विश्वासघात?
उस उत्तमा के साथ?
कैसे ज़लील लोग हैं ये? कैसे ज़लील? किसी के जीवन से खेल रहे हैं? मात्र अपनी क्षुधापूर्ति हेतु? घृणित लोग! थू ऐसे बाबाओं पर!
ऐसी घटिया मानसिकता लेकर कैसे जीवित रह लेते हैं ऐसे लोग? अपने स्वार्थ के लिए किसी मासूम के गले पर पाँव रखकर चढ़ जाओ ऊपर? कैसे सोच लेते हैं ये ऐसा? कहाँ जाता है विवेक? क्यों नहीं प्रयोग किया करते ये अपना विवेक? क्यों झोंक देते हैं उसे लालसा की अग्नि में? और लालसा भी ऐसी, जो कभी पूर्ण न हो! जिसका कभी अंत ही न हो! बाबा भोला, उम्र के चौथे पड़ाव में आकर ऐसा कर रहे थे! तो भोग जीवन कैसे काटा होगा, इसका अनुमान लगाना कोई मुश्किल काम नहीं! और बाबा ऋषभ! विवेकहीन मनुष्य! चले जा रहे हैं पतन की राह पर बाबा भोला के साथ! क्या कमी रह गयी जीवन में? जो इस उत्तमा की बलि देकर प्राप्त होना है? समझ नहीं आता! कैसे ज़लील लोग हैं! शायद ज़लील अल्फ़ाज़ को भी शर्म आ जाए! लेकिन इनको नहीं!
खैर, अब मुझे ही कुछ करना था, सबसे पहले तो ये कि उत्तमा को कैसे छुड़ाया जाए? और दूसरा ये, कि ये दोनों बाबा अपने उद्देश्य में सफल न हों! कुछ ऐसा ही करना था, बाबा भोला प्रबल थे, मेरा शक्ति-प्रहार सरलता से काट सकते थे! इतना तो मेरा जीवन नहीं जितना उन्होंने साधना में समय काट दिया था! पर अफ़सोस, मति मारी गयी थी उम्र के इस पड़ाव में आकर!
और तभी प्रकाश कौंधा! वे दोनों तो प्रकट हुए ही, संग कोई आठ विद्याधरियां भी प्रकट हुईं! उनका रूप देख कर, एक बार को तो मैं भी सन्न रह गया! आभूषण धारण किये हुए थे उन्होंने, सर से लेकर पाँव तक! वस्त्र एक भी नहीं, स्तन और नितम्ब ऐसे पुष्ट थे कि कल्पना भी न की जा सके, कमर ऐसी पतली कि हैरत ही है कि वक्ष का इतना भार कैसे संभाल रही है! और कामुक इतनीं वो कि अच्छा से अच्छा, लंगोट का पक्का भी टूट जाए! सर से लेकर पाँव तक काम ही काम भरा पड़ा था! देह मांसल और स्निग्ध थी! उनके स्तन उठे हुए थे, मानव स्त्रियों की तरह अवतल नहीं! ये विशेषता ऐसी ही दिव्य सुंदरियों में हुआ करती है! स्तनों पर भी आभूषण लटके थे, संभवतः ग्रीवा में धारण किये हुए! विद्याधर महाशुण्ड आलिंगबद्ध था कजरी से, और वे आठों, जैसे सेविकाएं हों उस कजरी की, ऐसे खड़ी थीं! एक बात और, मानव स्त्रियों की देह में, सोलह स्थान ऐसे हैं, जहां से काम रिसता है, यदि उनमे से एक भी किसी स्थान को उत्तेजित किया जाए, तो स्त्री न चाहते हुए भी कामोन्माद से ग्रस्त हो, काम-क्रीड़ा की मांग करने लगेगी! नौ अंग ऐसे हैं, जहां से काम वेग से आगे बढ़ता है, परन्तु ये अंग मात्र काम-क्रीड़ा समय ही उत्तेजित अवस्था में आते हैं, अन्यथा, शिथिल ही रहते हैं! लेकिन इन विद्याधरियों में तो सर से लेकर पाँव तक, काम ही काम लिपा पड़ा था! कोई भी अंग एक दूजे से कम नहीं था! समीप होता तो और वर्णन करता, मगर में तीस फ़ीट दूर था, जितना देख सका, लिख रहा हूँ! प्रयास कर रहा हूँ!
अचानक ही, दो विद्याधरियां आगे बढ़ीं, और उस कजरी को उठा लिया ऊपर, ऊपर! ऐसा मैंने पहली बार ही देखा था, दोनों ने एक एक जांघ पकड़ी थी, और टांगें कलाइयों से हो, नीचे ढुलक रही थी, ये क्या मुद्रा थी? शायद कोई काम-मुद्रा? प्रणय मुद्रा? फिर दो और आगे आयीं, और अब, ऐसे ही एक एक कंधा थाम, उसको लिटा लिया जैसे! मैं हैरान था! मैंने
कभी ऐसा कुछ देखा ही नहीं था! कजरी जैसे नीमबेहोशी में थी, क्योंकि वो कोई प्रतिक्रिया नहीं कर रही थी! इसीलिए मुझे ये लगा कि वो नीमबेहोशी में है! जैसा वो सेविकाएं कर रही थीं, वैसा ही वो करती थी! फिर दो और आगे बढ़ीं! और कजरी की कमर के नीचे जाकर लेट गयीं! कमाल का दृश्य था! लेकिन ये था क्या? हम सभी नज़रें गाड़े इसी दृश्य को देख रहे थे! हम अटक गए थे! अचानक से एक सेविका उठी, और पहले कमर के बल लेटी थी, अब पेट के बल लेट गयी! ओह! अब समझा! न्युत्रिक्षिका मुद्रा! समझ गया! इसका अर्थ हुआ कि कजरी की देह को सशक्त बनाया जा रहा था! उसमे 'दैव-संचरण' पोषित किया जा रहा था! और ये भी समझ आया कि वो विद्याधर, रमण करेगा फिर कजरी से! अब समझ में आ गया क्रिया-कलाप!
और अचानक से जैसे मुझे डंक लगा! फिर??? फिर वो उत्तमा?
अरे नहीं! नहीं! नहीं होने दूंगा मैं ऐसा! कदापि नहीं! नहीं होने दूंगा! अब चाहे कुछ भी करना पड़े! कुछ भी! नहीं करने दूंगा स्पर्श, मैं इस महाशुण्ड को उस उत्तमा का! लेकिन अभी तक तो उत्तमा मुझे दिखाई ही नहीं पड़ी थी? वो कहाँ थी? कहीं रमण के पश्चात तो नहीं लाया जाएगा उसे? अभी भी मैं अनजान था निकट भविष्य से! मुझे कुछ समझ ही नहीं आ रहा था! और तभी दो और आगे बढ़ीं! और इस बार वे वायु मैं उठीं, और सीधा कजरी की मुख के ऊपर जा खड़ी हुईं, कुछ अंतर सा बना कर! भृवभान मुद्रा! और वे दो, जो ऊपर उठीं थीं, लोप हो गयीं! फिर कंधे वाली लोप हुईं! और फिर जंघाओं वाली! कजरी का शरीर हवा में लटका था! जैसे किसी अदृश्य धरातल पर लेटी हो!
तभी पीछे से मुझे आवाज़ आई! कोई मंत्र-शोधन कर रहा था! पीछे देखा, ये बाबा भोला था! मन्त्र पढ़े जा रहे थे तेज तेज! उनका कार्य आरम्भ हो चुका था! अब एक बात स्पष्ट थी, बाबा भोला और बाबा ऋषभ, इन विद्याधरों के बारे में पूर्ण जानकारी रखते थे! बस मुझे अनभिज्ञ रखा गया था! मैंने मंत्र सुने, तो ये सशक्तिकरण मंत्र थे!
और अचानक से मुझे कुवाचिताविद्या का स्मरण हुआ!
लेकिन कजरी ने क्यों कहा था ऐसा करने के लिए?
अब ये प्रश्न भी पहाड़ बन गया मेरे लिए उसी क्षण!
कोई तो वजह थी! कुछ न कुछ औचित्य तो अवश्य ही था!
"शर्मा जी?" मैंने कहा,
"हाँ?" बोले वो,
"इधर आओ" कहा मैंने,
मैं पीछे हट गया था पहले ही, उनको बुलाने से पहले ही,
आ गए मेरे पास!
"ऐसे ही खड़े रहो!" कहा मैंने,
वे खड़े हो गए!
मैं झुका, नीचे से मिट्टी की एक चुटकी उठायी, अभिमंत्रित की और,
"मुंह खोलो" कहा मैंने,
मुंह खोला उन्होंने,
"जीभ ऊपर करो" कहा मैंने,
की उन्होंने,
और मैंने जीभ के नीचे वाले स्थान पर वो मिट्टी रख दी!
"मुंह बंद करो, और जो मैं बोला रहा हूँ, उसको मन ही मन नौ बार पढ़ो!" कहा मैंने,
और मैंने एक लघु-मंत्र बोल दिया,
उन्होंने नेत्र बंद किये, और मन ही मन जाप करने लगे!
अब मैंने भी यही क्रिया दोहराई!
जब कर ली, आबास हुआ जीभ के नीचे, खट्टापन सा आ गया! जैसे दांतों पर रेती घिस दी हो! जंग खाते लोहे की दुर्गन्ध जैसा स्वाद आ गया मुंह में!
"थूक दो!" कहा मैंने,
उन्होंने थूका, और पीछे प्रकाश हुआ!
मेरी नज़र वहां गयी! शर्मा जी की भी! और वे दोनों लोप हो गए!
मुंह कड़वा हो गया था हमारा! जैसे निबौरी फोड़ ली हो मुंह में कच्ची!
"बहुत कड़वा स्वाद है" बोले वो,
"हाँ" कहा मैंने,
"ये कुवाचिता-संचरण है न?" बोले वो,
"हाँ" कहा मैंने,
मैं और शर्मा जी, थूकते ही रहे!
"ये हो क्या रहा है?" पूछा उन्होंने,.
"ये रमण की तैयारी है!" कहा मैंने,
"कजरी के संग?" बोले वो,
"हाँ" कहा मैंने,
"अच्छा" बोले वो,
"समझ से बाहर है" बोले वो,
"हाँ, मेरी भी!" कहा मैंने,
"और ये दोनों?" बोले वो,
"इंतज़ार कर रहे हैं" मैंने कहा,
"रमण का?" बोले वो,
"हाँ, उत्तमा के संग उस महाशुण्ड का!" कहा मैंने,
"वो तो बताया आपने, लेकिन रमण का इंतज़ार क्यों?" बोले वो,
"ये धृषकः क्रिया है!" कहा मैंने,
"ये क्या है?" बोले वो,
"ये इस विद्याधर को प्रसन्न करेंगे!" बोला मैं,
'वो कैसे भला?" पूछा उन्होंने,
"प्राषण कर!" बोला मैं,
"क्या कर?" पूछा उन्होंने,
"प्राषण कर!" कहा मैंने,
"वो क्या होता है?" पूछा उन्होंने,
"ये कि, ये दोनों ही लेकर आये हैं उत्तमा को!" बोले वो!
"समझा!" बोले!
"हाँ, अब समझ गए आप!" कहा मैंने,
"तब क्या महाशुण्ड का उस उत्तमा से संसर्ग उचित होगा? मेरा मतलब क्या कजरी ऐसा होने देगी?" पूछा उन्होंने,
"कजरी चेतनाहीन है!" कहा मैंने,
"ओह.....अब आया समझ!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"और उत्तमा?" पूछा उन्होंने,
"उत्तमा इस विद्याधर के प्रभाव में होगी!" कहा मैंने,
"ये तो बहुत गलत हो जाएगा?" बोले वो,
"ऐसा होने नहीं दूंगा मैं!" बोला मैं!
"कैसे रोकोगे?" कहा उन्होंने,
"आप देखना!" कहा मैंने,
"और ये?" पूछा उन्होंने,
"ये कजरी के संसर्ग उपरान्त दौड़ पड़ेंगे!" कहा मैंने,
"उसके पास?" बोले वो,
"हाँ! महाशुण्ड के पास!" बताया मैंने!
"अच्छा!" बोले वो!
"अभी देखना आप! ये करते क्या हैं!" कहा मैंने,
"मुझे क्या करना है?" पूछा उन्होंने,
"आप बस दूर से देखना, मेरे करीब या उसके करीब नहीं आना!" कहा मैंने,
"ठीक है!" बोले शर्मा जी!
और अलख का जाप हुआ बाबा भोला द्वारा! एक विद्या जागृत हो गयी थी उनकी!
वे लोप तो हो गए थे, लेकिन पुष्प-वर्षा अभी तक न थमी थी! वे पुष्प भी अत्यंत ही आकर्षक थे! चटख लाल रंग के पुष्प थे वो, आपने सेमल वृक्ष का पुष्प देखा होगा, आकार में उस से एक चौथाई होंगे, लेकिन रूप में शत-प्रतिशत वैसे ही! भूमि पर गिरते और ढेरी सी बना लेते थे! अभी विद्याधर की माया चल रही थी! ये सब उसी का खेल था! वो लोप होता था, सम्भवतः कजरी को कहीं ले जाता होगा, कहाँ? ये तो मुझे भी नहीं पता! ये दिव्य योनियाँ पल में यहां और पल में वहां! भौतिक-शास्त्र और इस पृथ्वी की प्रकृति के कोई नियम लागू नहीं होते इनके ऊपर! चमक सी उठी! आकाश में, वहीँ, वहीँ जहां वो कजरी लेट जाया करती थी! और इस बार कजरी और विद्याधर प्रकट हुए! रमण-मुद्रा में! विद्याधर ने, कजरी को पकड़ा नहीं हुआ था, उसकी भुजाएं आकाश की ओर उठी थीं, हाँ; कजरी उसके गले में दोनों हाथ डालकर, उसके लिंग-स्थान से चिपकते हुए, अपनी दोनों टांगें, उस महाशुण्ड की कमर में फंसा ली थीं! स्पष्ट था ये रमण-मुद्रा थी! मैं रमण ही लिख रहा हूँ, संसर्ग नहीं, चूंकि जो भी था, वो 'आंशिक' ही था, हम पूर्ण रूप से कुछ नहीं देख पा रहे थे, तो मैं इसको रमण-क्रिया ही कहूँगा! तब, अपने दोनों हाथों को नीचे कर, उस कजरी के नितम्बों को पकड़ा उसने, और घूर्णन करते हुए, फिर से, ऊपर उठते हुए, लोप हो गए दोनों! जो कुछ भी था, आश्चर्य में डाल देने वाला था! ऐसा तो कभी मैंने सोचा भी नहीं था कि ऐसी कोई रमण-क्रिया का मैं साक्षी बनूंगा! या मेरे संग आये शर्मा जी भी और वे दोनों धूर्त बाबा भी! उनके लिए तो
बिल्ली के भाग से छीका फूट गया था! नहीं तो जीवन भर कभी अवसर नहीं आता उनके पास ऐसा कुछ देखने का!
"फिर से लोप?" बोले शर्मा जी,
"हाँ!" कहा मैंने,
"ये क्या स्थान-परिवर्तन करते हैं?" पूछा उन्होंने,
"शायद" कहा मैंने,
"यही हो सकता है!" बोले वो,
"यही होगा" कहा मैंने,
और फिर से प्रकाश कौंधा और फिर से वे प्रकट हुए!
उसी मुद्रा में, और उसी क्रिया में, एक बात और!
ये क्रिया मानव जैसी तो क़तई नहीं थी! मानव तो ऐसा कर भी नहीं सकता!
उस पर गुरुत्व का प्रभाव पड़ता है, सीने में दिल है, साँसें हैं, हांफ जाता है!
यहाँ तो ऐसा लगता था कि जैसे दोनों ही मूर्ति रूप में आलिंगनबद्ध हों! आश्चर्यजनक था वो दृश्य! वे जैसे पाषाण से बन जाते थे, हाँ, फिर वे घूमते, और ऊपर उठते हुए, लोप हो जाते थे! वे फिर से ऊपर उठे, और फिर से लोप हुए! जब लोप होते थे, तो तेज हवा के झोंके हमारे शरीर को चीर सा देते थे! जैसे निर्वात में वायु ने प्रवेश किया हो अचानक ही! ऐसा ही लगता था!
"फिर लोप?" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"ऐसी क्रिया के बारे में तो सुना भी नहीं!" कहा मैंने,
"हाँ, सही कहा आपने!" मैंने कहा,
तभी कुछ हुआ वहां!
जैसे जल सा बिखरा हो!
जल भूमि पर बिखरा था! वो जल ही था!
और वहाँ फिर से आठ सेविकाएं प्रकट हुईं!
वही आठ की आठ! वृत्त सा बना, घूर्णन करते हुए!
एक एक पल ऐसा था कि जैसे ये पृथ्वीलोक है नहीं!
जैसे हम कहीं और कल आये हैं, वायु प्रवाह में उड़कर!
और अचानक ही!
वे फिर से प्रकट हुए!
कजरी उलटी हो, नीचे झुकी हुई थी, उसके केश नीचे लटक रहे थे! स्तन नहीं लटक रहे थे! अब ये बात भी अजीब ही थी! तो फिर केश क्यों लटके? गुरुत्व का प्रभाव नहीं पड़ रहा तो केश क्यों लटके? प्रश्न तो बहुत थे, लेकिन उत्तर नहीं थे उनके!
दो सेविकाएं आगे बढ़ीं, और कजरी को छुड़ा लिया उस महाशुण्ड से! और लिटा दिया वहीँ, वो हवा में ही लेट गयी थी! जैसे कोई अदृश्य सा कांच हो! और वो महाशुण्ड, अचानक से ऊपर उठा और लोप हुआ!
"ये क्या हुआ?" पूछा शर्मा जी ने,
"अचेत लगती यही शायद कजरी" कहा मैंने,
"हाँ, कोई हरकत भी नहीं?" बोले वो,
"मेरी समझ से बाहर है ये!" कहा मैंने,
उन सेविकाओं ने, कजरी के बदन को लीपा! लीपा, पता नहीं किस से, हमें नहीं दिखायी पड़ा!
"ये क्या कर रही हैं?" बोले वो,
"शायद चेतना लौटा रही हों?" कहा मैंने,
'शायद" बोले वो,
"या फिर, दैहिक-संचरण हो?" कहा मैंने,
"हाँ, ये हो सकता है" बोले वो,
"कजरी है तो मानव ही!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
और फिर उन सेविकाओं ने उठा लिया कजरी को! अपनी भुजाओं में! और कजरी!
कजरी की जैसे चेतना लौट आई!
वो खड़ी हो गयी थी!
सेविकाएं मुस्कराने लगी थीं!
और तभी प्रकाश कौंधा!
हुआ प्रकट वो महाशुण्ड!
वो प्रकट हुआ, और सेविकाएं लोप!
आया समीप कजरी के, आलिंगनबद्ध हुआ, ऊपर उठा संग कजरी को ले, और लोप!
"फिर लोप!" कहा मैंने,
और तभी, बाबा भोला भागे आगे! पीछे पीछे ऋषभ बाबा!
भागे और एक झाड़ी के पास, जा छिपे! कुछ फेंका उन्होंने उस स्थान की ओर!
"ये क्या कर रहे हैं?" पूछा उन्होंने,
"स्थान-शुम्भन!" बोला मैं,
"वो क्या होता है?" पूछा,
"ये नैसर्गिक दैव हैं, ये विद्याधर, इनको शुम्भन से ही 'घेरा' जा सकता है!" कहा मैंने,
"अच्छा!" बोले वो,
"ये चाहते क्या हैं/" पूछा उन्होंने,
"विद्याएँ! आयुष!" कहा मैंने,
"मिल गया इन्हे वो तो! हुंह?" बोले वो,
"आप देखो तो सही!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
"इधर आओ ज़रा!" कहा मैंने,
"कहिये?" बोले वो,
"सुनो, कुछ भी हो, वहां नहीं आना!" कहा मैंने,
"नहीं आऊंगा" बोले वो,
"क़सम खाओ मेरी!" कहा मैंने,
"नहीं खाऊंगा!" बोले वो!
मैं मुस्कुराया!
"सुनो, कुछ भी हो! नहीं आना! मैं देख लूँगा सब!" कहा मैंने,
"हाँ, नहीं आऊंगा!" बोले वो,
फिर से प्रकाश कौंधा!
और वे प्रकट हुए!
इस बार नयी मुद्रा में!
महाशुण्ड लेटा था, और वो कजरी,
उसके लिंग-स्थान पर बैठी थी,
अपने पाँव पीछे मोड़कर!
यही मुद्रा देखी थी मैंने एक स्थान पर!
जहां ये विद्याधर ऐसी ही कुछ मुद्राओं में उकेरे गए हैं!
ठीक यही मुद्रा!
लेकिन अब भी ये संसर्ग सा प्रतीत नहीं हो रहा था!
क्योंकि इस संसर्ग में मानव जैसा 'दोलन' नहीं था!
वे शांत थे!
जैसे कोई मूर्तियां हों!
वे फिर से घूमे, और फिर से ऊपर उठे!
महाशुण्ड ने अपनी दोनों भुजाएं डाल दीं थीं कजरी के गले में!
और फिर से लोप!
"अद्वित्य!" बोले शर्मा जी!
"हाँ! अद्वित्य!" कहा मैंने,
"ये विद्याधर तो निपुण लगते हैं!" बोले वो,
"हाँ, काम-कला में सर्वाधिक माहिर हैं!" कहा मैंने,
"हाँ, देखा!" बोले वो!
और तभी बाबा ऋषभ ने फिर से कुछ फेंका!
शायद कोई वस्त्र था! ऐसा ही लगा, रुमाल जैसा!
"या क्या फेंका?" पूछा उन्होंने,
"शक्ति-चिन्ह बना होगा उस पर!" कहा मैंने,
"अच्छा!" बोले वो!
"वैसे ये रमण कब तक चल सकता है?" पूछा उन्होंने,
"सारी रात्रि भी!" कहा मैंने,
"ओह!" बोले वो,
"एक प्रश्न और!" बोले वो,
"पूछिए?" कहा मैंने,
"न कलुष, न दुहित्र, फिर भी दीख रहे हैं, क्या सभी को दिखेंगे?" बोले वो,
"नहीं! जिसको मात्र कजरी चाहेगी!" कहा मैंने,
"ओह! मैं तभी सोच रहा था कि ऐसा कैसे!" बोले वो!
और फिर से प्रकाश कौंधा!
प्रकाश कौंधा फिर से! इस बार प्रकाश दूधिया रंग का था, आँखें चुंधिया गयीं ह
हमारी तो! आँखें फेरनी पड़ीं मुझे और शर्मा जी को! और प्रकाश की कौंध में हमें दीखे ही नहीं वो! और जब प्रकाश मद्धम हुआ, तो नज़र आये! दूध की तरह से सफेद थी कजरी! इतनी सफ़ेद कि उस से शफ़्फ़ाफ़ इस संसार में और कुछ नहीं! निर्मल जल भी नहीं, चाँद की चांदनी भी नहीं और संग-ए-मरमर भी नहीं! मेघ में दमकती वो दामिनि भी नहीं, और प्रकाश के केंद्र में स्थापित वो चमक भी नहीं! ऐसी शफ़्फ़ाफ़! उसके काले सघन केश नीचे पिंडलियों तक आ रहे थे, काले केश, ऐसे केश जैसे काला रंग कूट कूट के भरा हो उनमे रचियता ने स्वयं अपने हाथों से, अपनी विशेष तूलिका लेकर, ऐसा काला कि निशा का तम भी नहीं, धूम्र का केंद्र भी नहीं! अद्भुत रूप था कजरी का उस समय! जैसे स्वयं ही किसी अप्सरा में परिवर्तित हो गयी हो कजरी! उसका एक एक अंग ऐसे लश्कारे मार रहा था जैसे खिलती जेठ की धूप में, किसी दर्पण से परावर्तित चौंध! एक एक अंग ऐसा मादक कि नज़रें हटें ही नहीं! शरीर में रासायनिक क्रियाएँ आरम्भ हो जाएँ! और वो विद्याधर उस कजरी की देह से ऐसे क्रीड़ामग्न होता था, जैसे सर्वप्रिय उसके लिए ये मात्र कजरी ही होय! ये आकर्षण था या प्रेम, पता नहीं, इतना जानता था, कि स्वयं कजरी भी इसमें शरीक़ थी, वो उसको स्पर्श करता, तो वक्ष में धंसने को तैयार हो जाती थी कजरी उस महाशुण्ड के! हम विस्मित से, ये विद्याधर-लीला देखे जा रहे थे! और तभी अचानक से फिर से चौंध उठी और वो लोप हुए! उस प्रकाश में, शाल वृक्ष जैसे नवजीवन प्राप्त कर लेते थे, और ज़ोरों से हिल उठते! वायु प्रवाह बह उठता और सर्द झोंके, हमारे शरीर में नश्तर की तरह से चुभ जाते!
"फिर से लोप!" कहा शर्मा जी ने!
"हाँ, यही चल रहा है!" कहा मैंने,
"हाँ, निरंतर!" बोले वो,
"हाँ, निरंतर!" कहा मैंने भी!
और तभी बाबा ऋषभ ने कुछ और फेंका सामने, फेंका और छिप गए! जो फेंका था, वो एक छोटी सी पीली पोटली थी!
"अब क्या फेंका?' पूछा उन्होंने,
"कुछ सामग्री है" कहा मैंने,
"पता नहीं क्या क्या कर रहे हैं ये" बोले वो,
"स्तम्भन!" कहा मैंने,
"क्या?" बोले वो,
"हाँ, स्तम्भन!" कहा मैंने,
"वो किसलिए?" बोले वो,
"मंत्र स्थायित्व के लिए!" कहा मैंने,
"अच्छा!" बोले वो,
और फिर से प्रकाश कौंधा! वे फिर प्रकट हुए! इस बार एक भिन्न मुद्रा में, महाशुण्ड लेटा हुआ था, और कजरी ऊपर थी उसके, ये संसर्ग-मुद्रा थी, उस महाशुण्ड ने, उस कजरी की पसलियों को पकड़ रखा था, नाभि से ऊपर, और स्तनों से नीचे, हाँ, हाथ ढके हुए थे कजरी के उन्नत स्तनों से, इसीलिए हाथ नहीं दीख रहे थे उसके, कजरी आनंदमय स्थिति में जान पड़ती थी! काम-आनंद में!
मित्रगण! जब कोई स्त्री आपके संग संसर्ग में हो, तो ऐसे कई टोटके हैं, क्रियाएँ हैं, जिन्हे आप मध्य में करें संसर्ग में, तो वो अमुक स्त्री आपको जीवन भर नहीं भूलेगी, यूँ कहिये कि दास बन जायेगी आपकी! मैंने कई मित्रों और जानकारों को बताया है इस बारे में, उन्होंने किया और आज सुखी दाम्पत्य-जीवन निभा रहे हैं वो! ये तांत्रिक क्रियाएँ और विधियां हैं, पश्चिम में तो काम-तंत्र ही शुरू हो चुका है!
हाँ, तो वो फिर से उठे, घूमे और फिर से लोप हुए! यही सब चलता था, वो विद्याधर, न जाने कहाँ कहाँ भ्रमण करा रहा था कजरी को! ये तो मात्र वही जाने! लेकिन मुझे जिसकी चिंता थी, वो तो अभी दिखाई दी ही नहीं थी मुझे! मेरा असली कार्य तो वहीँ से आरम्भ होता था! उत्तमा थी कहाँ? नहीं पता था, वहां तो ऐसा कोई कक्ष आदि भी नहीं था, तो उसको रखा कहाँ गया था?
"शर्मा जी?" कहा मैंने,
"हाँ?" बोले वो,
"वहाँ चलें?" कहा मैंने,
"वहां?" बोले वो,
"हाँ" कहा मैंने,
सामने ही दायीं तरफ एक वृक्ष था, जो ढका हुआ था सफ़ेद बुगन-बेलिया से, वहां जाते तो फांसला कम हो जाता, कम से कम दस फ़ीट!
"चलो" कहा उन्होंने,
"चलिए" कहा मैंने,
और हम दौड़ पड़े वहां के लिए! आ गए वहाँ! छिप गए!
"ये जगह ठीक है!" बोले वो,
"हाँ, अब ठीक है!" कहा मैंने,
"फांसला भी कम हो गया!" बोले वो,
"हाँ, इसीलिए आये हैं यहां!" कहा मैंने,
और तभी!
तभी वे दोनों धूर्त भी हमारे पास दौड़ आये!
हो गए खड़े हमारे पास ही!
"आप वहाँ जाओ!" कहा मैंने,
"कहाँ?" बोले भोला बाबा,
"वो, उधर" कहा मैंने,
"दीवार के पास?" बोले वो,
"हाँ" कहा मैंने,
"हाँ, जगह तो ठीक है!" बोले वो,
और जैसे ही जाने लगे, प्रकाश कौंधा!
हम छिपे झट से! बाबा ऋषभ इसी चक्कर में, बैठे बैठे ही गिर पड़े! उनको उठाया बाबा भोला ने! मैंने उस झाड़ी में से देखा, तो कजरी अभी भी उसी मुद्रा में थी, और वो महाशुण्ड भी! पुष्प-वर्षा लगातार हो रही थी, अब साफ़ दीख रहे थे दोनों ही, महाशुण्ड की वज्र जैसे देह अब दीख रही थी! अश्व जैसे मांस-पेशियाँ थीं उसकी! गठाव ऐसे चमकते जैसे मिट्टी
चिपका दी गयी हो! और वो कजरी, कजरी का रूप ऐसा था कि एक बार जो देखे, पलकें मारना ही भूल जाए! वे फिर से घूमे, और ऊपर उठे! और फिर से लोप!
और तब बाबा भोला भागे बाबा ऋषभ को लेकर उस दीवार के पास, अब उनका फांसला मात्र पंद्रह फ़ीट ही रहा होगा! अब उनका कार्य भी आसान हो गया था!
"जी तो ऐसा कर रहा है कि सालों को जूत बजा दूँ!" बोले शर्मा जी!
"आप तक़लीफ़ न करो! देखते रहो!" कहा मैंने,
"हरामज़ादे, सूअर कहीं के!" बोले वो,
"ये तो सही कहा आपने!" कहा मैंने,
और फिर से प्रकाश कौंधा!
हमने सामने देखा तभी!
इस बार वे आठ सेविकाएं भी आई थीं! कजरी पीछे झुकी पड़ी थी उस महाशुण्ड के, कजरी को उठाया उन्होंने, और इस बार, इस बार पृथ्वी पर बनी, उन फूलों की ढेरी पर लिटा दिया उसको! वो लेती, तो फूलों में धंस गयी, हमें नज़र ही न आये, बस उसका चमकता हुआ, दाया हाथ ही दिखाई दे!
"ये क्या हुआ?" बोले शर्मा जी,
"मुझे भी नहीं पता" कहा मैंने,
"इस बार धरातल पर?" बोले वो,
"संभवतः रमण समाप्त हुआ है!" कहा मैंने,
"हाँ, ये हो सकता है!" बोले वो,
और तभी बाबा भोला ने, कुछ फेंका सामने, और इस बार, वो राख हो गया! आग लग गयी उसमे, और उस विद्याधर की नज़र पड़ गयी उस पर! पलक झपकते ही वो उस स्थान पर प्रकट हुआ, पहले स्थान से लोप होकर! रुका, और लोप हुआ! वापिस वहीँ गया, जहाँ पहले थे! फिर ऊपर उठा और लोप हुआ!
"अब सेविकाएं हैं बस!" बोले शर्मा जी,
"हाँ" कहा मैंने,
और मैं देख रहा था बाबा भोला को!
उनकी फेंकी वस्तु राख हो गयी थी!
"क्या फेंका था जो राख हुआ?" पूछा उन्होंने,
"कोई वस्तु, विद्या से पोषित!" कहा मैंने,
"राख हो गयी!" बोले वो,
"होनी ही थी!" कहा मैंने,
"क्यों?" पूछा उन्होंने,
"उसकी उपस्थिति में ऐसा ही होगा!" कहा मैंने,
"अर्थात?" बोले वो,
"कोई विद्या नहीं चलेगी!" कहा मैंने,
"क्या?" बोले वो, अचरज से!
"हाँ, नहीं चलेगी!" कहा मैंने!
"तो फिर आप?" बोले वो,
"आप देख लेना!" कहा मैंने,
"नहीं समझा?" बोले वो,
"यहां विद्या नहीं, महाविद्या चाहिए!" कहा मैंने,
"अब समझा!" बोले वो!
"वो देखिये?" कहा उन्होंने,
"क्या है?" मैंने पूछा,
"वो जगह कैसी है?" बोले वो,
"अच्छा! हाँ ठीक है!" कहा मैंने,
"वहां चलें?" बोले वो,
"हाँ, चलो!" कहा मैंने,
और हम दौड़ लिए वहां से! आ गए दूसरी जगह!
"ये जगह ठीक है!" कहा मैंने,
"हाँ, और फांसला भी कम हुआ" बोले वो,
"हाँ, अब पंद्रह फ़ीट होगा!" कहा मैंने,
"हाँ" बोले वो,
और तभी अचानक ही, वे आठों हवा में ऊपर उठीं, और एक एक करके, सभी लोप हुईं!
"ये कहाँ गयीं?" बोले वो,
"पता नहीं?" कहा मैंने,
"अब अकेली है कजरी" बोले वो,
"अकेली तो नहीं है!" कहा मैंने,
"कैसे?" पूछा उन्होंने,
"महाशुण्ड का सरंक्षण है उसको!" कहा मैंने,
"हाँ, ये तो है!" बोले वो,
और तभी प्रकाश कौंधा! शून्य को चीरता हुआ! और प्रकट हुआ वही महाशुण्ड हवा में!
"आ गया!" बोले वो,
"मुझे पता था!" कहा मैंने,
वो अब नीचे उतरने लगा था! धीरे धीरे! उसी ढेरी पर! उतर आया तो स्वयं भी लेट गया संग कजरी के! वे दोनों ही धंस गए थे नीचे, महाशुण्ड के मात्र केश ही दीख रहे थे!
"संग लेट गया?" बोले वो,
"हाँ" कहा मैंने,
घड़ी देखी उन्होंने, मेरो, मेरा हाथ पकड़ के,
"दो घंटे बीत गए हैं" बोले वो,
"तीन बज गए?" पूछा मैंने,
"हाँ, तीन का वक़्त है!" बोले वो,
फिर खड़ा हुआ वो, कजरी को गोद में उठाये, कजरी की चेतना लौट आई थी, यही प्रतीत होता था, कजरी ने अपनी दोनों भुजाएं उसके गले के इर्द-गिर्द डाल रखी थीं! केश, नीचे लटक रहे थे! फिर वो ऊपर उठा, उस ढेरी से कोई दो फ़ीट ऊपर, और कजरी को छोड़ दिया आहिस्ता से, कजरी खड़ी हो गयी थी, अब शायद वार्तालाप हो रहा था उनके बीच, हमें
नहीं सुनाई पड़ रहा था कुछ भी! एक अक्षर भी नहीं! तभी उसने कजरी को उसके नितम्बों से पकड़ कर खींचा अपनी तरफ और कजरी उसके वक्ष में समा गयी! अपनी दोनों भुजाओं में जकड़ लिया था उसने कजरी को! और फिर से नीचे उतरने लगे थे वो, उसी ढेरी पर!
नीचे लेट गए थे वो, और दूसरे ही क्षण फिर से काम-क्रीड़ा आरम्भ हुई, कजरी की दोनों टांगें, उस महाशुण्ड के कंधों पर टिकी थीं, और महाशुण्ड, एकटक, पाषाण सा बना, कजरी को ही देखे जा रहा था! महाशुण्ड का मात्र वक्ष और सर, और कजरी की मात्र वो टिकी हुई टांगें ही दीख रही थी, पूर्ण रूप से नहीं देख पाये थे हम उन्हें!
"ये विद्याधर, अत्यंत ही काम-पिपासु हुआ करते हैं!" कहा मैंने,
"हाँ, देख रहा हूँ मैं!" बोले वो,
हम फुसफुसा के बातें कर रहे थे!
नहीं तो ऐसा नहीं था कि उसको पता न चले, लेकिन कजरी से अनुमति मिली थी, इसी कारण से ये सम्भव हुआ था! वो इसी प्रकार कोई बीस मिनट तक काम-लिप्त रहे, और उसके बाद वो विद्याधर खड़ा हुआ, कजरी को अपनी कलाइयों पर बिठाते हुए!
ऊपर उठे, और अगले ही क्षण लोप!
'फिर से लोप!" कहा मैंने,
और तभी बाबा ऋषभ भागते हुए गए आगे, जा पहुंचे उस ढेरी तक और उठा लाये एक पुष्प! मेरी भी जिज्ञासा बढ़ी, और मैं भी भागा बाबा ऋषभ के पास, शर्मा जी भी आ गए!
"दिखाना बाबा?'' कहा मैंने,
"ये लो!" बोले वो,
और वो पुष्प मुझे दिया!
मैंने हाथ में लिया!
एकदम चिकना! स्निग्ध! केले के तने जैसा! और वजन तो था ही नहीं! हाँ, आयतन भी ठीक ही था, लेकिन वजन नाम मात्र को भी नहीं था उसमे! जैसे कागज़ हो कोई!
"दिखाना?" शर्मा जी ने कहा,
"ये लो!" मैंने कहा और दिया,
उन्होंने भी उसको उलट-पलट के देखा! हैरत में पड़े थे वो!
और फिर सूंघ के देखा!
"क्या सुगंध है!" बोले वो,
मैंने तभी अपन हाथ सूंघा! बहुत ही मादक सुगंध थी उसमे! जैसे मोगरे के फूल की सुगंध और गुलाब की सुगंध का मिश्रण सा हो!
"इसकी कोई पंखुड़ी भी नहीं है?" बोले वो,
"हाँ, ये इस धरा का नहीं है, इसलिए!" कहा मैंने,
"ऐसा फूल कभी नहीं देखा मैंने!" कहा उन्होंने,
"लाओ अब" बोले तभी बाबा भोला!
शर्मा जी ने दे दिया वो फूल उन्हें! और बाबा भोला वो फूल उठा, पीछे चले गए, एक जगह, वहां जा बैठे! शायद अभिमंत्रण कर रहे थे उस फूल पर!
हम लौट आये अपनी जगह! छिप गए!
और फिर से प्रकाश कौंधा! और वे दोनों ही प्रकट हुए!
और इस बार!
इस बार कजरी तो मुझे कोई विद्याधरी ही लग रही थी!
आभूषण ही आभूषण! पूरी देह पर आभूषण! देह ऐसी चमके उनसे, कि जैसे चौरासी श्रृंगार धारण किये हों उसने! पूरा उसका सर, सोने की लड़ों से ढका था! पूरी गरदन, पूरा वक्ष, स्तन आधे ढके हुए थे, पूरी भुजाएं, पूरा उदर, जंघाएँ, घुटने, पिंडलियाँ और टखने, पाँव! सब के सब लदे पड़े थे! केशों में, लड़ें लटकी थीं! ऐसा श्रृंगार तो कभी नहीं देखा था मैंने!
"अद्भुत!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले शर्मा जी!
"मैं कोई मानव-स्त्री ऐसे रूप में नहीं देखी!" कहा मैंने,
"सच में, मैंने भी नहीं!" बोले वो,
"किसी देवी समान रूप लग रहा है कजरी का!" बोला मैं,
"रूपाली नाम है न उसका!" बोले वो,
"हाँ, सच में ही रूपाली है!" कहा मैंने,
और फिर से लोप!
इस बार पीले रंग का धुंआ सा निकला शून्य में से!
जैसे पीला गुलाल!
और तभी बाबा ऋषभ गए भागते हुए आगे, उस ढेरी तक, और फेंक दिया वो लाया हुआ फूल उसमे! दौड़े और जा छिपे!
"ये लम्पट अपने काम में मग्न हैं!" बोले वो,
"रहने दो! चल जाएगा पता!" कहा मैंने,
"चलना भी चाहिए!" बोले वो,
"आज चल ही जाएगा!" बोला मैं!
और अचानक ही, वे दोनों फिर से प्रकट हुए!
संग में इस बार सोलह सेविकाएं!
एक विशेष बात!
जो मैं लिख नहीं स्का कि,
उन सभी का चेहरा-मोहरा एक जैसा था!
जैसे सारी एक की ही प्रतिकृतियां हों!
एक समान रूप, एक समान श्रृंगार! एक समान देह और एक समान कामुकता! एक समान ही मादक अंग उनके!
"अबकी बार, सोलह?" बोला मैं,
"हाँ?" बोले वो,
"कोई विशेष बात है?" कहा मैंने,
"हो सकता है!" बोले वो,
वे सोलह की सोलह वृत्त बनाकर, उन दोनों को घेरे हुए खड़ी थीं!
लेकिन सब की सब स्थिर, शायद कोई,
वार्तालाप चल रहा था महाशुण्ड और कजरी के बीच!
यही कारण था शायद, जहां तक मुझे लगता है!
हाँ, वो वार्तालाप ही था, सब मूर्तियां सी लग रही थीं! जैसे हवा में मूर्तियां खड़ी हों! कजरी भी उनके समान ही लगने लगी थी! वो भी पाषाण सी बनी, वार्तालाप किये जा रही थी! और हम, हम यहां अपने अपने क़यास लगा रहे थे! कि अब कुछ होगा और तब कुछ होगा! ऐसे ऐसे करीब पंद्रह मिनट बीत चुके थे!
"हो क्या रहा है?" पूछा उन्होंने,
"पता नहीं, शायद वार्तालाप चल रहा है!" कहा मैंने,
"इतना लम्बा वार्तालाप?" पूछा उन्होंने,
"हाँ, लग तो यही रहा है!" कहा मैंने,
और फिर से सोलह हटीं वहां से!
वृत्त भंग हुआ उनका और एक एक करके, ऊपर उठती हुईं, लोप होती गयीं!
"अब गयीं!" बोले वो,
"हाँ, शायद कोई मंत्रणा हुई थी!" कहा मैंने,
अब रह गए वे दो मात्र! एक महाशुण्ड और एक कजरी!
आलिंगबद्ध हुए दोनों तभी! और घूर्णन हुआ आरम्भ!
ऊपर उठे, और पल में लोप!
"फिर गए!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
कुछ पल बीते और दोनों प्रकट हुए! वो भी ढेरी पर, फूलों के ढेरी पर! टांगें धंसी थीं दोनों की उन फूलों में! हाथ थामे हुआ था वो कजरी के! और कजरी! कजरी के चेहरे पर मुस्कान थी! एक अलौकिक सी मुस्कान! और मुस्कान उस महाशुण्ड के होंठों पर भी थी! दिखने में वज्र सी देह लगती थी उसकी! एक बार में ही अश्व को गिरा देने वाली देह! वे फिर से आलिगंबद्द हुए और घूर्णन आरम्भ हुआ! ऊपर उठे, और लोप!
"ये क्या हो रहा है बार बार?" बोले वो,
खीझ गए थे इस बार तो!
"ये उस महाशुण्ड की माया है!" कहा मैंने,
"हाँ, ये तो है!" बोले वो!
और अचानक से फिर प्रकट हुए वो! और इस बार एक और विद्याधर प्रकट हुआ था! सजीला, रूपवान, लौह जैसी देह, राजा समान मुख, वस्त्र भी वैसे ही! वो कजरी से भी मिला और कुछ क्षणों पश्चात, लोप हो गया! और अब रह गए फिर से वे दो! तेजी से नीचे उतरे उसी ढेरी पर! आलिंगनबद्ध हुए ही! फिर से कुछ वार्तालाप हुआ, और तब कजरी उतरी उस ढेरी से, और चली एक तरफ, लेकिन भूमि से कोई चार इंच ऊपर! अद्भुत! उसको जाते हुए देखता रहा वो महाशुण्ड! और कजरी दूर अँधेरे में ओझल हो गयी!
"ये कहाँ गयी?" बोले वो,
"अब हमारा समय है!" कहा मैंने,
"क्या?" बोले वो,
"हाँ, हमारा समय!" कहा मैंने,
"नहीं समझा!" बोले वो,
"कजरी लेने गयी है उत्तमा को!" कहा मैंने,
ओह.......अब समझा" बोले वो!
और उधर, वे दोनों आपस में कानाफूसी कर रहे थे! बना रहे थे योजना! लड़ा रहे थे प्रपंच! बना रहे थे योजना! और प्रतीक्षा में थे, सही और उचित अवसर के!
"उनको देखो" बोले वो,
"हाँ, देख रहा हूँ!" कहा मैंने,
"अब तैयार हैं वे दोनों!" बोले वो!
"हाँ!" कहा मैंने!
और अब मेरी नज़रें गड़ी रहीं सामने! उत्तमा को लिवाने गयी थी कजरी! अब मेरा काम शुरू होता था! उस से पहले मुझे देखना था इन बाबा की करतूत को! बाबा लोग, उस महाशुण्ड की ओर थे, और मैं उत्तमा की ओर! हाँ, यदि उत्तमा स्वयं ही अपनी इच्छा से संसर्ग करे, तो मुझे कोई आपत्ति नहीं होती, ये उसकी इच्छा, लेकिन उसको यदि विवश किया गया, तो मैं ज़रूर लड़ता! फिर चाहे कुछ भी हो! मुझे इसके साथ ही साथ एक डर और भी था, कि कहीं उत्तमा को छद्म रूप से बरगला न दिया जाए, उसकी बुद्धि को ये महाशुण्ड अपने प्रभाव से कहीं भ्रमित न कर दे! यही था सबसे बड़ा डर!
"वो!" बोले शर्मा जी!
मैंने वहीँ देखा, कजरी आ रही थी उत्तमा के संग! उसका हाथ पकड़ कर! और जहां गयी थी, वहां से नहीं आई थी, वो उसके दायें से आई थी!
भीरु सी उत्तमा चल रही थी संग उसके!
हाँ, भीरु!
ये उसका पहला अवसर था किसी ऐसी दिया योनिधारक से मिलने का!
होती भी क्यों न!
"ले आई!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो,
और कजरी ले आई उसको उस ढेरी तक!
उत्तमा की देह निढाल सी!
आँखें विस्मय से फ़टी हुईं!
जिस्म से जान नदारद!
चेहरे पर भयमिश्रित भाव!
रीढ़ में कम्पन्न!
उस भयानक सर्दी में भी पांवों के तलवों में पसीना रेंगे!
और वो विद्याधर! एकटक देखे उसे! एकटक!
दोनों ही एक दूसरे को देखें! महाशुण्ड मुस्कुराये, और उत्तमा भावहीन!
महा शुण्ड ने हाथ आगे बढ़ाया, जैसे हाथ थामना चाहता हो उसका!
और उत्तमा, अविश्वासी भाव से जड़ खड़ी हो!
कजरी ने कुछ कहा उत्तमा से, उसकी भुजा पकड़ कर, लेकिन उत्तमा न सुने!
और प्रकाश कौंधा! वो महाशुण्ड, जैसे और दमकने लगा, और पूरा प्रकाश में नहा सा गया! चमक ऐसी कि आँखें फेरनी पड़ गयीं!
और जब वापिस देखा, तो उत्तमा का वैसा ही श्रृंगार!
