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वर्ष २०११ बस्ती उत्तर प्रदेश की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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फरवरी का महिना था वो, खुशगवार मौसम था! बसंत की सुगंध आ गयी थी! पशु-पक्षी भी इस सुगंध को महसूस कर रहे थे, वृक्ष तो जैसे ताने-बने बुन रहे थे आपस में बतिया कर! मै और शर्मा जी ट्रेन के उस डिब्बे में बाहर झांकते हुए बढ़ रहे थे दिल्ली की तरफ! मै और शर्मा जी गोरखपुर के पास से आ रहा थे, एक साधना संपन्न हुई थी, पिछली दोपहर ये गाड़ी पकड़ी थी गोरखपुर से! गाड़ी थोडा विलम्ब से चल रही थी, इसलिए विलम्ब हो गया था हमारा गंतव्य स्थान! अभी गाड़ी ने अलीगढ से पहले का एक स्टेशन छोड़ा था, करीब डेढ़ दो घंटे और लग जाने थे, चाय वाला आया तो दो चाय ले लीं, चाय पी और फिर से लेट गए अपने अपने शयनस्थान पर! तभी शर्मा जी बोले," गुरु जी? आपकी साधना में वो जो था नाथू, वो कहाँ से आया था?"

"वो भुवनेश्वर से आया था" मैंने कहा,

"मुझे वो आदमी सही लगा" वे बोले,

"हाँ, आदमी बढ़िया है वो!" मैंने कहा,

"बड़ा ख़याल रखा उसने, खाने-पीने का मेरा!" वे बोले,

"अच्छा?" मैंने पूछा,

"हाँ, कभी अपनी कहानी सुनाता और कभी अपने विचार" वे बोले,

"क्या कहानी सुनाई उसने आपको?" मैंने पूछा,

"बस यही कि वो कैसे आया इस क्षेत्र में" वे बोले,

"कैसे, ये बताया?" मैंने पूछा,

"पूरा तो नहीं, हाँ ये बताया के कोई विवशता थी उसकी" वे बोले,

"और कुछ नहीं बताया?" मैंने पूछा,

"नहीं, कोई अन्य बात भी है क्या?" उन्होंने पूछा,

"हाँ, शर्मा जी है" मैंने एक सांस छोड़ते हुए कहा,

"क्या है गुरु जी?" अब वो बैठे,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"बताता हूँ" मैंने कहा और मै उठा और चौकड़ी मार अपनी सीट पर बैठ गया, ये आरक्षित डिब्बा था, कई लोग तो उतर चुके थे कानपुर में ही, और कुछ लोग अब तक सोये हुए थे, हमारे साथ यात्रा कर रहे सज्जन भी सोये हुए थे, और उनकी धर्मपत्नी अपने शयन-स्थान पर सो रही थीं!

"ये बात आज से कोई दस-बारह साल पहले की होगी शर्मा जी, नाथू का असली नाम नाथू नहीं है, ये नाम उसके बाद में बदला है, इस क्षेत्र में आने के बाद, उसका असली नाम नरसिंह है, वो हरिद्वार में रहा करता था, उसका अपना व्यवसाय था, वो लकड़ी का काम किया करता था, फर्नीचर आदि का, उसके परिवार में उसके पिता जी, एक बड़ा भाई और उनका परिवार, और नरसिंह की पत्नी ज्योति और एक बेटी थी, रश्मि, उसका एक बेटा भी था, लेकिन बेटे राजन की एक दुर्घटना में मौत हो गयी थी, टूट गया था नरसिंह, अब वक़्त अपनी गति से चलता है, चलता गया, किसी तरह से बेटे के ग़म से उबर उसका परिवार, संयत हुआ, समझाया उसने अपने आपको, नियति का खेल समझा उनसे, जो जितना अभिनय करने आया था संसार में, करके चला गया था वापिस! वक़्त बीता, बेटी बड़ी हुई, पढाई में कुशाग्र थी, उसको अपने भाई का दुःख तो था परन्तु वो अपने माँ बाप के लिए अब बेटी भी थी और बेटा भी! वक़्त बीता, राजन का स्थान उसकी बेटी रश्मि ने ले लिया, परिवार में सभी की लाडली थी रश्मि! पढने के बाद अपने पिता के व्यवसाय में हाथ बंटाती सारा काम करती, नाथू केवल अपनी कुर्सी पर बैठा रहता! कभी अपने स्वर्गीय बेटे राजन की दीवार पर लगी, माला सजी तस्वीर देखता और कभी रश्मि को!" मैंने कहा,

"ओह बहुत दुःख भरी कहाँ है गुरु जी ये" वे बोले,

"हाँ, अभी और भी है, अभी बताता हूँ" मैंने कहा,

गाड़ी रुकी एक जगह, शायद कोई शताब्दी या राजधानी निकलने वाली थी वहां से, हमने बाहर झाँका तो सरसों के फूलों के पीले रंग की चादर पूरे खेत में बिखरी पड़ी थी! आसपास जंगली झाड़ियों पर लगे नीले, पीले फूल जैसे सरसों के फूलों की होड़ कर रहे थे! तभी साथ वाली पटरी से एक द्रुत-गति से आती हुई गाड़ी गुजरी, शायद राजधानी थी, गाड़ी गुजर गयी, कुछ क्षणों के बाद हमारी गाड़ी ने भी हॉर्न बजाया और एक झटका खा कर चल पड़ी आगे!

"फिर क्या हुआ गुरु जी?" अब शर्मा जी ने पूछा, काफी अधीर हो चले थे वो!

"समय सही कट रहा था, एक बार की बात है, नरसिंह की पत्नी की तबियत खराब हुई, उसके शरीर पर गिल्टियाँ उभर आई थीं, बहुत इलाज करवाया लेकिन कोई फायदा न हुआ, चिकित्सकों ने उसकी


   
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श्रीशः उपदंडक
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पत्नी को तपेदिक का रोग बता कर कन्नी काट ली, अब दुखी नरसिंह अपनी पत्नी को लाया दिल्ली, यहाँ उसका इलाज आरम्भ हुआ,

कुछ लाभ दिखाई दिया आरम्भ में, नरसिंह प्रसन्न हुआ, हाँ पैसा पानी की तरह बहाया जा रहा था! दिल्ली में करीब एक महीने इलाज चला, फिर चिकित्सकों के कहने पर वो वापिस ले आया अपनी पत्नी और बेटी को घर वापिस" मैंने कहा,

"अच्छा, फिर गुरु जी?" उन्होंने पूछा,

तभी गाड़ी ने पटरी का मार्ग बदला और नई दिल्ली स्टेशन पर जाने वाली पटरी पर आ गयी! अब दिल्ली दूर नहीं थी, यही कोई बीस-पच्चीस मिनट!

"घर में उसे पिताजी और भाई ने उसको पूजा पाठ करने की सलाह दी, उसने पूजा पाठ करवा दी, शांति मिल जाती है मन को!" मैंने कहा,

तभी एक कॉफ़ी वाला गुजरा तो दो कॉफ़ी ले ली हमने! पीने लगे!

"आगे क्या हुआ गुरु जी?" उन्होंने पूछा, -

"अब तो दिल्ली आने वाली है शर्मा जी, दिल्ली में ही बताऊंगा अब" मैंने कहा,

अब हमने अपने बैग बाहर निकले और अपने जूते ढूंढ कर पहन लिए! शर्मा जी के मन में नाथू का ख़याल आये ही जा रहा था, मै ये समझ सकता था, चेहरा गंभीर था उनका! पूरी घटना सुने बगैर उनको चैन नहीं आने वाला था!

गाड़ी स्टेशन पर रुकी, हम उतरे, बाहर आये, एक ऑटो किया और चल पड़े अपने स्थान की ओर!

हम अपने स्थान पर पहुंचे, थोडा सा विश्राम किया और फिर मै स्नान करने चला गया, फारिग हुआ तो शर्मा जी भी स्नान करने चले गये, वे आ गए, तब तक सहायक चाय ले आया, अब मिली थी बढ़िया चाय, गाड़ी में तो बस खुशबू से ही काम चला रहे थे! शर्मा जी बाल पोछते हुए आये तौलिये से और बैठ गए, बैठते ही बोले, "गुरु जी, फिर क्या हुआ नाथू का?"

"हाँ, मै कहाँ पर था उस समय?" मैंने पूछा,

"हाँ, पूजा पाठ भी हुआ और दवा भी चली लेकिन गिल्टियाँ कम न हुईं, उनमे दर्द रहने लगा" मैंने कहा और चाय का कप नीचे रखा,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"क्या हुआ था उसे?" उन्होंने पूछा,

"था तो कोई रोग ही, हाँ कोई तंत्र-मंत्र नहीं था उसको" मैंने बताया,

"क्या हुआ फिर उसका?" उन्होंने पूछा,

"एक बार की बात है, एक पंसारी ने परेशान नरसिंह को एक सुझाव दिया, पंसारी ने कहा कि क्यों न एक बार अपनी पत्नी का ऊपरी इलाज कराके देखे?" मैंने कहा,

"फिर?" उत्सुकता से पूछा उन्होंने,

"ये बात जाँच गयी नरसिंह को, उसने कोई योग्य तांत्रिक ढूंढना आरम्भ किया, यूँ तो शर्मा जी हरिद्वार में तांत्रिक तो हर जगह हैं, बिखरे पड़े हैं, लोगों को डरा डरा के पैसे ऐंठते हैं, लेकिन तंत्र-ज्ञान से अछूते हैं वो, नौटंकीबाज तांत्रिक! नरसिंह ने बहुत ढूँढा कोई योग्य तांत्रिक, लेकिन कोई न मिला उसको, ऐसे ही परेशान हुआ वो एक जगह नदी में मछलियों को खाना खिला रहा था, थका-हारा! तभी पीछे से उसको एक आवाज़ आई, 'अलख-निरंजन' नरसिंह ने पीछे मुड़कर देखा, पीछे एक बाबा खड़ा था, अस्थि-माल व अन्य मालाएं धारण किये हुए, काली-सफ़ेद मिश्रित दाढ़ी थी उसकी, उम्र होगी उसकी कोई चालीस-बयालीस वर्ष, साथ में उसके एक चेला भी था, कोई बीस बाइस वर्ष का" मैंने कहा,

"फिर, फिर क्या हुआ?" उन्होंने पूछा और सिरहाने रखा तकिया उठाकर अपनी जांघों पर रखा और टकटकी लगाये मुझे देखते रहे!

नरसिंह उठा और प्रणाम किया! बाबा आगे बढ़ा और उसको देख के बोला, "परेशान दिखाई देता है!"

"हाँ बाबा जी" नरसिंह ने हाथ जोड़कर कहा,

"क्या परेशानी है?" बाबा ने पूछा,

जी.....वो.." नरसिंह कुछ कहता इस से पहले कि बाबा ने उसको चुप कराया, ऑखें मूंदी और डमरू बजाया अपना!

आँखें खोली अपनी!

"हम्म! तेरी औरत परेशान है, इलाज बहुत कराया लेकिन कुछ न हुआ! है ना?" बाबा ने कहा,

अब नरसिंह अवाक!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"वो तेरा बेटा! उसे भी खो दिया तूने!" बाबा ने कहा,

ये सुन नरसिंह के दिल में छेद होते चले गए, जैसे किसी ने कील ठोंक दी हो हथौड़े से, गहराई तक! बर्दाश्त ना कर सका वो! रो पड़ा, बाबा के क़दमों में गिर पड़ा!

"बाबा जी, आप तो अन्तर्यामी हैं, मेरा कल्याण करो आप, मै पाँव पड़ता हूँ आपके" नरसिंह ने याचना की!

"क्या देगा बाबा को, बता?" उसके चेले ने पूछा,

"जो कहोगे, यथासामर्थ्य दूंगा" नरसिंह ने आंसू पोंछते हुए कहा!

"ठीक है हम वहाँ, वहाँ ठहरे हैं, कल सुबह आना हमारे पास!" बाबा ने कहा और वो स्थान दिखा दिया जहां वो ठहरे हुए थे! 'अलख-निरंजन' कहते हुए चले गए वो दोनों!

"अच्छा! फिर आगे?" उन्होंने पूछा,

"अरे शर्मा जी, बारह बज चुके हैं, आपको जाना भी है, बाकी बाद में सुन लेना!" मैंने कहा,

"मै बाद में चला जाऊंगा!" वे बोले,

"एक बात बताओ, क्या ये कहानी नहीं सुनाई नाथू ने आपको?" मैंने पूछा,

"ये कहानी? रत्ती भर भी नहीं" वे बोले,

"अभी तक पत्थर रख के बैठा है कलेजे पर!" मैंने कहा,

"पत्थर?" उन्होंने हैरत से पूछा,

"हाँ, पत्थर!" मैंने कहा,

"वो कैसे, बताइये तो?" उन्होंने ज़िद सी की!

"कहानी में खुलासा हो जाएगा, कैसा पत्थर!" मैंने कहा,

तो फिर जारी रखिये" वे बोले,

"ठीक है, सुनिए, नरसिंह को जैसे खोया, जिंदगी में कमाया हुआ, मिल गया था! ये दोनों तो फ़रिश्ते बनके आये थे उसके पास! नरसिंह ने उन दोनों को जाते हुए प्रणाम किया!


   
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श्रीशः उपदंडक
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उस शाम ख़ुशी ख़ुशी घर पहुंचा नरसिंह! घर में सभी को ये खबर दी गयी! सभी प्रसन्न हुए! अब सुबह का था इंतज़ार! सुबह हुई, तो नहा धोकर नरसिंह भागा बाबा के पास, कुछ फल-मिष्ठान ले गया अपने साथ!" मैंने कहा,

तभी शर्मा जी के फ़ोन पर फ़ोन आया किसी का, उन्होंने काट दिया!

"फिर?" उन्होंने पूछा!

"वहां जाकर नरसिंह की उस बाबा से मुलाकात हो गयी, बाबा ने अपना नाम पद्म नाथ बताया, बताया कि वो गोंडा का रहने वाला है और अब औघड़ है!" मैंने कहा,

शर्मा जी का फिर फ़ोन बजा, उन्होंने देखा और फिर से फ़ोन काट दिया! ये उत्सुकता-अतिरेक था! उनकी उत्सुकता उनको खाए जा रही थी!

क्या बात है शर्मा जी, काफी उत्सुक हो गए हैं आप इस नाथू के विषय में?" मैंने पूछा,

"सच पूछिए तो हाँ" वे बोले,

"तभी घर से आये दोनों फ़ोन काट दिए आपने!" मैंने कहा,

"हाँ, अभी सन्देश भेज देता हूँ" उन्होंने कहा और सन्देश भेज दिया टाइप करके!

"फिर क्या हुआ गुरु जी?" उन्होंने पूछा,

"बताता हूँ, पहले ये बताओ, क्या नाथू ने अपने घर के बारे में कुछ बताया था?" मैंने पूछा,

"जब मैंने पूछा तो बात घुमा गया था, नहीं बताया था उसने, बस इतना कि वो हरिद्वार से है और कई वर्ष हो गए उसे वहाँ गए हुए!" वे बोले,

"हम्म! आपके बारे में पूछा?" मैंने पूछा,

"हाँ, पूछा था, मैंने बता दिया, वहाँ मै रहा तो मुझे उस से कुछ आत्मीयता सी होने लगी थी, वो अक्सर मुझे ले जाता था वहाँ से, दूध, चाय, फल, खाना सब खिलाता था!" वे बोले,

"अच्छा! मेरे बारे में पूछा?" मैंने पूछा,

"हाँ, कहा उसने कि हालांकि आपकी और उसकी बातचीत नहीं है, कभी कभार ही नमस्ते हुई है उस से, परन्तु कुछ अपशब्द नहीं कहे उसने" वे बोले,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"जानते हो, मेरी और उसकी बोलचाल क्यों नहीं है?" मैंने पूछा,

"क्यों नहीं है?" उन्होंने पूछा,

"इसलिए कि वो जिसके सरंक्षण में है वो मेरे मत का कट्टर शत्रु है! यद्यपि हमारे बीच कोई टकराव की स्थिति नहीं है, वो अपने यहाँ ठीक, मै अपने यहाँ ठीक!" मैंने कहा,

"ओह, ये बात है!" वे बोले,

"हाँ" मैंने कहा,

"अच्छा गुरु जी, फिर क्या हुआ?" शर्मा जी को उस कहानी का पड़ाव याद आ गया सहसा!

"हाँ, जब नरसिंह पहुंचा वहाँ तो बाबा पद्म नाथ का चेला मिला वहाँ, वो बाबा के पास ले गया नरसिंह को, नरसिंह ने प्रणाम किया और फिर पांव पड़े बाबा के, बाबा ने उसे बिठाया अपने पास और फिर कुछ यूँ वार्तालाप हुआ उनका"

"आओ आओ! क्या नाम है तुम्हारा?" बाबा ने पूछा,

"जी नरसिंह" नरसिंह ने कहा और साथ लाया सामान उस चेले को पकड़ा दिया,

"क्या नाम है तुम्हारी औरत का?" बाबा ने पूछा,

"जी ज्योति" उसने बताया,

"हम्म! क्या समस्या है?" बाबा ने पूछा,

"जी उसके शरीर में गिल्टियाँ बनी हुई हैं, अब तो दर्द भी होता है उनमे, बहुत इलाज करवाया उसका, दिल्ली तक ले गया, कुछ असर नहीं हुआ" नरसिंह ने कहा,

"ठीक है, कल उसको भी लाना अपने साथ, हम देखते हैं कि क्या किया जा सकता है" बाबा ने कहा,

"आपका धन्यवाद गुरु जी" ये कहकर उसने पाँव छू लिए बाबा के और चल पड़ा वापिस!

मन में प्रसन्नता लिए उस दिन नरसिंह लौटा घर! सभी को बताया कि कल बुलाया है बाबा ने ज्योति को अपने ठिकाने पर, अब उसका इलाज हो जाएगा! सभी खुश अब! उस दिन दुकान पर भी जोशोखरोश के साथ काम किया उसने अपनी बेटी के साथ! अपने बेटे की तस्वीर के पास गया और बोला, "अब हो


   
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श्रीशः उपदंडक
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जाएगा तेरी माँ का इलाज राजन, परेशान नहीं होना, जब तक मै ज़िन्दा हूँ किसी को कष्ट नहीं होने दूंगा!"

उसी समय शर्मा जी का फ़ोन फिर बजा, उनके घर से ही फ़ोन था, आखिर उन्होंने उठाया और कह दिया कि दो घंटों में वो घर पहुँच जायेंगे!

"शर्मा जी, आप नाथू का नंबर भी लाये हैं?" मैंने पूछा,

"अ...हाँ" वे बोले,

"आपने माँगा या उसने दिया?" मैंने पूछा,

"उसी ने दिया" शर्मा जी ने बताया,

"जानते हो क्यूँ?" मैंने पूछा,

"मै समझा नहीं?" वे बोले,

"उसने तुमसे क्यूँ की आत्मीयता?" मैंने पूछा,

"मानवता के कारण?" वे बोले,

"वो तो ठीक है, परन्तु आपसे विशेष क्यों?" मैंने पूछा,

"नहीं पता" वे बोले,

"कारण है शर्मा जी" मैंने बताया,

"ऐसा क्या कारण?" उन्होंने पूछा,

"शर्मा जी, नाथू जिंदगी से हारा-थका व्यक्ति है!" मैंने बताया,

"लेकिन क्यूँ और कैसे?" उन्होंने पूछा! उत्सुकता ने सारे बाँध तोड़ दिए सब्र के!

"बताता हूँ शर्मा जी, मै नाथू के विषय में बात नहीं करना चाहता था, परन्तु आपने विवश कर दिया मुझे!" मैंने कहा,

"गुरु जी, आगे क्या हुआ? उसकी पत्नी ठीक हो गयी?" उन्होंने पूछा, ।


   
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श्रीशः उपदंडक
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"जब अगले दिन अपनी पत्नी को लेकर पहंचा नरसिंह बाबा के पास तो बाबा ने उसकी पत्नी की जाँच की, कुछ सामान लिखवाया, नरसिंह ने लिख लिया, बाबा ने बताया कि चार सप्ताह लगेंगे ठीक होने में, बीमारी हड्डियों में हैं उसके, नरसिंह को भी हैरत हुई, चिकित्सकों ने ऐसा क्यों नहीं बताया था?" मैंने कहा,

अब मैंने पानी पिया और गिलास रख दिया मेज़ पर! शर्मा जी मेरे बोलने की प्रतीक्षा करते रहे, उन्होंने जेब से सिगरेट निकाली, सुलगाई और लगा ली होंठों के बीच!

"इलाज शुरू हुआ नरसिंह की पत्नी का, अभी एक हफ्ता ही बीता था कि ज्योति के रोग में फर्क दिखाई देने लगा! गिल्टियाँ बैठने लगीं! ये देख नरसिंह को बाबा के प्रति और श्रद्धा हो गयी, वो अब सुबह-शाम बाबा के पास जाने लगा, बाबा के लिए सामग्री ले जाता! बाबा भी खुश! फिर एक और हफ्ता बीता, गिल्टियों का दर्द समाप्त होने लगा, सेहत में सुधर होने लगा! ये तो चमत्कार था नरसिंह और उसकी पत्नी के लिए!" मैंने बताया,

"चलो, नरसिंह की चिंता मिटने लगी!" शर्मा जी ने कहा, सिगरेट का धुआं छोड़ते हुए!

मैंने कुछ पल उनको देखा!

"आगे बताइये गुरु जी?" उन्होंने कहा,

"फिर तीसरे हफ्ते में ज्योति की सेहत में सुधार हो गया! वो अब बिना दर्द के घूम फिर सकती थी, घर का काम करना आरम्भ कर दिया, बाबा के गुणगान करने लगी!" मैंने कहा,

"वो तो लाज़मी है गुरु जी!" शर्मा जी ने कहा,

"हाँ! सही कहा!" मैंने कहा,

अब मै लेट गया! शर्मा जी ने भी लेट मारी और कोहनी के नीचे तकिया रख लिया!

"आगे क्या हुआ?" शर्मा जी ने कहा और सिगरेट फेंक दी!

"तीसरे हफ्ते में बाबा ने नरसिंह से उसके घर आने को कहा तो नरसिंह खुश हो गया! तीसरे हफ्ते में बाबा और उसका चेला आ पहुंचे घर! बहुत आवाभगत हुई उनकी! सारा घर जैसे उनका मुरीद हो गया! और तभी बाबा की नज़र टिकी रश्मि पर!" मैंने कहा,

"क्या? रश्मि पर?" वो उठ कर बैठ गए!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"हाँ! हर चमकती चीज़ सोना नहीं होती शर्मा जी!" मैंने कहा,

सोच में पड़ गए वो! बाबा की तो छवि उन्होंने अपने मन में बनाई थी उसमे तरेड़ पड़ने लगीं! जैसे निर्मल कांच में दरक!

"आगे क्या हुआ?" उन्होंने पूछा, बेहद मंद स्वर में!

"आखिर चौथे हफ्ते में ठीक हो गयी ज्योति!" मैंने बताया!

"अच्छा, फिर?" उन्होंने पूछा,

"ज्योति के ठीक होते ही बाबा जैसे नरसिंह के लिए फ़रिश्ते बन गए थे, सुबह शाम उन्ही का राग अलापता! उनके सानिध्य में ही रहता, और बाबा अब घर आता-जाता! दुकान पर भी आना-जाना आरम्भ हो गया उसका! नरसिंह सदैव उनकी खिदमत में ही जुटा रहता!" मैंने बताया!

और शर्मा जी के नेत्र जैसे पलक मारना भूल गए!

"आगे क्या हुआ फिर?" उन्होंने पूछा,

"वक़्त बीता, बाबा वापिस चला गया गोंडा, अपने चेले के साथ, और यहाँ मन न लगे नरसिंह का! महिना गुजर गया, बाबा की कोई खबर न आई, हाँ, एक बात और हुई, विशेष!" मैंने बताया,

"क्या बात गुरु जी?" शर्मा जी ने हैरत से पूछा,

"नरसिंह से अधिक याद अब रश्मि को सताने लगी बाबा की!" मैंने कहा,

"क्या?" उन्हें विस्मय हुआ!

"हाँ, रश्मि अब बाबा को याद करती, जैसे जल-कुमुदनी, नीरजा, चन्दा को देखा करती है लालसा के साथ!" मैंने कहा,

"ऐसा क्यों?" उन्होंने पूछा,

"आप समझ सकते हैं शर्मा जी!" मैंने कहा,

"नहीं समझा" वे बोले,

"शर्मा जी ये लालसा प्राकृतिक नहीं थी!" मैंने कहा,

"ओह! अब समझा, बाबा का जंतर-मंतर, यही न?" उन्होंने कहा,


   
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"हाँ, अब समझे आप!" मैंने कहा,

"तो नाथू ने महसूस नहीं किया?" उन्होंने पूछा,

"कैसे महसूस करता बेचारा नरसिंह! वो तो बाबा की भक्ति में आकंठ डूबा था! उसने रश्मि को भी भक्ति-भाव से पूर्ण पाया!" मैंने कहा,

"कुत्ते का बीज! हरामज़ादा ये बाबा पद्म!" उन्होंने अपना हाथ भींच कर कहा!

"शर्मा जी, हैवान कोई पृथक जीव या प्राणी नहीं है, ये इन्सान ही हैवान है! बस रूप बदल लेता है हैवान का, जब हैवानियत हावी होती है तो!" मैंने कहा,

"सही कहा आपने गुरु जी" उन्होंने एक लम्बी सांस छोड़ते हुए कहा,

"ऐसा ही है ये पद्म बाबा!" मैंने कहा,

"फिर क्या हुआ गुरु जी?" शर्मा जी ने पूछा, "समय बीत रहा था, करीब बीस-पच्चीस दिनों के बाद बाबा की वापसी हुई गोंडा से, अपने चेले के साथ, खबर लगते ही नरसिंह और रश्मि दौड़ पड़े उस से मिलने! नरसिंह ने पाँव पड़े और रश्मि को गले लगाया बाबा ने!" मैंने बताया,

"फिर गुरु जी?" उन्होंने क्रोधावेश में पूछा,

"अब बाबा का आना जाना दुबारा शुरू हुआ नरसिंह के घर में, सभी आदर की चादर बिछा देते! और बाबा उस । चादर को रौंदता चला आता! उसका ध्यान बस रश्मि पर रहता! अधिक से अधिक बात रश्मि से करता, उसको भभूत चटाता, प्रसाद खिलाता और रश्मि किसी मूक दास की प्रकार सारी आज्ञाएँ शिरोधार्य करती जाती!" मैंने बताया,

"कमीना बाबा!" उनके मुंह से निकला!

अब मै उठा और तनिक बाहर गया! मुझे स्वयं क्रोध आने लगा था अब! कुछ देर बाहर ठहरा और फिर अन्दर आकर बैठ गया!

"गुरु जी, आगे क्या हुआ?" उन्होंने पूछा,

"नाथू के अन्य रिश्तेदार ये बात भांप गए, उन्होंने नाथू को बहुत समझाया लेकिन नाथू तो जैसे अँधा हो गया था, श्रवण-शक्ति का ह्रास हो गया था, किसी की न सुनता, उसको और उसकी पत्नी को बाबा और


   
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रश्मि की बीच भक्ति-भाव का ही रिश्ता लगता था! ऐसा चलता रहा शर्मा जी! नाथू के घर में कलेश बढ़ गया, उसके भाई, उनके औलादें और पिता जी, सबसे मनमुटाव हो गया उसका!" मैंने बताया,

"बाबा का प्रपंच!" वे बोले,

"हाँ और यहीं से बर्बादी आरम्भ हुई नाथू की!" मैंने कहा,

"फिर?" उन्होंने पूछा,

"एक दिन की बात है, नाथू ने अपने घुटनों में दर्द की शिकायत की, दर्द बढ़ता गया, चलना फिरना दूभर हो गया, वो गया बाबा के पास, रश्मि के साथ, बाबा ने कहा की रोग गंभीर है, लेकिन ठीक हो जायेगा! स्मरण रहे, ज्योति के ठीक होने पर नाथू के वचनानुसार अभी तक कुछ नहीं माँगा था नाथू से बाबा ने!" मैंने कहा,

"अरे हाँ!" वे चौंके!

"नरसिंह को रोज ले जाती रश्मि और ले आती वापिस! नाथू को फर्क पड़ने लगा! चलने फिरने लग गया! ये भी बाबा का चमत्कार लगा उसको! और एक दिन नरसिंह ठीक हो गया!" मैंने बताया,

"बाबा ने स्वयं बीमार किया और स्वयं ठीक कर दिया!" शर्मा जी ने कहा,

"हाँ!" मैंने कहा,

"बेचारा नाथू!" वे बोले,

"इधर अब रश्मि भी जाने लगी थी अकेले बाबा के पास! समझ सकते हैं की क्यों!" मैंने कहा,

"हरामजादा! * ** का *" उन्होंने कहा,

"और शर्मा जी, एक दिन जब नरसिंह पहुंचा बाबा के पास तो बाबा मस्त था! बाबा ने नरसिंह को अपने पास बिठाया! खूब बातें की उस से! और जो कुछ हुआ वो ये था शर्मा जी, बाबा ने नाथू से कहा, कि उसने उसकी पत्नी को ठीक किया, नरसिंह को ठीक किया अब नाथू को अपना वचन निभाना था, और इस वचन के अनुसार बाबा ने नाथू की लड़की रश्मि से अपना ब्याह करने को कहा, दक्षिणा-स्वरुप!" मैंने कहा,

"क्या? ये माँगा उसने?" शर्मा जी सन्न!


   
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"हाँ! बाबा ने मंशा जता दी थी अपनी!" मैंने कहा,

"अफ़सोस" शर्मा जी ने कहा!

"नाथू ने कुछ नहीं कहा उस समय, लेकिन वो भी अवाक था, ये कैसी दक्षिणा? रश्मि क्या सोचेगी? उसकी माँ क्या कहेगी? पहली बार बाबा से मिलने के बाद मस्तिष्क दौड़ाया नाथू ने! उसने अपनी पत्नी से ये बात कही, ज्योति ने इनकार कर दिया, रश्मि से पूछा, रश्मि तो उसके आकर्षण में बंधी ही थी, उसने हाँ कर दी!" मैंने बताया,

"ओह" उनके मुंह से निकला,

"इस कशमकश में कुछ और दिन बीते! और एक दिन.........................." मैंने कहा और बात रोकी यहाँ!

"क्या हुआ उस रोज़? एक दिन?" शर्मा जी ने पूछा,

"क्या हुआ एक दिन? गुरु जी? बताइये?" शर्मा जी ने कौतुहल से पूछा!

"शर्मा जी, बहुत दुखद हुआ उस नाथू के साथ, उस हँसते हुए नाथू के साथ जिसको आपने गोरखपुर के पास देखा था, जो आपकी आवभगत में लगा हुआ था!" मैंने कहा,

"क्या हुआ था गुरु जी?" उन्होंने पूछा,

"उस दिन सुबह सुबह रश्मि पूजा के लिए निकली घर से, सीधी पहुंची बाबा के पास! वो फंस चुकी थी बाबा के पाश में बुरी तरह से! बाबा उसी दिन उसी समय उसको लेकर फरार हो गया!" मैंने बताया,

"क्या?" उन्हें हैरत हुई, जैसे विद्युत् का झटका खा लिया हो!

"हाँ शर्मा जी" मैंने कहा,

"ओह, बहुत बुरा हुआ" वे बोले,

"हाँ बुरा तो हुआ ही" मैंने भी अफ़सोस जताया,

"फिर क्या हुआ?" उन्होंने पूछा,

"नाथू और और उसकी पत्नी को ये समझते देर न लगी की वो कहाँ गयी होगी, नाथू भागा भागा गया अपनी पत्नी के साथ उस बाबा के बसेरे पर, लेकिन बाबा कहाँ गया, ये कुछ न पता चला!" मैंने बताया,

"ओह, बहुत बुरा, बहुत बुरा हुआ, ये मिला सेवा का फल उसको" वे बोले और खड़े हुए! ।


   
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श्रीशः उपदंडक
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"फिर क्या हुआ?" उन्होंने पूछा,

"नाथू का अपने परिवार में मनमुटाव तो था ही, सभी ने मुंह फेर लिया, क्या करते वो भी, क्या मदद करते? सांप तो स्वयं नाथू ने ही पाला था घर में!" मैंने कहा,

"सही कहा आपने" वे बोले,

"लड़की मिली उसको?" उन्होंने पूछा,

"सुनिए तो सही, नाथू ने पुलिस में रपट दर्ज कराई, लेकिन कोई लाभ नहीं हुआ. पूछताछ हुई, सब विफल, संदेह में बाबा का नाम आया, लेकिन ऐसे बेघर बाबा का क्या अता-पता?" मैंने कहा,

"कम से कम गोंडा में जाकर तो पूछते?" वे बोले,

"कैसे, जब लड़की ने खुद ये लिखा था की वो अपनी मर्जी से जा रही है, किसी का कोई लेना देना नहीं, माँ-बाप का जिक्र भी नहीं था उसमे!" मैंने कहा,

"ओह!" वे बोले,

"पुलिस की छानबीन में नाथू ने आखिर वो पत्र दिखा दिया पुलिस को, किस्सा खतम!" मैंने कहा,

"कितना बुरा हुआ नाथू के साथ" उन्होंने गरदन हिला के कहा,

"अभी नहीं शर्मा जी! बुरा तो तब हुआ जब बेटी की याद में उसकी पत्नी खाना-पीना छोड़ कर चारपाई से लग गयी और दो महीने बाद नाथू को इस दुनिया से विदा कह गयी!" मैंने बताया!

आंसू आ गए आँखों में उनकी, मेरा भी गला रुंध गया! किसी इंसान के साथ इतना भी कैसे हो सकता है?

"ओह मेरे भग* *न! ये कैसा न्याय तेरा?" उन्होंने दोनों हाथ उठाकर और ऊपर देख कर कहा!

"आगे क्या हुआ गुरु जी?" उन्होंने पूछा,

"इसके बाद नाथू पागल सा हो गया, ना व्यवसाय का होश, ना खाने-पीने का होश! बेसुध! बेखबर! व्यवसाय ठिकाने लग गया गया उसका, घर में कोई जो दे दे उसको खा लेता! अपनी झोली में रखे अपने बेटे की तस्वीर को देखता, अपनी बेटी की हंसती हुई तस्वीर को देखता, अपनी शादी में दुल्हन बनी अपनी पत्नी को देखता, उन तस्वीरों को पलंग पर रखता, जैसे उनको सुला रहा हो! और फिर


   
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श्रीशः उपदंडक
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सोता अगर नींद आ जाये तो! सारी सारी रात उनसे बातें करता, रोता, चिल्लाता और क्या करता शर्मा जी वो! " मैंने कहा,

इतना सुन शर्मा जी की आँखों से आंसू बह निकले झर-झर! मेरी आँखें भी नम हो गयीं! क्या यही वो भाव है? क्या यही वो भाव है जो रचियता ने सृजन करते समय बस किसी किसी में डाले हैं? सब में क्यों नहीं?? कोई नाता नहीं मेरा और शर्मा जी का नाथू से, न मैंने ज्योति को देखा, न मैंने रश्मि को देखा और न मैंने उसके बेटे राजन को देखा, तो फिर?? मस्तिष्क ने एक आकृति बनाई और नाथू के स्थान पर स्वयं को रख के देखा! बस यही है वो भाव जी किसी किसी में है! सब में नहीं! अब आप सोचिये! कितने धनाढ्य हैं ऐसे लोग! जिन्हें रचियता ने चुना है! उसकी दौलत के सामने कोई भी अन्य भौतिक दौलत अर्थ-हीन है! बे-औक़ात!

खैर, कुछ देर शांति रही वहाँ!

"गुरु जी, कभी रश्मि मिली नाथू को?" शर्मा जी ने पूछा,

"कभी नहीं! कोई पता नहीं चला रश्मि का, वो जिन्दा है भी या नहीं?" मैंने कहा, ।

"ओह" वे बोले,

"और नाथू का क्या हुआ?" उन्होंने पूछा,

"शर्मा जी, नाथू को बहुत देर बाद होश आया! उसके मानसिक-असंतुलन को क्रोध ने सहारा दिया! प्रतिकार की भावना ने उसको बल दिया! ज़हर को ज़हर से काटा जाता है, ये समझ गया वो!" मैंने कहा,

"क्या किया उसने?" उन्होंने पूछा,

"औघड़ बनने का निर्णय!" मैंने बताया,

"सच में?" उन्होंने पूछा,

"हाँ?" मैंने जवाब दिया,

"कब बना?" उन्होंने पूछा,

"कभी नहीं बन पाया समर्थ वो!" मैंने बताया,


   
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