मैं बैठ गया उसके पास! हाथ देखा उसका, कलाई पकड़ी, तो बुखार नहीं था उसे अब!
"अब तबीयत ठीक है?" पूछा मैंने,
"हम्म" बोली वो,
"अच्छा है!" कहा मैंने,
"मिल आये?" बोली वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"कैसी है वो?" पूछा उसने,
"अच्छी है" कहा मैंने,
"खुश हो गए?" बोली वो,
"हाँ, क्यों नहीं!" कहा मैंने,
"खाना खिलाया?' पूछा,
"हाँ!" कहा मैंने, पेट पर हाथ फेरते हुए!
"बहुत बढ़िया होगा?" बोली वो,
"हाँ, बेशक!" कहा मैंने,
"रुके नहीं वहां?" बोली वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"क्यों? दो बरस हए? है न?" बोली वो,
"क्या कह रही हो तुम?" कहा मैंने,
"कुछ नहीं" बोली वो,
"खाना खाया?" पूछा मैंने,
"नहीं" बोली वो!
"क्यों?" पूछा मैंने,
"मन नहीं था" बोली वो,
"अब खाओ" कहा मैंने,
"खा लूंगी" बोली, गुस्से से!
"तुम चिढ़ती क्यों हो उस से?" पूछा मैंने,
"मेरा कोई मतलब नहीं उस से" बोली वो,
"तो बोलो तो सही कम से कम?" कहा मैंने,
"बोल तो रही हूँ?" बोली वो,
"तुम जानो!" कहा मैंने,
और खड़ा हो गया मैं!
"बैठो?" बोली वो,
"क्यों?" पूछा मैंने,
"बैठो?" बोली वो,
बैठ गया मैं, "जब यहां आते हो, तो वहाँ मत जाया करो!" बोली वो,
"ये क्या?" कहा मैंने,
"हाँ, समझे आप?" बोली वो,
"तुम्हारा क्या बिगाड़ दिया उसने?" पूछा मैंने,
"बस, कह दिया मैंने" बोली वो,
"ठीक है!" कहा मैंने,
बीमार थी, बहस करना सही नहीं था!
मैं खड़ा हुआ फिर,
"खाना भिजवाता हूँ" कहा मैंने,
"कहाँ चले?' बोली वो,
"कमरे में अपने" कहा मैंने,
और निकल आया वहाँ से! शरण के पास गया, और कह दिया खाना भेजने के लिए उत्तमा के लिए! अपने लिए मना कर दिया था!
और आ गया कमरे में शर्मा जी, हाथ ताप रहे थे,सर्दी ही ऐसी थी!
"अब ठीक है?" पूछा उन्होंने,
"हाँ" कहा मैंने,
"ठीक!" बोले वो! "
मैं बात करता हूँ अब कजरी से!" कहा मैंने,
"अच्छा!" बोले वो,
और फिर मैंने फ़ोन लगाया कजरी को! डर डर के! कहीं मना ही न कर दे! कहीं बुरा ही न मान जाए! ऐसा हुआ, तो समझो अब कजरी से मिलना ही बंद! मेरी बात हुई, मैंने डरते डरते उस से बात की, हालांकि वो सहज थी, और फिर मैंने सहमते सहमते अपन उद्देश्य ज़ाहिर किया, और फिर.......मान गयी वो! हम देख सकते थे, लेकिन दूर से! बीच में नहीं आ सकते थे, अन्यथा प्राण गंवाने पड़ते! ये मंजूर था मझे! बाबा भोआ और ऋषभ को मात्र देखना ही तो था! और उत्तमा, उसे भी देखना ही तो था! और मैं,मैं तो जैसे तटस्थ था! दिखे, तो सही, न दिखे, तो सही! और फिर मैंने धन्यवाद किया कजरी का! कजरी का वास्तविक नाम, रूपाली है, लेकिन कजरी नाम ज़्यादा चलन में है उसका!
"हो गयी बात?" बोले शर्मा जी!
"हाँ जी!" कहा मैंने,
"मान गयी?" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"कब?" बोले वो,
"पूर्णिमा को!" कहा मैंने,
"यानि तीन दिन बाद?" बोले वो,
"हाँ" कहा मैंने!
"बढ़िया!" बोले वो!
"हाँ! कम से कम उत्तमा का बुखार तो उतरेगा!" कहा मैंने!
हंस पड़े वो! मैं भी हंसा!
और तभी बाबा ऋषभ आ गए!
"आइये बाबा!" कहा मैंने!
बैठ गए वो! हम भी बैठ गए!
"क्या बात हो गयी?" पूछा उन्होंने!
"हाँ, हो गयी!" कहा मैंने,
"क्या रहा?" चौंक के पूछा उन्होंने!
"मान गयी वो!" कहा मैंने!
"अरे वाह!" बोले वो!
"हाँ जी!" कहा मैंने!
"बाबा भोला खुश हो जाएंगे!" बोले वो!
"और उत्तमा भी!" कहा मैंने!
बाबा हंस दिए!
"उत्तमा का तो पता नहीं, लेकिन बाबा भोला प्रश्न हो जाएंगे!" बोले वो!
"ये तो अच्छा है!" कहा मैंने,
"हाँ, बहुत अच्छा !" बोले वो!
"चलो, हम भी देख लेंगे!" कहा मैंने,
"सब आपकी बदौलत है!" बोले वो!
"अरे ऐसा कुछ नहीं!" कहा मैंने!
पूर्णिमा आने में अभी तीन दिन शेष थे, तभी जाना था हमें, कजरी ने ही निर्देश देने थे हमको, फिर उसी के निर्देशों के अनुसार हमने उनका पालन करना था, कहीं कोई चूक न हो जाए, इसके लिए मैं पूर्ण रूप से तैयार था! हाँ, बाबा भोला और बाबा ऋषभ को समझाना था, मात्र इतना कि वे कोई चूक न कर दें जोश में! बाबा ऋषभ पर मुझे पूर्ण विश्वास था कि वो ऐसा कुछ नहीं करेंगे, लेकिन बाबा भोला, वे ज़रूर ऊँगली टेढ़ी करते! ऐसा मुझे लगता था, यदि ऐसा कुछ हुआ, तो मैं छोड़ के जाने वाला था वहाँ से! और अब रही उत्तमा, उसको भी एक बार फिर से समझाना था कि कोई गलती न कर दे वो, कहीं लेने के देने ही न पड़ जाएँ! बाबा ऋषभ संग ही बैठे थे! और बाबा ऋषभ, बाबा भोला के साथ मुखर थे, इसीलिए मैंने उनसे ही बात करना उचित समझा! समय अधिक नहीं था. मात्र तीन ही दिन शेष थे! अब बाबा भोला, ऋषभ और उत्तमा, कोई बालक-बालिका तो थे नहीं कि डांट-डपट कर समझाया जाए उन्हें! बस इतना ही कहना था कि विवेकपूर्ण कार्य ही करें! ताकि मेरा मान भी रहे, और कजरी को बुरा न लगे!
"बाबा?" कहा मैंने,
"हाँ जी?" बोले बाबा,
"बाबा भोला से कहिये कि कोई ऊक-चूक न कर दें, नहीं तो मेरी फ़ज़ीहत हो जायेगी!" कहा मैंने,
"आप निश्चिन्त ही रहें!" बोले वो!
"हूँ तो निश्चिन्त ही!" कहा मैंने,
"तो बस! इत्मीनान रखें आप!" बोले वो,
धीरज बंधा दिया बाबा ने मेरा! यक़ीन करने के अलावा कुछ और, किया भी नहीं जा सकता था! करना ही पड़ा!
"बस बाबा, मेरी फ़ज़ीहत न हो!" कहा मैंने,
"अरे नहीं! चिंता ही न करो!" बोले वो!
कुछ और बातें हुईं, और फिर चले गए बाबा, मुझे ढांढस बंधा! बाबा गए, तो मैं आराम करने के लिए लेट गया! शर्मा जी बाहर चले गए थे, कुछ काम था उनका, उनका फ़ोन काम नहीं कर रहा था, शायद कुछ गड़बड़ थी, तो फ़ोन करने गए थे बाहर, शायद! मुझे कोई आधा घंटा ही हुआ था लेटे लेटे, कि शर्मा जी आ गए, बैठ गए, फ़ोन पर ही बात कर रहे थे, अब शायद फ़ोन ठीक हो गया था उनका! या पहले सिग्नल नहीं मिल रहे थे उन्हें!
"अब चल रहा है?" पूछा मैंने,
"हाँ, यहां नेटवर्क की समस्या है" बोले वो,
"हो सकता है" कहा मैंने,
"यही है" बोले वो,
और तभी कमरे में उत्तमा आ गयी!
मैं उठ बैठा तभी! "आओ उत्तमा! बैठो!" कहा मैंने,
बैठ गयी बिस्तर पर ही, मैंने कंबल दे दिया उसको! उसका माथा छू कर देखा, कलाई पकड़ कर देखी, अब नहीं था बुखार उसे!
"अब तो बुखार नहीं है?" कहा मैंने,
"हाँ, अब नहीं है" बोली वो!
शर्मा जी के फ़ोन में फिर गड़बड़ हुई, उठ कर, बाहर चले गए!
"कुछ खाया?" पूछा मैंने,
"हाँ, खा लिया" बोली वो,
"ठीक किया, बुखार में पेट खाली नहीं होना चाहिए, नहीं तो ज़ायका, मुंह का, खराब होगा, बल्कि पानी में से भी दुर्गन्ध सी आने लगेगी!" कहा मैंने,
"हाँ, जानती हूँ" बोली वो!
"जानती तो तुम बहुत कुछ हो!" कहा मैंने,
हँसते हुए! मेरे घुटने पर एक मुक्का मारा उसने तभी! दाँत भींचते हुए! और मुस्कुरा पड़ी!
"पूर्णिमा को चलना है!" कहा मैंने,
"रात्रि को?" बोली वो,
"हाँ" कहा मैंने,
"दिख जाएंगे वो?" बोली वो,
"हाँ, क्यों नहीं, पूनम का चाँद जो होगा!" कहा मैंने,
"और धुंध हुई तो?" बोली वो,
"तो कर लेंगे कोई इंतज़ाम!" कहा मैंने!
"ठीक है!" कहा उनसे! मैंने ध्यान से देखा उसे! मन में प्रसन्नता तो थी, लेकिन कुछ और भी छुपा था, वो क्या? पता नहीं चल रहा था मुझे! हाँ, उइंडता तो अवश्य ही थी!
"इधर आओ?" कहा मैंने,
नहीं समझी वो!
चेहरे को झटका सा दे, मुझसे बिना शब्दों में पूछा उसने!
"यहां, मेरे पास!" कहा मैंने,
सरक आई! मेरे निकट!
"हाथ दिखाओ अपना!" कहा मैंने,
अपना मांसल हाथ बढ़ा दिया आगे, मैंने हाथ पकड़ा, सोने के कंगन पीछे को सरका दिए, ऊपरी कलाई में, चढ़ा दिए, मांस में,अटक गए थे वहीं!
मुझे देख रही थी, मेरे आँखों को, और मेरी आँखें उसके हाथ पर टिकी थीं! उंगलियां खोली उसकी मैंने, और अपनी उंगलियां फंसा दीं उनमे! और खींचा उसको अपने पास! मोटी मोटी आँखों में हया डोल गयी! जैसे मैं कोई शरारत करूँगा, उसका बदन प्रतिक्रि , तैयार हो चला था! उसके रोएँ खड़े हो चले थे! और खींचा उसको, और चेहरा निकट आया उसका मेरे! इतना निकट कि साँसों की आवाज़ सुन सकता था मैं उसकी! अब ध्यान से देखा उसको मैंने, उसकी आँखों में, करीने से सजी उसकी पलकों को, घुमावदार पलकों को, उसके आँखों के नैय्या रुपी किनारों को! साँसें तेज हो चली थीं! वक्ष तेजी से ऊपर नीचे हो रहा था उसका! मैं मस्कराया!
"डर गयीं?" पूछा मैंने,
कुछ न बोली! शायद, बोल न सकी! शब्द नहीं निकल पाये थे! मैंने उसके गुलाबी होठों को अपने तर्जनी ऊँगली से छुआ, उनके फुलाव को, दबाया मैंने ऊँगली से, रक्त छलछला गया था, उसकी गर्म साँसें, मेरी ऊँगली के पोर से टकरा रही थीं! मैं उन फुलावों को दबाता तो तेजी से वापिस उभर आते थे! होंठ सूख चले थे उसके! घबराहट
भर चुकी थी मन में! मैंने आँखें मिलायीं उस से, तो आँखें नीचे कर ली उसने! ये लम्हे, ऐसे लम्हे कज़ा से लबरेज़ हुआ करते हैं! उसकी पलकें जो अब आँखों को आधा ढके हुए थीं, बहुत सुंदर लग रही थीं! अभी हाथ उसका मेरे हाथ में ही था, उसके हाथ कि उँगलियों के मध्य भाग में, जैसे पसीना सा छलछला आया था! उस सर्द माहौल में पसीना!
"डर लग रहा है?" पूछा मैंने,
न बोली कुछ! टाल गयी! या फिर........
या फिर कुछ इंतज़ार था उसे! शायद किसी शरारत का! मैंने अपने हाथ से, उसका चेहरा उठाया, आँखें नीचे ही रही उसकी! और तभी मैंने, उसके माथे पर, उसकी भौंहों के बीच चूम लिया! सिहर सी गयी! उसके हाथों की उँगलियों ने, मेरी उंगलियां जकड़ लीं!
"उत्तमा!" कहा मैंने,
"हाँ?" अब बोली वो!
"डर रही हो?" कहा मैंने,
नहीं में सर हिलाया, लेकिन आँखों ने हाँ ही कहा! आँखें, कभी झूठ नहीं बोलती! ये सबसे बड़ा भेदी हैं हमारे शरीर में! ये, मन की भी नहीं मानती! आप मनवा के देखिये, हार जाएंगे इनसे!
"तुम बहुत प्यारी लगती हो मुझे उत्तमा!" कहा मैंने,
कुछ न बोली! जस की तस!
"अब जैसा मैं कहूँगा, कजरी वाले प्रकरण में, वैसा ही करोगी न?" पूछा मैंने,
अब देखा मुझे नज़रें उठा के!
"बोलो?" कहा मैंने,
"हाँ" बोली वो!
"कहीं भटक नहीं जाना!" कहा मैंने,
"नहीं" बोली वो!
"बस उत्तमा! भटकना नहीं!" कहा मैंने,
"नहीं भटकूगी!" बोली वो!
"ठीक है! देख लेना महाशुण्ड को!" कहा मैंने,
"ठीक है" बोली वो,
और अब मैंने उसका हाथ छोड़ दिया!
उसने हाथ पीछे किया और कंगन नीचे कर लिए!
"तुम्हे कुछ नहीं होना चाहिए बस!" कहा मैंने,
"आप हो न?" बोली वो,
"हाँ, हूँ" कहा मैंने,
"फिर कैसी चिंता?" बोली वो,
"चिंता! चिंता तो है!" कहा मैंने,
"कैसी चिंता?" पूछा उसने!
"ये जो मन है न,मन?" कहा मैंने,
उसके वक्ष के ऊपरी भाग पर, अपनी ऊँगली से खटकाते हुए!
"हाँ?" बोली वो,
चंचल होता है! तत्क्षण ही फैसले ले लेता है! तब विवेक, अँधा हो जाता है!" कहा मैंने,
"मतलब?" बोली वो,
"ये तो तभी जानोगी!" कहा मैंने,
"तभी मतलब?" बोली वो,
"उस महाशुण्ड के बाद!" कहा मैंने,
अब न बोली कुछ! शायद मन के चोर का चेहरा दिख गया था अंदर ही अंदर! शायद मैंने, रंगे हाथ धर-दबोचा था उसको! यही कारण था!
"समझीं?" कहा मैंने,
"समझ गयी" बोली वो!
"तो पूर्णिमा को तैयार रहो!" कहा मैंने,
"मैं तैयार हूँ" बोली वो!
"अच्छी बात है!" कहा मैंने,
और तभी शर्मा जी आये अंदर, और बैठ गए!
"अब कैसी तबीयत है उत्तमा?" पूछा उन्होंने,
"अब ठीक हूँ, बुखार नहीं है!" बोली वो!
"दवा खाती रहना! हो जाओगी ठीक!"" बोले वो,
"जी" बोली उत्तमा! और फिर उठी उत्तमा, जाने के लिए, मैंने सहारा देकर उठाया उसे, नीचे उतरी बिस्तर से, और पहने अपने चप्पल, और चली गयी बाहर, दरवाज़ा बंद कर दिया था उसने जाते हुए!
"अब आ रहा है नेटवर्क?" पूछा मैंने,
"हाँ, कभी कभी बंद ही हो जाता है" बोले वो,
"मौसम की वजह से होगा ऐसा" कहा मैंने,
"हो सकता है" बोले वो,
"मैंने सभी को समझा दिया है, कि कोई ऊक-चूक नहीं करें!" कहा मैंने,
"भोला बाबा को कहा?" बोले वो,
"बाबा ऋषभ को कह दिया है" कहा मैंने,
"उनका ही खटका है मुझे" बोले वो,
"और मुझे भी!" कहा मैंने,
"बाबा भले ही वृद्ध हैं, लेकिन हैं तेज-तर्रार!" बोले वो!
"हाँ, ये तो सही कहा आपने" कहा मैंने,
"उन पर ही ध्यान रखना होगा!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"और उत्तमा को समझा दिया?" बोले वो,
"हाँ, अभी समझाया उसे" कहा मैंने,
"चंचल स्वभाव की है, उस पर भी ध्यान रखना होगा!" बोले वो!
"हाँ, इसी की सबसे बड़ी चिंता है!" कहा मैंने,
"एक काम करना आप!" बोले वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"मैं रखूगा बाबा भोला पर नज़र! और आप थामना इस उत्तमा को!" बोले वो!
"ये ठीक रहेगा!" कहा मैंने,
और फिर आया शरण,भोजन लाया था, कर लिया भोजन! और फिर किया आराम हमने! फिर हुई शाम, मैं एक बार उस उत्तमा को देख आया था, अब बुखार नहीं था उसको, कमज़ोरी थी, आराम करती दो तीन दिन और ढंग से खाती, तो ठीक हो ही जाती! अब कोई चिंता की बात नहीं थी उसके लिए!
मैं आ गया था अपने कमरे में वापिस, और अब महफ़िल जमने का समय था, शरण ने सारा इंतज़ाम बखूबी कर दिया था, आज मछलियाँ लाया था वो, तालाब की मछलियाँ, और बनायी भी बढ़िया थीं, बाबा ऋषभ और बाबा भोला भी आ बैठे थे हमारे पास, तो अब हमारी महफ़िल हुई शुरू! शरण बीच बीच में आता, और जो कुछ भी कम पड़ता दे जाता था!
"कभी पहले विद्याधर देखे हैं?" पूछा मैंने बाबा भोला से,
"नहीं, पणि देखे हैं" बोले बाबा,
"मैंने विद्याधर की बात की!" कहा मैंने,
"नहीं जी" बोले वो,
"तो ये पहला अवसर है?" पूछा मैंने,
"हाँ जी" बोले वो, "मेरा भी!" कहा मैंने,
"मैंने देखे हैं!" बाबा ऋषभ बोले!
मेरे हुए कान लाल!
"कहाँ?" पूछा मैंने,
"यहीं, नेपाल में!" बोले वो,
"कहाँ?" पूछा मैंने, "यहां से कोई डेढ़ सौ किलोमीटर दूर है वो जगह!" बोले वो,
"कैसे देखे?" पूछा मैंने,
"एक बाबा है, चक्रेश्वर! मैं उनके संग था, उन्होंने ही दिखाए थे, कोई बीस बरस हुए!" बोले वो!
"अच्छा! कैसे थे?" पूछा मैंने,
"राजा के समान!" बोले वो!
"कैसे?" पूछा मैंने,
"कद जैसे किसी घोड़े का हो! मांस-पेशियाँ ऐसी जैसे कोई घोडा! रूप ऐसा सुंदर, कि सूर्य भी कुम्हला जाएँ!" बोले वो!
"समझ सकता हूँ!" कहा मैंने,
"जब आपने देखा उन्हें, तो क्या कर रहे थे वो?" पूछा बाबा भोला ने,
"वे संभवतःआवागमन कर रहे थे, बाबा ने तो यही बताया था!" बोले वो,
"क्या कुछ वार्तालाप हुआ था?" पूछा बाबा भोला ने,
"नहीं, मेरा नहीं, बाबा चक्रेश्वर से हुआ था वार्तालाप!" बोले वो,
"क्या था वार्तालाप में?" पूछा बाबा ने,
"मुझे नहीं मालूम! न बाबा ने बताया ही!" बोले वो,
"अच्छा, बाबा चक्रेश्वर कहाँ है?" पूछा मैंने,
"दस बरस हुए, गुजर गए" बोले वो,
"अफ़सोस" कहा मैंने,
"आज होते तो बहुत कुछ जानने को मिलता उनसे!" कहा मैंने,
"हाँ, लेकिन आयु पूर्ण कर गए वो!" बोले बाबा भोला!
"हाँ, यही बात है!" बोले बाबा ऋषभ!
और मित्रगण! मैंने भी मात्र सुना ही था उनके बारे में! कुछ चित्रण देखे थे, और कुछ मूर्तियां आदि, अधिक कहीं मिलता नहीं लिखित में इनके विषय में, जितना मिलता है, वो मात्र मौखिक ही है, जैसे कि कजरी, उसने ही मझे बताया था विदयाधरों के बारे में, मेरे पास बस यही प्रामाणिक जानकारी थी! कभी देख भी पाउँगा, ऐसा तो सोचा भी नहीं था मैंने! अब अवसर मिला था, तो अवसर का लाभ उठाना आवश्यक था! कुछ छूटना नहीं चाहिए! ताकि मलाल न रहे! शरण आया अंदर, एक भगोना ले आया था साथ में ऊपर रखा एक चमचा और चार कटोरे भी!
"क्या ले आया?" पूछा बाबा ने!
उसने ढक्कन हटा कर दिखाया! खुश्बू फैली! बकरा था! सिरी-पाये! सर्दियों में मिल जाएँ तो क्या कहना! अस्थि-विशेषज्ञ चिकित्सक इन पायों को हडियों का एरालडाइट कहते हैं! अस्थियों के लिए शतप्रतिशत लाभकारी है! अस्थियों को मज़बूत बनाता है, और शरीर की प्रतिरोधी-क्षमता को बढ़ाता है!
"ये बढ़िया किया तूने यार!" कहा बाबा भोला ने!
"सोचा, आज खिला दूँ, नेपाली खाना!" बोला वो!
"मजे बाँध दिए यार तूने!" कहा बाबा भोला ने!
अब उसने कटोरों में परोसा वो, और दे दिया हम सभी को! गरम गरम भाप उड़ी! ख़ुश्बू लिए! मैंने एक चम्मच शोरबा चखा! बेहतरीन शोरबा था! लहसुन और अदरक का तीखा सा स्वाद आया! लाजवाब बनाया था उसने!
"किसने बनाया?" पूछा मैंने,
"बीवी ने साब!" बोला वो!
"बहुत बढ़िया बनाया है!" कहा मैंने,
"मै बोला था, बढ़िया बनाना!" बोला वो!
"वाक़ई में!" बोले शर्मा जी!
"है न ज़ायकेदार?" कहा मैंने,
"बेहतरीन!" बोले वो!
"नेपाली माल है!" बोले बाबा भोला!
"ये सब आपका है!" बोला वो, और भगोना, ढक दिया एक तश्तरी से!
"मजा बाँध दिया यार शरण तूने तो!" बाबा ऋषभ ने कंधे पर हाथ मार कहा उसके! हंस पड़ा! और चला गया वापिस!
"नेपाली मांस अच्छा बनाते हैं!" बोले बाबा!
"हाँ, ये बात तो है!" बोले बाबा भोला!
"नेपाली तरीका है!" कहा मैंने,
"हाँ, ये भी बात है!" बोले बाबा भोला!
"अच्छा एक बात बताइये" बोले बाबा भोला,
"पूछिए" कहा मैंने,
"कजरी को कब से जानते हैं आप?" पूछा उन्होंने,
"करीब छह सालों से!" कहा मैंने,
"अच्छा, कैसे मिले थे?" पूछा उन्होंने,
"मेरे गुरु श्री ने मिलवाया था" कहा मैंने,
"कहाँ?" बोले वो,
"काशी में" कहा मैंने,
"अच्छा! तो कजरी के आप विश्वासपात्र हैं!" कहा उन्होंने,
"हाँ, सही कहा आपने" मैंने कहा,
"ये बड़ी अच्छी बात है!" बोले बाबा भोला!
"जी!" कहा मैंने,
और हम खाते-पीते रहे! स्वाद ले लेकर! उस सर्दी में उस शोरबे से नाक चल पड़ी थी! और क्या चाहिए था!
"बाबा भोला?" कहा मैंने,
"हाँ?" बोले वो,
"आपने मात्र देखना ही तो है?" कहा मैंने,
"हाँ, मात्र देखना ही है" बोले वो!
"तब तो कोई बात नहीं!" कहा मैंने,
"आप चिंता ही न करो!" बोले बाबा!
"नहीं, चिंता जैसी तो कोई बात नहीं!" कहा मैंने,
"तो आप निश्चिन्त रहो फिर!" बोले बाबा ऋषभ!
मुझे जतला तो दिया था उन्होंने कि कोई भी गड़बड़ नहीं होगी! लेकिन मेरे मन में अंदर कहीं अभी भी कांटे से उगे थे! जो चुभ जाते थे बार बार चलते हुए! कहीं खटक बाकी थी, उत्तमा को तो मै डांट-डपट कर समझा भी लेता, लेकिन अगर बाबा होता! गर कुछ बकना भी पड़ता, तो मै पीछे नहीं हटने वाला था! इतना तो कड़वाह ही मै! अपने साथ साथ कहीं हमारे लिए भी गड्ढे खुदवा रहे हों कभी! बस यही कांटे थे, और यही खटक! खाना तो खा लिया था हमने, वे दोनों भी चले गए थे, शरण बर्तन आदि ले गया था, और अंगीठी में लकड़ी के कोयले रख गया था! उसकी आंच से, अंगार से, कमरा गरमा चुका था! मै उठा, हाथ-मुंह धोये! और फिर पोंछे, मै तबीयत देखने जाना चाहता था उत्तमा की, सो बाहर निकल गया, कंबल लपेट कर, बुक्कल मारे हुए! आया उसके कमरे में, सीमा सो रही थी, और उत्तमा करवट लिए लेटी हुई थी, दरवाज़ा बंद नहीं था, इसका मतलब जाएगी ही हुई थी वो!
"उत्तमा?" कहा मैंने, उसने करवट पलटी और हुई सीधी, बैठ गयी, अपने कपड़े सही किये गले से,
"बैठो” बोली वो,
और मै सामने रखी कुर्सी पर बैठ गया,
"तबीयत कैसी है अब?" पूछा मैंने,
"अब तो ठीक है, बुखार नहीं चढ़ा फिर" बोली वो,
"दवा खा रही हो?" पूछा मैंने,
"हाँ, लगातार" बोली वो,
"ठीक!" कहा मैंने,
"दो दिन की और बची है" बोली वो,
"पूरी ही खाना, छोड़ना नहीं!" कहा मैंने,
"हाँ, जानती हूँ" बोली वो!
"हाँ पता है, सबकुछ जानती हो तुम!" कहा मैंने,
मज़ाक में! हंसी में ही!
मुस्कुरा पड़ी!
"खाना खा लिया?" पूछा उसने,
"हाँ, तुमने खाया?" पूछा मैंने,
"हाँ, खा लिया" बोली वो,
"ठीक है, मै चलता हूँ अब" कहा मैंने,
"अरे रुको तो सही?" बोली वो,
"क्या बात है?" पूछा मैंने,
"एक मिनट" बोली वो,
और उतर आई बिस्तर से नीचे,
"ठंड में कहाँ जा रही हो?" पूछा मैंने,
"कहीं नहीं" बोली वो,
और मेरे साथ वाली कुर्सी पर बैठ गयी!
"हाँ, बोलो अब?" कहा मैंने,
"मुझे कुछ तैयारी करनी है?" पूछा उसने,
"किसलिए?" पूछा मैंने,
"वो महाशण्ड को देखने के लिए, और किसलिए?" बोली वो,
"नहीं, कोई तैयारी नहीं!" कहा मैंने!
"कुछ करना हो तो बताओ?" बोली वो,
"बताऊँ?" कहा मैंने,
"हाँ, बताओ?" उसने पूछा, आँखें चौड़ी करके!
"कान लाओ इधर!" बोला मै,
चौंक पड़ी वो! हल्का सा मुस्कुराई! और ले आई कान मेरे होंठों के पास!
और मैंने कुछ फुसफुसा दिया!
हंस पड़ी! खिलखिला कर! मेरे कंधे पर हाथ रखते हुए! मै भी हँस पड़ा!
"चलो, लेटो अब! मै चलता हूँ!" कहा मैंने,
"ठीक है!" बोली वो,
और फिर मै चला बाहर, दरवाज़ा बंद कर लिया उसने फिर! और मै आ गया अपने कमरे में वापिस! शर्मा जी सोचके थे, मैंने भी अब सोने की तैयारी की, कपडे बदले, और दरवाज़ा बंद किया, और फिर बत्ती बंद कर दी, जा घुसा बिस्तर में! सुबह हुई!
आज मौसम साफ़ सा था, इतनी धुंध नहीं थी! लगता था जैसे आज सूरज झाँक लेंगे आकाश से ज़मीन पर! ज़मीन पर तो सर्दी ने हाहाकार मचा दिया था! कुछ धूप पद जाती त्वचा पर तो त्वचा भी धूप का धन्यवाद करती! हम नहा-धो कर, हुए फारिग, चाय पी, और नाश्ता भी कर लिया! नाश्ते से फारिग हुआ तो चला मै उत्तमा का हाल-चाल पूछने! गया उसके पास, कमरे में अकेली ही थी, आज तो गहरे हरे रंग के कपड़े पहने थे। हालांकि कपड़े ऊनी थे, मोटे मोटे, लेकिन बदन के उभार न दब सके थे! मुझे बहुत अच्छी लगी उत्तमा उस समय! मै बैठ गया, नमस्कार आदि हो ही गयी थी!
"आज कहाँ जा रही हो?" पूछा मैंने,
"आज!" बोली वो,
कुछ गुनगुनाने लगी थी, शायद कोई गाना था या कोई गीत!
"बताओ, कहाँ जा रही हो?" पूछा मैंने,
"कहीं नहीं! मुझे कहाँ जाना है!" बोली वो,
गर्दन में, सोने की चैन पहनते हुए, चैन बालों में अड़ जाती थी, मैंने मदद की, पहना दी उसको चैन!
"चंदन का उबटन लगाया है क्या?" पूछा मैंने,
"नहीं तो?" बोली वो, "सुगंध तो ऐसी ही है!" कहा मैंने,
"वो तेल है न, चमेली का!" बोली वो!
"अच्छा! समझा!" कहा मैंने,
और हो गयी तैयार! साड़ी ठीक की, और बैठ गयी! काजल क्या खूब खिला था उसकी आँखों में! एक बार तो तो मेरा मन डोल गया था! सच कहता हूँ!
"तबीयत ठीक है अब?" पूछा मैंने,
"हाँ, अब तो बिलकुल ठीक!" बोली वो!
