वर्ष २०११ नेपाल की ...
 
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वर्ष २०११ नेपाल की एक घटना

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श्रीशः उपदंडक
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आ गए वापिस फिर! शरण ले आया था सामान सारा, और हम हए शुरू!

"आज कुछ नहीं बनाया?" शर्मा जी ने पूछा,

"ला रहा हूँ अभी!" बोला शरण!

"क्या बनाया है?" बोला मैं,

"मुर्गा" बोला वो,

"ठीक है!" बोला मैं!

और शरण चला गया वापिस! हम खाते-पीते रहे! कोई दस मिनट में, शरण आया, दो कटोरे लेकर,

"ये लो जी!" बोला वो,

"अरे वाह!" मैंने उस सालन को देखते हुए कहा! लाल रंग था! उसने रखा, और फिर चला गया वापिस! शर्मा जी ने चख के देखा!

"क्या बात है!" बोले वो! मैं चख चुका था पहले ही!

"वाकई में कमाल है!" कहा मैंने,

"खाना बहुत लज़ीज़ बनाती है इसकी ज़ोरू!" बोले वो,

"हाँ, देहाती है न!" कहा मैंने,

"यही बात है, मसाला भी सिल का पिसा है!" बोले वो,

"यही तो वजह है!" कहा मैंने,

उस रात हमने बढ़िया से खाया-पीया और फन्ना के सोये! आया अगला दिन! सुबह ही फारिग हो लिए थे हम! चाय-नाश्ता कर लिया था!

"मैं आता हूँ अभी" कहा मैंने,

और जा पहुंचा मैं कमरे के दरवाजे पर, दरवाज़ा खटखटाया!

"कौन?" आवाज़ आई, उत्तमा की!

"अरे मैं हूँ!" कहा मैंने,

और चटकनी खुलने की आवाज़ आई! दरवाज़ा खुला और मैं अंदर घुसा! दरवाज़ा बंद हुआ, और मैं बैठ कुर्सी पर! और देखा उत्तमा को! मेरा तो दिल उछल पड़ा! आज तो केश खुले थे उसके, बदन पर जो वस्त्र थे, फटने को हो रहे थे कसाव और गठाव से! मैंने तो एक क्षण में ही सारा मुआयना कर डाला उसके बदन का! कुरता पहना था उसने,


   
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श्रीशः उपदंडक
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पीले रंग का, गले पर, सुनहरे रंग के तार थे! चुस्त पाजामी थी! आज तो आग सी भड़का दी थी उसने! मुझमे तो पल भर में ही हवा भर गयी थी!

"क्या हुआ?" पूछा उसने!

"झटका!" कहा मैंने,

"झटका?" बोली वो,

"हाँ, झटका!" कहा मैंने,

"कैसा झटका?" पूछा उसने,

"बहुत बड़ा झटका!" कहा मैंने,

"बताओ तो सही?" बोली वो, ।

"अब ऐसे वस्त्र पहनोगी तो झटका तो लगेगा ही!" कहा मैंने!

मुस्कुराते हुए! हंस पड़ी खिलखिला कर! अपने बाएं पुढे पर अपना हाथ रखकर खड़ी हो गयी! ओहो! खजुराहो की मूर्तियां याद आ गयीं मुझे तत्क्षण ही! अब तो तोल रही थी मुझे! मेरे नियंत्रण को! अब नियंत्रण तो करना था ही, लेकिन मेरी नियंत्रण वाली लगाम में, दरारें अवश्य ही पड़ गयीं थीं!

"अब खड़ी तो ठीक से हो जाओ?" कहा मैंने,

"ठीक ही तो खड़ी हँ?" बोली वो!

और मैं, कहूँ कहीं और देखू कहीं!

साफ़ साफ़ पकड़ा जा रहा था मैं!

अब चोरी करोगे तो पकड़े तो जाओगे ही!

सो ही मेरे साथ! मैं तो पता नहीं क्या क्या उठा रहा था उसकी देह से, नज़रों के हाथों से! मैं तो सुबह सुबह से ही हुक्का गुड़गुड़ाने लगा था! दिन में पता नहीं क्या हो!

"ठीक से खड़ी हो जाओ?" कहा मैंने,

मुस्कराई, बालों को झटका दिया, और फिर बैठ गयी पास में ही! ओह! चैन मिला! साँसें जो खौल गयीं थी, अब इन्धनरहित हुईं! उसने कुर्ते की बाजुएँ ऊपर की, कंगन नीचे किये, और मेरी नज़रें चिपकी उसकी कलाइयों पर!

"बुखार तो नहीं हुआ?" पूछा मैंने,

"नहीं, नहीं हुआ" कहा उसने,

"अभी कुछ क्षण पहले, मुझे हो गया था!" कहा मैंने!


   
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श्रीशः उपदंडक
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हंस पड़ी खिलखिलाकर! चलो, माहौल हल्का हुआ! मेरा हुक्का गुड़गुड़ाना भी बंद हो गया था!

"सीमा कहाँ है?" पूछा मैंने,

"गयी है कहीं, आ जायेगी" बोली वो!

और फिर उठी, केशों में कंघी करने लगी! बार बार बालों को झटका देती! और वो झटके, मुझे लगते, बार बार! मैंने ध्यान हटाया वहां से!

"आज कुवाचिता का संधान करूँगा!" कहा मैंने,

"रात्रि में न?" बोली वो,

"हाँ" कहा मैंने,

"अच्छा है" बोली वो!

"अरे तुम सबसे पहले ये स्वेटर पहन लो!" कहा मैंने, स्वेटर उठाते हुए!

"अभी पहनती हूँ" बोली वो!

"न, अभी पहनो" कहा मैंने,

"अभी पहनती हूँ?" बोली वो,

हूँ को अधिक लम्बा खींचते हुए!

"अरे यार पहन लो, नहीं तो मैं जाता हूँ!" कहा मैंने,

"क्यों?" बोली वो!

"ये कुरता आज हुक्का बनाएगा मुझे!"

कहा मैंने, वो समझ गयी! हंसने लगी!

हंसा तो मैं भी, लेकिन मेरी नज़रें बार बार जुलम ही ढाती रहीं मुझ पर!

"आज चलोगे मेरे साथ?" बोली वो,

"कहाँ?" पूछा मैंने,

"जाना है कहीं" बोली वो,

"कितनी दूर?" कहा मैंने,

"पास में ही है" बोली वो,

"कब जाना है?" पूछा मैंने,

"सीमा के आते ही!" बोली वो,


   
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श्रीशः उपदंडक
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कर ली कंघी, बाँध लिए केश, पहन लिया स्वेटर! कर दिया एहसान मुझ पर!

और आ बैठी बिस्तर पर ही!

"काम क्या है वहां?" पूछा मैंने,

"मिलना है किसी से!" बोली वो,

"किससे?" पछा मैंने,

"खुद देख लेना!" बोली वो!

"है कौन?" पूछा मैंने,

"सखी कह लो उसको मेरी!" बोली वो!

"अच्छा !" कहा मैंने!

ज्वार-भाटा लौट गया था पीछे मेरे मन में उठता हुआ!

"क्या नाम है?" पूछा मैंने,

"नीलिमा" बोली वो,

"अच्छा !" कहा मैंने,

और तभी आ गयी सीमा अंदर! कुछ किताबें थीं उसके हाथ में! उसने नमस्कार की मुझसे, मैंने भी की! अब सीमा से बात की उत्तमा ने, बता दिया, कि हम जा रहे हैं नीलिमा के पास!

और हम फिर निकल गए वहाँ से!

रिक्शा लिया और चल पड़े, करीब दो किलोमीटर चले होंगे, पहुँच गए! उत्तमा मेरा हाथ थामे, चलती रही आगे, ये एक आवासीय कॉलोनी थी!

"वहाँ" बोली वो,

"ये तो कोई दुकान है?" कहा मैंने,

"हाँ, नीलिमा से ही लेती हूँ मैं वस्त्र!" बोली वो!

"अच्छा !!" कहा मैंने,

और हम जा पहुंचे! नीलिम मिली, कोई तीस बरस की होगी वो, मुझसे भी मिली, चाय आदि बनवा ली, और साथ में गरम गरम कचौड़ियां भी मंगवा लीं! अब वे दोनों अपनी बातों मेन हुई मशगूल! और मैं अकेला! इधर देखू, उधर देखू!

कभी कोई किताब उठाऊँ, कभी अखबार!

कभी बाहर झाँकू! कभी छत को देखू! उत्तमा ने चार पांच जोड़ी वस्त्र ले लिए थे!


   
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श्रीशः उपदंडक
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मेरे से पूछ पूछ के, लिए उसने! मैंने भी हाँ हाँ ही कही! और फिर हम चले वहाँ से,पकड़ा रिक्शा और आ गए वापिस! वो अपने कक्ष में ले गयी मुझे, और सीमा से पानी लाने को कहा, वो गयी पानी लेने, और ले आई, मैंने भी पिया!

"अब चलता हूँ, शाम को आऊंगा!" कहा मैंने,

"ठीक है" बोली उत्तमा,

"दवा खा लेना" कहा मैंने,

"हाँ" बोली वो,

और मैं आ गया बाहर फिर वहाँ से!

मैं सो गया था उसके बाद, नींद कोई पांच बजे खुली, मैंने हाथ-मुंह धोये और चला मैं सीधा उत्तमा के पास, उत्तमा नहीं मिली मुझे कमरे में, कहीं गयी थी वो, बताया मुझे सीमा ने, मैं वापिस हुआ, गया बाबा ऋषभ के पास, बाबा रिश्त तोटुल्ल बैठे थे, संग में उनके बाबा भोला भी टुल्ल थे!

"आइये!" बोले ऋषभ बाबा!

"वो, ज़रा क्रिया-स्थल खुलवा दीजिये" कहा मैंने,

"इस वक़्त?" बोले वो,

"हाँ, कुवाचिता का संधान करना है" कहा मैंने,

"अच्छा अच्छा!" बोले वो!

"हाँ, खुलवा दीजिये!" कहा मैंने,

वे उठे, घुटने में से चटक की आवाज़ आई!

"चलो" बोले वो,

और मैं चला उनके साथ, वे संचालक के पास ले गए, संचालक से बात की उन्होंने, और संचालक ने एक सहायक को चाबी लेकर भेजा हमारे साथ, मुझे कोई वस्तु आदि की आवश्यकता नहीं थी! बस, एकांत में संधान करना था इस विद्या का, क्रिया-स्थल काफी दूर था वहाँ से! ये एक कोने में बना था, था तो काफी बड़ा! खपरैल पड़ी थीं छत पर, सहायक ने ताला खोला, बत्ती जलायी और मैं अंदर गया फिर, बाबा और सहायक चले आये थे वापिस, मुझे चाबी देकर, मुझे फारिग होते ही वो चाबी देनी थी संचालक को वापिस!

खैर, मैंने अब तैयारी की, गुरु-नमन किया, स्थान-नमन, दिशा-नमन, भूमि नमन और अघोरपुरुषनमन! तदोपरांत में बैठ गया, नेत्र बंद किये और विद्या का संधान आरम्भ गए! और विद्या का संधान पूर्ण हुआ! अब विद्या पूर्ण रूप से तैयार थी! कुवाचिका कर्म करने


   
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श्रीशः उपदंडक
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हेतु! मैं उठा, पूजन किया, गुरु-नमन किया और उस स्थल का ताला बंद कर दिया, बंद ताले को जांचा, वो सही लगा था, मैं फिर वापिस हुआ, आया संचालक के पास और चाबी सौंप दी उन्हें! और हुआ मैं वापसी अपने कक्ष के लिए, फिर सोचा, एक बार उत्तमा से भी मिल लिया जाए, आज नहीं मिला था शाम को उस से, न मिल सका था, पहंचा वहाँ, और घुसा कमरे में, दरवाज़ा खुला था! अंदर अकेली ही थी उत्तमा, बैठी हुई थी!

"आओ, बैठो” बोली वो!

मैं बैठ गया! "पानी दूँ?"

पूछा उसने! "हाँ" कहा मैंने,

उसने पानी दिया और मैंने पानी पिया!

"मैं आया था शाम को" कहा मैंने,

"मैं यहीं थी, वो कमला के यहां गयी थी" बोली वो,

अब होगा कोई काम और होगी कोई कमला!

"वो संधान कर लिया?" पूछा उसने,

"हाँ, वहीं से आ रहा हूँ" कहा मैंने,

"अच्छा, मुझे लगा था" बोली वो,

"तुम्हें बताया तो था" कहा मैंने,

"हाँ तभी लगा था" बोली वो,

"अब बुखार तो नहीं?" पूछा मैंने,

"नहीं" बोली वो,

"चलो ठीक! दूर हुआ बुखार!" कहा मैंने,

"हाँ!" बोली वो,

"अब कल तैयार रहना!" कहा मैंने,

"हाँ" बोली वो,

"अब चलता हूँ, सुबह मिलूंगा!" कहा मैंने,

"ठीक है!" मुस्कुरा के बोली!

और मैं हुआ वापिस फिर!

आया अपने कमरे में, शर्मा जी लेटे हुए थे, मुझे देख, बैठ गए! मैं भी बैठ गया वहीं कुर्सी पर!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"निबट गया काम?" बोले वो,

"हाँ" कहा मैंने,

"अच्छा हुआ!" बोले वो!

"हाँ, आवश्यक भी था!" कहा मैंने,

"अब बुलाऊँ शरण को?" बोले वो,

"हाँ, बुला लो!" कहा मैंने,

वे उठे और बुला लिया शरण को, शरण कुछ सामान तो ले ही आया था! सामान रखा उसने, और फिर से वापिस हुआ!

"शाम से दो बार आ चुका है!" बोले वो,

"अच्छा!" कहा मैंने,

और शरण आ गया अंदर! पानी रखा, सलाद रखा उसने, और दो गिलास!

"आज मछली है" बोला वो!

"अरे वाह!" कहा मैंने!

"भूना हआ!" बोला वो!

"ये तो और बढ़िया!" बोला वो,

और एक कटोरदान आगे कर दिया, मैंने खोला तो क्या ग़ज़ब की खुश्बू आई! मुंह में पानी आ गया! भुनी हुई मछली वैसे भी बहुत लज़ीज़ हुआ करती है! मैंने एक उठायी, टुकड़ा तोडा और उस हरी मिर्च की बनी चटनी में छुआ कर, रखा मुँह में! बेहतरीन स्वाद था! ज़ायका ऐसा के उंगलियां भी खा जाएँ! ”"वाह शरण!" कहा मैंने,

हंस पड़ा! "ये मैंने बनाया है!" बोला वो!

"बहुत शानदार!" कहा मैंने,

और एक टुकड़ा खाया!

"बहुत है, बता देना!" बोला वो!

"हाँ, बता दूंगा!" कहा मैंने!

और चला गया वो! मैंने निकाली बोतल और मदिरा को आज़ाद किया! मैंने ऐसी बहुत मदिरा-कन्यायों का कल्याण किया है! आज़ाद करवाया है उस बोतल की कैद से! आज एक और करा दी थी! और फिर हम हुए शुरू!

"क्या बात है! दिल्ली भी फेल कर दी शरण ने तो!" बोले वो!


   
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श्रीशः उपदंडक
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"हाँ, सही कहा आपने!" बोला मैं,

"क्या स्वाद है!" बोले वो!

"लाजवाब!" कहा मैंने,

हम आराम से खाते-पीते रहे! छक कर खाया और पिया!

"मजा आ गया!" कहा मैंने, डकार मारते हुए!

"हाँ, अब और खाने की इच्छा नहीं!" कहा उन्होंने!

"हाँ, मेरे बस में भी नहीं अब तो!" कहा मैंने,

वैसे भी दो बार तो मंगवा ली थी हमने मछली! अब और खाते तो नींद ही न आती! हाथ-मुंह धोये, और जा घुसे बिस्तर में!

सुबह हुई!

हम फारिग हुए!

चाय-नाश्ता भी कर लिया!

आज मौसम बहुत बढ़िया था!

कुछ ही देर में, धूप निकलने वाली थी!

"आज तो मौसम बढ़िया है!" बोले शर्मा जी,

"हाँ, आज पूर्णिमा जो है!" कहा मैंने,

"हाँ!" बोले वो!

अभी हम बातें कर ही रहे थे कि बाबा ऋषभ और बाबा भोला आ गए हमारे पास! "आइये बाबा!" कहा मैंने,

नमस्कार हुई! और वे बैठे!

"आज हो गयी पूनम!" बोले बाबा भोला!

"हाँ जी!" कहा मैंने,

"अब कब निकलना है?" पूछा उन्होंने,

"कोई छह बजे" कहा मैंने,

"इतनी देर से?" बोले वो,

"ठीक ही तो है?" कहा मैंने,

"थोड़ा जल्दी निकलते?" बोले वो,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"एक ही बात है, वहां इंतज़ार करना पड़ेगा फिर!" बोला मैंने,

"चलो छह ही सही!" बोले बाबा ऋषभ!

"ठीक है छह बजे" शर्मा जी बोले,

"हाँ, चलो कोई बात नहीं" बोला बाबा भोला,

"तो हम छह बजे आ जाएँ?" बोले बाबा ऋषभ!

"हाँ, आ जाइए" कहा मैंने, "ठीक है,आते हैं छह बजे!" बोले और दोनों ही चले वापिस!

"जल्दी क्यों जाना चाहते हैं ये बाबा भोला?" बोले शर्मा जी,

"पता नहीं क्या पका रहे हैं!" कहा मैंने,

"वही पता चलेगा!" बोले वो,

"हाँ" कहा मैंने, और हुआ खड़ा,

"आता हूँ अभी" कहा मैंने और चला बाहर,

सीधा पहुंचा उत्तमा के पास, चाय पी रही थी! सीमा नहीं थी!

"आओ, बैठो” बोली वो,

"आज छह बजे निकलना है" कहा मैंने,

"अच्छा!" बोली वो!

"तैयार रहना" कहा मैंने,

"हाँ, रहूँगी" बोली वो!

"आज देख लेना!" कहा मैंने,

"अवश्य ही!" कहा उसने!

"और हम चलें फिर!" कहा मैंने,

"हम?" बोली वो,

"अरे मैं और शर्मा जी?" कहा मैंने,

"कहाँ चलें?" पूछा उसने,

"अपने देश! अब याद आने लगी है!" बोला मैं! हँसते हुए!

"इतनी जल्दी?" बोली वो,

"जल्दी कहाँ? पूरे पंद्रह दिन हो गए हैं!" कहा मैंने,


   
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श्रीशः उपदंडक
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"यहां तो हफ्ता भी नहीं हुआ?" बोली वो,

"हाँ ये तो है" बोला मैं,

"तो रुक के जाना?" बोली वो,

"नहीं रुका जा रहा!" कहा मैंने,

"और फिर वो काम?" बोली वो,

"कौन सा काम?" पूछा मैंने!

"भूल गए?" बोली वो,

"मैंने तो नहीं सुना कि तुम्हें कोई काम था?" मैंने अचरज से कहा,

"भूल गए?" पूछा उसने,

"कोई होता तो न याद रहता?" कहा मैंने,

"भूल ही गए!" बोली,

"तो बताओ?" कहा मैंने,

"इधर आओ?" बोली ऊँगली के इशारे से!

मैं उठा, बैठ उसके पास,

"हाँ?" कहा मैंने,

"कान लाओ इधर!" बोली वो!

अरे!! वो कान!

खैर, मैंने कान किया उसके होंठों की तरफ!

और उसने कुछ फुसफुसाया!

मेरी हंसी छूटी!

वो भी हंसने लगी! बात ही ऐसी कही थी!

मैं और वो दोनों ही हंस रहे थे! बात ही कुछ ऐसी थी! मेरा तीर मुझे ही घोंप दिया था उत्तमा ने तो! और उसने जिस लहजे से कहा था, अटक अटक कर, मुझे उस पर और हंसी आ रही थी! मैं बैठा हुआ था, अब खड़ा होना पड़ा, मेरी बेल्ट ज़रा कस के बंधी थी, उसको ढीला किया और फिर बैठा!

'सच में मजा ही आ जाएगा!' कहा मैंने!

अब और हंसी वो! मैं भी हंसा ज़ोर से!


   
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श्रीशः उपदंडक
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'आएगा या नहीं?' पूछा मैंने,

'पता नहीं!' बोली वो,

'ठीक है फिर, दो दिन और सही!' कहा मैंने,

तो अब चेहरा ढक लिया उसने!

'अरे उत्तमा! तुम हंसी-ख़ुशी रहो! और क्या चाहिए! जीवन वही जो सरलता से कटे! नहीं तो लालसा कभी खत्म नहीं होती! मलाल ही शेष रह जाता है! और ये मलाल ही, तृष्णा में विकसित हो, पुनः योनि-चक्र का मूल कारण बनता है!' कहा मैंने!

'जानती हूँ मैं!' बोली वो!

'तुम तो सबकुछ जानती हो! हैं न, सबकुछ?' पूछा मैंने,

मुस्कुरा पड़ी! होंठ बंद किये हुए ही! चिबुक संकुचित हो गयी!

'और जो शेष है, वो मैं बता दूंगा!' कहा मैंने,

तो मेरे कंधे पर मुक्का मार दिया उसने!

'अच्छा छोड़ो, शाम छह बजे निकलना है, तैयार रहना!' कहा मैंने,

'हाँ, पक्का!' बोली वो,

और फिर मैं उठा वहाँ से! उसके गालों को छुआ और चल दिया वापिस! आया अपने कक्ष में! शर्मा जी लेटे हुए थे, कोई भजन सुन रहे थे अपने फ़ोन में!

'क्या सुन रहे हो?' पूछा मैंने,

'ऐसे ही!' बोले वो!

शायद कबीरवाणी थी, या रहीम जी के दोहे!

मैं बैठा तो बंद कर दिए उन्होंने, और उठ बैठे!

'क्या बजा?' पूछा उन्होंने,

'साढ़े ग्यारह हुए हैं' कहा मैंने,

''अच्छा' बोले वो,

शरण भोजन ले आया था, तो हमने भोजन किया और शाम को खाना न लाने को कह दिया, आज रात तो हम बाहर ही रहने वाले थे वैसे भी! तो हमने खाना खाया और फिर आराम किया! मेरी कोई एक बजे करीब आँख लग गयी, मैं सो गया, शर्मा जी बाहर गए हुए थे, शायद बाज़ार, और जब मेरी आँख खुली तो पांच बज रहे थे, रात का कोटा तो मैंने पूरा कर ही लिया था!


   
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श्रीशः उपदंडक
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शर्मा जी भी सो रहे थे, मैंने जगाया उनको! वे जागे और मैं हाथ-मुंह धोने चला गया! वापिस आया, तो वे गए! और उसके बाद हम तैयार हुए, मैंने अपने गले में एक रूद्र-माल धारण किया, और एक शर्मा जी को धारण करवाया! कहीं कुछ गड़बड़ हुई तो हम सुरक्षित तो रहते!

और इस तरह ठीक पौने छह बजे मैं गया उत्तमा के पास! दरवाज़ा बंद था, मैंने खटखटाया, तो कुछ देर बाद दरवाज़ा खुला, मैं अंदर गया! अंदर तो जैसे चाँद ज़मीन पर उतरा था उस शाम, और वो भी उत्तमा के कमरे में! चमक-दमक रही थी! आभूषण धारण किये हुए थे! चेहरा चमक रहा था, नेवी-ब्लू रंग की साड़ी क्या फब रही थी उसके बदन पर! उसका गोरा रंग खिल उठा था उस शाम तो! जैसे चांदनी समा गयी हो उत्तमा में! उसके बाद उसने अपने गरम कपड़े पहने, और अब वो तैयार थी, आँखों में लगा काजल, ऐसा लग रहा था जैसे कि श्याम-स्वर्ण! श्याम-स्वर्ण की आभा थी उसमे!

'कैसी लग रही हूँ?' पूछा उसने,

'आज तो महाशुण्ड का ध्यान भटकेगा!' कहा मैंने,

हंस पड़ी वो!

'कजरी देखेगी तो देखती ही रह जायेगी! आज तो ग़ज़ब ढा रही हो उत्तमा!' कहा मैंने!

मुस्कुराई, और अपने बाएं गाल को अंदर से, अपनी जिव्हा से बाहर धकेला!

'चलो अब!' बोली वो,

''एक मिनट!' कहा मैंने!

'क्या हुआ?' पूछा उसने,

'काजल कहाँ है?' पूछा मैंने,

'लगा तो लिया मैंने?' बोली वो,

''अरे दो तो सही?' कहा मैंने,

वो गयी पीछे, और काजल उठा लायी, दे दिया मुझे!

मैंने खोला, और अपने ऊँगली से उसके सीधे पाँव की पिंडली में लगा दिया!

'इस से क्या होगा?' बोली वो!

'कुछ नहीं होगा! अब चलो' कहा मैंने,

और काजल दे दिया उसको वापिस, उसने रख दिया काजल वहीँ, जहां से लिया था!

'छह बज गए, चलो!' कहा मैंने,

'चलो' बोली वो,


   
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श्रीशः उपदंडक
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और दरवाज़े को लगा दी सांकल बाहर से,

'आओ' कहा मैंने,

और चल पड़ी मेरे साथ वो, मैं ले आया उसको कमरे तक अपने, दोनों बाबा आ ही चुके थे, हम आये तो खड़े हो गए सभी,

'चलें?' बोले वो,

'हाँ, चलो' कहा मैंने,

और अब लगाया ताला कक्ष को, और हम चल पड़े बाहर!

बाहर आये तो बाबा एक आदमी से मिले, भोला बाबा, उसने कुछ नेपाली भाषा में कहा, और चला हमारे साथ ही, बाबा ने हमें भी उसके साथ चलने को कह दिया! जब बाहर आये तो पता चला कि बाबा ने गाड़ी का इंतज़ाम कर लिया था! और वो आदमी ड्राइवर था एक वैन का, उसी में जाना था हमें! ये तो बढ़िया हुआ था!

हम बैठ गए वैन में, और वैन चली तब! अँधेरा तो हो ही चुका था! अब रात भी हो तो कोई बात नहीं! आज रात अपनी ही थी! गाड़ी चलती रही! और कोई सवा दो घंटे में हम पहुंचे वहाँ, आज जांच ज़्यादा हुई थी, इसी में समय लगा अधिक! आखिर हम पहुँच ही गए थे वहाँ! हरिहर का नाम लिया तो प्रवेश मिला, गाड़ी भी अंदर ही चली गयी! और एक जगह रुकवा दी मैंने! उतरे हम सब वहाँ!

'आओ' कहा मैंने,

और फिर सब चले मेरे साथ, मैं सबसे पहले हरिहर के पास गया, मिला उस से! उस गाड़ी के चालक का ठहरने का इंतज़ाम करवाया और फिर हम सभी, हरिहर के संग चले! हरिहर ले आया हमें वहाँ तक, अब आगे का रास्ता मैं जानता था, हम चल पड़े अब कजरी के आवास तक के लिए! आये वहाँ, आज तो कई स्त्रियां सजी-धजी से खड़ी थीं वहाँ! हम पहुंचे तो हमें उसी कक्ष में बाई उस बैठक में बिठाया गया, सभी को पता था कि हमें आना है आज, शायद! पानी आया, पानी पिया और फिर चाय आ गयी, वो भी पी, करीब आधे घंटे के बाद, कजरी आई! आज मुखड़ा चमक रहा था उसका! आज उसका प्रेमी जो आना था, आज मिलना था उनका! इसीलिए!

बैठी कजरी!

सभी से बात की,

और कुछ चेता भी दिया कि ये नहीं और वो नहीं!

हाँ, इतना ज़रूर कि वो उत्तमा को अपने संग ले जाना चाहती थी, ये बताया उसने!

मेरे हुए कान खड़े ये सुनकर!

'क्षमा! क्या मैं जान सकता हूँ कि उत्तमा ही क्यों?' पूछा मैंने,


   
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श्रीशः उपदंडक
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मुस्कुराई कजरी!

'मैं भेंट करवा दूँगी उत्तमा की!' बोली वो,

'तो सभी की क्यों नहीं?' पूछा मैंने,

'प्रयास कर सकती हूँ!' बोली वो,

'यदि ऐसा हो जाए तो मैं आभारी रहूँगा आपका!' कहा मैंने,

'मैं पूर्ण प्रयास करुँगी!' बोली वो, उत्तमा को देखते हुए!

अब मेरी एक आँख कजरी को देखे, और एक आँख उत्तमा को!

ये क्या हो रहा है?

कजरी की मंशा क्या है?

क्या चाहती है ये?

मुझे संशय सा हुआ!

''आप चिंता न करें! उत्तमा मेरी छोटी बहन की तरह है!' बोली वो!

'जब आप हैं तो क्या चिंता!' बोले बाबा भोला!

उन्हें बहुत जल्दी थी! सबसे जल्दी!

मुस्कुराई कजरी!

उत्तमा को देखा,

उत्तमा ने उसे देखा!

जैसे आँखों आँखों में इशारे हुए!

मैं अवाक सा दोनों को देखूं!

शर्मा जी अपने जूते से मेरा जूता खड़काएं!

समय मेरे हाथों से, रेत की भांति खिसका जाए!

क्या करूँ?

क्या न करूँ?

जाने दूँ?

न जाने दूँ?

क्या होगा?


   
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श्रीशः उपदंडक
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मैं ऐसी भंवर में चक्कर काटूं!

'जाओगी?' पूछा मैंने उत्तमा से!

'आप बताइये?' बोली वो,

'जाओ' कहा मैंने,

'ठीक है' बोली उत्तमा, मुस्कुराकर!

''और कजरी, हमें कब खबर मिलेगी?' पूछा मैंने,

'कोई एक बजे!' बोली वो!

एक बजे?

अभी तो साढ़े आठ हुए हैं?

तब तक क्या करें?

मटर छीलें या भुट्टे भूनें?

'आप दूसरे कक्ष में विश्राम कर सकते हैं!' बोली कजरी,

और उठी, हाथ बढ़ाया उत्तमा की तरफ, उठाया उसे, और ले चली उसको!

एक दूसरी महिला आ गयी वहां, और दूसरे कक्ष में जाने के लिए कहा,

उठना पड़ा, मेरे तो जैसे दिल का एक बड़ा हिस्सा, उस कजरी के संग सामने से बाएं वाले कक्ष में चला गया था! इसीलिए मज़बूरन उठना पड़ा!

'आइये' बोली वो.

'चलिए' कहा मैंने,

और हम चल पड़े,

पीछे मुड़के देखा मैंने, कोई नहीं!

और ले आई हमें उस कक्ष के पीछे बने एक कक्ष में,

दरवाज़ा खोला, बत्ती जलायी!

ये क्या?

कोई महल है क्या?

ऐसे बड़े बड़े पंद्रह-पंद्रह फ़ीट के पर्दे?

आलीशान पलंग!


   
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