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वर्ष २०११ बस्ती उत्तर प्रदेश की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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"ओह" वे बोले,

"हाँ" मैंने कहा,

"ऐसा क्यों?" उन्होंने पूछा,

"कोई योग्य गुरु नहीं मिला उसको" मैंने कहा,

"समझ गया मै!" वे बोले,

"वो भटकता रहा, साधुओं संग रहा, औघड़ों संग रहा, सेवक बना, सहायक बना केवल अपने प्रतिकार के लिए!" मैंने कहा,

"बेचारा नाथू" वे बोले,

"फिर एक बार एक बुजुर्ग औघड़ को उस पर दया आई, नाथू उसकी शरणागत हुआ, उस औघड़ ने उसको कुछ सिद्धियाँ सिखायीं, परन्तु ये तो केवल एक शुरुआत थी! पूर्णता नहीं! बाबा पद्म से अभी कोसों दूर था वो! और फिर डेढ़ वर्ष की सेवा करवाने के बाद वो बुजुर्ग औघड़ भी चल बसा!" मैंने बताया,

"क्या नसीब है नाथू का" वे बोले अफ़सोस से!

"हाँ, उसके बाद वो एक उड़ीसा के औघड़ के संपर्क में आया, वहां भी ऐसा ही कुछ हुआ, दो वर्ष तक सेवकाई करता रहा नाथू, पल्ले कुछ नहीं आया!" मैंने कहा,

"फिर गुरु जी?" उन्होंने पूछा,

"और फिर वो मेरे मार्ग के कट्टर शत्रु-दल में चला गया, वहाँ उसने कुछ और सिद्धियाँ सीखीं! और औघड़ की उपाधि ले ली!" मैंने कहा,

"आपके मार्ग का शत्रु?" उन्होंने पूछा,

"हाँ शर्मा जी, शत्रु! कल का नरसिंह आज का नाथू मेरे मार्ग के कट्टर शत्रु बाबा कालेश्वर के साथ है! नाथू की तो विवशता है, साम-दाम, दंड-भेद! उसको प्रतिकार चाहिए!" मैंने कहा,

"और वो पद्म बाबा?" उन्होंने पूछा,

"वो जहां है उसको नाथू कभी हाथ नहीं लगा सकता!" मैंने बताया,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"मतलब?" उन्होंने पूछा,

"मतलब की पद्म नाथ नेपाल में हैं ध्रुव नाथ के साथ!" मैंने कहा,

"आज भी?" उन्होंने पूछा, पिछले नौ महीने पहले यही पता चला था मुझे" मैंने कहा! ।

सारी कहानी सुनने के बाद, शर्मा जी खो गए शून्य में!

"गुरु जी, आपको कैसे पता ये सब?" उन्होंने पूछा,

"खेतक नाथ ने बताई थी मुझे ये कहानी, नाथू की!" मैंने कहा,

"खेतक नाथ, वो असम वाला? हाँ, असीमानंद का गुरु भाई!" मैंने कहा!

बैठे तभी शर्मा जी पलंग पर, और मैंने एक गिलास पानी पिया!

थोड़ी देर शांति रही वहाँ, नाथू की मार्मिक कहानी ने शर्मा जी को झकझोर दिया था, वो सन्न रह गए थे कि क्या कोई मनुष्य इतनी परीक्षाओं के योग्य भी है? कुछ नहीं बचा नाथू के पास, केवल एक प्रतिकार की जलती लौ ने ही उसके प्राण संचरित कर रखे थे, पता नहीं ये लौ कब तक जलेगी!

"गुरु जी, एक प्रश्न करूँ?" उन्होंने पूछा,

"कीजिये?" मैंने कहा, हालांकि मुझे इसका पता था कि प्रश्न का क्या विषय है!

"क्या नाथू की मदद की जा सकती है?" वे बोले,

"मै जानता था, कि आप यही प्रश्न करोगे!" मैंने कहा,

"मेरा प्रश्न उचित है गुरु जी, दिल भर गया है मेरा" वे बोले,

"प्रश्न उचित है परन्तु उत्तर बहुत कठिन" मैंने कहा,

"कैसे?" उन्होंने पूछा,

"वो मेरे शत्रु-दल में है, मेरे मार्ग के कट्टर शत्रु, भला मै या वो कैसे एक दूसरे से वैमनस्य ले सकते हैं?" मैंने जवाब दिया!

शांत हो गए वो, कुछ सोचने लगे, एयर-फ़ोर्स का दिमाग है, कोई न कोई त्रुटी-हीन हल तो निकालना ही था!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"अच्छा गुरु जी, मान लीजिये, यदि नाथू वहाँ से स्वयं अलग हो जाये तो?" उन्होंने अकाट्य प्रश्न किया!

"तो संभव है!" मैंने कहा, मेरे पास अन्य कोई उत्तर शेष नहीं था!

"ठीक है गुरु जी!" पहली बार उनके चेहरे पर संतोष के भाव आये!

"लेकिन नाथू ऐसा करेगा?" मैंने पूछा,

"गुरु जी, अब मैं समझ गया!" वे बोले,

"क्या?" मैंने पूछा,

"क्यों नाथू ने मुझे आत्मीयता जताई, क्यों मेरे आसपास बना रहा, एक शत्रु-दल के संगी के साथ क्यों मित्रवत व्यवहार किया!" वे बोले,

"मैंने यही आपको बताया था!" मैंने कहा,

"यदि वो सीधे आपसे बात करता तो संभवतः आप मना कर देते, उसके पास अन्य कोई विकल्प नहीं शेष रहता!" वे बोले,

"संभव है, मै यही कहता!" मैंने कहा,

"यही कारण है गुरु जी कि वो मेरे पास बना रहा!" वे बोले!

"मैंने आपको बताया था ना!" मैंने कहा!

अब शर्मा जी ने अपना फ़ोन उठाया, और लगा दिया नंबर नाथू का!

"क्या नाथू को कर रहे हैं?" मैंने पूछा,

"हाँ" वे बोले,

"ठहरिये तो सही?" मैंने कहा,

"उसको हमारे सकुशल पहुँचने की इत्तला दे रहा हूँ गुरु जी!" उन्होंने कहा,

इस से पहले मै कुछ कहता उनका फ़ोन लग गया! बातें करने लगे, ऐसे, जैसे बहुत पुराने मित्र हों आपस में! इत्तला दे दी गयी! और फ़ोन काट दिया गया!

"अब मै चलता हूँ गुरु जी" वे बोले,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"ठीक है" मैंने कहा,

"मै शाम को आता हूँ अब" वे बोले,

"ठीक है, आ जाइये" मैंने कहा,

वे चले गए और मै यहाँ नाथू के विषय में सोचने लगा, बाबा पद्म ने एक हँसते-खाते परिवार को तबाह कर दिया था, मात्र काम-वासना के लिए, वो सजा का हक़दार था, परन्तु मै उसको कुछ नहीं कह सकता था जब तक कि नाथू मुझसे ना कहे, मै तो सहर्ष उसकी मदद करता, वो मनुष्य ही क्या जो किसी दूसरे मनुष्य की उसके दुःख के समय मदद ही ना करे! परन्तु ऐसा होता नहीं! यदि ऐसा हो जाये तो इस संसार में दुःख नाम का ये जीव अंतिम साँसें गिनने लगेगा! सर्वत्र सुख होगा! परतु मित्रगण! ये तो मात्र एक कल्पना है! आज के संसार में तो माँ की एक कोख से जन्मे दो भाई भी प्रबल शत्रु हो जाते हैं भूमि विवाद, स्त्री-विवाद, परिवार-विवाद, अर्थ-विवाद, पैत्रिक-विवाद के कारण! तो ये तो सोचना ही अर्थ-हीन है!

अब मै उठा और अपना बैग ले गया क्रिया-स्थल में, अपने सामान को उचित स्थान में रखा और फिर बाहर आ गया, जाकर अपने कक्ष में लेट गया, सहायक खाना ले आया, सो खाना काहने लगा, खाने के बाद तनिक विश्राम किया और थोड़ी सी नींद ले ली! सफ़र की थकान थी इसीलिए!

नींद खुली तो घड़ी देखी, चार बज चुके थे, मै अब बाहर गया और अपने सहायक से बातें करने लगा, उसको फूलों और पत्तों की कटाई-छंटाई के बारे में कहा, उसने संध्या समय करने को कह दिया, फिर में वापिस अपने कक्ष में आया और अखबार पढने लगा! तभी मेरा फ़ोन बजा, फ़ोन शर्मा जी का था, वो आधे घंटे में आने वाले थे मेरे पास, 'प्रसाद' लेकर!

आधा घंटा बीता तो शर्मा जी आ गए!

"आइये शर्मा जी!" मैंने कहा,

"धन्यवाद गुरु जी, उन्होंने सामान निकालते हुए कहा, सामान निकाला, बोतल निकाली और फिर ठंडा पानी लेने चले गए, पानी डालकर लाये जग में तो उसमे साथ लायी हुई बर्फ़ डाल दी, जग हिलाया और रखा! फिर 'प्रसाद' का पोलीथिन खोला, मदिरा गिलास में परोसी और दोनों ने 'अलख-निरंजन' बोलकर गिलास गटक गए अपने अपने!

"क्या बात है शर्मा जी, नाथू को नहीं भूले आप" मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"कैसे भूल सकता हूँ, घर गया तो वहां परेशान, किसी के यहाँ गया तो वहाँ परेशान, नाथू ही घूमता रहा मन में, इसीलिए यहाँ चला आया!" वो बोले,

"मुझे पता था" मैंने कहा,

"गुरु जी, मैं बात करूँ नाथू से?" उन्होंने याचना भरे स्वर में कहा,

मै सोच में पड़ गया!

"बताइये?" उन्होंने कहा,

"ठीक है, कर लीजिये!" मैंने कहा,

उनको ऐसी खुशी हुई जैसे किस गाय को उसका खोया हुआ बछड़ा मिल जाता है! सच कहता हूँ!

और करीब आधा घंटा बात हुई दोनों की! अंतिम शब्द शर्मा जी के यही थे कि गुरु जी मान गए हैं!

"शर्मा जी, ठीक है, मै मदद करूँगा इस नाथू की, परन्तु इसको वो बसेरा छोड़ना पड़ेगा, वहाँ के प्रधान से सम्मुख जाकर इसको ये कहना पड़ेगा" मैंने कहा,

"वो मैं समझा दूंगा गुरु जी" शर्मा जी ने कहा,

"अगर आप समझा दोगे और वो समझ जाएगा तो उसको एक बार दिल्ली बुलाना, टिकेट हम करा देंगे, उस से कुछ और भी बातें मालूम करनी हैं मुझे, तभी हम आगे बढ़ेंगे" मैंने कहा,

"जी उचित है" वे बोले,

"और एक बात, अपना समस्त नाता समाप्त करके आये वो वहाँ से, एक बार कदम निकले तो दुबारा नहीं जाना वहाँ उसको" मैंने चेताया,

"जी, मै समझा दूंगा" वे बोले,

हमने अब तक सारा 'प्रसाद' और मदिरा समाप्त कर ली! आज रात शर्मा जी वहीं रहने वाले थे, रात्रि समय वे बात करने वाले थे नाथू से!

और फिर रात हुई, अब शर्मा जी ने बातें करनी शुरू की नाथू से, वे उठ कर बाहर चले गए, काफी देर हुई, मेरी आँख लग गयी, मै सो गया!


   
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श्रीशः उपदंडक
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प्रातः काल उठा तो शर्मा जी सोये हुए थे, मै नित्य-कर्मों से फारिग होने चला गया, स्नान के पश्चात आया तो शर्मा जी को जगाया, वे जागे, देखा सुबह के साढ़े पांच बज रहे थे, वे भी फारिग होने चले गए, वापिस आये तो बैठ गए!

"हो गयी बात नाथू से?" मैंने पूछा,

"हाँ जी हो गयीं" वे बोले,

"क्या रहा?" मैंने पूछा,

"वो मान गया" वे बोले,

"फिर, आपका चेहरा क्यूँ लटका है?" मैंने पूछा,

"उसने कहा वो तो आ जायेगा यदि उसका प्रधान आने दे तो" वे बोले,

"बस? इतनी सी बात?" मैंने हंस के पूछा!

"ये इतनी सी बात नहीं लगती मुझे तो गुरु जी" वे बोले,

"मानता हूँ, नाथू ये बोले कि उसने त्रिपुर-भद्रा में जाने का निश्चय किया है!" मैंने बताया,

"उस से क्या होगा?" उन्होंने पूछा, ।

"मै खबर कर दूंगा भुवनेश्वर में, आदिनाथ मेरा कहा नहीं टाल सकता! उसका टोला ले आयेगा उसको अपने यहाँ, फिर वो वहां से दिल्ली आ जाये!" मैंने कहा,

"वाह गुरु जी!" वे बोले!

और फिर वही हुआ, शर्मा जी ने नाथू को ये योजना बताई, उसके प्रधान ने उसको फटकार लगाईं, खर्च माँगा वहाँ रहने का, सामग्री आदि का, ना-नुकुर की, लेकिन मेरे कहे अनुसार आदिनाथ के भेजे एक टोले ने नाथू को वहां से निकाल लिया, वो अब भुवनेश्वर आ गया! सबसे प्रसन्न शर्मा जी थे!

एक हफ्ता बीता, उसके टिकेट बुक करा दिए गए और उसके चार दिनों के बाद नाथू वहाँ से दिल्ली के लिए रवाना हुआ! वो दिल्ली पहुंचा और शर्मा जी उसको लेने गए! उसको लिवा लाये, मेरे पास! वो मेरे पास पहुंचा! मुझे प्रणाम किया, पांव पड़ा तो मैंने उठा लिया, देखा तो उसकी आँखों में अश्रु-धारा अविरल रूप से बह रही थी!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"बस! बस नरसिंह बस!" मैंने कहा!

उसने आंसू पोंछे!

"बहुत भटक लिया नरसिंह तू! अब ठहरने का समय आ गया! तुझे अब ठिकाना मिल गया!" मैंने कहा!

मैंने उसको बिठाया, पानी पिलाया और चाय आदि का प्रबंध किया!

"नाथू, कभी रश्मि का पता चला?" मैंने पूछा,

"हाँ, चला था, वो ध्रुव नाथ के डेरे पर ही है" उसने बताया,

"कभी वहाँ गया तू?" मैंने पूछा,

"गया था, मुझे डांट-डपट कर, मार-पीट कर भगा दिया उन्होंने, मैंने भी विरोध किया, तब ध्रुव नाथ ने मेरी बात सुनी और रश्मि को बुलाया मेरे पास, लेकिन उसने मुझे पहचानने से इनकार कर दिया, मेरी छाती फट गयी गुरु जी" ये कहते हुए उसने एक दम से रौ में रोना शुरू किया! मैंने उसे नहीं रोका, अच्छा है, आंसू बह जाएँ तो गम जमता नहीं सीने में!

"तू ज़िन्दा कैसे है नाथू?" शर्मा जी ने नाम आँखों से पूछा,

"बता नहीं सकता शर्मा जी मै आपको......... बस एक ख्वाहिश है सीने में, मैं अपनी बेटी को सीने से लगा लूँ, उसे बेटी कह लूँ, वो मुझे पिता कह ले, उसके बाद भले ही मै अगले पल इस ज़मीन से उठ जाऊं, मौत को गले लगा लूँ" उसने सिसकियाँ लेते हुए कहा,

ओह! कितना भारी दुःख! कितना भार! कौन जीवित रहता है ऐसे? मेरा कलेजा भी चिर गया उसके रूदन से! पद्म नाथ के बारे में सोच कर मेरे मस्तिष्क में क्रोध का ज्वालामुखी फूटने लगा!

"बस नाथू बस! तुझे बेटी भी मिलेगी, और ये पद्म नाथ अपने जन्म को रोयेगा! रोयेगा कि वो इस संसार में पैदा ही क्यों हुआ! मत घबरा!" मैंने कहा,

तब तक चाय आ गयी, मैंने नाथू को चाय पिलाई और उसके कंधे पर हाथ रख कर उसको दिलासा देता रहा!

"शर्मा जी, ये हैं दुःख!" मैंने कहा,

"सही कहा आपने गुरु जी" वे बोले,


   
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श्रीशः उपदंडक
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शर्मा जी ने नाथू का झोला खोला, बस तीन तस्वीर! कपड़े में लिपटी हुईं! शर्मा जी ने उनको बाहर निकाला! पहले उसके बेटे की तस्वीर देखी, सजीला, मुस्कराहट के साथ उसके बेटे की तस्वीर! कांपते हाथों से वो तस्वीर मैंने पकड़ी, आंसूं आँखों तक आये, लेकिन मैंने जज़्ब कर लिए!

"ये मेरे बेटा है, राजन" उसने उसके शीशे को अपनी कलाई से साफ़ किया!

कलेजा मुंह को आ गया मेरे और शर्मा जी का!

दूसरी तस्वीर, उसकी बेटी रश्मि की, सुन्दर, चपल और खिलखिलाती हुई!

"ये है रश्मि गुरु जी" वो बोला! तभी उसकी आँखों से आंसू की एक बूंद उसके शीशे पर गिरी! उसने उसको साफ़ किया! मेरा हलक सूखने लगा!

तीसरी तस्वीर, उसकी पत्नी ज्योति की! साथ में नरसिंह! दुलहन बनी ज्योति और साथ में बैठा नरसिंह! कितना अंतर आ गया था उस वक़्त के नरसिंह!! और आज के नाथू में! उसने तस्वीर में अपनी पत्नी की तस्वीर साफ़ की अपनी नहीं!

कलेजे में जैसे सुआं चुभा! सुआं! हाँ सुआं! सुआं उस हरामजादे पद्म नाथ का!

मैंने कलेजे के चीर के दर्द को दिलासा देकर शांत किया! नाथू ने वे तीनों तस्वीरें कपड़े में लपेटी और फिर से अपने झोले में रख लीं! मैंने उसको खाना खिलाया और आराम करने के लिए कह दिया, वो आँखें खोले ही निंद्रा लेने लगा! मित्रों जिसको इस तरह का ग़म होता है वो इसी प्रकार निंद्रा लेता हैं, बेखबर, बस अपनी पुरानी सुखद यादों में विचरण करते हुए! आँखें बंद हुईं तो वो दृश्य भी लोप हो जाता है! मुझे सच में बहुत तरस आया नरसिंह पर उस समय! वो चुपचाप लेटा झोले को अपने सीने से चिपकाए उसी दृश्य में खो गया था, मै उसको टोकना नहीं चाहता था! अतः शर्मा जी के साथ बाहर आ गया!

"गुरु जी, क्या हालत है एक बाप की, एक पति की और एक मनुष्य की" वे बोले,

"मैं जानता हूँ" मैंने कहा,

"गुरु जी, भस्म कर दो इस पद्म नाथ को!" वे गुस्से से बोले,

"शर्मा जी, शत्रु को यदि मृत्यु-प्रदान कर दी तो आप कायर ठहरे!" मैंने कहा,

वो भौंचक्के हुए!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"मै समझा नहीं?" उन्होंने कहा,

"पद्म नाथ को मौत मिली तो अपने दुष्कर्म और दुष्कृत्य वो किसको बताएगा? इसीलिए उसका जीवित रहना आवश्यक है, हाँ, जीवित ऐसा कि संग संग मृत्यु भी डोले उसके साथ तलवार लिए, की कब वो झुके और कब वो उसका मुंड काटे!" मैंने कहा,

"वाह गुरु जी वाह!" वे बोले,

"पद्म नाथ का मै क्या हाल करूँगा आप स्वयं देख लोगे!" मैंने कहा,

"ऐसा ही हो गुरु जी! इस आदमी के पास कुछ नहीं बचा है, बस उसके प्राण, जो अटके हुए हैं उसकी देह में कि कब उसकी बेटी उसके सीने से लगे और उसे पिता जी बोले" उन्होंने रुंधे स्वर में कहा!

"मुझे पता है शर्मा जी" मैंने कहा,

अब विश्राम का समय था, रात्रि और स्याह चादर ओढने लगी थी, उसकी चादर में जड़े तारे रुपी मोती चमकने लगे थे! रात्रि-प्रहरी चंद्रमा डटा हुआ था अपने कर्तव्य पर, खगोल में भ्रमण करते हुए, नित्य भांति! अतः अब विश्राम करने का समय था! मै और शर्मा जी चले एक कक्ष में और अपने अपने बिस्तर पर लेट गए, लेटे तो सारी कहानी नाथू की चलचित्र के समान आँखों में झिलमिलाने लगी! न नींद मुझे आ रही थी न शर्मा जी को! मेरा भी यही हाल था और शर्मा जी का भी!

"गुरु जी? सो गए क्या?" उन्होंने पूछा,

"नहीं तो, पूछिए?" मैंने कहा,

"ये पद्म नाथ कहाँ है आजकल?" उन्होंने पूछा,

"अंतिम खबर तक वो नेपाल में था" मैंने कहा,

"अब अगर वो वहाँ न हो तो?" उन्होंने पूछा,

"कोई बात नहीं, पता चल जाएगा कि कहाँ है" मैंने बताया,

"क्या प्रबल है?" उन्होंने पूछा,

"होगा तो अकेला लडेगा, नहीं होगा तो किसी की मदद लेगा" मैंने कहा,

"मतलब ध्रुव नाथ की?" उन्होंने पूछा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"कह नहीं सकता, लेकिन ध्रुव नाथ आदमी सही है" मैंने कहा,

"सही? कैसे?" उन्होंने पूछा,

"वो प्रपंची नहीं है" मैंने बताया,

"अच्छा " वे बोले,

कुछ देर शांत रहे हम, अपने अपने हिसाब से अपनी अपनी विचार रूप नैय्या खे रहे थे कल्पना रुपी सागर में!

"गुरु जी?" वे बोले,

"हाँ?" मैंने कहा,

"एक बात समझाइए" वे बोले,

"पूछिए?" मैंने कहा,

"बकौल नाथू जब वो अपनी बेटी से मिला तो उसकी बेटी रश्मि ने उसको पहचाना क्यों नहीं?" उन्होंने पूछा,

"दो कारण है! या तो वो प्रबल-मोहन में है या लोक-लज्जा से उसने नहीं पहचाना होगा, क्यूंकि अब तक उसका शोषण हो चुका होगा इस पद्म नाथ के द्वारा, वापिस पिता के साथ जाकर क्या करेगी वो? साध्वी होना ही बहुत" मैंने कहा,

"ओह! क्या विडंबना है" वे बोले,

"ये तो हमको रश्मि ही बताएगी शर्मा जी" मैंने कहा,

"समझता हूँ मै" वे बोले,

"हाँ, बड़ी विडंबना है" मैंने कहा,

"बेचारा नाथू और बेचारा उसका परिवार" वे बोले,

"शर्मा जी, आप जानते हैं? न जाने ऐसी कितनी रश्मियाँ ऐसे ही शोषित होती आ रही हैं? कारण? उनका स्त्री होना! और ऐसे निम्न-स्तर के ये तांत्रिक!" मैंने कहा,

"सही कहा आपने" वे बोले,


   
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श्रीशः उपदंडक
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खैर, ये पद्म बाबा तो अब थूकेगा अपने जन्म को, देख लेना!" मैंने कहा, ।

"मै भी यही चाहता हूँ!" वे बोले,

"ऐसा ही होगा शर्मा जी, किसी एक नाथू को उसकी पुत्री तो मिलेगी!" मैंने कहा,

"हाँ! और इसका श्रेय आपको!" वे बोले,

"नहीं, आपको जाएगा!" मैंने कहा,

"वो क्यों?" उन्होंने पूछा,

"नाव कितनी भी अच्छी क्यूँ न हो, यदि खिवैय्या माहिर नहीं तो नाव क्या करेगी? आप नहीं होते तो ये नाथू यहाँ नहीं होता आज, तड़प तड़प के मर जाता कही किसी कोने में, उसके साथ उसकी तस्वीरें भी जल जातीं!" मैंने कहा!

वो फिर चुप रहे!

और भी बातें हुईं, मध्य रात्रि हो चुकी थी! अब सोने का समय था, सो गए फिर हम!

सुबह हुई, मैं ही सबसे देरी से उठा था, शर्मा जी वहां नहीं थे, मै अंगड़ाई लेकर बाहर आया तो देखा नाथू और शर्मा जी बाहर घूम रहे थे, मैं स्नान के लिए गया और फारिग होकर आ गया, सहायक चाय-नाश्ता ले आया था, हम तीनों ने चाय पी और बातें शुरू हुईं!

"नाथू, एक बात बता, तूने किसी को कभी अपनी मदद के लिए कहा?" मैंने पूछा,

"जिस से मिला सभी से कहा, किसी ने दुत्कारा, किसी ने सहायक बनाया, किसी ने आश्वासन दिया लेकिन हुआ कुछ नहीं" उसने बताया,

"ऐसा ही होता है नाथू" मैंने कहा,

"तुझे मेरे बारे में कैसे मालूम चला?" मैंने पूछा,

"मुझे खेतक नाथ ने बताया था" उसने कहा,

खेतक नाथ वही, असम वाला, उसी ने मुझे इस नाथू की ये कहानी बताई थी!

"तो तू मेरे पास क्यूँ नहीं आया?" मैंने पूछा,

"मै डरता था" उसने बताया,


   
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"क्यों डरता था?" मैंने पूछा,

"मुझे वज्रनाथ ने डरा दिया था, जहां मै था उस समय" उसने बताया,

"समझ गया" मैंने कहा,

"इसीलिए नहीं आया। उसने बताया,

"फिर तूने शर्मा जी से आत्मीयता की, है न?" मैंने पूछा, ।।

"हाँ, और कोई रास्ता नहीं था" उसने बताया,

"खैर, तूने सही व्यक्ति से आत्मीयता की नाथू, जब से तुझसे मिले हैं तेरे बारे में ही बात कर रहे हैं ये, इसीलिए तुझे यहाँ बुलाया है हमने! मैंने कहा,

उसने शर्मा जी को देखा और उनके पांव पड़ने लगा! शर्मा जी ने पाँव हटा लिए!

"अब चिंता न कर नाथू, तू सही जगह है, अब ये आखिरी पड़ाव है तेरा, वो कमीन का बच्चा पद्म बाबा अब नहीं बचेगा, चाहे कहीं भी चला जाए!" उन्होंने बताया,

रो पड़ा नाथू ये सुन कर!

"रो मत अब नाथू!" शर्मा जी ने कहा,

"मेरी पीठ में छुरा भोंका उसने, मैंने क्या बिगाड़ा था उसका?" उसने रोते हुए कहा,

"बस, अब मत रो" शर्मा जी ने कहा,

"आज मेरा बेटा होता तो मै ये दिन नहीं देखता" उसने कहा,

"नाथू, जो हुआ वो वापिस नहीं हो सकता, लेकिन यकीन रख जितना तूने बर्दाश्त किया है उस से हज़ार गुना पद्म नाथ भुगतेगा, मैं वचन देता हूँ तुझे" शर्मा जी ने कहा,

"अब आपका ही सहारा है मुझे" उसने फिर से रोते हुए कहा,

"नाथू, मै आज क्रिया में बैठूँगा, अता-पता निकालूँगा उसका, कहाँ है वो, फिर वहीं चलते हैं! नाथू मै उसको अशक्त कर दूंगा, तेरे सामने बिठा दूंगा उसे, उसका हल देखा नाथू तू, तेरे पाँव पड़कर माफ़ी मांगेगा! भीख मांगेगा अपने प्राण की!" मैंने कहा,

पहली बार मुस्कराहट आई उसके चेहरे पर!


   
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दोपहर हुई, भोजन आया और हम तीनों ने भोजन किया, और मैंने अपने क्रिया-स्थल में जाकर समस्त सामग्री और वस्तु का प्रबंध किया! झाडू लगाईं वहां! साफ सफाई की! और फिर वापिस आ गया, उन दोनों के पास!

"नाथू, अभी हरिद्वार में कौन कौन है तेरे घर में?" मैंने पूछा,

"भाई का परिवार, पिता जी का पता नहीं" उसने कहा,

"और तेरी दुकान?"

"वो भाई के पास है" उसने कहा,

"तुझे मिल जाएगी?" मैंने पूछा,

"हाँ, भाई ऐसा नहीं है" उसने कहा,

"ठीक है फिर!" मैंने कहा,

इसके बाद थोड़ी सामग्री मंगवाई शर्मा जी से, मदिरा भी और प्रसाद भी!

फिर आई रात!

मै एक बजे रात को क्रिया में बैठा! अलख उठायी और अलख भोग दिया! अब मैंने अपना तातार खबीस हाज़िर किया उसका शाही रुक्का पढ़कर! उसको भोग दिया और मेरे उद्देश्य जानकर उड़ पड़ा मेरी खातिर! मेरे विश्वास पर! मैं बैठ गया, बेसब्री से उसका इंतज़ार करने लगा! और करीब पद्रह मिनट के बाद वो हाज़िर हुआ! खबर बड़ी सटीक थी! पद्म बाबा हरिद्वार में था उस समय! मेरी बांछे खिल गयीं! बिना किसी को खबर लगे बगैर तातार वो खबर लाया था जो किसी कारिंदे के बसकी नहीं थी! कारिन्दा वापिस आ जाता वहाँ से! लेकिन तातार अड़ियल है! पांच-दस 'पकड़' को तो खींच ही लाता वो! मैं खुश हुआ! उसको और भोग दिया! अब वो लोप हुआ! मैंने अलख नमन किया और ब्रह्म-दीप जला दिया! किसी की 'पकड़' आएगी तो वापिस नहीं जाएगी अब!

जब मै वहां से उठा तो ढाई बज रहा था! मैंने स्नान करने चला गया और फिर वापिस आ कर शर्मा जी और नाथू के पास आ गया, वे दोनों टकटकी लगाये देख रहे थे मुझे! मैंने पहले तो गंभीर चेहरा बनाया और फिर हंसा!

"तैयार हो जाइये! कल सुबह हरिद्वार चलना है, पद्म बाबा वहीं है!" मैंने कहा,


   
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ये सुन खड़े हो गए वे दोनों!

"हरिद्वार में है तो वो हरामजादा!" शर्मा जी के नसें फड़क गयी अब!

"हाँ" मैंने कहा,

"और गुरु जी रश्मि?" नाथू ने पूछा,

"ये वो ही बताएगा मुझे" मैंने कहा,

"जी" उसने कहा,

"शर्मा जी, तैयारी करो सुबह की" मैंने कहा,

और मै तभी गया वापिस, सारे सामान का संकलन किया और एक बैग में भर लिया!

वापिस आया तो दो चार बातें समझा दी उन दोनों को!

"शर्मा जी, पैग बनाइये, पद्म बाबा की बर्बादी और नाथू के नए जीवन की शुरुआत के लिए!" मैंने कहा,

"ज़रूर!" खुश हो कर बोले वो!

शर्मा जी ने तीन पैग बनाये और हम तीनों ने 'अलख-निरंजन, दुःख हो भंजन' का नाद कर मदिरा गले से नीचे उतार ली!

फिर सुबह हुई! सभी निवृत हुए! मैंने अपने वस्त्र और सामान बैग में भरे, ऐसा ही शर्मा जी और नाथू ने किया, चाय-नाश्ता किया और फिर करीब नौ बजे हम चल पड़े हरिद्वार की ओर! नियति देखिये, जहां से नाथू की बर्बादी आरम्भ हुई थी, नवजीवन आरम्भ भी वहीं से होने जा रहा था! शर्मा जी ने गाड़ी दौड़ाई और हम चले अब द्रुत-गति से! रास्ते में रोकी एक जगह गाड़ी, वहाँ खाना खाया, थोडा आराम किया और फिर चल पड़े! फिर कोई पचास किलोमीटर के बाद गाड़ी रोकी, चाय पी, हल्का-फुल्का खाया, दिल्ली से लायी हुई मदिरा निकाली और थोडा सुरूर बनाया! और फिर चल पड़े! और फिर नाथू के जान पहचान के स्थान आने लगे, वो खिड़की से बाहर झाँकने लगा, बटोरने लगा अपने पुराने दिनों के वो संस्मरण! हम हरिद्वार में प्रवेश कर चुके थे! बगुले की भांति वो बाहर देखता टकटकी लगाए! मुझे बहुत, बहुत दया आई उस पर! उस समय!

"कुछ याद आ रहा है नरसिंह!" मैंने कहा,


   
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श्रीशः उपदंडक
(@1008)
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वो चौंका! नरसिंह? नहीं वो तो अब नाथू है!

"बताओ नरसिंह?" मैंने पूछा,

"वो...वो... विद्यालय है मेरे बेटे राजन और बेटी रश्मि का" उसने एक विद्यालय की तरफ इशारा करके कहा! मैंने देखा बाहर! वो एक विद्यालय था, एक प्राइवेट विद्यालय! पुरानी यादें ताज़ा हो गयीं नरसिंह की!

"वो. वो है अस्पताल, जहां मै ज्योति का इलाज करवाता था, देखिये" उसने एक अस्पताल की तरफ इशारा किया और खिड़की से झुक कर देखा जैसे, नरसिंह, ज्योति और रश्मि अभी उसके गेट से बाहर आने वाले हों! क्योंकि देख तो नाथू रहा था!

मैंने ह्रदय के कोमल-भाव ह्रदय में ही दबाये!

हम आगे चले भीड़-भाड़ से होते हए!

"तुम्हारा घर कहाँ है नरसिंह?" मैंने पूछा,

"वहाँ, कोई पांच किलोमीटर होगा" उसने एक सड़क की तरफ इशारा किया!

"अच्छा!" मैंने कहा,

शर्मा जी बढे चले जा रहे थे मेरे एक जानकर के आश्रम की तरफ! वो हरिद्वार से थोडा दूर पड़ता हैं, शहर की भीड़-भाड़ से दूर!

"नरसिंह, वो पद्म बाबा कहाँ मिला था तुमको?" मैंने पूछा,

"पुल के पार, जहां मै मछलियों को खाना खिलाता था" उसने बताया,

"अच्छा!" मैंने कहा,

"नरसिंह, एक बात ध्यान रखना, सदैव, लोग चोला चढाते हैं! किसको? जो सारे संसार को चोला चढ़ाता है! लोग मिष्ठान का भोग देते हैं, किसको? जो संसार को खिलाता है! लोग पैसे चढाते हैं, किसको? जिसको किसी भी दौलत की कमी नहीं! श्रृद्धा और भक्ति, बहुत बड़ा अंतर है इनके बीच! श्रृद्धा अंधी हो तो ले डूबती है! भक्ति यदि अंधी हो तो पार लगा देती है! ( ये मेरे व्यक्तिगत विचार हैं, अन्यथा न लें, विनम्र अनुरोध है) तुम श्रद्धा में डूब गए और सब कुछ गंवा बैठे!" मैंने कहा,


   
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