जट्ट! वही था! उस से मिला और हम गाड़ी में बैठ गए! ये बढ़िया हुआ था उसने छोड़ दिया हमें बाबा वसु के डेरे पर! डेरा था, जैसे कोई टूरिस्ट-रिसोर्ट! रंग-बिरंगा! नीचे सफेद सफ़ेद गोल गोल, छोटे छोटे पत्थर पड़े थे! डेरा कम, और कोई बौद्ध-मठ अधिक लगता था! एक साल में ही, कायाकल्प हो गयी थी! हमने फाटक पर परिचय दिया तो प्रवेश मिला! अंदर गए, और पूछा एक आदमी से, उसने इशारा करके, बता दिया कि उस तरफ! हम चल पड़े वहीं के लिए फिर!
जगह बहुत ही सुंदर थी वो! हर तरफ फूल ही फूल! ताज़ा घास और नीम्बू-घास भी लगी हुई थी! ख़ुश्बू फैली थी उसकी! इसकी खुशबु बिलकुल नीम्बू जैसी ही होती है! अक्सर चाय बना करती है इसकी! चाय ज़ायकेदार और वानस्पतिक गुणों से भरपूर होती है! स्वाद अलग ही! उसी की खुश्बू फैली थी! हरे-भरे पेड़ लगे थे! कुल मिलाकर, जन्नत के बाग़ जैसा था वहाँ का वो दृश्य! बड़े बड़े केली के पत्तों में, उसके लाल और पीले फूलों में ओस की बूंदें मोतियों समान चमक रहे थे! या नमी के कारण वो बँदें बनी थीं! प्रकृति के सौंदर्य से बड़ा और कोई सौंदर्य नहीं! ये स्पष्ट रूप से यहां दीखता था! हम आ गए एक ज यहां कक्ष बने थे, लेकिन कोई था नहीं, सभी शायद सर्दी के मारे अंदर दुबके बैठे थे! मुझे यहां एक व्यक्ति को ढूंढना था, हरिहर को, वही था जो हमें मिलवा सकता था कजरी से, तभी एक औरत दिखी मुझे, मैंने उसको ही रोक कर पूछा हरिहर के बारे में, तो उसने एक कक्ष की ओर इशारा किया, मैं वहीं की तरफ चला फिर, और एक दरवाज़े पर दस्तक दी, एक बार, दो बार, दरवाज़ा खुला, तो एक अनजान सा व्यक्ति बाहर आया, पूछा उस से, वो अंदर ले गया हमें,और बिठाया एक जगह, वहां बैठने की व्यवस्था थी, हम बैठ गए, थोड़ी देर में ही हरिहर भी आ गया! हमें देखा तो खुश! पानी मंगवाया, चाय के लिए कहा और बैठ गया हमारे साथ! हालचाल पूछ ही लिया था!
"सीधा दिल्ली से ही आ रहे हो?" पूछा उसने,
"नहीं, पहले गोरखपुर आया था" कहा मैंने,
"शम्भू बाबा के पास?" पूछा उसने,
"हाँ" कहा मैंने, "कैसे हैं वो?" बोला वो,
"बढ़िया है, आँखों का ऑपरेशन करवाया है, वैसे अब ठीक हैं" कहा मैंने,
"और सुनाओ, कैसे आना हुआ?" बोला वो,
तब तक चाय आ गयी थी, स्टील के छोटे गिलासों में, हाथ में ली, तो गरम स्टील ने अपनी गर्मी से बड़ी राहत दी!
"वो, हमें कजरी से मिलना है" कहा मैंने,
"अच्छा, हाँ, यहीं है" बोला वो,
"और बाबा कहाँ हैं?" पूछा मैंने,
"वो गए हुए हैं" बोला वो, "कहाँ?" पूछा मैंने,
"असम में" बोला वो,
"अच्छा" कहा मैंने,
चाय पी ली थी हमने!
उसने आवाज़ दी, तो एक प्रौढ़ सा व्यक्ति आया, उस से हरिहर ने कहा की हमें मिलवा दें कजरी से! हम उठ लिए और चल पड़े उस व्यक्ति के साथ, ले चला हमें वहाँ से भी आगे, एक खुलासा स्थान पर किया, और एक जगह लाया, जहां मानसरोवर के बड़े बड़े पौधे लगे थे! एक एक पत्ता, मेरे बराबर सा! वो पार किया तो फिर से कक्ष मिले, और इस तरह एक कक्ष के सामने जाकर रुक गए हम! उसने ठहरने को कहा, तो हम ठहर गए!
अब वो गया कमरे तक, कुण्डी खटखटाई उसने, और तभी दरवाज़ा खुला, एक लड़की बाहर आई, उस लड़की से बात हुई उसकी, और फिर हमें देखा, इशारा किया और हम चले उस तरफ! और कक्ष के अंदर घुस गए, यहां भी बैठने की एक छोटी सी बैठक थी, वहीं बैठ गए हम! शायद अंगीठी जल रही थी वहाँ, इसीलिए राहत थी ठंड से वहाँ!
थोड़ी देर बाद, वो लड़की आई, और कुछ इंतज़ार करने को कहा, उसके बाद, वो प्रौढ़ व्यक्ति, चला गया वहां से! वो लड़की पानी ले आई, पानी तो पी ही लिया था हरिहर के यहां, इसीलिए नहीं पिया हमने! उस बैठक की पुताई पीले रंग की थी, छत पर कड़ियाँ लगी थीं, वो सफेद रंग से पोती गयी थीं, अच्छा लगा रहा था वो रंगों का मिलान!
और उसके कुछ देर बाद ही, कजरी ने प्रवेश किया! मैं खड़ा हुआ, और फिर सभी खड़े हो गए! उत्तमा तो हाथ जोड़े ही रह गयी! बाबा अपलक देखे जाएँ, शर्मा जी की नज़र न हटे!
"बैठिये!" बोली कजरी!
मित्रगण!
ज्यों ज्यों कजरी की उम्र बढ़ रही थी, त्यों त्यों रूप निखर रहा था उसका! गोरा-चिट्टा बदन, एक शिकन नहीं चेहरे पर, कोई झाई नहीं, कोई निशान नहीं, कोई स्याह धब्बा नहीं, कहीं चर्बी का नाम नहीं, अंगप्रत्यंग जैसे किसी कशल मूर्तिकार ने मर्त रूप दिया हो! आँखें ऐसी, कि जो देखे एक बार, उन्ही आँखों का हो कर रह जाए! देह ऐसी, कि नज़र चिपक जाए! उम ऐसी कि जैसे अभी यौवन-अवस्था में प्रवेश किया हो! हाथों की उंगलियां ऐसी जैसे किसी माहिर नक्काशने नक्श की हों! वक्ष-स्थल ऐसासुडौल कि जैसे स्वयं रतिश्रृंगार करती हों उसका! और देख-रेख का जिम्मा खुद ने ले रखा हो! इस उम तक, केश में भी चांदीआने लगती हैं, कानों के पास की लहरें, उम्र का पता दे दिया करती हैं ! लेकिन यहां तो केश ऐसे काले थे, कि कालापन भी स्वयं हार मान ले! होंठ ऐसे, जैसे, सुल्तान गुलाब की खींची हुईं गुलाबी पंखुड़ियाँ! नितम्ब, जंघाएँ और पिंडलियों के उभार ऐसे, कि तिलोत्तमा भी एक बार को निहारती रह जाए! और डाह कर ले उसके
रूप से! अधिक से अधिक बीस बरस की सी लग रही थी, लेकिन अपने जीवन के चालीस बसंत देख चुकी थी कजरी! और जैसे बसंत पूर्ण रूप से बस गया हो उसकी देह में!
"कैसी हैं आप?" पूछा मैंने,
"कुशल से हूँ, आप?" बोली वो,
आवाज़ भी ऐसी, जैसे कामाग्नि से कोई नव-यौवना अपने पांवों में आई ऐंठन को छिपा न पाये! लरजती हुई सी कामुक आवाज़!
अब परिचय दिया मैंने उसे सभी का!
सबसे अधिक तो उत्तमा चकित थी! फिर बाबा! और शर्मा जी, जैसे गुरुत्वरहित हो गए थे उसके रूप से! फिर मैंने प्रयोजन बताया उसको कि बाबा ऋषभ और उत्तमा मिलना चाहते थे उस से तो उसने प्रसन्नता ज़ाहिर की!
तभी वो लड़की चाय ले आई, साथ में कुछ नमकीन भी, नेपाली नमकीन! स्वाद में भी बढ़िया था, लेकिन मिर्चों में तोअव्वल थी! चाय भी मिर्च का काढ़ा ही लगे, ऐसी तेज!
"अच्छा, वो फाल्गुनी कैसी है?" पूछा मैंने,
"अच्छी है!" बोली वो,
"कहाँ है?" पूछा मैंने,
"पोखरा गयी है" बोली वो,
"अच्छा, पिताजी के पास!" कहा मैंने,
"हाँ, वहीं है, अगले माह आये तो आये" बोली वो!
फाल्गुनी एक बार मेरी साधिका बनी थी, एक महासिद्धि में, उसने मेरा भरपूर सहयोग किया था! मैं आज तलक ऋणी हूँ उस साधिका का! बदल में, कुछ नहीं लिया था उसने! ये ऋण आज तक, वैसा का वैसा ही है! मिल जाती, तो मिलकर, प्रसन्नता होती मुझे! फिर कुछ और भी बातें हुईं हमारे बीच!
और फिर बाबा ऋषभ नाथ ने उस कजरी की कहानी सुनने की गुजारिश की, जिसके संग उस विद्याधर महाशुण्ड ने, बाइस बरस गुजारे थे! जहाँ आयु-स्तम्भन किया था उस कजरी का, वहीं उसको हर कष्ट से जैसे मुक्ति ही दिला दी थी! विद्याधर महाशुण्ड, आज भी नित्य ही, मिलता है उस से, स्वयं ही श्रृंगार करता है उसका! उसका वो श्रृंगार रूप देखने को मैं भी लालायित था! काश, कि मान जाए कजरी मेरे इस इच्छारूपी प्रस्ताव को!
कजरी ने कुछ समय लिया, बाबा ऋषभ को बताने से पहले, और फिर दो दिन बाद का समय दे दिया, उसको आना था पशुपतिनाथ, तभी वो सुना देती अपनी कहानी, उस
बाइस बरसों की! और सबसे अहम ये, कि आरम्भ कैसे हुई वो कहानी! हमने धन्यवाद किया कजरी का! कि वो सहर्ष तैयार हो गयी थी और उसके बाद, अपना नंबर देकर, हम आ गए वापिस वहाँ से!
रास्ते भर, उत्तमा को जैसे सदमा सा बैठ रहा! बाबा ऋषभ न जाने कहाँ खोये रहे और शर्मा जी, वे बहुत चकित थे! क्या ऐसा भी सम्भव है? और र वापिस अपनी ही जगह! सर्दी के मारे हाल खराब था हमारा! हम तो सीधा ही रजाई में जा घुसे! शरण को कह दिया था कि चाय बना लाये फटाफट!
"हैरत की बात है!" बोले शर्मा जी!
"मैंने बताया था न?" कहा मैंने,
"हाँ, देखा तो यक़ीन हुआ" बोले वो,
"है न वैसा ही रूप?" कहा मैंने,
"हाँ, विद्याधरी सरीखा रूप!" बोले वो!
"ये सब उस महाशुण्ड का ही कमाल है!" बोला मैं,
"आयु स्तम्भित हो गयी!" बोले वो,
"हाँ, आयु-स्तम्भन विद्या से!" कहा मैंने,
"हाँ, मान गया मैं!" बोले वो,
"जब मैंने पहली बार देखा था, तो मैं भी ऐसे ही चकित था!" कहा मैंने,
"हुए होंगे!" बोले वो!
"जैसा और जब, देखा था उस महाशुण्ड ने कजरी को, वैसा ही आज तक बना के रखा है!" कहा मैंने,
"साफ़ दीखता है!" बोले वो!
"स्त्री-सौंदर्य की पराकाष्ठा, वो भी मानव-स्त्री में!" कहा मैंने,
"हाँ!" बोले वो! तभी शरण आया! और दे दी चाय हमें! साथ में कुछ गरमागरम पकौड़ियाँ लाया था! मजा बाँध दिया था उसने उस समय!
"ये बढ़िया किया भाई तूने!" शर्मा जी बोले!
मुस्कुराया! नाक पोंछी अंगोछे से, कंबल ठीक किया, और चाय डाली और चला गया वापिस! अभी चाय की चुस्कियां ले ही रहे थे कि उत्तमा आ गयी वहाँ!
"आओ उत्तमा!" कहा मैंने,
कुछ न बोली, बैठ गयी!
"चाय पियोगी?" पूछा मैंने,
"नहीं" बोली, मिमियाती हुई सी आवाज़ में!
"क्या बात है? परेशान हो क्या?" बोला मैं,
"नहीं तो?" बोली वो,
"तो, जान कैसे निकली पड़ी है?" पूछा मैंने,
"सच कहा था आपने, कजरी सच में बहुत सुंदर है!" बोली वो!
"हाँ, बहुत सुंदर है!" कहा मैंने,
"उस विद्याधर का नाम क्या है?" पूछा उसने,
"महाशुण्ड!" कहा मैंने,
"महाशुण्ड" बोली हल्के से,
अपने चेहरे पर ठीके हाथ की तर्जनी ऊँगली से, अपने बाएं गाल को थपथपाते हुए!
"क्या करना है?" पूछा मैंने,
"मतलब?" बोली वो!
"पटाना है महाशुण्ड को!" कहा मैंने हँसते हुए!
मुस्कुरा गयी! "ऐसा सम्भव है क्या?" पूछा उसने! मज़ाक में ही!
"कम से कम, महाशुण्ड तो नहीं अब!" कहा मैंने,
दिल में ढोल सा फट गया बजते बजते उत्तमा के! "जैसी हो, वैसी ही बहुत सुंदर हो तुम!" कहा मैंने, कुछ न बोली, शायद सुना ही नहीं! खोयी रही अपने ही ख़यालों में!
"सुन रही हो?" कहा मैंने,
"क्या?" बोली वो,
"कुछ कहा था मैंने?" कहा मैंने,
"क्या कहा था?" पूछा उसने,
"पहले महाशुण्ड से तो विदा लो?" कहा मैंने,
अब मुस्कुराई! और हंसने लगी!
"सुनो उत्तमा!" कहा मैंने, "बोलिए?" बोली वो,
"कुछ अंट-शंट मत करना, समझीं?" कहा मैंने,
"नहीं समझी" बोली वो,
"हम तो चले जाएंगे वापिस, तुम यहीं रहोगी, कहीं पहुँच जाओ कजरी के पास अकेले!" कहा मैंने!
"मैं क्यों जाउंगी?" बोली वो,
"मझे आसार ऐसे ही दिख रहे हैं" कहा मैंने,
"नहीं, मैं नहीं जाउंगी" बोली वो,
"अच्छा करोगी!" कहा मैंने,
लेकिन उत्तमा का मन उलझा हुआ था बहुत, साफ़ साफ़ दीखता था ये, चेहरा बुझ गया था, सुध-बुध जैसे खोने सी लगी थी! साफ़ झलक रहा था!
उठी उत्तमा, और चली गयी बाहर!
"इसकी चिंता देखी?" कहा मैंने शर्मा जी से,
"हाँ, उलझ सी गयी है" बोले वो,
"हाँ, आज जब कजरी के पास थी, तो भी खो गयी थी" कहा मैंने,
"आपने समझा दिया, अब माने या नहीं, वो जाने" बोले वो,
"हाँ, ये तो सही है" कहा मैंने,
उस शाम ठंड और बढ़ गयी! हवा चलने लगी थी बहुत तेज! शाम हुई तो हुड़क लगी! करवाया प्रबंध, और हए हम शुरू! तभी बाबा ऋषभ भी आ गए थे
"आओ बाबा!" कहा मैंने,
बैठ गए संग हमारे ही, एक गिलास और पड़ा था, उसमे भी परोस दी शीत-हरण बूटी! और उठाया अपना अपना गिलास,स्थान-भोग देते ही, मदिरा पर एहसान कर दिया एक बार फिर!
"वाकई में, कजरी, कजरी ही है!" बोले वो,
"आप भी हैरान हो?" कहा मैंने,
"बहुत ज़्यादा!" बोले वो,
"मैं जानता था, इसीलिए बताया था आपको!" बोला मैं!
"ऐसे ही मैंने देखा था एक और स्त्री को!" बोले वो,
"कहाँ?" पूछा मैंने,
"हिमाचल में" बोले वो,
"कोई विद्याधर था?" पूछा मैंने,
"नहीं" बोले वो,
"तो?" पूछा मैंने,
"मुरल!" बोले वो,
"क्या? मुरल?" पूछा मैंने हैरत से!
"हाँ, मुरल ही!" बोले वो!
"मुरल के विषय में बहुत कम ही ज्ञान है आजकल, अल्प-मात्रा में, मुरल को अजंता की गुफाओं में चित्रित एक देवी के रूप में दिखाया गया है, लेकिन मुरल दरअसल असुरों की ही एक दिव्यता प्राप्त प्रजाति है!" मैंने कहा,
"हाँ, वही हैं मुरल!" बोले वो,
"अच्छा! तो कोई मरल कुमार होगा वो!" कहा मैंने,
"हाँ, मुरल कुमार पौणज!" बोले वो!
"अच्छा?" कहा मैंने, "हाँ!" बोले वो,
और झटपट से मैंने अपना दूसरा गिलास खींचा!
"हुआ क्या था?" पूछा मैंने,
"उसको भी आयु-स्तम्भन हुआ था! और शायद आज वो करीब साठ वर्ष की होगी, लेकिन रूप से अभी भी बीस ही लगती है!" बोले वो!
"अच्छा! क्या नाम है उसका?" पूछा मैंने,
"मीता नाम है!" बोले वो, (नाम परिवर्तित है यहां, हाँ, नाम में 'मीता' अवश्य ही आता है)
"क्या मिला जा सकता है?" पूछा मैंने,
"नहीं, अब तो अज्ञातवास करती है, दूर ही रहती है" बोले वो,
"समझ गया, आजकल का ज़माना विज्ञान का है!" कहा मैंने,
"हाँ, इसीलिए" बोले वो, "अच्छा ही करती है" कहा मैंने,
"हाँ, बाबा ने पृथक ही रखा है उसको" बोले वो,
"अच्छा किया" कहा मैंने,
"एक दिन कजरी भी अज्ञातवास में चली जायेगी" बोले वो,
"हाँ, जानता हूँ" कहा मैंने,
मित्रगण!
अभी हमारे बीच संवाद हुआ था मुरल को लेकर! मुरल एक आसुरिक प्रजाति है! बहुत सुंदर और बलशाली हुआ करते हैं ये! ये आसुरिक सहक्तियों में पारंगत और माया में अव्वल हुआ करते हैं! कई बौद्ध-ग्रन्थ ये बताते हैं कि, श्री सिद्धार्थ को मार्ग से हटाने के लिए, एक प्रबल मुरल नृप 'मार' ने अपनी मुरल-सुंदरियों को, और अपनी पुत्रियों को, रिझाने भेजा था! असफल हुईं और कुरूप हो गयी थीं! अन्त में, 'मार' को पराजय का सामना करना पड़ा! अजंता में ऐसी ही कुछ मुरल सुंदरियों के चित्र हैं! आप देख सकते हैं! मुरल के विषय में जो भी ज्ञान आज उपलब्ध है, वो अल्प है! मुरल, मानवों से सम्पर्क करने में, दूर ही रहे हैं! हिमालय में कई मुरल-स्थान हैं, आज भी!
"तो क्या षौणज रीझा था उस पर?" पूछा मैंने,
"नहीं, रीझा नहीं, उसकी असहायता से पसीज गया!" बोले वो,
"मतलब?" पूछा मैंने,
हैरत की बात थी! असहायता? कैसी असहायता?
"मतलब ये, कि जब मीता पैदा हुई, तो नेत्रहीन थी, बाएं बाजू से अपंग थी" बोले वो,
"ओह." कहा मैंने,
"उसकी और भी बहनें थीं, चार भाई भी थे, परन्तु, मीता असहाय सी पड़ी रहती थी, जब कौन ब्याह करता उस से, घर में ही रहती थी, बोज थी बेचारी सभी पर!" बोले वो,
"ओह....बेचारी" कहा मैंने,
"उसकी एक सखी थी, वो ही थी उसकी अपनी, जिस से हंसी-मज़ाक कर लिया करती थी, अपने दिल की बातें कर लिया करती थी, बस वही सखी" बोले वो,
"फिर?" मैंने पूछा,
मेरे मन में तो सारी तस्वीर ही बन गयी थी!
मीता की इस कहने की भी तस्वीर बना ली झट से! "एक बार, जंगल में घूमते समय, नदी किनारे चली जाया करती थीं, नदी की आवाज़ अच्छी लगती थी उन्हें! उस रोज भी सखी के संग थी, पास में ही नदी बहती थी, पता नहीं कैसे, पाँव फिसला, और नीचे फिसल गयी, जा गिरी नदी में, बह चली, सखी चिल्लाये, मदद करने वाला कोई नहीं वहां............" बोले वो,
और गिलास खींचा अपना,
"फिर?" पूछा मैंने! "उसके बाद!" बोले वो,
"क्या हुआ उसके बाद?" पूछा मैंने,
"मीता को होश आया! वो किनारे पर थी! किसी ने उठा रखा था उसे अपनी बाजुओं में! लेकिन देख न सकती थी वो, तो चेहरा टटोला उस बचाने वाले का, अपने सीधे बाजू से, बायां बाजू, मृत सा लटका था! बचाने वाल जान गया कि वो नेत्रहीन है! अपंगता है उसे! फिर क्या था, अगले ही पल, सूरज की रौशनी उसकी आँखों में पड़ गयी! नेत्रहीनता, पल में छू हो गयी! अपंग भुजा, क्षण में ठीक हो गयी!" बोले वो!
ये सुन, मैं बहुत प्रसन्न हुआ!
मन ही मन, आदर उमड़ आया मेरे मन में उस मुरल कुमार षौणज के लिए! उसके लिया क्या असम्भव!
कोई भौतिकता नहीं रोक सकती उसे!
इसी कारण वो ठीक हुई!
"फिर?" पूछा मैंने, "फिर!" बोले वो!
"हाँ, फिर? फिर क्या हुआ?" पूछा मैंने,
"मीता की असहायता उस मुरल कुमार के हृदय को बींध गयी!" बोले वो!
"अच्छा, बींधना ही था!" कहा मैंने,
"मीता घर लौटी, लौटी तो सब हैरान! कैसे हुआ? कैसे सम्भव हुआ? आदि आदि, खबर फैल गयी! जो सुने, दौड़ के आये! जो देखे कलेजा थामे!" बोले वो,
तभी शरण आया अंदर!
सामान आदि दे गया, पानी भी!
और आ गयी फिर वो बेचैन उत्तमा भी!
"आओ उत्तमा!" कहा मैंने,
बैठ गयी! सच मे कोई 'सदमा' सा लग गया था उसे तो!
"क्या हुआ?" पूछा मैंने,
"कुछ नहीं" बोली वो,
"चैन कहाँ छोड़ आयीं?" पूछा मैंने,
"पता नहीं" बोली वो,
"कजरी के पास तो नहीं?" पूछा मैंने!
बिल्ली की सी नज़रों से देखे मुझे!
उठी, और चल दी बाहर!
मैं आवाजें देता रह गया उसको, नहीं रुकी!
शायद बाबा बैठे थे, इसीलिए!
गिलास खींचा! माल खाया!
"हाँ तो फिर?" कहा मैंने,
"फिर क्या, वो लौटा उसके पास! और इस तरह से उसका ख्याल रखता जैसे वो मानव-स्त्री स्वयं ही कोई मुरल कुमारी है! जैसे उसकी अपनी प्रेयसि!" कहा मैंने!
"प्रेम कर बैठा!" कहा मैंने,
"हाँ, प्रेम!" बोले वो,
"समझ गया मैं!" कहा मैंने,
"मीता का सौंदर्य चन्द्र की चढ़ती कलाओं की तरह से चढ़ने लगा! जो देखे, अपना ही न रहे! चर्चा होने लगी! होती भी क्यों न! उस दिन से आज तक,आज तक,रोज लौटता है वो! अपनी प्रेयसि के पास!" बोले वो!
"अद्भुत! सच में अद्भुत!" कहा मैंने!
"हाँ, अद्भुत!" बोले वो, एक लम्बी सी सांस छोड़ते हुए!
वाकई में अद्भुत है ये सब! परी-कथा जैसा लगता है सबकुछ! लेकिन ये सत्य है! कभी कभार, दो भिन्न भिन्न प्रकृति के संसार एक दूसरे से टकरा जाते हैं! ऐसा बहुत ही कम हुआ करता है, एक अरब में शायद एक बार, इतनी ही संभावना रहा करती है! वो मुरल कुमार षौणज, वो रोहन, वो लौहिष, वो वैवर्य और रुपिका, वो बुधवि, इथि! ये ही वो एक अरबवें से पहले थे, जिनके संसार आपस में टकरा गए थे! जितना पता मुझे चला, लिखा दिया करता हूँ, कुछ और भी ऐसे उदाहरण हैं, वे भी लिख दूंगा! ये तो वो हैं, जिन्हे मई जान सका हूँ, अभी भी न जाने कितने ऐसे टकराव अनजान हैं! गुप्त हैं! संग-संग चल रहे हैं! है ने ये सबकुछ अद्भुत! सच में ही अद्भुत! बाबा ऋषभ ने मुझे ऐसे ही टकराव के विषय में बताया था! मैं अक्सर ऐसे विषय में खो जाया करता हूँ! फिर सोचा करता हूँ, कि मनुष्य जीवन आखिर है क्या? सौ वर्ष का जीवन, इसमें से, चालीस वर्ष का समय घटाना ही होगा, बचपन, अल्हड़ता और बुढ़ापा! ये समय, हटा दीजिये, बचा साठ वर्ष, यही साथ वर्ष का जीवन, हाँ! एक बात और, सौ वर्ष का जीवन! आजकल के युग में तो किसी वरदान से कम नहीं! तो साधारण तौर पर, हम इसे सत्तर वर्ष तक ले लेते हैं। तो हमारे पास, जो कर्म-जीवन बचेगा, वो बचेगा पच्चीस या तीस वर्ष! मोटे तौर पर! अब इसी कर्म-जीवन में सबकुछ करना है! शिक्षा, आमदनी, विवाह, संतान, कर्तव्यों का निबाह आदि आदि! कुल मिलाकर, एक घिसीपिटी सी लकीर का फ़क़ीर! यही है न मनुष्य जीवन? तो इसमें, स्व-कल्याण के लिए समय ही कहाँ बचा? कोई समय नहीं बचा! बस, परिस्थितियों
से समझौता करते करते, एक दिन,मृत्यू के सामने, घुटने टेक दिए! और तो और, स्व-कल्याण तो हुआ नहीं, हाँ, सभी दुर्गुणों का भरपूर लाभ उठाया! धोखा दिया, यहां तक कि माता-पिता को भी धोखा दिया! सच को झूठ बनाने के लिए, क्या क्या जतन नहीं किये! उफ़! कैसे काटा जीवन, बस मैं ही जान! तो ये हैं मानव-जीवन! घिसो, पिटो, लड़ो, कमाओ, खाओ, रोगों से लड़ो और एक दिन, हमेशा के लिए सो जाओ! और एक बार फिर से, यही सब दोहराने के लिए, वापिस आ जाओ! देह ही तो बदलेगी! उसमे भी यही, उसी योनि-प्रवृति की तरह से दोहराओ! तो मित्रगण! ये मानव-जीवन सबसे महत्वप आ! कुछ समय निकालिये! ताकि,स्व-कल्याण हो! नहीं तो अकेले हैं, अकेले थे, और अकेले ही रहेंगे! इस चक्र में फंसे हैं, घूमते ही रहेंगे! अपने भविष्य से अनजान! सागर के आती और फ़ना होती लहरों के समान! ये है मानव-जीवन!
और तभी शरण आया अंदर!
कंबल लपेटे हुए, साँसें तेज तेज लेते हए!
"अरे क्या हुआ तुझे?" बोले शर्मा जी, "सर्दी, बारिश पड़ रहा है!" बोला वो!
"बारिश?" बोले वो,
"हाँ, खूब तेज पड़ रहा है!" बोला वो!
मैंने खिड़की का पर्दा हटाया, देखा, तो बारिश हो रही थी! तेज इतनी तो नहीं, लेकिन वैसे तेज थी! भीग जाएँ तो बिस्तर पकड़ लें!
"और कुछ बनाया है क्या?" कहा मैंने, "यही बनाया था, कुछ बनाना है क्या?" बोला वो,
"क्या है?" पूछा मैंने,
"भुजिया चलेगा, अंडे का?" बोला वो,
"अरे वाह! हाँ यार शरण! चलेगा!" कहा मैंने,
"मिर्च कैसा?" बोला वो, "जैसा तू चाहे!" कहा मैंने,
"लाया बस, दस मिनट" बोला वो,
और चला गया! "बताओ, बारिश की कमी थी!" कहा मैंने,
"मार के छोड़ेगी ये ठंड अब!" बोले शर्मा जी,
"यहां तो ऐसा ही होता है" बोले बाबा,
"हाँ, एक बार और फंस गए थे हम यहां" कहा मैंने,
"ठंड तो ज़बरदस्त पड़ती है यहां" बोले बाबा,
"हाँ, इस बार देख लिया!" कहा मैंने,
"अब कल देखना आप!" कहा उन्होंने,
"कल क्या?" पूछा मैंने,
"कल हवा न चली, और धूप न निकली, तो कहर बरपा देगी!" बोले वो!
"ओहो!" कहा मैंने,
"हाँ, देख लेना!" बोले वो!
और तभी आया शरण! गर्मागर्म भुजिया लेकर!
"बढ़िया खुशबु है भाई!" कहा मैंने,
और रख दी वहीं, हटा दिया कपड़ा उस पर से!
भाप उड़ रही थी, और क्या चाहिए, ऐसी बरसात, ऐसी कड़कड़ाती ठंड! और उसमे मदिरा वो भी रम और साथ में गरम भजिया!
"तू लेगा?" शर्मा जी ने बोतल उठाते हुए पूछा शरण से,
"ले रहा है हम, आप लो" बोला वो!
और हँसते हुए, चला गया फिर!
"आदमी काम का है!" बोले बाबा!
"हाँ" मैंने कहा,
"कभी मना नहीं करता किसी भी काम को" शर्मा ही बोले,
"बढ़िया आदमी है" बोले बाबा!
और तब अंदर आई वही हमारी सदमाग्रस्त उत्तमा!
"कहाँ घूम रही हो ऐसी ठंड में?" पूछा मैंने,
कुछ न बोली! बैठ गयी कुर्सी पर, पाँव मोड़कर,
पांवों में ऊनी जुराब पहने थे उसने!
"कंबल दूँ?" पूछा मैंने,
हाथ बढ़ा दिए आगे उसने!
शर्मा जी ने, कंबल दे दिया उसको!
उसने खोला, और ओढ़ लिया!
"बाबा?" कहा मैंने,
"हाँ?" बोले वो,
"भाई हमारी उत्तमा का कुछ करो!" कहा मैंने,
"इसे क्या हुआ?" पूछा बाबा ने!
"जब से कजरी से मिली है, तब से ऐसे ही खामोश है" कहा मैंने,
सर झुका के बैठी थी!
"उत्तमा? बेटी?" बोले बाबा! सर उठाया, बाबा को देखा! ऐसे जैसे शरीर में जान ही न हो!
"क्या हुआ तुझे?" बाबा ने पूछा,
"कुछ नहीं बाबा" बोली वो,
"कुछ तो है, तू ऐसे चुप नहीं बैठती?" बोले बाबा!
"मैंने बताया न आपको?" कहा मैंने,
"उत्तमा, तबीयत ठीक है तेरी?" पूछा बाबा ने,
"हाँ, ठीक है" बोली वो,
"एक काम करो, एक चाय पियो बढ़िया सी, तेज पत्ती की!" कहा मैंने,
"पी ली" बोली वो!
अब तो मुझे भी तरस सा आने लगा था उत्तमा पर!
"उत्तमा?" कहा मैंने,
देखा मुझे, गहन चिंता!
गहन चिंतन!
या फिर अवसाद!
या फिर, आत्म-झंझावत!
यही चल रहा था उसके मन में!
मैं उठा, और चला उसके पास, बैठा कुर्सी पर,
और उसका हाथ पकड़ा,
हाथ पकड़ा, तो गरम था बहुत!
"बुखार है इसे तो?" कहा मैंने,
अब बाबा उठे, उसका माथा देखा,
"हाँ, बहुत तेज बुखार है इसे तो?" बोले वो,
"शर्मा जी, दवा देना ज़रा" कहा मैंने, शर्मा जी उठे, बैग खोला और दवा निकाल ली,
दो गोलियां थीं,
"पानी और दे दो" कहा मैंने,
आधा गिलास पानी दिया उन्होंने!
"लो उत्तमा, दवा खाओ" कहा मैंने,
उसने दवा ली, और खा ली,
"वहां बैठो चलो" कहा मैंने,
अपना सामान हम मेज़ पर ले आये,
"आराम से सो जाओ, अभी उतर जाएगा बुखार, अब आँखें बंद" कहा मैंने,
और उसने आँखें बंद कर ली अपनी, आराम करती, तो उतर जाता बुखार,
"आओ बाबा, बैठो यहां" कहा मैंने,
वो बैठ गए और शर्मा जी ने भी कुर्सी ले ली! थोड़ी देर बाद मैंने उत्तमा का माथा देखा, तपन बढ़ चुकी थी, उसका बुखार बहुत तेज था, होंठ सूख चले थे, और सर्दी के उस मौसम में भी उसकी नाक से आती हुई साँसें, बेहद गरम हो चली थीं, जैसे भट्टीसी लगी हो अंदर, मैंने उसके हाथ छए, ठंडे थे, मैंने हाथ रगड़े उसके, सर्दी के चपेट में आ गयी थी उत्तमा, भोली-भाली सी उत्तमा न जाने किस सोच में उलझी थी, बुखार और कर बैठी थी, अब उसकी चिंता लगी थी,
"बाबा?" कहा मैंने,
"हाँ?" बोले वो,
"दवा तो असर नहीं कर रही, क्या काढ़ा मिल सकता है?" पूछा मैंने,
"पता करता हूँ" बोले वो,
और चले उठके बाहर, कंबल लपेटते हुए,
मैं आ बैठा फिर से उत्तमा के पास,
उसके माथे पर हाथ फिराया,
बाल ठीक किये, पीछे किये,
उसने आँखें खोल दी अपनी!
"सो जाओ" कहा मैंने,
"नींद नहीं आ रही" बोली वो,
"बुखार बहुत तेज है" कहा मैंने,
"कोई बात नहीं" बोली वो,
और उठने लगी, मैंने कंधा पकड़ कर, लिटाया उसको,
"लेटी रहो, अभी काढ़ा मंगवाया है" कहा मैंने,
आँखें बंद कर ली उसने,
और मैं, उसके माथे पर हाथ फिराता रहा, बहुत तेज बुखार था, कोई दस मिनट के बाद, शरण आया एक गिलास लिए, गिलास रुमाल से पकड़ा था उसने,
"मिल गया?" कहा मैंने,
"हाँ, बाबा ने गिलो मिला दिया है" बोला वो,
गिलो, गिलोय का चूर्ण, बुखार में राम-बाण है, मलेरिया और डेंगू में बहुत लाभकारी! गिलोय न मिले, तो पपीते के ताज़ा नरम पत्ते उबाल लें, और रोगी को पिला दें, बुखार भी उतरेगा और शरीर की प्रतिरोधी-क्षमता भी बढ़ेगी!
"उठो उत्तमा?" कहा मैंने,
और वो गिलास, रखा मेज़ पर, कप लिए और डाला उसमे वो काढ़ा, उठ गयी थी वो,
"लो, इसको पियो" कहा मैंने,
और दे दिया उसको, उसने धीरे धीरे चुस्कियां भरते भरते,सारा काढ़ा पी लिया,
"अब कंबल. रजाई ओढो, और सो जाओ" कहा मैंने.
"मुझे कमरे में छोड़ आओ" बोली वो,
"यहीं सो जाओ?" कहा मैंने,
"नहीं, छोड़ आओ" बोली वो,
"चलो फिर" कहा मैंने,
और उसको सहारा दे,मैं छोड़ आया कमरे में उसके!
बाहर, धुंध ही धुंध थी! हाथ को हाथ न दिखाई दे! जूते-चप्पल ऐसे ठंडे, जैसे अभी बर्फ के पानी से निकाले हों! आ गया अपने कमरे में! शरण वहीं था अभी! मैं जा बैठ बिस्तर पर, ठंड ऐसी कि फुरफुरी छूटे!
"यार शरण, कुछ है क्या?" पूछा मैंने,
"है जी" बोला वो,
