वर्ष २०११ नेपाल की ...
 
Notifications
Clear all

वर्ष २०११ नेपाल की एक घटना

173 Posts
1 Users
0 Likes
1,486 Views
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

"भंजन कर दूंगा तेरा यहीं हराम**!!" बोले वो,
अब मैंने अपनी भुजा छुड़ाई! एक झटके से!
"लानत है तुम्हारी सोच पर! लानत है तुम्हारी इंसानियत पर! लानत है तुम्हारे जन्म पर! बाबा! यदि बुज़ुर्ग नहीं होते आप, तो यहीं बिछा देता आपका ये शरीर!" कहा मैंने,
"अब निकल जा?" बोले बाबा ऋषभ!
"ज़ुबान को लग़ाम दो, और हलक़ में रखो, नहीं तो उखाड़ने से नहीं चूकूंगा मैं!" कहा मैंने,
"तेरी तो हराम**!" बोले बाबा ऋषभ और मुझे थप्पड़ मारने के लिए हाथ उठाया, मैंने हाथ पकड़ा, खेंचा अपनी तरफ और दी एक लात पेट में! भड़ाम से नीचे गिरे! फिर बाबा भोला चले मुझे पीटने! उन्होंने एक हाथ घुमा के मेरे चेहरे पर मारने का प्रयास किया, मैं झुक गया था, फिर भी मेरे होंठ पर उनकी कलाई लग गयी, खून छलछला आया तभी के तभी!
गुस्सा तो बहुत आया! लेकिन रोके रखा मैंने!
बाबा ऋषभ तो नीचे ही पड़े धूल चाट रहे थे!
"सुनो बाबा! अबकी बार ऐसी भूल की, तो अब शर्म नहीं करूँगा, न हिचकूंगा! तुम्हारा सम्मान गया तुम्हारी माँ की ** में!" कहा मैंने गुस्से में इस बार!
"तेरी माँ की **, मुझे धमकाता है?" बोला वो,
"आजमा के देख लो!" कहा मैंने,
उन्होंने मुख बंद किया, भंजन-मंत्र पढ़ रहे होंगे तब!
मैंने भी मन ही मन भौष-भंजन मंत्र पढ़ लिए और गटक गया वो गरम हुआ थूक!
अब बाबा भोला ने थू करके फेंका थूक मेरे ऊपर, मेरे चेहरे और गले पर पड़ा!
लेकिन, कुछ नहीं हुआ!
होता कैसे!
बाबा गिरते गिरते बचे!
गुस्से में गालियां दीं और बढ़े मेरी तरफ!
इतने में ही शर्मा जी भी आ पहुंचे गालियां सुनाते हुए!
अब मैं भी बढ़ा, और बाबा का गिरेबान पकड़ लिया! शर्मा जी ने भी उनका गला पकड़ा!
घसीट दिया पीछे की तरफ और गालियां देते हुए, फेंका पीछे! गिरे और उठने लगे, मैंने दी एक लात टांगों में! गिरा दिया फिर!
झुका, और बाबा की टांग पर अपना पाँव रखा!
"चले जाओ अपने उस चेले के साथ यहां से अभी!" कहा मैंने,
'शर्मा जी, आप निकलो यहां से, अभी की अभी?" कहा मैंने,
"और ये?" बोले वो,
"वो मैं देख लूँगा!" कहा मैंने,
और प्रकाश कौंधा!
बहुत तेज!
प्रकाश का ताप ऐसा, कि जिस्म जला दे!
और वो महाशुण्ड प्रकट हुआ!
मैंने शर्मा जी का हाथ थाम लिया!
और अब वे दोनों बाबा भी हुए खड़े!


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

एक साथ मिलकर, देखें ऊपर उसे!
"हिलना नहीं!" कहा मैंने शर्मा जी से,
वे वैसे ही खड़े रहे!
मैं सामने आ गया उनके, और उनके शरीर को ढक लिया!
अब गूंजा अट्ठहास उसका!
उतरने लगा धीरे धीरे उसी ढेरी पर!
और वो दोनों लम्पट, ज़मीन पर सर रगड़ते हुए, लेट गए थे!
उतर गया था नीचे अब!
कजरी को खींचा अपनी तरफ और सभी को देखे!
सभी को! उन लम्पटों को भी!
और मुझे भी! मुझे तो देखता है!
"उत्तमा?" कहा मैंने,
उत्तमा ने देखा मुझे!
"आ जाओ उत्तमा?" कहा मैंने,
सुने, लेकिन नहीं आये!

महाशुण्ड स्तब्ध था! इतने सारे लोग कहाँ से आ गए? क्या ये भी मेरे ही साथ हैं? यदि नहीं, तो कौन हैं फिर? और तभी वो लम्पट उठे! चले आगे, हाथ जोड़ते हुए! अब कजरी ने कुछ कहा महाशुण्ड से, शायद बताया हो उसे कुछ! या ऐसा ही कुछ और!
वे भागे, और उस ढेरी के पास जा बैठे!
रोने लगे! मिन्नतें करने लगे! हमारी ओर इशारा भी करते वे!
अब कजरी ने उनसे बात की, कुछ पल,
और बुला लिया उस ढेरी के पीछे!
वे दोनों उठे, और चले गए उस महाशुण्ड के पीछे, जाकर, बैठ गए!
अब मैं आगे बढ़ा!
आगे चला!
शर्मा जी को रोक दिया था मैंने,
वे वहीँ खड़े रहे!
और मैं आगे चला!
आया उस ढेरी तक!
"महाशुण्ड! पुरुल तो चला गया वापिस! मुझे कोई समस्या नहीं! हे महाशुण्ड! तनिक विवशता समझिए इस स्त्री की, मासूम स्त्री की, क्या ये उचित है?" कहा मैंने,
न बोला कुछ!
मुझे ही देखे!
और कई कई बार, शर्मा जी पर भी दृष्टि डाले!
इतना तो जानता ही था वो कि वो मेरे साथ है!
और मैं इसीलिए उन्हें दूर रखना चाहता था!
"सोचिये महाशुण्ड?" कहा मैंने,
"अब ये स्त्री, इनकी भेंट है!" बोली कजरी!


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

"तुझसे बात की मैंने?" पूछा मैंने,
चुप वो!
"तुझसे बात नहीं कर रहा ओ निर्लज्ज स्त्री! कलंक है तो स्त्रियों पर!" कहा मैंने,
न बोले कुछ!
ऐसा होता है मित्रगण!
अपनी कमज़ोरी, अपनी विशेषता, अपनी ऊँच(उच्चता) और अपनी नीच(नीचता), अपनी हार और अपनी जीत, सभी तो जानते हैं! बस उसे मानते नहीं हम! स्वयं से ही झूठ बोला करते हैं! ज़ुबान पर कुछ और, और मन में कुछ और! स्पष्ट नहीं हैं हम! जब अपने आपसे ही सत्य नहीं बोल सकते, नहीं मान सकते, तो दूसरों के लिए, हम कैसे उम्मीद कर सकते हैं? एक मिथ्या का आवरण है, वही तो धारण किये रहते हैं हम! और अपने आपको, सर्वगुण-सम्पन्न समझते हैं! है या नहीं! तो कजरी जानती तो सबकुछ थी, लेकिन मान नहीं रही थी!
"महाशुण्ड?" कहा मैंने,
उसने मुझे सर उठाके देखा!
"मेरे कहे विषय पर विचार किया?" पूछा मैंने,
"कैसा विचार?" बोला वो,
"ये उचित है या अनुचित?" कहा मैंने,
"उचित है!" बोला वो!
"किसने रचा तुम्हे विद्याधर! किसने रचा! या फिर मात्र तुम ही ऐसे हो?" पूछा मैंने,
"मैं विद्याधर हूँ!" बोला वो,
"हाँ! अवगुणी विद्याधर!" कहा मैंने,
"नहीं!" चीखा वो!
कान फाड़ने वाले स्वर में!
"इस स्त्री को मुझे सौंप दो! और मैं चला जाऊँगा!" कहा मैंने,
"ये तो सम्भव ही नहीं!" बोला वो!
और तभी मुझे शर्मा जी की आवाज़ सुनाई दी, 'हह' जैसी, मैंने पीछे देखा, वे गिर गए थे नीचे, मैं भाग पड़ा उनके लिए! मेरा दिल धड़का!! हज़ारों आशंकाओं का समूह मेरे मस्तिष्क में आ जमा!
मैं आया उनके पास!
वे नीचे गिरे थे!
मैं बैठा नीचे!
हिलाया उन्हें!
पुकारा उन्हें!
नहीं जागे!
कोई प्रतिक्रिया नहीं!
अब मेरे आंसूं ढुलके!
आंसू, मेरे गालों से होते हुए, नीचे टपकें, चिबुक से गिरके!
आवाज़ नहीं निकले!


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

बस, रोना छूटा!
हिलाया उन्हें!
बार बार, शर्मा जी, शर्मा जी पुकारूँ!
पागल हो चला था मैं!
मेरे प्राण, नीचे पड़े थे, शर्मा जी! मेरे प्राण!
मैंने नब्ज़ देखी, कोई धड़कन नहीं!
मैंने छाती में कान लगाए, कोई धड़कन नहीं!
और तब मुझे आया क्रोध! मैं बैठा वहीँ!
बनायी एक विशेष मुद्रा! और किया मानिने मंत्रोच्चार! शुम्भालक्षक-जाप! ऐसे मंत्र पढ़े, कि महाशुण्ड के कानों में भी सीसा भर गया होगा!
मैंने कोइ. पांच मिनट जाप किया और उसके बाद, शर्मा जी के मुख में., मुख खोलकर, अपनी एक लम्बी श्वास छोड़ दी!
खांसी उठी उन्हें!
और मैं प्रसन्न!
शायद, इस पृथ्वी पर सबसे प्रसन्न व्यक्ति!
मैं! मात्र मैं उस समय!
खांसी उठी, नेत्र खुले, मुझे देखा, मेरा हाथ पकड़ा और उठ बैठे!
रहा नहीं गया मुझसे!
रुलाई फूट पड़ी! बालकों की तरह से रोया मैं, उनसे लिपट कर मैं!
मुझे ढांढस बँधायें! मेरे आंसू पोंछें!
मेरे बालों में हाथ फेरे! मेरी कमर पर हाथ फेरें!
मेरे लिए, अनमोल है शर्मा जी!
और तभी मुझे स्मरण हुआ उस महाशुण्ड का!
मैं खड़ा हुआ!
शर्मा जी के कंधे को पकड़ते हुए,
"आप यहीं रहना अब!" कहा मैंने,
और दौड़ पड़ा उन तीनों की तरफ!
क्रोध? सीमाएं तोड़े!
क्रोध?
श्री वीरभद्र समान!
मैं जा पहुंचा वहां!
"महाशुण्ड?" चीखा मैं!
वो अट्ठहास लगाए!
"महाशुण्ड?" कहा मैंने,
अट्ठहास!
कजरी?
हँसे!
उत्तमा?


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

शांत!
मुझे देखे!
"महाशुण्ड?" चीखा मैं,
और तब देखा उसने मुझे!
"तू? महातुच्छ? महातुच्छ है महाशुण्ड!" कहा मैंने
अट्ठहास लगाया उसने!
"देखना चाहता है?" बोला मैं,
"क्या ओ मानव?" बोला वो,
"तो देख!" कहा मैंने,
और मैंने महामुण्डिका का अलोम पढ़ डाला!
मिट्टी उड़े!
वायु चले!
वृक्ष?
जैसे अभी उखड़े, अभी के अभी!
वो महाशुण्ड!
वो चारों ओर देखे! चारों ओर!
और वो कजरी?
कजरी थामे उस महाशुण्ड की भुजा!

मैंने अलोम पढ़ दिया था और वहाँ का माहौल अब, मरघट समान बनने वाला था, विद्याधर मरघट से बहुत दूर रहते हैं! मरघट में इनकी विद्याएँ नहीं चलतीं! मैंने अब पहली बार शक्ति-प्रदर्शन किया था! वे दोनों और उत्तमा बार बार, आकाश को देख रहे थे! और तभी राख गिरने लगी वहाँ! भस्म! मुर्दों की भस्म! अस्थियां और मांस के लोथड़े! घबरा गयी कजरी! छाती से चिपक गयी उस महाशुण्ड के! और ढप्प ढप्प करते हुए, वहाँ धूल,. राख, अस्थियां और अंगार गिरने लगे! और तब महाशुण्ड चीखा! और सब समाप्त! अलोम को काट दिया था उसने अपनी विद्या से! और सबकुछ लोप हो गया! वो बाबा, दोनों के दोनों, घबरा के उस महाशुण्ड के और निकट आ लगे थे! अब महाशुण्ड ने मुझे देखा! थोड़ा आगे आया, कजरी को छोड़ा उसने, मैं भी थोड़ा आगे आया! अब हमारी नज़रें एक दूसरे से मिलीं, इतनी निकट, पहली बार! उसके नेत्रों में क्रोध था, कोई और होता, तो क्षण भर में ही अस्तित्व समाप्त हो गया होता उसका!
"चले जाओ!" वो बोला,
बोला नहीं गुर्राया!
"नहीं, उत्तमा के बिना नहीं!" कहा मैंने,
"तुम्हें जाना होगा!" बोला वो,
"नहीं जाऊँगा!" कहा मैंने,
"जीवित नहीं छोड़ूंगा किसी को भी!" बोला वो,
"और मैं कजरी को!" कहा मैंने,
मैंने भी उसी लहजे में जवाब दिया उसको!
"चले जाओ!" बोला वो,


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

"उत्तमा को सौंप दो! चला जाऊँगा!" कहा मैंने,
"उसे भूल जाओ!" बोला वो,
"उत्तमा?" मैंने पुकारा उसको!
जवाब नहीं दिया था मैंने उस महाशुण्ड को!
"उत्तमा?" पुकारा फिर से!
अबकी बार देखा मुझे उसने! कुछ संकोच के साथ!
"चली आओ उत्तमा!" कहा मैंने,
मन में उथल-पुथल तो मची ही होगी उसके!
"कजरी, आने दे उसको!" कहा मैंने,
हाथ पकड़ लिया था कजरी ने उसका, इसीलिए बोला था मैं!
उत्तमा, मुझे सुने, गौर भी करे, बस पहचाने नहीं!
महाशुण्ड उठा ऊपर, मुझे देखते हुए, और घूर्णन करते हुए, लोप हो गया, अबकी बार कुछ विशेष ही प्रयोग करता वो!
मैं पीछे भागा! शर्मा जी के पास पहुंचा,
"जाओ, जल्दी से जाओ बाहर!" कहा मैंने,
"यहीं रहूँ तो?" बोले वो,
"नहीं, वो फिर से कुछ करेगा, जाओ, नज़र नहीं आना उसको!" कहा मैंने,
और तब, समझा-बुझाकर मैंने भेजा उन्हें!
वे चले गए थे, लेकिन उनको हम तो नज़र आ रहे थे, वो नहीं किसी को!
मैं अब तैयार था, कोई प्रहार होता तो तैयार था उसके लिए!
मैं आगे आया, और देखा कि,
वो दोनों बाबा उस कजरी से कुछ मंत्रणा सी कर रहे हैं! कमीन आदमी, अपनी गोटी बिठाने में लगे थे! प्रपंची! मति मारी गयी थी उनकी!
वो उत्तमा,
अब मुझे देखे जा रही थी!
ये अच्छा था मेरे लिए, उसका तनिक भी ध्यान भंग हो, तो प्रभाव से बाहर आये!
"आ जाओ उत्तमा!" चीखा मैं,
उत्तमा, पहचानने की कोशिश करे!
जैसे मेरी आवाज़ पहले सुनी हो उसने!
"आ जाओ उत्तमा!" कहा मैंने,
और तभी आकाश का रंग बदला!
गहरा लाल हो उठा!
रक्त जैसा लाल!
जैसे रक्त की बरसात होने वाली हो वहाँ!
बादल से छा गए थे उस स्थान पर,
बादल, लाल रंग लिए हुए!
मैं समझ गया था कि ये वराहि-विद्या है! विद्याधरों की अचूक विद्या!
मैंने फौरन ही जटाक्ष-विद्या का संधान किया!


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

संधान करते करते, मेरे ऊपर रक्त के छींटे पड़ने लगे!
जहां भी पड़ते, फोड़ा सा उभर आता था, फोड़ा बड़ा होता,
और फूट जाता, मवाद बहने लगती उनमे से!
ऐसा मेरे हाथों, गरदन और सर में हो रहा था!
मेरी विद्या जागृत हुई!
और मैंने भूमि पर थूका,
झुका और उस थूक लगी मिट्टी को उठाया,
एक मंत्र पढ़ा और माथे से मल लिया, मलते ही, फोड़े सब समाप्त!
मवाद, जिसके कारण मेरे केश, आँखें और शरीर चिपक गए थे, सब ठीक हो गया!
जटाक्ष-विद्या क्षण में ही काय करती है! और किया!
"महाशुण्ड?" चीखा मैं,
लेकिन वो, वहाँ था ही नहीं!
और तब, चार आकृतियाँ सी प्रकट हुईं,
उनका शरीर तो दिखे, परछाईं समान, परन्तु न मुख दिखे, न रूप-रंग!
जैसे धुंए से बनी हों!
और शारीरिक विन्यास से ये स्पष्ट था कि वे पुरुष हैं!
वे चारों घूमें!
ऐसा घूमें, कि धुंए का एक वलय सा बन जाए!
और वलय की बीच में, अग्नि सी भड़के!
जब अग्नि भड़के, तो वो लाल से बादल, लोप होते जाएँ!
ये अजीब सा नज़ारा था!
मैं समझ ही नहीं पा रहा था कि वो हैं कौन!
और तभी रुके,
उतरे नीचे,
और एक एक करके, चारों ही मुझसे कोई बीस फ़ीट दूर, जाकर खड़े हो गए!
अब कुछ न कुछ तो करना ही था!
अतः, मैंने तमाक्षी-विद्या का संधान करने की सोची!
ये प्राण-रक्षिणी तो है ही, शत्रु-भंजिनी भी है!
इसके लिए, मैं भूमि पर बैठा,
कमलिका-मुद्रा में बैठा!
एक मुट्ठी मिट्टी ली,
और उसको अब धीरे धीरे नीचे गिराते हुए, विद्या-संधान करता रहा!
जब मिट्टी समाप्त हुई, तो हाथ में लगी मिट्टी से पूरे शरीर को मल लिया!
सर से लेकर पाँव तक!
और तभी घूं घूं की आवाज़ आई!
आवाज़ आ कहाँ से रही थी, पता नहीं चल रहा था!
शायद आकाश से, या उन आकृतियों से! या शायद कोई विद्या-विधान!


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

आवाज़ लगातार आ रही थी, बढ़ती जा रही थी! लेकिन मेरी नज़रें सामने उन्ही चार आकृतियों पर टिकी हुईं थीं! और तभी प्रकाश कौंधा! प्रकट हुआ वही महाशुण्ड! इस बार सीधा ढेरी में ही! उन चारों आकृतियों में हलचल सी हुई! वे उठीं ऊपर, और गोल गोल घूमने लगीं! और अचानक ही, वे चार स्त्रियों में परिवर्तित हो गयीं! एकदम काली! भक्क काली! दीर्घ काया वाली! उनके स्तन और जंघाएँ लाल रंग से पुते से दीखते थे! उदर बाहर को निकला हुआ था, नाभि काफी बड़ी थी, और उनके घुटने, बाहर की तरफ मुड़े हुए थे! यदि मनुष्य में ऐसा दोष हो, तो वो चल भी नहीं सकता! लेकिन ये हैं कौन? रुक्ष-केश, गले में पीले रंग के डोरे से बंधे थे, हाथों में कोई अस्त्र-शस्त्र भी नहीं था! वे अब आगे बढ़ीं, और उस महाशुण्ड ने उनको, देख कोई आदेश दिया!
अब एक उछली, और सीधा मेरे सामने कूद आई! गंध आई मुझे बड़ी तेज, जैसे तेज़ाब में से आती है! मैं तैयार तो था ही! डट के खड़ा हो गया! तमाक्षी विद्या का संधान कर ही लिया था! इसलिए मुझे किसी भय की आवश्यकता नहीं थी! और वैसे भी तंत्र में भय नाम की कोई वस्तु है ही नहीं! भय त्यागना पड़ता है! हमेशा के लिए!
उस काली सी स्त्री ने मुख खोला अपना! और लबी सी जिव्हा बाहर निकली! जिव्हा पीले रंग की थी, गले से भी नीचे तक लटक रही थी! अब मैं समझ गया था! जान गया था ये तंगति हैं! वनचरी! कंदरा-वासिनी!
कभी आप पूर्वी नेपाल या ल्हासा आदि जाएँ, तो आपको उनके घरों पर, इन्ही तंगति के चित्रण मिल जाएंगे!
ये तंगति ही थीं! क्रूर हुआ करती हैं बहुत! न ये प्रेत हैं, और न ही भूत! न ही डाकिनी और न ही शाकिनी! ये अदृश्य रूप में रहने वाली तंगति हैं, इनके नर, कभी नहीं दीखते! क्यों, ये ज्ञात नहीं मुझे!
"तंगति!" कहा मैंने,
और उसने हुंकार भरी!
हाथ उठा दोनों, झपटी मुझ पर!
जैसे ही टकराई, धुंआ हुई!
मेरी विद्या का कोपभाजन बनना पड़ा उसको!
वहां, उधर, एक और उछली!
और लिया वराह का रूप! आँखें झक्क पीली! बड़ी बड़ी!
दांत, ऊपरी जबड़ा फाड़, बाहर आ, शूल भांति दिख रहे थे!
मैं झुका, और वो भागी मेरी तरफ वराह रूप में! मैंने मिट्टी उठायी,
"यँ यँ यँ, अंगखण्डनम्.......त्रिक्षि.......!" कहते हुए वो मिट्टी फेंक दी सामने!
स्वाहा! भक्क से आग लगी और धुआं हुई!
अब वो दोनों उछलीं!
और दौड़ पड़ीं मेरी तरफ! मैंने किया आगे हाथ, मिट्टी से सना!
और अगले ही पल, मेरे चारों ओर, काला धुआं फ़ैल गया! धुंआ हो गयीं वो तंगतियाँ! ये वार भी विफल हो गया उस महाशुण्ड का!
सीना चौड़ा हो उठा मेरा!
वजन बढ़ गया विद्या के मान से!


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

अलख नाद लिया और विद्या-ईष्ट को नमन किया!
और अब बढ़ा आगे! चला उनकी तरफ! वे दोनों बाबा,
अब सामने आ खड़े हुए थे उन तीनों के!
मैं रुका, उत्तमा को देखा!
"उत्तमा?" चीखा मैं!
उसने देख मुझे, परन्तु ध्यान नहीं लगा पायी!
"आ जाओ उत्तमा! हम चलें वापिस!" कहा मैंने,
अब उत्तमा ने अपने कान ढके अपने हाथों से! ये देखा उस महाशुण्ड ने, और अपना दांया हाथ रख दिया उत्तमा के सर पर!
और उसी पल, उत्तमा भरभरा के नीचे गिर पड़ी!
"उत्तमा?" चिल्लाया मैं,
"उत्तमा?" फिर से चिल्लाया मैं!
और वे दोनों, महाशुण्ड और कजरी, हंसें! मेरा उपहास उड़ाएं!
और हंसें वो दोनों बाबा भी! जी तो किया, अपने हाथों से ही सीना फाड़ दूँ इन दोनों का! बिखेर दूँ इनके अंग यहां वहां! खिला दूँ भूखे श्वानों को मांस उनका!
मैं आगे बढ़ा, और आगे!
तो मेरा रास्ता रोक उन दोनों ने!
"हट जाओ!" कहा मैंने,
न हटें! हाथ पकड़ लिए एक दूसरे के!
"हट जाओ!" मैंने दांत भींचते हुए कहा!
न हटें! मुस्कुराएं हरामज़ादे!
और तभी महाशुण्ड उठा ऊपर!
मेरी नज़रें मिलीं उस से! और उठी वो कजरी भी! संग उसके!
अब उत्तमा अकेली थी उस ढेरी पर!
मैं बढ़ा आगे, और खींच के लात दी बाबा ऋषभ को! बाबा तो गिरे नीचे, और जैसे ही मैंने अपना हाथ उठाया, बाबा भोला लिपट पड़े मुझसे! मैंने पकड़ा गिरबान, और दिए सीने में दो चार घूंसे! उन्होंने मेरे केश पकड़ रखे थे, मैंने दी एक लात खींच कर बाबा के अंडकोषों पर! बाबा सात का अंक बनते हुए, जैसे ही नीचे झुके, दी कंधे पर एक लात! और गिरा दिया!
अब मैं दौड़ा उस ढेरी तक! महाशुण्ड और कजरी, ऊपर खड़े, मुझे देखें!
मैंने चिंता नहीं की, और चढ़ गया ढेरी पर! उत्तमा पेट के बल गिरी हुई थी, और जैसे ही मैंने उसको उठाने के लिए छुआ, मुझे विद्युत का सा आवेश लगा और मैं उसी ढेरी पर, करीब छह फ़ीट उछल कर, गिर गया!
वो ठहाके मारें!
मेरा उपहास उड़ाएं!
"महाशुण्ड?" बोला मैं,
"अब ये ऐसे ही रहेगी!" बोली कजरी!
"थू! लानत है कजरी, लानत!" कहा मैंने,
महाशुण्ड हँसे! कजरी हँसे!


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

वो दोनों बाबा, धूल चाटें!
"तू देखना चाहता है?" कहा मैंने,
"दिखा?" बोली कजरी!
"तो देख!" कहा मैंने,
और मैं बैठ गया वहीँ, उसी ढेरी पर!
कीं आँखें बंद, और जपने लगा मंत्र!
कोई दो मिनट ही हुए होंगे, कि मेरी पसलियों में किसी ने प्रहार किया!
मेरी आँखें खुलीं!
पीड़ा हुई!
ये बाबा ऋषभ थे, मेरी पसलियों में, एक ईंट मार दे थी खिंचा कर!
मैं खड़ा हुआ, तो बाबा पीछे हटे!
"सुनो? सुनो?" बोले वो,
मैं रुक गया!
"बोलो, बाबा?" बोला मैं,
"ये सबकुछ ठीक हो सकता है!" बोले वो,
"कैसे?" बोला मैं,
"सुनो, भूल जाओ उत्तमा को!" बोले वो,
मैं बढ़ा आगे, पकड़ा गिरेबान बाबा का, वो गिड़गिड़ाएं और दिया धक्का!
धड़ाम से गिरे नीचे!
मैं बढ़ा आगे, तो बाबा ऋषभ अब हाथ जोड़ें!
लेकिन मुझे क्रोध था बहुत! बहुत क्रोध!
दी एक लात सीने में दबा कर! और पलटा बाबा भोला की तरफ, पहले इन्हें ही देख लूँ मैं!

बाबा भोला का दर्द के मारे बुरा हाल था! मारे दर्द के, चीखे जा रही थे! मैं पहुंचा वहाँ, और उठाया बाबा को, नहीं उठ सके, शायद मेरी लात सही और ठीक निशाने पर जमी थी! मैं फिर से उठाया, लेकिन मुंह से हाय हाय! ही चिल्लाएं! न उठ सकें, आँखें बंद हो चली थीं मारे दर्द के! फिर मैंने कुछ नहीं कहा उन्हें, दर्द में तड़पते ही छोड़ दिया और चला उस महाशुण्ड और कजरी के पास! वे ऊपर थे, करीब आठ फ़ीट, मैं चला वहाँ, और जा पहुंचा!
उत्तमा वैसी ही पड़ी थी! मुझसे देखा भी नहीं जा रहा था!
मैं नीचे बैठा, और कमलिका-मुद्रा में बैठा, एक संचारक-विद्या का जाप किया!
और उसको जागृत करने हेतु, आरम्भ किये उसके चलन-मंत्र!
नेत्र बंद किये मैंने और जपने लगा मंत्र!
अचानक से मुझे लगा कि जैसे मैं उड़ने लगा हूँ, गुरुत्वहीन हो चला हूँ! नेत्र खोले मैंने तभी,
मेरे सामने का सारा दृश्य बदल चुका था!
न वो ढेरी थी, न वहाँ उत्तमा, न ही वे दोनों बाबा, और न ही महाशुण्ड और वो कजरी! मैं खड़ा हुआ, ये क्या है? ये सोचा मैंने!
कोई माया?
कोई प्रजाल?
या अन्य कुछ और?


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

मैंने आकाश में देखा, चाँद चमक रहे थे, तारे भी थे, और अँधेरा भी था काफी! चांदनी खिली हुई थी! सब ओर सन्नाटा पसरा हुआ था! मैं आगे चला थोड़ा! और मुझे आवाज़ आई एक, अजीब सी! जैसे अक्सर कोई लक्कड़बग्घा खुरखुराता है! लेकिन ये आवाज़ लक्कड़बग्घे की नहीं थी, ये तो तय था! मैं रुक गया! और तभी मेरे सर से, जैसे कोई बड़ा सा चमगादड़ गुजरा! मुझे नीचे बैठना पड़ा!
गौर से देखा,
ये चमगादड़ नहीं था!
ये तो उक़ाब था! हाँ, उक़ाब!
मैंने कभी उक़ाब नहीं देखे थे! मात्र किवदंतियां सुनी थीं!
मायावी ही सही, आज देख लिया था!
फिर से उड़ा वो, और मैं फिर से ज़मीन से चिपका!
उठा, और भागा एक पेड़ की तरफ! कहीं उक़ाब ने दबोच लिया तो एक ही पल में सर अलग कर देगा अपनी चोंच से!
मैं भागा और वो मेरे पीछे उड़ता हुआ आया! मैंने लगाई छलांग और पेड़ के पास आ गया! पंख फड़फड़ाने की तेज आवाज़ आई! मैंने ध्यान दिया अब, कि किया क्या जाए? और तभी मुझे एक विद्या का ध्यान हो आया! बाबा रूद्र नाथ की दी हुई एक परम विद्या, ऊक्रांता! मैंने उसका ही संधान किया, मुझे समय लगा उसमे, और वो उक़ाब, लगातार उड़े, और उतरे! फिर से उड़े, और फिर से उतरे! बहुत बड़ा उक़ाब था वो! एक पंजा मार दे तो शरीर का एक एक 'पुर्ज़ा' बाहर आ जाए!
मेरी विद्या जागृत हुई, और अब मैं चला उस उक़ाब की ओर! उठायी मिट्टी, और जैसे ही उक़ाब आया भागते हुए, मैंने फेंकी मिट्टी नीचे, भक्क! आग का गोला सा उठा और वो लोप! ये थी माया उस महाशुण्ड की!
अब मुझे इस माया से बाहर आना था! मैं बैठा एक जगह, और जपा मैंने मंत्र! और कुछ हिपलों में मेरे नेत्र खुले! मैंने सामने देखा, सामने कुछ नहीं था, हाँ स्थान वही था, मैंने पीछे देखा, तो ढेरी दिखाई दी,वही ढेरी! और ढेरी पर खड़े वो दोनों!
मैं भागा उस तरफ! आया उधर!
और वो महाशुण्ड, मुझे देख हैरान!
कजरी भी हैरान!
"मान जाओ महाशुण्ड!" कहा मैंने,
अब न बोला कुछ भी!
मैं बच कैसे आया?
उस स्थान से बचा कैसे मैं?
यही सोच रहा था वो महाशुण्ड!
"अभी भी समय है! मान जाओ महाशुण्ड?" कहा मैंने,
अट्ठहास लगाया उसने!
"महाशुण्ड?" चीखा मैं!
अट्ठहास ही अट्ठहास!
मैं चढ़ा ढेरी पर! उनमे और मुझे मातर चार फ़ीट का अंतर!


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

रुका मैं, वो महाशुण्ड और कजरी, आँखें फाड़ देखे मुझे!
"मान जाओ महाशुण्ड! मान जाओ! जाने दो इस उत्तमा को!" कहा मैंने,
चुप खड़ा रहे!
कजरी चुपचाप देखे!
"बोलो महाशुण्ड?" कहा मैंने,
और उठे वे ऊपर, घूमते हुए और महाशुण्ड हुआ लोप!
कजरी, वहीँ स्थिर!
अब मैं बैठा उस ढेरी पर! पढ़ने लगा मंत्र!
अभी मैंने पूर्ण नहीं किया था कि उत्तमा ने करवट बदली!
मेरी नज़र गयी उस पर!
मैंने तीव्र किया संधान और उसको देखता रहा!
मैं चाहता था कि संधान पूर्ण हो और मैं उत्तमा को जगाऊँ फिर!
ले चलूँ उसको वहाँ से!
और कजरी!
भाड़ में जाए कजरी!
निर्लज्ज स्त्री!
और वो महाशुण्ड?
करूँगा उसका भी सामना मैं, अवश्य ही!
लेकिन संधान पूर्ण नहीं हुआ मेरा! मेरी कमर से कुछ टकराया,
और मेरे नेत्र बंद!
मैं पीठ के बल गिरता चला गया!
जिस्म में शिथिलपन छा गया मेरे!
प्राण नहीं गए, क्योंकि रुद्रधानिका प्राण नहीं हरने देती!
मैंने कोशिश कर, नेत्र खोले अपने!
मेरे बदन में ऐसा लग रहा था कि जैसे,
त्वचा के नीचे कांटे वाले कीड़े-मकौड़े रेग रहे हों!
असंख्य बिच्छू जैसे मुझे डंक मार रहे हों!
मुझे खांसी आई, तो खून बहने लगा!
गले में पीड़ा उठने लगी!
मेरे हाथ और पाँव,
गरदन सभी हिलने लगे!
मेरे मस्तिष्क के नियंत्रण से बाहर हो चले थे वे!
मैं खूब कोशिश करता उनको हिलने से रोकने की, लेकिन नहीं कर पाता!
उठूँ तो उठा न जाए!
घूमूं तो घूमा न जाए!
मेरे वस्त्रों में जैसे कीड़े घुस गए थे!
काटे हा रहे थे मुझे, मुझे झुरझुरी उठ रही थी!
मैं बैठे बैठे जैसे उचक रहा था, खांसता तो हालत खराब होती मेरी!


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

और ठीक मेरे सामने एक स्त्री नज़र आई मुझे,
एक नग्न और काली सी स्त्री, हाथों में अस्थियां पकड़े,
अत्यंत ही कुरूप थी वो,
टांगें और हाथ ऐसे, जैसे फीलपांव हो रखा हो उसे!
वो हंसी! बहुत ही कनकती हुई सी आवाज़ में!
वो हँसते तो मेरा सीना फ़टे! मेरे हाथ-पाँव ज़ोर जोर से झटके खाएं, कुछ बोल भी न सकूँ मैं!
मेरे हाल बहुत खराब था, बहुत खराब!

मैं कुछ बोलना भी चाहूँ तो मुंह से लार टपके! पसलियों में ऐसी पीड़ा कि जैसे टूट जाएंगी पसलियां अब मेरी! और वो औरत हँसे! मैंने एक बात पर गौर किया, मैं जब नेत्र बंद करता था, तो मुझे उस औरत के हंसने के स्वर सुनाई नहीं आते थे! जब नेत्र खोलता था तो आते थे सुनाई! मैंने नेत्र बंद किये, और लेट गया पीछे, मेरे पेट में बहुत दर्द उठ रहा था, जैसे शूल उठा हो, मैंने नेत्र बंद किये और उरुकन्डा महामसानी का स्मरण किया! मैं मन ही मन जप कर रहा था, पीड़ा के मारे मेरा ध्यान बंट जाता था, लेकिन मैं जपता रहा! और तभी मुझे उन दोनों के स्वर सुनाई दिए, उस महाशुण्ड के और उस कजरी के! वे हंस रहे थे मेरी हालत पर, लेकिन मैंने ध्यान नहीं दिया! मैं जप करता रहा! उरुकण्डिका विद्या प्रस्फुटित हुई! और मेरे हाथ-पाँव कांपना भूले! मेरे नेत्र खुले, मेरी पीड़ा हटी! आकाश को देखा मैंने! और कुछ ही क्षणों में, मैं ठीक हो गया! पहले जैसा! उरुकण्डिका का तेज मेरे शरीर से फूट चला! और मैं खड़ा हुआ फिर!'मेरे सामने तीन खड़े थे! एक वो काली स्त्री! एक महाशुण्ड! और एक वो कजरी!
महाशुण्ड को जैसे विश्वास नहीं हो रहा था! और कजरी,
कजरी उस महाशुण्ड के कंधे से चिपकी खड़ी थी!
और वो काली स्त्री अब हवा में उठा, घूमने लगी थी!
अचानक से ही महाशुण्ड लोप हुआ! कजरी सहित!
अब रह गयी वो काली स्त्री, नीचे उतरी और हंसने लगी!
बड़ी ही कड़वी सी हंसी थी उसकी! मैंने मिट्टी उठायी, स्मरण किया नाहर वीर का, रुक्का पढ़ा और फेंक दी मिट्टी सामने! मिट्टी गिरते ही भूमि पर, वो स्त्री पछाड़ खा गयी!
गिरी नीचे, लेकिन भूमि से छूने से पहले ही, लोप हो गयी!
अब मैं मुड़ा पीछे, ढेरी तक गया और देखा उत्तमा को!
वो औंधी पड़ी थी, मैं बैठा नीचे, और मेरे ठीक सामने, ठीक सामने, वो प्रकट हुआ!
"नहीं!" बोला वो,
मैंने नहीं सुना!
"नहीं?" बोला वो,
मैंने नहीं सुना, इस बार भी!
और जैसे ही मैं छूता उत्तमा को, उस महाशुण्ड ने फिर से विद्या लड़ाई!
उत्तमा, वैसी ही हालत में, ऊपर उठती चली गयी! ठीक मेरे सामने!
मैं मन मसोसता रहा गया! हाथ मलता रहा गया! और भर गया क्रोध में!
क्रोध इतना, कि मैं चला पीटने उस महाशुण्ड को! जैसे ही अपना हाथ घुमाया, मेरा हाथ उसमे से आरपार हो गया! मैंने कई बार उसको लताड़ते हुए, ऐसे ही किया! अफ़सोस, मैं


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

मात्र वायु में ही हाथ चलाता रहा!
"सुनो मानव!" बोला वो,
मैं गुस्से में था, हाथ चलाता ही रहा! चलाता ही रहा!
"सुनो मानव?" बोला वो!
मैं थक गया था, बुरी तरह से, उत्तमा को देखा, तो उत्तमा कहीं नहीं!
अब मेरा दिल बैठा! हौल उठा दिल में!
कहाँ गयी उत्तमा?
कहाँ गयी?
मैं संयत हुआ! हांफ रहा था बहुत!
और शायद, नेत्रों में आंसू भी भर आये थे!
मैं कैसे हो गया विवश?
कैसे? नहीं समझ पा रहा था कुछ भी!
"उत्तमा? उत्तमा?" यही बोले जा रहा था!
"सुनो मानव!" बोला महाशुण्ड!
मैंने देख उसे,
चेहरे पर मुस्कुराहट थी उसके!
"सुनो!" बोला वो,
मैं शांत हुआ फिर! सोचा, सुन लूँ, क्या कहना चाहता है?
"क्यों व्यर्थ में प्राण गंवाने चले हो?'' पूछा उसने!
"व्यर्थ? महाशुण्ड?" कहा मैंने,
"हाँ! व्यर्थ!" बोला वो,
"कैसे व्यर्थ?" पूछा मैंने,
"उत्तमा अब उत्तमा नहीं है!" बोला वो,
"मैं नहीं जानता!" कहा मैंने,
"तो जान लो!" बोला वो,
"जान चुका हूँ! इसीलिए तो प्रयास कर रहा हूँ!" कहा मैंने,
"सारे प्रयास व्यर्थ हैं!" बोला वो,
"नहीं! कोई प्रयास व्यर्थ नहीं है!" कहा मैंने,
"यही तो नियति चुनी है उत्तमा ने?" बोला वो,
"नहीं महाशुण्ड!" कहा मैंने,
"तो फिर?" बोला वो,
"उसको प्रभावमुक्त करो, फिर देखो, उत्तमा क्या चाहती है!" बोला वो,
"कोई प्रभाव नहीं है उस पर!" बोला वो,
"मैं नहीं मानता!" कहा मैंने,
"मानना होगा!" कहा मैंने,
"यदि उत्तमा स्वयं ही अपने मुख से कहे तो?" कहा मैंने,
अब चुप!
कुछ पल!


   
ReplyQuote
श्रीशः उपदंडक
(@1008)
Member Admin
Joined: 2 years ago
Posts: 9491
Topic starter  

फिर मुस्कुराया!
"तब मान जाओगे?" बोला वो,
"हाँ! फिर मेरा कोई औचित्य नहीं!" कहा मैंने,
"स्वीकार है!" बोला वो,
और देखा उसने ऊपर!
उत्तमा की निढाल देह, नीचे आई, ठीक उसी ढेरी पर,
उसके पाँव का एक अंगूठा मुझसे, मेरे सर से टकराया!
देह, वहीँ उतर गयी उत्तमा की!
अब मुझे देखा उस महाशुण्ड ने! और वो कजरी, वो भी नीचे उतर आई,
आ हुई खड़ी उस के संग!
मैंने बहुत ही क्रूर नज़रों से देखा उस कजरी को!
"उत्तमा, उठो!" बोली कजरी!
और उसी क्षण, उत्तमा उठ खड़ी हुई! जैसे कुछ हुआ ही नहीं था!
"उत्तमा?" कहा मैंने,
और जैसे ही हाथ बढ़ाया मैंने उसका हाथ पकड़ने को, वो कजरी से जा चिपकी!
मेरा तो दिल टुकड़े टुकड़े हो गया!
मेरे कलेजा फट गया उसी क्षण!
लेकिन मैं खड़ा था अभी भी, अभी भी!
किसी आशा में! एक आशा, जो मेरे मन में कहीं अभी भी कोंपल रूप में जीवित थी!
"महाशुण्ड?" कहा मैंने,
देखा उसने मुझे!
"इसे प्रभावहीन करो!" कहा मैंने,
"मेरा कोई प्रभाव नहीं है!" बोला वो,
"मैं नहीं मानता!" बोला मैं,
"तो जैसे मान सकते हो, मान लो!" बोली कजरी!
"मैं प्रभावहीन करूंगा इसको!" कहा मैंने,
"अवश्य!" बोली कजरी!
मैं आया उत्तमा के पास! आँखों में देखा उसके!
उसने आँखें झुकाएं अपनी!
और मैंने एक विद्या, जो ऐसी ही प्रभाव को काट देती है, का संधान किया!
विद्या जागृत हुई, मैंने अपनी श्वास, एक श्वास, अपनी मुट्ठी में क़ैद की,
और बढ़ा उत्तमा की ओर! उत्तमा आँखें बंद किये, चुपचाप खड़ी रही!
मैंने अपना हाथ उसके माथे पर ले जाकर खोल दिया, हाथ वहीँ रखा, और पढ़ दिया मंत्र!
उसने अपने नेत्र खोले तभी के तभी!
उस से मेरी नज़रें मिलीं!
और...........................

और मेरा दिल धड़का! मेरी आशा की वो कोंपल, कड़ी हो गयी थी, जान पड़ जाती उसमे! मैंने उसकी बंद पलकों को निहारते जा रहा था! कि कब वो आँखें खोले और कब मैं उस से


   
ReplyQuote
Page 11 / 12
Share:
error: Content is protected !!
Scroll to Top