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वर्ष २०११, बोड़ा! एक महान औघड़!

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श्रीशः उपदंडक
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"आ जाओ!" बोले ब्रह्म जी,
और आँखों से इशारा किया कि उनकी बात सुनें हम! हम समझ ही गए थे, खैर, देखते अभी कि करना क्या था! वो खब्ती इंसान यहां बैठा था, अब वो शान्त ही रहे, ये तो सम्भव ही नहीं था, शायद हम दोनों ने उसको अंदर तक चोट पहुंचा दी थी!
हम बैठ गए, एक जगह, वो तपन नाथ थोड़ा आगे बैठा हुआ था, काले रंग का कुरता और दाबेदार सी धोती में! कोई भी उसको ये देख कर अंदाजा लगा सकता था कि वो किस फ़ितरत का इंसान है!
"जी? कहिये?" बोला जीवेश!
"हाँ, बताता हूँ, पहले तो आराम से सुनिए, मेरी बात दोनों!" बोले वो,
"हम दोनों?" बोला मैं,
"आप और ये तपन नाथ जी!" बोले वो,
जी! उसके लिए जी! हम तो कभी न बोलते उसे जी! ऐसे जी में लगे आग! भाड़ में पड़े ऐसा जी!
"हाँ जी?" बोला जीवेश,
"सुनो जीवेश, बात ये है कि हो सकता है कि इन्हें गलतफहमी हुई हो...मान लेता हूँ मैं!" बोले वो,
"मानने वाली बात नहीं, न ही गलतफहमी वाली बात सही है, हमने कोई गलती नहीं की!" मैंने कहा,
पलट कर देखा उस तपन नाथ ने मुझे!
"ओहो! चलो मान लिया, अब पानी डालो!" बोले वो,
"ठीक है, जैसी आपकी इच्छा!" कहा मैंने,
"तो बात ये है कि अगर आप, इनसे क्षमा मांग लो, यूँ ही समझ लो कि आयु में बड़े हैं, तो मामला यहीं निबट जाएगा!" बोले वो,
"नहीं जी!" बोला जीवेश!
मेरे मन की बात ही कही उसने!
"वो क्यों?" पूछा उन्होंने,
"सुनिए, प्यार में, आयु के सम्मान में कोई हमारे सर, छाती पर पाँव धरे, तो एक उफ़ भी नहीं होगी, लेकिन कोई, बदमाशी दिखाए, अपना रुतबा दिखाए, भय दिखाए तो एक से सौ तक स्वीकार नहीं!" कहा जीवेश ने!
लाख पते की बात!
"तो ये मामला कैसे निबटे?" बोले वो,
"इस से पूछ लो?" कहा मैंने,
"ओए? ढंग से बात कर?" बोला वो गरज कर!
"अरे चुप हो जाओ, रुको ज़रा!" बोले ब्रह्म जी!
"ये क्या कहता है? क्या चाहता है?" बोला जीवेश,
"कि क्षमा मांग लो!" बोले वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"मामला ख़तम!" बोले वो,
"तो सुनो! इस सरभंग से कह दो, माफ़ी तो मांगने से रहे हम! जो करना हो, कर ले! भाड़ में जाए ये और भाड़ में जाए इसका सरभंगपन!" बोला मैं,
वो उठ खड़ा हुआ! आँखें बन्द कीं और खोल लीं! उसने अपना क्रोध दबा लिया, कोई और होता तो अवश्य ही, उस पर बरस पड़ता वो!
"ब्रह्म?" बोला वो,
"हाँ जी?" बोले वो,
"इनसे कह दो, जाओ, खैर मनाओ अपनी, मैं निबट लूंगा इनसे, अपने तरीके से ही!" बोला वो गुस्से में!
"तू निबटेगा? तू? तेरी औक़ात है सामने आने की भी? वो तो इनकी शर्म है, नहीं तो तेरी खाल छील चुके होते हम!" कहा जीवेश ने!
"आएगा! वो दिन भी आएगा!" बोला वो,
'कौन सा दिन? ओ पहलवान?" पूछा मैंने,
"जब तेरा कटा सर मेरे पांवों में होगा!" बोला वो कांपते हुए!
"सपना बहुत देहात होगा! ये फिर आज तक, गरीब, भिखारी ही दबाये होंगे तूने!" कहा मैंने,
"तू नहीं जानता मैं कौन हूँ!" बोला छाती में मुक्का मारते हुए वो!
"बता तो मैं भी सकता हूँ! लेकिन जान्ने के बाद, तुझे आंव छूट जाएंगे!" कहा मैंने,
"अरे जा? कल का सिपैटी(साधक, मुर्दों का) आया मुझे डराने?" बोला वो,
"और तू?" बोला जीवेश!
''अरे चुप लगाओ?" बोले ब्रह्म जी!
"तू चुप हो जा अब!" बोला वो ब्रह्म जी से, मुंह पर ऊँगली धरते हुए!
"हाँ, रुको आप बस!" कहा मैंने,
"मेरे बारे में जान लेगा न? तो मुंह करके भी नहीं सोयेगा इधर?" बोला वो,
"हाँ जान लिया!" कहा मैंने,
"और हम तो डर गए जी! पाँव घुस गए ज़मीन में!" बोला जीवेश!
"बहुत काटे तेरे जैसे मैंने!" बोला वो,
"मेरे जैसे? काटे होंगे! मैं नहीं!" बोला जीवेश!
"ब्रह्म?" बोला वो,
"ह...हाँ जी?" बोले वो अब घबराते हुए!
"इनके क्रिया-कर्म का बन्दोबस्त कर अब!" बोला वो,
"करो बन्दोबस्त! करो! देखते हैं, किसको लाकड़ी जूठन बनाये!" बोला जीवेश!
"सौगन्ध है मुझे, तेरा मांस सेंक के खाऊंगा मैं!" बोला वो, गुस्से में!
"तू ज़िंदा बचेगा तब न?" बोला जीवेश!
"ये तो बस मैं जानता हूँ!" बोला वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
''तू कुछ नहीं जानता!" बोला जीवेश,
"अगर जानता तो इतने बड़े बोल न बोलता तू!" बोला मैं,
"जा? जो करना है कर!" बोला वो,
"हमें क्या करना है?" पूछा मैंने,
"करना है तू कर!" बोला जीवेश!
"ब्रह्म? इन्हें बता देना!" बोला वो,
और पाँव पटकता हुआ, नथुने चौड़ाता हुआ, निकल भागा वो वहां से! ब्रह्म जी ने उसे रोकने की कोशिश की, नहीं रुका वो! लौट आये ब्रह्म जी!
"ये क्या कर लिया?" बोले वो,
"क्यों? क्या हुआ?" पूछा मैंने,


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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"सत्यानाश हो गया अब!" बोले वो, सर पर हाथ मारते हुए!
"क्यों?" पूछा मैंने,
"तुम उसे नहीं जानते!" बोले वो,
"जान गया हूँ!" बोला मैं,
"क्या?" पूछा उन्होंने,
"खोखला तना है!" कहा मैंने,
"नहीं, गलतफहमी है तुमको!" बोले वो,
"अच्छा?" कहा मैंने,
"हाँ, गलतफहमी!" बोले वो,
"तो अब क्या किया जाए?" पूछा मैंने,
"अब तो कोई गुंजाइश भी नहीं बची?'' बोले वो,
"क्या ज़रूरत?" बोला मैं,
"इतने भी घमंडी न बनो?" बोले वो,
"मैं नहीं, वो है घमंडी!" कहा मैंने,
"अब देखना तुम!" बोले वो,
"वो क्या?'' पूछा मैंने,
"अब भेजेगा चेतावनी!" बोले वो,
"फिर?'' पूछा मैंने,
"फिर अंतिम निर्णय!" बोले वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"फिर?" बोले वो,
"हाँ, फिर?" कहा मैंने,
"ख़तम सबकुछ!" बोले वो,
"मतलब कि प्राण!" कहा मैंने,
"हाँ! साफ़ साफ़ शब्दों में!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"तुम उसे जानते ही नहीं!" बोले वो,
"एक बात बताइये?'' पूछा मैंने,
"क्या?'' बोले वो,
"मुझे जानते हो आप?'' पूछा मैंने,
"हाँ, तुम मित्र हो न जीवेश के?" बोले वो,
"और?" पूछा मैंने,
"और क्या?" बोले वो,
"काशी तो गए होंगे?" अब बोला जीवेश!
"हाँ, ये भी कोई पूछने का प्रश्न है?" बोले वो,
"किसी महाबल नाथ जी का नाम सुना है?" बोला वो,
जैसे ही नाम सुना, आँखें, भिंची और फिर, विस्मय से खुल गयीं!
"हाँ, सुना है?" बोले वो,
"कौन?" पूछा उसने,
"काठ वाले?" बोले वो,
"हाँ, काठिया बाबा!" बोला जीवेश!
"हाँ, देखा भी है मैंने? तो?'' बोले वो,
"इनके गुरु श्री हैं!" बोला जीवेश!
विस्मय! स्तब्ध! चकित!
"क्या सच में?" बोले वो,
"है, सच में!" बोला वो,
"वो सिंगिधर वाले ही न?" बोले वो,
"है, वो बाबा काश्व हैं!" बोला जीवेश!
"अब आया समझ!" बोले वो,
"इसीलिए तो कहा था, कि डरो मत!" बोला जीवेश,
"अब मैं इसके बारे में बताऊं?" बोले वो,
"हाँ, बताइये?" बोला जीवेश,
"ये, बंगाल का है, रूपन-विद्या का महाज्ञानी! लोहतंग विद्या का धनी है!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"हाँ, और एक बात विशेष है!" बोले वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"ये बहुत तीव्र है!" बोले वो,
"तीव्र?" पूछा मैंने,
"है, प्रहार और फिर प्रहार!" बोले वो,
"लोहतंगा प्रहार!" कहा मैंने,
"हाँ! देवी-सिद्ध है!" बोले वो,
"होगी!" बोला जीवेश!
"इसीलिए इतना घमण्ड?" बोला मैं,
"हाँ, कोई रुकता नहीं इसके सामने!" बोले वो,
"सर छिन्न करता होगा?" बोला मैं,
''हाँ!" बोले वो,
"और धड़ तब क्षमा मांगता होगा!" कहा मैंने,
"हाँ, पल भर के लिए!" कहा उन्होंने,
"आपने देखा?" पूछा मैंने,
"नहीं, सुना बस!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"तो इसका मुख्य बल यही है?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोले वो,
"नहीं? हम दोनों ही चौंके तब!
"फिर?" बोला जीवेश!
"बोड़ा!" बोले वो,
"बोड़ा? ये कौन?" पूछा मैंने,
"ये है असली बल उसका!" बोले वो,
"कहाँ के हैं?" पूछा मैंने,
"कोई नहीं जानता!" बोले वो,
"आवास कहाँ है?" पूछा मैंने,
"कोई नहीं जानता!" बोले वो,
"तो यहां आते कैसे हैं?" पूछा मैंने,
"उन्हें सम्भवतः संज्ञान हो उठता है!" बोले वो,


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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"उन्हें आत्म-संज्ञान हो उठता है, यही न?" पूछा मैंने,
"हाँ, यही आशय है मेरा!" बोले वो,
"तो ये बन्धन हुआ! इसका अर्थ हुआ, कि ये सरभंग इन बाबा का अवश्य ही शिष्य रहा है!" कहा मैंने,
"ये तो मैं नहीं जानता!" बोले वो,
"शिष्य कैसे हो सकता है?" बोला जीवेश,
"क्यों नहीं?" बोले ब्रह्म जी!
"वो, महान बाबा लगते हैं, और ये? ये तो पासंग भी नहीं उनका? ऐसा कैसे सम्भव है?" पूछा जीवेश ने,
"होते हैं कई कारण!" बोला मैं,
"मैं नहीं मानता!" बोला वो,
"कोई बात नहीं!" बोले ब्रह्म जी,
"क्या आयु होगी उनकी?'' पूछा मैंने,
"कोई सही तरह से नहीं जानता, लेकिन सत्तर के आसपास तो होंगे ही?" बोले ब्रह्म जी,
"सत्तर?" कहा मैंने,
"हाँ, कम से कम!" बोले वो,
"और रंग-रूप?" पूछा मैंने,
"देखने वाले बताते हैं, श्वेत सा वर्ण है, श्वेत से ही केश हैं, और देह भी भारी नहीं इकहरी ही है!" बोले वो,
"समझा!" कहा मैंने,
"और रूप से?" पूछा मैंने,
"कहते हैं, कि वे जब द्वंद में होते हैं, तब, वे साक्षात दंडघण्ट से प्रतीत होते हैं! दंडघण्ट तो जानते ही होंगे?" बोले वो,
''हाँ! ये द्वितीय-बन्ध के महावीर हैं, अधिष्ठाता, ये दंडघण्ट!" बोला मैं,
"हाँ, हाँ! श्री भैरो नाथ जी के!" बोले वो,
"क्या?'' जीवेश ने हैरानी से पूछा!
"हाँ, समझ गया मैं!" कहा मैंने,
"हाँ, इनका वाहन भी श्वान है, उसके गले में कपाल लटका होता है! रक्त का टीका माथे होता है! समझ गया मैं!" कहा मैंने,
"इसका अर्थ क्या समझूँ?" बोला जीवेश!
"यही कि दंडघण्ट सिद्ध हैं उनसे!" बोला मैं,
"ऐसा सम्भव है क्या?" बोला जीवेश!
"ठान लो तो क्या असम्भव!" कहा मैंने,
"तब तो राह आसान नहीं?" बोला जीवेश!
"अब समझ आता है उसका घमण्ड!" कहा मैंने,
तभी वहां पर एक बुज़ुर्ग से बाबा आ गए, आये और बैठ गए मूढ़े पर, हमें देखा तो प्रणाम किया उन्होंने, हमने भी किया!
"कोई विशेष चर्चा हो तो बाद में आऊं?" बोले वो,
"न बाबा! बैठो आप!" बोला जीवेश!
"पानी लोगे बाबा?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
तब जीवेश ने, पानी दिया उनको, उन्होंने पानी पिया और गिलास वापिस कर दिया! हम तीनों फिर से इकट्ठे हो गए!
"बजरू बाबा?" बोले ब्रह्म,
"हाँ?" बोले वो बाबा,
"उनको जानते हो न? वो बोड़ा बाबा?" बोले वो,
''हाँ, खूब!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"कोई बात है क्या?" पूछा उन्होंने,
"नहीं, उनके बारे में बता रहा था इन्हें!" बोले ब्रह्म जी!
"उनकी तो आयु के बारे में ज्ञात नहीं किसी को!" बोले वो बाबा,
"मतलब?" पूछा मैंने,
"दस साल पहले भी वैसे, और बीस साल पहले भी वैसे!" बोले वो,
"मतलब रंग-रूप नहीं बदला?" पूछा मैंने,
"ना जी! ज्यों का त्यों!" बोले वो,
"कमाल है!" कहा मैंने,
"हाँ जी!" बोले वो,
"कहाँ रहते हैं?" पूछा मैंने,
"कोई नहीं जानता!" बोले वो,
"कोई भी नहीं?" पूछा मैंने,
"कोई भी नहीं!" बोले वो,
"इस तपन नाथ से कोई सम्बन्ध है क्या उनका?" पूछा जीवेश ने,
"नहीं तो?" बोले वो,
"तपन नाथ तो कह रहा था?" बोला जीवेश,
"मैं नहीं जानता जी!" बोले वो,
"ठीक" कहा मैंने,
"कोई बात हुई क्या?" पूछा उन्होंने,
''आपको नहीं मालूम?" पूछा मैंने,
"मैं तो अभी आया, क्या हुआ?" पूछा उन्होंने,
"बता दूंगा!" बोले ब्रह्म जी,
"कोई ऊंच-नीच हुई क्या?" पूछा बाबा ने,
"नहीं!" बोले ब्रह्म जी!
"अच्छा!" बोले वो,
"अच्छा ब्रह्म जी, कल मिलते हैं!" कहा मैंने,
"हाँ ठीक!" बोले वो,
और हम बाहर निकल आये कक्ष से! सीधे अपने कक्ष में चले आये! यहां आये तो फिर से दौर शुरू किया!
"कमाल ही है!" बोला जीवेश,
"हाँ!" कहा मैंने,
"लेकिन ऐसा उच्च साधक इसके साथ क्यों?" बोला जीवेश,
"करते हैं पता!" बोला मैं,
"कोई सम्बन्ध होगा? क्यों?" बोला जीवेश,
"अभी नहीं कह सकता मैं! कुछ भी!" कहा मैंने,


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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"बोड़ा?" बोला जीवेश!
"हाँ, बोड़ा बाबा!" कहा मैंने,
"कभी नहीं सुना ये नाम!" बोला वो,
"मैंने भी कभी नहीं सुना!" कहा मैंने,
"अजीब सी बात नहीं?" बोला वो,
"क्या अजीब?" बोला मैं,
"ऐसा उच्च साधक, और इतना अज्ञात?" बोला वो,
"उच्च तो अज्ञात ही होंगे!" कहा मैंने,
"हाँ, ये भी ठीक!" बोला वो,
"क्या लगता है तुम्हें?" पूछा मैंने,
"क्या?" बोला वो,
"कल क्या होगा?" पूछा मैंने,
"सब वही!" बोला वो,
"हाँ, सब वही का वही!" बोला मैं,
"लेकिन, अब नहीं हटना पीछे!" बोला वो,
"सवाल ही नहीं!" कहा मैंने,
तभी बाहर से कुछ ढोलक की सी आवाज़ आयी! ढोलक सी बजी और फिर खड़ताल से बजे!
"ये कौन?" बोला मैं,
"देखता हूँ!" कहा उसने,
वो उठ कर बाहर गया, थोड़ा और आगे गया, कुछ देर रुका और फिर लौट आया, बैठ गया,
"कौन है?" पूछा मैंने,
"कोई कुआं-पूजन सा लगता है!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"हाँ, औरतें ही औरतें हैं!" बोला वो,
"कुआँ तो है इधर, वो बड़ा सा!" कहा मैंने,
"हाँ, कहते हैं वो कुआँ ही था यहां पहले!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
तभी विनोद आ गया उधर, इस बार डोल में कुछ भर लाया था, दो कटोरे भी, और टेढ़े-मेढ़े चम्मच से भी! उसने डोल रख दिया उधर!
"क्या लाया?" पूछा जीवेश ने,
"मच्छी!" बोला वो,
"भाई वाह!" कहा मैंने,
"मच्छी कहाँ से लाते हो विनोद?" पूछा मैंने,
"बाज़ार से ही, कभी कभी मल्लाह भी दे जाते हैं!" बोला वो,
डोल खोला तो ख़ुशबू उडी! लाजवाब लाल रंग था शोरबे का! उसने डोल में से, चमचा दाल कर, हमारे लिए, दो दो टुकड़े परोस दिए! नमक भी रख दिया!
"पानी?" बोला वो,
"हाँ, लाना है!" कहा मैंने,
"लाओ!" बोला और बोतल ले ली, बिसलेरी की दो लीटर वाली बोतल थी, ठंडी लाता था, फ्रिज में से!
"चटनी है? लाऊं?" बोला वो,
"ये भी कोई पूछंने की बात है?" बोला जीवेश!
"लाया!" हंसते हुए चला गया!
"रोहू लगती है!" बोला वो,
"ना, गंगा जी की मलैट है!" कहा मैंने,
"लगती तो वैसी ही है?" बोला वो,
"ये गहरे रहती है, सुनहरा रंग होता है इसका!" बोला मैं,
"अच्छा!" बोला वो,
"खाओ!" कहा मैंने,
हम खाने लगे, इस मच्छी में कांटे ज़्यादा होते हैं, लेकिन फायदेमंद बहुत होती है, जिनको रक्तचाप, हृदय की समस्य हो, उनके लिए अचूक औषधि है ये! तो तभी, विनोद आ गया, एक कटोरी में चटनी ले आया था, पुदीने और लहसुन की तेज गन्ध आ रही थी!
"ये लो पानी!" बोला वो,
"बहुत बढ़िया!" बोला जीवेश,
"कुछ चाहिए हो, तो बता देना!" बोला वो,
और लौट गया!
"हाँ तो हम क्या बात कर रहे थे?" बोला वो,
"वो बोड़ा बाबा!" कहा मैंने,
''हाँ! बोड़ा बाबा!" बोला वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"वो दण्डघण्ट की क्या बात थी?" पूछा उसने,
"श्री भैरव नाथ जी के चौंसठ वीर हैं!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोला वो,
"पहली पंक्ति में, मणिभद्र क्षेत्रपाल और घण्टाकर्ण जी हैं!" कहा मैंने,
"हाँ?" बोला वो,
"द्वित्य में, ये दंडघण्ट इस पंक्ति के अधिष्ठाता हैं!" कहा मैंने,
''अच्छा! अब समझा!" बोला वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"तो बोड़ा बाबा ने सिद्ध किया है उन्हें?" बोला वो,
"सम्भव है!" कहा मैंने,
"तब कैसे पार पड़ेगी?" बोला वो,
"देखेंगे!" कहा मैंने,
"ये हरामज़ादा, कुत्ता, इन्हीं बोड़ा बाबा के ऊपर धार लगाता होगा!" बोला वो,
"ये तो साफ़ है!" कहा मैंने,
"समझ गया!" बोला वो,
"कुछ नीति बनानी पड़ेगी!" कहा मैंने,
"हाँ, सो तो है!" बोला वो,
"खैर, कोई बात नहीं!" बोला वो,
"अब सर दिया ओखली में तो मूसल से क्या डर!" कहा मैंने,
''हाँ सो तो है ही!" बोला वो,
और हमने उठाये अपने अपने गिलास, सीधा कण्ठ से नीचे!


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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उस रात हम बातें करते करते, कुछ अटकलें लगाते हुआ, सो गए, भोजन कर ही लिया था, नींद बेहद अच्छी आयी! ये कक्ष ज़रा बाहर की तरफ बना था, हवा सीधी अंदर ही आती थी, रात में करीब तीन के आसपास तो चादर भी निकालनी पड़ गयी थी! ठंडा मौसम हो गया था, नींद बढ़िया आयी!
सुबह हम, फारिग हुए, स्नान-ध्यान से और फिर चाय ले आया विनोद, साथ में आलू-पूरियां थीं, यहां तो यही चलता है! खैर साहब, हमने चाय पी, नाश्ता किया और फिर घूमने के लिए एक अलग सी जगह चल पड़े! उस तरफ बसावट नहीं थी, खेत आदि भी नहीं थे लेकिन ज़मीन कुछ खादर के जैसी थी, शायद ये नदी का किनारा होगा! हम निकल आये उधर ही, यहां तो नज़र ही अलग था! यहां प्राकृतिक सौंदर्य बिखरा पड़ा था, एक जगह कुछ खजूर के पेड़ लगे थे, उन पेड़ों के बीच में कुछ पेड़ों का, पौधों का झुरमुट सा था, उन्हीं खजूर के पेड़ों में, दरज़न-चिड़िया ने अपने घोंसले बनाये हुए थे! ये घोंसले, बरसात में भी गीले नहीं होते अंदर से! जल-रोधी ही जानिये इन्हें! बेहद ही शानदार बने होते हैं! छोटी सी चिड़िया और समझो किले का सा निर्माण! ये सब कला उसे, उसके माँ-बाप से मिलती है और कुछ उनका सहज ज्ञान! उन्हीं पेड़ों के पास, पपोटन के भी पौधे लगे थे, जंगली वाली, ये मीठी होती हैं! अभी पकी नहीं थीं, कुछ समय था अभी पकने में उन्हें!
"वो किनारा है शायद?" बोला जीवेश,
"हाँ, लगता तो है!" कहा मैंने,
"आओ, देखते हैं!" बोला वो,
"चलो!: कहा मैंने,
और हम चल पड़े उस किनारे के लिए, आसपास कुछ क्यारियाँ सी लगी हुई थीं, कुछ एक में फूल उगे थे और कुछ एक में, भांग के पौधे खड़े थे!
"इस बहन** ने सारा मलीदा बना दिया!" बोला वो,
मुझे हंसी सी आ गयी!
"भूलो यार!" कहा मैंने,
"कैसे भूलूँ?" बोला वो,
"अब जो होगा, देख लेंगे!" कहा मैंने,
"सो तो है ही, लेकिन न ये मिलता और न ही काम होता खराब!" बोला वो,
"अब सम्भव है, हम इसीलिए यहां आये हों?" कहा मैंने,
"हाँ, हो सकता है!" बोला वो,
"तुम्हें कितना वक़्त हुआ?" पूछा मैंने,
"किसमे?" पूछा उसने,
"ऐसे हाथम-हाथ में?" पूछा मैंने,
"बहुत!" बोला वो,
"फिर भी?" पूछा मैंने,
"तीन तो हो गए होंगे!" बोला वो,
"कोई बात नहीं!" कहा मैंने,
"वो बाबा बिसराम थे ना?" बोला वो,
"हाँ?" कहा मैंने,
"उनके साथ ही बैठा था!" बोला वो,
"अब कहाँ हैं बाबा?" पूछा मैंने,
"पूरे हो लिए!" बोला वो,
"कब?" पूछा मैंने,
"डेढ़ साल हुआ!" बोला वो,
"बीमार थे क्या?" पूछा मैंने,
"हाँ" बोले वो,
"अच्छा, चलो, भगवान उनकी आत्मा को शान्ति दे!" कहा मैंने,
"लो, आ गए!" बोला वो,
"ये तो कोई जल-धारा सी है!" कहा मैंने,
"हाँ. वही है!" बोला वो,
"सहायक नदी आदि!" कहा मैंने,
"वही है!" बोला वो,
"आओ, बैठें" कहा मैंने,
एक अच्छी से जगह देख कर, हम बैठ गए!
"ये ब्रह्म जी, मदद कर देंगे?" पूछा मैंने,
"कर देंगे!" बोला वो,
"आज पता चले कुछ!" कहा मैंने,
"है, फिर देखते हैं!" बोला वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
तभी मेरा फ़ोन बजा, मैंने देखा तो एक जानकार का था, काटना पड़ा, क्योंकि मैं
 अभी दूर था वहां से!
"तुम्हें कितना वक़्त हुआ?" पूछा उसने,
"दो साल मानो!" बोला मैं,
"अच्छा!" बोला वो,
घास अच्छी थी, तो जीवेश लेट गया उधर ही,
"सोचा था यहां से सीधा अपनी जगह ही जाएंगे, थोड़ा वक़्त बिताएंगे और फिर वैसे भी, वक़्त मिलता ही कहाँ है?" बोला वो,
"हाँ, सही कहा!" कहा मैंने,
"इस मादर** ने सारा कार्यक्रम तबाह कर दिया!" बोला वो,
"क्या करें!" कहा मैंने,
"इसका वो हश्र करना है कि याद रखे!" बोला वो, गुस्से में!
"ये तो वो वक़्त ही बताएगा!" कहा मैंने,
'हाँ, चलो, निकालेंगे कुछ रास्ता!" बोला वो,
"निकालना ही पड़ेगा!" कहा मैंने,
"हां, ये भी कम नहीं लगता!" बोला वो,
"अब देखें, ऊंट किस करवट बैठता है!" कहा मैंने,


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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हम करीब पौने घण्टे वहां रहे, यही सब बातें होती रहीं, और फिर हम लौट पड़े! गर्मी सी लगने लगी थी, तो मैं तो हाथ-मुंह धोने चला गया था! जीवेश भी अपने ताऊ जी के पास मिलने चला गया था, मैं आया वापिस, अपने कक्ष में, तभी जीवेश भी आ गया! आया और बैठ गया!
"कोई बात?'' पूछा मैंने,
"नहीं" बोला वो,
"किसी ने भी सम्पर्क नहीं किया?" पूछा मैंने,
"नहीं" बोला वो,
"तब दिन में करे वो!" बोला मैं,
"करने दो!" बोला वो,
तभी उसका फ़ोन बजा, वो नम्बर देख, उठा और बाहर चला गया! शायद कोई निजी कॉल थी, इसमें कुल बीस मिनट लग गए थे, वो आया, और इधर-उधर देखा,
"क्या हुआ?" पूछा मैंने,
"यार चार्जर था इसका?'' बोला वो,
"उधर खूंटी पर है!" कहा मैंने,
"अरे हाँ!" बोला वो,
खूंटी से उतारा और लगा दिया सेल-फ़ोन में! और आ कर बैठ गया!
"कहाँ सा था फ़ोन?" पूछा मैंने,
"कुछ सामान के बारे में था" बोला वो,
"सामान?" पूछा मैंने,
"उधर, गोरखपुर के लिए!" बोला वो,
"अच्छा!!" कहा मैंने,
तभी एक सहायक आया अंदर, सीधे ही आ गया था, न आवाज़ और न खटखटाहट!
"हाँ?" कहा मैंने,
"बुला रहे हैं" बोला वो,
"कौन?" पूछा मैंने,
"उधर" बोला वो,
"आओ जीवेश!" कहा मैंने,
"चलो!" बोला वो,
चप्पलें पहन, हम चल दिए वहां के लिए, जा पहुंचे, दो तीन आदमी बाहर बैठे थे, पान काटकर, तैयार किये जा रहे थे, हमें देखा तो प्रणाम किया!
"लोगे जी?" बोला वो सुपारी काटने वाला,
"हाँ, अभी बस!" कहा मैंने,
"अच्छा जी!" बोला वो,
और हम अंदर चले गए कमरे के, अंदर, ब्रह्म जी और एक आदमी और था, वो कोई पचास साल के आसपास का रहा होगा!
"आओ!" बोले ब्रह्म जी,
"प्रणाम जी!" बोला मैं,
"प्रणाम, बैठो!" बोले वो,
हम बैठ गए उधर ही!
"ये तपन नाथ के यहां से आये हैं?" बोला जीवेश!
"ये? अरे नहीं!" बोले वो,
"ओह! मैंने समझा वहीँ से हैं!" बोला जीवेश!
"नहीं नहीं!" बोला वो,
"किसलिए बुलाया?" बोला जीवेश,
"बुलाया इसलिए, कि क्या सोचा?" बोले वो,
"किस बारे में?" पूछा मैंने,
"तपन बाबा के बारे?" बोले वो,
"उसके बारे में क्या सोचना?" बोला मैं,
"क्या सोच ली?'' बोले वो,
"कुछ नहीं!" कहा मैंने,
"सोचना क्या है उसके बारे में?'' बोला जीवेश,
"कुछ तो?'' बोले वो,
"सोचे, वो? हम क्यों?" कहा मैंने,
"उसे जानते नहीं हो आप!" बोला वो आदमी, जो अब तक चुप बैठा था!
"कैसे नहीं जानते?" पूछा मैंने,
"वो अत्यंत ही कुशल है!" बोला वो,
"तो?" कहा मैंने,
"उस से टकराना और जीतना, असम्भव ही है!" बोला वो,
"ये तुम हमें बता रहे हो या तरफदारी कर रहे हो उसकी?" पूछा मैंने,
"मेरा कोई लेना-देना नहीं उस से!" बोला वो,
"फिर अंसभव कैसे?" पूछा मैंने,
"उसके पास, एक से बढ़कर एक विद्या वाले हैं!" बोला वो,
"तब?" कहा मैंने,
"तब?" बोला वो आदमी,
"हाँ?" पूछा जीवेश ने,
"सब मुश्किल ही लगता है!" कहा उसने,
"हमें जानते हो?'' पूछा मैंने,
"हाँ, बताया इन्होंने!" कहा उसने,
"तो समझ लो, हम भी कम नहीं!" कहा मैंने,
"आगे आपकी मर्ज़ी!" बोला वो आदमी,
"सुनो ताऊ जी, ऐसे न बुलाया करो, कोई वहां से आये, तब बुलाओ, ऐसे तो हर कोई, उसका ही निकलेगा! कोई कुछ कहेगा और कोई कुछ!" कहा जीवेश ने!


   
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श्रीशः उपदंडक
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हम उठने को हुए, और चलने लगे बाहर! कि बाहर दो आदमी दिखाई दिए, सीना तान कर चलते हुए, गले में मोटे मोटे से, गलबूटे धारण किये, आ गए दरवाज़े था, रुक गए वहीँ अंदर झाँकने लगे! बाहर, पान बनाते हुए आदमी भी, उन्हें देखने लगे! इसका मतलब वे, यहां के तो नहीं थे! दोनों ने ही माथे पर, पीली-खड़िया से, त्रि-मण्डल काढ़ा हुआ था!
"ब्रह्म?" बोला एक,
"हाँ? बोले वो,
"बाहर आ?'' बोला वो आदमी, ज़रा तैश में!
"अंदर जो आ जाओ?" बोले ब्रह्म जी,
और वे दोनों अंदर आ गए, एक जगह बैठ गए!
"हाँ जी?" बोले ब्रह्म जी,
"सुन, जो हुआ, तू जानता है!" बोला एक,
"हाँ, सभी जानते हैं!" बोले वो,
"अब जो होगा, वो भी जानता होगा?" बोला वो,
सर हिलाया, धीरे से..हाँ में उन्होंने!
"सुन?" बोला वो,
"हाँ?" बोले ब्रह्म!
"वो कौन हैं?" पूछा एक ने,
"ये रहे!" बोले वो,
अब उन्होंने हमें घूर एक देखा, ऊपर से नीचे तक! फिर दोनों ने एक दूसरे को देखा! और फिर हमें!
"मूर्ख हो क्या?" बोला एक,
"हम तो नहीं, तू ज़रूर लगता है!" कहा मैंने,
मेरा जवाब सुन, उसकी कमर में आयी लोच, झट से खत्म, सीधा हो, बैठ गया!
"अरे पागल हो क्या?'' बोला दूसरा!
"उस पागल तपन ने भेजा है क्या?" पूछा मैंने,
"ओए?" चीख़ा वो!
"बैठा रह वहीँ! कोई खिलाड़ी नहीं लगता मुझे तू!" बोला मैं,
"ये तो सच में ही पागल हैं!" बोला एक, दूसरे ने हाँ कहीं!
"अब जो भौंकने आया है वो बता? तब तो ठीक, नहीं तो उठा टोकरा और निकल यहां से!" बोला मैं,
"अरे ओ ब्रह्म?" बोला एक,
"हाँ?' बोले वो,
"ये कैसे कैसे लोगों को आने देता है तू?" बोला वो,
"ये मेरे अपने ही हैं!" बोले वो,
"तो इन अपनों को, अपनेपन से समझाया नहीं?" बोला वो,
"क्या समझाऊं?" बोले वो,
"यही कि पढ़ने की दिन हैं, क्यों मरना चाहते हैं?" बोला वो,
"इसका जवाब मैं दूँ?" बोला मैं,
"हाँ? क्या?" बोला वो,
"उठ?" बोला मैं,
अजीब सा लगा उसे बहुत!
"हाँ, दोनों ही? तुमसे ही कहा, उठो?" बोला जीवेश!
"ऐसी हिम्मत?" बोला एक आँखें गोल किये हुए!
"हिम्मत देखनी है?" बोला जीवेश,
"जीभ मत चला ज़्यादा? समझा?" बोला एक,
आगे चला जीवेश, मैं भी!
"चल? निकल अब?" बोला जीवेश, चुटकी बजाते हुए!
"ब्रह्म?" बोला वो,
"हाँ?" बोले वो,
"ये क्या बदतमीज़ी है?" बोला वो,
"मुझे क्या पता?" बोले वो,
"अंजाम जानता है?" बोला एक,
"अब ये जानें!" बोले ब्रह्म!
"ये तो जाएंगे ही, तेरा भी अब टन्टा कट जाएगा!" बोला वो,
"अब अगर, ज़रा भी चटक-पटक की, तो ऐसा झापड़ दूंगा, कि यहीं बिलबिला जाएगा तू!" बोला जीवेश!
खड़े हुए दोनों ही!
"बहुत बुरा अंजाम होगा!" बोला वो,
"तू भी आ जाइयो उधर!" बोला जीवेश,
"ब्रह्म?" बोला एक,
"हाँ?" पूछा उन्होंने,
"तेरे से ऐसी उम्मीद नहीं थी!" बोला वो,
"फिर क्या उम्मीद थी?" बोला जीवेश,
"हुंह?" बोले दोनों, हमें घूरा!
"अब देखी जायेगी!" बोला वो,
"निकल जा अब नाक की सीध में!" कहा मैंने,
वो दोनों, पाँव पटकते हुए, चले गए बाहर! गालियां भी दे गए थे! हमने भी बाहर आ कर, जाते हुए उनके, खूब ही गालियां दीं!
"आये थे साले ठेकेदार!" बोला जीवेश!
मैं हंस पड़ा उसकी बात सुनकर!
"हाँ, डराने आये थे!" बोला वो,
"हाँ, सोचा होगा, मना लेंगे, कोई बात नहीं होगी! लौट गए हरामज़ादे बैरंग ही!" कहा मैंने,


   
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श्रीशः उपदंडक
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वे दोनों अपना सा मुंह लटकाए चले गए थे, अब वो दो की चार और चार की सोलह बताकर, आगे परोसते! हमें कोई चिंता नहीं थी, यदि ये बाबा बोड़ा, न्यायप्रिय होंगे तो अवश्य ही दो बार सोचेंगे! चूँकि, सच्चा साधक वही है तो न्याय के संग हो, जो उचित हो, वही उसके लिए उचित रहे, अब चाहे मस्तक कटे या फिर शाप ही लगे! अचानक से एक सवाल दिमाग में आया मेरे! सवाल की ज़मीन बड़ी ही मज़बूत थी! सो पूछना वाज़िब बनता था!
"ब्रह्म जी?" कहा मैंने,
"हाँ?" बोले वो,
"ये जो बाबा बोड़ा हैं, ये क्या, सरभंग श्रेणी से हैं?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोले वो,
''तब?" पूछा मैंने,
"वे शैव-मार्गी हैं!" बोले वो,
"तो एक शैव-मार्गी और ये घटिया सरभंग?" पूछा मैंने,
"नहीं जानता!" बोले वो,
"क्या कोई सम्बन्ध है?" पूछा मैंने,
"नहीं जानता!" बोले वो,
"कोई ऐसा है जो जानता हो?" पूछा मैंने,
"कोई...अ......" बोलते बोलते आँखें बन्द कीं उन्होंने! और हाथ की ऊँगली को नचाने लगे!
"हाँ!" बोले वो,
"कौन?" पूछा मैंने,
"यहां से, करीब दो किलोमीटर दूर एक मन्दिर है, श्री भैरव जी का, वहां पर एक अवधूत हैं, अवधूत बालेश्वर!" बोले वो,
"अवधूत?" कहा मैंने,
"हाँ? क्यों?" बोले वो,
"वो अवधूत, हमें क्यों बताएंगे!" कहा मैंने,
"माला को ले जाओ?" बोले वो,
"कौन माला?'' पूछा मैंने,
"यहीं है एक, अवधूत की सेविका रही हैं!" बोले वो,
"अब नहीं हैं क्या?"
"हैं, अभी भी!" बोले वो,
"अब कहाँ होंगी माला?'' पूछा मैंने,
"शाम को मिलेगी अब तो!" बोले वो,
"ठीक!" कहा मैंने,
"वैसे ले तो जाएंगी हमें मिलाने?" बोला जीवेश!
"क्यों नहीं!" बोले वो,
"वैसे ये अवधूत जी, जानते हैं बाबा को?" पूछा मैंने,
"हाँ, जानते हैं!" बोले वो,
"ये तो बहुत बड़ी मदद होगी!" कहा मैंने,
"हाँ, क्यों नहीं!" बोले वो,
"जी धन्यवाद! अब हम आते हैं शाम को!" कहा मैंने,
"हाँ, आइये!" बोले वो,
और हम उन्हें प्रणाम कर, वापिस अपने कक्ष में आ गए! अब भूख लगने लगी थी!
"भूख लगी है?" पूछा मैंने,
"पूछो ही मत!" बोला वो,
"चलें?" बोला मैं,
"मैं मंगवाता हूँ!" बोला वो, और चला गया बाहर, मैंने कमरे में आ कर, पानी पिया, और बैठ गया कुर्सी पर!
कुछ ही देर में, विनोद को ले आया वो, विनोद ने रात वाले बर्तन उठाये और चला गया, पानी की बोतल ले गया था!
"ये अवधूत मदद कर दें तो बात बने!" कहा मैंने,
"हाँ, कुछ न कुछ तो पता चलेगा!" कहा मैंने,
"हाँ, यही!" कहा मैंने,
"शाम को चलते हैं!" कहा मैंने,
विनोद भोजन ले आया था! दाल लाया था, कुछ सब्जी भी आलू की, चटनी, प्याज और दही! हम खाने बैठ गए! और खूब जमकर खाया हमने!
"बहुत बढ़िया खाना है!" बोला जीवेश!
"कोई शक नहीं!" कहा मैंने,
पानी ले आया था विनोद, पानी पिया हमने! खाना, छक कर खाया था हमने तो!
विनोद फिर से आया वहां!
"विनोद?" बोला मैं,
"हाँ जी?" बोला वो,
"इधर आ!" कहा मैंने,
"जी?" बोला वो,
"ये ले!" मैंने एक सौ का नोट देते हुए कहा उसे!
"कोई ज़रूरत ना जी!" बोला वो,
"अरे रख ले यार!" बोला जीवेश!
उसने नोट लिया, मोड़ा और जेब में रख लिया, सलाम ठोंका!
"चाय लाऊं?" बोला वो,
''बिलकुल!" कहा मैंने,
"अभी लाया!" बोला वो,
और चला गया, बर्तन आदि ले कर!
"लेट लिया जाए थोड़ा!" कहा मैंने, और उठ कर, मैं तो उस तखत पर जा लेटा!
"लेटो यार! अब शाम को देखते हैं!" बोला वो!


   
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श्रीशः उपदंडक
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ठीक कोई सात बजे, हम ब्रह्म जी के पास गए, वे किसी के साथ बैठे हुए थे, हमें इशारा किया रुकने का, तो हम बाहर आ गए और खड़े हो गए! बाहर पूजन का समय था, मन्दिर में घण्टों की आवाज़ आ रही थी, बड़ा ही पावन सा वातावरण था उधर का! मनमोहक और अत्यंत ही शान्ति प्रदान करने वाला! ये यात्री का समय था, आसपास के मन्दिरों से, कीर्तन, भजनों से पूरा वातावरण अत्यंत ही सुखद एवम पवित्र सा हो उठा था! हम वहीँ एक बड़े से पेड़ के नीचे बने, गोल से चबूतरे पर बैठ गए, पास ही, सामने, श्री गणेश जी की एक पत्थर की मूर्ति रखी थी, धूपदान किया गया था एवम कुछ पुष्प भी चढ़ाये गए थे! एक दीया प्रज्ज्वलित किया गया था वहाँ! वो दीया इतना सुंदर लग रहा था कि जैसे स्वयं ही सूर्यदेव, ऐसा लघु-आकार ले, गणेश-वंदना हेतु आ पसरे थे!
"लो!:" आयी आवाज़ एक,
मैंने पलट कर देखा, ये एक बारह या तेरह वर्ष की प्यारी सी बालिका थी, नाक में एक लौंग पहने थी, आँखों में कजरा और माथे पर, चन्दन का टीका लगाए, पीत-वस्त्र से धारण किये हुए थे उसने!
"लाओ बिटिया!" कहा मैंने,
ये प्रसाद था, बूंदी थीं मीठी! उनमे, बीच में खिन्नी भी पड़ी हुई थी! उस बालिका ने, जीवेश को भी प्रसाद दिया!
"सुनो बेटी?" कहा मैंने,
"जी?'' बोली वो,
"रुको!" कहा मैंने,
वो रुक गयी वहीँ! मैंने जेब में हाथ डाला और एक पचास का नोट हाथ आया, टटोला और तो एक दो रूपये का सिक्का भी निकाल लिया!
"लो बेटी!" कहा मैंने, दोनों हाथों में रख कर, हाथ बढाते हुए उसकी तरफ! बालिका ने उठा लिया! और मैंने उसके पांवों को छू लिया! जब भी किसी कन्या को दान करो, सदैव उसके चरण छूने चाहियें, उस समय वो देवी-स्वरुप में ही होती हैं! जीवेश ने भी उसको इक्यावन रूपये दिए और चरण छू लिए! मुस्कुराते हुए, खुश होते हुए वो बच्ची आगे बढ़ गयी!
"मुझे बहुत अच्छा लगा!" बोला जीवेश!
"क्या?" पूछा मैंने,
"कन्या-मान और चरण-स्पर्श!" बोला वो,
"ये तो नियम है!" कहा मैंने,
"कौन मानता है? पुराने समय में माँ-बाप ये ही संस्कार दिया करते थे, समाज में कुरीतियां ही न पनपने पायी थीं!" बोला वो,
"ये तो सच कहा तुमने!" बोला मैं,
"कन्या, किसी भी धर्म की हो, मार्ग की हो, मज़हब की हो, सदैव ही पूजनीय हुआ करती है!" बोला वो,
"हाँ, कोई सन्देह नहीं!" कहा मैंने,
"वो बालिका कैसे प्रसन्न हुई!" बोला वो,
''हाँ! देखा मैंने!" बोला मैं,
"उसकी इस प्रसन्नता में, माँ का आशीर्वाद छिपा होता है!" बोला वो,
"निःसन्देह!" कहा मैंने,
"आज न जाने क्या हो गया है इस समाज को, जाने क्या! सभी का पतन हो रहा है, सभी का!" बोला वो,
"हाँ, यही तो कलियुग है!" कहा मैंने,
"हाँ, यही है!" बोला वो,
तभी कक्ष से बाहर आये वे तीनों, दो लोग तो प्रणाम कर, चले गए और ब्रह्म जी ने हमें बुला लिया अंदर! हम गए, और बैठ गए!
"माला आ गयीं क्या?'' पूछा मैंने,
"हाँ, बात भी कर ली!" बोले वो,
"वाह! ये अच्छा किया!" बोला जीवेश!
"क्या अभी जाएंगी?" पूछा मैंने,
'है, आठ बजे!" बोले वो,
"अच्छा, बीस-पच्चीस मिनट हैं!" कहा मैंने,
"चाय आ रही है, चाय पियो, मैं आया अभी!" बोले वो, और बाहर चले गए! चाय आ गयी तो हमने चाय पी फिर! करीब पन्द्रह मिनट में ब्रह्म जी भी आ गए!
"चाय?" पूछा उन्होंने,
"पी ली!" कहा मैंने,
"और पियो?" बोले वो,
"बस जी!" कहा मैंने,
तभी अंदर वो माला भी आ गयीं! हमने प्रणाम किया उन्हें! वे करीब पचास या पचपन की उम्र की महिला थीं, बालों में सफेदी थी, और मेहँदी लगाती थीं अब, माथे पर एक टीका लगाए थीं, केसरी से रंग का! वे दूसरी तरफ, जा बैठीं!
"माला?" बोले ब्रह्म जी,
"हाँ जी?" बोलीं वो,
"ये हैं वे दोनों!" बोले वो,
"अच्छा!" बोलीं वो,
"इन्हें ले जाना है, कब, बताओ?" बोले वो,
"अभी चलो?" बोलीं वो,
"ये तो ठीक!" बोले ब्रह्म जी,
"आओ?" कहा उन्होंने,
ब्रह्म जी चले हमारे साथ कुछ समझाया भी माला को, और फिर हम, बाहर तक आ गए! बाहर तो रौनक ही थी! एक सवारी पकड़ी, और चल दिए हम अवधूत जी से मिलने! और इस तरह...........!!!


   
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श्रीशः उपदंडक
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यहां आसपास मन्दिर ही मन्दिर थे! दूर दूर तक, जहां तक देखो! आस्था से परिपूर्ण स्थल था ये! कोई भी जगह ऐसी न थी, जहां कोई मूर्ति या कोई छोटा सा मन्दिर न बना हो! वहाँ जलते दीये एक अत्यंत ही सुखद पावनता का अहसास दिला रहे थे, यहां कई आश्रम भी थे, और एक बड़ी सी गौ-शाला भी! वहां, कुछ गायों को सजाया भी गया था, वे किसी समारोह के लिए या फिर किसी अन्य कारण से सजाई गयी थीं!
"आगे और?" बोला वो चालक,
"हाँ, उधर" बोली माला इशारे से,
ये एक घूमता सा मार्ग था, यहां से एक मार्ग सीधा चला जाता था और एक, वापिस ही घूम कर, नीचे की तरफ उतरने लगता था, हम इसी नीचे वाले मार्ग पर चलने लगे थे! करीब आधे किलोमीटर के बाद, माला ने वो सवारी रुकवा दी, और जीवेश ने किराया चुका दिया!
"यहीं हैं?" पूछा मैंने,
"आओ" बोलीं वो,
और हम, वहाँ से, एक पत्थरों से बने रास्ते पर चल दिए, ये पत्थर शायद किसी मन्दिर का प्रांगण रहे हों किसी समय, ऐसा लगता था, बीच बीच में घास उगी थी और कहीं कहीं छोटे फूलों वाले पौधे भी थे, कुछ गाय, बकरी भी चर रही थीं पास में ही, पास में ही, वन जैसा कोई क्षेत्र भी था, यहीं वे जानवर चर रहे थे! साधू लोग, और उनकी सेविकाएं, जोगन सी, आ जा रहे थे, हम गुजरते तो एक आद नज़र, वे लोग, हम पर भी डाल लेते थे!
"वो, वहाँ!" बोलीं वो,
तो हम एक जगह, बाएं मुड़े, यहां ठीक सामने एक सफेद सा मन्दिर था, उसका फाटक अब शेष नहीं बचा था, उस रास्ते के कोने पर, एक छोटी सी दुकान थी, दुकान पर लिखा हुआ उसका नाम तो अब कब का उड़ चुका था, नाम भले ही उड़ गया हो, लेकिन 'नाम' चल निकला था, ये साफ़ पता लगता था, दुकान पर, बायीं तरफ, 'थम्स-अप' की कैरेट रखीं थीं, एक पर एक, नीचे भरी हुईं और ऊपर खाली सी, फूल-झाड़ू, खजूर-झाड़ू, प्लास्टिक के कीप, बोतल, कैन, हाथ से झलने वाले पंखे, एक दूसरे से बंधे पड़े थे, सामान इतना ज़्यादा था की दुकानदार कहाँ बैठा है, पता ही नहीं चलता था! कोई आवाज़ दे तो उठे और आये बाहर! बाहर, एक तखत बिछा था, उस पर फूलमालाएं, फूल आदि रखे थे! कुल मिलाकर, बेहद ही सधा हुआ जीवन चल रहा था यहां!
तो हम अंदर आये उस गली में, गली में दीवार पर एक जगह, चूहे मारने वाली दवा का चित्र सा बना था, कहाँ से मिलेगी, वो पता भी था!
"आओ!" बोली वो,
और हम उस बड़े से द्वार के अंदर चले! वो द्वार बड़ा ही मज़बूत था, सफेद चूने से पुता था, पत्थर का तो नहीं था, लेकिन लोहा भी कहीं नहीं था! आसपास, द्वारपाल बने थे, जिनके हाथों में ध्वजा थी और ध्वजा के ऊपर भाला सा बना था! इन्हें लाल रंग से पोता गया था, ऊपर, बजरंग बली महाराज बैठे थे अभय-मुद्रा में! वहां, ज़ीरो-वॉट के चार बल्ब लगे थे, चूने की पुताई के निशान अभी तक बाकी थे उनमें!
"सीधे!" बोली वो,
सीधे गए तो एक प्यायू सी पड़ी, हमने वहीँ एक जगह जूते उतार दिए, पानी लिया, कुल्ला किया और सर पर हाथ फेर लिया! अंदर का माहौल ठीक वैसा ही था जैसा अक्सर, किसी देहात के मन्दिर का हुआ करता है! जब नवरात्र-पूजन चल रहा हो! आसपास, छोटे छोटे से मन्दिर बने थे, माँ सरस्वती, माँ दुर्गा, माँ विंध्यवासिनी, गणेश जी, शिव-परिवार आदि आदि यहां, अपने अपने स्थानों में बिठा दिए गए थे!
"इधर से आओ" बोली माला,
"हाँ, चलिए!" कहा मैंने,
और हम चलने लगे उनके पीछे! आसपास मेहँदी के पौधे लगे थे, वैजन्ति के पौधे, तुलसी जी के, अनार के और अन्य पौधे भी लगे थे! दूर एक तरफ, कक्ष से बने थे, ये निर्माण, मध्य-युगीन सा लगता था, कारण ये, कि ये स्थान काफी पुराना रहा होगा!
"काफी पुराना है मन्दिर?" बोला मैं,
"हाँ!" बोली माला,
"कितना करीब?" पूछा जीवेश ने,
"दो या ढाई सौ साल?' बोलीं वो,
"बहुत पुराना?'' बोला वो,
"हाँ!" कहा उन्होंने,
"यहां की देखरेख?" पूछा मैंने,
"एक संस्था है" बोली वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"बहुत बड़ा है ये!" बोला जीवेश!
"हाँ, पीछे अब नया निर्माण हो रहा है!" बताया उन्होंने,
"मन्दिर?" पूछा मैंने,
"हाँ, कुछ मन्दिर और एक बड़ी धर्मशाला भी!" बोलीं वो,
"ये अच्छा है!" बोला जीवेश,
"हाँ, शादी-ब्याह के लिए लोग आते हैं!" बोलीं वो,
"आते ही होंगे!" बोला मैं,
"हाँ!" बोलीं वो,
"आओ, इधर से!" बोलीं वो,
"हाँ, चलिए!" बोला जीवेश!


   
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श्रीशः उपदंडक
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हमको वो माला, ले चली एक जगह, ये जगह बड़ी ही शान्त सी थी! उपले पड़े थे वहां पर, कुछ चारा भी रखा था, शायद कोई गाय आदि यहां बंधती होंगी, कुछ छीकड़े भी पड़े थे, एक छोटी सी नांद भी थी, पास में रखा एक प्लास्टिक का बड़ा सा ड्रम था, उसमे कुछ आटा, सूखी हुई सी रोटियां पड़ी थीं! वे सभी गाय के लिए ही होंगी! हम उस रास्ते को भी पार कर गए, तब सामने, एक कृत्रिम सा तालाब पड़ा, ज़्यादा बड़ा नहीं छोटा सा ही, उसमे कमल के फूल लगे थे और, जल-कुम्भिका के छोटे छोटे सफेद से फूल खिले थे! बहुत ही प्यारी जगह थी वो, यहां आसपास कई कक्ष बने थे, सभी के दरवाज़े, लाल रंग से रँगे हुए थे, बीच में एक मन्दिर बना था और उसके आसपास तुलसी ही तुलसी लगी थीं! माला हमें एक कक्ष के बाहर ले आयी, यहां टाट की बोरियां बिछी थी, दो लोग अंदर से आये और चले गए बाहर, फिर एक औरत निकली, माला से प्रणाम किया उसने और माला ने कुछ पूछा उस से, उसने कुछ बताया, और हमें देखा, फिर कपड़ों की गठरी उठा, चली गयी अपने रास्ते!
"आइये, अंदर ही हैं!" बोली वो,
"जी" कहा मैंने,
और हम अंदर चले, अंदर आये तो, एक आदमी मिला, वो कुछ पढ़ रहा था, और कुछ लिखता भी जा रहा था, चश्मे के नीचे से हमें देखा, माला से बात की, और हम आगे चल पड़े! ये कक्ष दरअसल एक बारामदा सा ज़्यादा अंदर की तरफ, आमने सामने, दो कक्ष बने थे, दाएं कक्ष की तरफ हम चले!
अंदर माला गयी पहले, फिर मैं, और फिर जीवेश! माला ने जाते ही पाँव छुए एक वृद्ध के, ये वृद्ध कोई साधू से लगते थे, देह स्थूल थी, पेट बाहर था, तहमद पहना था सफेद से रंग का, ऊपर देह में जनेऊ और दूसरे प्रकार के धागे से पहन रखे थे, कुछ स्फटिक भी थे और कुछ मूंगे भी! केश नहीं थे, कम थे, क्योंकि सर पर कपड़ा बंधा था और कपड़े के अंदर नहीं लगता था कि अधिक बड़े केश हों उनके! हाँ, दाढ़ी अवश्य ही थी, पेट तक लटकती हुई! हम बाहर की तरफ ही खड़े थे, माला बैठ गयी थी और सर झुका कर, उनसे बातें कर रही थी, बाबा ने दो चार प्रश्न पूछे थे तो उत्तर दे दिया था माला ने, और फिर हमें देख, बुला लिया था अपने आपस, हम भी टाट पर जा कर बैठ गए!
"प्रणाम!" कहा हम दोनों ने!
"प्रणाम!" मुस्कुराते हुए उत्तर दिया था उन्होंने!
"तो बोड़ा के बारे में जानना चाहते हो!" बोले वो,
"हाँ बाबा!" कहा मैंने,
"क्या जानना है?" बोले वो,
"उनका निवास कहाँ है?" पूछा मैंने,
"कोई नहीं जानता!" बोले वो,
"आप भी नहीं?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोले वो,
"उनकी आयु?" पूछा मैंने,
"वो भी नहीं जानता कोई!" बोले वो,
"लेकिन.....??'' कहते कहते मैं रुक गया!
"क्या लेकिन?" बोले वो,
"ब्रह्म जी ने कहा था कि आप बता सकते हैं?' कहा मैंने,
"अस्सी मान लो!" बोले वो,
"अस्सी?" मैंने हैरानी से पूछा!
"हाँ!" बोले वो,
"और निवास तो पता नहीं लेकिन कहाँ से आये, ये पता है!" बोले वो,
"मतलब?" पूछा मैंने,
"गाँव!" बोले वो,
"ओह! कौन सा गाँव?" पूछा मैंने,
"झांसी के पास, बोड़ा!" बोले वो,
"ये गाँव, यहां है?" पूछा मैंने,
''हाँ!" बोले वो,
"झांसी से यहां आये!" बोला जीवेश!
"हाँ, उरई में, शिक्षण लिया!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"और पूछो?" बोले वो,
"सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न!" कहा मैंने,
"क्या?" बोले वो,
"आप तपन नाथ को तो जानते ही होंगे?" बोला मैं,
"हाँ, जानता हूँ!" बोले वो,
"बाबा बोड़ा का क्या सम्बन्ध है इस तपन नाथ से?" पूछा मैंने,
''सम्बन्ध?" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"कोई सम्बन्ध नहीं!" बोले वो,
"तब बाबा बोड़ा का सरंक्षण उसे क्यों?" पूछा मैंने,
"ना! ना!" बोले वो,
"क्या मतलब?" पूछा मैंने,
"सरंक्षण उसे नहीं!" बोले वो,
"तो फिर?" पूछा मैंने,
तभी एक कन्या पानी ले आयी, बढ़ाया हमारी तरफ गिलास!
"लो, जल लो!" बोले बाबा!


   
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श्रीशः उपदंडक
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मैंने और जीवेश ने जल का गिलास उठाया और जल पिया! कन्या ले गयी गिलास वापिस, अचानक से कुछ महक सी उठी, देखा तो धूपदान में, वही कन्या चूर्ण डाल गयी थी, ये उसी की महक थी!
"हाँ बाबा?" कहा मैंने,
"हाँ, सरंक्षण!" बोले वो,
"जी!" कहा मैंने,
"इसे मैं सरक्षण नाम नहीं दूंगा!" बोले वो,
"तब?" पूछा मैंने,
"इसे मदद कहना ही उचित होगा!" बोले वो,
"लेकिन यहां ये मदद, सरंक्षण समान ही तो है?" बोला मैं,
"नहीं!" बोले वो,
"आप समझाइये?" कहा मैंने,
"तपन नाथ कई बार द्वन्द में बैठा है, आपके संग भी यही, द्वन्द का मसला ही है न?" बोले वो,
"हाँ, यूँ ही समझ लीजिये!" कहा मैंने,
"हाँ तो कई बार वो द्वन्द में बैठा है!" बोले वो,
"जी" कहा मैंने,
"और सदैव समक्ष रहने वाला प्रतिद्वंदी क्या है? ये कभी स्पष्ट नहीं हो पता, है या नहीं?' बोले वो,
"हाँ, यही है!" कहा मैंने,
"तपन नाथ ने कई द्वंद अपने बूते जीते हैं!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"वो सरभंग है!" बोले वो,
"हाँ, जानता हूँ!" कहा मैंने,
"और कई बार वो, द्वन्द हारने की कगार पर भी पहुंचा है!" बोले वो,
"जी!" कहा मैंने,
"और ऐसा, नौ बार हुआ!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"जब भी वो सीमा आयी, उसके लिए बाबा बोड़ा, सदैव ही संजीवनी बन कर आये!" बोले वो,
"बात वही, आखिर क्यों?" पूछा मैंने,
"क्योंकि बोड़ा को जीवनदान दिया था!" बोले वो,
"बोड़ा बाबा को??" मैंने आश्चर्य से पूछा!
"हाँ, बोड़ा बाबा को!" कहा उन्होंने,
"और वो कौन थे?" पूछा मैंने,
"बाबा अभंग!" बोले वो,
"बाबा अभंग? ये कौन थे?' पूछा मैंने,
"तब बाबा बोड़ा को द्वन्द लड़ना पड़ा था?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोले वो,
"तब?" मैंने फिर से अचरज से पूछा!
"सिद्धि-काल!" बोले वो,
"या सिद्धि-फांस?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"तब बाबा अभंग से इस तपन नाथ का कुछ सम्बन्ध रहा है!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"और वो क्या?" पूछा मैंने,
"तपन नाथ, बाबा अभंग के शिष्य का एकमात्र पुत्र है!" बोले वो,
"ओह! अब समझा मैं!" बोला मैं,
"और, तभी से, अपने दिए वचन और प्राणदान प्राप्त हुआ, उस हेतु बाबा बोड़ा, आज भी कटिबद्ध हैं!" बोले वो,
"बाबा बोड़ा को, ये प्राणदान कब मिला?'' पूछा जीवेश ने,
"जब बाबा बोड़ा की आयु मात्र बाइस या तेईस रही होगी!" बोले वो,
"तो न अब बाबा अभंग हैं, न तपन नाथ के पिता जी, मात्र यही बचता है!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"और बाबा, आपको कैसे ज्ञात इस विषय में?'' पूछा जीवेश ने,
"चूँकि मेरा भी निकास बोड़ा गाँव से ही है!" बोले वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"बहुत बहुत धन्यवाद आपका!" बोला जीवेश!
"रुको, अभी नहीं!" बोले वो,
"क्या बाबा?" पूछा जीवेश ने,
"ये नहीं पूछोगे कि तपन नाथ गलत होते हुए भी, क्यों ये मदद या सरंक्षण प्राप्त करता है बोड़ा बाबा से?" बोले वो,
सवाल बहुत ही गहरा था! अपने आप में पूरी एक जानकारी!
"जी बाबा, क्यों?" बोला जीवेश,
"उत्तर तो स्पष्ट है?" बोले वो,
"वो क्या?" पूछा मैंने,
"जब तक बाबा बोड़ा जीवित हैं, तब तक कोई इस तपन नाथ का अहित नहीं कर सकता!" बोले वो,
"ये तो अब ज्ञात हो गया!" कहा मैंने,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"समझे?" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"क्या?" बोले वो,
"यही, कि इतनी सरलता से तो प्राण सौंपे नहीं जाएंगे!" बोला मैं,
मेरी बात सुन, वे मुस्कुरा पड़े!
"तो बाबा?" बोला जीवेश,
"हाँ?' बोले वो,
"ऐसे तो ये तपन नाथ उनका गलत फायदा उठाता ही रहा होगा, या इस बार भी उठाएगा?" बोला जीवेश,
"ये तो बोड़ा बाबा ही जानें!" बोले वो,
"जानते तो आप भी हैं!" कहा मैंने,
"हाँ, जानता हूँ!" बोले वो,
"मैं भी!" कहा मैंने,
"क्या वही?" पूछा उन्होंने,
"निःसन्देह वही!" कहा मैंने,
"बाबा, अब तनिक बोड़ा बाबा की विशेषताएं बता दीजिये?" बोला जीवेश,
"विशेषताएं?" बोले वो,
"हाँ, वही!" बोला जीवेश,
"तब तो कुछ और ही बेहत है!" बोले वो,
"क्या?'' पूछा मैंने,
"उस तपन नाथ के चरण पकड़, क्षमा मांग लो, अभी तो स्वयं नहीं आया होगा?" बोले वो,
"चरण पकड़ लें?" कहा मैंने,
''हाँ!" बोले वो,
"वो क्यों?" पूछा मैंने,
"अंत में भी तो यही होगा!" बोले वो,
''नहीं बाबा!" कहा मैंने,
"क्यों?" बोले वो,
"नहीं, ऐसा नहीं होगा!" कहा मैंने,
"तो विशेषताएं क्यों पूछते हो?" बोले वो,
"अंदाज़े के लिए!" बोला जीवेश,
"अंदाज़ों का यहां कोई अर्थ ही नहीं!" बोले वो,
"क्या मतलब?" पूछा मैंने,
"तुम, तुम! वही करोगे, जो बाबा बोड़ा चाहेंगे!" बोले वो,
"क्या अर्थ?" बोला जीवेश!
"जान जाओगे!" बोले हंसते हुए!
"बाबा?" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"क्यों लगता है, आप बोड़ा बाबा के पक्ष में बोल रहे हो?" कहा मैंने,
"या तपन नाथ की?'' बोले वो,
"बात वही है!" कहा मैंने,
"नहीं जान पाओगे!" बोले वो,
"कब तक?" पूछा मैंने,
"अंत तक!" बोले वो,
"कि तपन नाथ?'' बोला मैं,
"मेरा उस से कोई मतलब नहीं!" बोले वो,
"तब, क्या बाबा बोड़ा?" पूछा मैंने,
"हाँ!" कहा उन्होंने,
"समझा!" कहा मैंने,
"जानते हो?" बोले वो,
"क्या?" कहा मैंने,
"एक बार, द्वन्द का निमन्त्रण स्वीकार करो!" बोले वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"फिर?" बोले वो,
'हाँ, फिर!" कहा मैंने,
"अभी तो बताया?" बोले वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"बुद्धि का प्रयोग करो!" बोले वो,
"मैं नहीं समझा जी! क्षमा!" बोला जीवेश!
"यही? बुद्धि का प्रयोग करो!" बोले वो,
"मैं समझ गया!" बोला मैंने,
"हाँ! सही समझे!" कहा मैंने,
"इसका अर्थ ये हुआ, कि ये चेतावनी ही हैं सारी!" बोला मैं,
"मुझे नहीं पता!" कहा उन्होंने,
"बाबा, एक बात कहूँ?" बोला मैं,
"अवश्य!" बोले वो,
"ये इस तपन नाथ का अंतिम ही द्वन्द है!" कहा मैंने,
वे हंस पड़े! दाढ़ी पर हाथ फेरा, बाहर झाँका और फिर मुझे देखा!
"क्या करना होगा?" बोले वो,
"सब समझा तो दिया आपने!" कहा मैंने,
"प्रसन्न हूँ कि समझ गए!" बोले वो,
"आपका सच में, बहुत बहुत धन्यवाद!" मैं अब खड़ा होते हुए बोला! उन्होंने मुझे देखते हुए, हाँ में, धीरे से सर हिलाया!
"आओ जीवेश!" कहा मैंने,
"हाँ, आता हूँ!" बोला वो,
मैं चल पड़ा बाहर, आ गया, जीवेश भी प्रणाम कर, आ रहा था वापिस!


   
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श्रीशः उपदंडक
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हम दोनों बाहर आ गए थे, और माला के आने का इंतज़ार कर रहे थे, वो आती तो हम चल पड़ते! कुछ ही देर में माला आयी, और हमसे बात की, उसने बताया कि उसको वहीँ कुछ काम है, वो लौट आएगी बाद में, और हम लोग जा सकते हैं! इतना सुन, हम चल दिए बाहर की तरफ!
"यहां तो कुछ हांसिल ही न हुआ!" बोला जीवेश,
"हुआ है, बहुत कुछ!" कहा मैंने,
"ज़रा बताओ?" बोला वो,
"उन्होंने कहा कि जैसे ही निमंत्रण मिलेगा!" बोला मैं,
"हाँ, इसका क्या अर्थ?" बोला वो,
"इसका अर्थ बड़ा ही गम्भीर है!" बोला मैं,
"जय सिया राम!" बोला एक आदमी सामने से गुजरते हुए!
"जय सिया राम जी!" कहा मैंने,
"क्या गम्भीर अर्थ है?" पूछा उसने,
"फिर ये, ध्यान दो ज़रा, कि हम कुछ नहीं करेंगे, करेंगे तो वो बोड़ा बाबा! या यूँ समझो, कि हम वो ही सब करेंगे, जो बोड़ा बाबा चाहेंगे!" बोला मैं,
"ओह! ये तो जटिल है बहुत!" बोला वो,
"अभी भी नहीं समझे?" बोला मैं,
हम जूते वाले स्थान तक चले आये, अब जूते पहने, हाथ धोये और चले बाहर,
"क्या नहीं समझा?" बोला वो,
"मतलब, जैसे ही हम निमन्त्रण स्वीकार करेंगे, बाबा को स्वतः ही संज्ञान हो उठेगा!" बोला मैं,
"ओह! समझा! ये तो असम्भव सा ही है!" बोला वो,
"हाँ, परन्तु सत्य!" कहा मैंने,
"तो ये कारण है बाबा के यहां अचानक पहुंच जाने का!" बोला वो,
"हाँ! यही कारण है!" बोला मैं,
"ये कौन सी विद्या हुई?" पूछा उसने,
"शिराज्ञ महा-विद्या!" बोला मैं,
"ये कौन सी विद्या है?" पूछा उसने,
"प्राचीन ही है, ह्म्भक-विद्या कहते हैं इसे!" बताया मैंने,
"तो क्या किया जाए फिर?" बोला वो,
"कुछ न कुछ तो करना ही होगा, अब, सच में ही, समय कम है!" बोला मैं,
"मैंने नहीं जाना था कि ये तपन नाथ इस प्रकार से बोड़ा बाबा को ले आएगा!" बोला वो,
"उन्हें तो आना ही है!" बोला मैं,
और हम बातें करते करते, चले आये बाहर तक, यहां कुछ इंतज़ार करना पड़ा सवारी का! बत्तियां तो कम ही जल रही थीं, लेकिन दीपदान प्रज्ज्वलित थे! उस स्थान पर, रौशनी अधिक थी, यहां कुछ कम! खैर, सवारी मिली और हम चले वापिस फिर!
आ गया अपने उस स्थान पर, सीधा ब्रह्म जी के पास चले, ब्रह्म जी तो 'शुद्ध-जलामृत' ले रहे थे! संग उनके वही बाबा बैठे थे!
"आ जाओ!" बोले वो,
हम बैठ गए वहीँ!
"लोगे?" बोले वो,
''हाँ!" कहा मैंने,
"बताओ कैसे?" बोले वो,
"जैसे आप चाहो!" कहा मैंने,
उन्होंने गिलासों में, मदिरा परोस दी! साथ में, फल थे और कुछ झींगे से थे, छोटे छोटे ही! उनमे चिड़वा मिलाया हुआ था!
"ये लो!" बोले वो,
"हाँ, लो जीवेश!" कहा मैंने,
"हाँ, लो आप!" बोला वो,
"बात हुई?" पूछा उन्होंने,
"हाँ!" कहा मैंने,
"कुछ लगा हाथ?" बोले वो,
"हाँ, बहुत कुछ!" कहा मैंने,
"माला कहाँ है?" पूछा उन्होंने,
"वो वहीँ हैं, कह रही थीं बाद में आएंगी!" बोला मैं,
"बाबा ने सही बताया?'' पूछा उन्होंने,
"हाँ!" बोला मैं,
"अब कुछ समझे?" बोले वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"कुछ विचार?" बोले वो,
"किस बात का?" कहा मैंने,
"आगे का?" बोले वो,
"कोई विचार नहीं!" बोला मैं,
दूसरा गिलास भर दिया उन्होंने और वहीँ रख दिया! फल की प्लेट आगे बढ़ाई, मैंने एक टुकड़ा उठा लिया सेब का!
"आपकी इच्छा!" बोले वो,
और गिलास आगे कर दिया! जीवेश कुछ सोचे जा रहा था, शायद, अभी भी उलझा था कहीं विचारों में ही.....तभी!!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"आपको तभी मैंने समझाया था, मैं जानता था, असल में द्वन्द ये तपन नाथ नहीं, बाबा बोड़ा ही लड़ते हैं!" बोले ब्रह्म जी,
अब जीवेश बाहर आया अपनी उलझन से, और एक नज़र देखा उसने ब्रह्म जी को, ब्रह्म जी ने, गाजर का एक टुकड़ा उठाकर, आगे वाले दांतों से काटना शुरू किया, लेकिन चबाया नहीं!
"माना बाबा ही ये द्वन्द लड़ेंगे! मान लिया, परन्तु जो होना है वो अभी अप्रत्याशित है, अभी कोई नहीं कह सकता कि क्या हो!" बोला जीवेश,
अब चबाया टुकड़ा गाजर का उन्होंने!
"सही कहा तुमने जीवेश!" कहा मैनें,
"कोई बात नहीं, अब पीछे हटने का कोई लाभ नहीं!" कहा उसने,
"इसका तो प्रश्न ही नहीं!" बोला मैं,
"ब्रह्म जी?" कहा मैंने,
"हाँ?" बोले वो,
"क्या तपन नाथ के यहां से कोई आया?" पूछा मैंने,
"अभी तक तो कोई नहीं!" बोले वो,
"आ ही जाएगा!" कहा मैंने,
"जब भी कोई आये, तो हमें भी बुलवा लिया जाए!" बोला जीवेश,
"ठीक है!" बोले वो,
"वैसे इस तपन नाथ का ये 'आश्रम' कहाँ पड़ता है?" पूछा मैंने,
"पास ही है" बोले वो,
"किस तरफ?" पूछा मैंने,
"बाहर निकलते ही, बाएं!" बोले वो,
"ठीक!" कहा मैंने,
"चले मत जाना?" बोले ब्रह्म जी,
"हमें क्या ज़रूरत?" बोला जीवेश,
"और अगर चले भी जाएँ तब भी क्या?'' पूछा मैंने,
"नहीं, सही नहीं लगता!" बोले वो,
"ठीक है जी!" कहा मैंने,
कुछ और बीतें भी हुईं, और हम फिर अपने कमरे की तरफ चल पड़े! वाहन पहुंचे, और बैठे, कुछ ही देर में विनोद आ गया, उसे कुछ समझाया जीवेश ने, और बैठ गए हम अपने जूते उतार कर!
"वैसे करें क्या अब?" बोला जीवेश,
"मुझे चिंता नहीं!" कहा मैंने,
"जानता हूँ!" बोला वो,
"बस, हमेशा की तरह, कह दूंगा उनसे!" कहा मैंने,
"और जो मना किया उन्होंने?" बोला वो,
"नहीं करेंगे!" बोला मैं,
"विश्वास है?" पूछा उसने,
"अपने से ज़्यादा!" कहा मैंने,
"तब तो राहत मिली!" बोला वो,
"हाँ, सो तो है!" कहा मैंने,
"कब बात करोगे?" पूछा उसने,
"कल ही" कहा मैंने,
विनोद सामान ले आया था, आज तो कढ़ी बनी थी! कढ़ी, सब्जी, आलू और मेथी की, क्या कहने! कुछ भी कहो! हम भारतीयों का भोजन सर्वश्रेष्ठ ही होता है! भूख न भी लगी हो, तो भी लग जाए!
"ये लो!" बोला वो,
और झोले से, 'अमृतधारा' निकाल कर दे दी उसने! फिर रखे गिलास, और फिर लौट चला!
"पानी ला रहा होगा!" बोला जीवेश,
"हाँ, तभी गया है!" कहा मैंने,
मैंने चम्मच से कढ़ी चखी, सच कहूँ तो गाँव की कढ़ी याद आ गयी! वो चूल्हे पर, खदकती हुई कढ़ी! घोटी जाती बार बार! और जो ख़ुशबू उड़े, तो घर के चूहों में भी पंगत बैठ जाए!
"क्या कहोगे उन्हें?" पूछा उसने,
"सब" कहा मैंने,
"कि हमने मारपीट की?" बोला वो,
"बताना तो होगा!" बोला मैं,
"हाँ, नहीं तो हमें ही झेलनी होगी डांट!" बोला वो,
"हाँ, जान ही जो न ले लें!" कहा मैंने,
"सच बात! गुरु श्री से कुछ नहीं छिपाया जाता!" बोला वो,
"हाँ, एक सबल एवम समर्थ गुरु, एक माता समान, पिता समान, एक अग्रज समान होता है! कहाँ तोडना है, कहाँ जोड़ना है, वो सब जानता है! मन से, कर्म से, और मर्म से, कदापि भूल न होनी चाहिए!" कहा मैंने,
"बिलकुल सही!" बोला वो,
तभी विनोद भी आ गया, ठंडा पानी लेकर, साथ में कुछ और चटपटा सा भी लेकर!


   
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