"विनोद?" कहा मैंने,
"हाँ जी?" बोला वो,
"आ जा, ले ले तू भी?" कहा मैंने,
"आप लो जी!" बोला वो,
"क्या बात है?" पूछा जीवेश ने,
"वो हैं न दो चार साथ!" बोला वो,
"अच्छा! अच्छा!" कहा उसने,
"चल फिर, कर तू भी मजे!" बोला मैं,
"और सुन?" बोला जीवेश,
"हाँ जी?" कहा उसने,
"कुछ चाहिए हो तो बताना!" बोला जीवेश,
"क्या जी!" बोला हंसते हुए!
"और क्या!" कहा जीवेश ने,
"और क्या विनोद! ले लियो!" बोला मैं,
"जी!" कहा उसने,
और जाने को हुआ, रुक गया और घूमा,
"कुछ और चाहिए तो फ़ोन कर देना!" बोला वो,
"हाँ, ज़रूर!" कहा मैंने,
वो गया, और हम शुरू हुए फिर! और ज़्यादा की ज़रूरत नहीं पड़ी, बाद में करीब पौने बढ़ बजे, हाथ-मुंह धो, कुल्ला आदि कर, सोने चले गए!
हुई सुबह, मैं और जीवेश, नहा-धो कर तैयार हुए! बाहर घूमने का मन था, तो बाहर के लिए, उस जगह से एकांत में चले! वहीँ जहां कल चले गए थे, उन पेड़ों के बीच! एकांत में व्यक्ति, अपने आप से बातें कर सकता है, प्रश्न पूछ सकता है अपने आप से, अपना आपा कदापि असत्य नहीं कहता, बस हम उसे मानते ही नहीं!
"ये करौंदे है न?'' बोला वो झाड़ियों को देख कर!
"हाँ, करौंदे ही हैं!" बोला मैं,
"खट्टा होता है बहुत!" बोला वो,
"हाँ, इसके प्रयोग जानते हो?" पूछा मैंने,
"क्या भला?'' बोला वो,
"त्वचा में खुजली हो, दाद हो, एक्ज़ीमा हो, या फोड़े-फुंसियां हो गयी हों, तो उसके फल का रस, करीब एक चम्मच, पांच चम्मच मलाई के साथ मिलाकर, लगाएं, तीन दिन में प्रभाव देखें!" कहा मैंने,
"अरे वाह!" बोला वो,
"और, अगर, इसको उबाल कर, गूदे को करीब बीस ग्राम, और तम्बाकू करीब दस ग्राम, मिलाकर तिल के तेल में मिलाकर, कुल पचास ग्राम, रात को सोने से पहले, कितना ही पुराना दर्द हो, गठिया-बाय, हवा का गुजरना, पुरानी चोट आदि का मीठा दर्द, सब का हरण कर लेता है! हाँ, मिश्रण को छान लें!" कहा मैंने,
"इस प्रकृति में सब विद्यमान है!" बोला वो,
"हाँ, और बताता हूँ! इसका गूदा छेत लें पत्थर पर, करीब पच्चीस ग्राम, इसमें, देइ लहसुन का अर्क, आधा चम्मच, मदार या एक का दूध, दस बूँदें, सरसों के तेल में जला लें, और उतार लें, ठंडा कर लें, स्वप्नदोष, नामर्दी, मसाने की गर्मी, सूखा मसाना, गुर्दे के रोग, मूत्राशय से सम्बन्धित रोग( जो खाने में प्रयोग करें तो केले के गूदे के साथ चौथाई चम्मच ये तेल लें) सभी का जड़ से नाश कर देता है! इसे गौराम्ब भी कहते हैं!" बताया मैंने,
"वाह!" बोला वो,
"राम राम जी!" आयी आवाज़, पीछे देखा, एक लड़का था!
"राम राम जी साहब!" बोला मैं,
और हम अपने रास्ते हो लिए!
"वहाँ चलते हैं!" बोला वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
और चल दिए, वहां जा पहुंचे! यहां कठफोड़वे बहुत थे, उनकी तेज तेज आवाज़ ऐसी थी कि हाथी भी भाग खड़ा हो!
"इनका मेला है क्या आज?" बोला वो,
"पता नहीं!" बोला मैं,
"बाप रे!" बोला वो,
"कहीं और चलते हैं!" कहा मैंने,
"हाँ, कहीं सर में ही कोटर न बना दें!" बोला वो,
मैं हंसता हुआ चल पड़ा उसके साथ वहाँ से! एक और जगह आ गए, यहां बड़ी बड़ी सी दूब घास लगी थी, आसपास अवश्य ही पानी था, जमा हुआ, कुछ पक्षी आ धमकते थे उधर!
"ये ठीक है!" बोला वो,
"हाँ, बैठो!" बोला मैं,
हम दोनों ही बैठ गए फिर!
"हवा अच्छी है आज!" बोला वो,
"अभी सुबह है न!" कहा मैंने,
"हाँ ये भी बात है!" बोला वो,
और मैंने चप्पल उतार दिए, रख दिए एक जगह और उधर, दूर नदी को देखने लगा!
मैं भी लेट गया था, उस प्यारी सी हवा में खुमारी भरी थी, जी कर रहा था कि लम्बे पाँव पसार, बस वहीँ ज़रा ले लूँ दो-चार झपकियां! खैर, झेली वो हवा भी! दरअसल, शान्ति, चिड़ियों की आवाज़, दूर से कहीं बह आतीं, भजन कीर्तनों की आवाज़ें उस माहौल में जड़ता भरे जा रही थीं! करीब चालीस मिनट हुए, देह भी भारी हो उठी, सुस्ती सी चढ़ने लगी! और तब, हम लौट चले! आ गए अपने कमरे में, और कुछ ही देर में विनोद चला आया, नमस्कार करि और दो चार बातें, फिर चाय पूछी, चाय के लिए हाँ कही! चाय आयी और चाय पी, साथ में कुछ पकौड़ियाँ थीं, चाय के साथ तो मजा ही अलग दिया करती हैं!
तब करीब एक घण्टे के बाद, विनोद लौटा और उसने बताया कि कोई आया है मिलने, ब्रह्म जी का बुलावा है! अंदेशा था ही, सो चल पड़े हम दोनों ही! देखें, अब क्या पेशकश आयी है!
पहुंचे वाहन, गए कक्ष के अंदर, दो आदमी थे वो, भरे-पूरे से, साधू तो नहीं लगते थे, शायद उनसे भी कुछ अधिक ही थे! माथे पर टीका लगाया था और कानों पर, बांस की पतली छिलपिन रखी हुई थी दोनों ने ही, बाएं कान के और खोपड़ी के मध्य!
"आओ!" बोले ब्रह्म जी,
"प्रणाम!" कहा मैंने,
"प्रणाम!" बोले ब्रह्म जी,
और हम बैठ गए वहीँ पर!
"तो ये हैं?" बोला एक,
"हाँ जी, यही हैं!" बोले ब्रह्म जी,
"हाँ?" बोला वो मुझ से,
"हाँ?" कहा मैंने,
"क्या बात है?" पूछा उसने,
"कोई बात नहीं?" कहा मैंने,
"जोश ज़्यादा है क्या?" बोला वो,
बड़ा ही गुस्सा आया, खा गया मैं उबाल!
"जोश?" कहा मैंने,
"हाँ, जोश! ज़्यादा है क्या?" बोला वो,
"हाँ है, तो?" बोला मैं,
"उतार दूँ?' बोला वो,
"ज़ुबान हलक़ के अंदर ही रख! और ढंग से बात कर!" बोला मैं,
ये, मेरा जवाब सुन, दोनों के ही चेहरे लाल हो उठे!
"यही जवाब होगा, जानता था!" बोला वो,
"और ** पर लात पड़ेगी अभी, ये भी जानता होगा?" बोला जीवेश!
झट से पलट कर देखा उसने जीवेश को!
"शांत! आराम से बातें करो, जो करनी है!" बोले ब्रह्म जी!
''जी ले! जी ले!" बोला वो,
"यही तुझे भी कहता हूँ!" बोला जीवेश!
"और ये ही उस तपन नाथ से कहना!" बोला मैं,
वे दोनों खिल कर हंस पड़े! खीझ मिटा रहे थे अपनी वो!
"जी भर गया क्या?" बोला वो,
"हाँ! बिलकुल भर गया! मरूँगा और मारूँगा!" बोला जीवेश!
"कहीं कुछ न करे?" बोला वो,
"कहीं यहीं ** दूँ ** तेरी?" बोला जीवेश!
दोनों एक दूसरे को देखें!
"नन्ग है तो हम से बड़ा न होगा? समझा?" बोला जीवेश!
"ऐसे नहीं बाज आने वाले?" बोला वो,
"कैसे?" पूछा मैंने,
"हाँ, अब सुन?" बोला वो,
"सुना?" बोला जीवेश,
"सुन, तू उसे जानता नहीं!" बोला वो,
"सुन, तू मुझे भी नहीं जानता!" बोला जीवेश,
"जब जान जाएगा तब मुंह सिल जाएगा तेरा!" बोला वो,
''और मुझे जान लेगा ना? तू कभी मुंह बन्द नहीं होगा तेरा!" बोला वो,
अब वे खड़े हो गए गुस्से में!
"ब्रह्म?" बोला वो,
''हाँ?" बोले वो,
"सोचा था, तू समझायेगा इन्हें, लेकिन ये तो मरने पर ही आमादा हैं! अब हम कुछ नहीं कर सकते, अब इनका अंत निकट जान!" बोला वो, दहाड़ कर!
"ओ? इधर सुन? इधर देख के बात कर! सुन! साले ****! उस तपन नाथ के! बोल दे, दिन वो चुन ले, समय वो चुन ले, जो जगह कहे बता दे! और हाँ, अब तुम जैसे ** के *** न आएं इधर अब! नहीं तो बिन मारे छोडूं न और बिन चीरे जाने न दूँ!" बोला मैं,
अब नहीं सुनी उन्होंने कुछ भी! पलटे, गुस्से में, एक बार हमें देखा, और बाहर चले, फिर रुके, और चले गए पाँव पीटते हुए दोनों ही!
"सुनिए!" कहा मैंने,
"बोलो?" बोले वो,
''आप नहीं घबराओ!" कहा मैंने,
"पता नहीं, क्या होगा?" बोले वो,
"क्या होगा?" बोला जीवेश,
"हाँ, पता नहीं" बोले वो,
"कुछ नहीं होगा!" कहा मैंने,
"पता नहीं" बोले वो,
"आप मानते क्यों नहीं?" कहा मैंने,
"क्योंकि आप जानते नहीं" बोले वो,
"क्या नहीं जानते?" पूछा मैंने,
"उसका सामर्थ्य" बोले वो,
"तो?" पूछा मैंने,
"अरे...क्षमा मांग लेते तो...." बोले वो तो मैंने बात काटी उनकी!
"क्षमा?" कहा मैंने,
"हाँ" बोले वो,
"उस तपन नाथ से?" बोला मैं,
"हाँ" कहा उन्होंने,
"एक बात कहूँ?" कहा मैंने,
"क्या?'' बोले वो,
"ये तपन नाथ का अंतिम ही द्वन्द होगा!" कहा मैंने,
"ऐसा ही हो...काश..." बोले वो,
"ऐसा ही होना है!" बोला जीवेश!
"अब अधिक समय नहीं" बोले वो,
"हाँ, सच है!" कहा मैंने,
"जो तैय्यारी करनी हो, कर लो" बोले वो,
"सो तो होगी ही!" कहा मैंने,
"आज से ही कर लो?" बोले वो,
''हाँ, आज से ही!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
और हम उठ आये वहां से, सीधे अपने कक्ष में आया मैं, एक प्रकार से रणभेरी तो बज ही चुकी थी! बस, युद्ध ही करना शेष था!
"सुनो?" कहा मैंने,
"हाँ?'' बोला वो,
"मैं अब बात करता हूँ उधर" कहा मैंने,
"श्री जी को?" बोला वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"कर लो, और कोई मार्ग नहीं!" बोला वो,
"हाँ, कोई नहीं विकल्प!" कहा मैंने,
और तब मैंने फ़ोन लगाया उधर, फ़ोन एक सहायक ने उठाया, मैंने उस से बात की, बताया अपने बारे में, पहचान गया और बताया कि श्री जी, किसी क्रिया की तैयारी में लगे हैं, करीब दो घण्टे बाद बात होगी!
"हुई बात?" पूछा उसने,
"नहीं" कहा मैंने,
"क्या हुआ?" पूछा उसने,
"किसी क्रिया की तैय्यारी में हैं!" बोला मैं,
"अच्छा, कब फिर?'' पूछा उसने,
"दो घण्टे बाद अब" कहा मैंने,
"कोई बात नहीं!" बोला वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
''वैसे क्या लगता है?" पूछा उसने,
"किस विषय में?'' पूछा मैंने,
"वे मान जाएंगे?" बोला वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"तब क्या चिंता!" बोला वो,
"उनके होते तो कोई चिंता ही नहीं!" कहा मैंने,
"तो दो घण्टे बाद?" बोला वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
दो घण्टे बड़े ही मुश्किल से कटे! चैन पड़े ही न! मन में आशंकाएं भरी थीं, कहीं कोई ऐसा प्रश्न ही न पूछ लें जिसके उत्तर में मैं कहीं हिचक जाऊं! कहीं उद्देश्य ही न पूछ लें! कोई लाभ? ऐसा न पूछा लें!
डरते हुए, मैंने फ़ोन लगाया! फ़ोन उन्होंने ही उठाया, मैंने प्रणाम-वन्दना की, और उनके पूछने पर, सारी घटना सुना दी उन्हें, वे सुनते रहे, कुछ नहीं पूछा मुझ से! बस सुनते ही रहे! न प्रतिद्वंदी का नाम ही पूछा न उन बाबा बोड़ा के विषय में मैं बता ही सका! बस इतना, कि द्वन्द-आमन्त्रण अथवा चुनौती मिलते ही, वाहन से निकल लें हम और सीधे उनके पास चले आएं! एक तरफ राहत, चैन और प्राणदान! दूसरी ओर,
प्राण सूखें! पता नहीं क्या कह दें? पता नहीं ये और वो? खैर, जो उनका आदेश हुआ, मैं तत्पर था! बता दिया था मैंने सबकुछ जीवेश को! सुनकर, वो बड़ा ही प्रसन्न हुआ! जैसे, अभी ही द्वन्द जीत लिया हो हमने!
''अब टकराएगा हमसे तो सामने, काल ही दिखेगा!" बोला वो, जोश में भर कर!
"है, एक बार नहीं, दो दो बार सोचेगा!" कहा मैंने!
वो दिन तो पूरा बीत, कोई खबर नहीं आयी! चूँकि द्वन्द की चुनौती इस तपन नाथ की थी, अतः, उसकी चुनौती को स्वीकार करना हमारा उद्देश्य ही था! अब या तो चुनौती स्वीकार करो, और द्वन्द में बैठो, या उसकी शर्तों को मान लें हम और वो, विजयी घोषित कर दे अपने आपको! अच्छा साधक, प्राण दे देगा, परन्तु, ऐसी चुनौती को लौटाएगा नहीं! मार्ग गलत हमारा नहीं था, हम दोषी नहीं थे, हमने कुछ भी किसी का अहित नहीं किया था, तपन नाथ को उसकी ही भाषा में उत्तर ही दिया था! सीमा हमने नहीं लांघी थी, उसने लांघी थी! तो अब, उद्देश्य जो था वो यही, कि उसकी चुनौती स्वीकार की जाए!
और ऐसा ही हुआ, अगले दिन, करीब दो बजे, एक महिला और एक साधू, आये उधर, हमसे मिले, और हमें सूचना दी! अब दो तिथियां उसने दी थीं, एक द्वादशी जिसमे मात्र तीन दिन थे, और एक अमावस, तो अमावस ही उचित थी! जीवेश ने कोई राय नहीं दी, उसने कोई सलाह भी नहीं दी, उसे स्वीकार था मैं जो भी करता! तो अमावस आने में छह दिन थे अभी! और इतने दिन बहुत थे अपनी तैयारी करने के लिए!
तो अमावस की तिथि निर्धारित हो गयी! ब्रह्म जी के तो प्राण सूख गए! लेकिन जीवेश ने उन्हें समझाया भी, और कहा भी कि वे अब बस हमारी मदद करें! ब्रह्म जी, मदद करने के लिए, तैयार थे ही! दरअसल, उनके पास और कोई विकल्प था ही नहीं! तो हम, अपने कक्ष में आ गए! मुझे एक प्रकार का अजीब सा सुकून मिल रहा था, बता नहीं सकता कि कैसा! ये श्री श्री श्री जी से मिलने का था या फिर, इस तपन नाथ की उस हालत को सोचकर था, जो होनी थी!
"जीवेश?" कहा मैंने,
"हाँ?" बोला वो,
"मैं इत्तला कर रहा हूँ उधर!" कहा मैंने,
"हाँ! करो!" बोला वो,
"उन्होंने यही कहा था!" कहा मैंने,
"तो देर कैसी?" बोला वो,
"अभी करता हूँ!" कहा मैंने,
और मैंने उधर फ़ोन लगाया, फ़ोन फिर से किसी सहायक ने उठाया, मैंने बात की, बताया और फिर मेरी बात श्री जी से हुई! उन्हें बता दिया मैंने कि इस अमावस को ये द्वन्द होगा! उन्होंने सारी बात सुनी, जीवेश के बारे में पूछा, और कल, वहाँ पहुँचने का आदेश दे दिया! और फ़ोन...काट दिया उन्होंने!
"क्या रहा?" पूछा उसने,
"हो गयी बात!" कहा मैंने,
"बता दिया?" पूछा उसने,
"हाँ!" कहा मैंने,
"क्या आदेश?" बोला वो,
"कल पहुंचना है उधर!" बोला मैं,
"कल?" बोला वो,
''हाँ, कल!" कहा मैंने,
"तो आज ही निकलें?" बोला वो,
"आज?" बोला वो,
"बात तो सही है!" कहा मैंने,
"सोचो फिर?" बोले वो,
"तो शाम को निकल लेते हैं!" कहा मैंने,
"बिलकुल, देर कैसी?" बोला वो,
"बात ठीक है!" कहा मैंने,
"बांधों सामान!" बोला वो,
"सामान?" बोला मैं,
"हाँ?" बोला वो,
"और यहीं आना हुआ तो?" पूछा मैंने,
"तो आ जाएंगे!" बोला वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"क्या?" बोला वो,
"आएंगे तो ज़रूर, लेकिन ये स्थान ठीक नहीं!" कहा मैंने,
"वो मैं देख लूंगा!" बोला वो,
"देख लोगे?" बोला मैं,
"हाँ, पक्का!" बोला वो,
"तब ठीक है!" कहा मैंने,
"तो करो तैयारी!" बोला वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
और हम, लगे अब तैयारी में, सामान अपना बाँध लिया, कुछ कपड़े-लत्ते थे, वो भी ले आये, भर लिए बैग में, और करीब पांच बजे, हम चले ब्रह्म जी के पास!
ब्रह्म जी हमें वहीँ मिले, सामान देखा उन्होंने हमारे हाथों में तो चेहरे की रंगत सी उडी! खाली मिज़ाज़ से ही हमारा प्रणाम स्वीकार किया उन्होंने! और जीवेश को कंधे से आकर पकड़ा!
"क्या बात है?" बोले वो,
"कुछ नहीं ताऊ जी!" बोला वो,
"कहाँ चल दिए?'' बोले वो, सामान देख कर,
"कहीं नहीं! यूँ कहो, कि आशीर्वाद लेने!" बोला वो,
"अच्छा, और कहाँ?" पूछा उन्होंने,
"काशी!" बोला वो,
"काशी?" पूछा उन्होनें,
"हाँ!" बोला मैं अब,
"और वापसी?" पूछा उन्होंने,
"यहीं तो पूछने आये हैं हम!" बोला जीवेश अब!
"वो क्या?" पूछा उन्होंने,
"क्या यहां समस्त सामग्री एवं साधनों का प्रबन्ध हो जाएगा?" पूछा उसने,
"हाँ! क्यों नहीं!" बोले वो,
"सबकुछ?" पूछा उसने,
"है, सभी कुछ!" बोले वो,
"तब ठीक है!" बोला जीवेश,
"तब आप एक काम कीजिये!" कहा मैंने,
"कहिये?" बोले वो,
"एक ब्रह्म-श्मशान, आप जानते हो होंगे?" कहा मैंने,
"हाँ, सबकुछ!" बोले वो,
"ठीक है! तो हम यहीं आएंगे!" कहा मैंने,
"कब?" बोले वो,
"एक दिन पहले!" कहा जीवेश ने,
"अच्छा!" बोले वो,
"हाँ जी!" बोला मैं,
"आज ही?" पूछा उन्होंने,
"हाँ!" कहा मैंने,
"ठीक है!" बोले वो,
और कुछ बातें और कर, हम वहां से निकल लिए! सवारी पकड़ी और फिर बस ले ली, और चल पड़े! सारा संसार, जागृत हो गया! वो समय शिक्षण का! श्री श्री श्री जी के आदेशों का, उनके क्रोध का, शिक्षण-क्रियान्वन का, सारा का सारा समय! यहीं से तो निकास है मेरा! यहीं से! एक एक कर, सभी स्मरण होने लगे! वे भी जिसका बहुत महत्व था, और वे भी, जो संग थे उस समय! वो सहायक, सहायिकाएं! वो सामग्री वाले, वो वस्त्र वाले आदि आदि! वो गंगा जी के तट पर जाकर, बैठना, सीखना, क्रिया करना! मन्त्र साधना, तन्त्र-साधना! वो सब का सब!
"कहाँ खोये हो?" पूछा उसने,
"बचपन में!" कहा मैंने,
"हाँ! बचपन ही रहा होगा!" बोला वो,
"हाँ, बचपन!" बोला मैं,
"ये दिन कभी नहीं भूले जाते!" बोला वो,
"मेरी जड़ें वहीँ हैं!" बोला मैं,
"जानता हूँ!" बोला वो,
"जिस समय मुझे कुछ मिलने को होता था, तब मेरी उत्कंठा चार्म पर हुआ करती थी! मुझ से प्रश्न पूछे जाते थे, और श्री जी, तब मना कर दिया करते थे!" कहा मैंने,
"मना क्यों?" पूछा उसने,
"मैं सक्षम नहीं था!" बोला मैं,
"यही है एक सच्चा गुरु! और उनका कर्त्तव्य!" बोला वो,
"हाँ, अब सोचता हूँ, वे कितना सोचते थे! कितना स्पष्ट! कितना सटीक!" कहा मैंने,
"सही बात है!" बोला वो,
"जो सक्षम नहीं, उसे अपनी थाह नहीं भूलनी चाहिए!" बोला मैं,
"सत्य है!" बोला वो,
"और जो सक्षम है, वो उसे अपनी सक्षमता जांचती रहनी चाहिए! पड़े पड़े लौह भी जंग चाट चाट स्वतः ही नष्ट हो जाता है!" बोला मैं,
"हाँ!" बोला वो,
"जांचों अपनी सक्षमता, परन्तु, अपने से ही द्वन्द लड़कर! कहीं खांचा तो नहीं ओढ़ लिया दम्भ का? कहीं ढिंढोरा तो नहीं पीट दिया?" बोला मैं!
"हाँ, यही तो है सूत्र!" बोला वो,
मैं बाहर देख कर, ये कहता जा रहा था! सोचे जा रहा था, बड़ा, कोई नहीं होता! कोई भी नहीं! पता नहीं, क्यों लोग अपने आपको, बड़ा मान लेते हैं!
रात्रि-समय हम काशी पहुंचे, मैंने इत्तिला कर ही दी थी, काशी से अब आगे जाना था थोड़ा, तो वहाँ से सवारी पकड़ी, तय किया भाड़ा और फिर चल पड़े! हम रात में पहुंचे उधर! सामने ही वो डेरा था! वहीँ जिसकी वजह से मैं था! हम अंदर गए! सभी सो ही गए थे, एक कक्ष की तरफ गए, वहां दो लोग बातें कर रहे थे, दरअसल, वे हमारी ही प्रतीक्षा में थे! हमें देख, प्रणाम किया और बेहद ही प्रसन्न हुए! वे हमें एक कक्ष में ले गए! आज रात यहीं विश्राम करना था हमें, भोजन आदि का सब प्रबन्ध किया हुआ था उन्होंने! हमने भोजन किया और फिर विश्राम किया! नींद बड़ी ही मुश्किल से आयी, उस रात तो! बहुत सी यादें थीं यहां! बहुत से लोग! बहुत सी जगहें और बहुत से, वो मार्ग!
सुबह हुई...और हम उठे! स्नान आदि से निवृत हुए! चाय-नाश्ता भी हो गया! और फिर कुछ देर कमरे में ही बैठे रहे! जिसको पता चलता, दौड़ा चला आता! मिलता, प्रसन्न होता! पुराने लोग, अभी भी थे, सबकुछ ठीक, बस देह झुकी हुई और चेहरे पर झुर्रियां! श्रवण-शक्ति कम और दृष्टि भी कम! आवाज़ से पहचानें वो, या घूर कर! मैं बहुत प्रसन्न था! बहुत ही प्रसन्न! तभी एक जानकार, नन्द या नन्दू आया मिलने! वो बहुत प्रसन्न हुआ! बहुत ही प्रसन्न!
"कब आये?" पूछा उसने,
"रात को!" कहा मैंने,
"कितने बजे?" पूछा उसने,
"देर रात गए!" बोला मैं,
"देर हो गयी?" बोला वो,
"हाँ, हो ही जाती है!" कहा मैंने,
"है, अब भीड़ भी तो देखो!" बोला वो,
"हाँ, सब बदल गया है!" कहा मैंने,
"हाँ, सब का सब!" बोला वो,
"बड़े बाबा कहाँ हैं?" पूछा मैंने,
"हैं तो यहीं!" बोला वो,
"और दूसरे बाबा?" पूछा मैंने,
"वे गए हुए हैं!" बोला वो,
"कहीं दूर?" पूछा मैंने,
"हाँ, दूर ही!" बोला वो,
"कब लौटेंगे?" पूछा मैंने,
"पन्द्रह दिन मानो?" बोला वो,
"और सुना!" बोला मैं,
"बस सब ठीक!" बोला वो,
"कोई नयी ताज़ी?" पूछा मैंने,
"नयी क्या! वो गाज़ी बाबा की समाधि थी न?" बोला वो,
"हाँ?" कहा मैंने,
"अब पक्की करवा दी!" बोला वो,
"ये बहुत अच्छा किया!" कहा मैंने,
"दरअसल, पानी भरने लगा था उधर!" बोला वो,
"तो ऊँची करवा दे होगी?" पूछा मैंने,
"हाँ और पानी का निकास अब बाहर से कर दिया!" बोला वो,
"अच्छा, ये अच्छा किया!" कहा मैंने,
"सुन?" बोला मैं,
"हाँ?" बोला वो,
"मुझे बड़े बाबा से मिलना है!" कहा मैंने,
"आओ?" बोला वो,
"क्या कर रहे होंगे?'' पूछा मैंने,
"पता नहीं!" बोला वो, हंसते हुए!
"पता तो कर?" कहा मैंने,
"आता हूँ!" बोला वो, और चल पड़ा वापिस...
"ये नन्दू है जीवेश!" कहा मैंने,
''अच्छा!" बोला वो,
"ये बहुत सीधा आदमी है! अनाथ मिला था, छोटे बाबा को, बहुत तलाश करी इसमें माँ-बाप की, न पता चला, तब यहीं का हो कर रह गया!" बोला मैं,
"बहुत अच्छा किया इसके साथ!" बोला वो,
"अब तो बूढ़ा सा लगने लगा मुझे!" कहा मैंने,
"उम्र कभी नहीं घटती!" बोला वो,
"हाँ जीवेश!" कहा मैंने,
"जगह तो बहुत ही प्यारी है ये!" बोला वो,
"पुरानी बहुत है, बहुत वर्षों पहले, यहां से नदी की एक धारा जाया करती थी, अब स्थान छोड़ गयी!" कहा मैंने,
"सब समय का खेल है!" बोला वो,
"हाँ! हाँ जीवेश!" कहा मैंने,
करीब आधे घण्टे के बाद नन्दू आया, साथ में, किसी को ला रहा था, चाय बनवा लाया था, साथ में कुछ ताज़ा सा हलवा था, सूजी का! उस रोज कोई पूजन था वहां, ऐसा ही लगता था, साबूदाना ले जाया जा रहा था!
"आओ" कहा मैंने,
"चाय पियो!" बोला वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
और उठा लिया कप, दिया जीवेश को, और फिर अपना कप उठा लिया! दो चुस्की चाय की लीं और फिर हलवा खाया!
"क्या हुआ, हैं बड़े बाबा?" पूछा मैंने,
"हाँ, एक घण्टे बाद चले जाना!" बोला वो,
"पूजा में हैं क्या?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोला वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"कोई आया हुआ है उनसे मिलने!" बोला वो,
"अच्छा! कोई बात नहीं!" कहा मैंने,
"और स्वास्थ्य ठीक है उनका?" पूछा मैंने,
"हाँ, ठीक हैं!" बोला वो,
बातें करते रहे हम, कुछ पुरानी बातें, कुछ लोग, जो अब गुजर गए थे, कुछ लोग, नए जो अब जुड़ गए थे! बातें करते करते, हुआ एक घण्टा, और मेरा दिल धड़क उठा! सच कहूँ तो भय ही लगता है! भय रहता है कि कहूँ कुछ अनुचित न कह दूँ, कहीं कुछ बेबाक सी बात ही न कर दूँ! वो पूछें, तो उत्तर ही न दे सकूँ! क्योंकि, जिसका उत्तर आप जानते हों, उसको, प्रामाणिकता के धरातल पर रख, उत्तर दीजिये! दलदली ज़मीन पर, सिर्फ सवाल ही उठते और डूबते हैं!
"मैं आता हूँ!" कहा मैंने,
"हाँ जाओ!" बोला वो,
"फिर बुला लूंगा!" कहा मैंने,
"ठीक!" कहा उसने,
और मैं उठा, चला उनके स्थान की ओर, बेरी के वो पेड़, अभी भी थे, अब फूल से आये थे उनमे! वो नीम के पेड़, अभी भी थे! वो बड़ा सा, बूढ़ा बरगद, आज भी खड़ा था! वो पीपल के बड़े बड़े पेड़, अभी भी खन-खन की आवाज़ें करते हुए, वहीँ खड़े थे! ये सब साक्षी रहे थे! सब के सब! उस रोज तो नज़र ही न मिला सका उन सब से मैं! मैं आगे चलता रहा, वो पिंडियां आ गयीं! ये वीरों की पिंडियां हैं! मन्दिर, छोटे छोटे से! और वो, एक बड़ा सा त्रिशूल! जिसके फाल को देख मैं रुक गया था! वो दूर था थोड़ा! अनार के पेड़ों से आगे! लेकिन वो फाल, मुझे याद था! बड़ा सा फाल! चौड़ा मूठ! मैंने प्रणाम कर लिया उसे!
और इस तरह, मैं उस कक्ष की तरफ बढ़, जाना मुझे आना था, आदेश हुआ था! पाँव खड़खड़ा गए! कम्पन्न सी हो गयी! धड़कन तेज हो गयी! उधर, लोगों की आमद-जामद सो लगी थी, वो, उस कक्ष के सामने से गुजर रहे थे! मैंने जूते उतारे, और चढ़, वो तीन सीढियां ऊपर! कक्ष के सम्मुख आया तो कोई नहीं था! मैंने अंदर झाँका!
"आ!" आयी आवाज़! मैं पहचान गया वो आवाज़! मेरे हाथ जुड़ गए, और मैंने बाएं देखा! वे बैठे थे, एक तख़्त के ऊपर! मुझे देख, मुस्कुरा पड़े थे!
"आ जा!" बोले वो, अपना हाथ आगे बढाते हुए!
मुझ से नहीं सम्भाल गया अपने आपको! मेरी आँखों से, आंसू बह निकले! उनके पास जा, उनके चरणों में माथा रख दिया! ऐसा रोया, ऐसा रोया कि पाँव भी गीले कर दिए और सुबुक भी पड़ा मैं!
"आ! यहां बैठ!" बोले वो,
और मैं, अपनी भारी हुई देह को, उठाते हुए, उनके समीप ही बैठ गया!
"रात पहुंचा?" बोले वो,
"जी" कहा मैंने,
"भोजन किया?" पूछा उन्होंने,
"जी!" कहा मैंने,
"और सब कैसे हैं?" पूछा उन्होंने,
"आपका आशीर्वाद है!" कहा मैंने,
"तू ठीक?" बोले वो,
"जी!" कहा मैंने,
वे चुप हुए और फिर बोले!
"बोड़ा? हाँ?" बोले वो,
"हाँ श्री जी! बोड़ा बाबा!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"और वो, घटिया आदमी?" बोले वो,
"हाँ, वो..." बोलते बोलते रोक दिया मुझे!
"जान गया हूँ!" बोले वो,
"रात को आ, आठ बजे" बोले वो, मेरे सर पर हाथ फेर,
"जी, जैसा आदेश!" बोला मैं,
खड़ा हुआ और उनके चरणों में सर रखा, आशीर्वाद लिया, और चल पड़ा बाहर! आ गया सीधे उसी कक्ष में! जीवेश अकेला ही था, साथ में ही, कुछ फल रखे थे, शरीफा, केले आदि! मैंने वो फल हटाये और बैठा उधर!
"हुई बात?" पूछा उसने,
"हाँ!" कहा मैंने,
"सब जान गए?'' बोला वो,
"हाँ" कहा मैंने,
"तो बस!" बोला वो!
"अब आठ बजे बुलाया है!" कहा मैंने,
"अच्छा!" बोला वो,
''हाँ!" कहा मैंने,
"अच्छा ही है!" बोला वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
तभी आ गया नन्दू! भोजन ले आया था, हम उठे बिस्तर से, बाहर चले और हाथ धो आये! भोजन लगा दिया गया था!
"लो! भोजन करो!" बोला नन्दू!
"हाँ!" कहा मैंने,
मैंने भोजन को देखा! दाल, उड़द की! मूली, कटी हुई, दही, जीरे और हींग के छौंक वाली! रोटियां, सब्जी, आलू बैंगन की, हरी मिर्च, मोटी वाली, और हरी चटनी, पुदीने की! मुझे बहुत कुछ याद आ रहा था! वो समय, जब पत्तल पर भोजन आता था! कितना स्वादिष्ट हुआ करता था वो भोजन! आलू की सब्जी! कासीफल की सब्जी, जिसमे कच्चा आम कटा होता था, मेथीदाने का छौंक हुआ करता था! पूरियां, बड़ी बड़ी! वो भोजन, वो स्वाद.....अब शायद कभी नसीब न हो! कभी भी! जिन मित्रों ने, पत्तल पर ये भोजन किया होगा, वो ये स्वाद जानते होंगे! ख़त्म होने से पहले ही, बड़ा सा चमचा आता, भरा हुआ खाली होता पत्तल पर! पूरियां रखी जातीं! वो देसी सी मिठाई, मावे वाली! वो कद्दू का पेठा! वो लड्डू, बड़ी इलायची के दाने मिले हुए उसमे! क्या ज़माना था वो! अब नहीं नसीब! अब तो, शायद ही कहीं बचा हो! आजकल के नए लोग, क्या जानें उसके बारे में!
मैंने खाना शुरू किया, स्वाद वही था! मसाले शायद आज भी कूटे जाते होंगे! वही स्वाद! और वो, ताज़ा बैंगन! बैंगन आदि शाक-सब्जी तो लगी ही रहती है ऐसे ढेरों में! ताज़ा मिले तो क्या बाद और ज़ायक़ा!
"नन्दू?'' कहा मैंने,
"हाँ?" बोला वो,
"भोजन कौन बना रहा है?" पूछा मैंने,
"अम्मा!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"वही बना रही हैं!" बोला वो,
"अच्छा! रोटियों से पता चला!" कहा मैंने,
"अच्छा! हाँ, एक दो और हैं, वो मदद करती हैं!" बोला वो,
"ठीक!" कहा मैंने,
"भोजन कर लो, आराम कर, सुस्ता लो, फिर चलेंगे!" बोला वो,
"कहाँ?" पूछा मैंने,
"उधर, बाबा के स्थान पर!" बोला वो,
बाबा! बाबा का स्थान! वही! मैं समझ गया! मैं तो घबरा रहा था! सोच रहा था, श्री जी के संग ही जाऊं!
"अच्छा! चलेंगे!" कहा मैंने,
"मन्दिर बना दिया है उधर!" बोला वो,
"अच्छा? किसका?" पूछा मैंने,
"बड़ी मैय्या का!" बोला वो,
"अच्छा!!" कहा मैंने,
बड़ी मैय्या! अर्थात, माँ कामाख्या!
"चलना जीवेश!" कहा मैंने,
"क्यों नहीं!" बोला वो,
"लो, दही लो!" बोला नन्दू!
और परोस दी दही कटोरी में!
"वो मेरे पूजनीय दादा श्री का स्थान है!" कहा मैंने,
"बताया था तुमने!" बोला वो,
नन्दू ने सब्जी और डाली!
"छोटे बाबा की जगह कहाँ है? दिखी नहीं?" पूछा मैंने,
"पीछे ही तो है?'' बोला वो,
"दिखाना!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोला वो,
और अब पेट भरा! और फिर.................
अब पेट भर गया था! आज तो ऐसा खाया था कि जैसे, पता नहीं कब का भूख होऊं! सच भी है, चमचमाती स्टील की बढ़िया थाली, अपने घर की, गद्दे पड़ी पीतल की थाली में अब अंतर तो है ही! भले ही भोजन कैसा भी हो, घर की थाली तो जैसे बातें करती हैं खाते हुए! कोई परायापन ही नहीं! घरों में, अब तो स्टील, मैलामाइन आदि के दिखाऊ बर्तन आने लगे हैं, कभी जब, अपने ही घर में रखे, दादी और परदादी या पुराने बर्तनों पर नज़र जाती है तो कैसा महसूस होता है! वो बड़े बड़े थाल! बड़े बड़े कटोरे से! उस समय की कटोरियाँ अब के कटोरे! भारी भारी चमचे, कलछुल, बड़े बड़े गिलास, जिनमे दूध पिया करते थे! और ये तो सत्य भी है, जब तक लोगों ने पीतल के बर्तनों में खाना खाया, किसी को कोई तकलीफ ही नहीं हुई! जब तक, ज़मीन का, कुँए का मीठा पानी पिया, कोई नहीं रोग-ग्रस्त हुआ! और आज देखो! इतने सारे प्यूरीफायर हैं, फिर भी बीमार! इसे देख पता चलता है, ज़माना सच में ही बदल गया! आजकल की लड़कियां तो एक बार में उन थालों में, पूरे संयुक्त परिवार के लिए आटा गूंद ले, तो सच में एक महीना अवकाश ले ले! पहले बड़ा परिवार होता था, चाचा-ताऊ, उनके बच्चे, सब! चूल्हा भी एक, या दो भी हों तो अलग नहीं! इसीलिए ऐसी देह थी उन महिलाओं की! दिन भर की मेहनत! बड़ा, लम्बा चौक, झाड़ू-बुहारी, कपड़े-लत्ते, अनाज के लिए घर की चाकी! और फिर, अल-सुबह ही उठना भी! आज कौन करता है! सब बदल गया! इस नए ज़माने ने, सबकुछ छीन लिया हमसे! और मिला क्या! रोग, व्यर्थ के काम, चिंताएं आदि आदि! बालक-बालिका भी अब बेचारे रक्तचाप, मधुमेह आदि रोगों से ग्रस्त हो गए हैं! अभी देखिये, होता क्या क्या है! कहते हैं न, नाई नाई कितने बाल? बस जजमान अभी देखो! तो बस, अभी देखो!
"आओ जीवेश?" बोला मैं,
"हाँ, चलो!" बोला वो,
"कहीं जा रहे हो?" पूछा नन्दू ने,
"ज़रा बाहर तक!" कहा मैंने,
"अच्छा, हो आओ!" बोला वो,
हम बाहर आये, हाथ-मुंह धोये, पोंछे और चले आये बाहर! अब तो उस स्थान पर, बहुत सा निर्माण हो गया था! अब वो गाँव, गाँव सा न रहकर, एक शहर का सा रूप लेने लगा था, मन्दिर आदि बन गए थे!
"यहां कुछ भी न था!" कहा मैंने,
"हर जगह का ये हाल है अब!" बोला वो,
"हाँ, ये तो है!" कहा मैंने,
"ये देखो!" बोला वो,
एक गाय का बछड़ा, सुंदर सा, बेचारा भोजन ढूंढ रहा था, कहाँ वो भी, कूड़े में, ये क्या हाल हो गया है? ये भूमि हमारी तो थी नहीं, इन्हीं पशुओं की थी! छीनी हमने ही! अब बेचारे बन्दर भी क्या करें? छीनें, झपटे नहीं तो क्या करें! मिठाई खाएं तो उनका भी पेट खराब, क्योंकि अब वो मिठाई नहीं! उछल-कूद कहाँ करें? पेड़ नहीं! पेड़ हमने काट दिए! तो बेचारे ये बन्दर, लँगूर, जाएँ कहाँ? और तो और, एक जगह मैंने पढ़ा था, कि जिस राज्य में, मृतभोजी-गिद्ध समाप्ति या लुप्तप्रायः हो जाएँ तो समझिए, उस राज्य पर प्राकृतिक आपदाएं आएं ही आएं! ऐसा ही तो हो रहा है अब! पहले गिद्ध गाँवों के बाहर दीख जाते थे, ठूंठ से पड़े पेड़ों पर बैठे हुए! मृत-पशु को खाते हुए! ये उच्च-कोटि के सफाईकर्मी हुआ करते थे! आज वे भी नहीं! क्या करें? अब फसलें, चारा, कीटों से सुरक्षा के लिए बिखेरी दवाओं के असर से, प्रदूषित हैं, उन्हें खाएं ये पशु और पशु का मांस खाएं ये गिद्ध, पहले, इनकी जनन-शक्ति का ह्रास हुआ, जब सन्तति नहीं बचेगी तो क्या गिद्ध ही रहते! बेचारे, रोग-ग्रस्त हो, मारे गए! और इसका उत्तरदायी कौन? हम! अब सरकार बचा रही है इन्हें! सरंक्षण मिला है इनको! कृत्रिम रूप से गर्भाधान करवाया जा रहा है, दवाएं, प्रतिरोधी, आदि आदि! हम प्रकृति से नहीं खेल रहे, अपने आप से खेल रहे हैं! इसका फल तो दीखने लगा ही है!
"आओ!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोला वो,
हम चलते हुए काफी आगे तक चले आये, शायद यहां बाढ़ आयी हो, ऐसा लगता था, भूमि ऐसी ही लगती थी, लकड़ियाँ बिखरी पड़ी थीं, पेड़ों के शहतीर टूटे पड़े थे, रास्ते भी बन्द ही थे!
"शायद बाढ़ का असर है!" बोला वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"पानी यहां तक आता है?'' पूछा उसने,
"अब पानी है!" कहा मैंने,
"हाँ! उसे क्या रोक!" बोला वो,
"बिलकुल!" कहा मैंने,
"उधर देखो?" कहा मैंने,
"कहाँ?" बोला वो,
"उधर? उन खभों के साथ?" कहा मैंने,
"टूटा-फूटा सा स्थान है कोई?" बोला वो,
"हाँ, अब तो टूटा-फूटा है!" कहा मैंने,
"पहले नहीं था?" पूछा उसने,
"नहीं, यहां एक बाबा रहते थीम बाबा खेतर!" बोला मैं,
"अच्छा! अब कहाँ हैं?" पूछा उसने,
"अब नहीं हैं, बहुत साल हुए, गुजरे हुए!" कहा मैंने,
"अच्छा..." बोला वो,
"बाबा खेतर पहुँच वाले हुआ करते थे!" कहा मैंने,
"कैसी पहुंच?" बोला वो,
"उनके पास, कहते हैं, अशरीरी आते थे!" बोला मैं,
"किसलिए?'' पूछा उसने,
"उनका एक ही काम था, मुक्त करना!" कहा मैंने,
"अरे वाह! धन्य हैं वे बाबा!" बोला वो,
"बाबा अपने आप में ही मगन रहते! हमारे डेरे में आते, रहते और चले जाते फिर! न कोई मंशा, न कोई चाह! जो खिला दो, खा लें, जो दे दो, सब ठीक!" बोला मैं,
"अवश्य ही पहुँच थी उनकी!" बोला वो,
"हाँ, सीधे, ऊपर तक!" कहा मैंने,
"तो गुजरे कहाँ? यहीं?" बोला वो,
"हाँ, यहीं, दाह उनका, ब्रह्म-श्मशान में हुआ!" कहा मैंने,
"ओह!" बोला वो,
"आज वो स्थान निर्जन है, देख लो खुद ही!" कहा मैंने,
"हाँ! देख रहा हूँ!" बोला वो,
"ये सफेदे के पेड़, तब न थे!" बोला मैं,
"ये तो सरकारी होंगे?" बोला वो,
"हाँ, सीमांकन हेतु!" कहा मैंने,
कुछ देर रुके हम, और फिर लौट चले! वापिस आ गए अपने कक्ष में, जूते उतारे, हाथ धोये और फिर लेट गए! बातें करते रहे! नन्दू चाय ले आया था, चाय पी फिर!
"नन्दू?" कहा मैंने,
"हाँ?" बोला वो,
"बाबा खेतर के यहां कोई नहीं आया?" पूछा मैंने,
"कोई हो तो आये!" बोला वो,
"किसी को दिया भी नहीं?" बोला मैं,
"पता नहीं!" बोला वो,
"वैसा ही पड़ा है!" कहा मैंने,
"हाँ, अब तो सरकार ही ले!" बोला वो,
"हाँ, जब कोई रखदार ही नहीं तो क्या करें!" बोला मैं,
"सही बात है!" बोला जीवेश!
"चलोगे?" बोला नन्दू,
"वहां?" पूछा मैंने,
"समाधि पर?" बोला वो,
"शाम को, बड़े बाबा के साथ!" कहा मैंने,
"ये भी ठीक!" बोला वो,
"हाँ, पूजन समय!" कहा मैंने,
"बड़े बाबा संग!" बोला वो,
"हाँ!" बोला मैं,
"मैं आ जाऊँगा फिर!" बोला वो,
"हाँ, ठीक!" कहा मैंने,
और नन्दू चला गया!
"सन्ध्या-पूजन?" बोला जीवेश,
"हाँ!" कहा मैंने,
"तो बड़े बाबा ही करते होंगे?" बोला वो,
"हाँ, वही मात्र!" कहा मैंने,
"ठीक भी है!" बोला वो,
"हाँ, मेरा अधिकार नहीं है ये!" कहा मैंने,
"हो भी कैसे सकता है? खून से सम्बन्ध बनते हैं क्या?" बोला वो,
"समर्पण से!" कहा मैंने,
"हाँ, समर्पण से!" बोला वो,
"बड़े बाबा के समक्ष तो कोई नहीं!" कहा मैंने,
"सच है!" बोला वो,
"आज भी तत्पर रहते हैं!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोला वो,
"हाँ, डांटते हैं वो उनका अधिकार है!" बोला मैं!
"यही तो आशीर्वाद है!" कहा उसने,
"हाँ!" बोला मैं,
"ईश्वर छोटा ही रखे हमें, कम से कम इन बड़े-बुज़ुर्गों का साया और छाया सदैव मिलती रहे!" बोला वो,
"सच कहा जीवेश!" कहा मैंने,
"इस से बड़ा क्या आशीर्वाद भला! क्या मायने!" बोला वो,
"कोई नहीं! कुछ भी नहीं!" कहा मैंने,
और तब बजे पौने आठ! अब जाना था हमें उनके पास! पहले उनके पास, फिर उनका आदेश, जो कहें, जैसा कहें! नन्दू आ गया था हमारे पास, कुछ भुने हुए चने चबा रहा था, हमें भी दे दिए, हमने भी खाये या चबाये वो!
"चलें नन्दू?" पूछा मैंने,
"हाँ! चलो!" बोला वो,
"आओ जीवेश!" बोला मैं,
"हाँ! चलो!" बोले वो,
चल दिए जी हम बड़े बाबा के पास तब! रास्ते में, दीये जलते मिले, ठीक वैसे ही, जैसे पहले जलते थे! बदल था, तो बस समय! नियम नहीं!
"उनके कक्ष की तरफ?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोला नन्दू, रुक कर,
"फिर?" पूछा मैंने,
"उधर!" बोला वो,
मतलब की समाधि! अंदर मेरे, सिहरन सी दौड़ गयी! लगा, देखने लगे हैं वो मुझे! मेरे बदन में, झुरझुरी सी चढ़ने लगी! और इस तरह हम आ गए उस समाधि पर! वहां, श्री जी, खड़े हो पूजन कर रहे थे! हम उनके पीछे, हाथ जोड़, खड़े हो गए! नेत्र बन्द कर लिए! जो मन्त्र बोले जा रहे थे, वे सभी नमन एवम वन्दन मन्त्र थे! ये मन्त्र करीब आधा गहनता चले, फिर उन्होंने बड़ा वो, ब्रह्म-दीप प्रज्ज्वलित किया! पुष्प रखे, त्रिशूल से माथा छुआया! और पलटे पीछे! हमें देखा, तो मुस्कुरा कर, खड़े हो गए! हम आगे बढ़े और उनके चरणों में सर झुका दिया! उन्होंने सरों पर हाथ रखा हमारे, और पीठ पर हाथ रख, उठाया! हम दोनों ही उठे!
"यहीं हूँ!" बोले वो,
मैं समझ गया उनका आशय! मैं आगे बढ़ा, जीवेश आगे बढ़ा और नमन किया मैंने उस समाधि-स्थल को! उस त्रिशूल को नमन किया, सर झुकाया और मन ही मन, उन्हें अपने सम्मुख ही पाया! कुछ देर, उसी जगह, जड़ सा हो गया था मैं, और तब, जैसे होश आया, चरण छुआया और लौटा पीछे! हमारे आते ही, श्री जी चल पड़े, हम उनके पीछे चल पड़े, हम एक जगह आ गए, ये नयी जगह थी मेरे लिए, शायद, नया ही निर्माण था! वे एक जगह, एक कुर्सी पर बैठ गए, पाँव मोड़ लिए अपने, और हमें बैठने को कहा, उनके सामने ऊपर कैसे बैठते? नीचे, चटाई पर ही बैठे हम!
"इस अमावस?" बोले वो,
"जी" कहा मैंने,
"चुनौती उस सरभंग की?" बोले वो,
"जी!" कहा मैंने,
"और संग उसके, बाबा बोड़ा!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
आँखें बन्द कीं, और कुछ देर बाद, खोलीं!
"विवशतावश!" बोले वो,
"जी!" कहा मैंने,
"बोड़ा बाबा घण्ट हैं!" बोले वो,
"जी! बताया मुझे!" कहा मैंने,
"चिंता नहीं करो!" बोले वो,
चिंता नहीं करो! बस! हो गयी विजय! अब तो सम्मुख कोई भी आये! अब तो अभेद्य ढाल है मेरे पास! अब काहे का भय!
"एक बात!" बोले वो,
"आदेश?" कहा मैंने,
"बाबा बोड़ा का सम्मान रहे!" बोले वो,
"अवश्य!" कहा मैंने,
"सम्मान, उनकी आन का!" बोले वो,
"जी, अवश्य ही!" कहा मैंने,
"बोड़ा बाबा कभी द्वन्द नहीं लड़ते! न कभी लड़ा ही!" बोले वो,
क्या? ये क्या सुन रहा हूँ मैं? क्या?
"हाँ!" बोले वो,
"तब...?" बोला जीवेश,
"वचन-वश!" बोले वो,
"जी, समझ गया!" बोला जीवेश!
"कल प्रातः से, काल-युग्मा का ध्यान करो!" बोले वो,
"आदेश!" कहा हम दोनों ने!
"मध्यान्ह में, हैहकी-ध्यान!" बोले वो,
"अवश्य! आदेश!" कहा हम दोनों ने ही!
"एवम, सन्ध्या-समय, कालभट्ट का!" बोले वो,
"आदेश!" बोले वो,
"मैं, कल रात्रि ही मिलूंगा, इन सबके पश्चात!" बोले वो,
"आदेश!" बोले हम!
वे उठे, हम भी उठ गए!
"जाओ, निर्भीक रहो!" बोले वो,
"जी! कृपा!" कहा हमने!
"शिराज्ञ स्थिर हुई!" ये बोल, लौटते चले गए वो! और हम, खड़े खड़े, देखते रहे उन्हें!
"है ईश्वर!" बोला जीवेश!
"क्या हुआ?" पूछा मैंने,
"क्या ये स्वप्न था?" बोला वो,
"नहीं जीवेश!" कहा मैंने,
वे चले गए थे! आदेश हो चुका था! अब बस पालन होना था! मुझे सुबह, जीवेश के संग, प्रातः ही, स्नान कर, उस क्रिया-स्थल में पहुँच जाना था, का का हमारा सारा प्रवास उसी क्रिया-स्थल में होता! मुक्त करते तो आदरणीय एवम पूजनीय श्री जी! उन्होंने तीन ध्यान बताये थे, ये ध्यान नहीं, 'आवरण' होता है एक विशेष प्रकार का, चोला भी कह सकते हैं इसे! चोला, दिखाई देता है और ये आवरण, दिखाई नहीं देता! तीन ध्यान, क्रमशः काल-युग्मा, हैहकी व कालभट्ट का ध्यान! सरल सी बात है, कि इनका नाम, क्यों नहीं आता? ये कौन से देवी-देवता हैं? नाम ही नहीं सुना होगा! मित्रगण! ये सब कालजयी सत्ताएं हैं! मुक्त एवं, अपनी इच्छा के अनुसार ही आचरण करने वाली सत्ताएं! इन्हें, मात्र प्रसन्न ही किया जा सकता है, पराजित, या सिद्ध नहीं किया जा सकता!
काल-युग्मा! ये, महातामसिक, अतिक्रूर स्वभाव वाली, षोडशी, रुख काया वाली, तीक्ष्ण नयन वाली, लम्बी, उर्ध्व जिव्हा वाली, फरसा धारण करने वाली, मुंडों से सु-सज्जित, रक्त में स्नान किये हुए, चौरासी महा-डाकिनियों द्वारा सेवित, गणिका है! ये गणिका, शैव-गण समूह से है! इसका ध्यान, भय को क्षीण करने वाला, त्वरित सटीक निर्णय लेने में सक्षम करना एवम मुंड-रक्षा हेतु किया जाता है! जो लोग, मस्तिष्क के किसी भी रोग या व्याधि से ग्रस्त हों, दवा, चिकित्सा आदि लाभ न कर रही हों, तब, एक छोटा घड़ा लीजिये, रोगी के केश बायीं तरफ के, काट लीजिये, घड़े में भर लीजिये, रोगी की देह के अनुपात का सूती कपड़ा लें, इसे भी घड़े में रख दें, तीन रात इस घड़े को, काले वस्त्र से बाँध कर, रोगी के सिरहाने रखें, चौथे दिन ये घड़ा, किसी नदी किनारे गाड़ आएं! त्वरित फल देखें! रोगी, ठीक होने लगेगा! जब रोगी लगे, कि अब ठीक है, तब, सामर्थ्य अनुसार दान कर दें! दान कुछ भी हो सकता है, दान करने के बाद, काल-युग्मा का मन्त्र पढ़ दें, कुल इक्यावन बार! स्मरण रहे, ये महा-तामसिक प्रवृति वाली हैं, अतः, न तो उपहास ही हो उनका, न उनके प्रयोग का, कोई रोक न हो, कोई टोक न हो!
अब ये हैहकी सत्ता! ये हैहकी, मूल रूप से तामसिक स्वभाव वाली, सात्विक सत्ता है! परन्तु, गुरु मछेन्द्र नाथ जी से, युद्ध में पराजित होने के कारण इन्हें बंधना पड़ा! अब ये तामसिक प्रभाव रखती हैं! ये, गौर-वर्ण की, माथे पर पीला रंग पोते, एक पीले रंग के वस्त्र में देह लपेटे, कांचल-वर्ण वाली, भरी, मांसल देह वाली, काम-कन्या सरीखी, जप-तप को खण्डित करने वाली, व अतुलित धन एवम कामसुख प्रदान करने वाली होती है! जो तांत्रिक हैहकी को प्रसन्न कर लेते हैं, उनका मूल उद्देश्य मात्र काम एवम धन ही हुआ करता है! हैहकी तीन वर्ष में पुनः जागृत करनी आवश्यक हैं! इस तन्त्र ध्यान में, ये साधक का मार्ग प्रशस्त करने वाली, धन एवम काम से मन उचाट कराने वाली होती है! जिनका दाम्पत्य जीवन, काम-विषय एवम भोग के कारण उचट रहा हो, उन्हें इसका प्रयोग करना चाहिए!
अब कालभट्ट! ये भी गण हैं! क्रम से इक्कीसवें! महाबली, वज्र-देह वाले, क्रोधी एवं वीभत्स स्वरुप वाले होते हैं! इनका ध्यान, या उद्देश्य हेतु इनका ध्यान, मन में निरन्तर उच्चस्थ अवस्था बनाये रखने के लिए होता है! ये, मन्त्रों में, क्रियाओं में, प्रयोगों में, जैसे अतिरिक्त ईंधन दिया करते हैं!
इतने के बाद, हम लौट चले, अपने कक्ष में आ गए! चाय आयी थी सो चाय पी! और फिर बाहर ही बैठ गए!
"कल प्रातः?" बोला वो,
''हाँ!" कहा मैंने,
"प्रथम बेला?" बोला वो,
"हाँ, यही!" कहा मैंने,
"ठीक!" बोला वो,
तभी फ़ोन बजा, जीवेश ने अपना फ़ोन, जेब से निकाला, ये ब्रह्म जी का फ़ोन था, बात हुई!
"हाँ जी?" बोला जीवेश,
"सही पहुँच लिए थे?" पूछा गया,
"हाँ, कभी के!" बोला जीवेश,
"बात हो गयी उनसे?" पूछा गया,
"हाँ हो गयी!" कहा उसने,
"तपन नाथ आया था!" बोले वो,
"क्या करने?" पूछा उसने,
"पूछने, कि कहीं भाग तो नहीं गए!" बोले वो,
"उस से कहते, सीधे तेरे पास ही आ जाएँ?" बोला वो,
"चलो! कब आना है?" पूछा गया,
"बता दूंगा!" बोला वो,
और फ़ोन काट दिया, रख लिया जेब में!
"आया था बहन ** ***!" बोला वो,
"क्या करने?" पूछा मैंने,
"देखने!" बोला वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"भाग तो नहीं गए हम!" बोला वो,
"हमारे सामने नहीं आया?" बोला मैं,
"आएगा कैसे?" बोला वो!
"साले फिर से सुनता!" कहा मैंने,
"सुनता? सेंक देता मैं उसे!" बोला वो,
"अब देखते रहो क्या हाल होता है इसका!" बोला वो,
"हाँ! साले की हड्डी टूटेगी एक एक, तब पता चलेगा!" बोला वो,
"हाँ! टूटेगा तो ज़रूर!" बोला मैं!
"जीवेश?" कहा मैंने,
"हाँ?" बोला वो,
"इस तपन नाथ का मैं क्या हाल करूँगा, ये तो तुम देख ही लोगे! लेकिन, दुनिया उसको देखेगी, सुनेगी और थू करेगी उसके नाम पर!" कहा मैंने,
"बस! यही चाहता हूँ!" बोला वो,
"यही होगा जीवेश!" कहा मैंने,
"एक बात बताओ?" बोला वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"बाबा बोड़ा को अब तो सब पता होगा?" बोला वो,
"सम्भव है!" कहा मैंने,
"फिर बड़े बाबा ने कह कि शिराज्ञ, स्थिर हो गयी! अर्थात?" पूछा उसने,
"अर्थात, जितना जाना जा सका, जान लिया होगा बाबा बोड़ा ने!" कहा मैंने,
"ये हुआ मतलब! हाँ!" बोला वो,
"हाँ, अब बाबा बोड़ा भी जान गए होंगे, कि इस तपन नाथ का होना क्या है!" कहा मैंने,
"हाँ, कम से कम, वे मुक्त तो होंगे अपने वचन से?" बोला वो,
"हाँ, लेकिन बाबा बोड़ा का सामर्थ्य, बहुत है! इतना कि हम तो कहीं ठहरते ही नहीं!" कहा मैंने,
"हाँ, सो तो है!" बोला वो,
"तो हमें करना क्या है?" पूछा मैंने,
"उनको पूर्ण सम्मान देना!" कहा उसने,
"हाँ, परन्तु कैसे?' पूछा मैंने,
"अरे हाँ?" बोला वो,
"यही तो?" कहा मैंने,
वे वार करेंगे तो क्या हम शिथिल हो जाएँ? तब तो देह ही भस्म हो जायेगी?" बोला वो,
"शत प्रतिशत!" कहा मैंने,
"तब क्या करेंगे? कैसे?" पूछा उसने,
"शायद, कल जान जाएँ हम?" बोला मैं,
"सम्भव है!" बोला वो,
और फिर कुछ ही देर बाद भोजन आ गया, भोजन किया, और जल्दी ही सोने के लिए, पलँग चढ़ गए हम! नींद भी आ गयी, अब तड़के ही उठना था, कल का दिन, अत्यंत ही व्यस्त होने वाला था!
सुबह, मेरी नींद जल्दी ही खुल गयी, मैं उठा, घड़ी देखी तो पौने चार हुए थे, जीवेश अभी भी सोया था, बाहर अभी सन्नाटा था, बस, कुछ प्रकाश था तो रात भर के जले बल्बों का और कुछ, लौ से विदा लेते, दीयों का!
"जीवेश?" कहा मैंने,
नहीं उठा वो!
"जीवेश?" मैंने हिलाकर पूछा उसको,
उसकी नींद खुली, आँखें डबडबायीं! और जैसे ही समझ आया मामला, झट से उठ बैठा वो!
"क्या बजा?" पूछा उसने,
"चार बजने को हैं!" कहा मैंने,
"अच्छा!" बोला वो,
"मैं जाता हूँ स्नान आदि से फारिग होने, फिर तुम चले जाना!" कहा मैंने,
"हाँ, ठीक!" बोला वो,
और मैं, कपड़े ले, चल पड़ा, करीब पन्द्रह मिनट से पहले ही आ गया, जीवेश तैयार था, बिन बोले ही चला गया! मैंने तब, अपने बैग से, कुछ सामग्री निकाल ली, ये ज़रूरी थी!
कुछ ही देर में जीवेश आ गया! कपड़े पहने, और हो गए हम तैयार!
''आओ!" कहा मैंने,
"हाँ, चलो!" बोला वो,
चल पड़े हम उस क्रिया-स्थल के लिए! वहां आये, तो नन्दू जागा हुआ ही मिला! साफ़-सफाई कर दी गयी थी!
"प्रणाम!" बोला वो,
"प्रणाम नन्दू!" कहा मैंने,
और उसने अपनी चारपाई, खेस, अलग रख दिए!
"अंदर बैठो, आया मैं!" बोला वो,
और हम अंदर चले, अंदर अभी अँधेरा सा ही था, बहुत कम ही प्रकाश था यहां!
"बत्ती नहीं है?" बोला वो,
"होगी?" कहा मैंने,
आ गया नन्दू, बत्ती जला दी उसने!
"सामान वो रखा, ले लो, और उधर चले जाना!" बोला वो,
उधर, मायने, उधर एक रास्ता था, बाहर की तरफ ही!
"ठीक है!" कहा मैंने,
अब हमने वहां वस्त्र बदले, सामान लिया और कुछ सामग्री ले, चल पड़े बाहर की तरफ! यहां आये तो एक बड़ा सा स्थान मिला, यहीं बैठ कर, ध्यान किया जाता है! ये स्थान एकदम शान्त, आसपास, दीवारों से घिरा हुआ और एकांत में ही है! इधर सामने ही, एक मूर्ति लगी थी, भोले भंडारी की!
"यहीं बस!" कहा मैंने,
"ठीक!" बोला वो,
और...............
अब हमें यहां ध्यान लगाना था! पहले दीप जलाए हमने, गुरु-आज्ञा ली मन ही मन, उनका आशीष मिले, कामना की, और गुरु-नमन करते हुए, ध्यान में बैठ गए! ध्यान करते करते मन एकाग्रचित हो जाता है, तब समय सीमा शेष नहीं रहती! ये अवस्था कुछ ऐसी होती है कि इसमें चेतना कहीं भी शेष नहीं रहती! ध्यान की कई अवस्थाएं हैं! कई द्वार खुलते हैं और बन्द होते हैं! कुछ निराकार सत्ताएं, आकार ले लती हैं और कई आकार वाली सत्ताएं, निराकार हो उठती हैं! जब मन शांत हो कर, इस अवस्था में जा पहुँचता है तब मन में स्वतः ही प्रश्न कौंध उठते हैं, प्रश्न कौंधते हैं और उत्तर भी प्राप्त होते हैं! ये अवचेतन का कार्य-क्षेत्र है! यहां बस, उसी की ही चलती है! वो जो करवाये, करवाता है, जो सोचने पर विवश करे, सोचा जाता है! यहां, प्रकाश का रंग, श्याम-नील सा होता है, धरातल का रंग, सुनहरी सा, आकाश का रंग गुलाबी सा और इस श्याम-नील आभा में, एक अजीब सा ताप भरा होता है!
हम ध्यान में बैठे रहे, मध्यान्ह अवस्था पूर्ण हुई, और फिर, सन्ध्य का समय भी निकट आया! देह बेहद भारी हो चली थी! ऐसा लगता था कि जैसे बर्फ में अकड़ गयी हो देह! धीमे धीमे से ही श्वास चलती हैं, दीर्घता अधिक होती है और मन, उस समय शांत सा हो उठता है! ध्यानवस्था का अंतिम चरण आया और सन्ध्या हो उठी! उस सन्ध्य में, हमारा ध्यान, शंख-ध्वनि ने तोड़ा! आँखें खुलीं और जैसे ही ह्लीं समक्ष, बड़े बाबा और एक और बाबा खड़े थे! हम उठे, सन्तुलन बनाया और चरण छुए दोनों के ही!
"जाओ, स्नान करो! और पुनः, यहीं मिलो!" दिया आदेश, बड़े बाबा के साथ आये हुए बाबा ने!
"आदेश!" कहा मैंने,
और हम दोनों वहां से निकल पड़े! सीधे ही कक्ष तक आये, देह में अकड़न तो थी, लेकिन अब लौटने लगी थी सामान्य होने को, धीरे धीरे!
और हम फिर, स्नान करने के पश्चात लौटे उसी स्थान के लिए, वे अब वहीँ बैठे थे, हमें देखा तो बुलाया, हम हाथ जोड़ वहीँ खड़े हो गए!
"ये हैं, धर्मनाथ बाबा!" बोले वो,
"जी" कहा मैंने,
"आगे का मार्ग, यही बताएंगे!" बोले वो,
"जी!" कहा हमने,
"मैं प्रातः मिलूंगा अब!" बोले वो,
"जी!" कहा हमने,
वे उठे, और लौटने लगे, हमारे सरों पर हाथ रख! बाबा धर्मनाथ वहीँ रुके रह गए! कुछ पल बीते,
"बैठो!" बोले वो,
"जी!" कहा मैंने,
"अमावस से पूर्व, मौन होगा, आठ घटी!" बोले वो,
"आदेश!" कहा मैंने,
"नेत्रों को बाँध लेना, दो घटी!" बोले वो,
''आदेश!" कहा मैंने,
"जो सुनो, करना!" बोले वो,
"अवश्य!" कहा हमने,
"शेष, आप जानते हो!" बोले वो,
"जी गुरु जी!" कहा मैंने,
"कोई प्रश्न?" पूछा मैंने,
"हाँ!" कहा मैंने,
"पूछिये!" बोले वो,
"बाबा जब वार-प्रतिवार करें, तो कैसे रक्षण हो?" पूछा मैंने, अपने मन का वो विवाद सा आगे कर दिया इस प्रश्न में!
"वो, आपको नहीं करना!" बोले मुस्कुराते हुए!
मेरे चेहरे पर, पके फल जैसी रंगत आयी!
"समझे?" बोले वो,
"जी! जी! धन्य हुए हम गुरु श्री!" कहा मैंने,
"आपका लक्ष्य सिर्फ वो साधक है, वो साधक नहीं!" बोले वो,
"जी, समझ गया हूँ!" बोले वो,
"अर्थात, तुम्हारा द्वन्द, उस साधक से है, जिसने तुम्हें चुनौती दी! उस से नहीं, जो बीच में स्वतः ही आएगा! वो आएगा, तो हम भी आएंगे!" बोले वो,
अब क्या था! अब कैसी चिंता! अब कैसी घबराहट! तपन नाथ! तेरा वो हाल करूँगा कि यदि मर गया तू, तो चील-कौवे भी मांस नहीं खाएंगे तेरा! मैं तो भर उठा! मुझे तो विजय-नाद ही सुनाई देने लगा!
आज्ञा ले, निर्देश ले, हम लौट पड़े वहाँ से! आ गए अपने कक्ष में! आज तो एक अलग सी ही प्रसन्नता थी! जी कर रहा था कि बस, अब सामने वो तपन नाथ हो, और आरम्भ हो द्वन्द! इस तपन नाथ का बहुत बुरा हाल करना था! कहीं का भी नहीं छोड़ना था उसे! इसने अपने दुष्कृत्यों को आगे बढ़ा बढ़ा, दम्भ से भर गया था! साथ में, वे वचन वश हुए बाबा बोड़ा, उसको प्राणदान दे रहे थे! क्या वे जानते नहीं थे? अवश्य ही जानते थे! तब उनकी क्या विवशता थी? शायद ये द्वन्द इसका उत्तर दे देता!
"अब देखते हैं बाबा बोड़ा क्या करेंगे!" बोला जीवेश,
"मुझे पता है!" कहा मैंने,
"क्या?" पूछा उसने,
"वे हमें हमारी ज़मीन दिखाएँगे!" कहा मैंने,
"कैसे? क्या ज़मीन?" पूछा उसने,
"देखते रहना, क्या भयानक वार-प्रतिवार होंगे!" कहा मैंने,
"कौन करेगा?" बोला वो,
"स्वयं बाबा बोड़ा!" कहा मैंने,
"वो क्यों?" बोला वो,
"वो चाहेंगे कि ये द्वन्द शीघ्र ही समाप्त हो!" बोला मैं,
"नहीं, शायद नहीं!" बोला वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"बाबा बोड़ा तो तब आएंगे जब तपन नाथ गिरेगा?" बोला वो,
"हाँ, तभी!" कहा मैंने,
"तब इसका अर्थ ये हुआ, कि सबकुछ बाबा के निर्देश में नहीं होगा?" बोला वो,
"यही तो नहीं पता!" कहा मैंने,
"नहीं, मेरा मतलब समझो!" बोला वो,
"क्या?" कहा मैंने,
"द्वन्द के समय क्या बोड़ा संग होंगे उसके?'' पूछा उसने,
"होने तो नहीं चाहियें?" कहा मैंने,
"इस से असर पड़ता है!" बोला वो,
"बहुत ज़्यादा!" कहा मैंने,
"सेनापति समान!" बोला वो,
"हाँ, सेनापति ही!" कहा मैंने,
उसने सर हिलाया अपना! कुछ सोचा!
"क्या सोच रहे हो?" पूछा मैंने,
"तांत्रिक-द्वंद का आरम्भ!" बोला वो,
"सबसे पहला?'' कहा मैंने,
"हाँ!" बोला वो,
"वीरभद्र एवम श्री गोरखनाथ जी के बीच!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोला वो,
"और द्वितीय?" पूछा मैंने,
"श्री हनुमान जी एवम श्री गोरखनाथ जी के बीच!" कहा उसने,
"हाँ, तभी मन्त्रों में बंधे वो!" कहा मैंने,
"हाँ, और श्री गोरखनाथ जी, नाथ हुए तदोपरान्त!" कहा मैंने,
"हाँ!" कहा उसने,
अभी हम बात कर ही रहे थे कि नन्दू चला आया, चाय ले आया, इस समय चाय की सख्त आवश्यकता थी!
"आ भाई नन्दू!" बोला जीवेश,
"आ गए जी!" बोला वो,
सामान रखा, और चाय डालने लगा कप में, डालकर, हमें दे दिया हमारा कप और बैठ गया!
"नन्दू?" कहा मैंने,
"जी?" बोला वो,
"ये धर्मनाथ बाबा कौन हैं?" पूछा मैनें,
"बड़े बाबा के जानकार!" बोला वो,
"कब से हैं?" पूछा मैंने,
"साल भर से!" कहा उसने,
"अच्छा! और कहाँ के हैं रहने वाले?" पूछा मैंने,
"लखनऊ के पास के!" बोला वो,
"घर-बार?" पूछा मैंने,
"हाँ, है!" बोला वो,
"आते-जाते हैं?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोला वो,
"अच्छा! बड़े बाबा के साथ हैं तो इस से बढ़िया और क्या!" कहा मैंने,
"हाँ जी!" बोला वो,
"वैसे सख्त लगते हैं!" बोला मैं,
"नाह!" बोला वो,
"अच्छा?" कहा मैंने,
"देखो जी, सासन सख्ताई से, पढ़ाई पिटाई से ही आती है!" बोला वो,
"हाँ! ये तो है ही!" बोला मैं,
कितनी सटीक बात कही थी उसने! ये बुज़ुर्गों की कही बातें हैं! शासन सख्ताई से ही चलता है और पढ़ाई, पिटाई से ही आती है! आजकल के विद्यार्थी भी वैसे नहीं और न अब गुरु श्री भी ऐसे ही! और जो हैं, वो बेचारे, अपनी ही लाज बचाने ले लगे रहते हैं! ये सब हो रहा है अब!
