अब शाम को मिलना था उनसे!
और अब मुड़ा मैं उस उत्तमा की तरफ!
उसको देखा!
आँखों में मोटी मोटी बूंदें आंसुओं की! मैंने आंसू पोंछे उसके, अपने मफलर से!
"क्या हुआ?" पूछा मैंने,
कुछ न बोली!
एक सिसकी सी ली उसने!
शायद अंदर ही अंदर बहुत रोई थी वो!
"यही चाहती थीं न तुम?" कहा मैंने,
नहीं देखा मुझे! "मैं बात करूंगा कजरी से!" कहा मैंने!
और तभी झट से, मुझे देखा उसने!
शर्मा जी भी बाहर चले गए थे, शायद कोई काम था शरण से उनको! और अब कमरे में, मैं और उत्तमा ही थे! उसने मुझे देखा! एक ही नज़र में, मेरा पूरा चेहरा देख लिया! कान, माथा, नाक और मेरी बढ़ी हुई हल्की सी दाढ़ी भी! ऐसे अवलोकन किया उसने, एक ही नज़र में! यही खासियत है स्त्रियों में, हम ध्यान एक जगह लगा कर देखते हैं और स्त्रियां, सम्पूर्ण देखा करती हैं! ये नैसर्गिक गुण है उनमे! जिससे पुरुष वंचित हैं! और वैसे भी पुरुष बाह्य हैं और स्त्रियां अन्तः, यही अंतर कभी कभार स्त्री और पुरुष के मध्य टकराव का कारण बनता है! ऐसे ही देखा था उत्तमा ने मुझे! मैं तो बस उसकी आँखें ही देख पाया था! आँखों में चमक सी आ गयी थी!
"एक बात पूछू उत्तमा?" कहा मैंने,
"हाँ?" बोली वो!
अब तो जैसे ईंधन पड़ गया था उसमे!
"वो क्या है, जो तुम ढूंढ रही हो?" कहा मैंने,
उसने अजीब सी निगाहों से देखा मुझे!
माथे पर, बीच में, एक शिकन आ गयी थी!
"मैं नहीं समझी" बोली वो!
"उत्तमा! तुम अपने आप में रूपवान हो! जानती हो?" कहा मैंने,
नहीं बोली कुछ!
"मेरी नज़र से देखो ज़रा! किसी पुरुष की नज़र से देखो!" कहा मैंने,
आँखों में आँखें डाल, शब्दों से ही छेड़ छाड़ कर रही थी!
जानबूझकर नहीं समझ रही थी मेरा आशय!
"सच में उत्तमा, तुम बहुत रूपवान हो! मेरा यकीन करो!" कहा मैंने,
साफ़ साफ़ कहा था! कुछ नहीं छिपाया था मैंने!
नहीं बोली कुछ भी! कोई भाव नहीं चेहरे पर, बस, अपना कान छुआ एक बार अपने उलटे हाथ से, मुझे देखते हुए!
"तो क्या चाहिए तुम्हे, उस महाशुण्ड से?" कहा मैंने!
और अब वो चौंकी!
आँखें और चौड़ी हो गयीं!
"कुछ नहीं चाहिए" बोली वो,
"तो ये सब क्या है?" कहा मैंने,
"क्या?" बोली वो,
"ये बुखार?" कहा मैंने,
"मैंने जानबूझकर नहीं चढ़ाया" बोली वो,
"झूठ तो न बोलो कम से कम!" कहा मैंने,
"सच बोल रही हूँ!" बोली वो!
"दिख रहा है मुझे सच सब!" कहा मैंने,
"वैसे भी................" बोलते बोलते रुकी!
"क्या वैसे भी?" कहा मैंने!
"मैं सिर्फ देखना चाहती हूँ" बोली वो,
"किसलिए?" पूछा मैंने,
"इच्छा है" बोली वो,
"उस से क्या होगा?" कहा मैंने,
"कुछ नहीं" बोली वो,
"तो व्यर्थ की ज़िद क्यों?" कहा मैंने,
"कोई ज़िद नहीं" बोली वो!
"मेरी बात मानोगी?" कहा मैंने,
अब न बोली कुछ! "मानोगी?" कहा मैंने,
न बोले कुछ! मैंने कंधे पर हाथ रखा उसके! हिलाया!
"मानोगी?" पूछा मैंने,
"क...क्या?" बहुत हल्के से पूछा!
शायद डर रही थी मेरे आने वाले प्रश्न से!
"तुम देख लेना, लेकिन..............." कहा मैंने,
"क्या लेकिन?" आँखों से ही प्रश्न किया पहले, फिर मुंह से बोली!
"कोई वार्तालाप नहीं!" मैंने कहा,
"किस से?" पूछा उसने,
"महाशुण्ड से!" कहा मैंने!
अब चुप!
"बताओ?" कहा मैंने,
"ठीक है" बोली वो,
कुछ सोच कर! मुझसे तो दो हाथ आगे ही चल रही थी वैसे भी! मैंने तो कजरी से बात भी नहीं की थी, और उत्तमा तो वार्तालाप भी करने लगी थी उस महाशुंड से!
"नही करोगी न?" कहा मैंने,
"नहीं करूंगी" बोली वो!
"और अगर की, तो समझना मैं उसी क्षण से अनजान हूँ तुमसे!" कहा मैंने,
और तभी मेरे कंधे पर एक मुक्का मारा धीरे से उसने!
"ऐसा क्यों कहा?" बोली वो,
"सच ही कहा" मैंने कहा,
"मुझसे कभी बात नहीं करोगे आप?" पूछा उसने,
"मेरी बात नहीं मानी तो पक्का समझना!" कहा मैंने,
"मान तो गयी?" बोली वो!
"हाँ, ऐसे ही रहना, मेरे साथ, वहाँ भी!" कहा मैंने,
"हाँ, ऐसे ही!" बोली वो,
"अब खाना खा लो!" कहा मैंने,
"ठीक है" बोली वो,
और खड़ी हो गयी! कपड़े सही किये उसने, और गुसलखाने चली गयी! आई, और अपना शॉल उठाया, लपेटा बदन पर! और जैसे ही जाने लगी, मैंने कंधा पकड़ लिया उसका! रुक गयी वो! अचानक से ही! और मुझे देखा! मैंने खींचा उसको अपनी तरफ!
आँखों में झाँका!
उसने फिर से मेरे चेहरे का नक्श आँखों में बना लिया अपना!
"क्या ज़िद है उत्तमा!" कहा मैंने!
और खुल के हंस पड़ा! खुद भी बैठा और उसको भी बैठने के लिए खींचा! बैठ गयी वो!
मैं अब भी हंस रहा था! खिलखिलाकर!
और फिर उसके होंठों पर भी मुस्कान आ गयी!
"क्या हुआ?" पूछा उसने!
मैंने हंसी रोकी अपनी! बड़ी मुश्किलात से!
"देखो! अपने आप को देखो! कितनी सुंदर हो! और वो ज़िद!" कहा मैंने,
और फिर से हंस पड़ा!
मेरे मुंह पर हाथ रखने लगी वो! शर्मसार सा महसूस करने लगी थी!
"हंसो! उड़ाओ मेरा मज़ाक़!" बोली वो!
हंसी रोकी मैंने!
"मज़ाक नहीं उत्तमा! वो ज़िद!" कहा मैंने,
"तो?" बोली वो!
मुस्कुरा रही थी वैसे तो!
"कहीं महाशुण्ड को पसंद आ गयीं तुम भी तो, समझो हो गया काम!" कहा मैंने,
"कैसा काम?" बोली वो!
"अब मैं तो लड़ने से रहा उस से!" कहा मैंने!
"लड़ना क्यों है?" बोली वो!
"तुम्हे कहीं बना लिया अपनी प्रेयसि तो मैं क्या करूंगा!" बोला मैं!
"वो क्यों बनाएगा?" बोली वो!
"अब उसकी मर्जी!" कहा मैंने,
"और सुनो, कुछ गलत मत समझना! मुझे अच्छी लगती हो, तुमसे बातें कर लेता हूँ, हक़ समझता हूँ, बुरा....." कहा मैंने तो...
उसने मेरे मुंह पर हाथ रख दिया!
और आँखों से ही, मना कर दिया कि आगे कुछ नहीं कहूँ मैं! मैं चुप हो गया!
कुछ न कहा आगे!
"आओ, चलो!" कहा मैंने,
और उठा लिया उसे भी!
और हम चले बाहर फिर, उसको उसके कमरे में छोड़ा और मैं, चला शर्मा जी के पास!
वहाँ पहुंचा, तो वे वहीं थे!
चले आये मेरे पास वो!
"हाँ, हो गया" बोले वो,
"चलो खाना खाएं अब" कहा मैंने,
"हाँ, चलो!" बोले वो,
और हम चले वापिस अपने कमरे की ओर!
शरण मिला तो शरण से खाने को कहा!
थोड़ी देर में ही, खाना आ गया हमारा! और हमने भोजन किया फिर, और उसके बाद फिर आराम! शाम हुई और हम उठे! बाहर झाँका तो बारिश नहीं थी, लेकिन धुंध ऐसी थी जैसे कि उस डेरे में ही डेरा जमा लिया हो उसने! जैसे पहाड़ों ने शरण ही न दी हो उसको और कहीं! बादल उतर आये थे वहाँ तो! शुक्र था कि बत्ती थी अभी, अँधेरा हो जाता तो घुप्पम-घुप्पा हो जाता!
"यहां तो ये ठंड मार ही देगी!" बोले शर्मा जी! कंबल ओढ़ते हुए!
"हाँ, हद ही हो गयी!" कहा मैंने!
"आप जल्दी से काम निबटा लो, और चलें घर!" बोले वो!
"हाँ, सही कहा आपने!" मैंने कहा,
"यहां तो आदमी को आदमी नहीं दीख रहा!" बोले वो!
"सच बात है!" मैंने कहा,
और तभी मैं उठा! गुसलखाने गया, हाथ-मुंह धोये और वापिस आया,
"कहाँ चले?" बोले वो,
"अभी आया" कहा मैंने, जैकेट पहनते हुए,
और चल दिया बाहर, बाहर तो हवा चल रही थी!
हाड़ कंपा देने वाली हवा!
"अरे सुनो?" आवाज़ आई,
पीछे देखा मैंने!
वो मुझे पहचाने और मैं उसे!
आया मेरे पास वो!
"आप वही हो न? दिल्ली वाले?" बोला वो!
"हाँ, और आप वही हैं न, वही भोपाल वाले?" कहा मैंने,
और गले लिपट गए मेरे वो!
मेरे जानकार थे! एक समय हम हमेशा साथ ही रहा करते थे दक्षिण भारत में! संग संग ही सीखे थे कुछ विद्याएँ! उसके बाद रास्ते अलग हो गए हमारे! शैलेष नाम था उनका!
"आओ यार! बरसों बाद मिले! कोई आठ बरस तो हो गए?" बोले वो!
"हाँ!" कहा मैंने, "आओ!" बोले वो!
और मैं चला उनके संग! अब बहुत सी बातें हुईं! उनके गुरु के बारे में, मेरे श्री श्री श्री के बारे में! यहां की, वहाँ की! और न जाने क्या क्या!
तो साहब, हमने आठ बरस का वो रिक्त-स्थान एक ही घंटे में भर लिया! अब था क्या! बन गया हुड़क का कार्यक्रम! शर्मा जी के बारे में जानते थे वो! मैं ले आया उनको अपने संग! मिले शर्मा जी से, पहचाने और हो गए खुश! उनको बिठाया मैंने, और मैं चला फिर बाहर, मुझे उत्तमा को देखना था, तबीयत कैसी है उसकी, ये जानना था! उसके कमरे में पहुंचा, तो नहीं थी उत्तमा वहाँ, बैठा मैं,
"कहाँ है?" पूछा सीमा से मैंने!
"उल्टियाँ कर रही है" बोली वो,
"कब से?" पूछा मैंने,
"बार बार, कोई एक घंटे से" बोली वो,
मैं भागा गुसलखाने की तरफ,
मैंने उसक कमर पर हाथ फेरा, और हिम्मत बढ़ाई उसकी, फिर उसने कुल्ला किया, मुंह पोंछा और मेरे सीने से सर लगा लिया!
"चलो मेरे साथ" मैंने कहा, .
"कहाँ?" मरी सी आवाज़ में बोली वो,
"किसी चिकित्सक के पास" कहा मैंने,
"कल चलें?" बोली वो,
"नहीं, अभी चलो" कहा मैंने,
और कपड़े पहनाये उसको, ढक दिया पूरी तरह से, ऊनी टोपी भी पहना दी, अपना मफलर भी बाँध दिया गले में,और उसको संग ले, मैं चला बाहर! सवारी ली, और उसी से पूछ लिया चिकित्सक के बारे में, वो सवारी वाला, भला आदमी था, एक बढ़िया नर्सिंग-होम ले आया,अब उसका परीक्षण करवाया, मौसमी बुखार ही बताया चिकित्सक ने, और आवश्यक दवाएं दे दी, और मैं उसको ऐसे ही, ले आया, उसी सवारी में, कुल समय लगा कोई सवा घंटा!
आया लेकर उसको कमरे में, लिटा दिया! और सीमा से पानी लाने को कहा, पानी आया, तो दवा दी उसको मैंने अब, दवा खायी उसने, और फिर लिटा दिया उसको!
"सीमा, इसको कुछ खिला देना, भूखे पेट नहीं सोने देना इसको!" कहा मैंने,
उसने हामी भरी!
"और उत्तमा! हिम्मत रखो! ठीक हो जाओगी!" कहा मैंने!
और उसके माथे पर हाथ फेरा!
मेरा सीधा हाथ वो अपने दोनों हाथों में बांधे, जकड़े रही!
"बीमार अच्छी नहीं लगती तुम!" कहा मैंने,
मुस्करा गयी! गुलाबी होंठ, और गुलाबी हो गए!
"सीमा, रात को सोने से पहले, एक बार और दवा खिला देना" कहा मैंने,
"जी" बोली वो!
"अब चलता हूँ, आराम से सो जाओ" कहा मैंने!
मेरा हाथ नहीं छोड़े वो! मैं बार बार समझाऊं!
भोपाल वालों का हवाला दूँ! नहीं छोड़े वो!
"उत्तमा! कोई ज़रूरत हो तो बुला लेना मुझे! आ जाऊँगा!" कहा मैंने!
तब कहीं जाकर, उसके तपते हाथों से मेरा हाथ छूटा!
उसको निहारते हुए,
बालों में उंगलियां फिराते हुए,
माथे पर हाथ फिराते हुए,
मैं चला वापिस फिर!
आया कमरे में अपने!
और बता दिया कि कहाँ गया था मैं!
"दवा दिला दी न?" बोले शर्मा जी,
"हाँ, दिला दी" बोला मैं,
"वायरल है?" बोले वो,
"हाँ, वायरल ही है" कहा मैंने,
"हो जायेगी ठीक" बोले वो,
"हाँ, लेकिन हालत पतली यही बेचारी की!" कहा मैंने!
"अब दवा खायेगी तो ठीक हो जायेगी!" बोले वो!
"हाँ" कहा मैंने,
और फिर हमने किया अपन कार्यक्रम शुरू!
"और वो, रूद्र नाथ कहाँ हैं?" पूछा शैलेष ने!
"वो! वो गोरखपुर में ही हैं!" कहा मैंने!
"ठीक हैं?" पूछा,
"हाँ!" मैंने कहा,
"बढ़िया आदमी हैं!" बोले वो!
"हाँ, वैसे ही हैं आज तक!" कहा मैंने,
"और वो, मेहुल?" बोले वो,
"मेहुल?" मैंने सोचा ज़रा!
अरे वही, मेहुल चंद्रा!" बोले वो!
"अच्छा! अच्छा! हाँ, ब्याह हो गया उसका, कोई पांच बरस पहले!" कहा मैंने,
"अच्छा !" बोले वो!
"कहाँ है?" पूछा,
"कोलकाता में है" मैंने कहा,
"मुझसे देर हो गयी!" बोले वो!
"जानता हूँ!" कहा मैंने,
"मुझे दुःख हुआ बहुत, लेकिन क्या करता!" बोले वो,
"आप कह ही न सके!" कहा मैंने!
"हाँ, नहीं कह सका!" बोले वो!
"ब्याह किया आपने?" पूछा मैंने,
"नहीं" बोले वो!
"क्यों?" पूछा मैंने,
कोई जवाब नहीं!
मैंने भी नहीं पूछा फिर!
"खैर छोड़ो!" बोले वो!
मैंने तो कहा ही नहीं था कुछ भी!
"और यहां कैसे आप?" पूछा उन्होंने,
"गया था कहीं, यहीं ठहर गया फिर" कहा मैंने,
"अच्छा !" बोले वो!
"और आप?" पूछा मैंने,
"कल पोखरा जाना है!" बोले वो!
"अच्छा! रास्ते खुले हैं?" पूछा मैंने,
"हाँ, बता तो रहे हैं" कहा उन्होंने,
"फिर ठीक है" कहा मैंने,
और तभी बत्ती गुल!
हो गया अन्धकार! शर्मा जी ने अपना लाइटर जला लिया! और ढूंढने लगे मोमबत्ती! तो वो रात तो हमने बातचीत और हंसी-मज़ाक में काट दी! देर रात सोये! सर्दी में, कमरे में सुलगती अंगीठी बहुत सुकून दे रही थी! नहीं तो रजाई भी ठंडी पड़ने लगती थी! कंबल में तो ठंड घुस ही जाया करती थी! अंगीठी पर ही, हम हाथ-पाँव भी ताप लिया करते थे, यदि पानी में हाथ ही डालना पड़े तो! हाथ डालते ही लगता था हाथ गया काम से! उखाड़ दिया है किसीने! काट डाला है एक ही वार में! गरम पानी न होता तो सच में,खोपड़ा भी जम जाता और हड्डियां कड़क कड़क कर, चटक जातीं! और खाल तो शायद पानी में ही बह जाती! भला हो शरण का, जो अंगीठी जला देता था! तो हम जब सुबह उठे, तो मौसम भयानक था! स्याह अँधेरा था और धुंध भयानक थी! लगता था जैसे शहर से संबंध ही कट गया है हमारा तो! बत्तियां जल तो रही थीं, लेकिन मोमबत्ती की तरह! बेचारे श्वान भी को छिपाए पड़े थे! सर्दी इन उन्हें भी त्रस्त कर रखा था! कहिर, हमने हाथ-मुंह धो लिए थे, और बिस्तर में जा घुसे थे!
"क्या बजा?" बोले शर्मा जी,
"साढ़े सात हुए हैं" कहा मैंने,
"बहन* *! शाम के साढ़े सात से लग रहे हैं!" बोले वो!
मेरी हंसी छूटी!
"अब इसमें मौसम का क्या कुसूर! गाली ठोक दी सुबह सुबह!" कहा मैंने!
"यहां ओले-गोले सब सुन्न पड़े हैं और आप मौसम की तरफदारी कर रहे हो!" बोले हंस के!
अब मेरी हंसी और छूटी!
बात तो सही ही कही थी!
सुन्न तो पड़ा ही था सबकुछ! ठंड ने ऐसा हाल कर रखा था कि बस पूछो ही मत!
"चाय नहीं लाया अभी तक?" बोले वो!
"ले आएगा अभी!" कहा मैंने,
"आज तो ज़्यादा ही ठंड है!" बोले वो!
"हाँ, लगता है रात को बारिश हुई है!" कहा मैंने,
"ये साली ठंड मार के छोड़ेगी!" बोले वो!
"अब करें क्या?" मैंने पूछा,
"कुछ नहीं, बस घुसे रहो बिस्तर में!" बोले वो!
और तभी दरवाज़ा खुला! शरण अंदर आया!
"आजा यार! आज तो सर्दी कमरे में भी घुस गयी!" बोले वो!
"आज बहुत जाड़ा है!" बोला वो!
"हाँ, बहुत जाड़ा है!" बोले शर्मा जी!
चाय दे दी उसने हमें! हमने ले ली! गरम गरम स्टील के गिलास क्या सुख दें! बता नहीं सकता!
"अरे भैय्या नेपाली?" बोले शर्मा जी!
"हाँ बाबू जी?" बोला वो!
"ये ठंड मादर** कब तक पड़ेगी ऐसे?" पूछा उन्होंने!
हंस पड़ा शरण! खिलखिलाकर हंसा!
आँखें छोटी हो गयीं उसकी! दिखाई ही न दें!
"अभी तो और पड़ेगा!" बोला वो!
"और पड़ेगा?" बोले शर्मा जी! हैरत से!
"हाँ, और पड़ेगा!" बोला वो!
"भाई,तू कैसे रहता है, क्या जड़ी-बूटी खाता है? ज़रा बता दे यार? नहीं तो ये ठंड यहीं जमा देगी हमें तो!" बोले वो!
"कोई बूटी नहीं लेता! रात को लेता है बस!" बोला वो!
"अबे वो तो हम भी लेते हैं!" बोले शर्मा जी!
"आप अंग्रेजी लेता है! हम देसी लेता है, फरक पड़ता है!" बोला वो!
"तो यार आज देसी ही ले आ?" बोले वो!
"अभी?" बोला वो,
"अरे शाम को!" बोले वो!
"ले आएगा!" बोला वो!
और फिर और चाय डाल दी उसने!
साथ में ब्रेड लाया था, वहीं खाए! सिके हुए थे! बढ़िया लगे! बंद की तरह से! जब जाने लगा वो तो मैंने रोक लिया!
"सुन?" कहा मैंने,
"हाँ जी?" बोला झुकते हुए!
"ये ले!" कहा मैंने,
और जेब से एक पांच सौ का नोट दे दिया उसको!
"अरे नहीं बाबू जी! नहीं नहीं!" बोला वो!
"रख ले! रख ले!" कहा मैंने,
"नहीं नहीं!" बोला वो!
"अरे रख ले, इतना काम करता है यार तू!" कहा शर्मा जी ने!
"वो तो फ़र्ज़ है हमारा!" बोला वो!
"रख ले, बालक खा लेंगे कुछ!" कहा शर्मा जी ने!
बड़ी न-नुकुर के बाद, उसने पैसे लिए! चला गया फिर बाहर! जेब में खोंसते हुए उन पैसों को!
"भला आदमी है बेचारा!" बोले शर्मा जी!
"हाँ! भला है बहुत!" बोला मैं!
और फिर मैं उठा! जैकेट पहनी, जूते पहने और चला बाहर! पहुंचा उत्तमा के कमरे में, दरवाज़ा खुलवाया, तो चाय पी रही थी उत्तमा! बैठा वहां,
"और? अब तबीयत कैसी है?" पूछा मैंने, "अब ठीक हँ" बोली वो, "फिर उलटी तो नहीं आई?" पूछा मैंने,
"नहीं, फिर नहीं आई, जी तो कर रहा था" बोली वो,
"वो मितली का मन होगा?" पूछा मैंने,
"हाँ!" बोली वो!
"हाथ दिखाओ" कहा मैंने,
कलाई पकड़ी उसकी, बुखार तो था, लेकिन अब कम था! मुस्कुरा गयी वो! सीमा बाहर चली गयी, कुछ बर्तन लेकर!
"ऐसे मुस्कुराते हुए अच्छी लगती हो!" कहा मैंने!
मुस्कुराती रही! उसके दायें गाल पर झूल रही एक अलमस्त सी लट को, कान के पीछे खोंस दिया मैंने!
"आज बात करूंगा मैं कजरी से!" कहा मैंने!
चेहरे पर प्रसन्नता!
बदन में फुलझड़ियाँ!
त्वचा में लालिमा!
इतना सुनते ही, मुस्कुरा पड़ी, एक अलग ही अंदाज़ से!
"वैसे एक बात है!" कहा मैंने,
"क्या?" बोली वो,
"ज़िद्दी हो तुम!" कहा मैंने,
मुस्कुरा पड़ी फिर से!
"और कुछ नहीं तो बुखार कर लिया!" कहा मैंने,
"मैंने नहीं किया!" बोली वो!
"अब दवा खाओ और ठीक हो जाओ जल्दी!" कहा मैंने,
"जल्दी क्यों?" पूछा उसने!
"मुझे जाना भी तो है वापिस?" कहा मैंने,
"ओह.......हाँ.....हमेशा की तरह............." बोली वो!
"हाँ, हमेशा की तरह! और हमेशा की तरह, आता भी हूँ!" कहा मैंने!
चाय पीली उसने, मैंने गिलास रख दिया मेज़ पर, उस से लेकर!
"कुछ खाया?" पूछा मैंने,
"हाँ" बोली वो,
"क्या?" पूछा मैंने,
"ब्रेड" बोली वो,
"ठीक किया" कहा मैंने,
फिर तकिया हटा लिया पीछे से, घुटनों पर रख लिया!
"आज ज़रा सविता के पास जाना है मुझे" कहा मैंने,
"किसलिए?" उसने पूछा!
त्यौरियां चढ़ाते हुए!
मैंने ऊँगली से त्यौरियां ठीक की उसकी!
"किसलिए?" पूछा उसने!
"मिलना है उस से!" कहा मैंने
"उसको पता है?" बोली वो,
"क्या? कि मैं यहां हूँ?" बोला मैं!
"हाँ?" बोली वो!
"हाँ पता है! फ़ोन पर बताया था उसको!" बोला मैं!
हाँ पुरानी जान-पहचान जो है!" बोली वो!
"हाँ, यही बात है!" कहा मैंने,
"कब जाओगे?" बोली वो,
"कोई एक घंटे के बाद" कहा मैंने,
"मैं चलूँ?" बोली वो!
"दिमाग सही है तुम्हारा? ठंड है बाहर बहुत! बिस्तर में आराम करो, समझी?" बोला मैं, ज़रा ज़ोर से!
"नहीं ले जाना तो साफ़ मना कर दो?" बोली वो,
"हाँ, नहीं ले जाना! बस?" कहा मैंने,
"जाओ फिर!" बोली गुस्से से,
लेटी और रजाई मुंह पर कर ली!
मैं मंद-मंद मुस्कुरा उठा!
न मैं कुछ बोला, और न उसने ही कुछ कहा! न ही रजाई हटाई अपने मुंह से, बुखार में थी और गुस्सा उस से भी ज़्यादा! कुछ कहना भी सही नहीं था, इसीलिए मैं बाहर चला आया, दरवाज़ा भेड़ दिया था वापिस जाते हुए! मैं गया तोसीमा मिली, बर्तन धोकर ला रही थी, उस से भी बात नहीं हुई और मैं सीधा अपने कमरे में चला आया! कमरे में आया तो शैलेष वहीं मिले, वो जाने वाले थे, विदा लेने आये थे, अब पता नहीं कब मुलाकात होती उनसे! मैं मिला और वे विदा हुए फिर! मैं बैठ गया वहीं कुर्सी पर,
"अब ठीक है वो?" पूछा शर्मा जी ने,
"हाँ, अब तेज़ नहीं है बुखार" कहा मैंने,
"चलो ठीक है" बोले वो,
"हाँ, आज शाम तक ठीक हो जानी चाहिए" कहा मैंने,
"हो जायेगी!" बोले वो!
"अच्छा होगा!" कहा मैंने,
"अच्छा, चलना है, वहाँ सविता के पास?" पूछा उन्होंने,
"हाँ, चलना तो है" बोला मैं,
"कब?" पूछा, "चलते हैं बस!" कहा मैंने,
"मैं तैयार हो जाता हूँ" बोले वो,
"हाँ, हो जाओ" कहा मैंने,
और फिर वे उठे, और लगे कपड़े पहनने!
और कोई दस मिनट में, हो गए तैयार!
"चलिए" बोले वो,
"चलो" कहा मैंने,
कमरे को लगाया ताला हमने, और चाबी दी संचालक को, और चले हम बाहर, सर्दी तो थीबहुत लेकिन करते भी क्या! हाथ में कुछ नहीं था!
बाहर से, सवारी ली, और चले हम फिर, मैंने बताया था आपको, नेपाल में छोटी सी वैन चला करती हैं, सामुराई नाम की, ये सब चीन की हैं, न बैठे बने, और न खड़े होते बने! मेरे जैसे कद वाले के लिए तो डिब्बा सा हैं ये सब! घुटने फंस जाते हैं, टांगें अकड़ जाया करती हैं। किसी तरह से बैठा मैं, और हम चल पड़े थे! करीब आधा घंटा लगा, और आ गए हम सविता के पास! वहाँ पहुंचे, सविता के बड़े भाई एक बहत ही प्रख्यात औघड़ हैं! बाबा ज्वाला नाथ! करीब पचपन वर्ष के हैं, और काशी में धूम है उनकी! यक्षिणी-साधना में निपुण हैं ! मेरे बहुत निकट हैं, मुझे भाई समान ही समझते हैं! और मदद के लिए, हमेशा ही तैयार रहते हैं!
तो हम पहुँच गए थे! अंदर गए, तो पता चला कि बाबा ज्वाला नाथ बाहर गए हैं, कहीं त्रिपुरा में, हाँ, सविता थी वहां! वही मिली हमें! सविता बेहद सुशील और व्यवहार-कुशल है! बाबा ज्वाला नाथ ने कई विद्याओं में पारंगत किया है उसे! आयु में अड़तीस या चालीस वर्ष की होगी, मेरी साध्वी रही है वो, और वो भी प्रबल साध्वी! आज कोई दो बरस के बाद मिल रहा था उस से! मुझे देखा उसने तो भागी भागी आई मेरे पास! गले लगी! और भींच लिया मुझे! शर्मा जी से नमस्कार हुई उसकी! हमें बिठाया उसने! और चाय मंगवा ली! हाल-चाल पूछा और फिर चाय भी पी हमने, नेपाल आने का औचित्य भी बता दिया! भोजन भी कर लिया था संग ही संग! मेरी साधनाओं के विषय में भी पूछा उसने और अपने बारे में भी बताया! उत्तमा के विषय में भी पूछा उसने! हम करीब दो घंटे रहे उसके पास, और जब वापिस हुए, तो अश्रुपूर्ण विदाई दी सविता ने! मेरा मन भी भारी हुआ, लेकिन पचा गया मैं वो भारीपन! खैर, हम वापिस हुए! और आ गए अपनी जगह ही! मैं सीधा गया उत्तमा के पास! बैठी थी अकेली! मुझे देखा, तो शक की निगाह से देखा उसने मुझे!
