रात को भोजन किया और कुछ बातें होती रहीं! और फिर सोने चले गए! प्रातः काल में, स्नानादि से निवृत हो, उसी ध्यान-स्थान पर चले गए! यहां दीप चलाये गए थे और सुगन्धि जल रही थी! थोड़ी देर में ही, प्रातः-चर्या निबटा, बड़े बाबा और बाबा धर्मनाथ आ गए! हमने चरण स्पर्श किये उन दोनों के!
वे बैठे, और हम, नीचे बैठ गए!
"निर्देश तो बता दिए ही गए हैं! बाबा बोड़ा, अत्यंत ही प्रबल साधक हैं! उनके मान-सम्मान में कोई भी त्रुटि न रहे! वो तुमको चेता दिया जाएगा! पूजन समय एक अर्ध्य बाबा बोड़ा के निमित्त भी चढाना! फिर कुछ नहीं करना तुम्हें! तू सिर्फ, उस चुनौती देने वालो को ही आंकना!" बोले वो,
"जी, जो आदेश!" कहा मैंने,
"जाओ! कल्याण हो! द्वन्द पश्चात, दोनों ही मिलो!" बोले वो,
"अवश्य ही! आदेश!" बोले हम दोनों,
वो उठे, और एक 'अंगीकार-मन्त्र' पढ़ा! हमने नेत्र बन्द किये! और वे चले गए! अब हम उनके ही दिशा-निर्देश में थे! अब जाकर, हमें, यूँ कहें कि चैन पड़ा था! हम दोनों वहीँ बैठ गए!
"अब क्या करना होगा?" बोला जीवेश,
"कुछ नहीं, यहां से वापिस जाने से पहले, श्री गंगा जी का भी आशीर्वाद आवश्यक है!" कहा मैंने,
"ये तो बहुत अच्छा है!" कहा उसने,
"हम कुछ ही देर बाद, कुछ सामग्री ले, चलेंगे श्री गंगा जी का आशीर्वाद लेने!" कहा मैंने,
ये परम्परा, दादा श्री के समय से, आज तक चलती आ रही है! कोई तीज-त्यौहार हो, महा-क्रिया हो, तब भी, उनका आशीर्वाद आवश्यक है! अन्यथा, ये कम से कम इस डेरे में, स्वीकार नहीं की जाती!
और तब, सुबह ही कोई साढ़े छह बजे, हम कुछ सामग्री ले, श्री गंगा जी के लिए चल पड़े! मुझे वो स्थान आज भी याद है, जहाँ मैंने वो 'सागर' देखा था! यथार्थ देखा था! वो मृत-देह देखी थीं! मैं वही जा रहा था जीवेश के साथ! यहां से पैदल ही जाना था, वहाँ से एक सवारी लेनी थी, अगर मिली तो, नहीं तो पैदल ही पैदल! वो कोई घाट नहीं, कोई गढ़ा हुआ स्थान नहीं, वो, किनारा है, जहां से गंगा जी, अपना वेग बांट देती हैं आगे, शहर के बीचों बीच आने तक!
तो हम वहां पहुंच गए! वैसा ही था वो स्थान! हाँ, अब कुछ खेती सी होने लगी थी, धान उगाया गया था आसपास, पौधे अधिक बड़े नहीं थी, इसका अर्थ कि अभी, हाल में ही रोपा गया होगा धान!
"जीवेश?" कहा मैंने,
"हाँ?" बोला वो!
"ये है वो स्थान!" कहा मैंने,
"बड़ा ही समय है!" बोला वो,
"यहां, माँ गंगा, बांधी हुई नहीं, उन्मुक्त अवस्था में हैं!" कहा मैंने,
"जानता हूँ!" बोला वो,
"नदी यदि बांधी हुई हो, तो संतापग्रस्त होती है, उसकी आत्मा को कष्ट होता है, वो भला स्वयं ही दुखी होकर, पापमोचिनि कैसे हो सकती है?" कहा मैंने,
"हाँ! ये ही है तन्त्र का सत्य-पक्ष!" कहा उसने,
"इसीलिए, हम, मुख्यधारा से पृथक हैं!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोला वो!
"पापमोचिनि गंगा जी को, जब, उन्माद चढ़ तो वो दम्भ से भर गयीं! क्या पर्वत, क्या घाटी, क्या उपवन, क्या नगर, क्या ग्राम! सभी को रौंदती हुई चलती गयीं! तब ऋषिराज जाहू का आश्रम भी पड़ा! तपस्या में विघ्न हुआ, गंगा जी नहीं मानैं, तब, ऋषिराज ने, समस्त गंगा जी को उनके जल समेत, पी लिया! देवताओं को हुई चिंता! मुनि भगीरथ की तपस्या का फल ये? सब क्षीण हो जाता! तब, देवताओं ने, मुनि भगीरथ ने, ऋषि जाहू से प्राथना की, कारण बताया, तब उन्होंने, कहते हैं अपनी जंघा सा गंगा जी को मुक्त किया! गंगा जी का सारा दम्भ चूर चूर हो गया! दूसरी मान्यता है कि ऋषिराज जाहू ने, उन्हें अपने कानों से निकाला, तभी से, गंगा जी का नाम जहान्वी पड़ गया! ऋषिराज जाहू ने, नागों, असुरों, यक्षों, गाँधर्वों को भी उस प्रबल वेग से बचाया! तभी से, वे ऋणी हो गए उनके! इसीलिए किसी भी मन्त्र में, जिसमे सरन्ध होता है, पहचान में चला आता है!" कहा मैंने,
"ये सुना तो था, इतना नहीं!" बोला वो,
"कोई नहीं बताता!" कहा मैंने,
"हाँ, मुनि भगीरथ और गंगा जी को ही जानते हैं लोग!" बोला वो,
"हाँ, यही सच है!" कहा मैंने,
"किसके कारण, भगीरथ ने तपस्या की, वे कौन थे, जिस से वे सब के सब, भस्म हो गए! क्यों भगीरथ ने श्री गंगा जी को ही चुना? किसने सलाह दी थी? कोई नहीं जानता! जो जानता है, बताता ही नहीं!" (कालकेय के विषय में पढ़िए)
"हाँ, अब तो सब भूल-भाल गए!" बोला वो,
"हाँ, रुको!" कहा मैंने,
हम किनारे तक चले आये थे! हम दोनों ने ही, प्रणाम किया माँ गंगा जी को! उनका अनुपम सौंदर्य तो अभिभूत करने वाला होता ही है! कोई शब्द ही नहीं मिलता दर्शाने के लिए!
नदी में उस समय, जल थोड़ा कम था, हाँ, मध्य में तो गंगा जी का बहाव बेहद ही तेज था! कोई छोटी नाव उसे पार नहीं कर सकती थी! बहा ही ले जाती उसे! यहां गंगा जी का वृहद रूप देखने को मिलता है!
"आओ, ये ठीक है!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोला वो,
और हम दोनों वहां बैठ गए, सामग्री निकाली, सजाई और श्री गंगा जी को प्रणाम किया! तदोपरान्त पूजन किया! उनका धन्यवाद किया कि पुनः उन्होंने हमें यहां बुलाकर, अनुगृहित किया!
करीब आधे घण्टे तक हम वहीँ बैठे बैठे पूजन करते रहे, और फिर, अर्ध्य दे, पूजन समाप्त किया! हमें आशीर्वाद मिले उनका, यही कामना की! हम वहां से हटकर, एक दूसरी जगह बैठ गए!
"अब क्या कार्यक्रम है?" पूछा उसने,
"चलें?" बोला मैं,
"चलना ही ठीक है!" बोला वो,
"हाँ, वहां भी देखें!" कहा मैंने,
"हाँ, साजो-सामान भी लेना है!" बोला वो,
"हाँ, और देखते हैं, क्या आदेश मिलता है!" कहा मैंने,
"तो निकल चलते हैं आज ही" बोला वो,
"है, यहां का कार्य तो पूर्ण हुआ!" कहा मैंने,
"इसीलिए!" बोला वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"तो ठीक है!" बोला वो,
और हम उठे फिर, प्रणाम किया श्री गंगा जी को, और चल दिए वापिस! अपने डेरे पहुंचे, भोजन किया और फिर आराम किया एक गहनता, दोपहर में, चलने की सोची, रात तक पहुंच ही जाते, मौसम ठीक था, कोई गड़बड़ थी नहीं! तो हमें सामान बाँध लिया अपना, और तभी नन्दू चला आया!
"नमस्कार!" बोला वो,
"नमस्कार!" कहा मैंने,
"बाबा धर्मनाथ का बुलावा है!" बोला वो,
"दोनों हम?" कहा मैंने,
"हाँ!" बोला वो,
"आओ जीवेश!" कहा मैंने,
"हाँ, चलो!" बोला वो,
और हम नन्दू के साथ चल पड़े!
"कहना हैं बाबा?" पूछा मैंने,
"आगे चलो!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
और चलते चलते एक अलग सी ही जगह आ गए, ये जगह पहले नहीं थी, शायद नयी खरीद ली गयी थी, हो कुछ भी, पहले नहीं थी!
पहले कुछ खुली सी जगह आयी, फिर, कुछ बकरियां, फिर आगे, एक झोंपड़ी सी नज़र आयी, जब चढ़े ऊपर थोड़ा, तो आठ या दस झोंपड़ियां दिखीं!
"ये जगह नई है?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोला वो,
"कब ली?" पूछा मैंने,
"धर्मनाथ बाबा ने ली!" बोले वो,
''अच्छा!" कहा मैंने,
तभी सामने एक पक्का सा कक्ष दिखा!
"उधर" बोला इशारे से,
"अच्छा!" कहा मैंने,
और हम दोनों ही, उस नन्दू के साथ चलते रहे, आ गए कक्ष तक, कक्ष कड़ियों का बना था, अभी कुछ पत्थर की पटिया आदि रखीं थीं, लोहे के गार्टर भी वहीँ पड़े थे, शायद और भी कक्ष बनाये जाने थे!
"जाओ!" बोला वो,
हमने जूते उतारे और कक्ष में अंदर चले, अंदर बाबा धर्मनाथ बैठे हुए थे, पीछे धूना जला था, लोहबान की महक थी उधर फैली हुई!
''आ जाओ!" बोले बाबा,
"प्रणाम बाबा!" बोले हम दोनों!
"आओ! प्रणाम!" बोले वो,
हम बैठ गए वहीँ, उन्होंने कुछ प्रसाद सा दिया हाथों में, जब उसे खाया तो अजीब सा लगा, न मीठा, न फीका!
"आज जाओगे? हाँ?" बोले वो,
"हाँ बाबा!" कहा मैंने,
"अच्छा, कब?" पूछा उन्होंने,
"बस, आपसे मिलते ही!" बोला जीवेश!
''अच्छा! वो, उठाओ?" बोले वो इशारा करते हुए एक तरफ, मैंने वहाँ देखा, वो एक पोटली सी थी, टाट के बोरे में बंधी हुई! मैंने हाथ बढ़ाया और खींच ली, कर दी बाबा के आगे!
उन्होंने पोटली ली, और खोल ली, उसमे से कुछ निकाला, ये भी एक पोटली में था, उन्होंने उसे भी खोल और दो बाजू-बन्ध निकाल लिए! उनको माथे से लगाया और पोटली पीछे कर दी!
"आग आओ!" बोले वो,
मैं आगे हुआ, उन्होंने मेरे सर से छुआया उसे, और माथे से रगड़ दिया!
"ये रख लो! उस मसय, धारण अवश्य ही करना!" बोले वो,
"जी, अवश्य!" कहा मैंने,
"तुम?" बोले वो जीवेश से,
"जी? आदेश!" बोला जीवेश,
"आगे हो जाओ!" बोले वो,
वो आगे हुआ, और सर से लगाया वो उसके, और माथे से छुआ दिया!
"लो! तुम भी!" बोले वो,
"आदेश!" बोला वो,
"कोई प्रश्न?" बोले वो,
"जी!" कहा मैंने,
"बोलो?" बोले वो,
"क्या बड़े बाबा से मिल लें?" बोला मैं,
"द्वन्द पश्चात!" बोले वो,
"जी, जो आज्ञा!" बोला मैं,
"ठीक! अब जा सकते हो!" बोले वो,
"जी, आदेश!" कहा हमने और उठ गए फिर, प्रणाम किया, उन्होंने दोनों हाथ उठाकर, आशीर्वाद दिया, हम बाहर आ गए, जूते पहने और चले कक्ष की ओर, वहां आये, और वो बाजू-बन्ध, अपने अपने बैग में रख दिए!
"कुछ खाना-पीना तो नहीं?" पूछा मैंने,
"नहीं, भूख नहीं, तुमको हो, तो देख लो!" बोला वो,
"नहीं, बाहर ही खा लेंगे!" कहा मैंने,
"ठीक!" कहा मैंने,
और हम, अपना सामान लिए बाहर आये, नन्दू मिला, उस से बात हुई, हम दुबारा आएंगे, ये बता दिया! वो भी खुश हुआ, जीवेश ने उसे कुछ पैसे देने चाहे, मना कर दिया नन्दू ने! हाथ जोड़ लिए! और हम, अब बाहर चले आये! एक बार पीछे देखा, सबकुछ मिल गया था यहां से! और फिर चल पड़े! बाहर से भाड़ा तय कर, सवारी पकड़ी और चल दिए, एक जगह उतरे, वहाँ से फिर सवारी ली, और इस तरह हम बस-अड्डे आ गए! बस भी मिल गयी जल्दी ही, बस में बैठे और चल दिए!
रात को देर हो गयी हमें, ग्यारह से ज़्यादा बज गए थे वहां पहुँचते पहुँचते, खैर, ब्रह्म जी मिले, प्रसन्न हुए, एक सहायक ने हमारा सामान रखवा दिया उसी कक्ष में!
"आराम से आये?" पूछा उन्होंने,
"हाँ!" कहा मैंने,
"अच्छा! भोजन?" बोले वो,
"हाँ, लेंगे!" कहा जीवेश ने,
"कहता हूँ!" बोले वो,
"और यहां क्या हाल?" पूछा जीवेश ने,
"यहां तो आग सी लग गयी है!" बोले वो,
"सब जान गए?" बोला मैं,
"हाँ, सभी!" बोले वो,
''अच्छी बात है ये तो!" कहा मैंने,
"अच्छा बुरा अब आप जानो!" बोले वो,
''आप चिंता न करो!" कहा मैंने,
'आप तो जानते ही होंगे?" बोले वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"इस डेरे की इज़्ज़त?" बोले वो,
"बहुत दूर की सोची?" बोला जीवेश!
"सोचना पड़ता है!" बोले वो,
"आपका भय नहीं गया?" पूछा मैंने,
"कैसे जाए?" बोले वो,
''अब कुछ नहीं कहूंगा, अब आप खुद देख लेना!" बोला जीवेश!
सहायक लौट आया, उसको भोजन के लिए कह दी, वो चला गया!
"यहीं लोगे भोजन या कक्ष में भिजवा दूँ?" बोले वो,
"वहीँ ठीक है!" कहा मैंने,
"ठीक!" बोले वो,
उनके साथ, हम भी बाहर चले, हाथ-मुंह धोये, पोंछे और कक्ष में चले आये! बैठे वहां, और कुछ ही देर में भोजन आ गया, भोजन किया हमने! और फिर बर्तन भी उठा लिए गए, और हम, अब लेट गए!
"कल से ही काम शुरू!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोला वो, थक सा गया था जीवेश!
"नींद आयी है?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोला वो,
''सो जाओ फिर, मैं भी सोता हूँ!" कहा मैंने,
जीवेश सो गया था सो मैं भी सो गया! अब इत्मीनान से सोना था, अब मन में कोई चिंता भी नहीं थीं! खैर, नींद आयी और सो गए हम!
प्रातःकाल में फारिग हो, चाय-नाश्ता कर हम ब्रह्म जी के पास पहुंचे, वे वहां नहीं था, शायद किसी काम में लगे थे या अभी तक वहां नहीं आये थे! वहां इक्का-दुक्का लोग बैठे थे, उनसे नमस्कार हुई और हम भी जा बैठे कक्ष के बाहर ही! यहां विनोद आया, और वो भी चाय ले आया, अब उसके साथ चाय पी फिर से!
"ये कहाँ गए हैं?" पूछा जीवेश ने,
"सुबह तो देखे थे?" बोला वो,
"तब यहीं होंगे!" कहा मैंने,
"हाँ, आ रहे होंगे!" बोला विनोद,
हम बातें करते रहे, और करीब चालीस मिनट के बाद, वे वहाँ आये! हमने नमस्कार की और वे हमें अंदर ले आये!
"बैठो!" बोले वो,
"हाँ!" बोला जीवेश,
"चाय-नाश्ता?" बोले वो,
"हो गया!" बोला जीवेश,
"अच्छा! वो सामान वाला आया था, हिसाब-किताब में लगा था, इसीलिए देर हो गयी!" बोले वो,
"कोई बात नहीं!" बोला जीवेश,
"बताओ?" बोले वो,
"वो स्थान दिखाओ?" बोला जीवेश,
"स्थान? कौन सा?" पूछा उन्होंने,
"जहां हमारा रण-क्षेत्र है!" कहा मैंने,
"नहीं समझा?" बोले वो,
"जहां से ये द्वन्द लड़ा जाएगा!" बोला जीवेश!
"ओह! अच्छा!" बोले वो,
उनके इस हड़बड़ाने का कारण, तपन नाथ से होने वाला द्वन्द ही था! उन्हें अभी तक यही लगता था कि हम अब कुछ ही दिनों के मेहमान रह गए हैं! तपन नाथ नहीं छोड़ने वाला हमें! वे अपनी तरफ से, अभी भी, इस द्वन्द को रोकना चाहते थे! उनकीकोई गलती नहीं थी, बहुत कुछ सुना था उन्होंने तपन नाथ के बारे में! तो उनका भयभीत हो जाना तो समझ में आता ही था!
"यहां दो स्थान है!" बोले वो,
"कितनी कितनी दूर?" पूछा मैंने,
"दोनों ही पास-पास ही हैं!" बोले वो,
"तपन नथ के समीप कौन सा है?" पूछा जीवेश ने,
"दोनों ही!" बोले वो,
"कब दिखाओगे?" पूछा जीवेश ने,
"आज देख लो?" बोले वो,
"कितने बजे?" पूछा उसने,
"आप बताओ?" बोले वो,
"दोपहर में?" बोला जीवेश,
"ठीक है!" बोले वो!
"कोई साथ जाएगा?'' पूछा मैंने,
"आप देखो?" बोले वो,
"कोई जाता हो तो ठीक, न तो हम तो चले जाएंगे ही!" कहा मैंने,
"मैं चलूं?" बोले वो,
''आप चलो?" कहा मैंने,
"ये ठीक है!" बोला जीवेश,
"आपके जानकार होंगे?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"कहीं तपन नाथ से डरते तो नहीं?" बोला मैं,
"पता नहीं!" हंसते हुए बोले वो,
"चलो, दोनों ही जगह देख लेते हैं!" कहा मैंने,
"जो अच्छा लगे, बता देना!" बोले वो,
"ये ठीक है!" कहा जीवेश ने,
"तो ठीक ग्यारह बजे आते हैं हम!" बोला मैं,
"आ जाओ!" कहा उन्होंने,
और हम उठे फिर, चले ज़रा घूमने के लिए आसपास में ही, बाहर तो नहीं, बस थोड़ा उधर ही, खाली सी जगह में!
"देख लेते हैं दोनों जगह!" बोला जीवेश,
"हाँ" कहा मैंने,
"न सूझी तो और देख लेंगे!" बोला वो,
"हाँ, सो तो है!" कहा मैंने,
"ऐन मौके पर कोई नहीं मिलती जगह फिर!" बोला वो,
"देखते हैं!" कहा मैंने,
ठीक ग्यारह बजे हम आ गए ब्रह्म जी के पास, ब्रह्म जी के साथ एक और आदमी बैठा था, उस से भी नमस्कार हुई!
"ये करवाएंगे प्रबन्ध!" बोले ब्रह्म जी,
"अच्छा! बहुत बहुत धन्यवाद आपका!" कहा मैंने उस आदमी से,
"दो जगह हैं, आप देख लो!" बोला वो,
"दिखा दो!" कहा मैंने,
"हाँ जी, चलें?" बोला वो आदमी,
"हाँ, चलते हैं!" बोले ब्रह्म जी,
"कुछ देर है क्या?" पूछा मैंने,
"हाँ, ज़रा वाहन आना है!" बोले वो,
"अच्छा, फिर ठीक!" कहा मैंने,
"वैसे जगह कैसी है?'' पूछा मैंने,
"श्मशान ही है?" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"हाँ जी, परेशानी कोई नहीं!" बोला वो,
"और 'खुर्रा-सामान' मिलेगा?" पूछा मैंने,
''सब मिलेगा!" बोला वो,
"सब?" पूछा मैंने,
"हाँ, 'तीली' से लेकर 'छतर' तक!" बोला वो,
"अरे वाह!" बोला जीवेश!
"पसन्द आये तो ठीक, नहीं तो और भी हैं!" बोला वो,
"ये बढ़िया है!" कहा मैंने,
"यही काम करता हूँ!" बोला वो,
"अच्छा, फिर ठीक!" बोला जीवेश!
उस आदमी ने और भी बातें बतायीं अपने इस 'धंधे' की, वो तो चलती-फिरती ही दुकान था! जो मानगो, सब हाज़िर था! तन्त्र से सम्बन्धित प्रत्येक वस्तु उसके पास उपलब्ध थी! दरअसल, इस तरह के लोग हर जगह बिखरे पड़े हैं! उनका सम्बन्ध सामान लेने वालों से बना रहता है, इसीलिए, उनकी जेब हमेशा खनकती ही रहती है!
कुछ ही देर में एक जीप आ गयी उधर! एक प्रौढ़ सा व्यक्ति ड्राइविंग कर रहा था, उसने देखा हमारी तरफ, और उस आदमी को हाथ हिलाया, वो आदमी, लपक के चला उस गाड़ी की तरफ!
"आओ चलें!" बोले ब्रह्म जी,
"हाँ जी!" बोला जीवेश!
और हम चल पड़े, गाड़ी में बैठ गए, गाड़ी भी प्रौढ़-अवस्था की ही थी! किचर-किचर की आवाज़ बता रही थी कि उसने बड़े रास्ते नापे हैं!
"कितनी दूर है?" पूछा जीवेश ने,
"बस कोई दो या तीन किलोमीटर?" बोला वो आदमी,
"अच्छा, ठीक!" बोला वो,
"और उस तपन नाथ का डेरा कहां पड़ता है?" पूछा मैंने,
"पड़ेगा रास्ते में ही!" बोले ब्रह्म जी,
"अच्छा, बताना ज़रूर!" बोला जीवेश,
"बता दूंगा, आने दो!" बोले वो,
करीब एक घण्टे के बाद, गाड़ी रुकवाई गयी, एक तरफ! वहां गन्ने के रस वाले खड़े थे, उधर ही गाड़ी खड़ी हो गयी!
"वो देखो!" बोले ब्रह्म जी,
"वो? कहां वो काली, ध्वजा लगी है?'' पूछा मैंने,
"हाँ, वही!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
डेरा काफी बड़ा था वो! उसका द्वार ही बताता था कि इस डेरे में कोई कमी नहीं! तपन नाथ यहां तो ऐश में जीवन बिता रहा था! अब आ लिया था उसका वक़्त भी! देखते हैं, क्या बन पड़ता है!
"चलें?" बोले ब्रह्म,
"हाँ, चलो!" बोला मैं,
"ठीक!" कहा उन्होंने,
गाड़ी चल पड़ी, और मैं, पीछे देखता रहा, उस डेरे को, जहां जल्दी ही, कोलाहल मचने को था! तपन नाथ को मैं ऐसा सबक देने वाला था कि जीवन में फिर कभी बोलने लायक़ नहीं रहता वो!
"इधर से!" बोले ब्रह्म जी,
"ये रास्ता खराब पड़ा है, आगे से लाते हैं!" बोले वो,
"अच्छा, चलो!" बोले वो,
और गाड़ी, आगे वाले रास्ते से होती हुई, एक बीयाबान से रास्ते पर चल पड़ी! नदी की तरफ ही जा रहे थे हम!
उस बीयाबान में चलती गाड़ी की आवाज़ गूँज रही थी! पीछे मिट्टी उड़ने लगी थी! रास्ता भी साफ़ था, ऐसा तो नहीं कहूंगा मैं, एक तो गाड़ी हिल रही थी, अंदर, वो सीट हिल रही थी, उसकी आवाज़ ऐसी थी कि जैसे उस जीप पर, हमने चाबुक तोड़ रखा हो! गुलामी करवा रखी हो!
"और कितना?" पूछा मैंने,
"बस पास ही!" बोला वो आदमी!
"कमाल है, यहां कौन आता है दाह-संस्कार के लिए?" पूछा मैंने,
"वो रास्ता दूसरा है, ये दूसरा!" बोला वो,
"अच्छा, तभी कहूँ यहां कोई आये तो आराम से ही लौटे!" बोला मैं,
"आते हैं, आसपास गांव हैं!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
और तब गाड़ी, पक्के से रास्ते पर चली, ये वैसे पक्का रास्ता नहीं था, सड़क जैसा, बस मिट्टी सख्त थी यहां! एक जगह से मुड़े तो अब एक छोटा सा नाला चला हमारे साथ साथ, उसमे कुछ पानी था भी भी, ये खेती के लिए होगा, फिलहाल में तो यहां पानी के पक्षी मजे ले रहे थे! ठीक सामने, फिर से डेरे से दिखाई देने लगे! अब आया था किनारा इसका मतलब!
"वो सब डेरे हैं?" कहा मैंने,
"कुछ आश्रम हैं, धर्मशालाएं, मण्डप आदि!" बोला वो,
"अच्छा, समझा!" कहा मैंने,
और तब गाड़ी, पहले ही मुड़ गयी! और अब शायद, उसी डेरे पर जाने के लिए, मुड़ी थी, ज़्यादा देर नहीं लगी, और उधर ठीक सामने ही, कुछ पेड़ से दिखे, एक जगह पर दीवार पर लगा हुआ, 'परम् गति स्थल' का बोर्ड, यहां भोले बाबा की मूर्ति लगी थी, त्रिशूल उठाये! गाड़ी अंदर ही चली गयी! और अंदर एक जगह जाकर, खड़ी हो गयी! हम सभी उतरे!
"आप रुको, मैं आया अभी!" बोला वो आदमी, और वो चला एक तरफ! यहां अशोक के नए से पौधे लगे थे, स्थान भले ही पुराना रहा हो, लेकिन देख-रेख बढ़िया रखी गयी थी! एक तो एकांत और एक, कोई शोर-शराबा नहीं! आबादी से दूर ही स्थित था ये स्थान! कोई दस मिनट बाद वो आदमी आया,
"आओ!" बोला वो,
तो चालक को छोड़, हम सभी चल पड़े उसके साथ,
"उधर ही हैं रखदार!" बोला वो,
''अच्छा!" कहा मैंने,
हम चले तो कई, ढोंगी से औघड़ वहाँ मिले, सब के सब ज़िन्दगी के सच से भागे हुए लोग! वे लोग, जो हार गए थे ज़िन्दगी से! वे लोग, जिनके बस में, भजन गाना बही नहीं था! वही लोग थे ये, जो आगे अपना कटोरा कर देते या कुछ मिला अच्छा, तो कोई पीतल का कमण्डल खरीद लिया, या छीन लिया, या चुरा लिया! घर में, बीवी और औलादों को छोड़, उनकी ज़िम्मेवारियों से मुंह मोड़ अब ये कमीन लोग, बाबा बन बैठे थे! जो जो उन्होंने गले में धारण कर रखा था, उसके बारे में कुछ पूछता तो कुछ पता ही न होता, या हंस के, खीझ मिटाते हुए, टाल-मटोल करते! आवारा, फरेबी, मक्कार, लम्पट, चोर-उचक्के, उठाईगिरे लोग! यहीं हैं वो! यही जो टीवी आदि पर आकर, तन्त्र का उपहास उड़वाते हैं! लोगों को, जीने के तरीके बताते हैं! खुद हारे हुए, जीत का मन्त्र बताते हैं! लानत है ऐसे लोगों पर!
"आओ जी!" बोला वो,
"आगे?" पूछा मैंने,
"आप रुको" बोला वो,
"कहाँ ले जा रहा है ये?'' बोला जीवेश,
"ले जाएगा वहीँ!" कहा मैंने,
"इनको देखना?" बोला जीवेश,
तीन बाबा लोग, सुलपा चढ़ा रहे थे बैठे बैठे!
"ओये?" कहा मैंने,
तीनों ने सुनी, और सुन कर टाली!
"ओये? हाँ! तू? इधर आ?" बोला मैं,
एक आधी सी हड्डी वाला, उठा और चला आया मेरे पास, ऊपर से नीचे तक देखा उसने मुझे!
"क्या कर रहा है?" पूछा मैंने,
"नग्गा!" बोला वो,
"तेरी माँ की **! सच बता?" बोला मैं,
"गुल है!" बोला वो,
"और वो?" पूछा मैंने,
"बाहर के हैं!" बोला वो,
"जीजा हैं तेरे?" बोला मैं,
हंस पड़ा वो, पेट एक तो अंदर था ही, रीढ़ तक घुस गया! एक आद हाथ मार देता मैं तो, और गले में मरा सांप पड़ जाता! एक में ही बदन काँप उठता उसका और मुंह से झाग बह जाते उसके!
"चल? बहन के **?" बोला जीवेश उसको हाथ दिखाते हुए!
वो गया, उन दोनों को कुछ कहा, और वे तीनों, निकल लिए वहाँ से! इतने में वो आदमी भी आ गया!
"आ जाओ!" बोला वो,
"चलो!" कहा मैंने,
चल दिए हम पीछे पीछे उसके, वो हमें अजीब सी जगह से ले जाते हुए, एक श्मशान में ले आया, एक भी चिता नहीं जल रही थी, हाँ, एक अभी ठंडी होने हो थी! वो रुक गया उधर ही!
"ये देखो!" बोला वो,
"यहां?" पूछा मैंने,
"और देख लो?" बोला वो,
"दिखाओ?" कहा मैंने,
वो दूसरी जगह ले चला, वहां रुका, यहां बस इतना फ़र्क़ था कि सामने नदी थी, पीछे श्मशान था, जगह तो ठीक ही थी वैसे!
"किसी की रोक-टोक तो नहीं है यहां?" पूछा मैंने,
"नहीं जी!" बोला वो,
"कोई आने जाने वाला?" पूछा मैंने,
"नहीं, वो सब यहीं के हैं, मना कर देंगे तो कोई नहीं आएगा!" बोला वो,
"हाँ जीवेश?" कहा मैंने,
"ठीक लग रही है!" बोला वो,
"और सामान?" पूछा मैंने,
"वो उधर मिल जाएगा, मैं ला दूंगा!" बोला वो,
"मिल जाओगे उस रात?" पूछा मैंने,
"अरे क्यों नहीं, यहीं रहता हूँ!" बोला वो,
"यहीं?" पूछा मैंने,
"हाँ, यहीं ला दूंगा!" बोला वो,
"फिर तो ठीक है!" कहा मैंने,
"तो कुछ सामान बता दूंगा, अमावस वाली रात, आठ बजे, हम दोनों यहां आएंगे, सामन आज ही बता दूंगा ब्रह्म जी को, ठीक?" कहा मैंने,
"हाँ, ठीक!" बोला वो,
"बस ये देख लो, कोई आये जाए नहीं!" कहा मैंने,
"कोई भी नहीं, आदमी ही चार रहते हैं रात को!" बोला वो,
"फिर ठीक!" कहा मैंने,
''आप जगह बता दो, साफ़-सफाई करवा दूंगा!" बोला वो,
"हाँ, जीवेश?" कहा मैंने,
"हाँ?" बोला वो,
"जगह देखो?" कहा मैंने,
"आप देखो जी!" बोला वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"आपके पीछे पीछे हूँ मैं तो!" बोला वो,
"रहने दो तुम भी!" कहा मैंने,
"वैसे ये जगह भी ठीक ही है, समतल है और कोई परेशानी नहीं!" बोला वो,
"तब ठीक है!" कहा मैंने,
"हाँ जी?" बोला जीवेश उस आदमी से,
"ये ठीक है?'' बोला वो,
"हाँ, ये ठीक!" कहा उसने,
"आओ जी, अब ये उस रात, तैयार मिलेगी!" बोला वो,
"हाँ ठीक है!" बोला जीवेश,
"चलें?" कहा मैंने,
"है, बाकी मैं देख लूंगा!" बोले ब्रह्म जी!
"ठीक!" कहा मैंने,
और हम तब, वापिस हुए, ब्रह्म जी ने कुछ पैसे इस आदमी को दे दिए थे, खाता-पीता, मजे करता! बाकी बाद में देख लेते!
तो हम वापिस हुए, एक जगह रुक कर, लस्सी पी, कुछ देर सुस्ताये और फिर से चल पड़े! पड़ा बीच में उस तपन नाथ का डेरा! लाल रंग के पत्थर से बाहर की दीवार बनी थी, अंदर काफी अच्छी सजावट थी!
"ले ले मजे!" बोला जीवेश उस डेरे को देखते हुए!
''लेने दो यार!" कहा मैंने,
"इसे भी चलेगा पता!" बोला जीवेश,
"ये तो लिख कर रख लो!" कहा मैंने,
"हरामज़ादे की टेंटिया खींच लूँ बाहर, जी तो ऐसा करे है!" बोला वो,
"धीरज धरो!" कहा मैंने,
"हाँ, उसी इंतज़ार में हूँ!" बोला वो,
"देखते जाओ तुम!" बोला मैं,
ब्रह्म जी, हमारी बातों को गौर से सुन रहे थे, यकीन करें या न करें, इस उहापोह में पड़े थे, बीच बीच में कभी मुझ पर, कभी जीवेश पर नज़र डाल लेते थे!
तो हम वापिस आ गए! जगह का निर्धारण हो चुका था, अब कुछ सामान आदि की व्यवस्था की जानी थी, तपन नाथ सरभंग था, वो अपनी सरभंग-क्रिया को बलशाली करने हेतु, अथक प्रयास करता! हमें भी कुछ विशेष शक्तियों का आह्वान करने के लिए, कुछ सामान की आवश्यकता पड़नी थी! इसमें कुछ हाथ की अस्थियां, कुछ मेरु-दंड के टुकड़े, कुछ टखने की हड्डियों की अस्थियां थीं, और कुछ 'जीता' सामान भी था! ये सामान 'पेठा' 'घौकट' और 'टिंडी' थी! ये सामान आवश्यक था बहुत! इनके बिना, किसी भी, विशेष शक्ति का आह्वान, असम्भव ही था! ये तीनों वस्तुएं, किसी भी सरभंग की शक्तियों का सामना, क्षीण करने में सहायक हुआ करती हैं!
रात का समय था, नौ बज रहे थे, विनोद ने, अच्छा सा बिलायती पानी, का प्रबन्ध कर दिया था! साथ में, मेढ़े का मसालेदार भोजन भी था, उसका शोरबा बेहद ही लज़ीज़ और ज़ायकेदार था! आज विनोद हमारे संग ही बैठा था, जीवेश ने बिठा लिया था!
"यार विनोद?'' बोला जीवेश,
''हाँ?" कहा उसने,
"ये तपन नाथ? क्या है, सच बता?" बोला वो,
"है तो सही!" बोला वो,
"क्या अच्छा खिलाड़ी है?" पूछा उसने,
"हाँ, अच्छा ही है!" बोला वो,
"क्या खासियत है?" पूछा उस से,
"खासियत?" बोला विनोद,
"हाँ?" कहा उसने,
"वो खुद तो लड़ता नहीं!" बोला वो,
"क्या मतलब?" पूछा मैंने,
"हाँ जी!" बोला वो,
और एक चम्मच शोरबा लिया उसने!
"हाँ, खुद नहीं लड़ता!" बोला वो,
"फिर?" पूछा जीवेश ने,
"उसके साथी ही लड़ते हैं, वो निर्देश देता है!" बोला वो,
"वही हुआ, लड़ना!" कहा मैंने,
"नहीं!" बोला वो,
"क्या नहीं?" पूछा मैंने,
"आप देख लेना, खुद ही!" बोला वो,
"देखना तो है ही!" कहा उसने,
"देखना, कैसे एक के बाद एक आता है उसका साथी!" बोला वो,
"इसका मतलब वहाँ और भी होंगे?" पूछा मैंने,
"आपको पता नहीं?" बोला वो,
"क्या?" पूछा जीवेश ने,
"कई औघड़ तो आ भी चुके हैं उसके पास!" बोला वो,
"सरभंग!" कहा मैंने,
"हाँ, वही, सरभंग!" बोला वो,
"एक बता बताऊं?" जीवेश ने कहा,
"हाँ?" बोला वो,
"अब ये तपन नाथ बचे नहीं!" बोला जीवेश,
"बहुत भला करोगे आप!" बोला वो,
"कैसे?" पूछा उसने,
"इसने आतंक काट रखा है!" बोला वो,
"कैसा आतंक?" पूछा उसने,
"ये नेता टाइप लोगों के लिए तांत्रिक-क्रिया करता है, बदले में मोटी रकम मिलती है, उसी का ही घमण्ड है, इसने बड़े बर्बाद किये लोग!" बोला वो,
"वो डेरा, जहां ये रहता है?" बोला जीवेश,
"मार दिया उस बाबा को इसने!" बोला वो,
"कैसे?" पूछा मैंने,
"ये तो नहीं पता, शायद, दवा-दारु नहीं करवाई थी उस बाबा की!" बोला वो,
"बड़ा ही हरामी आदमी है?" बोला जीवेश,
"पता करना, ये तो कुछ भी नहीं!" बोला वो,
"कैसे?" पूछा मैंने,
"अब सुनी ही है मैंने तो, कहते हैं इसने, कई नरबलियां चढाई हैं अपनी देवी को, पता नहीं क्या क्या सिद्धि ली है?" बोला वो,
"समझ गया!" कहा मैंने,
"हो सकता है!" कहा जीवेश ने,
"इसका अंत ज़रूरी है करना!" बोला वो,
"देखो तुम!" कहा मैंने,
"बहुत आशीष देंगे आपको!" बोला वो,
मानता हूँ, लोग दो की चार और चार की आठ बनाकर बताते हैं, सुनाते हैं, लेकिन ये तो सच था, ये तपन नाथ सच में ही साधक के नाम पर कलंक तो था ही! और अंत, सभी का आता है! कोई अछूता नहीं इस से! बड़े बड़े काल के गाल में समा गए, ये तो था क्या!
"अमावस के रोज न?" बोला वो,
"हाँ, परसों ही!" कहा मैंने,
तभी दरवाज़े पर दस्तक हुई, हमने देखा और...............!!
पीछे देखा, तो ब्रह्म जी थे! कमाल की बात थी! वे यहां तक चले आये थे! शायद कुछ कहना या सुनना बाकी रह गया हो!
"आइये!" कहा मैंने,
"आ रहा हूँ!" बोले वो,
आ गए अंदर,
"बैठो!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो, और बैठ गए!
"अरे विनोद?" बोले वो,
"हाँ जी?" कहा विनोद ने,
"भगोने में भर ला?" बोले वो, शोरबे को देखते हुए!
"अभी तो है?" कहा मैंने,
"कुछ भी नहीं ये!" बोले वो,
"लाता हूँ!" बोला विनोद, बचा हुआ गिलास खत्म किया और पी गया, उठा फिर, और चला गया लेने!
"सुनो!" बोले ब्रह्म जी,
"हाँ जी?" कहा मैंने,
"आपको लगता होगा, सुन लो? कि मैं डरपोक हूँ, घबरा गया हूँ या उस तपन नाथ के भय का मारा हूँ, है न?" बोले वो,
"है तो यही!" बोला जीवेश!
"बेटे जीवेश! मैंने भी द्वंद लड़े हैं!" बोले वो,
"हाँ, बताया था मुझे किसी ने!" बोला वो,
"लेकिन एक द्वन्द ऐसा हुआ, कि मेरा, जी, जी ही उचट गया..." बोले वो,
"कैसा द्वन्द?" पूछा मैंने,
"ग्यारह वर्ष हो गए, मैं उस समय काशी में ही था, मेरे गुरु श्री का द्वन्द हुआ था एक सरभंग से, मैं अपने गुरु के संग ही था, वे लड़ते रहे, लड़ते रहे, लेकिन पर नहीं पड़ी, उनकी देह, फट गयी...मेरे सामने ही...मैंने, घबरा कर, ना कर दी...उस दिन के बाद से, कभी नहीं लड़ा द्वंद..और ये तपन नाथ? ये तो और भी अधिक क्रूर है जीवेश!" बोले वो,
"ब्रह्म जी?" कहा मैंने,
"हाँ?" बोले वो,
"आपके गुरु श्री का अंत द्वंद में हुआ, सुन कर, दुःख हुआ, शिष्य पर क्या गुजरती है, समझ सकता हूँ!" कहा मैंने,
"हाँ, बहुत बुरी" बोले वो,
''और ये कि वो सरभंग था, और उस सरभंग ने एक औघड़ के प्राण लिए, ये सुन, मुझे क्रोध भी आया, क्रोध आपके गुरु श्री पर, कि उन्होंने उस सरभंग की पूंछ नहीं देखी!" कहा मैंने,
"पता नहीं जी..." बोले वो,
तभी भगोना भर कर ले आया विनोद, परोस दिया माल हमारे बर्तनों में ही! और बैठ गया!
"रही बात इस तपन नाथ की!" कहा मैंने,
"हाँ?" बोले वो,
''तो समझो, इस तपन नाथ का ये अंतिम द्वंद है!" बोला मैं,
"ताऊ जी! आप चाहो, तो बैठो हमारे संग! मैं इन के गुरु श्री से मिल कर आया हूँ, सामर्थ्य क्या होता है, ये तो देखना आप बाबा बोड़ा के सामने! चूँकि, हमें आदेश है, इस तपन नाथ को धराशायी करने का!" कहा मैंने,
"ये, आपके गुरु श्री, हैं कहाँ?" पूछा उन्होंने,
"वहीँ, काशी के पास!" बोला जीवेश,
"मैंने नहीं देखे कभी!" बोले वो,
"आप तो यहीं के हो कर रह गए!" कहा मैंने,
"यही बात है!" बोले वो,
"शायद, मन में भय भर गया है!" कहा मैंने,
"कह सकते हो!" बोले वो,
"लो, ये लो!" कहा मैंने,
और भरा हुआ गिलास उनकी तरफ कर दिया!
"एक बात कहूँ?" बोले वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"मेरा कुछ पुराना सामान रखा है मेरे पास!" बोले वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"सबकुछ है!" बोले वो,
"तो?" कहा मैंने,
"जो काम आये, देख लो?" बोले वो,
"कहाँ रखा है?" पूछा मैंने,
"यहीं!" बोले वो,
"दिखा देना कल!" कहा मैंने,
"हाँ, देख लो!" बोले वो,
"कुछ ख़ास है?" बोला जीवेश,
"हाँ, है!" बोले वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"सिंगी!" बोले वो,
"किसकी?" पूछा मैंने,
"पशुपतिनाथ की!" बोले वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"हाँ, सच में!" बोले वो,
"कहाँ से मिली?" पूछा मैंने,
"अपने गुरु श्री से!" बोले वो,
"तब हम नहीं ले सकते!" बोला जीवेश,
"अब मेरे किस काम की?" बोले वो,
''रख लो, गुरु जी का आशीष है!" कहा मैंने,
"एक बार फिर भी, देख लेना!" बोले वो,
"हाँ, अवश्य ही!" कहा मैंने,
"और कोई सेवा हो, तो बताइये?" बोले वो,
"और कुछ नहीं, शेष आप जानते ही हो!" कहा मैंने,
"वो सब मिल जाएगा!" बोले वो,
"अरे हाँ!" कहा मैंने,
"बोलिये?" बोले वो,
"क्या आप संग रहोगे?" पूछा मैंने,
"नहीं जी!" बोले वो,
"यही पूछना था!" कहा मैंने,
वे उठे, और चले गए बाहर, जी में कुछ बोझ सा था उनके, अभी भी खुल कर कुछ न कह सके थे!
"ये तो ऐसे ही हैं!" बोला विनोद,
"पता नहीं, क्या बात है!" कहा मैंने,
"आप अपना ध्यान वहीँ लगाओ बस!" बोला वो,
"हाँ विनोद!" कहा मैंने,
तो उस रात, हम खा-पी कर सो गए, कल सुबह से, बस उसी द्वंद की तैयारी में लगना था! कुछ कार्य करने थे, कुछ पूजन, कुछ विद्या-संचरण और कुछ, शक्ति-जागरण आदि! कल एक भोग भी लगाना था अपने ईष्ट को, उनका आशीष मिलता और गुरु श्री की छाया तो फिर कैसा भय और कैसी माया!
अगले दिन...करीब दस बजे, हम ब्रह्म जी के पास चले, वे अपने कक्ष में ही थे, हमें देखा तो प्रसन्न हुए, और मुस्कुरा कर, प्रणाम स्वीकार की!
"ब्रह्म जी?" कहा मैंने,
''हाँ?" बोले वो,
"वो सामान दिखाइए?" कहा मैंने,
"हाँ, बैठो, आया मैं अभी!" बोले वो,
"सामान यहां लाओगे?' पूछा जीवेश ने,
"अरे नहीं, ये तो कुछ और काम है, आता हूँ!" बोले वो, और चले गए वहाँ से!
"हमारे लिए क्या मिलेगा?" पूछा जीवेश ने,
"देखते हैं!" कहा मैंने,
"बल-बट्टा तो सब है अपने पास?" बोला वो,
"कुछ हो काम का!" कहा मैंने,
"वो सिंगी?" पूछा उसने,
"हमारी सिद्ध नहीं तो किसी काम की नहीं वो!" कहा मैंने,
"चलो, देख लो!" बोला वो,
कुछ ही देर में वे आ गए, बैठे, कुछ कागज़ से रखे एक जगह,
"आओ!" बोले वो,
"चलो!" कहा मैंने,
हम चल दिए उनके साथ, एक जगह, कुछ कक्ष बने थे, इन्हीं में से एक में ताला पड़ा था, वो खोला उन्होंने, और वे अंदर गए!
"आओ?" बोले वो,
"चलो!" कहा मैंने,
उन्होंने एक बड़ा सा ट्रंक खोला और एक पोटली निकाली! धूल जमी थी, साफ़ की, और खोली फिर! मालाएं, चाक़ू, कटोरियां, सूखे से फूल, वस्त्र से, और कुछ चुटीले मिले!
"यही है?" पूछा मैंने,
"रुको!" बोले वो,
"हाँ?" कहा मैंने,
"इसमें कुछ काम का नहीं?" बोले वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"अच्छा, ये देखो फिर!" बोले वो,
और निकाल लिया एक बोरा बाहर, मुंह बंधा था उसका कपड़े से, वो खोला उन्होंने और एक जगह रख दिया! हाथ डाला और एक कपाल निकाल लिया! फिर दूसरा, फिर छोटा सा कपाल और कुछ चमकती हुईं अस्थियां!
"ये?" बोले वो,
"वो कपाल दिखाओ?" कहा मैंने,
उन्होंने वो कपाल दे दिया मुझे, वो, जो आधा पीले और आधा सफेद सा था, उसके दांत अभी तक साबुत थे! जोड़ की हड्डियां भी बड़ी मज़बूत थीं! हाँ, आँख की बायीं कोटर में, एक ऊपर की तरफ, निशान था, कटे का, शायद जीते हुए, उसको चोट लगी हो उधर!
"ये कितना पुराना है?" पूछा मैंने,
"पता नहीं!" बोले वो,
"किसका था?" पूछा मैंने,
"मतलब?" पूछा उन्होंने,
"किसके पास रहता था?" पूछा मैंने,
"मेरे ही!" बोले वो,
"क्या बलाता है ये?" पूछा मैंने,
"मैंने मसान भी नहीं उठाया इस से!" बोले वो,
''तब रख दो!" कहा मैंने,
"क्यों?" बोले वो,
"फट जाएगा ये!" कहा मैंने,
"नहीं! मज़बूत है!" बोले वो,
"इसके धागे खुल जाएंगे!" कहा मैंने,
"देख लो?" बोले वो,
"नहीं काम का!" कहा मैंने,
"बस, यही सब है!" बोले वो,
''और वो सिंगी?" बोला जीवेश,
"इन्होंने मना तो किया था?" बोला वो,
"हाँ, रहने दो!" कहा मैंने,
तो हम लौट आये वापिस, उनसे हमने क्रिया-स्थल का ताला खुलवा लिया था, ये लंबा-चौड़ा सा स्थान था, यहां मिट्टी से लीपा हुआ था, आंगन भी, ये मिट्टी का बना ही कक्ष था! दोनों तरफ की छानें उठी हुई थीं, यहां से धुंआ निकल सकता था, वे भी हमारे ही साथ थे!
"एक काम करें?" कहा मैंने,
"हाँ?" बोले वो,
"इसकी सफाई करवा दें!" कहा मैंने,
"हाँ, अभी!" बोले वो,
"वो छान पर कुछ जाले से हैं, वे भी हटवा दें, फिर, इस जगह पर, कपूर और लौंग का धूना जलवा दें!" कहा मैंने,
"करवा देता हूँ!" बोले वो,
"एक घण्टे बाद आते हैं देखने!" कहा मैंने,
"हाँ, अभी करवाता हूँ!" बोले वो,
और हम बाहर आ गए, जगह तो ठीक ही थी, धूनी, रेजा, खवांच आदि सही से बनी हुई थीं! एक आगे की तरफ और एक पीछे की तरफ!
"जगह तो ठीक है!" कहा मैंने,
'हाँ, ठीक ही है!" बोला वो,
"यहां आज बहुत सा काम होगा!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोला वो,
"सबसे पहले, उसको 'राजी' भिजवानी है!" बोला मैं, हंसते हुए!
"इसी में बावरा हो उठेगा ** * **!!!" बोला वो, हंसते हुए ही,
"हाँ, देखते हैं!" कहा मैंने,
"देखना, पकड़ भी नहीं पायेगा!" बोला वो,
"देखते हैं आज!" कहा मैंने,
"आओ बाहर चलें!" बोला वो,
"कहाँ?" पूछा मैंने,
"टहल कर आते हैं?" बोला वो,
"रहने दो, कक्ष में चलते हैं, सामान आदि देख लेते हैं!" कहा मैंने,
"वो तो ले ही चलेंगे!" बोला वो,
"तब चलो फिर!" कहा मैंने,
और हम टहलते हुए, बाहर आ गए! बाहर अच्छी सी रौनक थी, थैली पर प्लास्टिक का सामान बेक़ने वाला आवाज़ लगा रहा था, एक आदमी साइकिल पर कुछ गठरी सी रख, धीरे धीरे आगे चला जा रहा था! वहीँ एक पेड़ के पास, जाक, उस थड़ी पर हम बैठ गए! यहां साधू लोग गुजर रहे थे, जोगनेन भी, और कुछ औरतें भी, ये आसपास के गाँव-देहात की ही होंगी, और कुछ लोग भी जो, बस खाली बैठ, दिन को धक्का दे रहे थे!
तभी एक साइकिल रुकी उधर, उस पर एक आदमी, टोकरे पर कपड़ा ढके कुछ बेक़ने निकला था, थक गया होगा, उतरा, और साइकिल उस थड़ी के साथ लगा दी,
"देखना ज़रा!" बोला वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
चला गया एक तरफ, थोड़ी देर में ही लौट आया, शायद पानी पी कर आया था वहां से, अंगोछे से मुंह पोंछता चला आ रहा था!
"क्या बेक रहे हो?" बोला मैं,
"जामुन हैं!" बोला वो,
"इस मौसम में?" पूछा मैंने,
"आखिर के हैं जी!" बोला वो,
"मीठे भी हैं?" बोला जीवेश,
"खा के देख लो!" बोला वो, और दो-दो जामुन दे दिए हमें, गोला जामुन थे, वाक़ई में मीठे थे!
"मीठे हैं?" पूछा उसने,
"हाँ, पाँव भर दो!" बोला जीवेश.
उसने पाँव भर तोले, अब राम जाने उसका तराजू असली तुलाई करता था या नहीं, तराजू उसका वो, उम्र में अब बूढ़ा हो चुका था! उस कि रस्सी ज़रूर बदल दी गयी थीं! वहीँ कहावत, बूढ़ी घोड़ी, लाल लग़ाम!
उसने तोल कर, एक बड़े से पत्ते का दोना बनाया और दे दिया हमें, मसाला मिला कर!
"यहीं के हो?" पूछा जीवेश ने,
"हाँ जी, पार का!" बोला वो,
"अच्छा, गंगा-पार!" बोला मैं,
"हाँ जी!" बोला वो,
"ये तो अब खत्म हो जाएंगे, फिर?" पूछा मैंने,
"फिर देखेंगे कुछ और!" बोला वो,
"खेती तो होगी?" पूछा जीवेश ने,
"थोड़ी बहुत है!" बोला वो,
"बढ़िया है!" कहा मैंने,
"और तोलूं?" पूछा उसने,
"ना!" कहा मैंने,
"ले लो?" बोला वो,
"अरे नहीं यार!" बोला जीवेश!
हम उठे और उसको पैसे दिए, खुश हो गया वो, और हम अंदर चले आये, हाथ धोये, मुंह धोया, लेकिन जीभ, नीली की नीली!
"कमरे में चलते हैं!" कहा मैंने,
तभी नज़र आया विनोद, हाथ हिलाया उसने!
"हाँ?" बोला जीवेश,
"देख आओ? साफ़ कर दिया!" बोला वो,
"अच्छा, जाएंगे अभी!" बोला वो,
और हम चल दिए अपने कक्ष के लिए, अब यहां से सामान निकालना था, कुछ आवश्यक सा सामान और कुछ रख देना था, ज़रूरत के लिए, कल उसकी ज़रूरत तो पड़नी ही थी!
तो हम कमरे में आ गए, अपने बैग्स निकाल लिए, बैग में कुछ सामान था और कुछ यहां से लेना था, ये ऐसा सामान होता है कि इसको ले जाकर, साथ नहीं, ले जाया जा सकता! भारी भी और जगह घेरने वाला भी! तो हमने उस दिन इस्तेमाल होने वाला सामान निकाल कर, सँजो कर रख लिया, उसने अपना और मैंने अपना!
"अब स्नान हो आएं?" पूछा उसने,
"हाँ, ये तो है ही!" कहा मैंने,
"मैं आता हूँ फिर!" बोला वो,
"ठीक है, यहीं हूँ मैं!" कहा मैंने,
वो चला गया, मैंने भी अपने पूजा के वस्त्र निकाल लिए थे, आज शक्ति-जागरण करना था, ये सबसे आवश्यक था! मन्त्र कंठस्थ तो थे परन्तु उच्चारण स्पष्ट हो, इसके लिए, ये जागरण किया जाता है! मैंने कुछ देर इंतज़ार किया और तभी आ गया वो स्नान करके!
"आओ, मैं आया!" बोला मैं,
"हाँ!" बोला वो,
और मैं चला गया फिर, कुछ ही देर बाद वापिस आ गया मैं! अब उठाया हमने अपना अपना सामान और चल पड़े उधर के लिए! जा पहुंचे, जगह एकदम साफ़ कर दी गयी थी!
"ये अच्छा किया!" कहा मैंने,
"हाँ, अच्छा सुनो?" बोला वो,
"बोलो?" कहा मैंने,
"धूनी यहां ठीक?" बोला वो,
"हाँ, ठीक है!" कहा मैंने,
"यहां से आमने सामने हो जाएंगे!" बोला वो,
"ठीक!" कहा मैंने,
और हमने अपने अपना स्थान सम्भाले, अलख उठा ली, अलख-नमन कर, सामग्री वहीँ रख दी, जब भी आवश्यकता पड़ती, उसको झोंक देते! अलख-नमन किया, गुरु-नमन एवं स्थान-नमन! फिर, ईष्ट-नमन! और तब, अलख में भर्रा के ईंधन झोंका!
"भुवनेश्वरी!" कहा मैंने,
''अवश्य!" बोला वो,
और हम अब मन ही मन, मंत्रोच्चारण आरंभ कर, अब जागरण में लगे! माँ भुवनेश्वरी की कई सहोदरियाँ हैं, जिनका आह्वान किया जाता है, ये अभय-दान प्रदान किया करती हैं, रक्षण कार्य करती हैं! रक्षण-भेदन के लिए, इनको मोड़ना पड़ता है! उसमे, उस से प्रभावी शक्ति से प्रार्थना कर, भेदन कार्य किया जाता है! तो हमें इस कार्य में, कुल चालीस मिनट लग गए! तदोपरान्त, अलख के आसपास, एक घेरा खींच दिया चाक़ू की धार से! और चाक़ू को, उस घेरे के अंदर गाड़ दिया!
और इस प्रकार, हम शक्ति-जागरण करते चले गए! तीन घण्टों के बाद हम उठ गए! मौन धारण किये ही रहे, द्वित्य पंक्ति में आने के लिए, ये आवश्यक होता है! और वही हमने किया भी!
"कुंजिका!" कहा मैंने,
"अवश्य!" बोला वो,
और फिर से हम ध्यानमग्न हो गए! इस बार, ये ध्यान अधिक गहरा था, अलख में ईंधन, समय के अनुसार ही पड़ता रहा! और इस प्रकार, आह्वान-कुंजिका भी पूर्ण कर ली!
"स्व-रक्षण!" कहा मैंने, इस प्रकार नौ रक्षण किये हमने! और उस दिन का कार्य पूर्ण कर लिया! शेष सामग्री वहीँ छोड़ दी, अलख को वहीँ छोड़ दिया प्रणाम करने के बाद!
"आओ जीवेश!" कहा मैंने,
"हाँ, चलिए!" बोला वो,
हम कक्ष तक आये, और मैं स्नान करने चला गया! पूजन-वस्त्र धोये, और लौट आया , फिर दूसरे वस्त्र पहन लिए!
जीवेश भी गया और कुछ समय बाद वो भी लौट आया, वस्त्र पहने, फिर कुछ देर लेट कर आराम किया!
"शेष कल?" बोला वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"एक बात बताओ?" बोला वो,
"क्या?" बोला मैं,
"त्रिहिला सहोदरी को, मैंने दो स्थानों पार पाया है!" बोला वो,
"एक महाकाली की और एक वराही की, अंतर क्या?" पूछा उसने,
"अच्छा प्रश्न किया!" बोला मैं,
"मैं अटका हुआ हूँ!" बोला वो,
"वराही की सहोदरी, यमघण्टा है प्रधान! ये यमघण्टा वराही के संग ही विचरण करती है! महाकाली के दो रूप हैं, एक भद्र रूपी और एक हन्तक रूपी! चूँकि वराही, हन्तक है, तब ये त्रिहिला सहोदरी, हन्तक-कालिका के संग वास करती है! मूल रूप से, शिव-जटा की, हंगम-वाहिनि है ये त्रिहिला!" कहा मैंने,
"और वाम-चन्द्र?" बोला वो,
"ये अधोमुखी है!" कहा मैंने,
"अर्थात?" बोला वो,
"छाया-गामिनि!" कहा मैंने,
"अब समझा!" बोला वो,
"माँ भैरवी का चन्द्र-भाल, हस्तांगुल अलोलुख होता है! अर्थात, उसकी आभा श्मशान में चौगुनी होती है!" कहा मैंने,
"समझ गया!" बोला वो,
''महाविक्राल नाम है उस चन्द्र-शक्ति का! ये चन्द्र, सभी, वेताल-शक्ति के सूचक हैं!" कहा मैंने,
"ये तो ज्ञात है!" बोला वो,
"वीर वेतालों द्वारा सेवित हैं माँ भैरवी!" कहा मैंने,
"हाँ, श्मशानाङ्गिका-कौलुहिकी!" बोला वो,
"हाँ, यही रूप है उनका!" कहा मैंने,
रात को हमने कुछ नहीं किया था, अगली रात ही बहुत कुछ करना था, कल की सुबह से शाम तक, बस तैयारियां ही थीं, छह बजे करीब हमें उस स्थान पर भी पहुँच जाना था, इस बारे में ब्रह्म जी को बता ही दिया गया था! उस रात हमने कोई भी, किसी तरह की भी शंका आदि मन में नहीं रखी! बस, कल किसी उपयुक्त से समय पर, 'राजी' भेज देनी थी! मुझे यूँ लगता था कि तपन नाथ ने हमें हल्के से ही लिया होगा! सोचा होगा, कि जब बड़े बड़े उसके सामने धूल फांक गए तो हमारी बिसात ही क्या! अच्छा था, वो इसी मुग़ालते में रहता! कल होना क्या था, ये तो वो खुद ही जान जाता! उस रात हम विनोद के संग ही, फिर से मदिरा से जोड़-तोड़ कर रहे थे! आज भी बढ़िया ज़ायकेदार मसालेदार सामान बनाया गया था उधर, अच्छी खासी तादाद में, विनोद ले आया था और हम, आनंद में डूबे हुए थे!
"क्या बोड़ा बाबा आ गए होंगे?" बोला जीवेश,
"सम्भव है!" कहा मैंने,
"तब तो वो वहीँ होंगे अभी?" बोला वो,
"हाँ, ये भी सम्भव है!" कहा मैंने,
"और तब, उन्हें हमारी सभी खबर मिल रही होगी?'' बोला वो,
"नहीं! बताया तो था?" कहा मैंने,
"अच्छा, वो स्थिर कर दी थी!" बोला वो,
''हाँ!" कहा मैंने,
"यदि स्थिर की, तो बोड़ा बाबा को तो ये ज्ञात ही होगा?'' बोला वो,
"हाँ, सम्भव है!" कहा मैंने,
"तब हमारे से दो क़दम आगे न चलेंगे वो?" बोला वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"वो क्यों?" पूछा मैंने,
"वो इसलिए कि, बाबा उस की रक्षा करेंगे, ठीक?" बोला मैं,
"हाँ?" बोला वो,
"कब?" पूछा मैंने,
"कब क्या?'' पूछा उसने,
"मतलब कब रक्षा करेंगे?" पूछा मैंने,
"जब उसकी जान पर बनेगी!" बोला वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"और मैं क्या कह रहा हूँ?" बोला वो,
"यही कि सरंक्षण मिलेगा!" कहा मैंने,
"यही, हाँ!" बोला वो,
"नहीं, बाबा बोड़ा शायद आएंगे भी बाद में!" कहा मैंने,
"हाँ, लगता है!" बोला वो,
"पहले, ये ज़ोर-आजमाइश करेगा!" कहा मैंने,
"हाँ!" कहा उसने,
"करने दो, देखते हैं!" कहा मैंने,
"कल तो देखेंगे ही!" बोला वो,
"और विनोद?" बोला मैं,
"जी?'' बोला वो,
"कुछ कहना है?" पूछा मैंने,
"नहीं जी!" बोला वो,
"क्या लगता है तुझे?" पूछा मैंने,
"क्या?" पूछा उसने,
"कल, इस तपन नाथ का?" पूछा मैंने,
"ये तो कैसे भी गिर जाएगा, लें टकराएगा ज़रूर!" बोला वो,
"टकराये फिर!" बोला जीवेश,
"और क्या!" कहा मैंने,
"आप लौट आओ राजी-ख़ुशी, और क्या चाहिए!" बोला वो,
"आएंगे!" कहा मैंने,
"ज़रूर आएंगे!" कहा जीवेश ने,
तभी बाहर , आवाज़ हुई, ये ब्रह्म जी थे, वे भी बेचैन ही थे, पल पल पता नहीं किस चिंता में पड़े दे घुल रहे थे!
"आ जाओ!" कहा मैंने,
"आ गया!" बोले वो,
"बैठो!" कहा मैंने,
"लो जी!" बोले वो,
"कह दिया गाड़ी के लिए?'' पूछा मैंने,
"हाँ, पांच बजे आ जाएगा!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"और कुछ?" बोले वो,
"नहीं!" कहा मैनें,
"बताये देता हूँ!" बोले वो,
"क्या?'' पूछा मैंने,
"एक बार बोड़ा बाबा आरम्भ हुए, तो कोई नहीं उठ सका फिर! या तो क्षमा मांग लेना, या गलती मान लेना!" बोले वो,
"ताऊ जी? बस! अब बस! हमें न सिखाओ आप! क्या करना है और क्या नहीं, ये हम जानें, या तो सुरक्षित लौटेंगे या फिर लौट ही नहीं पाएंगे! अब जो होगा, सो तो होगा, आपकी राय बहुत सुन ली, एक बार भी ये नहीं कहा कि तपन नाथ का बुरा हाल होगा? आपने तो उसे भगवान, अपराजेय बना दिया? आप जैसे लोगों ने ही उसको ये घमण्ड चढ़वाया है! आप देखना उसका हाल! न कर पाया तो जीवन भी अपना चेहरा नहीं दिखाऊंगा आपको! अब जो भी बोलो, अपने तक ही बोलो, इस द्वन्द, परिणाम, बाबा आदि के बारे में भूल जाओ, लगाओ माथे चन्दन और जाओ पूजा करने!" बोला अब गुस्से में भरकर जीवेश!
अपना सा मुंह लेके रह गए वो! हाथ ही काँप उठे उनके तो! कुछ बोले न बन पड़ा! नज़रें भी न मिला सके!
"ब्रह्म जी! मानता हूँ आपकी चिंता करने का आपके पास उचित कारण है! और ये भी कि आप नहीं चाहते कि हमारा कुछ बुरा ही हो! परन्तु, अब चूँकि मैं कोई सिद्धहस्त ज्योतिषी नहीं हूँ, जो गुणा-भाग कर आकंलन करे, न ही कोई भविष्यवक्ता ही, जो आगे की घटना का शत-प्रतिशत सही अनुमान लगाए! मैं उन शक्तियों के कारण ही आपको ये विश्वास दिलाता हूँ कि तपन नाथ का क्या अंत होगा, ये आपको परसों सुबह का सूर्य बता देगा! रही बात बाबा बोड़ा की, तो हमारा द्वन्द उनसे है ही नहीं और ये बात, स्वयं बाबा बोड़ा भी जान ही गए होंगे! क्या उचित है और क्या अनुचित, ये वे आदरणीय व वयोवृद्ध औघड़ बाबा बोड़ा भली-भांति जानते हैं! हमें, बाबा बोड़ा से कोई भय नहीं!" कहा मैंने,
"समझे ताऊ जी?" बोला जीवेश,
"मैं सब समझता हूँ, सब जानता हूँ, ये भी कि तपन नाथ का मार्ग गलत है, ये भी कि दुराचारी का अंत अवश्य ही होता है! सब जानता हूँ परन्तु, भयभीत भी हूँ!" बोले वो,
''आप न होयें भयभीत!" कहा मैंने,
"जानता हूँ!" बोले वो,
उनको समझाने में, हम चाहे लाख दलीलें देते, लेकिन उनका मन, अशांत ही था, उसमे शान्ति तभी पड़ती जब वो इस तपन नाथ का अंत या बुरा हश्र देख लेते! इसीलिए, जितना वो समझ सकते थे, समझाया गया, जितना जान सकते थे, बताया गया! और करीब साढ़े ग्यारह बजे करीब, हमने भोजन आदि करके, कुछ अनुनय सा करते हुए, अपने गुरु श्री से, मन ही मन, सोने के लिए चले गए!
अगले दिन, कोई दस बजे, मैंने जीवेश को कुछ समझाया और उसको संग ले, चल पड़ा क्रिया-स्थल की तरफ! वहाँ पहुंचे और उसे, धूनी जलाने को कहा!
"ये ठीक है?" बोला वो,
"हाँ, बस पांच मिनट का ही काम है!" कहा मैंने,
''अच्छा, समझा!" बोले मुस्कुराते हुए वो!
"हाँ, सही समझे!" कहा मैंने,
जब धूनी जम गयी तब मैंने कुछ निकाला जेब से, मुट्ठी में रख उस धूनी के ऊपर सात बार हाथ फेर, मन्त्र पढ़ा, और फेंक दिया नीचे वो सामान! और देखा उसने! वो सामान गिरा नीचे और जैसे ही गिरा, एक तरफ जा लगा! मेरे चेहरे पर गम्भीरता ने अब स्थान लिया!
"क्या हुआ?'' पूछा उसने,
"राजी, लौट आयी!" कहा मैंने,
"क्या?'' बोला वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"लौट आयी?" बोला हैरान सा!
"हाँ, लौट आयी!" कहा मैंने,
"इसका अर्थ हुआ कि वे आ पहुंचे?" बोला वो,
"सम्भवतः हाँ!" कहा मैंने,
"तो इसमें संशय ही नहीं!" बोला वो,
"हाँ, संशय तो नहीं है!" कहा मैंने,
"अब?" बोला वो,
"रुको!" कहा मैंने,
और फिर से वो टुकड़े उठाये, फिर से मन्त्र पढ़ा और फिर से हाथ घुमा, फिर से बिखेरे! इस बार अलग अलग!
"गयी!" कहा मैंने,
"गयी न?'' बोला वो,
"हाँ, गयी!" कहा मैंने,
"पहले क्यों नहीं गयी?'' पूछा उसने,
"शायद, रुकी!" बोला मैं,
"रोकी गयी!" कहा उसने,
"हाँ!" कहा मैंने,
"अब फूंक लगी!" बोला वो,
"यही हुआ है!" कहा मैंने,
"तो सब मुस्तैद हैं!" बोला वो,
"दोनों ही तरफ!" कहा मैंने,
"ये ही हो रहा है!" बोला उसने,
''आओ!" कहा मैंने,
और वे टुकड़े उठा लिए, लौट पड़े हम वापिस!
"कहाँ?'' पूछा उसने,
"ब्रह्म जी के पास!" कहा मैंने,
"कोई काम?" पूछा उसने,
"नहीं तो, ख़ास नहीं?" कहा मैंने,
"फिर क्या जाना?" बोला वो,
"चलते हैं न?'' बोला मैं,
"वो फिर से काँप रहे होंगे!" बोला वो,
"कुछ काम है!" कहा मैंने,
"फिर ठीक!" बोला वो,
हम पहुंच गए उनके पास, अकेले ही बैठे थे, हमें देखा तो खड़े हो गए! प्रणाम की उनसे!
"ब्रह्म जी?'' बोला मैं,
"हाँ?" कहा उन्होंने,
"हम जब चले जाएँ यहां से, तो ये जगह 'साफ़' कर देना!" कहा मैंने,
"समझ गया, करवा दूंगा!" बोले वो,
"हम पांच बजे निकल जाएंगे!" कहा जीवेश ने!
"ठीक!" बोले वो,
उस दिन एक बजे करीब मैंने, विद्याओं का संचरण कर लिया था, जीवेश ने नहीं किया था, उसे कुछ कमी लगती थी अपने निर्णय पर, वो मेरे कहे अनुसार ही ये संचालन करता! कुछ विद्याएं ऐसी थीं, जिनके बारे में मैं जीवेश को भी नहीं बता सकता था, कई ऐसी विद्याएं हैं जिनके विषय में बताया नहीं जाता, कुछ होता हो या नहीं, ये तो पता नहीं, परन्तु एक गुरु को अपने शिष्य को वो विद्या देते समय यही कहा जाता है! हाँ, जब इस विद्या को किसी योग्य साधक को देना हो, तब ये अलग बात है!
बजे चार, हमने सभी तैयारियां कर ली थीं और सामान आदि सब बाँध लिया था, रही बात त्रिशूल की, तो वो हमें यहां से मिल जाता, बाकी सामान हमारे पास था ही! ठीक साढ़े चार बजे मैंने सूचना दी, श्री श्री श्री जी के यहां और उनसे ही मेरी बात हुयी, उन्होंने कुछ नया नहीं कहा, बस इतना कि देख आरम्भ है! इतना ही कह, मेरे नदर शक्ति का जागरण हो गया था!
ठीक पांच बजे, हम निकल पड़े, गाड़ी आ गयी थी, ब्रह्म जी का चेहरा बड़ा ही रुआंसा था, लेकिन वो सब समझ में आता था! अब उन्हें हमने कुछ नहीं कहा, विनोद हमारे साथ ही चला, इस द्वन्द के दौरान उसको सामान आदि लाने की अनुमति हमने प्रदान कर दी थी, उसमे भी उत्साह भर आया था! विनोद अभी तक तो एक साधारण सा ही सहायक ही था, परन्तु उसकी हिम्मत और व्यवहार देख, मैं उसे और आगे ले जाना चाहता था, वो निःसन्देह एक सुलझा हुआ साधक अवश्य ही बनता! साधक, तंत्रज्ञ कभी माँ की कोख से जन्म नहीं लेते, जन्म लेता है शिशु, शेष उसका भाग्य और उस से अधिक उसके, कर्म आगे बढाते हैं उसे! विनोद को साधकता में प्रवीण करना, कहाँ सम्भव था, ये मैं जानता था, उसे नयी दिशा मिलती और वो, इस मार्ग में अवश्य ही तन्त्र-दीक्षित हो, मार्ग का अनुयायी हो जाता! ऐसा मेरा विश्वास था!
गाड़ी उस स्थान पर, सवा पांच बजे पहुंची, हम सीधे ही एक कक्ष में गए, यहां वो आदमी मिला, उसने अपना नाम दास बताया, अब किसका दास, ये नहीं बताया उसे सब दास ही कहते थे, सो उसने यही नाम बताया, कक्ष में ले जाकर, उसने एक नज़र सामान पर लगवाई, शराब की चार बोतल, मांस आदि सभी आवश्यकता अनुसार आ जानी थीं, सब उसकी पहुंच में ही था, विनोद से उसका परिचय करवा दिया गया था, अब विनोद ये भली-भाँती जानता था कि हमें कब और कहाँ अमुक वस्तु की आवश्यकता पड़ेगी!
"दास?" कहा मैंने,
"आदेश!" बोला वो,
"वो भूमि साफ़ करवा दी?'' पूछा मैंने,
"आओ, दिखाता हूँ!" बोला वो,
"चलो! आओ विनोद!" कहा मैंने,
और हम चल पड़े उधर, वहां पहुंचे, बढ़िया सफाई करवाई गयी थी, भूमि पर, मिट्टी अछि पड़ी थी, झाड़-झंखाड़ उखड़वा दिए गए थे, एक पन्द्रह गुणा पन्द्रह फ़ीट के आसपास की जगह साफ़ करवा दी गयी थी!
"कोई चिता है आज?'' पूछा मैंने,
"आपका नसीब है!" बोला वो,
आगे वो बोलता कुछ, इंतज़ार किया!
"आज चार आयी हैं, दो का संस्कार हो गया है, दो और लगेंगी!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
''योग्य कौन सी है?'' पूछा मैंने,
"एक है, जवान है!" बोला वो,
"ओह..." कहा मैंने,
दुःख तो होता है, पर क्या करें, ये चिताई-आवश्यकता है...
"कोई दुर्घटना है?'' पूछा मैंने,
"हाँ जी" बोला वो,
''वही ठीक है!" कहा मैंने,
"बता दूंगा!" बोला वो,
"रात नौ के आसपास ज़रूरत पड़े!" कहा मैंने,
"सब इंतज़ाम है!" बोला वो,
"और वो 'पेठा'?'' पूछा मैंने,
"सब तैयार है!" कहा उसने,
"बाकी चीज़ें?" पूछा मैंने,
"सब का सब!" बोला वो,
ब्रह्म जी ने सही काम किया था, कोई कमी न रह जाए, इसका पूरा ध्यान रखा गया था!
"भटेरी? रखनी है?'' पूछा उसने,
"नहीं, हम सरभंग नहीं!" कहा मैंने,
"फिर तो कोई बात नहीं!" कहा उसने,
भटेरी! अंगीठी सी होती है, मांस भूना जाता है इस पर रख कर, कोनों में कांटे बने होते हैं, ये सरभंग-वस्तु है!
"कक्ष वही है?" पूछा मैंने,
"नहीं जी, वो है, उधर!" बोला इशारे से,
सामने एक छोटा सा कमर पड़ा था, हमारे लिए ठीक ही था वो, हमें बस वहाँ कुछ श्रृंगार करना था, इसीलिए!
"कोई आता जाता तो नहीं वहाँ?" बोला जीवेश,
"नहीं जी!" बोला वो,
"तब ठीक है!" कहा मैंने,
"आओ, दिखा देता हूँ!" बोला दास,
''हाँ, दिखा दो, चलो!" बोला जीवेश!
