फरसा उठा, और सीधे उस लाश कोहनी पर चला! कोहनी, कट कर अलग हो गयी! भयानक बदबू फैली थी वहां, कोहनी से नीचे के हाथ को, एक तरफ रख दिया गया, और फिर से फरसा चला, इस बार दूसरे हाथ को कोहनी से काट डाला गया! उसे भी वहीँ रख दिया गया! मुझे ये आवाज़, बड़ी ही आवाज़ सी लग रही थीं, मैं वैसे ही, एक तरफ बैठा था, आवाज़ ज़रूर ही किसी को काटने जैसी थीं, इस प्रकार के बड़े श्मशानों में ऐसा होना कोई अजीब बात नहीं, अजीब बात ये है, कि किसी भी लाश के टुकड़े नहीं किये जा सकते, वो भी किसी भी हथियार से! ये लाश का अपमान करना होता है, जब तक प्राण हो, उसे से कुछ लेना देना हो सकता है, लेकिन प्राण तजी देह से, किसी का कोई शत्रुता आदि जैसे भावों का, लेना देना नहीं होता! आवाज़ फिर से हुई...
"शम्भू?" कहा मैंने,
"हाँ?" बोला वो,
"कौन हैं वहाँ?" पूछा मैंने,
"जवना!" बोला वो,
"कौन जवना?" पूछा मैंने,
"चाची" बोला वो,
मैं समझ गया कि कौन, ये जवना आयु में कोई पचास की रही होगी, अपने आपको ज़बरदस्ती ही इस अघोर-तन्त्र से जोड़ती थी, मुझे तो नहीं लगता था, कि हाट-काट के अलावा उसे कुछ और आता हो, हाँ, कुछ लम्पट, 'देहखोर' ऐसे होते हैं जो न आयु देखते न किसी की विवशता, उन्हें बस 'देहखोरी' ही चाहिए!
"चल ज़रा?" कहा मैंने,
"छोड़ो?" बोला वो,
"बदबू नहीं आ रही?" पूछा मैंने,
"क्या करें फिर?'' बोला वो,
"उठ ज़रा?" बोला मैं,
"आप भी?" बोला वो,
और चल पड़े हम! सामने का मंज़र देखा, तो किसी का भी दिल बैठ जाता! वे, चार रहे होंगे उस जवना के साथ, सामने एक लाश पड़ी थी, पेट फूला था उसका, पुरानी लाश रही होगी, अक्सर ऐसे घटिया किस्म के लोग, बहती लाशों को, भारी पत्थर से बाँध पानी में ही पड़े रहने देते हैं, और सही वक़्त पर निकाल लेते हैं, ये भी यही थे! उस लाश की आँखें जो कि अब फूट गयी थी, विकृत हो चुकी थीं, होंठ आदि ऐसे बड़े बड़े थे कि कोई देख भी ले तो भूले ही नहीं, उसके हाथ काट दिए गए थे, काट कर, एक जगह रख दिया गए थे! मुझे और शम्भू को उन्होंने देखा तो रुक गए! फरसा, नीचे रख दिया...लाश में से खून तो निकल नहीं रहा था, जम गया था, लाश सड़ गयी थी, किसी भी पल, पेट फट जाता और आंत-गूदड़े बाहर फ़ैल जाते!
"आदेश" बोला एक,
"इधर आ?" बोला मैं,
वो थोड़ा डरा और आगे आया,
"बहन के ** तेरी ** का ***, कहाँ से लाया इसे?" पूछा मैंने,
"हमारी है" बेशर्मी से बोला वो,
"तेरी है?" बोला मैं,
"हाँ" बोला वो जवना को देखते हुए, जवना, आदि लेटी थी और आदि बैठी थी, पूरी नग्न, बेहद ही घटिया किस्म की औरत थी वो! उस जवना ने हिलती हुई गर्दन से मुझे देखा, और अपना एक हाथ माथे से छुआ, प्रणाम किया!
"इधर आ?'' बोला मैं उस आदमी से, वो नहीं आया, वहीं खड़े रहा, मैं आगे गया और एक ज़ोर का झापड़ उसके कान के नीचे रख दिया! नशे में था, नीचे ही गिर गया! अब मैं आगे बढ़ा और उस आदमी की अछि खबर ली मैंने, चेहरा सुजा दिया मार मार कर, अपना चिमटा!
अब दूसरे को देखा, तो वो फरसा उठाये, भाग निकला था, शेष दो, हाथ जोड़, बैठ रहे थे, वहीँ उन्होंने कुछ नहीं कहा तो मैंने भी उन्हें कुछ न कहा, आगे बढ़ा उस जवना के पास चला!
"सुन अब अगर यहां नज़र आयी, तो ये पूरा ** से घुसेड़, मुंह से निकाल दूंगा! माँ की **!" बोला मैं चिल्लाते हुए! वो ये सुन, पीछे ही लेट गयी, औरत थी, हाथ नहीं छोड़ा, नहीं तो उसका भी ऐसा ही हाल करता में!
"सुनो?" बोला मैं उन दोनों से, जिसको मार लगी थी, वो तो मुंह छिपाए रो रहा था, मैंने उन दोनों से कही थी!
"इस लाश को ले जाओ यहां से, फौरन ही, इसी वक़्त!" कहा मैंने,
उन दोनों ने सुना और खड़े हुए दोनों, अपने अपने अंगोछे, गर्दन में लपेट लिए! और उस लाश को उठाने के लिए आगे बढ़े,
"इनको भी उठाओ?" मैंने कटे हुए हाथों की तरफ, इशारा करते हुए कहा!
"ओ?" वो बोली, बैठते हुए,
"हाँ?" बोला मैं,
"का?" बोली वो,
अब मैंने ध्यान नहीं दिया,
"चलो?" बोला मैं, उन दोनों से,
उस औरत ने मुझे एक भद्दी सी गाली दी, मैंने जज़्ब किया गुस्सा और चला उसकी तरफ!
"हरामज़ादी? एक शब्द बोली तो जीभ टांक दूंगा हलक से!" बोला मैं,
इतने में वे दोनों आदमी उस लाश को लेकर, चले गए थे उस नदी के पास तक, फिर उस लाश को वहीँ फेंक देते!
"ओ?" बोली वो फिर से,
अब आया मुझे गुस्सा और मैंने, दिखाई उसे लात अपनी!
"चुप्प? माँ ** **? एक शब्द और, और तेरे **** में घुसेड़ दूंगा ये सारा!" बोला मैं, गुस्से से,
बोली तो कुछ नहीं, बस हाथ ही चलाती रही वो!
कमाल की बात! वो औरत बाज नहीं आयी, खड़ी होने लगी, न खड़ा हुआ गया, तो मुझ पर मिट्टी फेंक मारी, गुस्सा तो बहुत आया, लेकिन उसकी हालत ही कुछ ऐसी थी, कि उसका सुनना न सुनना, समझाना और समझना, सब बेकार ही थे! मैं लौटने को हुआ, तो पूरी हिम्मत के साथ, दौड़ ली, लिपट गयी मेरे पीछे, अजीब सी बदबू आयी, उसकी टांगें, उसके मूत्र से सनी हुई थी शायद, इसीलिए वो बदबू आयी थी! अब मैंने आव देखा न ताव, बार बार समझाने पर भी वो नहीं समझ रही थी, इसिलए, मैंने उसके हाथ हटाये, वो नीचे गिरी, उठने को हुई तो एक करार सा झापड़ रसीद कर दिया उसे! मैं नहीं चाहता था ऐसा करना, लेकिन उसे इसका अलावा कोई और भाषा आती नहीं थी शायद! झापड़ खाते ही, नीचे गिरी फिर से और मिट्टी फेंकने लगी! अब तो मुझे बेहद ही गुस्सा आया, मैंने पकड़े उसके सर के बाल और ख्चेड़ता हुआ, ले चला उसे वाहन से, एक जगह लाया और छोड़ दिया! वो रोने लगी, लानतें छोड़ने लगी! अब आ गयी थी अक्ल उसे, मैं लौटा, और चला अपनी जगह, लेकिन मेरी देह से, उसके मूत्र की बदबू आने लगी थी, इसीलिए मैं, उस जगह से बाहर चला, शम्भू ने बुलाया तो, कह दिया कि आ रहा हूँ अभी! मैं लौटा और स्नान किया, तब मुझे एक और आदमी मिला, धानू नाम था उसका, कुछ ले जा रहा था संग अपने!
"क्या ले जा रहा है?" पूछा मैंने,
"कहाँ हो आप?" बोला वो,
"शम्भू के पास" बोला मैं,
"आता हूँ, चलो!" बोला वो,
और मैं वापिस चल दिया, अलख उठा ही रखी थी शम्भू ने! मुझे देखा तो खिसक कर एक तरफ हो गया! मैं जा बैठा!
"बजा दी टोकनी?" बोला वो,
"हाँ, बड़े हराम के जने हैं साले!" बोला मैं,
"ये तो रोज का सा काम है उनका, कौन कहे?" बोला वो,
"साले दिन में मिले अगर तो लाठी तोड़ दूंगा उन पर!" कहा मैंने,
शम्भू हंस दिया! चूने से घिसे दांत और कत्थे से रँगे, पता ही नहीं चलता था कि कोयला है मुंह में या दांत!
तभी आ आज्ञा धानू उधर, एक बड़ी सी थाली रखी निकल कर, झोले से, और उसमे, कुछ मांस डाल गया वो, तरी वाला मांस था, गर्मागर्म! मांस के टुकड़े देख यकीन हुआ कि बकरा है!
"ये डालूं?" बोला वो,
"कलेजी?" बोला मैं,
"हाँ, डालूं?" बोला वो,
"डाल दे!" कहा मैंने,
उसने कलेजी भी डाल दी, कलेजी ऐसे काटी गयी थी कि एक एक टुकड़ा डेढ़ सौ ग्राम का होगा!
"इसने खुद बनाया है?" पूछा मैंने,
"इसकी लुगाई ने!" बोला वो,
"अच्छा, तभी रंग लाल है!" कहा मैंने,
"हाँ, तभी!" बोला वो,
मैंने एक टुकड़ा उठाया और खाने लगा!
"ओहो!" आयी एक आवाज़,
मैंने सर उठाकर देखा, ये बन्नी थी, एक साधिका, पता नहीं यहां क्या कर रही थी वो!
"तू यहां कैसे?" पूछा मैंने!
"ऐसे ही" बोली वो,
"बैठ?" बोला मैं,
"बाद में" बोली वो,
"जा फिर'' कहा मैंने,
अजीब सा मुंह बनाया उसने, और चली गयी! हम खाने लगे, साथ में, 'बिलायती पानी' था, सो आनन्द लेते रहे!
"कब आएंगे तेरे लोग?" बोला मैं,
"हो लिया टाइम" बोला वो,
"साढ़े ग्यारह हो गए?" कहा मैंने,
"बस, आने ही वाले होंगे!" बोला वो,
उसने एक बोटी उठायी, और गुथ था उस बोटी से वो! पक्का ही खब्बड़ है वो! हड्डी भी पीस दे, ऐसे खा रहा था!
तभी एक लड़का आया उधर, और बैठ गया शम्भू के साथ ही, शम्भू ने देखा उसे,
"आ लिए?" बोला वो,
"हाँ" बोला लड़का,
"चल फिर?" बोला वो,
"हाँ, चलो!" कहा उसने,
"आता हूँ" बोला वो,
"जल्दी, समझा?" कहा मैंने,
"आया बस अभी!" बोला वो,
और बोटी चबाते हुए, लड़के के साथ चला गया वो! कोई आने वाला था शम्भू का कोई जानकार, उसके लड़के को फालिज पड़ा था, शम्भू ने उपचार के लिए बोला था, मैं मदद करूँ, गिड़गिड़ा गया था! मुझे भी फुर्सत ही थी, दो पैसे मिल जाते शम्भू को, तो घर भेज सकता था किसी के हाथों!
मैं खता रहा वो खाना, बढ़िया बना था, हाँ, बोटी किसी कसाई ने नहीं काटी थीं, किसी भोथरे हथियार से काटी गयीं हो, ऐसा लगता था!
आवाज़ हुई, और मैंने पीछे देखा, एक कार रुकी थी एक तरफ, एक आदमी और औरत, चले आ रहे थे मेरी ही तरफ, वो शम्भू, सामान उठाये आ रहा था आगे, मैं उठ कर खड़ा हो गया!
और..............
ये दोनों ही सभ्रांत परिवार से लगते थे, अक्सर ऐसे लोग, न जाने कैसे कैसे क्रिया-कर्म करवाये करते हैं, इनमे दो सबसे अधिक ही करवाये जाते हैं, पहला, कोई बीमार हो, तो उसके लिए उपाय, और दूसरा, मारण-कर्म, मारण कर्म की अधिकता रहती है अब! मारण भी अप्रत्यक्ष रूप से होता है, जैसे, बीच बीच में व्यक्ति को ठीक रखा जाता है, परन्तु उद्देश्य यही होता है, मैं ये कर्म कभी नहीं करता, ये सबसे हीन, नीच एवं पाप-कर्म का ही दूसरा नाम है!
"नमस्कार!" बोला वो व्यक्ति,
उसकी वेशभूषा देखी तो, महंगे कपड़े पहने, गले में सोना पहने और ऐसे ही परिधान में उन साहब की पत्नी भी थीं, उन्होंने प्रणाम किया! शम्भू ने सामान रख दिया था और अब वो उनसे ही मुखातिब था! उन दम्पत्ति ने कुछ और बताया कि उनके पुत्र को क्या क्या हुआ था, कैसे कैसे इलाज करवाया था, आदि आदि, तदोपरान्त, जेब से बहुत से रूपये निकाल, शम्भू को दे दिए थे, बाकी की बात शम्भू ने ही की थी, मैं पुनः नीचे ही बैठ गया था! वे दोनों चले गए थे वहाँ से, अब शम्भू ने रकम गिननी शुरू की, ये इक्कीस नोट थे हज़ार हज़ार के, मुझे देते हुए बोला कि जितना चाहें रख लें, मैंने यही कहा जो, देना हो, वो उस श्मशान में दान दे दे, उधर, दो बड़े से पेड़ों के बीच में एक प्याऊ बनवा दे तो जल भी मिलेगा सभी को, शम्भू ये करता या नहीं ये तो वो ही जाने! मैं फिर से खाना खाने लगा, और शम्भू, अपने ही राग में लग गया, वो पूजन करने की तैयारी में था, उसको नौ रातों तक ये पूजन करना था, इस पूजन में, क्रम से ही सबकुछ होता है, फिर नौवीं रात, एक भोग दिया जाता है, कभी कभी अर्ध-क्रिया में भी भोग की आवश्यकता पड़ती है, मैंने शम्भू को बता दिया था कि क्या पूजन करना है और किसका पूजन करना है! शेष वो जानता ही था, ठीक हो जाने के पश्चात, उसे और भी धन मिलना था, मैंने पूछा तो ये धन एक प्याऊ बनवाने के लिए पर्याप्त ही था! उधर, बेचारे श्वान भी घूम रहे थे, उनके छोटे छोटे बच्चे भी, वे सभी के सामने जाते, तो मिलता ले लेते, आभार में, पूंछ हिलाते थे अपनी छोटी छोटी सी!
मित्रगण, यूँ तो इस जीवन में सुख-दुःख सदैव चलते ही रहते हैं, और हम उनसे लगातार जूझते ही रहते हैं, कभी कोई समस्या और कभी कोई समस्या! उस लड़के को फालिज पड़ी थी, अब फालिज क्यों पड़ी थी, अपने आप ही पड़ी थी, तो कारण क्या था, किसी ने डाली थी तो भी कारण क्या था और किसने डाली, ये सब भी जाना जाता है! ईश्वर के न्याय के बीच कोई नहीं आता, चाहे वो तन्त्र हो या मन्त्र, कर्मों के विपाक का फल, सभी को भोगना होता है! लेकिन कई बार, कुछ ऐसे कियाएं, प्रयोग भी होते हैं, जिनके कारण किसी के भी जीवन को, तबाह किया जा सकता है, यहां क्या हुआ था, ये तो शम्भू ही जाने! मैं अपने दायरे में रह, जो मदद कर सकता था, कर ही रहा था!
तो उस रात करीब दो बजे मैं फारिग हुआ उस सबसे! अब तक आसपास के कुछ लोग भी जा ही चुके थे, जो थे, वहीँ सो गए थे, मदिरा अधिक हो गयी थी, चला जा नहीं रहा था, और ये सब तो वहां रोज का ही नज़ारा था! तो मैं भी वापिस लौट गया, स्नान किया और सोने चला गया!
सुबह करीब आठ बजे नींद खुली, मैं उठा और स्नान-आदि से फारिग हुआ, मुझे आज कहीं और जाना था, दोपहर बाद तक मैं पहुँच ही जाता, बस-सेवा अच्छी थी और कोई समस्या भी नहीं होनी थी! मैं तब अपने कक्ष में ही था, अपन सारा सामान आदि रख लिया था,
"प्रणाम जी!" बोला शम्भू, अंदर आते हुए,
"प्रणाम!" बोला मैं,
"आ जाओ, चाय ले आया हूँ" बोला वो,
"आता हूँ, बैठ!" बोला मैं, और मैं आ गया उसके पास, वो पलँग पर बैठ गया और मैं कुर्सी पर! चाय के साथ, उबले आलूओं के बड़े बड़े से पकौड़े थे, लेकिन थे शानदार! सुबह सुबह अक्सर नाश्ते में ऐसा ही कुछ बनाया जाता है डेरों में! कभी आलू-पूरी, कासीफल का साग आदि आदि! उत्तर-प्रदेश में तो यही मिलता है, हाँ, जैसा स्थान, वैसा ही भोजन! तो वो पकौड़े से, दो ही खाये गए मुझ से तो! शम्भू ने अभी तक चार या पांच गटक लिए होंगे! हाँ चाय बढ़िया थी!
"कहीं जाओगे आज?" बोला वो,
"हाँ, निकलूंगा!" कहा मैंने,
"और वापसी?" बोला वो,
"अब यहां से क्या फायदा?" बोला मैं,
"हाँ, वो काम तो हो ही लिया" बोला वो,
"है, कल तेरे कहने से रुक गया!" कहा मैंने,
"ठीक है, बता देना मुझे फिर?' बोला वो,
"हाँ, बता के ही जाऊँगा!" कहा मैंने,
मुझे दरअसल काशी से करीब सत्तर किलोमीटर दूर जाना था, मुझे वहां, जीवेश मिलना था, जीवेश के संग ही कुछ कार्य था, वो निबटा कर, मैं चला आता वापिस, करीब तीन दिनों के बाद ही! जीवेश भी बेहद ही अच्छा साधक के, अब पारंगत हो चुका है, मुझ से स्नेह भी रखता है, इसीलिए जाना , बनता ही था!
करीब ग्यारह बजे मैंने फ़ोन कर दिया था जीवेश को, वो वहां, गोरखपुर से पहुँच चुका था, फिलहाल चन्दौली में था, मेरे वहां पहुंचने तक, पहुँच जाता वो!
करीब बारह के आसपास मैंने, शम्भू से बात की, और तब चलने की कही, तो उस दिन मैं, करीब ढाई बजे, वहां के लिए निकल पड़ा! मौसम साफ़ था, बारिश चार दिन पहले तो हुई थी, लेकिन अब मौसम साफ़ था बिलकुल! इसीलिए समस्या तो कोई नहीं आने वाली थी, मैं बस अड्डे पहुंचा और एक बस में सवार हो गया, अब रात तक पहुंच जाता वहां!
उस समय सफर में, मैं आधे मार्ग तक ही पहुंचा था कि मौसम न करवट बदल ली! बारिश पड़ने लगी हल्की हल्की! मौसम ठंडा हो गया था, चलो जी, मैं करीब आठ बजे उस स्थान पर पहुंच गया, ऑटो लिया और चल दिया मुख्य स्थान की तरफ! मैंने जीवेश को फ़ोन किया तो फ़ोन नहीं मिला, कई बार कोशिश की, कोई बात नहीं, तीस-चालीस मिनट में वहां पहुंच गया! उधर मुझे, मेरे जानकार ही मिले, मैं भीगा तो नहीं था, बच गया था, हाँ, थोड़ी बहुत फुहार की निशानी तो आनी ही थी!
"जीवेश कहाँ है?" पूछा मैंने,
"ले चलता हूँ" बोला वो,
"यहीं है?'' पूछा मैंने,
"है, शाम को ही आये" बताया उसने,
"उसका फ़ोन नहीं मिल रहा?" कहा मैंने,
"मौसम खराब है, और टावर में दिक्कत है, दो चार दिनों से, आप यहां कर लेते ना?" बोला वो,
"यहां का नम्बर नहीं था!" कहा मैंने,
"आओ" बोला वो,
"हाँ, चलो!" कहा मैंने,
हम चले उस कक्ष की ओर, जैसे ही जीवेश ने मुझे देखा, खड़ा हुआ और गले मिला! उसके सतह कमरे में एक और आदमी था, वो फल काट रहा था! उसने भी प्रणाम की मुझे!
"आओ!" बोला वो,
और मेरा बैग रख दिया एक टेबल पर,
"बैठो!" बोला वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"फ़ोन क्यों नहीं किया?" पूछा उसने,
"किया था, मिला ही नहीं?" कहा मैंने,
"नेटवर्क की दिक्कत बहुत है यहां!" बोला वो,
"हाँ, और सुनाओ, पिता जी कैसे हैं?" पूछा मैंने,
"बस ठीक!" बोला वो,
"पानी ला भाई?" बोला जीवेश,
"नहीं, नहीं चाहिए!" बोला मैं,
"ये लो फिर" तौलिया दिया मुझे, और कहा उसने,
मैंने तौलिया लिया और सर, गर्दन, हाथ पोंछ लिए!
"धनी?" बोला जीवेश,
"हाँ?" बोला वो,
"इसे छोड़, जा, सामान ले आ!" बोला जीवेश,
वो उठा, फल हमारी तरफ रखे, और चला गया बाहर! मैंने आम का एक टुकड़ा उठाया और खाने लगा!
"और सुनाओ?" बोला वो,
"बढ़िया सब!" कहा मैंने,
"उसका पता है?" बोला वो,
"किसका?" पूछा मैंने,
"वो नहीं था नाथू?" बोला वो,
"हाँ! क्या हुआ?'' पूछा मैंने,
"गुजर गया" बोला वो,
"ओह..कब?" पूछा मैंने,
"दो महीने हुए!" बोला वो,
"अब तो कोई दिक्कत न थी?" पूछा मैंने,
"ना, लड़की ब्याह ही दी थी उसने!" बोला वो,
"अच्छा किया!" कहा मैंने,
आ गया धनी अंदर, ले आया था सामान, पकड़ा दिया जीवेश को!
"सुन?" बोला वो,
"है जी?" कहा उसने,
"देख कर आ, क्या है?" बोला वो,
"न हुआ तो?" बोला वो,
"तो?" बोला वो,
"हाँ?" कहा उसने,
"सुनो?" बोला जीवेश,
"हाँ?'' बोला मैं,
"क्या मंगवा लूँ?" बोला वो,
"कुछ भी!" कहा मैंने,
"ठीक" कहा उसने,
"सुन धनी, अगर यहीं कुछ हो, समझ न? कुछ? तो ले आना, नहीं तो ये ले पैसे, बाहर है न वो ढाबा? बोला जीवेश,
"वो उधर वाला?" बोला वो,
"हाँ, वही, वहीँ चले जाना, और रोटी, सब्जी, ले आ, सलाद भी रखवा लेना" बोला जीवेश!
"हाँ" बोला धनी और चला गया बाहर,
"आज रौनक नहीं यहां?" बोला मैं,
"कोई नहीं है" बताया उसने,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"वो पूजन है न?" बोला वो,
"तो?" कहा मैंने,
"सभी 'बड़ी' जगह गए हैं!" बोला वो,
''अच्छा अच्छा!" कहा मैंने,
"नहीं तो यहीं मिल जाता सब!" बोला वो,
"तभी मैं सोच रहा था!" कहा मैंने,
"ये बस, उजड़ा-डेरा है!" बोला वो,
"उजड़ा?'' पूछा मैंने,
"हाँ!" बोला वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"कोई नहीं आता इधर! भूले से कोई आया तो ठीक!" बताया उसने,
"तो 'जीवनी'?" पूछा मैंने,
"बस, चल रहा है!" बोला वो,
"जगह तो ठीक ही है?" कहा मैंने,
"नहीं जी!" बोला वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"कल देख लेना!" बोला वो,
"अच्छा?" कहा मैंने,
''हाँ!" बोला वो,
"क्या आपको पता है कि इसी स्थान पर, दो वर्ष पहले क्या हुआ था?" पूछा उसने,.
"नहीं जीवेश! क्या हुआ था?" पूछा मैंने,
"यहां, दो साधिकाओं की हत्या हो गयी थी!" बोला वो,
"क्या? यहां?" पूछा मैंने,
"है, यहीं!" बोला वो,
"किसने की?" पूछा मैंने,
"पता नहीं!" बोला वो,
"पता नहीं?" पूछा मैंने, अचरज से,
"है, पता नहीं!" बोला वो,
"समझ नहीं पा रहा हूँ?" कहा मैंने,
"बताता हूँ, यहां, असम से दो साधिकाएं यहां आयी थीं, दीवाली का समय था, उन्हें किसी डेरे पर जाना था, जिस दिन जाना थे, उस से एक रात पहले ही,स हैं के समय, अपने कमरों में नहीं थीं!" बोला वो,
"तो कहाँ थीं?" पूछा मैंने,
"उधर, उस नदी के किनारे!" बोला वो,
"किसको मिलीं?" पूछा मैंने,
"एक आदमी को" बोला वो,
"पुलिस नहीं आयी?" पूछा मैंने,
"आयी थी" बोला वो,
"फिर?" पूछा मैंने,
"जांच होनी थी, हुई, लेकिन अंत में आत्महत्या के कोण का मामला ही लगा!" बोला वो,
"खानापूर्ति!" कहा मैंने,
"और क्या?" बोला वो,
"कोई खोज-खबर नहीं की?'' पूछा मैंने,
"किसको ज़रूरत!" बोला वो,
"वैसे हत्या क्यों हुई होगी? या आत्महत्या जैसा जघन्य कदम उन्होंने कैसे उठाया?" पूछा मैंने,
"नहीं कहा जा सकता!" बोला वो,
"कोई निशान आदि नहीं मिले?" पूछा मैंने,
"नहीं, लाशें एकदम ठीक ही थीं, बस उन्होंने पानी पिया हुआ था, इसका मतलब लगाया गया कि ज़रूर आत्महत्या ही की होगी!" बोला वो,
"पता नहीं, लेकिन हुआ तो बहुत गलत, डेरे में ऐसा हो, तो काहे का डेरा वो फिर?" कहा मैंने,
"इसीलिए यहां कोई नहीं आता!" बोला वो,
"अब समझ गया, कौन आएगा भला?" कहा मैंने,
"हाँ!" बोला वो,
हम बातें करते रहे, और धनी आ गया सामना लेकर, रख दिया सामना उसने, फिर, बर्तन लेने चला गया, बर्तन लाया और सामान रखा उसमे! तब जीवेश ने मदिरा परोसी, भूमि-भोग दिया और हम शुरू हुए!
"धनी?" बोला वो,
"हाँ?" बोला वो,
"गिलास ला अपना?" बोला वो,
धनी ने, गिलास ले लिया, रख दिया, जीवेश ने भर दिया गिलास!
"उठा?" बोला वो,
धनी ने गिलास उठा लिया!
फिर हम खाने लगे साथ साथ, रोटियां भी ले आ या था और मुझे भूख भी लगी थी!
"धनी?" बोला जीवेश,
"हाँ?'' बोला वो,
"वो जो दो औरतें मरी थीं, उनका क्या हुआ?" पूछा जीवेश ने,
"नहीं पता" बोला वो,
"तू कहाँ था?" पूछा उसने,
"मैं तो दूर था" बोला वो,
"अच्छा!" कहा उसने,
"वैसे जीवेश?" बोला मैं,
"हाँ?" बोला वो,
"तुम्हारा काम क्या है इधर?" पूछा मैंने,
"काम हो गया!" बोला वो,
"क्या काम था?" पूछा मैंने,
"कुछ पिता जी का काम था!" बोला वो,
"अच्छा, अब?" बोला मैं,
"कल निकल रहे हैं यहां से!" बोला वो,
"कहाँ?" पूछा मैंने,
"कल ही बताऊंगा!" बोला वो,
"कोई काम है क्या?" पूछा मैंने,
"है!" बोला वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"शव-क्रिया है!" बोला वो,
"कहाँ?" पूछा मैंने,
"कल पता चले!" बोला वो,
"ये तो अच्छा किया!" कहा मैंने,
"तभी तो बुलाया!" बोला वो,
"और कौन कौन है?" पूछा मैंने,
"सभी जानकार हैं" बोला वो,
"फिर तो ठीक!" कहा मैंने,
"धनी?" बोला वो,
"हाँ जी?'' बोला वो,
"भरता रह, रुक मत!" बोला जीवेश!
"जी!" बोला वो,
"कहाँ का रहने वाला है धनी?" पूछा मैंने,
"कानपुर जिला" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"किसके संग है?" बोला जीवेश,
"यहीं हूँ अब तो" बोला वो,
"और यहां कौन है?" पूछा मैंने,
"रतन हैं!" बोला वो,
"अच्छा, समझा!" बोला मैं,
तो उस रात, खाना-पीना कर, मैं अपने कक्ष में चला गया! कुछ सफर की थकान थी और कुछ मदिरा का प्रभाव, नींद बढ़िया आयी! रात में बारिश आदि ही, ऐसा तो लगता ही था! मैं सुबह जब उठा, और बाहर आया तो बाहर का नज़ारा देखा, बेहद ही शानदार नज़र था, थोड़ा दूर ही एक छोटा सा पोखर था शायद, उसके आसपास भूड़ सी खड़ी थी, कुछ शीशम के जैसे बड़े पेड़ भी लगे थे, घास, तरोताज़ा हो गयी थी! यहां सबकुछ अच्छा था, लेकिन लोग ही नहीं थे, सन्नाटा सा पसरा था, कल ही पता चला कि या तो ये स्थान किसी मन्दिर की संस्था को बिक जाएगा या फिर इसका जीर्णोद्धार हो जाएगा! मैं कहीं सच तो वो जगह देखने में तो बेहद ही शानदार थी, आसपास खाली सा स्थान पड़ा था, आसपास थोड़ा दूर ही, गांव भी थे, और इधर, करीब आधा किलोमीटर बाद ही, वो ढाबा सा भी था, जनता ढाबा ही समझिये! दाल-भात, मांस-मच्छी सब मिलता था उस पर, कल भी देखा था, काफी लोग थे वहां पर! छोटी जगह है और छोटी जगह का जो अपना मजा होता है, वो बड़े शहरों में कहीं नसीब नहीं होता! यहां, शहरों में तो बनावटी ज़िन्दगी का ज़ोर है! छोटी जगहों में, चलना-फिरना, घूमना-घामना हो ही जाता है! इस जगह पर, इस डेरे पर, बा-मुश्किल चार या छह लोग ही रहते होंगे, दिन में तो वो भी नहीं रहते होंगे! पता नहीं कौन महापुरुष इस स्थान को दान से चला रहे होंगे, श्मशान था नहीं, बस कुछ ही कक्ष ही, या आठ-दस आम के पेड़ रहे होंगे!
तो मैं नहा-धो कर फारिग हुआ, और जीवेश के पास के लिए चला, जीवेश भी स्नान करके वहीँ आ बैठा था, प्रणाम हुई और उस कक्ष के बाहर ही हम कुर्सियां निकल कर बैठ गए!
"चाय आयी क्या?'' पूछा उसने,
"नहीं" कहा मैंने,
"लेने गया है धनी" बोला वो,
"ठीक" बोला मैं,
थोड़ी इधर उधर की बातें हुईं, कुछ जानपहचान की बातें चलीं और धनी आया फिर, चाय ले आया था, कमाल की बता ये कि यहां तो चाय भी न बनी थी अभी, वो ही लेकर आया था, साथ में कुछ ब्रेडपकौड़े ले आया था, वही बन रहे थे सो ले आया! चाय डाल कर दी, और एक ब्रेडपकौड़ा भी साथ में, तो चाय पीने लगे हम!
"आज ही निकलेंगे हम" बोला वो,
"ठीक है" कहा मैंने,
"वो जगह देखना आप?" बोला वो,
"अच्छा?" कहा मैंने,
"हाँ!" बोला वो,
"कहाँ है?'' पूछा मैंने,
"यहां से कोई चार घण्टे!" बोला वो,
"समझा!" कहा मैंने,
"तो खाना जाते हुए ही खा लेंगे!" बोला वो,
"हाँ, ठीक" कहा मैंने,
"खबर कर ही दी है!" बोला वो,
"ये बढ़िया किया!" कहा मैंने,
"दरअसल, मेरे दूर के रिश्तेदार हैं वे!" बोला वो,
"तब तो और बढ़िया!" कहा मैंने,
"हाँ, वहां कुछ होता है तो अक्सर बुला ही लेते हैं!" बोला वो,
"नहीं, ठीक भी है!" कहा मैंने,
"है, सोचा इस बार आपको भी ले जाऊं!" बोला वो,
"बहुत अच्छा किया!" कहा मैंने,
तो जी चाय निबटाई हमने, कुछ इधर उधर की बातें हुईं, ग्यारह बजे हम निकल गए, बाहर आ गए थे, यहां एक क़स्बा था, यहां भोजन किया, और फिर निकल पड़े!
करीब चार बजे हम वहां पहुंचे, भीड़-भाड़ थी यहां तो! बहुत से डेरे थे यहां, उदासीन आश्रम भी है, सर्वांगीण आश्रम भी है, कुछ टी.वी. वाले बाबाओं का स्थान भी है यहां! उन्हीं से अलग, एक बड़े, "काली-श्मशान' का एक डेरा है! यहीं आये थे हम, ये गोरखपुर से सम्बन्ध रखते हैं! हम आ गए उधर, अंदर तो देवियों के मन्दिर बने थे! ये डेरा सच में ही काफी बड़ा था, जिस समय हम अंदर गए थे, कुछ लोग आये हुए थे, वे कुछ दान-सामग्री लाये थे! अंदर तो बड़ी ही रौनक थी, लगता था जैसे किसी बड़े से मन्दिर में आने वाले हम दर्शन करने आये हैं! बड़े बड़े पीपल के पेड़, बरगद के पेड़, आम के पेड़, बेल-पत्थर के पेड़! वे भी काफी पुराने!
"बहुत बड़ी जगह है!" कहा मैंने,
"बहुत पुरानी भी!" बोला वो,
"किसकी है?" पूछा मैंने,
"एक संस्था है!" बोला वो,
''अच्छा!" कहा मैंने,
"अकेले तो यहां किसी के बस का नहीं सम्भालना!" बोला वो,
"दिख रहा है!" कहा मैंने,
"आओ!" बोला वो,
और एक बड़ा सा प्रांगण पर करते हुए हम मुख्य कक्ष तक चले आये! जीवेश की जानकारी थी, कोई समस्या नहीं हुई, पानी पीया और कक्ष की ओर चले, कक्ष में आये! हमने एक ही कक्ष लिया था, आपस में बतिया ही लेने से समय कट जाता है!
सामान रखा और पानी मंगवा लिया!
"ये मेरे दूर के ताऊ जी यहां संस्था में ही हैं!" बोला वो,
"बहुत ही बढ़िया!" कहा मैंने,
"कमी कुछ नहीं यहां!" बोला वो,
"पता चल रहा है!" कहा मैंने,
पानी आ गया, रखवा दिया!
"चाय?" पूछा सहायक ने,
"पियोगे?' पूछा मुझ से जीवेश ने,
"हाँ, क्यों नहीं?" कहा मैंने,
"ले आओ, दो कप!" बोला वो,
"साथ में?" पूछा उसने,
"कुछ नहीं" कहा मैंने,
वो हाथ जोड़, चला गया वहां से!
"यहां एक पुरानी समाधि है, अज्ञात!" बोला वो,
"अज्ञात?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोला वो,
रात का समय! और मौसम साफ़! आसमान में, चन्द्रमा और तारागण! करीब पन्द्रह या सोलह आदमी उधर! चार साधिकाएं और कुछ सहायक आदि! अभी समय था और इस बीच सभी तैय्यारी कर रहे थे, आज एक शव-क्रिया थी, उसका पूजन था! तब, कुछ न कुछ तो आशीष मिलता है, शवांग-भैरवी का! इस भैरवी का पूजन मात्र इसी क्रिया में हुआ करता है! शव-क्रिया साधने से, सिद्धि करने के लिए, प्राप्त करने के लिए, उचित मार्गदर्शन एवम अवरोधरहित मार्ग मिल जाया करता है! कुल मिलाकर, सिद्धि-मार्ग लघु हो जाता है! अनिष्ट की चिंता नहीं रहा करती!
"उसे जानते हो?" बोला जीवेश,
"किसे?" पूछा मैंने,
"उधर, बाएं से दूसरा?" बोला वो,
"नहीं" कहा मैंने,
"कभी नहीं देखा?" पूछा उसने,
"कभी नहीं!" बोला मैं,
"फिर से देखो?" बोला वो,
मैंने फिर से देखा, कोशिश की पहचानने की, लेकिन नहीं पहचाना गया वो!
"कौन है?" पूछा मैंने,
"तपन नाथ" बोला वो,
"ये कौन है?'' पूछा मैंने,
"कमीन इंसान है बहुत!" बोला वो,
"कैसे?'' पूछा मैंने,
"बच्चियां" बोला वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोला वो,
"किसलिए?" पूछा मैंने,
"साधना में" बोला वो,
"तो कैसी साधना भला?" पूछा मैंने,
"ये साला सरभंग भी है, नरभंग भी!" बोला वो,
"किसी ने रोका नहीं इसे?'' पूछा मैंने,
"ना" बोला वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"दबदबा है उसका!" बोला वो,
"कैसा दबदबा?" पूछा मैंने,
"बदमाश है!" बोला वो,
"इसकी माँ का बदमाश गए ** * ***!" बोला मैं, गुस्से से!
"अब ये हरामज़ादा आया है तो कुछ करेगा ही!" बोला वो,
"क्या?'' पूछा मैंने,
"थाल घुमाने में!" बोला वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"अपने आपको, सर्वश्रेष्ठ समझता है!" बोला वो,
"क्या बात है, कोई खलीफा है क्या?" पूछा मैंने,
"नहीं!" बोला वो,
''फिर?" पूछा मैंने,
"ये देखना, करता क्या है!" बोला वो,
"एक बात बताओ?" पूछा मैंने,
"हाँ?" बोला वो,
"घाड़ किसका है?" पूछा मैंने,
"उसका" बोला इशारे से,
"वो कौन?" पूछा मैंने,
"त्रेहन नाथ!" बोला वो,
"ये जानते हैं एक दूसरे को?" पूछा मैंने,
"नहीं" बोला वो,
"तो ये हरामखोर यहां कैसे आया?" पूछा मैंने,
"पास ही तो डेरा है इसका!" बोला वो,
"पास ही?" पूछा मैंने,
"हाँ, पास में!" बोला वो,
"तुमसे कोई बात हुई इसकी?" पूछा मैंने,
"नहीं" बोला वो,
"कभी नहीं?" पूछा मैंने,
"कभी नहीं" बोला वो,
"तो जाने दो भाड़ में!" बोला मैं,
"हाँ, यही ठीक!" बोला वो,
"कुछ करेगा तो देखेंगे!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोला वो,
तभी जीवेश का एक साथी आया, कुछ सामान ले आय था, रख दिया वहीँ, और हो गया खड़ा!
"सुन?" बोला जीवेश,
"हाँ?" बोला वो,
"वो तपन ही है न?" पूछा उसने,
"हाँ" बोला वो,
"ये कब से है यहां?" पूछा उसने,
"आज ही आया!" बोला वो,
'"किसने बुलाया?" पूछा उसने,
"पता नही?" बोला वो,
"और कौन है साथ में इसके?" पूछा मैंने,
"इसके ही चमचे हैं!" बोला वो,
"अरे जीवेश?" कहा मैंने,
"हाँ?" चौंक वो,
"तुम तो कह रहे थे, इसका डेरा यहीं है?" बोला मैं,
"हाँ, तो?" बोला वो,
"ये कह रहा है आज ही आया?" बोला मैं,
"अरे इस क्रिया के लिए!" बोला वो,
"अच्छा! समझ गया!" कहा मैंने,
"हाँ जी?" बोला वो आदमी,
"क्या?" बोला जीवेश,
"कुछ और?" बोला वो,
"नहीं, अभी नहीं!" बोला जीवेश!
"जाऊं?" पूछा उसने,
"हाँ, जा!" बोला जीवेश!
अभी हम बातें कर ही रहे थे, कि वहाँ दो, औरतें आ गयीं! नशे में धुत्त, इन्हें, बैरागन कहा जाता है! नटी-साधना में इनका प्रयोग होता है! नटी-साधना अत्यंत ही तीक्ष्ण मनाई गयी है! अंग्रेजी ज़माने तक, नर-बलि का भी चलन था, अंग्रेजों ने इसके लिए कानून बना दिया और तब, नर का स्थान एक बड़े चौपाये ने ले लिया! तब से, यही चलन में है! इसकी ये बैरागन, विवाह नहीं करती, पर-पुरुषगमन किया करती हैं, मात्र साधना के दौरान ही, ये, नर-मांस का भी सेवन करती हैं, अधिकतर, शैव-औघड़, इनसे दूरी बना कर रखते हैं! समीप नहीं आने देते! ये देह से स्थूल और, दो ही वस्त्रों में रहा करती हैं! भस्म नहीं लपेटतीं, बल्कि, रक्त-स्नान किया करती हैं! पूर्वी बंगाल, उत्तरी असम में ये अधिकाँश रूप से दीख जाएंगी, मदार, पलट, रूपन विद्याओं में अक्सर ही पांरगत होती हैं, मेरा साबका कभी नहीं पड़ा इनसे, हाँ जानकारी में अवश्य ही जाना इनके बारे में! यहां इनका होना, मुझे तो अजीब सा ही लगा! उन्होंने वहां आते ही, नृत्य करना आरम्भ कर दिया था, सभी साधकों के पास जातीं और उनके केशों से अपने केश रगड़तीं! वो तपन नाथ, उनसे मुखातिब हो गया था, उन पर, मिट्टी उछाल दिया करता था! तपन नाथ की आयु करीब पचपन के आसपास, लम्बी कद-काठी वाला, सफेद दाढ़ी और मूंछें वाला, चौड़ी देह वाला था! वो दिखने में ही क्रूर सा दीख पड़ता था!
"या कहाँ से आ गयीं?" पूछा मैंने,
"पता ही नहीं?" बोला वो,
एक औघड़ ने झोले से कुछ निकाला, मुझे तो मूली सी लगी वो, लेकिन था कोई कन्द वो! एक ने पकड़ा वो कन्द और चाट कर, कुछ खाया और वापिस कर दिया! एक तेज सा अट्टहास किया उस औघड़ ने!
"इनकी भी कोई साधना है क्या?" पूछा मैंने,
"पता नहीं!" बोला वो,
तभी एक झूमते हुए हमारे पास भी आ गयी, न मैंने ध्यान दिया और न ही जीवेश ने, वो दो चार बार हिलता-हिलाते लौट गयी! उनका ये खेल, करीब आधे घण्टे चला, औघड़ों ने कुछ दिया उन्हें, हमारे पास आयीं तो एक सौ का नोट, बढ़ा दिया उनकी तरफ जीवेश ने, उसने लिया और वे, लौट गयीं वहां से!
"यहां सरभंग होंगे?" पूछा मैंने,
"बहुत हैं बहन ** ****!" बोला वो,
"तभी आयीं ये!" बोला मैं,
"हाँ, हो सकता है!" बोला वो,
उधर अचानक से उनका मिला-जुला शोर गूंजा! वे खड़े हो गए थे, हम भी खड़े हुए!
"आओ!" बोला वो,
"हाँ, चलो" बोला मैं,
और हम दोनों ही चल पड़े उधर के लिए! एक औघड़, भूमि पर कुछ चिन्ह बना रहा था, एक ने बुहारी कर दी थी!
"आओ इधर?" बोला वो,
"चलो!" कहा मैंने,
और हम लकड़ियाँ लेने चल दिए, लकड़ी उठायीं दो, बड़ी सी, और चले आये उधर, एक ने लकड़ी ले लीं हमसे! और एक चिता का सा रूप देने लगा वो!
"बैठो" बोला वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
बैठ गए जी हम दोनों!
वे सभी किसी न किसी काम में लगे रहे!
"ये माँ * ** कुछ नहीं कर रहा?" बोला मैं,
"देख लो!" बोला वो,
"बड़ा आदमी है!" कहा मैंने,
"बन रहा है साला!" बोला वो,
"बनने दो!" कहा मैंने,
नाद लगते रहे, उस तपन नाथ के चेले-चपाटे काम करते रहे! तभी उसकी नज़र हम पर पड़ी!
"हाँ?" बोला वो चुटकी बजाते हुए!
बड़ा ही गुस्सा आया हम दोनों को!
"हाँ?" कहा मैंने,
"मेहमान हो?" बोला वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"किसके?" पूछा उसने,
अब जीवेश न जवाब दिया, अपने ताऊ जी का नाम लेकर!
"तो कुछ तो करो?" बोला वो,
"कर दिया!" कहा मैंने,
"क्या?" बोला वो,
"उस से पूछ ले!" कहा मैंने,
"ले?" बोला वो,
और चला आया हमारे पास ही! खड़ा ही रहा!
"ले?'' बोला वो,
"हाँ, ले! पूछ ले!" बोला मैं,
"उठियो ज़रा?" बोला वो,
"तू बैठ जा!" कहा मैंने,
"बड़ा ही गुमान है?" बोला वो,
''अरे आगे जा!" बोला जीवेश!
"आगे तो जाऊँगा ही, तुम पीछे चले जाओगे!" बोला वो,
अब हमने एक दूसरे को देखा, और हुए खड़े!
"पूजा का समय है, सब ठीक ही रहे!" कहा मैंने,
"ये ही तो बोला?" बोला वो,
"तू चल के तो ऐसे आया जैसे यहां का प्रधान हो?" बोला मैं,
"कम भी नहीं!" बोला वो,
"प्रधान जी, चले जाओ, क्यों दिमाग चलाते हो?" बोला जीवेश,
"कुछ कायदे पता हैं?" पूछा उसने,
"पता हैं" बोला जीवेश,
"कि याद दिलाऊं?" बोला वो,
"तू याद दिलाएगा?" पूछा मैंने,
"अभी, इसी वक़्त!" बोला वो,
"अच्छा?" कहा मैंने,
"हाँ! इसी वक़्त!" बोला वो,
जीवेश ने मुझे पीछे किया और खुद हुआ आगे!
"हाँ?" बोला जीवेश!
"सिखाऊं ज्ञान?" बोला वो,
"तू सिखाएगा?" बोला वो,
"बोले तो अभी!" बोला वो,
"तो उन ले, चाहे हो कुछ भी, तेरी गर्दन उतार दूंगा यहीं!" बोला वो,
ये सुन, वो हंसने लगा! जैसे उपहास किया हो!
"क्या है रे तू?" बोला वो,
"तू क्या है?" बोला वो,
"सुन आये?" बोला मैं,
उसने काटने वाली निगाह से मुझे देखा!
"हुक्म चलाना, चेलों पर, औरतों पर, समझा?" बोला मैं,
"ओ केशन? ओ बबुआ?" बोला वो,
आ गए दो आदमी उधर! हमें देखने लगे!
"और बचा हो कोई तो बुला ले?" बोला जीवेश!
"तेरे लिए तो बहुत हैं!" बोला वो,
अब हुआ मामला गरम! कुछ और लोग भी आ गये, पूछने लगे वजह! दोनों की सुनी!
और बीच-बचाव हो गया! वो चला टेढ़ी आँखें करते हुए! जीवेश को गुस्सा बहुत! मैंने शांत करवाया! समझाया, बुझाया!
"बहन ** **! साले की ** में कैसी गोली मारूँगा कि सर फोड़ के निकल जायेगी बाहर!" बोला वो,
"जाने दो यार!" कहा मैंने,
"अब कि अगर देखा भी न, तो खायेगा लातें!" बोला वो,
"कुछ बोला तो देख ही लेंगे!" बोला मैं,
"आना ज़रा?" बोला वो,
"कहाँ?" पूछा मैंने,
"आओ तो?'' बोला वो,
"चलो" कहा मैंने,
और हम लौटने लगे, वो हमें ही देखता रहा वहीँ बैठा बैठा! वो सीधा अपने ताऊ जी के पास गया, बात की और उसे समझाने को कहा, आश्वासन मिला और उसे बुलवा भेजा! आ गया वो!
"अच्छा! तेरी शय है!" बोला वो,
"ढंग से बात कर?" बोला मैं,
"अरे जा तू?" बोला वो,
"ताऊ जी, आपकी शर्म है...." बोला जीवेश,
"नहीं तो?" बोला वो,
"तेरे दो टुकड़े कर दूँ मैं!" बोला जीवेश!
मामला फिर से गरम हो गया उधर, लोगबाग इकट्ठे होने लगे! आराम की बोली, गाली-गलौज में बदल गयी! कुछ मुअज़्ज़िज़ लोगों ने पहल की, और मामला फिर से शांत हो गया!
"इसे समझा दियो?" बोला ताऊ जी से वो,
"अरे ओ रांड के जंवाई?" बोला जीवेश!
और उठा गया अब वो, मैं भी उठा गया!
"देखो दोनों, ऐसा करोगे तो पूजन नहीं होगा" बोले वो,
"न हो?" बोला वो,
"तो निकल यहां से?" बोला जीवेश!
वो आगे बढ़ा और थाम लिया गिरेबान जीवेश का! जीवेश ने आव देखा न ताव! एक ज़बरदस्त सा झन्नाटा सेंक दिया गाल पर! कान फट गया उसका, और अब, वो स्थान, बन गया अखाड़ा! जो हमारे थे वो, और जो उसके थे वो, भिड़ गए, कोई कुछ ढूंढे और कोई कुछ! मैंने भी जीवेश के साथ ही, खड़ा हो, देनी शुरू कीं उसे लातें! भीड़ बढ़ी! बीच-बचाव करने के लिए सभी जुट गए!
"जाओ सारे? जाओ? कोई पूजन नहीं?" बोले ताऊ जी,
"तेरा खून पी जाऊँगा मैं!" बोला वो तपन नाथ!
"माँ ** **! निकल जा इस से पहले कि ***** सिकवा दूँ तेरी!" बोला जीवेश! इस खेंचम-खांच में मेरे और जीवेश के भी दो चार हाथ लग ही गए थे! शुक्र है कोई हथियार नहीं था, नहीं तो दो तीन कट ही जाते!
उसके लोग, ले गए उसे! क्रिया अब न होनी थी, हम लौट आये, स्नान किया और आ गए कक्ष में!
"बड़ा ही कमीन है?'' बोला मैं,
"पता नहीं किस बात की हवा है!" बोला वो,
"अब अगर कुछ हुआ तो?" पूछा मैंने,
"तो अब नहीं देखना!" बोला वो,
"क्या करना है?" पूछा मैंने,
"इसकी आंतें बिखेर देनी हैं!" बोला वो,
"नौबत आएगी ऐसी?" बोला मैं,
"आएगी, देखना!" बोला वो,
"तो करना क्या है?' पूछा मैंने,
"आओ ज़रा!" बोला वो,
"चलो!" कहा मैंने,
हम सीधा उसके ताऊ जी के पास आ गए! वहां भी आठ-दस आदमी बैठे थे!
"बात क्या हुई थी?" पूछा गया,
बता दिया गया!
"तो समझ नहीं आयी उसे?" बोले वो,
"नहीं जी!" बोला मैं,
"ये आदमी ठीक नहीं!" बोले वो,
"बुलाया क्यों था फिर?" पूछा मैंने,
"सोचा नहीं था ऐसा!" बोले वो,
"अब क्या कर सकता है?" पूछा जीवेश ने,
"कुछ भी!" बोले वो,
"तो? क्या सलाह है?" पूछा मैंने,
"अभी तो यहां रुको!" बोले वो,
"फिर?" पूछा जीवेश ने,
"देखते हैं!" बोले वो,
"एक बात सुन लेना, अगर अब उलझा तो अब नहीं देखूं कुछ भी!" बोला जीवेश!
"ऐसा मत सोचो?" बोले वो,
"बात करें?" बोला एक वहाँ से,
और तभी बाहर हुआ शोर! और............!!
बाहर शोर गूंजा! कुछ गाली-गलौज सी होने लगी! साफ़ था, वो लौट आया है, उसे उसके खोखले मान पर, चोट बर्दाश्त नहीं हुई थी! खैर, अब तो यहां भी सभी मुस्तैद ही थे, अब कुछ होता तो सच में ही बलवा हो जाता, अब दो-चार तो मरते ही मरते! हम अभी कमरे में ही थे, उन लोगों को कमरे तक नहीं आने दिया जा रहा था, ज़्यादा होता तो पुलिस को खबर करना ही बेहतर था! कुछ समय में ही पुलिस पहुँचती और तब भी मामला रफा-दफा ही होता! लेकिन नौबत यहां तक नहीं पहुंची, संख्या में वे ज़्यादा थे तो यहां भी उनसे ज़्यादा ही होंगे! राई का पहाड़ और झाड़ी का झाड़ बना दिया था उसने तो! अब तो यही लगता था कि एक बार तो खुलकर हो जाए! देखें होता क्या है! या तो वो ही नहीं या फिर हम ही नहीं! जीवेश बार बार बाहर जाने को कह रहा था, उसको तो बर्दाश्त ही न हो रही थी! लेकिन कई बार, गरम दिमाग से लिया हुआ फैसला घाटे वाला ही होता है! शत्रु को मारो, परन्तु उसके लिए योजनाबद्ध कार्य एवम नीति से काम लिया जाता है, सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे! रात घिर आयी, शोर-शराबा बन्द सा हुआ, और हम अपने कक्ष में चले आये! अब जो भी होता, सुबह ही होता, रात को दोनों तरफ से ही मंसूबे बनाये जा रहे थे! हम कोई लड़ाई-झगड़ा नहीं चाहते थे, उस बे-अक़्ल इंसान की वजह से, पूजन धरा का धरा रह गया था, घाड़ की रकम जो चुकाई गयी थी, वो बेकार हो गयी थी, वो तो बेकार हुयी ही, सामान आदि का भी अब कोई इस्तेमाल था, तो पता नहीं कब तक होता! तो रात को हमारा यही कार्यक्रम बना कि यहां से अब चलना ही ठीक, रुकना ठीक नहीं था, वो खब्ती आदमी कब उलझ पड़े पता नहीं! हाँ, सुबह के करीब, जीवेश ने अपने कुछ आदमी बुला लिए थे, ये सब सुरक्षा के लिए ही बुलाये गए थे, आदमी विश्वास के थे, हथियार आदि भी रखते थे! अगर कोई बाद टेढ़ी होती तो इस बार काम हो ही जाना था!
तो अगले दिन यही निर्णय हुआ कि आगे कोई और मुसीबत न हो, न उनकी तरफ से न ही हमारी तरफ से, इसके लिए कुछ लोग वहां से भी बुला लिए गया, वे कुल बीस होंगे, लठैत क़िस्म के लोग! हमारे यहां भी ऐसे ही कुछ आदमी थे, हथियार पास में हों तो फिर डर नहीं रह जाता, एक बार को सोच लो तो हथियार खुल ही जाता है, और फिर क्या दो या चार! जो आये सामने, हटा दो!
तो बातचीत आरम्भ हुई!
"बात शुरू कहाँ से हुई?" पूछा एक बुज़ुर्ग ने,
"जब कल तैयारी हो रही थी, तब ये दोनों आराम फरमा रहे थे, बाकी लोग काम पर लगे थे!" बोला वो,
"ठीक है, हम आराम फरमा रहे थे, तो तू कौन सा काम कर रहा था?" पूछा मैंने,
"मेरी देख-रेख थी" बोला वो,
"हमें तो नहीं बताया गया?" बोला मैं,
"तुम तो मेहमान हो?" बोला वो,
"तो तू कौन सा घराती है?" बोला मैं,
"क्या कही थी मैंने?" बोला वो,
"ज्ञान सिखा रहा था कि नहीं?" बोला मैं,
"कोई गलत बात कही?" बोला वो,
"बिलकुल!" कहा मैंने,
"क्या? बता इन्हें?" बोला वो,
"इसने धमकी दी, कि अभी सिखाऊं? अभी इसी वक़्त?" अब कहा जीवेश ने,
"तो क्या हो गया? मैं बड़ा नहीं?" बोला वो,
"नहीं, मैं नहीं मानता!" बोला जीवेश,
"सो तेरी गलती?" बोला वो,
"तो?" कहा उसने,
"माफ़ी मांग लेता?" बोला वो,
"किस से?" पूछा मैंने,
"मुझसे और क्या अपने ** से?" बोला वो,
"ज़ुबान सम्भाल ले अपनी! नहीं तो ऐसी गाँठ पड़ेगी कि ज़िन्दगी भर न खुले!" कहा मैंने,
"लो! देख लो!" बोला वो,
"तूने जैसी बात की, वैसा जवाब भी मिला!" बोला जीवेश!
"अभी देखा क्या है तुमने?" बोला वो,
"एक लम्पट, तेरे जैसा!" बोला जीवेश,
"तेरी कौन सी ** ** दी मैंने?" बोला वो,
अब सभी पीछे पड़ गए उसके, वो तैश में आने लगा था, सांस फूलने लगी थी उसकी, आँखों में खून उतर आया था उसके!
"सुनो?" बोला एक,
"क्या?" पूछा मैंने,
"माफ़ी मांग लो, हैं तो बड़े ही?" बोला वो,
"कैसी माफ़ी?" पूछा मैंने,
"और कौन सा बड़ा? बड़ा बैठे ** ** पे!" बोला जीवेश!
अब माहौल फिर से गरम होने लगा! सभी जैसे तैयार होने ही लगे कि बस कोई छूटने को कहे तो टूट ही पड़ें!
"सुनो, सुन?" बोले जीवेश के ताऊ जी!
दोनों ही चुप हुए!
"सबसे पहले ये गाली-गलौज बन्द करो!" बोले वो,
"ये न दे तो हम भी नहीं देंगे!" बोला जीवेश!
"तुम्हारी शरम है, नहीं तो सील देता इनके मुंह!" बोला तपन!
"और हाँ, शर्म ही है, नहीं तो रात को ही धांध देते तुझे!" बोला जीवेश!
"ऐसे तो कोई हल नहीं निकलेगा!" बोला एक आदमी,
"इस से कहो ढंग में बात करे, होगा तो होगा अपने लिए, इसके बाप का नहीं खाते हम न ही पहनते, ये बोलेगा तो सुनेगा भी!" बोला जीवेश,
"कुछ ज़्यादा ही बोल गया तू?" बोला वो,
"अच्छा? क्या करेगा?" बोला जीवेश,
"जिह्वा खींच लूंगा!" बोला वो,
"हरामज़ादे! आइना देख, चेहरे पर उम्र ढल रही है, क्यों इस बूढ़े शरीर की दुर्गति करवाता है!" बोला जीवेश!
इतना सुन तो नथुने फड़क गए उसके! अपने साथियों को देखने लगा वो, कि जैसे अब बस तैयार ही रहें!
ऐसे खब्ती इंसानों की बुद्धि, दरअसल, एक राह वाली ही होती है, मतलब एक ही दिशा में सोचते हैं ऐसे लोग, न परिणाम ही देखते हैं, न देखना ही चाहते हैं, कोई उन्हें समझाये तो उनको, ऐसा करना, अपना अपमान सा लगता है! उन्हें यही लगता है कि कोई उसे समझ ही नहीं पा रहा, और मात्र वो ही सबसे ठीक है! उस जो समझ आया है वो दूसरे क्यों नहीं समझ पा रहे, इसमें वे अपने आपको अव्वल श्रेणी का सा समझते हैं! हालांकि इस तपन नाथ की आयु पचपन से अधिक ही होगी, परन्तु ये तो साफ़ पता चलता था कि उसकी फ़ितरत किस तरह की है! हम दोनों ही उसकी ऊल-जुलूल सी बातें, तर्क-वितरक सुनते रहे, वो कतई झुकने को तैयार नहीं था, वो बार बार कह रहा था कि उस से माफ़ी मानेगी जाए और सब ख़त्म यहां!
"हाँ?" बोला जीवेश,
"क्या?'' बोला वो तपन,
"सुन, माफ़ी तो हरगिज़ नहीं मांगूं, अब बता?" बोला वो,
"तब तू ही जाने?" बोला वो,
"क्या?'' पूछा उसने,
"अंजाम" बोला वो,
"कैसा अंजाम?'' पूछा उसने,
"देह बुरेक दी जायेगी!" बोला वो,
"कौन है वो पहलवान?" पूछा उसने,
"मैं कम हूँ क्या?" बोला वो,
"आये? चल? चल खड़ा हो यहां से? अभी, अभी?" कहा मैंने अब गुस्से से!
"तू कम नहीं?" बोला वो,
"खड़ा हो जा, और निकल यहां से? जो करना हो कर लियो!" कहा मैंने,
"बहुत बुरा होगा?" बोला वो,
"तू कौन सा बच जाएगा?" बोला जीवेश,
"अभी भी समय है!" बोला वो,
"समय गया तेरी ** में!" बोला जीवेश,
इतना न सुन पाया वो और जीवेश की तरफ बढ़ा, फौरन ही पकड़ा उसे कुछ लोगों ने! उसे समझाया, लेकिन न समझे वो!
"सुन ले?" बोला वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"माफ़ी मांग और बात ख़तम?" बोला वो,
"कौन सी माफ़ी?" पूछा उसने,
"जनता नहीं?" बोला वो,
"कोई गलती नहीं हमारी!" बोला मैं,
"तो वहां क्या माँ ***** आये थे?" बोला वो,
मैंने झट से खड़ा हो, उसका गिरेबान पकड़ लिया, समझाया बुझाया गया, और मैं एक कड़वा सा घूंट पी कर रह गया! जीवेश ने भी उसे अंगारे वाली नज़रों से देखा, समझ दिया उसे अपना आशय!
"आओ!" कहा मैंने,
जीवेश हुआ खड़ा मेरे साथ!
"चलो यहां से, ये सूअर का ** नहीं समझने वाला!" कहा मैंने,
"क्यों मरना चाहते हो?" बोला वो,
"सुन आये? अब ज़ुबान को रख मुंह में अपने, एक शब्द न बोल, जो करना हो, कर लेना, देखें कैसे तूने तीन *नों का दूध पिया है!" बोला जीवेश!
और हम उठ लिए वहाँ से, किसी ने नहीं रोका हमें, हम कमरे के बाहर आ गए, और दरवाज़ा खोल कुर्सियां निकाल लीं बाहर!
"बड़ा ही मादर** आदमी है साला!" बोला वो,
"ये ऐसे बाज नहीं आएगा!" कहा मैंने,
"हाँ, गले ही पड़ गया है?" बोला वो,
"क्या बोलते हो?" कहा मैंने,
"तुम बताओ?" बोला वो,
"देखते हैं!" कहा मैंने,
"बर्दाश्त नहीं हो रहा अब!" बोला वो,
"रुक जाओ ज़रा!" कहा मैंने,
"आज दोपहर तक देखते हैं, कोई रास्ता निकला तो ठीक, नहीं तो..." बोला वो,
"मानता हूँ!" कहा मैंने,
"ठीक है फिर!" बोला वो,
"हाँ, देख लेते हैं!" कहा मैंने,
दिमाग पर बेकार का बोझ डाल दिया था उस हरामज़ादे ने!
"अब अगर कुछ बोला वो तो इसे सबक सिखा कर ही छोड़ूंगा!" बोला वो,
"सबक तो बनता भी है!" कहा मैंने,
"देखते हैं!" बोला वो,
हमने पानी पिया और फिर कमरे में ही आ बैठे, करीब आधे घण्टे बाद एक आदमी बुलाने आया, हम दोनों ही चले गए उसके साथ में, वो हैं एक कमरे में ले आया, कमरे के बाहर, दोनों ही पक्षों के लोग खड़े थे, कोई सलाह-मशविरा सा लगता था आपस में!
हम आ गए कमरे में, वो तपन नाथ, जीवेश के ताऊ जी और चार लोग और बैठे थे वहाँ!
"आओ, बैठो" बोले ताऊ जी,
हम बैठ गए उधर ही, तपन नाथ ने हमें देखा और मुंह फेर लिया अपना! बड़ा ही घटिया क़िस्म का इंसान था वो!
हाँ, तो ये फैंसला हुआ है कि दोनों ही एक दूसरे से बात कर, मामला यहीं खत्म कर लो, आपसी विवाद से दूसरों को भी लाभ मिलता है, ऐसी जगह का नाम भी खराब होता है, तपन नाथ, तुम आयु में बड़े हो, इन्हें क्षमा कर दो!" बोले ताऊ जी,
"नहीं, मैं ये पूछ रहा हूँ कि मैंने ऐसा क्या कह दिया था?" बोला वो,
"लो जी!" कहा मैंने,
"क्या?" बोले ताऊ जी,
"जब हम बैठे थे वहां, लकड़ियाँ हम लेकर आ ही गए थे? तो उल्टा-सीधा बोलने की ज़रूरत ही क्या थी?" बोला मैं,
"गलतफहमी हो गयी थी" बोले ताऊ जी,
"चलो बोला भी, कम से कम सीधे मुंह बात तो होती?" कहा मैंने,
"समझता हूँ" बोले ताऊ जी,
"ये तो उठकर आये, और सीधा ही बोले कि सिखाऊं ज्ञान?" कहा मैंने,
"हमने बताया भी, कि यहां मेरे ताऊ जी है, एक न सुनी गयी!" बोला जीवेश,
"यही बात थी?" पूछ तपन नाथ से उन्होंने,
"हाँ, बात तो यही थी, लेकिन कम से कम गाली-गलौज तो नहीं करते ये?" बोला वो,
"पहले तुमने दी या नहीं?" बोला मैं,
"तो क्या हो गया?'' बोला ढीठता से!
"किसी को दो, कोई फ़र्क़ नहीं, लेकिन हम क्यों बर्दाश्त करें?" बोला जीवेश!
"अच्छा, छोड़ो अब, काम की बात पर आओ?" बोले ताऊ जी,
"कहो?" कहा मैंने,
"अब जो हुआ सो हुआ, पानी डालो!" बोले वो,
"ठीक है!" कहा मैंने,
"क्यों?'' पूछा गया उस से,
"इस बात तो छोड़ रहा हूँ, अगली बार जो कुछ हुआ, तो ये ही जानेंगे!" बोला वो,
"फिर से धमकी?" कहा मैंने,
"धमकी नहीं? असलियत, गाँठ बाँध लो!" बोला वो,
"तो तपन नाथ! तू भी सुन! अगर मेरे रास्ते आ गया, तो सच कहता हूँ, तेरा क्या अंजाम होगा तू कभी सोच भी नहीं सकता!" कहा मैंने,
"अच्छा?" बोला वो,
"बताऊं अभी?" बोला मैं,
"बता? हाँ? बता?" बोला वो,
"सुन, जब तक इज़्ज़त दी, दी, अब अगर तेरी चर्बी में खुजाल उठी, तो ऐसा भांज दूंगा कि खुद को ही अपनी पहचान नहीं होगी!" कहा मैंने,
वो गुस्से में खड़ा हुआ!
"इसलिए बुलाया था?" चीख कर बोला वो,
"बैठो, बैठो!" बोले ताऊ जी,
"नहीं? बता?" बोला वो,
"सुन तो लो?" बोले वो,
"अब क्या सुनना है?" बोला वो,
"आर्य बैठो तो सही?" बोले वो,
"नहीं बैठना, जा रहा हूँ!" बोला वो,
"जा! चल? निकल?" बोला मैं,
आया मेरे पास, चेहरा कांपा उसका!
"तेरा वक़्त आ गया!" कहा मैंने,
"किसका आया है तू जाना लेगा!" बोला वो,
"कोई हसरत न रहे, बोल ले?" बोला मैं,
"तेरी बलि न चढ़ दी तो मैं तपन नाथ नहीं!" बोला वो,
"है ही कहाँ? कुत्ते की औलाद!" कहा मैंने,
उसने हाथ उठाने के लिए बढाया हाथ आगे कि, जीवेश आ गया बीच में, जीवेश के सर पर साग गया हाथ उसका! अब क्या था! हो गयी जूतम-पैजार! अंदर लोग आने लगे! हमें हटाये कोई, और कोई बालों से खींचे! दो हमारे भी लगे, दो उनके भी लगे! हुआ बीच-बचाव फिर से! ,मेरी कमीज़ के बटन सारे फट गए थे, आँख पर शायद घूंसा लगा था ऊपर, किसी का, तो खून निकलने लगा था, भौं फट गयी थी, ज़्यादा नहीं, थोड़ी सी ही! जीवेश के कन्धों पर निशान पड़ गए थे! अब कुछ नहीं हो सकता था! ताऊ जी को आ गया गुस्सा तब!
"तुम लोगों को समझ नहीं आता? यहां चार लोग बैठे हैं, उनकी कोई इज़्ज़त नहीं? निकल जाओ यहां से? जाओ, बाहर लड़ो, यहां नहीं, जाओ सब? जाओ अभी?" बोले वो,
मैं और जीवेश बाहर आ गए, और चले वहाँ से, उसके आदमी वहीँ खड़े थे, जीवेश के आदमियों ने भी तैयारी कर ही ली थी!
"इस बहन के ** को नहीं छोड़ने वाला मैं!" बोला गुस्से से!
"सुनो!" कहा मैंने,
"हाँ?" बोला वो,
"वापिस चलो?" बोला मैं,
''क्यों?" बोला वो,
"चलो तो सही?" कहा मैंने,
"चलो!" बोला वो,
मैंने रास्ते से ही, पानी ले, आँख धो ली अपनी, रुमाल से पोंछ लिया था वो छोटा सा ज़ख्म!
"अंदर?" बोला वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
और तेज क़दमों से हम अंदर आ गए! तपन नाथ नहीं था वहां! वो लौट चुका था!
"सुनो? इधर आओ?" बोले वो, ताऊ जी जीवेश के!
"हाँ जी?" कहा मैंने,
"ये आदमी बिगड़ैल है बहुत!" बोले वो,
"तो?" कहा मैंने,
"बदमाश आदमी है" बोले वो,
"अच्छा, तो चुप हो जाएँ हम?" बोला मैं,
"हाँ, यही बेहतर है!" बोले वो,
"चुप क्यों?" बोला अब खड़ा होते हुए जीवेश, गुस्से में!
"फायदा कुछ नहीं" बोले वो,
"इसमें फायदा नुकसान कहाँ से आ गए?'' बोला वो,
"कहने का मतलब, कुछ ऊंच-नीच हो जाए तो?" बोले वो,
"कैसी ऊंच-नीच?" पूछा उसने,
"कहीं घेर-घार ही ले?'' बोले वो,
"उसकी चिंता न करो आप!" बोला जीवेश!
"जोश से काम नहीं, होश से काम लो!" बोले वो,
"आप ही बताओ?" कहा मैंने,
"माफ़ी मांग लो!" बोले वो,
"क्यों?" कहा मैंने,
"मामला आगे न बढ़े, इसीलिए" बोले वो,
"अब और क्या बढ़ेगा?'' पूछा मैंने,
"तो क्या चाहते हो?'' बोले वो,
"जानते ही हो आप?" कहा मैंने,
"क़त्ल करोगे उसका?" पूछा उन्होंने,
"तब तो छूट ही जाएगा!" बोला मैं,
"मतलब?" बोले वो,
"न घर का रहे, न घाट का!" बोला मैं,
"क्या मतलब?" बोले वो,
"मतलब उसका हाल, बेहाल होना चाहिए!" बोला जीवेश,
"बात को भूलो अब" बोले वो,
"हम तो भूले, वो?" बोला जीवेश,
"करता हूँ कोशिश" बोले वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"बात करने की?" बोले वो,
"कोई ज़रूरत नहीं!" कहा मैंने,
"आप? कहाँ से हो?" बोले वो,
"मैं, जीवेश के स्थान से!" बोला मैं,
"नए हो? या आये हो?" बोले वो,
"मैं नया ही हूँ" बोला मैं,
"जीवेश?" बोले वो,
"हाँ" कहा उसने,
"इन्हें समझाओ?' बोले वो,
"क्या भला?" कहा उसने,
"यही कि उस से बैर अच्छा नहीं!" कहा उन्होंने,
"आप डरते हो क्या उस से?" पूछा मैंने,
"नहीं" कहा उन्होंने,
"फिर?" पूछा मैंने,
"वो यहीं रहता है" बोले वो,
"तो?" बोला जीवेश,
"आप चले जाओगे!" बोले वो,
"यूँ कहो ना!" बोला जीवेश,
"हाँ" कही उन्होंने,
"ऐसा भी क्या डर?" बोला जीवेश!
"इनकी बात आती है समझ में!" कहा मैंने,
"रहने दो यार!" बोला वो!
"अच्छा जी, एक बात बताइये?" बोला मैं,
"पूछो?" बोले वो,
"कोई उसको लेने जाएगा?" पूछा मैंने,
"नहीं, किसी और को भेजूंगा" बोले वो,
"किसको?" पूछा मैंने,
"बिचौलिए को!" बोले वो,
"वो कौन?" पूछा मैंने,
"हैं इधर एक!" बोले वो,
"तो हम कब तक रुकें?" बोला मैं,
"बता दूंगा" बोले वो,
"कब जाएगा वो?" पूछा मैंने,
'शाम को" बोले वो,
"ठीक, तो शाम को आते हैं!" कहा मैंने,
"ठीक, लेकिन बाहर मत जाना?" बोले वो,
"डरिये मत!" कहा मैंने,
"कोई और बात न हो जाए?" बोले वो,
''कुछ नहीं होगा!" कहा मैंने,
"कुछ गड़बड़ लगे तो फ़ोन कर देना, समझे?" बोले जीवेश से वो!
"हाँ!" बोला वो,
और हम चले आये बाहर, यहां सामान्य सा ही माहौल था, सभी अपने अपने कामों में लगे थे!
"आओ, बाहर चलें" कहा मैंने,
"चलो" बोला वो,
टहलते हुए हम बाहर आ गए! बाहर रौनक थी, एक जगह, नीम्बू-शिकंजी मिल रही थी! सो हम वहां चले!
"दो गिलास!" बोला जीवेश,
और वो आदमी बनाने लगा शिकंजी! खूब फेंटा-फाटी की, नीम्बू निचौड़े, मसाला सा डाला, बर्फ डाली फिर से फेंटी और दे दी हमें! स्वाद वाक़ई लाजवाब था उसका!
"ये तपन नाथ कहाँ रहता है?" पूछा शिकंजी वाले से,
"पता नहीं जी!" बोला वो,
उसे कोई मतलब नहीं था, अच्छा ही था!
"आगे ही रहता होगा?" कहा मैंने,
"हाँ, भाड़ में जाए साला!" बोला जीवेश!
"एक काम हो सकता है?" पूछा मैंने,
"क्या?" बोला वो,
"इस आदमी की पकड़ क्या होगी, पता लगाया जा सकता है?'' पूछा मैंने,
"हाँ" बोला वो,
"किस से?" पूछा मैंने,
"ताऊ जी से!" बोला वो,
"बता देंगे?" पूछा मैंने,
"क्यों नहीं?" बोला वो,
"पता करो फिर!" कहा मैंने,
"क्या है मन में?" बोला वो,
"पता तो करो!" कहा मैंने,
"आज ही करता हूँ!" बोला वो,
"ये पता चल जाए तो बता बन जायेगी!'' कहा मैंने,
"ये सरभंग है!" बोला वो,
"कोई बात नहीं!" कहा मैंने,
"अब समझ गया मैं!" बोला वो,
"पहले पता तो करो!" कहा मैंने,
"करता हूँ!" बोला वो,
"लो भाई, एक एक और बना दो!" बोला वो, उस शिकंजी वाले से!
"अभी लो!" बोला वो,
मैंने भी अपना गिलास वहीँ रख दिया!
"अभी चलते हैं!" बोला वो,
"कहाँ?" पूछा मैंने,
"सामान ले आएं!" बोला वो,
"ठीक, चलते हैं!" कहा मैंने,
अब शिकंजी का एक एक और गिलास खींच लिया, बढ़िया शिकंजी बनाई थी उसने, वो भी खुश और हम भी खुश!
"आओ" बोला वो,
"चलो!" कहा मैंने,
हमने एक सवारी पकड़ी, उसी से 'मालखाना' पूछ लिया, वो ही ले गया, हम ले आये और उसी सवारी से वापिस भी आ गए!
उस शाम करीब छह बजे जीवेश मिलने गया ताऊ जी से अपने, पता चला, वो दोपहर से ही कहीं गए हुए हैं और रात के लौटेंगे! हाँ, जब वापिस आया तो एक सहायक को ले आया था संग! नाम उसका विनोद था! वो गोरखपुर जिले का ही रहने वाला था और अच्छा आदमी था!
"विनोद?" बोला वो,
"जी?" कहा उसने,
"कुछ सामान मिल जाएगा?'' पूछा उसने,
"बताओ क्या?" पूछा उसने,
"कुछ मसाले वाला?'' बोला वो,
"शाम को मिलेगा" बोला वो,
"और कुछ?" बोला वो,
"फल, सलाद मिल जाएंगे!" बोला वो,
"ये ले आ फिर!" बोला वो,
"अभी लाया!" बोला वो,
"सुन?" बोला जीवेश,
रुक गया वो,
"ठंडा पानी लाना?" बोला वो,
"ले आऊंगा!" बोला वो, और चला गया!
"इस माँ ** ** ने सारा मजा खराब कर दिया, नहीं तो यहीं मजा आ जाता!" बोला वो,
"माँ *** दो साले को!" कहा मैंने,
"साला कभी मिल गया न गोरखपुर में, तो छत्तीस टुकड़े करवा दूंगा इसके!" बोला वो,
"हो जाएंगे!" कहा मैंने,
"हो तो जाएंगे ही!" बोला वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"हम नहीं करेंगे तो कोई और झाल्टा(पागल) टपका देगा इसे!" बोला वो,
"हम ही सिखाएंगे इसे पाठ!" बोला मैं,
"साला? ज्ञान देगा हमें!" बोला वो,
"हाँ! मादर** कहीं का!" कहा मैंने,
तभी विनोद आ गया, एक ठंडे पानी की बोतल लेकर, एक झोले में फल और सलाद लेकर, चाक़ू भी ले आया था, झोले में ही एक तश्तरी भी रख लाया था संग!
"ला, हम काट लेंगे!" बोला जीवेश,
"हाँ!" कहा मैंने,
"अरे विनोद?" बोला जीवेश,
''हाँ जी?" बोला वो,
"उस तपन नाथ के बारे में जानता है?" बोला जीवेश,
"क्या जानना है?'' बोला वो,
"आदमी कैसा है?" पूछा उसने,
"घटिया!" बोला वो,
"कैसे?" बोला वो,
"जिस स्थान पर है न अब वो?" बोला वो,
"हाँ, क्या?'' पूछा उसने,
"वहां एक बाबा रहते थे, बहुत मान्यता थी उनकी, इसने खूब चाकरी की, मरवे के बाद, ये मालिक बन बैठा!" बोला वो,
"अच्छा!!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोला वो,
"कहाँ का रहने वाला है?" पूछा मैंने,
"बंगाल का!" बोला वो,
"कुछ पकड़ है?" पूछा मैंने,
"पकड़ तो है!" बोला वो,
"कैसी पकड़?" पूछा जीवेश ने, और मूली छील कर, काटने लगा वो!
"बदमाशी में!" बोला वो,
"अच्छा!" कहा मैंने,
"और वैसे?" पूछा मैंने,
"नहीं पता जी, सच पूछो तो!" कहा उसने,
"कोई जानता है?" पूछा जीवेश ने!
और फिर............!
"ब्रह्म जी बता देंगे!" बोला वो,
ब्रह्म जी, अर्थात, ताऊ जी जीवेश के!
"अच्छा, तो ठीक है!" बोला जीवेश,
"ये ले विनोद!" बोला जीवेश, कुछ पैसे देते हुए उसे,
"हैं, क्या ज़रूरत?" बोला वो,
"अरे कुछ ले ही आना?" बोला वो,
"है सबकुछ!" बोला वो,
"तेरी राजी!" बोला जीवेश,
"चलो, पूछ लेना उनसे ही" कहा मैंने जीवेश से,
"हाँ, एक बात देखी आपने?" बोला वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"ताऊ जी, कुछ हिचकिचा रहे थे?" बोला वो,
"हाँ, कुछ दबदबे से लगे?" बोला मैं,
"शायद ये तपन नाथ, कुछ न कुछ रखता होगा?" कहा जीवेश ने,
"हो सकता है!" कहा मैंने
"वो बार बार यही कह रहे थे कि हम थोड़ा झुक जाएँ और उस तपन नाथ से क्षमा मांग लें, देखा?" बोला वो,
"हाँ, एक बार भी ये नहीं कहा कि हमने सही किया या हमारी बात सही तरह से भी सुनी हो, वो बस इस मामले को, किसी तरह से ही सुलटाने में ही लगे थे!" कहा मैंने,
"या ये तो कुछ गूदा रखता है या फिर कोई है इसके साथ! अकेले सरभंग के बस में नहीं ऐसा!" कहा उसने,
सलाद कट गयी थी, हमने शुरू भी कर दिया था अपना कार्यक्रम, विनोद चला गया था, थोड़ी देर बाद आता वो! तो हम यहीं बैठे बैठे बातें करते रहे थे! अचानक से मुझे कुछ याद आया!
"जीवेश?" कहा मैंने,
"हाँ?" बोला वो,
और एक गाजर का टुकड़ा उठाया उसने,
"तुम बता रहे थे कि यहां कोई समाधि निकली थी, अज्ञात?" पूछा मैंने,
"हाँ" बोला वो,
"कैसी समाधि?" पूछा मैंने,
"पत्थरों की बनी हुई" बोला वो,
"कैसे पता समाधि ही है?" पूछा मैंने,
"वैसे मुझे भी लगता है कि वो कुछ और ही है!" बोला वो,
"क्या भला?" पूछा मैंने,
"शायद किसी खण्डहर का भाग सा है!" बोला वो,
"हो सकता है, क्या आसपास कुछ और भी निकला?" पूछा मैंने,
"नहीं, आसपास तो बसावट है, शायद नीचे ही हो!" बोला वो,
"तब हो सकता है!" कहा मैंने,
"यहां के लोग दीप आदि जला देते हैं उस पर, और क्या!" बोला वो,
"ठीक भी है!" कहा मैंने,
"हाँ, कम से कम तोड़ेंगे तो नहीं!" बोला वो,
"हाँ, ये तो है!" बोला वो,
करीब एक घण्टा बीत गया, विनोद पानी दे गया था, हम आराम आराम से अपना कार्यक्रम आगे बढाते रहे!
"ताऊ जी से बात करो, पूछ लो! कोई बात फिलहाल तक तो नहीं हुई, सुबह से अभी तक, न हो तो ठीक ही है!" कहा मैंने,
"हाँ, सो तो है!" बोला वो,
तो करीब आठ बजे, विनोद आया हमारे पास, उसने जीवेश से कहा कि उसको बुलाया गया है वहाँ,
"मैं भी आऊं?" कहा मैंने,
"कोई बात नहीं, आता हूँ मैं!" बोला वो,
और चला गया वो विनोद के साथ, करीब आधे घण्टे बाद आया वो वापिस, अब तक मैंने और सलाद छील कर तैयार कर दी थी, विनोद फिर से पानी लेने चला गया था!
"कहाँ गए थे?" पूछा मैंने,
"उन्होंने ही बुलाया था!" बोला वो,
"कोई बात हुई?" पूछा मैंने,
"बताया ही नहीं!" बोला वो,
"अरे?" कहा मैंने अचरज से,
"बोले रहने ही दो!" बोला वो,
"हम तो रहने देंगे, लेकिन वो?" बोला मैं,
"यही तो कहा मैंने?" बताया उसने,
"फिर?" पूछा मैंने,
"फिर क्या? बोले ही नहीं कुछ!" बोला वो,
"ये तो मुसीबत हो गयी!" बोला मैं,
"चलो, कोई बात नहीं, अभी तक तो मामला शान्त ही है!" बोला वो,
"है तो? लेकिन?" कहा मैंने,
"कह रहे हैं बात हो गयी है!" बोला वो,
"किस से?" पूछा मैंने,
"उसी से" बोला वो,
"हो गयी?" पूछा मैंने,
"बता तो रहे हैं!" बोला वो,
"हो गयी है तो कोई बात नहीं!" कहा मैंने,
"हाँ, यही मैंने भी सोचा!" बोला वो,
तो इस तरह से कुछ इत्मीनान हुआ, ब्रह्म जी की बात भी रखनी थी, इज़्ज़त का सवाल था, और फिर बात हो गयी थी उस से, और क्या चाहिए था!
"चलो, कल निकल चलें!" कहा मैंने,
"हाँ, चलते हैं!" बोला वो,
"अब यहां क्या लाभ?" कहा मैंने,
"हाँ, कोई काम नहीं शेष यहां!" बोला वो,
और तभी, दो और सहायक आये उधर! जीवेश से बातें हुईं बुलाया था उसको, मैं भी चल पड़ा उधर!
जब आये उधर, तो एक जगह वो तपन नाथ ही बैठा हुआ था, साथ में उसके दो आदमी थे! अब क्या हुआ था, ये अब पता चलता!