इसका!
"देख लड़ाओ!" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
और मैंने देख लड़ाई! देख, जा पकड़ी गयी! तपन नाथ के संगी ने देख पकड़ ली थी! वो संगी, वहीँ बैठा था, ये उम्र में, करीब चालीस के आसपास का, दरम्याने से बदन वाला था, उसका हवा-भाव और क्रियान्वन, कुछ कुछ इस तपन नाथ से मिलता जुलता था, तपन नाथ भारी देह वाला था, उसका ये छोटा भाई हो, सम्भव था!
"क्या चल रहा है?" पूछा जीवेश ने,
"वे दो बैठे हैं!" कहा मैंने,
"कौन कौन?" पूछा उसने,
"तपन और, एक और है!" कहा मैंने,
"देख तपन ने पकड़ी?" पूछा उसने,
"नहीं!" कहा मैंने,
"कपाल को पूज रहा है?" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
"भेरी है?" पूछा उसने,
"कहीं नहीं!" बोला मैं,
"तब देर है!" बोला वो,
"हां! सही कहा!" बोला मैं,
"तब तक आप साझ लो?" बोला वो,
"अभी नहीं!" कहा मैंने,
"जैसी राजी!" बोला वो,
"मदिरा!" कहा मैंने,
"हां!" बोला वो,
"कालजा सेंकूं?" बोला वो,
"सेंक लो!" बोला मैं,
और देख ज़ारी रखी मैंने! कुछ ही देर में एक और साथी आ गया उसका, खुले केश वाला, नग्न और भस्मीभूत सा! आते ही, उस कपाल से उसने, लेटकर, सर लगाया! और उठ गया! अगले ही पल, चिमटा हाथ में उठा, एक पाँव ऊपर कर, नाचने लगा! ये, 'भेरू-चक्क' था! ऐसा ये सरभंग किया करते हैं!
"क्या हो रहा है?" बोला जीवेश!
"आह्वान!" कहा मैंने,
"नाच?" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
"तपन?" बोला वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"ये लो!" बोला वो, मदिरा का गिलास देते हुए! मैंने लिया गिलास, और रख लिया हाथ में, अपने केश ऊँगली से पीछे किये और देख ज़ारी रखी!
"जीवेश?" बोला मैं!
"आदेश?" बोला वो,
"अब होगा सम्वाद!" कहा मैंने,
"हां, भुंडा का और उस तपन का!" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
मित्रगण! कपाल-भुंडा की आमद से पहले, उसके सेवक, जायज़ा सा लेते हैं! क्या स्थिति है, कोई कर्म तो नहीं आदि आदि! तब, कपाल में, अण्डवाक-वाहिनि प्रवेश करती है! कपाल बातें करने लगता है! शत्रु का सर कैसे कटे, कैसे उसका भंजन हो, क्या किया जाए, ये सब वो बताता है! आपको याद होगा, वो कालभट्ट गण! जिसका ध्यान करवाया गया था! मुझे बस उसी का ध्यान करना था, जब वो उद्देश्य बोले, उस से पहले! और तब, मैं, शिविज-आह्वानिका पढ़, क्षुपि से प्रार्थना करता मन ही मन! क्षमा मांगता और इसके साथ ही धूमैत्रि का आह्वान भी कर देता! तब होता संग्राम! किसका? शक्तियों का? नहीं, हमारी सिद्धियों के सामर्थ्य का!
"हौम तरुंड मेख मेख हौम जूह एही एही फट्ट!" बोला मैं और अलख में ईंधन झोंक मारा! मेरे पीछे पीछे यही मन्त्र पढ़ता हुआ, जीवेश भी ईंधन झोंकता रहा! हमने कुल ग्यारह बार ईंधन झोंका!
"जीवेश?" कहा मैंने,
"आदेश!" बोला वो,
"बिछावन लगाओ! लगाओ!" कहा मैंने,
"आदेश! आदेश!" बोला वो,
और हुआ खड़ा, ठंडी पड़ चुकी भस्म, मेरे शरीर पर मल दी उसने! ऐसा नौ बार किया! और मैं, उस स्थल पर लेट गया!
"आदेश?" बोला वो,
"केंद्रित रहो!" कहा मैंने,
"आदेश!" बोला वो,
और मेरे उदर पर, चिमटा रख दिया उसने, उखाड़ लिया त्रिशूल अपना, और मेरे कंधे के पास आकर आ बैठा! तब..........!!


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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"जीवेश?" बोला मैं,
"आदेश!" बोला वो,
"शीघ्र!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोला वो,
और उसने तब मन्त्र पढ़ना आरम्भ किया, मैंने अपने नेत्र बन्द कर रखे थे, वो मन्त्र पड़ता जाता और मेरे शरीर को त्रिशूल से अपने, काटता जाता! धूमैत्रि की महाविद्या और आह्वान हेतु, देह का सशक्तिकरण अतिआवश्यक हुआ करता है! जब मेरी देह, त्रिशूल द्वारा चिन्हित कर दी गयी, तब मैं उठ बैठा!
"जीवेश?" कहा मैंने,
"आदेश!" बोला वो,
"अब मैं आह्वान करूँगा!" कहा मैंने,
"जी!" बोला वो,
"तुम, इस टिंडी के ऊपर ही बैठना!" कहा मैंने,
"आदेश!" बोला वो,
"जब तक न कहूँ, हिलना नहीं!" कहा मैंने,
"जी!" बोला वो,
और मैं अलख पर आ गया! अलख पर आते ही, ईंधन झोंका और उसमे मांस आदि का भोग झोंक दिया!
अचानक से घोर से स्वर गूंजे वाचाल के! अब समय आ गया था! अब तपन नाथ ने वार करना था, सम्भवतः, आह्वान पूर्ण होने का था उसका! मैंने तभी देख लड़ाई और मेरी देख पकड़ी गयी! मैंने देखा, तपन नाथ के सामने, वो कपाल रखा था! कपाल के पास, दीये जलाये गए थे, सम्मुख उसके एक थाल रखा था, थाल में फूल, मांस और मदिरा रखी गयी थी! कपाल के पीछे, वो पतला सा औघड़ खड़ा था, वो अलख में, ईंधन झोंके जा रहा था! अब तपन नाथ का शरीर जैसे उछल रहा था, वो बैठे बैठे उछल रहा था, ये क्रिया-वेग कहलाता है! वो मन्त्र पड़ता जाता और कुछ सामग्री सी, उस कपाल पर मारे जाता!
"जीवेश?" कहा मैंने,
"आदेश?" बोला वो,
"चार 'कील' दो?" कहा मैंने,
"अवश्य!" बोला वो,
और उसने 'कीलें' दे दीं मुझे! मैंने अलख की भस्म ली दूसरे हाथ पर, उन्हें धूमैत्रि के मनत से अभिमन्त्रित किया और छोड़ दी ज़मीन पर अपने सामने! अभिमन्त्रित होते ही वे गर्म होने लगती हैं! लगता है जैसे आग सी भर गयी हो उनमे!
"जीवेश?" कहा मैंने,
"आदेश?" बोला वो,
"'बांध-मन्त्र से दिशा बांधो!" कहा मैंने,
इस बांध मन्त्र को कुछ और कहा जाता है, मैंने, इसका अर्थ स्पष्ट हो, यही लिखा है!
"है, एक एक!" कहा मैंने,
उसने चाक़ू के फाल पर, एक 'कील' उठायी और बांध-मन्त्र पढ़ते हुए, नौ क़दम पर सामने, पूरब बांध दी! और फिर दक्खन, फिर उत्तर और फिर पश्चम! दिशा बढ़ जाने के बाद, वाचाल की देख और मज़बूत हो गयी, उसको आभास और तीक्ष्ण होने लगता है!
अब मैंने गहन मंत्रोच्चार आरम्भ किया! मेरे मन्त्र, जमभाट का सा स्वर निकालते थे! मन्त्र समाप्ति पर, जीवेश मन्त्रों को 'देह' लगा देता था! करीब सात या आठ मिनट के बाद ही, वो उस जगह पर आ बैठा जहां वो टिंडी गाड़ी गयी थीं!
अचानक से वायु का शीतल सा प्रवाह महसूस हुआ! रोंगटे से खड़े हो गए! लगा कोई दूर से, ठंडी फूंक मार रहा हो!
"यं यं यं ..............................फट्ट!" बोला मैं चीख कर! मेरे मन्त्रों से वो श्मशान ही बोल उठा! कोई कोना ऐसा न रहा होगा जहां से स्वर न गूँज रहे होंगे! दो आह्वान होते हैं, पहला कुछ ही समय पहले पूर्ण किया था, और अब दूसरा भी कुछ ही दूर में पूर्ण हो जाता!
"देख लड़ाओ?" बोला जीवेश,
"हाँ!" कहा मैंने,
और मैंने देख लड़ाई! उस कपाल में से, धुंआ सा निकलने लगा था! जैसे उसके खुले मुख में कोई सामग्री रख दी गयी हो! वे दोनों ही, भयानक भुंडा-आह्वानिका मंत्रोच्चार किये जा रहे थे! मैं इस तपन नाथ को देख रहा था, वो निपुण लग रहा था, मंत्रोच्चार भी पुष्ट एवम स्पष्ट थे! दूसरा औघड़, उस कपाल के पास, कभी एक पाँव उठा नाचने सा लगता था और कभी भूमि पर उकड़ू बैठ, सर हिलाता ज़ोर ज़ोर से! और तपन नाथ, अपने मंत्रोच्चार में ऐसा लीन कि आज विश्व-विजय समझो!
तब अचानक ही, मेरी दृष्टि जम के रह गयी!


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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वो कपाल जिसमे से अभी धुआं सा निकल रहा था, अचानक से ऊपर उठा! उठा और मन्द मन्द घूमने लगा! अब तो स्पष्ट था, उसका आह्वान पूर्ण हुआ था! तपन नाथ और वो दूसरा औघड़, भूमि पर लेट गए थे! तपन नाथ कुछ ही क्षणों में उठा, और वो औघड़ भी, तपन नाथ ने, तेज से मन्त्र बोले! और उस कपाल से उसका सम्वाद आरम्भ हुआ! ये सम्वाद मैं नहीं समझ सका था, स्वर-वाहि कटी हुई थी! अब मुझे अपना रक्षण करना था!
मैंने अलख पर गहरी पकड़ बनाई, और अलख को अब उसका भोग देना द्रुत गति से शुरू किया! मेरे मन्त्र भीषण और रौद्र होते चले गए! जीवेश मेरा साथ देता रहा, हाथों में भर भर कर ईंधन, अलख के मुंह में भरता रहा! 
मेरी देख अचानक से टूट गयी! मैं खड़ा हुआ! और आकाश की तरफ सर किया, एक मन्त्र बोला, फिर अचानक से ही सामने कुछ नज़र आया! ये जैसे झूम सा रहा था, जैसे कोई, कभी इधर छिटके और कभी उधर छिटके! ये कौन था, मुझे नहीं मालूम चला! मैं बस आह्वान में ही मग्न रहा! जैसे ही मैंने लघु-शंष पूर्ण किया, तेज तेज अट्टहास से गूंजने लगे! बस! ये संकेत था! संकेत उस धूमैत्रि के आगमन का! मेरी अलख ऊँची उठ गयी! वायु जैसे चलना बन्द हो गयी, प्रकाश इतना छलके उस अलख से कि आसपास घुप्प अँधेरा दिखाई दे! जहां भी देखूं प्रकाश के सूर्य से दिखाई दें!
"मां धूमैत्रि! कृपा कर!" चीखा मैं!
अट्हास गूंजे!
"कृपा कर!" बोला जीवेश भी!
"मां! रक्षण! रक्षण!" बोला मैं,
जीवेश ने भी यही कहा! और हम दोनों ने ही, अपना अपना त्रिशूल उखाड़ लिया! बगल के भीतर दे लिया, चिमटा एक हाथ से खड़काने लगे!
"कृपा कर!" कहा मैंने!
"मां! प्रकट हो! प्रकट हो!" चीखा मैं!
और तभी वहां, भूमि पर हलचल सी होने लगी! जैसे सैंकड़ों लोग दौड़े, भागे जा रहे हों! अब स्पष्ट था, मेरा वो स्थल, वो अलख, मैं, जीवेश अब रक्षण में थे! अभी हम खड़े ही थे, कि ठीक ऊपर से, कुछ नीचे आया! धम्म से गिरा और गिरते ही, भड़ाक! भड़ाक से चीथड़े उड़ गए उसके! अलख, नीचे बैठ गयी! पल भर को, मुझे और जीवेश को, काठ सा मार गया! कुछ पल आगे बढ़े! अब कोई अट्टहास नहीं! कोई दौड़-भाग सी भी नहीं! क्या समझूं? क्या तपन नाथ की कपाल-भुंडा की संहारिका, वापिस लौट गयी? वो क्या फटा था? क्या वो कपाल? होश आने में, कुछ क्षण लगे! पल भर में सामान्य हुए हम!
"देख! देख लड़ाओ अभी! अभी!" चीख कर बोला जीवेश!
मैंने देख लड़ाई! देख पकड़ी गयी मेरी! और जो देखा वो तो बड़ा ही अजीब सा था! तपन नाथ के समक्ष वो कपाल नहीं था! तपन नाथ भूमि पर लेट गया था, वो दूसरा औघड़, वो भी नहीं था वहां?
क्या हुआ था?
"क्या है?" पूछा उसने,
"तपन नाथ लेट गया है!" कहा मैंने,
"लेट गया है?" पूछा उसने,
"हाँ!" कहा मैंने,
"और वो कपाल?" पूछा उसने,
"नहीं है वहाँ!" कहा मैंने,
"नहीं है न? है न?" बोला वो,
"हाँ, नहीं है!" कहा मैंने,
"इसका मतलब वो कपाल ही फटा था! हम जीत गए! हम जीत गए!" बोला चिल्लाने लगा! ज़ोर ज़ोर से हंसने लगा!
"जीवेश?" कहा मैंने,
"हाँ?" बोला वो हंसी रोकते हुए!
"वो औघड़ वहां नहीं है!" कहा मैंने,
"तो?" बोला वो,
"तपन नाथ शायद, होश में नहीं!" कहा मैंने,
"तब?" बोला वो,
"तो जीवेश? देख किसने पकड़ी?" पूछा मैंने,
उसके हलक में शब्द अटक गए! वो मेरा आशय समझ गया! जो मेरा संशय था, अब वो उसका भी हो गया!
"हाँ?" कहा मैंने,
"क्या इस तपन नाथ ने ही तो नहीं?" बोला वो,
"नहीं" कहा मैंने,
"वो जीवित तो है?" बोला वो,
"होगा!" कहा मैंने,
"कहीं कपाल-भुंडा ने ही तो प्रतिवार नहीं कर दिया?" बोला वो,
"नहीं कह सकता!" कहा मैंने,
अचानक ही, जैसे होश आया उस तपन नाथ को! आसपास देखा और झट से खड़ा हुआ वो! खड़ा होते ही, अलख को देखा!
"वो हो गया खड़ा!" बोला मैं,
"तपन?" बोला वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"अब?" पूछा मैंने,
"उसने नहीं पता शायद!" कहा मैंने,
"क्या?'' बोला वो,
"वो देख में है!" कहा मैंने,
"अब?" बोला वो,
उसने आसपास देखा, और अपना त्रिशूल उठाया है, गुस्से में है वो बहुत! त्रिशूल को लहरा रहा है!" कहा मैंने,
"और अब?" बोला वो,
"ये?" बोला मैं,
"क्या?'' पूछा मेरे कंधे पर हाथ रखते हुए!
"वो लौट रहा है!" कहा मैंने,
"कहाँ?" बोला वो,
"रुक गया!" कहा मैंने,
"क्या कर रहा है ये?" पूछा उसने!


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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"नहीं पता!" कहा मैंने,
तपन नाथ दौड़ के आया वापिस! अलख तक! सामान पर नज़र डाली और आवाज़ दी किसी को! एक दो बार ही आवाज़ दी होगी कि एक और औघड़ वहां भागते भागते पहुंचा! अब अचानक से श्रवण-जिव्हा आरम्भ हुई! सामने गया वो तपन नाथ! ज्वालामुखी सा फूटा था उसके अंदर क्रोध का! उसका प्रत्येक वार कट गया था! तपन नाथ ने ऐसा कभी सपने में भी न सोचा न था! उसके तीनों वार, न सिर्फ खत्म ही हो गए थे, बल्कि उसकी झोली से भी रिक्त हो गए थे! वैसे भी, तपन नाथ की जगह कोई और होता तो अब तक मैदान छोड़ कर भाग लिया होता!
और अचानक वो हुआ, जो मैंने कभी सपने में भी नहीं सोचा था! उसने अपना त्रिशूल उठाया और आगे आया! दी तीन थाप उसने भूमि पर! और ठहाका मार, हंस पड़ा!
"देख रहा है?" बोला वो,
हंसते हुए, पागलों सा!
"देखता रह!" बोला वो,
बड़ी अजीब सी बात!
"क्या समझता है तू?" बोला वो,
मैं चुप ही रहा!
"क्या समझता है? तू? तूने किया ये? अरे जा! थू! थू!" बोला थूकते हुए!
"मैंने क्या किया और क्या नहीं, क्या लौट और क्या नहीं! हैं न? क्या समझता है? तू जीत गया? हैं? जीत गया तू?" बोला चीख कर!
"नहीं! नहीं!" बोला वो और हंस पड़ा! उसके साथ खड़ा औघड़ भी, ज़ोर ज़ोर से हंसने लगा!
"थू! लानत है तुझ पर! थू!" बोला वो,
मैं हैरत में! इसे क्या हो गया?
"** तू? ? अब देखना! अब देखना तू!" बोला वो,
और लौट पड़ा! जा बैठ अलख पर!
"आ? तू आ? देखता हूँ तुझे? आ?" बोला वो, इस बार गुस्से में!
"तेरा प्रहरी! है न? तेरा प्रहरी! सब लौट जाएंगे! सब के सब!" बोला वो, और अलख में झोंक दिया ईंधन! कट गयी देख थी! श्रवण कट गया तत्क्षण!
"क्या हुआ?" पूछा जीवेश ने,
"बड़ी अजीब सी बात हुई!" कहा मैंने,
और उसे मैंने, जो देखा, सुना, वो बता दिया!
"इसका क्या अर्थ हुआ?" पूछा उसने,
"गम्भीर!" कहा मैंने,
"कैसे?" पूछा उसने,
"उसने कहा, कि जो हुआ? क्या तूने किया?" कहा मैंने,
"हाँ, इसका क्या मतलब हुआ?" बोला वो,
"नहीं समझ पा रहा हूँ मैं!" कहा मैंने,
"कहीं.....?" बोला वो,
"क्या?'' पूछा मैंने,
"वो देख?" बोला वो,
"हाँ? वो किसने पकड़ी थी?" पूछा मैंने,
"कुछ समझ आया अब?'' बोला वो,
मैंने दिमाग पर ज़ोर लगाया! उस पहले को सुलझाना बेहद ही ज़रूरी था! उसका ये व्यवहार? उसका वो कहना? क्या अर्थ था उसका?
ओह तभी मुझे आया समझ! अचानक से ही!
"जीवेश!" कहा मैंने,
"हाँ?" बोला वो,
"अब मैं समझा!" कहा मैंने,
"क्या?" पूछा उसने,
"ये जो वार हुए, जो खाली गए, ये सब, तय था!" कहा मैंने,
"तय था?" बोला वो,
"हाँ, सोचो ध्यान से!" बोला मैं,
"नहीं समझ आ रहा?" बोला वो,
"बताता हूँ!" कहा मैंने,
"हाँ?" बोला वो,
"सबसे पहले उसने त्रिखण्डा वार किया, जो काटा गया!" कहा मैंने,
"हाँ?" बोला वो,
"दूसरा, बाबा जोत, ये सोचा नहीं होगा लेकिन ऐसा हो गया! अब क्यों हुआ, ये तो बाद का विषय है, अभी नहीं सोचूंगा इस बारे में!" कहा मैंने,
"हूँ? फिर?" बोला वो,
"फिर, कपाल-भुंडा!" कहा मैंने,
"हाँ, तब?" बोला वो,
"क्या वो जानता नहीं था कि इनकी काट हो जायेगी?" बोला मैं,
"अरे हाँ?" बोला वो,
"तीन वार के बाद वो बोला ऐसा!" कहा मैंने,
"हाँ, अभी!" बोला वो,
"क्या अर्थ हुआ?" पूछा मैंने,
"क्या?" पूछा उसने,
"देख का पकड़े जाना, उसका इस तरह से हंसना, तीन वार खाली जाना, इसका अर्थ ये हुआ कि..!!" कहा मैंने,
"क्या कि?" बोला वो,
"कि, बाबा बोड़ा का आगमन हो चुका है!" कहा मैंने,
ये सुन, झटका सा खाया उसने! बोलती ही बबला सी गयी उसकी तो!
"क....कैसे?" बोला वो,
"देख पकड़ी, बाबा बोड़ा ने!" कहा मैंने,
"सम्भव है!" बोला वो,
"तीन वार खाली जाएँ या कट जाएँ तो मोर्चा सम्हाल लेंगे बाबा बोड़ा! यही होगा नियम!" कहा मैंने,
"तब क्या बाबा बोड़ा नहीं जानते होंगे?" बोला वो,
"तभी तो महासंहारक वार हुए?'' कहा मैंने,
"ओ! ये आता है समझ कुछ कुछ!" बोला वो,
"हो जाओ तैयार! अगला या अंतिम, निर्णायक चरण आ पहुंचा है जीवेश!" कहा मैंने,
और त्रिशूल के फाल पर हाथ फेरा अपने!


   
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श्रीशः उपदंडक
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अचानक से ही, सबकुछ बदल जाने वाला था! मैं इस से पहले भी कई महाप्रबल औघड़ों के संग द्वन्द में उतरा था, लड़ा भी था, कई का आशीर्वाद भी लिया था! लेकिन, चूँकि, ये बाबा बोड़ा, न तो मैं जानता ही था, न ही सुना ही था! जो जान सका वो इतना कि वे एकांतवासी हैं, दूर रहते हैं, प्रखर होने के साथ साथ महाप्रबल भी हैं! मैं भय नहीं खा रहा था, ऐसा तो नहीं था, हाँ, मेरे मन में एक अभिलाषा अवश्य ही थी कि मेरा सामना उनसे हो! और वे दीखते कैसे हैं? कैसा रंग-रूप है उनका! क्या तेज है और उनका क्रियान्वन कैसा है? जानता हूँ, बहुत से महाप्रबल औघड़ आज भी ऐसे हैं, जो बाबा बोड़ा के समकक्ष ही हैं! परन्तु मेरा सामना या तो बालू नाथ से हुआ था, या फिर बाबा जागड़ से! ये दोनों ही महाप्रबल हैं मेरे लिए तो!
"देख जोड़ो!" बोला जीवेश!
"हाँ!" कहा मैंने,
"क्या हो रहा है?" पूछा उसने,
"तपन नाथ अकेला है!" कहा मैंने,
"और कोई नहीं?" पूछा उसने,
"नहीं!" कहा मैंने,
"क्या कर रहा है?" पूछा उसने,
"बार बार पीछे देखता है!" कहा मैंने,
"कोई आ रहा है?'' पूछा उसने,
"नहीं, दीख रहा कोई भी!" कहा मैंने,
"क्या कुछ विशेष?" बोला वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"तो कर क्या रहा है वो?" पूछा उसने,
"पता नहीं!" कहा मैंने,
"उसे आजमाओ!" बोला वो,
क्या बात कही थी उसने! इसे कहते हैं कि कोई सच्चा साथी संग हो, तो युक्तियाँ निकल ही आती हैं! और निकल ही आयी!
"हाँ!" कहा मैंने,
"समझ गए न?" बोला वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"भेजो, आजमाओ!" बोला वो,
"ठीक है! ठीक है!" कहा मैंने,
"और कुछ?" बोला वो,
"नहीं, वही है!" बोला मैं,
"वो अवश्य ही प्रतीक्षा में है!" बोला वो,
"हाँ! और शायद...इसीलिए निश्चिन्त सा भी बैठा है!" बोला वो,
"तब भेजो! भेजो!" बोला वो,
"किसको?" पूछा मैंने,
"जो, दाबे न दबे! रोके न रुके!" बोला वो,
"जाओ फिर!" कहा मैंने,
''आदेश!" बोला वो,
"जाओ, पेठा ले आओ! देखो! दिखाता हूँ मैं!" कहा मैंने, 
"आदेश! आदेश!" बोला वो,
और दौड़ गया, दौड़ते हुए गया और दौड़ते हुए ही आ गया, थाल में, पूरा पेठा ले आया था, इसका वजन तीन किलो से लेकर, पांच किलो तक होता है, जो आया था, वो किसी जवान पुरुष का था, साढ़े चार किलो करीब वजन रहा होगा उसका! बहुत सी ऐसी शक्तियां हैं, जिनको, मात्र मानव-मांस ही का भोग लगता है और वैसी ही एक महाशक्ति है धूम्रश्वा! ये मूल रूप से, माँ दुर्गा की उप-सहोदरी हैं! माँ दुर्गा की संहारक शक्तियों की कुल चौंसठ वाहिनियां हैं! एक एक वाहिनि की इक्यासी-इक्यासी उप-वाहिनियां हैं! धूम्रश्वा नौवीं सहोदरी, संहारिका की ग्यारहवीं उप-वाहिनि हैं! इन्हें, मन्त्रो में, आन-बन्ध में, महावीर श्री मोहम्मदा वीर ने जकड़ा था! श्री मोहम्मदा वीर ने, तन्त्र-जगत को इतनी शक्तियां दी हैं कि इनकी कोई गिनती नहीं! इसीलिए, उनकी तन्त्र-गत किसी भी शक्ति का आह्वान करने से पहले श्री मोहम्मदा वीर को ही मान लगाया जाता है!
"जीवेश?" कहा मैंने,
"आदेश?" बोला वो,
"पेठा, नौ भाग!" कहा मैंने,
"जो आदेश!" बोला वो,
उसने चाक़ू उठाया, ये चाक़ू कम और चापड़ अधिक था! एक ही वार में काम तमाम! चाहे हड्डी हो या कोई पेशी!
"फूंक दो!" बोला वो,
मैंने एक मन्त्र पढ़, फूंक दिया वो चाक़ू! उसने तभी उसे, अपनी गर्दन पर लगाया और मन्त्र मन ही मन पढ़!
"आदेश!" बोला वो,
"आदेश!" कहा मैंने,
उसने उठाया पेठा, और उसे काटना शुरू कर दिया! एक एक टुकड़ा करता जाता और रखता जाता उधर, पत्तल पर! इस तरह कुल नौ भाग कर दिए उसके उसने!
"आदेश!" बोला वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
वो चापड़ ले कर गया, और हाथ और चापड़ धो, आ गया वापिस!
"ताज़ा है!" बोला वो,
"देखा मैंने!" कहा मैंने,
"आदेश?" बोला वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
और उसने मदिरा उठायी, मदिरा के दो गिलास भरे, और दे दिया मुझे मेरा गिलास! मैंने गिलास लिया और एक मन्त्र पढ़, खींच गया गिलास अपना!
"जीवेश!" कहा मैंने,
''आदेश!" बोला वो,
"ये पेठा, उधर रख दो!" कहा मैंने,
"हाँ, अवश्य!" बोला वो, और रख दिया अलग, एक जगह!
"देख लड़ाओ!" बोला वो,
"अभी! अभी!" कहा मैंने,


   
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श्रीशः उपदंडक
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देख लड़ाई मैंने! न लड़ी! क्या मतलब? कोई न था वहां? मैंने फिर से प्रयास किया, फिर से देख लड़ाई, न पकड़ी गयी! वहां अवश्य ही कुछ न कुछ तो हो ही रहा था! अब क्या, ये नहीं पता चल रहा था, मौखिक रूप से तो मैं पता लगा लेता लेकिन, देख नहीं पकड़ी जा रही थी! मैंने फिर से प्रयास किया, और इस बार देख पकड़ी गयी! इस बार वे दो दिखे! तपन नाथ के साथ, एक औरत थी! ये औरत करीब चालीस बरस की रही होगी, ये हेतकी स्वरुप की थी, हेतकी स्वरूप का अर्थ हुआ, सरभंग-स्त्री! मैंने सुना था कि सरभंग-स्त्री बेहद ही कुशल और प्रबल होती हैं! वहाँ कुछ हो रहा था, मैंने देख आगे की, और देखा, उस औरत की बगल में कोई गठरी सी थी, इस गठरी में अवश्य ही कुछ था, जिस से क्रिया का संचालन होता! लेकिन श्रवण नहीं चल रहा था! वो औरत खड़ी हुई और वो गठरी, उस तपन को दे दी! तपन ने गठरी उठा ली, और रख दी अलख के पास, हाथों से कुछ इशारा किया उस औरत को, और वो औरत, वहां से चल दी! इसका मतलब, वो स्त्री कुछ करने नहीं आयी थी, अपितु मात्र गठरी ही देने आयी थी! अचानक से मेरी देख कटी! मेरे नेत्र दर्द से भर उठे! आँखों के सामने पल भर को अँधेरा सा छा गया! मैं जैसे गिर ही पड़ता कि बैठ गया और अपने हाथों से मैंने सहारा लिया!
"क्या हुआ?" जीवेश के स्वर गूंजे!
मुझे बेहोशी सी आये!
"बताओ? ठीक हो?" पूछा उसने,
और फिर...........मैं सर आगे करके गिर गया........अब जीवेश क्या कह रहा था, क्या नहीं, कुछ नहीं पता था! कितनी देर हुई, कितना समय बीता, पता ही नहीं चला! और जब नेत्र खुले तो सामने एक अलख सी दिखाई दी! ये अलख मेरी है? नहीं, ये तो गोल-पात्र में है, फिर? ये किसकी अलख है? क्या तपन नाथ की? अभी मैं सोच ही रहा था कि देख पकड़ी मैंने! और जो देखा! जो देखा उस से तो मेरे होश ही ठिकाने आ गए! एक बड़ी सी ब्रह्म-अलख! और अलख के समीप बैठे, श्री धर्मनाथ बाबा और श्री श्री श्री जी!
"उठ? खड़ा हो!" आयी एक आवाज़ और देख कट गयी! इधर जीवेश, उसके होश उड़े थे! वो बार बार मुझे पकड़ रहा था, झिंझोड़ रहा था, उठा रहा था!
"क्या हुआ? कोई अभिचार? कोई अभिकर्म?" बोला जीवेश!
"जीवेश! जीवेश!" कहा मैंने,
"हाँ! हाँ!" कहा मैंने,
"किसने? उस ************ ने? बोलो? उसी ने?????" बोला वो कांपते हुए गुस्से में!
"नहीं नहीं!" कहा मैंने,
"बताओ मुझे अभी?" बोला वो,
"तैयार हो गए हैं वो!" कहा मैंने,
"कौन?" पूछा उसने,
"वो!" बोला मैं,
धीरे धीरे मेरे होश क़ाबिज़ होने लगे थे! मेरे नेत्र अब सामान्य से होते जा रहे थे, मैंने पानी पिया रखा हुआ उधर!
"बताओ?" बोला वो,
"श्री जी और बाबा धर्म!" कहा मैंने,
"क्या?" बोला वो,
आश्चर्य ने आशंकाओं की धज्जियां उड़ा दीं हृदय में जीवेश के! वो तो भस्म उछाल, श्री महाऔघड़ के नाद लगाने लगा!
"जीवेश?" बोला मैं,
"आदेश!" बोला वो,
"अब ये द्वन्द भीषण होगा!" कहा मैंने,
"जानता हूँ!" कहा उसने,
"कुछ भी सम्भव है!" कहा मैंने,
"पता है!" बोला वो,
"कुछ संशय हो.....?" कहा मैंने,
"क्या??? संशय??" बोला वो गुस्से से, और वो चापड़ उठा लिया! आ गया मेरे पास! गुस्से से देखा मुझे! घूर कर!
"लो?" बोला वो,
"क्या करूँ?" कहा मैंने,
"काट दो सर मेरा!" बोला वो,
"क्या कह रहे हो?" कहा मैंने,
"बोलो तो मैं काट लूँ?" बोला वो,
"नहीं जीवेश!" कहा मैंने,
"अब नहीं जाऊँगा!" बोला वो,
"मैंने जो नियम हैं, वही बताये!" कहा मैंने,
"अब तो जान से ही जाऊं तो जाऊं!" बोला वो,
"अग्घड़!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोला वो,
"हो जाओ तैयार!" कहा मैंने,
"अग्घड़?" बोला वो,
"मैं तैयार हूँ!" बोला वो,
हम दोनों खड़े हुए! अब ये द्वन्द, पराकाष्ठा का था! पराकाष्ठा दो समर्थ औघड़ों की! और हम, अब मात्र क्रीड़ा-वस्तु ही शेष रहे!
"देख लड़ाओ?" बोला वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
देख लड़ाई, और झट से पकड़ ली गयी!
"कौन है?" बोला वो,
"वही दोनों!" कहा मैंने,
"दूसरा कौन?" बोला वो,
"कोई आया है!" कहा मैंने,
"बाबा बोड़ा?" बोला वो,
"नहीं लगता वो!" कहा मैंने,
"क्या कर रहे हैं?" पूछा उसने,
"अलख में ईंधन झोंक रहे हैं!" बोला मैं,
"सुन सकते हो?" बोला वो,
"ह..हाँ! हाँ!" कहा मैंने,
श्रवण, अभी अभी ही आरम्भ हो गया था! अब जो होना था, खुल कर होना था, मेरे दांत भिंच गए! तपन नाथ!
और फिर...........!!


   
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श्रीशः उपदंडक
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मैंने ज़ोर ज़ोर से धूम्रश्वा के मन्त्र अब पढ़ने आरम्भ किये! मैं उसे आजमाना चाहता था, चाहता था कि उसका सामना इस से हो! अचानक ही वहां स्वर गूंजे और वे दोनों ये सुन, जैसे कांप कर रह गए! इस से एक बात स्पष्ट हुई, उस तपन नाथ के पास, इस संहारिका का कोई जवाब नहीं था! कोई काट नहीं थी! पल भर को वो विचलित हुआ और पल भर में ही निश्चिन्त! अब तो ये स्पष्ट हो ही गया कि वो, किसके सरंक्षण में है! सम्भवतः जब मेरी देख कटी थी, तब वो गया हो बाबा बोड़ा के पास, या फिर कुछ ऐसा ही हुआ हो! या बाबा बोड़ा ने ही मेरी देख काटी हो!
मैं रुक गया, मंत्रोच्चार रोक दिए! मैंने अपना विचार त्याग दिया, और धूम्रश्वा से क्षमा-याचना कर ली! मैंने इस द्वन्द को अब एक आयी ही दिशा देने की सोची! ये तो अब तय था कि मैं कुछ भी करता तो उसकी काट वहां से हो जानी थी!
"क्या हुआ?" पूछा जीवेश ने,
"कुछ और करता हूँ!" कहा मैंने,
"धूम्रश्वा को नहीं जगाया?" पूछा उसने,
"समझ जाओ कि क्यों!" कहा मैंने,
"उसे आजमाते तो सही?" बोला वो,
"आजमाऊंगा!" कहा मैंने,
"कैसे?" पूछा उसने,
"देखते जाओ जीवेश!" कहा मैंने,
तब मैंने मन ही मन श्री जी को नमस्कार किया! मन में उनके प्रति अपने भाव को, क़ैद कर लिया और तब मैंने इस तपन नाथ को आजमाने के लिए, एक और संहारिका का आह्वान करना उचित समझा!
तभी मेरे कानों में उस तपन नाथ के ठहाके गूंजे! मैंने ध्यान केंद्रित किया! अब हैरत की बात थी, देख और श्रवण, लगातार चलते जा रहे थे! वे न कट रहे थे अब! न मैंने लड़ाई ही थी देख! देख स्वतः ही आरम्भ हुई, वो भी श्रवण के साथ! मान गया मैं बाबा बोड़ा का सामर्थ्य! उनके सामर्थ्य का लोहा!
"लौटा लिया?" बोला हंसते हुए तपन नाथ!
"नहीं तपन!" कहा मैंने,
"क्षमा मांग ली? है न?" बोला वो,
उपहास उड़ाते हुए!
मैंने कोई उत्तर नहीं दिया, हालांकि उसके ठहाके कील से बन मेरी छाती को छेदे जा रहे थे, मेरे सामने होता तो चापड़ उसके सर में बिठा देता!
"जान गया न?" बोला वो,
और वे दोनों ही हंस पड़े!
"जान गया तो अभी भी वक़्त है!" बोला वो,
वो घटिया आदमी मुझे माफ़ी मांगने को कह रहा था! इस से अधिक क्रोध भड़काने वाली और क्या बात हो सकती थी भला? मैंने अपना क्रोध, पी लिया, कई बार कड़वे घूँट पीने ही पड़ते हैं! इसे कमज़ोरी नहीं समझना चाहिए, इसे मज़बूती का जल समझना चाहिए!
"ले आ! ले आ जो भी बैठा है! तेरे संग! जा! ले आ!" बोला चीखते हुए तपन नाथ!
"ज़ुबान को लग़ाम दे तपन!" बोला मैं,
"लग़ाम? वो तो तुझे लगने वाली है! मैं तपन नाथ हूँ! आज तक कभी द्वन्द में पराजित नहीं हुआ! मेरा लोहा ऐसा ही नहीं माना जाता! तेरे जैसे आये और चले गए! तुझे सबक़ देना आवश्यक था, और इसीलिए तुझे मैंने चुनौती दी! तू जानता ही क्या है मेरे बारे में? और हां! अब कैसे जान पायेगा? अब तो समय ही गंवा दिया तूने?" बोला दहाड़ते हुए!
अब नहीं सहन हो सका मुझ से! मैं खड़ा हो गया! आकाश को देखा और अलख को देखा! लग, पिंजरे में क़ैद हूँ! तड़प रहा हूँ बाहर आने को!
"तपन?' मैं ज़ोर से चीखा!
"लानत है तुझ पर!" कहा मैंने,
"अच्छा?" बोला वो, हंसते हुए!
"लानत है तेरे इस कृत्य पर!" कहा मैंने,
"और?" बोला वो,
"किसी का तो पता नहीं, हां! तू नहीं लौटेगा अब जीवित यहां से!" कहा मैंने!
"ओहो? पत्थर को जीभ लगी?" बोला वो,
"*** * ****! सिखाता हूँ तुझे अभी ज्ञान! ज्ञान सिखाने ही आया था न तू? छोड़ दिया था उस रात तुझे! अच्छा होता, तेरी आंखें ही निकाल लेता मैं!" बोला मैं, गरज कर! मेरे गुस्से की थाह नहीं थी अब!
"जो बस में हो, कर!" बोला वो,
"हां! करूँगा!" बोला मैं,
और गुस्से में कांपते हुए, मैं बैठ गया अलख पर! मेरे हाथ कांप गए गुस्से से! मैंने लिया मुट्ठी भर ईंधन और झोंक दिया!
"ठः शैवाकि ठः!" कहा मैंने,
जैसे ही मेरे मुख से ये शब्द निकले, जीवेश चौंक गया! वो जान गया था कि अब या तो मरो या फिर मारो! अब नहीं छोड़ना था इस तपन नाथ को!
"ठः शैवाकि ठः!" बोला वो,
और माथे से रगड़ी भस्म! त्रिशूल उठाया और गरज उठा!
"आगे बढो! मस्तक उतार दो इसका, उतार दो इसकी ही अलख में!" बोला वो भी गुस्से से!
मेरे नेत्र बन्द हो गए थे, मैं गहन ध्यान की मुद्रा में गोते लगा गया था, मुझे शैवाकि का प्रत्यक्ष-संहारण चाहिए था, मैं उस तपन नाथ के कटे सर के नेत्र और धड़ को रक्त के फव्वारे छोड़ते देखना चाहता था!


   
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श्रीशः उपदंडक
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जैसे ही मैंने मां शैवाकि का नाम लिया, वहां तो वे दोनों ही मुस्तैद हो गए! देख अब परस्पर जुडी थी! श्रवण चल ही रहा था! घोर द्वन्द के पहले के आह्वान थे ये! मेरा उद्देश्य इस समय यही था कि किसी भी तरह से, बस इस तपन नाथ का सर धड़ से अलग हो जाए! इसके इसके किये का दंड मिले! नेत्र बन्द किये मैं मंत्रोच्चार किये जा रहा था, अलख का पेट, जीवेश भरे जा रहा था, अलख उठी हुई थी ऊँची! उसकी रौशनी में, लपलपाती कई सारी जीभें आहार आ निकलती थीं! ईंधन झोंका जा रहा था! मां शैवाकि, शक्ति-वाहिनि हैं! इनके प्रयोग मैं पहले ही बता चुका हूँ! ये स्वभाव से तीक्ष्ण, देह-रूप से, कामिका, आयु में सम्पूर्ण स्त्री, सुहागनि होती हैं! स्वच्छ नदी किनारों, सरोवरों के बीच में बने टापुओं में इनका वास माना जाता है! ये घोर-तामसिक देवी हैं! इनकी साधना इक्कीस दिनों की होती है, ग्यारह बलि-कर्म द्वारा प्रसन्न होती हैं! प्रसन्न हो, साधक की मूर्छित अवस्था में उसे, आशीष प्रदान करती हैं! इन्हें चौबला देवी भी कहा जाता है! ये देवी मूल रूप से, मछुआरों आदि की प्रधान देवी है! ये उनका रक्षण करती हैं! ऐसा माना जाता है! ये सर्वकाल बलि देवी हैं! यहां इनकी जिस संहारक-शक्ति का आह्वान किया जा रहा था उसको, अंजिका का नाम दिया गया है! ये वर्ण में काली, कृशकाय देह वाली, समय-सन्धि मण्डल में वास करने वाली और कुरूप होती है! आधा सर बड़ा और आधा सर छोटा होता है, माथा ऐसे लगता है जैसे है ही नहीं! पिशाच-श्रेणी में भी इसका गणन किया जाता है, कुछ लोग इसे पिशाची भी कहते हैं और कुछ इसे, प्रबल तामस-वाहिनि भी! सर्प अजगर इनका वाहन माना जाता है! इन्हें भक्षिका भी कहा जाता है! इनकी साधना, माँ शैवाकि को बलि-कर्म के पश्चात, उनकी आज्ञा ले, मनन कर, की जाती है! इनकी साधना मात्र ढाई रात्रि की है! ढाई रात की अथक एवम तीक्ष्ण साधना पश्चात ये प्रसन्न हो जाती हैं! ये मूल रूप से संहारक शक्ति की वाहिनि हैं, अतः साधक को, मारण-कर्म में प्रवीण होने का वर देती हैं! यहां मैं, इनसे यही कामना करता था! मैंने कोई मारण-कर्म नहीं किया था, न ही कोई क्रिया ही कि तपन नाथ को मारण-कर्म से मार दिया जाए! नहीं ये, मारण-कर्म, निःकृष्ट कर्मों में से पहला है! तन्त्र, बराबर का द्वन्द मानता है, अतः उसके नियमों का पालन करना परम् आवश्यक होता है!
"जीवेश?" कहा मैंने,
"आदेश?" बोला वो,
"मैं आगे बढ़ रहा हूँ!" कहा मैंने,
"अवश्य! आदेश!" बोला वो,
"विप्रचांडालिनि का शंष लगाओ!" कहा मैंने,
इस चांडालिनि का विशेष आभार प्रकट किया जाता है! माँ शैवाकि का मार्ग, सम्भवतः इसी चांडालिनि ने ही किसी महासिद्ध को बताया होगा! उस महासिद्ध औघड़ से होता हुआ, ये सर्वोपयोगी हुआ! इसीलिए इसका मान रखना आवश्यक है!
"आदेश?" बोला वो,
"आदेश!" कहा मैंने,
"ओम नमश्चामुंडे प्रचंडे इन्द्राय * विप्रचाण्डालिनि शोभिनि प्रकर्शिनी **** द्रव्यमानय प्रबल मानय हूँग फट्ट!!" बोला वो,
और इस तरह से, उसने कुल इक्कीस बार, शंष प्रदान किया इस चांडालिनि को! एक प्रश्न आया अभी मस्तिष्क में, चांडालिनि से क्या अर्थ हुआ? क्या होती है चांडालिनि? क्या समझते हैं आप, पाठकगण, इस चांडालिनि शब्द से? स्मरण रहे, इसका चांडाल से कोई लेना या देना नहीं है! मैं इसका उत्तर दे नहीं सकता! आप बताएं तो मदद अवश्य ही कर सकता हूँ!
"ठः विप्रे?'' कहा मैंने,
"ठः कृषे!" बोला वो,
"ठः रिपुन?" बोला मैं,
"ठः सहुँ!" बोला वो,
"ठः वज्रांगी!" कहा मैंने,
"ठः रक्षण रक्षण रक्ष विप्रे!" बोला वो,
और मैं हो गया खड़ा! चला आगे तक, पत्तल उठा लिया जीवेश ने, मैंने एक टुकड़ा उठाया और सामने, कुछ पढ़ते हुए फेंक! वो नहीं गिरा! कर लिया गया उसका भक्षण! इस प्रकार, पांच टुकड़ों का भक्षण हुआ!
"हं शैवाकि!" बोला मैं,
"भं शैवाकि!" बोला वो,
"शत्रु भं शैवाकि!" बोला वो,
"रक्तम भं शैवाकि!" बोला जीवेश!
"जय जय शैवाकि!" कहा मैंने,
"जय जय शैवाकि!" बोला वो,
और हम दोनों ही, धम्म से बैठ गए अलख पर! अचानक से फिर स्वर गूंजे उस तपन के! वो गाली-गलौज कर रहा था!
"आ **?'' बोला वो,

अब आयी मुझे हंसी!
"देखूं तुझे? हैं? हैं?" बोला चीख कर!
"अंत को देख तपन!" कहा मैंने,
"किसका अंत? तेरा?? हां? सो तो होगा!" बोला वो,
"जान जा तपन!" कहा मैंने,
"हा! हा! हा! अपना हाल देख ** * ******!!!" बोला वो दम्भी!
"तपन! अंत आने को है!" कहा मैंने,
"मेरा??? हैं? या तेरा?? हा! हा! हा! जान गया है तू! हा! हा! हा!" मारे ठहाके उसने!


   
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श्रीशः उपदंडक
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दम्भ के मान में फूला, किसी के सरंक्षण की सुरक्षा में बंधा, गाल फाड़े जा रहा था! भर भर के हंसता था! हंसते हंसते, सांस भी घुटने लगती थी उसकी! उसे तो जैसे अपनी विजय का पूर्ण विश्वास था! मूर्ख कहीं का! जानता ही नहीं था कि उसके संग होगा क्या! मैंने, ध्यान हटा दिया उस से, वो उस समय तक, वो अलख में ईंधन ही झोंकता जा रहा था!
"जीवेश?" कहा मैंने,
"आदेश!" बोला वो,
"ये कपाल, यहां रखो!" कहा मैंने,
"आदेश!" बोला वो,
और कुल, चार कपाल रख दिए उसने वहां, उस अलख के पास!
"और ये?'' पूछा उसने,
"ये कपाल, यहीं रहने दो!" कहा मैंने,
वो शिशु-कपाल, उसे वहीँ, त्रिशूल के पास ही रहने दिया था मैंने! शिशु-कपाल के कई लाभ होते हैं क्रिया में, साधना में और इस प्रकार के द्वन्द के लिए!
"ये थाल सजाओ!" कहा मैंने,
"अवश्य!" बोला वो,
"ये मंदिर, उस कटोरे में परोस दो!" कहा मैंने,
"अवश्य!" बोला वो,
"इस कटोरे को, थाल में रख दो!" कहा मैंने,
"आदेश!" बोला वो,
और सारा सामान तैयार हो गया!
"जीवेश?" कहा मैंने,
"आदेश?" बोला वो,
"वो ख़ंजर दो?" कहा मैंने,
"आदेश!" बोला वो,
और ख़ंजर दिया मुझे, मैंने थोड़ा सा गरम किया उसे, मन्त्र पढ़ा, मदिरा में डुबोया और फिर से मन्त्र पढ़ा, फिर से मदिरा में डुबोया और अलख पर, तीन बार छींटे दिए उस से! मदिरा की चटर-चटर आवाज़ हुई! और तब मैंने अपनी अनामिका उंलगी में, एक, मन्त्र पढ़, छोटा सा चीरा लगा दिया! खून छलछला गया और तब, तीन बार तीन छींटे, अलख में झोंक दिए! रक्त, बारूद सा बन, जलने लगता है अलख में!
और करने लगा अब गहन मंत्रोच्चार! डूब गया मैं, मुझे सूर्य उदय होते दिखाई दिए, मध्यान्ह और फिर सूर्यास्त भी! फिर सन्ध्या का समय और फिर रात्रि! मुझे एक खुला सा क्षेत्र दिखाई दिया! उस खुले से क्षेत्र में, मुझे एक लौ सी उठती दिखाई दी! मैं बढ़ा उस तरफ! ध्यान से आगे बढ़ा, गड्ढे बने हुए थे, बच बच कर आगे बढ़ा! जब वहां गया, तो एक चूल्हा जल रहा था, चूल्हे के पास, एक स्त्री बैठी थी, वृद्धा स्त्री! वो, हाथों से रोटी बना रही थी, रोटी में बाल, रक्त, धूल, भस्म आदि सब का सब मिला हुआ था!
"हां?" बोली वो,
बिन मुझे देखे!
"मां!" बोला मैं,
अब देखा उसने मुझे,
"हां?'' बोली एक लम्बी सी सांस लेते हुए!
"मां? तेरे रहते प्राण-भय?" कहा मैंने,
"हां? प्राण-भय?" बोली वो,
"हां मां!" कहा मैंने,
"क्या चाहता है?" बोली वो,
"भक्षण!" कहा मैंने,
"किसका? उसका?" इशारा किया उसने दूसरी तरफ! दूसरी तरफ, तपन नाथ बैठा था! अलख में ईंधन झोंकता हुआ!
"हां मां!" कहा मैंने,
और इतना कहते ही, मेरी कमर में जैसे कुछ बहुत तेज टकराया! मैं आगे जा गिरा! नेत्र खुल गए! मैं कांप सा गया! मेरी अलख में, मैंने उसी स्त्री का रूप सा देखा! आशय स्पष्ट था! अंजिका का आगमन होने को था!
अब और गहन मंत्रोच्चार किया! मन्त्र ध्वनि, तेज और तेज होती चली गयी! अचानक से 'घम्म-घम्म' की आवाज़ें आने लगीं! लगने लगा कि भूमि ने यकायक, सांस लेनी शुरू कर दी है!
जीवेश, नेत्र बन्द किये मंत्रोच्चार किये जा रहा था, मैं भी, कुछ भी हिलता तो मैं देखता उधर! मुझे उधर, बड़े बड़े से बिलाव से घूमते दिखाई दिए, परछाइयों में! कुछ लम्बे लम्बे से लोग!
"जीवेश?" कहा मैंने,
"आदेश?" बोला वो,
"अंजिका शंष पढ़ो मेरे साथ!" कहा मैंने,
"अवश्य!" बोला वो,
और हम दोनों ने, अब खड़ है कर, त्रिशूल लहराते हुए, अंजिका-शंष पढ़ना आरम्भ कर दिया! भूमि में जैसे कम्पन्न हुई! जैसे दूर दीयों की कतार हवा के संग बहती जाए! जैसे वहां के वृक्षों पर लोग चढ़ बैठे हों! कोलाहल! शोर! भयानक से अट्टहास! चीखें! और विलाप सा हो!
"यं यं...........फट्ट!" स्वर गूँज उठे हमारे! हमारे हाथों में, जैसे कम्पन सी दौड़ गयी! पांवों में जैसे खुजली सी होने लगी! जैसे अभी उड़ने लगेंगे हम, ऐसा महसूस होने लगा बदन को! और.........................


   
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श्रीशः उपदंडक
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ढप्प! ढप्प! गयी मेरी निगाह सामने, ढप्प! बाएं! दाएं! ढप्प! मांस के लोथड़े, अस्थियां, अस्थि-खण्ड, कपाल के फूटे हुए टुकड़े, शिशुओं के विदीर्ण शरीर, लाल-रक्तिम सा धुंआ! सब फैलने लगा था! असहनीय दुर्गन्ध फैलने लगी थी! दुर्गन्ध सूंघ मुंह में लार आये या थूक आये तो कैसा वो औघड़! थूके कोई उस समय तो जाना से जाए! अपमान हो जाए उस शक्ति का! ये लोथड़े, मांस, अस्थियां, मृत-देह आदि, आह्वान करने वाले को, प्रत्यक्ष दिखाई देती हैं! अंजिका के सेवकगण, इसी प्रकार से अपनी आमद दर्ज करवाते हैं! वो स्थान को कीलते हैं, कीलन लग जाता है, कोई प्रवेश ही नहीं कर सकता उस क्षेत्र में! मेरे होंठों पर एक क्रूर मुस्कुराहट आयी! मुझे ऐसा लगा कि मेरे समख, टुकड़े हुए, हुए वो तपन नाथ पड़ा है! जिसके हाथ, पाँव और आंतें, दिल अभी तक गरम रक्त के प्रवाह के कारण, हिल रहे हैं! कांप रहे हैं! उसकी एड़ियों से, मिट्टी उड़ने लगी है! उंगलियां हाथों की, पकड़ सी बना, ज़मीन में घुसने लगी हैं! आंतें, सांप के जैसे सर्पिल रूप में, ऊपर नीचे, दाएं बाएं हरक़त करने लगी हैं! आधा मस्तक, जिस से, भेजा, बहकर, बाहर निकलने लगा है! उसमे छोटे-छोटे बुलबुले से फुट रहे हैं, पिघली हुई मज़्ज़ा के! दिल, टटोल रहा है, मांस की दीवार को, जिस से वो जा लगे, जा सटे! जब नहीं मिल रही, तो धड़क धड़क कर, रक्त के छोटे-बड़े फव्वारे छोड़ने लगा है! आह! कितना आनन्ददायक दृश्य था वो! और इसी आनन्द में, मैं अट्टहास लगाने लगा! झूमने लगा! नाचने लगा! अलख पर खड़े खड़े ही, फूंक मारने लगा! चिमटा उठा, भस्म उछालने लगा! ये था औघड़ का आनन्द! मैं आगे आया! और थाल उठाया! सर पर रखा और भाग चला आगे! नीचे बैठा और हंसने लगा! अंगार से फूटने लगे थे उन लोथड़ों में, जैसे अग्नि भस्म किये जा रही हो उन्हें!
"माँ अंजिका!" बोला मैं,
"ले! ले! भोग स्वीकार कर! ले! भोग स्वीकार कर!" बोला मैं,
और दोनों हाथों में मांस के टुकड़े उठा लिए!
"ले माँ! ले!" बोला मैं,
तेज सी वायु बहने लगी! मेरे नेत्र बन्द होने को हुए! मैं पीछे गिरने को हुआ और किसी तरह से सन्तुलन बनाये रखा!
"माँ! तेरे साधक के शत्रु का नाश हो! नाश हो! नाश हो!" बोला मैं,
और मेरे बोलते ही, मुझे किसी ने जैसे पीछे उठा कर फेंका! मैं झट से उठा, अलख पर दौड़ा, जीवेश, मेरे साथ साथ ही रहे! वो जानता था, आभास था उसे कि क्या हो रहा है! मैंने झट से अलख पर बैठा और अलख में ईंधन झोंका! लड़ा दी देख! देख जा लगी! और जो देखा.................मेरी सांस ही रुकने को हो गयी!
एक अतिप्रबल औघड़ खड़ा था! करीब छह फ़ीट लम्बा! चौड़ा सीना, सफेद सीने के बाल! सप्तमुद्रा की मालाएं धारण किये! सर पर, जटाओं में, मालाएं कसे! चौड़ा चेहरा! लम्बी दाढ़ी, दाढ़ी में जटाएं! सफेद चमचमाते नेत्र और दाढ़ी में, पीले, लाल और काले रंग की सी खड़िया सम्भवतः! कसी हुई देह! कहीं से नहीं प्रतीत होता था कि वो कोई सरभंग है! कमर में काले रंग का छीछा वस्त्र धारण किये, घुटनों के ऊपर तक, घुटनों तक, पांवों से, अस्थि के मनकों से बनी हुई मालाएं बंधीं थीं! बाहों में मालाएं, हाथ से कोहनी तक, कोहनी से ऊपर तक बाजू-बन्ध बंधे हुए! बगल में एक कपाल! और उसके सम्मुख, रखी एक बारह या चौदह कपालों की ढेरी सी! वो एक पाँव आगे कर, खड़ा था! चेहरा पाषाण सा सख्त! वो, ऊपर देख रहा था और जब अंजिका के सेवकगण वहां पहुंचे, अस्थि-दंड आगे किया उसने और वे सभी, भयंकर सा शोर करते हुए लोप हो गए! कोई प्रकट न हुआ! कोई भी!
ये कौन? क्या बाबा बोड़ा हैं? ऐसा सामर्थ्य? ऐसा परमसिद्ध अस्थि-दंड? कौन है ये? कौन? और वो, तपन नाथ कहाँ है?
वो साधक पीछे मुड़ा, सामने देखा! तो भागते भागते तपन नाथ आ रहा था! आते ही, उसने बाबा के चरण पकड़ लिए! रोने लगा! प्राणों पर बनी है, सुनाने लगा! अपमान हुआ है, बताने लगा! अब तक क्या हुआ था, सब बता रहा था फूट फूट कर! पाँव पकड़, उनके घुटनों में सर मार रहा था बार बार!
"बाबा! बाबा! बोड़ा बाबा!" बोला वो,
सारा अन्धकार हट गया! ये महाप्रबल साधक बाबा बोड़ा ही हैं! उनको कोई देखे तो देखता ही रह जाए! इतना कुछ और तनिक भी क्रोध नहीं! अभी तक, एक शब्द भी न बोला था उन्होंने!
बाबा ने उसको हटाया, और अलख तक चले! अलख में कुछ नहीं झोंका! फूंक मारी और अलख की लौ ऊपर उठी! कमाल था! कैसे दीये की लौ की तरह! और अपना अस्थिदंड, कर दिया ऊपर!
भड़ाक! भड़ाक! भड़ाक! भड़ाक!
चार बार आवाज़! मेरी गर्दन में आ कर, हड्डी के टुकड़े घुसे! मेरे यहां रखे चारों कपाल, फोड़ डाले थे बाबा के इस वार ने! वार? नहीं मैं वार नहीं कहूंगा इसे! वार के लिए तो उन्होंने कुछ किया ही नहीं था! मात्र अपना अस्थिदंड ही हिलाया था और मेरे यहां के चारों कपाल, फट पड़े थे! बड़े कपाल पर रख दिया तो पता नहीं कहाँ जा कर गिरा था! जीवेश के होश उड़ गए थे! उसमे मुंह खुला का खुला ही रह गया था! क्या कोई ऐसा भी महाप्रबल होता है?
अचानक से वहां, बाबा बोड़ा के यहां एक चिंगारी सी कौंधी! उसी अलख में!  बाबा कुछ करते या समझते,  उनकी बगल से निकल वो कपाल भूमि पर लुढ़का! लुढ़कते हुए उस ढेरी तक गया और!!
भड़ाक! भड़ाक! भड़ाक! भड़ाक!
एक एक करते हुए, सभी कपाल फट पड़े! न हिले बोड़ा बाबा क़तई भी! अस्थि-खण्ड आ टकराये! न हटाया या फिर, चुभे ही न हों जैसे! पल भर के लिए मेरे होश उड़े! आया मामला समझा! और मैं समझ गया कि किसने जवाब दिया था ये!
"जय जय जय श्री जी की! जय जय जय श्री जी की!" मैंने त्रिशूल लहराया अपना!
अब होश आया जीवेश को! वो हंसे? या सुने? कारण जाने? या मेरे संग उन्मादी हो! समझ नहीं पा रहा था वो! कभी हंसता, कभी शान्त हो जाता!


   
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श्रीशः उपदंडक
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जिस समय कपाल फूटे वहां, तपन नाथ का दिल फूटा वो देख देख! बाबा बोड़ा के पीछे जा बैठा वो धूर्त सरभंग! कांप भी रहा होगा तो कहा नहीं जा सकता कि नहीं! और बाबा बोड़ा! वैसे ही खड़े रहे! एक छोटी सी मुस्कान उनके होंठों पर आयी और चार बार हल्के हल्के से सर हिलाया हां में!
वे पीछे हटे! उस तपन नाथ से कुछ कहा, तपन नाथ ने जैसे ही सुना, वो दौड़ा दौड़ा लौट गया!
बोड़ा बाबा वहीँ अलख के पास खड़े रहे! अपना अस्थिदंड आगे किया, एक शूलकरोंच मुद्रा में हिलाया उसको! और कुछ बुदबुदाते हुए, भूमि में गाड़ दिया! उन्होंने वो वहां गाड़ा और यहां मैं और जीवेश जैसे हवा में उठे! जैसे देह का सारा रक्त पांवों में आ गया! मैं कुछ समझता कि धम्म से नीचे गिरे हम! सन्तुलन बनाए हुए, खड़े हुए हम! क्या हुआ था? कौन आया था? ये कौन सा अभिकर्म था? ये कौन सी विद्या थी? मुझे नहीं मालूम!
देख लगी फिर! पांवों का रक्त फिर से खोपड़े की तरफ दौड़ने लगा! बाबा ने अपना अस्थिदंड उठा लिया था भूमि से! और तभी, दौड़ता भागता हुआ वो लाया था कुछ! उसने बाबा को दिखाया, बाबा ने इशारा किया उसे अलख के सामने रखने का! उसने अलख के सामने रखा वो कपाल! और कुछ करते वो, कि हवा में वो तपन नाथ उठा! और चिल्लाते हुए, अलख के पर जा गिरा! नरम मिट्टी रही थी, सो बच गया! उठा और चिल्लाते हुए, बाबा के पास चला आया! बाबा ने उसके कन्धे पर हाथ रखा और फिर कपाल को देखा!
दो महाप्रबल औघड़ आपस में उलझे थे! परख रहे थे एक दूसरे को! लोहा ले रहे थे, मानव रहे थे लोहा एक दूसरे को! और यहां हम, बस देख लड़ाई, जो हो रहा था, वो ही देख रहे थे! पल में कौन सा पेड़ धराशायी हो, हम पर ही गिर जाए? कहाँ कोई भूमि में गड्ढा ही बन जाए और हम दोनों उसी में समा जाएँ? मन कभी इधर और कभी उधर! देख लड़ाऊं तो अब क्या हो, क्या हो, सांस फूले! लेकिन मुझे तो अपने गुरु श्री का अभिमान था! अब चूँकि मेरे और जीवेश के जीवन की बागडोर उन्हीं के हाथों में थी, भय का त्याग करना था!
बाबा बोड़ा आगे बढ़े, और उस कपाल के ऊपर अपना पाँव रखा! कपाल को दबाया, और कुछ पढ़ा! हैरत की बात ये, कि कुछ भी सुनाई नहीं देता था! पाँव रखा और कपाल ने नीचे घुसना शुरू किया! जैसे ही कपाल नीचे घुसा, उसके मुंड पर, अपना अस्थिदंड छुआ दिया! महाभीष्ट हुआ! मेरी अलख, मृत! देह तोड़ गयी! जो दीये जल रहे थे, वे भी बन्द! मंगल हो गए! अन्धकार ही अन्धकार! ये क्या हुआ?
"जी.......?" अभी मैं बोलने ही वाला था कि, मृत अलख, फिर से उठ गयी! वे दीये फिर से शांत से जलने लगे! अलख, वहीँ से आरम्भ हुई थी, जहां से उसका अंत हुआ था! ये कैसा महासंग्राम हो रहा था?
देख जुडी तो बाबा ने अपना अस्थिदंड ऊपर उठाया हुआ था! वे फिर से मुस्कुराये! और एक बार फिर से कुछ पढ़ते हुए, अस्थिदंड उस कपाल के मुंड से छुआ दिया! मेरे यहां भयानक चीत्कार सी उठी! लगा जैसे हमारा ही सर्वनाश करने आज, इस शून्य में प्राण आ गए हैं! और अगले ही पल, वो चीत्कार, मन्द पड़ते हुए, शांत हो गयी! मैंने फिर से देख लगाई!
"क्या....हो रहा है वहां?" पूछा उसने,
"मुझे नहीं पता!" मैंने मरीमरी सी आवाज़ में कहा,
"बाबा बोड़ा आ गए हैं?" बोला वो,
"हां!" कहा मैंने,
"ओह..तभी ये सभी अपशकुन हो रहे हैं....." बोला वो, टूटा सा,
देख जुडी हुई थी, बाबा बोड़ा ने पाँव हटाया वहां से! और जैसे ही हटाया, अलख, 'हामम्म' की सी आवाज़ करते हुए उनकी, फट पड़ी! उसके अंगार हर जगह बिखर गए! पास खड़े पेड़ पर गिरे तो चटर-चटर सी हुई! पेड़ से परिंदे जान बचा कर भागे! बाबा बोड़ा के कन्धे पर आया हुआ अंगार, जो उनकी जटाएं जला गया था, आहिस्ता से हाथ में पकड़, उँगलियों से बुझा दिया! रहा वो तपन नाथ! वो तो उस समय '२' का सा अंक बन गया था!
"अब?" बोला जीवेश..
"रुको?" कहा मैंने,
और मैं फिर से देखने लगा! बाबा बोड़ा को कोई क्रोध नहीं! बस फिर से एक छोटी सी मुस्कान और सर हिलाया दो बार इस बार!
वे आगे आये! रुके! जिस जगह वो अलख थी, वहां अब एक गड्ढा था! उन्होंने एक लकड़ी उठायी जलती हुई, उस लकड़ी को देखा, लिया हाथ में, और अपना अस्थिदंड पकड़ा! दोनों ही आकाश की ओर कर दिए! फिर आगे आये, अपने अस्थिदंड से, एक घेरा खींचा! घेरे में वो जलती लकड़ी रखी! और फू!
किया फू तो उस लकड़ी में से ऐसे आग उठी! ऐसी आग, कि जैसे कोई शहतीर जला दिया गया हो! क्या सामर्थ्य था बाबा का! वाह बाबा बोड़ा वाह! मैंने मन ही मन, कह दिया ये!
तपन नाथ, घुटनों पर चलता हुआ, खिसकता हुआ, बाबा के पास आ बैठा! बाबा ने आसपास देखा, फिर ऊपर! और उस तपन नाथ को देखा! हाथ बांधे, पेट में घुसेड़े अपने हाथ, ऐसी दयनीय स्थिति बनाये कि किसी भिखारी को भी दया आ जाए और वो, उसको भी कुछ अन्न दे दे!
उन्होंने ऊपर देखा! नेत्र बन्द किये! और फिर खोले! अपना सर, ना में हिलाया तीन बार! वे पीछे पलटे!
अब क्या होगा? क्या होगा? क्या करेंगे वो? कैसे पड़ेगी पार? कैसे बीतेगी ये भय-निशा? क्या होगा?
और...................................!!!


   
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श्रीशः उपदंडक
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वे पीछे पलटे और एक त्रिशूल उठाया उन्होंने! ये त्रिशूल उन्हीं का होगा! उन्हीं के बराबर के अनुपात वाला! ये त्रिशूल कम कम छह फ़ीट का रहा होगा, उसका फाल ऐसा कि एक वार से किसी की कमर के ऊपर का हिस्सा ही पूरा का पूरा एक ही वार में उतार लिया जाए! वो अलख जो उन्होंने अपने मन्त्र-बल से प्रज्ज्वलित की थी, कैसी धौंकनी के समान सांसें सी लेते हुए, पूरे वेग से जल रही थी! लगता था उसमे स्वतः ही ईंधन पड़ता हे और स्वतः ही वायु उसे तेजमान बना रही है! वहां प्रकाश ही प्रकाश फैला था! वो तपन नाथ, मारे भय के सामने भी न देख रहा था! बाबा के चरणों में ही बैठा हुआ था! कैसा तुच्छ क़िस्म का इंसान था वो! सब दिख रहा था! यदि बोड़ा बाबा का सरंक्षण उस पर न रहा होता, तो सम्भव है पूर्व में कोई औघड़, किसी द्वन्द में उसका काम तमाम कर ही देता!
उन्होंने अपना त्रिशूल उठाया, और एक बार सामने किया, फिर अपना अस्थिदंड भूमि में गाड़ दिया! अब दोनों हाथों से अपना त्रिशूल उठाया, मन्त्र बुदबुदाया और तभी, घण्टे से बजने लगे! उस स्थान पर घण्टों का शोर फ़ैल गया! ये उनकी साधना का फल था! मुझे लगा कि उस स्थान की सुरक्षा उन्होंने किसी और सत्ता को सौंप दी है! सम्भवतः, श्री जी के वारों से बचने के लिए अथवा उस स्थान को, कीलन लगा दिया गया है कि कोई और संहारक शक्ति वहां अब अपने पैर ही न जमा सके!
अब वे पीछे हुए, मुख पर शांत से भाव आये और तब वे अपना अस्थिदंड ले, उस अलख तक गए! जैसे ही आगे गए, घण्टों का शोर फिर से होने लगा! उन्होंने मन्त्र बुदबुदाया और अपना अस्थिदण्ड, भूमि पर छुआ दिया! जैसे ही छुआ उन्होंने! मेरे यहां तो भूकम्प सा डोल आया! वो घण्टों की असहनीय सी आवाज़ हर दिशा से आने लगी! ऐसा लगा कि सर ही फट जाएगा! कमर से नीचे का हिस्सा सुन्न सा पड़ने लगा! जीवेश तो सामने की ओर ही बैठने लगा, आवाज़ में कम्पन्न भर गयी, कोई मन्त्र बोलूं भी तो कैसे! सन्तुलन बनाया न जाए! लगे कि अब गिरा ओर अब गिरा और अब गिरा! कभी एक पाँव डगमगाए और कभी दूसरा, भूमि में जैसे पहिये से लगा दिए थे उन्होंने!
और अचानक से सब शांत हुआ! जैसा था, ठीक वैसा! जैसे कोई बड़ा सा भूकम्प गुजर गया हो! ठीक पीछे, किसी काक ने कांव-कांव की! अचानक ही वो काक बहुत से हुए, ऊपर से उड़ उड़ कर जाने लगे! सभी, बहुत ही करीब से! इतने कि उनके उड़ते हुए पंखों की आवाज़ भी सुनाई दे! पल भर में ही सब शांत और वो काक सभी वहां से उड़ गए! ये अवश्य ही कोई उच्च-प्रयोग था, जिसने बाबा बोड़ा की उस महाप्रबल माया का नाश किया था! मेरी देख फिर से जुड़ी!
बाबा बोड़ा अपना अस्थिदण्ड लिए शांत खड़े थे, हाँ, दोनों त्यौरियां, चढ़ी हुई थीं! वे मुस्कुरा रहे थे, उन्होंने पल भर उस अलख को देखा और फिर पलट कर, उस तपन नाथ को देखा, जो नीचे झुक कर, कुछ पहाड़े से गिन रहा था! अभी बाबा ने सर उठाया ही नहीं था कि वहां पर सैंकड़ों काक उड़ते से दिखाई दिए! बाबा ने झट से सर ऊपर किया और अपना त्रिशूल ले, आगे दौड़े, एक जगह रुके, कुछ मन्त्र पढ़े, मन्त्र पढ़ते ही, त्रिशूल आगे किया! जैसे ही आगे किया, लहराया कि सब शांत! अब न वहां पर कोई काक और न कि आवाज़ उनकी! वे पल भर में शून्य से आये और पल भर में ही शून्य में समा भी गए! दो महाभट्ट अपनी अपनी शक्ति को, आज जैसे आजमा रहे थे! उनकी इस आजमाहट से मेरे भी प्राण बने थे, जीवेश के भी और उस तपन नाथ सरभंग के भी! अब पल में आगे क्या हो, कौन इस द्वन्द की अलख का ईंधन बन जाए, कह पाना असम्भव ही था! ये दोनों ही कम न थे! एक से एक महाप्रबल शक्तियों द्वारा जैसे एक दूसरे को प्रणाम कहते थे! शक्ति द्वारा ही प्रणाम स्वीकार किया जाता था और अभिनन्दन भी, इन्हीं शक्तियों द्वारा ही किया जा रहा था! कौन क्या करने वाला है, या क्या हो रहा है, ये तो बस देख से ही पता पड़ रहा था!
सहसा ही, मेरे यहां पर, जैसे कोई पालकी सी उतर हवा में से! मैंने पूरा तो नहीं देखा, बस यूँ लगा कि चार पालकीवान से आये हैं, जम्भट्ट योद्धा से! साक्षात चेवाट से! ये हम से कोई तीस या पैंतीस फ़ीट की दूरी पर हो रहा था! अचानक ही दिमाग़ में एक महाशक्ति का ध्यान आया! ये तो उर्तीशी 'व्यूप्कन्या' है! ये श्री मां धूमावती की अग्रिम-पंक्ति की सवारिका है! इसे सिद्ध करना या प्रसन्न करना कोई खेल नहीं! महा-महातीक्ष्ण साधना है इसकी! ये संहारक तो नहीं है हाँ, रक्षण का कार्य करती है! इसे व्यूप-वासिनि कहते हैं! व्यूप मायने, उस उच्च-महाशक्ति अथवा देवी के तेज-प्रकाश के मण्डल में वास करने वाली! उज्ज्वला! धावेली! वो पालकी रुकी! वहां तो वो पालकी सी रुकी, जो एकदम स्याह थी! न रंग, न रूप! ये मिथ्या या माया भी हो सकती थी! वे चारों योद्धा से उस पालकी के चारों ओर ही खड़े थे! हमारी आँखों में ऐसी दृष्टि, कि आँखों की पलकें मिले ही नहीं!
और अचानक से महाक्रंदन सा हुआ! आकाश से न जाने क्या क्या गिरने लगा! वो गिरता और अंगार सा बन, धुंआ हो जाता! प्रकाश के गोले से फूट जाते, लाल और सन्तरी से! भूमि पर गिरने से पहले ही, धुंआ हो जाते! जलती, कच्ची मिट्टी की सी महक फैलने लगी थी! वे चारों योद्धा, जस के तस खड़े थे! अंगार समाप्त से हुए, और वे, पालकी उठा, पूरब दिशा में, सीढियां सी चढ़ते चले गए! चली गयी पालकी! पल भर के लिए देख भूल-भाल सा गया था मैं!
मैंने तत्काल ही देख भिड़ाई और उधर देखा! उधर अलख में, अस्थियां जल रही थीं! अब मैं समझा, कौन आया था और किसने भेजा था! पहले से ही सुरक्षा चाक-चौबंद कर दी गयी थी!
और बोड़ा बाबा! अभी भी शांत ही खड़े थे! होंठों पर अभी भी मुस्कुराहट ही थी! वार-प्रतिवार, काट पर काट चल रही थीं! और इधर हम, झुनझुने में अटके दाने से, कभी इधर छन्न , तो कभी उधर छन्न!


   
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श्रीशः उपदंडक
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मुझे एक क्षण इस तपन नाथ पर दया आ गयी! बस एक क्षण के लिए! दया, उसकी मूर्खता पर! उसके पास ऐसा महासाधक था, जो उसे कहीं का कहीं पहुंचा सकता था! उस साधक की परछाईं को भी गुरु मानता तो न जाने कहां का कहां होता आज! उस मानसिक, मांत्रिक, साध्विक, ऐसा महाकल्याण होता कि जिसके लिए लाखों भटकते रहते हैं, मर-खप जाते हैं, अपना ही सर्वनाश कर बैठते हैं! और एक पल, ये मुझे उस संसार का सबसे घृणित व्यक्ति सा लगा! ऐसा घृणित कि जिसको बचाने के लिए, मात्र प्राण-संकट टालने के लिए, ऐसे निःकृष्ट व्यक्ति को, अपने सिद्धांतों पर पर्दा डालना पड़ रहा होगा! नहीं तो ऐसे तपन नाथ जैसे इंसान की क्या औक़ात? क्या बिसात जो उसके पांवों की धूल भी चाटे!
कुछ पल को राहत सी मिली थी! अभी कोई वार या प्रतिवार नहीं था, मैंने जो देख लड़ाई थी, वो उस तपन नाथ के स्थान पर ही रुकी थी! तपन नाथ हाथ जोड़े बैठा था, बाबा उस से कुछ बोल तो न रहे थे, लेकिन देख उसे ही रहे थे! वे एक बार उसे देखते और एक बाल अलख को! बाबा ने अभी तक कोई स्थान भी ग्रहण न किया था, सच बात है, जिसके लिए भूमि ही आसन हो उसे आसन की भला क्या आवश्यकता! मुझे तो यही समझ आया!
"जीवेश?'' कहा मैंने,
"आदेश.." बोला वो,
"ईंधन?" कहा मैंने,
"हाँ" बोला वो,
और उसने हमारी शांत सी पड़ी अलख में ईंधन झोंका, शायद, अलख को भी भान था कि वहां हो क्या रहा है, लगता था वो भी भयाक्रांत सी पड़ गयी थी, हाँ, अभी श्वास बाकी थी उसमे, इसीलिए ईंधन झोंक मारा था उसमे!
"सुनो?" बोला जीवेश,
अब पहली बार वो टूटा था, या मुझे ऐसा लगा था, मुझे लगा कि जैसे उसकी प्राण-वायु में बर्फ सी जमने लगी है, सांसें उखड़ने सी लगी हैं!
"हाँ जीवेश?" बोला मैं,
"क्या प्रतीत होता है?" पूछा उसने,
"कुछ नहीं पता" कहा मैंने,
''वहां क्या हो रहा है?'' पूछा उसने,
"तपन नाथ बैठा है, हाथ जोड़े हुए!" बोला मैं,
"और बाबा?" बोला वो,
"वो वहीँ खड़े हैं, कभी अलख को देखते हैं और कभी, उस तपन नाथ को!" बोला मैं,
"दुविधा में हैं!" बोला वो,
मेरी आँखें चमकीं! क्या सच? क्या सच में? क्या इसीलिए अभी, हाल में, कोई प्रहार नहीं?
"हाँ जीवेश!" कहा मैंने,
"यही कारण है?" पूछा उसने,
"हाँ! सम्भवतः यही!" कहा मैंने,
"शत प्रतिशत यही!" बोला वो,
और अचानक से मेरा चेहरा सख्त हुआ! आँखें फटीं!
"रुको?" कहा मैंने,
मैंने देखा, बाबा ने अपने केश झटके! और चले अलख तक! अलख पर गए और अपना त्रिशूल गाड़ दिया एक तरफ! अपना अस्थिदण्ड भी गाड़ दिया उधर! हाथ बाँध लिए अपने! और फिर कुछ पलों के बाद खोल लिए! मुस्कुराये! आकाश को देखा, और फिर ठीक सामने! नेत्र चौड़े हुए उनके!
ठीक उसी समय, मेरे यहां, श-श-श की सी तेज आवाज़ें हुईं! हम दोनों ही उठ बैठे! अलख की लौ की रौशनी में जहां तक देख सकते थे, देखा हमने, वहां तो अभी तक कुछ नहीं था, नज़रें आसपास घुमाईं हमने! कहीं कुछ नहीं! लेकिन वो आवाज़ें लगातार आती जा रही थीं!
"वो....!" बोला जीवेश,
मैंने गौर से देखा! ये क्या है?
"वो, उधर?" बोला वो,
मैंने उधर देखा! ठीक वही!
"उधर भी, वहां?" बोला वो,
हम दोनों एक दूसरे के पास हो गए! गौर से देखा उधर, भूमि में त्रिशूल से गधे हों ऐसा लगता था! ये त्रिशूल बहुत बड़े बड़े थे! मैं तो आधे तक ही पहुंचता अगर नापो तो! वे सब भूमि फाड़ के बाहर आये हों ऐसा लगता था, कम से कम, नौ या दस होंगे, हर तरफ! पूरे घेरे में!
किसी शिकार को बाड़े में फंस लिया हो! जैसे वो त्रिशूल, अभी उठेंगे और सीधे हमारा निशाना ले, तीव्र वेग से निकल पड़ेंगे हमारी देह के टुकड़े करने! ये कौन सी विद्या थी? कौन सी महाशक्ति? मैं नहीं जानता था!
अचानक से ही, एक मन्त्र-ध्वनि सी कानों में पड़ी! ये मन्त्र-ध्वनि प्रबल, डामरिक, शोतष एवं करकटज्ञा सी प्रतीत होती थी! बार बार लगता था कि कोई बड़ा सा पंखा, हमारे ऊपर आ, हवा सी झल जाता है! मेरी देख मुझे ही तोड़नी पड़ी थी! अभी फिर से कोई पंखा हवा सी झलने आया कि प्रकाश सा कौंधा! नेत्र बन्द हो गए! और चिड़ाक की सी लभि ध्वनि सुनाई दी! नाक के पास से जैसे लकड़ी का घिसा हुआ सा बुरादा उड़ता चला गया! उस बुरादे में जैसे रक्त की सी तीव्र गन्ध हो, ऐसा प्रतीत हुआ! हाथ अपने नेत्रों पर रखे तो समक्ष जैसे आग जल रही हो पूरे आकाश से नीचे गिरते हुए! बन्द पलकों में ऐसी लाल सी आभा भर गयी थी और जैसे ही नेत्र खुले! वो बड़े बड़े त्रिशूल सी, आकाश में उड़ते हुए, जलते हुए, तीव्र वेग से, किसी बाण की तरह से, चले जा रहे थे! सभी में आग लगी थी! ऐसा लगता था कि हम जैसे किसी बड़े से ज्वालामुखी के मुहाने पर खड़े हों! बस ताप नहीं था उसमे! अग्नि का साम्राज्य ही था बस!


   
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श्रीशः उपदंडक
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लगता था कि जैसे हम अग्नि की किसी कंदरा में घुसे हुए हों! जिसके दो द्वार हों, बाहर भी अग्नि ही अग्नि हो! उस द्वार, इस द्वार! हाँ, वो अग्नि, बस हमें नहीं छू रही थी! और इस तरह से, अग्नि, अंगार और वो लाल सा धूम्र अचानक से मन्द पड़ने लगा! अग्नि का शमन होने लगा! और कुछ ही पलों में, वो बड़े बड़े से त्रिशूल आदि सभी लोप हो गए! मेरे प्रहरी, जो मुस्तैद थे, सभी इस भयानक खेल को देख रहे थे! उनसे बड़ी सत्ताएं समक्ष आती थीं, इसीलिए वे शान्त पड़े थे, एक शब्द नहीं एक भी अक्षर तक नहीं!
सहसा ही मेरी देख घुमाई गयी! हाँ, घुमाई गयी! वहां बाबा बोड़ा के पास, वो सभी अंगार जा गिरे थे! ढेर के ढेर! वो गिरते थे और ढेर बना लेते थे! बोड़ा बाबा के सामर्थ्य के कारण, उनके उस चक्र को बिन भेदे ही, चारों तरफ ढेर बन गए थे! खन्न-झन्न की सी आवाज़ें हो रही थीं! प्रबल तामसिक शक्तियां, एक दूसरे का भक्षण करने को, लालायित थीं! कौन नहला फेंकता था और कौन दहले से उसका जवाब देता था, सब बताना मुश्किल था!
अचानक ही अंगार शान्त पड़ गए, इक्का-दुक्का चिंगारी भी नीचे गिरने से पहले, फड़कती हुई शांत हो जाती थी! वहां ढेर सा सज गया था, लाल तपता हुआ सा अंगारों का ढेर! बाबा फिर से मुस्कुराये और एक थाप दी भूमि पर! थाप देते ही, वो अंगार फट से पड़े, सीधे जैसे आकाश के मुंह में खिंचने लगे! आकाश ने जैसे मुंह फाड़ लिया था अपना, मैं तो इतनी ऊंचाई तक, देख भी न सका! वे अंगार, जैसे धकेल दिए गए हों, ऐसे उड़ते उड़ते लोप हो गए!
लोप तो मेरे होश भी हो जाते जो शब्द नहीं सुनाई देते मुझे श्री जी के! मेरे कानों में श्री जी के शब्द गूँज उठे थे!
"जय श्री महाऔघड़!" 
बस यही शब्द गूंजे थे मेरे कणों में! आवाज़ मैं पहचान ही गया था, आवाज़ में न तेजी थी, न घबराहट और न ही कोई व्याकुलता! वे शब्द, शांत, सहज एवम विश्वास से भरे थे! अब मैं समझा! समझा कि शक्तियों के बोझ से आत्मा शांत और देह पुष्ट हो जाती है! शब्द कम ही निकलते हैं मुख से, नहीं तो वही सिद्ध हो जाएंगे! अब समझा, क्यों ये सिद्ध-पुरुष, महाप्रबल साधक, शांत ही रहा करते हैं! हमारी तरह नहीं! कि कुछ मिला तो पीट दिया ढिंढोरा! धारण कर लिए रुद्राक्ष एक एक बड़े एक! आ गया दम्भ! दम्भ, वाणी में, काया में, बैठने में, उठने में, बोलने में और पता नहीं क्या क्या! मेरी देख वहीँ लगी थी! सच पूछो तो पलक कब पीटता था मैं, पता ही नहीं!
"क्या चल रहा है?" पूछा जीवेश ने,
"शांत खड़े हैं बाबा!" कहा मैंने,
"और कुछ?" बोला वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"और वो?" पूछा उसने,
"सर झुकाये बैठा है!" बोला मैं,
बाबा बोड़ा, पीछे हुए! और अपना त्रिशूल उखाड़ लिया! आकाश की तरफ ऊँचा किया! फिर एक बार उस तपन नाथ के कन्धे से छुआया! जैसे ही चुआया वो त्रिशूल, कि जैसे उसकी नींद खुल गयी! बैठे बैठे ही कांपने लगा वो! और तब बाबा आगे चले, जैसे ही त्रिशूल उठाया.......................है मेरे भगवान!!!!
जैसे ही उठाया त्रिशूल! कि त्रिशूल हाथ से छिटका! ऊपर चला, घूमा नीचे की तरफ और बाबा बोड़ा ने, किया हाथ आगे, और....लपक लिया त्रिशूल!
इस बार बाबा बोल उठे!
"धन्य!!" बोले वो,
ऐसी मधुर वाणी! ऐसी मृदु वाणी! मधु सम! 
लेकिन???
धन्य? महाधन्य? कौन? कौन महाधन्य" बोले वो,
त्रिशूल पर हाथ फेर, माथे से लगाया, अलख को देखा और थोड़ा सा पीछे हुए! और मुस्कुरा पड़े! फिर, ऐसे रुके, जैसे किसी को सुन रहे हों! मुस्कुराते जाते! मुस्कुराते जाते, और फिर, हंस पड़े एक छोटी सी हंसी! जो, उनके मुख-मण्डल को चमचम करती हुई बनी रही!
किस से बातें हुईं? किसने उत्तर दिया? मुझे क्यों नहीं सुनाई दिया? क्या मैं, इस योग्य भी नहीं? मेरी श्रवण-वाहिनि, क्या? वहीँ, उस स्थान तक ही सीमित थी? ये कैसा द्वन्द है? मैं होते हुए भी नहीं?
"क्या हुआ?" पूछा उसने,
"बड़ा ही अजीब सा?" कहा मैंने,
"क्या?" पूछा उसने,
"कुछ वार्तालाप सा!" कहा मैंने,
"कुछ सुना?'' पूछा उसने,
"सिर्फ उन्हें!" कहा मैंने,
"किस से वार्तालाप हुआ?" पूछा उसने,
"नहीं पता!" कहा मैंने,
"ये क्या चल रहा है?'' बोला वो,
"नहीं पता!" कहा मैंने,
तभी वहां पर, वो तपन नाथ खड़ा हुआ, और चला बाबा के पास, बाबा ने उसके पदचाप सुने तो पीछे देखा, वो आ गया उनके पास! पास आ कर, बैठ गया! बातें कुछ न हुईं उनके बीच, बाबा ने अलख में कुछ छोड़ा हाथों से अपने, शायद ईंधन था या कुछ और, दिखा नहीं!
अपने नेत्र बन्द किये उन्होंने, फिर खोल दिए! फिर से बन्द किये, और फिर से खोल दिए! फिर से मुस्कुरा पड़े! अपना अस्थिदंड उठाया और रखा सामने, त्रिशूल आगे करते हुए गाड़ दिया! फिर दोनों हाथ पीछे कर लिए! और अपने पाँव आगे किये! अलख तक, नेत्र फिर बन्द किये.....


   
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