बातें करूँ! फिर ले जाऊॅं उसको वापिस! इस स्थान से निकाल कर!
और उसने अपनी आँखें उठायीं ऊपर!
मुझे देखा, पलकें झपकाईं, मैं साँसें थामे, देखता रहा उसको!
"उत्तमा?" कहा मैंने,
नहीं देख मुझे उसने!
"उत्तमा?" कहा मैंने फिर से!
कोई जवाब नहीं!
अब मेरी आवाज़ चिरी गले में, पहले तेज थी,
लेकिन अब, मंद पड़ती जा रही थी! मेरी वो कोंपल मुरझाने लगी थी!
"उत्तमा?" कहा मैंने फिर से,
देखा मुझे, एकटक! मेरी हिम्मत बढ़ी!
"मुझे पहचानती हो?" कहा मैंने,
कुछ न बोले! कुछ भी न बोले!
मैं आगे बढ़ा तो कजरी ने हाथ बढ़ा दिया आगे, रोक दिया मुझे!
मैं रुक गया, लेकिन उत्तमा से नज़रें नहीं हटाईं मैंने!
"उत्तमा!" बोली कजरी!
उत्तमा ने देखा उस कजरी को!
"बता दो इन्हे!" बोली कजरी,
सहमति सी उत्तमा, पलकें झुका बैठी!
"उत्तमा?" कहा मैंने,
अब देखा मुझे उसने! मुझे फिर से उम्मीद बंधी!
"मुझे जानती हो?" कहा मैंने,
"हाँ!" बोली वो,
ओह! मनों बोझ उतर गया सर से! जानती है उत्तमा मुझे!
"नाम क्या है इनका?" पूछा कजरी ने!
अब ना बता दिया उत्तमा ने, मुझे न देखते हुए, बल्कि उस कजरी को देखते हुए!
"उत्तमा?" कहा मैंने,
अब देखा मुझे, और मैं आगे बढ़ा, कजरी ने हाथ बढ़ाया आगे, मैंने हाथ हटाया उसका!
"चलो उत्तमा!" कहा मैंने,
हाथ खींच लिया उत्तमा ने मुझसे, तभी की तभी!
मुझे अब खटका लगा!
"उठता? साथ चलो?" कहा मैंने,
"नहीं!" बोली वो,
ओह! मैं ही गलत था!
क्यों लड़ रहा था मैं उस महाशुण्ड से?
क्यों इस कजरी से?
मूर्ख ही रहा मैं! व्यर्थ ही भिड़ गया था!
अब मेरा क्या मोल?
अब मैं कौन?
"उत्तमा? क्या यही तुम्हारा निर्णय है?" पूछा मैंने,
"हाँ" बोली वो!
अब हंसा मैं! ज़ोर से हंसी आई अपनी मूर्खता पर!
"क्या तुमने छल नहीं किया मुझसे?" पूछा मैंने, हँसते हुए!
न बोली कुछ!
"बोलो न उत्तमा!" कहा मैंने,
नहीं बोली कुछ! चुपचाप खड़ी रही!
"तुम सही थीं कजरी! मैं ही गलत था!" कहा मैंने,
"मैंने पहले ही कहा था!" बोली वो!
"जाता हूँ उत्तमा मैं, जाता हूँ!" कहा मैंने,
और मैं पीछे हुआ! अब नहीं देखा मैंने उत्तमा को!
हाँ, उस महाशुण्ड को देखा! शांत खड़ा था वो, चुपचाप!
मुझे ही देखते हुए! और मैं, मन ही मन रो रहा था!
बाहर से, हँसता जा रहा था! ज़ोर ज़ोर से, और मैं उतर आया ढेरी से!
"उत्तमा?" कहा मैंने,
और फिर से आगे गया!
"तुम भी दासी हो गयीं उत्तमा!" बोला मैं!
और हंसा!
"भौतिकता को चुना तुमने! जो कभी स्थायी नही! ये कजरी, नष्ट तो इसको भी होना है! पल पल इसके लिए भी मृत्यु आगे बढ़ रही है! अछूती तो ये भी नहीं! मुझे अफ़सोस है, मैं शायद तुम्हें समझा नहीं पाया! यही मलाल रहेगा मुझे सर्वदा!" कहा मैंने,
"अब लौट जाओ!" बोली कजरी!
"जाता हूँ कजरी!" कहा मैंने,
"महाशुण्ड! वाह! ये है दिव्यता! ऐसे हनन करते हैं विद्याधर मानवों का अस्तित्व! ऐसे हनन होता है मानवों का विवेक! ऐसी दिव्यता मुझे मेरा ईश, आज के बाद कभी न दिखाए! भले ही मेरे नेत्रों से दृष्टि छीन ले!" कहा मैंने,
अब चुप महाशुण्ड!
कजरी चुप!
"उत्तमा?" बोला मैं,
देखा मुझे!
"अंतिम बार आज तुम्हें देख रहा हूँ, आज के बाद, अपनी मृत्यु तक, मैं कभी नहीं मिलान चाहूंगा तुमसे! मेरा ईश मुझे, तुम्हारे जैसे कच्चे मानव से कभी न मिलाये! उत्तमा! जिस प्रकार भावों का कोई मोल नहीं होता! ठीक वैसे ही प्रेम का कोई मोल नहीं होता! एल पल को ही सही, तुम्हें प्रेम किया था मैंने! प्रेयसि तक कहा था!" कहा मैंने,
"अब जाओ!" बोली कजरी!
"जाता हूँ कजरी, जाता हूँ!" कहा मैंने,
"महाशुण्ड! मैं चाहता, तो तुम्हारी इस कजरी के अभी प्राण हर लेता! लेकिन मैं मानव हूँ!
जिसे मैंने सृजित नहीं किया, उसे मिटाने का भी मेरा कोई अधिकार नहीं! मानव कर्म-फल के तांते से बंधा है, और कजिरी को भी उसकी तांते से जूझना है, एक न एक दिन!" कहा मैंने,
"बस!" बोली कजरी!
"कितनी बड़ी भूल की मैंने!" कहा मैंने,
और हंसी छूटी!
"कितनी बड़ी भूल! विश्वास कर बैठा तुझ पर!" कहा मैंने,
और फिर हंसा!
"और ये! ये जो लोलुप लेटे हुए हैं, इस महाशुण्ड के तलवे चाटने को तैयार हैं! लेकिन मैं! नहीं! कभी नहीं! मैंने ऐसा कभी नहीं सीखा!" कहा मैंने,
"अब जाओ?" बोली खीझ कर!
"जा रहा हूँ!" कहा मैंने,
"उत्तमा?" कहा मैंने,
देखा उसने मुझे!
"बस, मेरे अंतिम शब्द याद रखना! जो लोग, इस पृथ्वी पर अपने निजी सुखों को लिए, स्वर्ग को गिरवी रख देते हैं, उनको कभी सुख प्राप्त नहीं होते! याद रखना उत्तमा! याद रखना!" कहा मैंने,
और मैं पलटा फिर! भीगी आँखें लिए,
उतर आया ढेरी से!
चला सामने!
बस, यहीं तक काम था मेरा!
और मैं, चलता रहा! चलता रहा!
समय तो रुक गया था मेरे लिए!
मन बड़ा ही आहत था मेरा!
मुझे छला गया था! मेरे जी को छला गया था!
आंसू टपके,
और तभी!
तभी!..............
मैं चलता जा ही रहा था, मन में अवसाद लिया, अपनी की गयी भूल का मलाल लिए, इंसान कैसे बदल जाता है क्षण भर में ही! यही सोचता सोचता मैं आगे बढ़ रहा था, पाँव मेरे जैसे पत्थर के बन गए थे, वजन जैसे उठाया नहीं जा रहा था उनसे, मन बहुत खिन्न था मेरा उस समय!
और तभी मुझ आवाज़ आई! उस महाशुण्ड की!
"ठहरो!" वो गरजा पीछे से!
मैंने नहीं देखा पीछे! अब और उपहास नहीं सहन कर सकता था मैं! मैं चलता ही रहा! आगे, बस, सीधा शर्मा जी के पास पहुचना चाहता था, उनको बताता अपना मूर्खतापूर्ण कार्य! अपनी असफलता! बताता उन्हें मैं!
"ठहरो!" आवाज़ फिर से आई!
मैंने नहीं रुका! रुकता भी कैसे!
"ठहरो मानव!" कहा उस महाशुण्ड ने!
मैं रुका, फिर आगे बढ़ गया! जैसे ही मैं उस दीवार तक पहुंचा, जहाँ से बाहर जाने का टास्ता था, अबव यहां कोई रास्ता नहीं था! बंद था वो! जैसे कभी कोई रास्ता हो ही नहीं!
मैं भागा, दीवार को टटोला! हाथों से छुआ! लेकिन कोई रास्ता नहीं! दीवार भी इतनी ऊंची, कि मैं लांघ भी नहीं सकता था उसको, कोई आठ-दस फ़ीट की रही होगी वो, लेकिन उसी रात्रि में, जब हम यहां आये थे, तो एक रास्ता था उसमे, जो अब नहीं था! समझ गया, मुझे रोका जा रहा है! मैं रुक गया! क्या करूँ? विद्या लड़ाऊं? या उस महाशुण्ड से बात करूँ?
"ठहरो मानव!" आवाज़ आई!
और मेरे पीछे प्रकाश कौंधा!
मेरी परछाईं उस दीवार पर पड़ी!
"रुक जाओ मानव!" बोला वो महाशुण्ड!
और मैं पीछे पलटा!
वो अकेला ही था! उसका रूप-रंग बदल गया था! अब किसी राजा के समान उज्जवल सा था! शरीर पर नृप-वेश था! मुझे हैरानी तो हुई, लेकिन जताया नहीं! अब क्या चाहता है ये मुझसे?
वो आगे आया, हवा में ही चलता हुआ!
"मुझे क्यों रोक रहे हो?" कहा मैंने,
"मैं रोक रहा हूँ मानव! हाँ, रोक रहा हूँ!" बोला वो,
"क्यों महाशुण्ड?" कहा मैंने,
"एक प्रस्ताव रखता हूँ, स्वीकार है?" बोला वो,
"कैसा प्रस्ताव?" कहा मैंने,
"उत्तम को ले जाना चाहते हो?" बोला वो,
मुझे एकदम जैसे विद्युतीय आवेश चढ़ा ये सुनकर!
"लेकिन उसने मना कर दिया है!" कहा मैंने,
"मना! मना करवाया गया है!" बोला वो,
क्या? मना करवाया गया है?
"तो मेरी विद्या?" पूछा मैंने,
"उसका छाजन किया था मैंने!" बोला वो, मुस्कुराते हुए!
"अच्छा! छाजन किया था! किसलिए महाशुण्ड?" पूछा मैंने,
"मैं देखना चाहता था तुम्हे!" बोला वो,
"क्या देखा?" पूछा मैंने,
"कर्मठता! हठता! धर्मिता!" बोला वो,
मैं हंसा!
"अब न उपहास उड़ाओ मेरा महाशुण्ड!" कहा मैंने,
"मैंने कोई उपहास नहीं उड़ाया! न मेरी मंशा ही ऐसी!" बोला वो!
"अब प्रस्ताव क्या है?" पूछा मैंने,
""कुछ प्रश्न हैं, किसी मानव ने उत्तर नहीं दिए उनके!" बोला वो,
"कितने मानवों से साक्षात्कार हुआ तुम्हारा?" पूछा मैंने,
"तुमसे पहले चार!" बोला वो,
"प्रश्न क्या हैं?" पूछा मैंने,
मित्रगण! ये जितनी भी योनियाँ हैं, ये साक्षात्कार होने पर, प्रश्न अवश्य ही किया करती हैं! ये इनका नैसर्गिक स्वाभाव है! यक्ष और गान्धर्व तो छूटते ही प्रश्न किया करते हैं! शायद, योग्यता जांचने के लिए!
मैं हंसा!
"क्या रूपाली से भी प्रश्न किये थे?" पूछा मैंने,
"पूछो!" बोला मैं,
"काम का क्या अर्थ है एक मानव के लिए?" पूछा उसने,
"सृजन!" कहा मैंने,
"और प्रेयसि संग हो तो? जहां सृजन न हो?" बोला वो!
"दोनों की स्वीकृति आवश्यक है! तब काम का अर्थ बदल जाता है! तब वो सृजन नहीं, एक अनावश्यक आवश्यकता बन जाता है! दोनों ही एक दूसरे के आकर्षण में लिप्त रहते हैं!" कहा मैंने,
"और पर-स्त्रीगमन?" बोला वो,
"वो विकृति है! चाहे पुरुष हो, अथवा स्त्री!" कहा मैंने,
"मेरे और रूपाली के विषय में क्या कहोगे?" पूछा उसने!
अब समझा! यही तो असली प्रश्न था जो वो पूछना चाहता था! और इसी प्रश्न पर अब उस कजरी का भविष्य टंगा हुआ था!
"तुम दोनों के विषय में मात्र इतना, कि तुम अपनी प्रवृति और प्रकृति के अनुसार अनुचित नहीं उठाये जा सकते, परन्तु, मात्र अपनी ही विद्याधरियों के संग! मानव के साथ ऐसा नहीं है महाशुण्ड! तुमने उसका आयु-स्तम्भन किया, निरोगी किया, रूपवान बनाया! तो ये तुम्हारे लिए कोई असम्भव कार्य नहीं! तुम उस मानव-स्त्री के दैहिक आकर्षण में लिप्त रहे, लेकिन महाशुण्ड! यही सब, उसके लिए एक अभिशाप बन गया है! कजरी ने सदैव जीवित नहीं रहना! ये नश्वरता है! और हम सभी मानव इसी से बंधे हैं! उसके अवसान पश्चात संभव है, तुम्हे कोई और कजरी मिल जाए! तुम्हारी दासी! प्रमोद-वस्तु! काम-सलिला! और उसी क्षण, ये कजरी, सदा के लिए तुम्हारे मन से मिट जायेगी! बस, यही कहता हूँ!" कहा मैंने!
"सत्य! सत्य है कहा है तुमने!" बोला वो!
लेकिन इस से लाभ क्या!
"एक प्रश्न और!" बोला वो!
"पूछो!" कहा मैंने,
"वो उत्तमा, क्या तुम्हारी प्रेयसि है?" पूछा उसने!
"नहीं!" कहा मैंने,
"मैं जानता हूँ! क्या तुमने, एक स्त्री, जो तुम्हारी प्रेयसि नहीं है, अपने प्राण दांव पर लगाए?" बोला वो,
"हाँ, लगाए!" कहा मैंने,
"किसलिए?" पूछा उसने!
"मानव-धर्म निभाने के लिए! चूंकि, इस से बड़ा धर्म इस धरा पर है ही नहीं कोई!" कहा मैंने,
वो मुस्कुराया!
आगे आया!
बरसात होने लगी पुष्पों की!
वो नीचे उतरा अब, धरा पर, पहली बार!
और तभी प्रकाश कौंधा, मेरे दायें!
मेरी नज़र पड़ी उधर! वो एक अत्यंत ही रूपवान, विद्याधरी थी! अत्यंत ही रूपवान! काम द्वारा स्वयं ही रचित एक विद्याधरी!
"ये इराक्षी है! इसका वरण करोगे?" बोला वो,
मैंने इराक्षी को देखा, मुस्कुराते हुए, मुझे ही देख रही थी!
मांगता, तो मिल ही जाती, हमेशा के लिए! काम के तो अल्पता कभी रहती ही नहीं! किसी भी क्षण स्मरण करता, इराक्षी 'सेवा' में आ जाती! पर समय ही नहीं है! जितना समय ल सका उस से लड़-भिड़ के, उसमे अपने कर्तव्य ही निभा लूँ तो मुझसे बड़ा भाग्यशाली कौन!
"नहीं महाशुण्ड!" कहा मैंने,
मेरे मना करते ही, इराक्षी लोप हुई!
फिर से प्रकाश कौंधा!
और इस बार दो प्रकट हुईं! वैसी ही काम-कृतियाँ! मुस्कुराते हुए!
"ये अलुश्री और मंदाश्री हैं! इनका वरण करोगे?" बोला वो!
"नहीं महाशुण्ड! नहीं कर सकता!" कहा मैंने,
और वे दोनों, तभी की तभी लोप!
"कुछ माँगना चाहोगे?" बोला वो,
"नहीं महाशुण्ड!" कहा मैंने,
"कोई विद्या?" बोला वो,
"नहीं! स्वर्जित विद्याएँ फल दिया करती हैं!" कहा मैंने,
"ये भी फल देगी!" बोला वो,
"नहीं महाशुण्ड!" कहा मैंने,
वो मुस्कुराया!
और प्रसन्न हुआ!
पल में ही वहां कई विद्याधर प्रकट हुए!
कई विद्याधरियां!
जैसे में उनके लोक में विचरण कर रहा हूँ!
अद्भुत हैं ये विद्याधर!
मैं वो सब देख सका, वही बहुत था!
वे वृत्त बना, सभी खड़े हो गए!
मैं एक एक को देखता रहा, निहारता रहा!
और फिर मैं भी हवा में उठा! ठीक वैसे ही, जैसे वो महाशुण्ड उठता था! जाइए मेरे शरीर का समस्त भार खतम हो चला है! जैसे गुरुत्व है ही नहीं वहां पर! अद्भुत अहसास था वो! जीवन में पहली बार ऐसा कुछ देखा था! और फिर एक एक करके, वे सभी लोप होते चले
गए! रहा गया महाशुण्ड! और मैं उसके संग चल पड़ा बहता बहता उस ढेरी तक! और उतर गए हम वहाँ! कजरी के चेहरे से झलकता था कि जैसे उसको ये सब पसंद नहीं आया था! और शायद जैसे कजरी ने भी मना किया हो महाशुण्ड को, लेकिन माना नहीं हो महाशुण्ड!
मेरे मन में अब सब कहानी के मूल तथ्य, समझ में आने लगे थे! मैं ढेरी पर संतुलन बनाता खड़ा था और उस उत्तमा को देखे जा रहा था!
"ऊतमा!" बोला महाशुण्ड!
सर उठाके देखा उत्तमा ने!
और तभी महाशुण्ड प्रकट हुआ उत्तमा के पास! उसके सर पर हाथ रखा और उत्तमा ढेर! उस ढेरी पर ढेर!
"मानव! उठाओ अपनी उत्तमा को!" बोला महाशुण्ड! और वो कजरी, हैरत से उस महाशुण्ड को देखे! मैं एकदम से झुका, और पहुंचा उस ढेरी में, जहां वो गिरी हुई थी! मैंने सीधा किया उसे!
"उत्तमा?" कहा मैंने,
और उसने नेत्र खोले अपने!
मुझे देखा, फिर उन दोनों को भी देखा,
भय लगा उसको और तभी के तभी, मेरे सीने से लिपट गयी उत्तमा!
आ गयी थी वापिस!
अब हुई थी प्रभावमुक्त!
मैंने खड़ा किया उसे, वो भय से देखे उन दोनों को!
मैंने उसके कंधों को थामा, और हाथ पकड़े रहा उसका!
"जाओ मानव! ले जाओ अपनी उत्तमा को!" कहा मैंने,
कितना सुक़ून था उन शब्दों में उस महाशुण्ड के!
सच में, वो दिव्य है! मानव से मानव को नहीं छीना उसने!
"मानव! मैं महाशुण्ड विद्याधर हूँ! उरकुटि पर मेरा वास है!" बोला वो!
उरकुटि! एक स्थल है, पहाड़ों पर! दुर्गम रास्ता है!
फिर और कुछ भी बताया उसने मुझे! मैं सुनता रहा उसकी सारी बातें!
अब उसने सामने देखा! उन दोनों बाबाओं को! वे हवे में उठे! चीखते चिल्लाते हुए! और धड़ाम से नीचे! आह भी न निकली उनकी! हो गए रिक्त! विशेषज्ञ बनने आये थे, नौसिखिया भी न रहे!
फिर मुझे देखा उसने! मुस्कुराते हुए!
"जाओ मानव! लौट जाओ अपने संसार में! चूंकि अब मैं भी लौटने वाला हूँ!" कहा उसने,
अपने दोनों हाथ उठाये उसने, और सीने से बांधे! तेज प्रकाश हुआ! हमारी आँखें बंद हुईं! उत्तमा मेरे सीने से चिपके रही! और अगले ही क्षण! जब आँखें खोलीं, तो ये दिन का प्रकाश था! वहां बाबा भी नीचे पड़े थे, ढेरी अब न थी, कजरी अचेत पड़ी थी धरा पर! और उत्तमा के वो आभूषण, वेशभूषा, सब बदल गए थे! वो अपने पहले वाले वस्त्रों में थी! मैंने घड़ी देखी, तो दिन के ग्यारह बजे थे! हम इस से पहले उस विद्याधर की अलौकिक माया में बंधे थे!
मैंने उत्तमा को हटाया अपने सीने से! उसने दिन का उजाला देखा तो हैरान हुई! और पीछे
से भागे भागे शर्मा जी आ रहे थे! मैंने देख लिया था उन्हें!
"आओ उत्तमा!" कहा मैंने,
और मैं उसको ले चला वापिस!
शर्मा जी आ गए, मुझे गले से लगा लिया उन्होंने!
और फिर हम तीनों, बिना कुछ कहे वहां से चल दिए!
वापिस आये हम उसी स्थान पर, शरण वाले स्थान पर!
उत्तमा को समझाने में, यथार्थ में लाने में समय नहीं लगा!
और उसने, मुझसे क्षमा मांग ली! उसकी कोई गलती नहीं थी! अतः मैंने भी उसको कुछ नहीं कहा! हम उसके बाद पांच दिन और रहे! बाबा लोगों को ले आया गया था! लेकिन अब मूक थे वे दोनों!
छठे दिन, हम वापिस हुए!
उत्तमा रो रो के जान दे अपनी! मना करे! गिड़गिड़ाए! बहुत समझाया उसको मैंने! और उसी दिन हम वापिस हुए! हाँ, जाते जाते, कुछ कान में कह के आया था मैं उसके! कि "वो दो दिन, उधार रहे!" कहा था मैंने!
हम आ गए दिल्ली वापिस!
उत्तमा से बातें होती रहीं मेरी! दिन में कई कई बार!
कोई तीन माह बाद, मुझे उत्तमा ने खबर दी, कि कजरी का स्तम्भन टूट गया है, और वो महाशुण्ड, कभी नहीं आया उसके बाद!
मित्रगण! आज तक! वो महाशुण्ड नहीं आया! लौट गया सदा के लिए अपने संसार में!
और कजरी, कजरी आज उसकी आरती करने में लगी है दिन रात, सुबह शाम, जिसको उसने धकेल दिया था पीछे, बाइस वर्षों के लिए! मृत्यु! अब वही है जो उसको सुक़ून देगी!
हाँ! वो दो दिन, आज तक उधार ही पड़े हैं!
कई बार मिला, कानाफूसी करते हुए याद दिलाता रहा!
न वो भूली, न मैं!
साधुवाद!
