वैसा ही, कजरी जैसा श्रृंगार! और वो दमकता हुआ विद्याधर मुस्कुराये!
और अगले ही पल, जैसे तन्द्रा टूटी उत्तमा की!
उसने कजरी को देखा और उस महाशुण्ड को, सर पर हाथ रखा और अचेत हो, गिरी नीचे पुष्पों में!
महाशुण्ड ने हाथ बढ़ाया, और उत्तमा की अचेत देह, उठ पड़ी ऊपर! अपने आप!
आँखें खोलीं उसने!
और मेरी आशा के विपरीत, मुस्कुरा पड़ी उस महाशुण्ड को देख कर!
मेरे दिल में दरकने की आवाज़ आई!
जैसे कांच पर कील घिसी हो!
ऐसा कैसे हुआ?
कहीं प्रभाव तो नहीं?
कहीं कोई विद्या तो पोषित नहीं कर दी?
कहीं भ्रमित तो नहीं कर दिया गया उत्तमा को?
मेरी आँखें पलकें पीटना भूल चुकी थीं!
मेरा दिल जैसे मेरा साथ छोड़ने को आमादा था!
मेरी साँसें, जैसे बेलग़ाम अश्व की भाँती दौड़े जा रही थीं!
मेरा रक्त, जैसे नसों और धमनियों में जम चुका था!
मेरी अस्थियां, जैसे अभी चटकने ही वाली थीं!
मेरा मांस, जैसे अस्थियां छोड़ने ही वाला हो!
यदि ये प्रभाव है, तो बहुत बुरा होने जा रहा है!
उत्तमा को छला जा रहा है!
और कजरी?
कैसी प्रेयसि है?
क्या यही रीत है इन विद्याधरों के प्रेम की?
क्या ऐसा ही होता है?
क्या काम इतना महत्त्व रखता है इनके लिए?
और वो भी, मानव स्त्री से?
ये छल नहीं तो और क्या है?
मैं सवालों के झंझावात में फंस चुका था!
चिंता के बवंडर मेरे सर के चारों ओर घूमने लगे थे!
ये क्या होने जा रहा है?
उत्तमा के संग?
ये महाशुण्ड?
नहीं!
नहीं! नहीं होने दूंगा मैं ऐसा!
कदापि नहीं! कदापि नहीं! अपने जीते जी तो नहीं!
मैं हतप्रभ था! बहुत अधिक! जितना शायद मैं पहले कभी नहीं हुआ होऊंगा! मेरे हाथों से जैसे मेरे अस्तित्व ही सूखी रेत के समान फिसले जा रहा था! प्रश्न ऐसे ऐसे थे जिनका कोई
उत्तर नहीं था! मेरा दिमाग उलझा हुआ था! कुछ शंकाएं थीं! वे अब पौधे न रह कर, लहलहाते वृक्ष बन गयीं थीं!
कौन किसे जानता है?
क्या बाबा लोग जानते हैं कजरी को?
या फिर बाद में मिले उस से?
क्या उत्तमा को मालूम है सबकुछ?
ये भी कि बाबा लोगों को सब पता है?
क्या ये, कि ये उत्तमा की योजना थी?
क्या कोई विशेष बात थी कजरी और उत्तमा के बीच?
या फिर उत्तमा जानकर ही आई है यहां, मुझे अँधेरे में रखकर?
या फिर उत्तमा कुछ नहीं जानती!
यहां क्या हो रहा है, वो भी नहीं!
क्या होने वाला है, ये भी नहीं जानती!
कौन किस से मिला हुआ है, कुछ नहीं पता!
बस इतना, कि मैं अकेला ही हूँ जी फंस के रह गया हूँ!
उत्तमा को महाशुण्ड के दर्शन हुए, और अब शायद..............
कजरी भी प्रसन्न ही, उसका भी कोई उद्देश्य पूर्ण हुआ है!
बाबा लोग, अपनी लम्पटता में लगे ही हुए हैं!
सबके पास कोई न कोई उद्देश्य है!
और मेरे पास?
कोई उद्देश्य नहीं!
ये भी नहीं पता कि उत्तमा चाहती क्या है?
क्या वो महाशुण्ड और कजरी की तरफ है?
या फिर ये वही उत्तमा है जो मेरे पीछे पीछे दौड़ आई थी उस दिन बाज़ार तक?
क्या वही है ये उत्तमा?
या फिर मुझे ही दौरा पड़ा है सोचने का!
क्या करूँ?
कैसे करूँ?
कहाँ फंसा हुआ हूँ मैं!
न जाते बने, न बोलते बने, सोचूं तो आशंकाएं घेर लें!
करूँ तो क्या करूँ?
किस से कहूँ?
मैंने सामने देखा,
कजरी तो बहुत प्रसन्न थी, और वी उत्तमा, उस से भी अधिक प्रसन्न!
उसकी मुस्कान मेरे त्वचा को उलीचे जा रही थी!
हाथ बढ़ाया आगे अपन उस महाशब्द ने!
और, उस उत्तमा ने, अपना हाथ दे दिया उसके हाथों में!
प्रकाश सा कौंधा!
और उस उत्तमा का रूप परिवर्तित हुआ!
दिव्यता ने ढक लिया उसके सम्पूर्ण शरीर को!
रूप-रंग सब बदल गया एक ही क्षण में!
महाशुण्ड ने, उत्तमा का हाथ खींचा और ले लिया अपने वक्ष में!
मेरे मन में तूफ़ान मचा! लगा, जैसे सारा रक्त बह निकला है मेरे शरीर से बाहर!
नहीं! अब और नहीं! नहीं कर सकता मैं सहन! नहीं होता मुझसे सहन!
मित्रगण!
वो विद्याधर है! प्रबल नहीं अत्यंत प्रबल, महाप्रबल!
मुझे, ऐसी कोई विद्या का संधान करना था, जिस से कम से कम ये महाशुण्ड प्रभावित तो हो!
और ऐसी ही एक विद्या, मुझे स्मरण हो आई!
रुद्रधानिका!
"शर्मा जी?" कहा मैंने,
"जी?" बोले वो,
"आप वहां जाओ" कहा मैंने,
"किसलिए?" बोले वो,
"जाइए तो सही?" कहा मैंने,
"बताइये तो सही?" बोले वो,
"मैं जा रहा हूँ उस स्थल पर!" कहा मैंने,
"किसलिए?" पूछा उन्होंने,
"उत्तमा को बचाने के लिए!" कहा मैंने!
अचरज से देखा मुझे! मेरे कंधे पर हाथ रखा!
"ठीक है! जाइए!" मुस्कुरा के बोले!
इतना विश्वास है उन्हें मुझ पर! इसीलिए मुस्कुराये!
और चले गए, एक तरफ!
अब मैंने नेत्र बंद किये और कुछ हो क्षों में रुद्रधानिका विद्या का संधान कर, जागृत कर ली विद्या! मेरे शरीर में ताप भर उठा! नथुने फड़क उठे! नेत्र लाल हो गए! मैं जैसे उद्देश्य के लिए, अँधा हो गया था, शेष कुछ न दिखे, बस उत्तमा! बस उत्तमा!
और गुरु-नमन कर, श्री महाऔघड़ का नमन कर, मैं बढ़ लिया आगे! नहीं देखा पीछे! मैं भागा वहाँ के लिए, और तीनों ने मुझे देखा, एक साथ पलटकर! उत्तमा को छोड़ा महाशुण्ड ने, और मुझे देखा! हैरानी से! कि ये कौन मनुष्य है, जो स्वयं ही बलि चढ़ने यहाँ आ पहुंचा है! और बाबा लोगों को तो हृदयाघात आ गया होगा! उनकी सारी योजना धरी के धरी रह गयी थी!
मैं पहुंचा वहाँ! उस ढेरी के पास!
बस कुछ ही फ़ीट दूर! महाशुण्ड रौद्र रूप में मुझे देखे!
"उत्तमा?" चिल्लाया मैं!
उत्तमा ने देखा मुझे, लेकिन पहचान न सकी! बस हैरानी से देखे मुझे!
"इधर आओ उत्तमा!" कहा मैंने,
महाशुण्ड, मुझे देखे, फिर उस उत्तमा को देखे!
नहीं आई उत्तमा! मुझे यही आशा थी! नहीं आएगी!
"उत्तमा?" मैं फिर चिल्लाया!
और वो महाशुण्ड, दहाड़ा बहुत तेज! भारी-भरकम दहाड़ थी उसकी!
लेकिन मेरी रुद्रधानिका के प्रभाव से, मेरा कुछ अहित नहीं हुआ! हो भी नहीं सकता था!
"कजरी?" चिल्लाया मैं!
कजरी ने देखा मुझे, अचरज से!
"तुमने बहुत गलत किया ये सब!" मैं चिल्ला के बोला!
कजरी ने सुना, और ठहाका लगाया!
कंधे पर हाथ रखा उत्तमा के, और उत्तमा भी ठहाका लगाए अब!
प्रकाश कौंधा! मैंने आँखें नहीं बंद कीं अपनी! मैं क्रोध में अंगार बन चुका था! कोयला, सुलगता हुआ कोयला!
"बहुत पछताएगी कजरी तू!" मैंने हाथ के इशारे से उसको धमकी दी!
फिर से प्रकाश कौंधा!
और एक, दो, तीन, चार, पांच........बारह! बारह विद्याधर सेवक, चेवाट प्रकट हो गए!
अब मैं हंसा! ठहाका लगाया!
"महाशुण्ड!" कहा मैंने,
उसने सर ऊंचा उठा और आँखें चौड़ा के, मुझे देखा, जैसे फूंक देगा मुझे!
"मैंने रुद्रधानिका का संधान किया है!" कहा मैंने,
त्यौरियां चढ़ गयीं उसकी ये सुनकर!
"दुरकेतु का परिणाम ज्ञात होगा?" कहा मैंने!
कुछ पुराने पृष्ठ!
कुछ पुराने पृष्ठ खोल दिए थे मैंने!
"मैं चला जाऊँगा! मुझे उत्तमा दे दो वापिस!" कहा मैंने,
अब दो चेवाट आगे बढ़े! हतहों में खड्ग लिए थे उन्होंने!
"महाशुण्ड! सोच लो!" कहा मैंने,
महाशुण्ड अपनी शक्ति के मद में लिप्त!
मैं झुका और उठायी मिट्टी मुट्ठी में और फेंक मारी सामने! धुंआ सा उठ गया गहरा! वे चेवाट, घूर्णन करने लगे! और जब धुंए की चपेट में आये, तो जलते मुर्दे की सी गंध उठी! अगले ही पल!
चेवाट लोप!
सभी के सभी!
ये है रुद्रधानिका! नाश कर देती है चेवाटों का! लौट गए थे वे चेवाट!
महाशुण्ड हैरान! कजरी भी हैरान! उत्तमा भी हैरान!
"महाशुण्ड, सोच लो!" कहा मैंने,
महाशुण्ड हैरान! वो ऊपर उठा, और उस ढेरी से थोड़ा ऊपर हुआ, मेरी नज़रें उसकी प्रत्येक गतिविधि पर थीं! मैं तैयार था, जब तक मेरी ये रुद्रधानिका संचित थी, तब तक वो मेरा अहित नहीं कर सकता था! और इसको भेदने का अर्थ था, कि अब वो द्वन्द में है मेरे
साथ! मैं उका कुछ अहित तो नहीं कर सकता था, हाँ, वो कजरी एक मोहरा थी मेरे पास! उसको प्रताड़ित करता तो शायद कुछ बात बनती! यही एक काट थी मेरे पास उस महाशुण्ड की! प्रताड़ना ऐसी भी नहीं कि मृत्युतुल्य हो, प्रताड़ना ऐसी कि महाशुण्ड बल देख ले मेरा भी! हालांकि मैं एक साधरण सा ही मनुष्य हूँ, मैं टिका हुआ था अपने गुरु के आशीर्वाद और शिक्षण के भरोसे, उनकी सिखाई हुईं विद्याओं के भरोसे! अन्य गुरुओं की सेवा के भरोसे! जब तक मैं जीवित था, ऐसा कुछ नहीं होने देना चाहता था!
"उत्तमा?" चीखा मैं!
नहीं सुना उसने!
बस कजरी ने देखा मुझे, महाशुण्ड ऊपर उठा, और ऊपर और लोप हुआ!
"कजरी, ये सब क्या है?" पूछा मैंने,
कजरी हंसी! ठहाका लगाया!
"तुमने मिथ्या कहा! तुमने इस मासूम उत्तमा को उस महाशुण्ड को काम-भेंट चढ़ाया!" कहा मैंने,
"मैंने नहीं!" बोली वो,
"तो?" पूछा मैंने,
"इसने स्वयं ही!" बोली वो,
"उत्तमा?" चीखा मैं,
"अब ये उत्तमा नहीं!" बोली वो,
"एक बात याद रखना कजरी, दुष्परिणाम तुझे भोगने ही होंगे!" कहा मैंने, चेताया!
वो मुस्कुराई! आई मेरे पास तक चलकर, उस ढेरी पर खड़ी रही, मुस्कुराती रही!
"दुष्परिणाम?" बोली वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"मैं भुगतूंगी?" पूछा उसने,
"मात्र तू ही नहीं, वो महाशुण्ड भी!" कहा मैंने,
"जानते हो क्या कह रहे हो?" बोली वो,
"जानता हूँ, और वही कह भी रहा हूँ!" कहा मैंने,
हंसी वो, कुटिल सी हंसी! मानव होकर, मानव से बैर! निर्लज्ज! मिथ्या को सत्य का जामा पहनाने से वो सत्य कदापि नहीं हो जाता! आँख मूँद लेने से सूर्य लोप नहीं हो जाता! शयन-समस्य भी मस्तिष्क सक्रिय ही रहता है, निष्क्रिय नहीं! यही हाल था इस कजरी का! सब भूल बैठी थी!मानवता का त्याग कर दिया था उसने! छिः छिः! लानत है ऐसे मानव पर, ऐसी मानव-स्त्री पर!
"जीवन का मोल जानते हो?" बोली वो,
"जानता हूँ, इसीलिए तो यहां खड़ा हूँ!" कहा मैंने,
"नहीं जानते! जाओ, क्षमा किया!" बोली वो,
"क्षमा? तू कौन होती है क्षमा करने वाली?" कहा मैंने, लताड़ा उसे!
वो निर्लज्ज फिर से हंसी!
और प्रकाश कौंधा! कजरी लपकी पीछे! और प्रकट हुआ वो महाशुण्ड! क्रोध में! रोष में! मुझे ही देखे!
और तभी मेरे सामने की भूमि में से अग्नि प्रकट हुई! भूमि जैसे दलदल सी बन गयी! मेरे पाँव डूब चले, और लगा, मैं नीचे को धसक रहा हूँ! ये प्रयोग था उस महाशुण्ड का! मैंने देर न की, अरिद्राक्षि विद्या का संधान किया! जब तक संधान किया, मेरे घुटने भी डूब चुके थे! और कुछ ही पलों में, वो दलदल और अग्नि, लोप हुए! ये देख कजरी की आँखें फटीं! हिल गया वो महाशुण्ड! और मेरे वस्त्र और जूते जो डूब गए थे, पहले जैसे हो गए!
"महाशुण्ड! उत्तमा को मुझे सौंप दो, मैं चला जाऊँगा!" कहा मैंने,
वो हंसा! हंसा नहीं, फट के हंसा! ऐसा प्रबल अट्ठहास था उसका! साधारण व्यक्ति हो तो कान के पर्दे फट जाएँ, रक्त बहने लगे कानों से!
"सच कहता हूँ, चला जाऊँगा मैं!" कहा मैंने,
और तभी एक तीव्र सा प्रकाश उठा उसके और मेरे मध्य से! और सीधा चला मेरी तरफ! मेरी आँखें बंद हुईं और जैसे ही मुझसे टकराया वो प्रकाश, मुझसे टकराते ही, वापिस हुआ! रुद्रधानिका ने मेरी रक्षा की थी! कजरी और महाशुण्ड, दोनों ही हतप्रभ!
मेरे होंठ मुस्कान के साथ फ़ैल गए!
"अभी भी कहता हूँ! मुझे सौंप दो! मैं चला जाऊँगा! कभी नहीं आऊंगा!" कहा मैंने,
सभी चुप!
मैं भी चुप!
"स्पर्श नहीं करना उसे महाशुण्ड?" कहा मैंने, चिल्ला कर,
महाशुण्ड, उत्तमा की भुजा पकड़ना चाहता था,
इसीलिए मैंने ताक़ीद की थी!
"उसे स्पर्श नहीं करना महाशुण्ड! नहीं तो सौगंध धूर्जटेक्ष की, ये कजरी आज ही इस स्तम्भन से मुक्त हो, मृत्यु को प्राप्त हो जायेगी!" कहा मैंने!
पत्थर! पत्थर पड़ने लगे अचानक ही!
मेरे ऊपर गिरें, टकराएं और चूर हों!
भिन्न भिन्न प्रकार के विषैले वनचर कीट, उड़ें और बैठें मेरे ऊपर, जैसे ही बैठे, लोप हों!
मेरे शरीर को ढक लिया था उन्होंने! अजीब अजीब से कीड़े-मकौड़े थे वे!
पीले पीले! काले काले! लेकिन सब लोप!
रुद्रधानिका डटी हुई थी!
मुझे कोई भय नहीं था! कोई भय नहीं!
"महाशुण्ड! मैं चला जाऊँगा! सौंप दो मुझे, मेरा तुम्हारा कोई बैर नहीं!" कहा मैंने,
गुहार सी लगाई थी मैंने ये कहते हुए!
"कौन हो तुम?" बोला वो!
क्या भारी आवाज़! जैसे किसी गहरे अँधेरे कुँए में से आवाज़ वापिस आती है ऐसी आवाज़!
"मैं! मैं मात्र एक मनुष्य हूँ!" कहा मैंने,
मेरे उत्तर से कोई प्रभाव नहीं पड़ा उसे!
हाँ, कजरी चली उसके पास, और कुछ बताया उसको!
"जाओ! क्षमा करता हूँ!" बोला वो,
"क्षमा? कैसी क्षमा? तुम कौन होते हो मुझे क्षमा करने वाले?" कहा मैंने,
"जानते नहीं कौन हूँ मैं?" बोला वो,
"जो भी हो, मुझे भय नहीं!" कहा मैंने,
"इतना दुःसाहस?" बोला वो,
"यदि ये दुःसाहस है तो ये ही सही!" कहा मैंने,
"लौट जाओ!" बोला वो,
"उत्तमा के बग़ैर तो हरगिज़ नहीं!" कहा मैंने,
"अब ये मानुष नहीं!" बोला वो,
"ये मानुष ही है!" कहा मैंने,
"मैं असत्यभाषी नहीं!" बोला वो,
"मैं भी नहीं!" कहा मैंने,
"इसीलिए कहता हूँ, लौट जाओ!" बोला वो,
"नहीं लौट सकता उत्तमा के बग़ैर!" कहा मैंने,
"प्राण गंवा दोगे!" बोला वो,
"मुझे परवाह नहीं!" कहा मैंने,
"मोह नहीं प्राणों से?" बोला वो,
"नहीं! जो वस्तु मेरी नहीं, उस से कैसा मोह?" बोला मैं,
वो हंसा मेरी बात सुनकर!
"अब ये उत्तमा नहीं!" बोली कजरी!
"जैसे तू रूपाली नहीं!" बोला मैं,
"यही समझ लो?" बोली वो,
"तूने समझ लिया? मुझमे और तुझमे अंतर है!" कहा मैंने,
"अब जाओ यहां से!" बोली वो,
"इसको सौंप दो मुझे!" कहा मैंने,
"क्या लगती है तुम्हारी? क्या अधिकार है?" बोली वो! पूछा उसने!
"क्या लगती है, ये मानव है! क्या अधिकार है? मात्र अधिकार से ही ये जगत नहीं चल रहा!" कहा मैंने,
"मूर्ख हो तुम!" बोली वो,
"मूर्ख ही सही! तुझ जैसा ज्ञानी नहीं बनना मुझे!" कहा मैंने,
हंसी वो! वो भी हंसा!
"बस! अब जाओ यहां से!" बोली वो!
"सुना नहीं? सुन लो! फिर कहता हूँ, उत्तमा के बग़ैर नहीं!" कहा मैंने,
"भूल जाओ अब उत्तमा को!" बोली वो,
"तू जैसे अपने आप को भूल गयी? उसी तरह?" कहा मैंने,
चुप! वो चुप! मैं चुप!
"उत्तमा?" चीखा मैं!
और अब पहली बार उसने देखा मुझे! पहली बार! इस प्रकार से!
"उत्तमा? पहचानो?" बोला मैं!
एक तांत्रिक उपाय बताता हूँ! आप पांच चौराहों की मिट्टी लीजिये, एक एक चुटकी, ध्यान रहे, आपके निवास स्थान से ये चौराहे पूर्व में न पड़ें! और चौराहे चलते हों, ऐसा न हो कि
इक्का-दुक्का लोग ही आवागमन करते हों, अब ये मिट्टी किसी काले कपड़े में बाँध लीजिये! अपने सर से लेकर पाँव तक इक्कीस बार ये कपड़ा घुमाइए, वारिये, उतारिये, सर से लेकर पाँव तक, चाहें तो किसी की मदद भी ले सकते हैं! अब अपने तक़िये के नीचे ये कपड़ा, सात रात रखिये! और आठवें दिन, उसको बहते पानी में प्रवाहित कर आइये! पीछे मुड़के न देखिये! बुद्धि कुशाग्र होगी, स्मरण-शक्ति बढ़ जायेगी, पूरे दिवस का शिक्षण मात्र आप एक घंटे में ही कर लेंगे! विद्यार्थियों के लिए अचूक प्रभाव करता है! कीजिये और लाभ उठाइये!
"उत्तमा?" मैं फिर से चीखा!
वो मुझे देख रही थी, पहचानने की कोशिश कर रही थी!
"जाओ यहां से?" बोला गर्रा के वो महाशुण्ड!
"महाशुण्ड! उत्तमा के बिना तो मैं एक पाँव नहीं हिलाउंगा!" कहा मैंने,
"ये मेरी हो गयी!" बोला वो,
"स्वप्न मात्र मनुष्य ही देखते हैं, यहीं सोचता था मैं आज तक! लेकिन आज जाना की विद्याधर भी स्वप्न देखते हैं!" कहा मैंने,
वो बिफर गया मुझ पर! क्रोध में न जाने क्या क्या बकता रहा! मुझे कुछ भी समझ नहीं आया, बस इतना कि वो क्रोध में था!
और तभी शून्य में से अग्नि-पिंड प्रकट हुए!
बड़े बड़े अग्नि-पिंड!
इतने बड़े कि हाथी को भी लील जाएँ! सुखा दें! भस्म कर दें!
वे घूम रहे थे वहाँ उस स्थान पर! मैंने गिने मन ही मन तो कुल छह थे! वे एक एक करके सब एक दूसरे से एक बड़ा अग्नि-महपिण्ड के रचना कर रहे थे!
हंसा वो महाशुण्ड!
हंसी वो कजरी!
"यामिका तवरंचिताः तुलजे!" मैंने माँ तुलजा का महामंत्र पढ़ा और उस अग्नि पिंड से मेरी रक्षा हो, ऐसी मैंने कामना की!
वो बड़ा सा अग्नि पिंड, एक जगह रुक गया! उसमे गुबार उठ रहे थे! उसमे उस महाशुण्ड की विद्या का ईंधन था! इसी कारण से वो अत्यंत ही भयावह लग रहा था! उसका प्रकाश फ़ैल गया था उस स्थान पर, शाल वृक्ष के तने, डालें और पत्तियाँ सभी चमक उठी थीं! और सहसा ही, वो अग्नि-महापिंड मुझे लीलने, भस्म करने आगे बढ़ा, मैं आया उसकी चपेट में, मैंने माँ तुलजा का स्मरण किया और मेरे नेत्र बंद हुए, ताप तो मुझे महसूस हुआ, परन्तु वो अग्नि-महापिंड, गुजर गया मुझे ढकते हुए! और लोप हुआ! मेरा बाल भी बांका न हुआ! बस ताप लगा था! मैंने माँ तुलजा का मन ही मन धन्यवाद किया!
ऐसा होते देख, वे दोनों जैसे अचेत ही हो जाते! ऐसी हालत हो उठी थी! उन्हें विश्वास नहीं हो रहा था कि मैं अभी भी कैसे जीवित हूँ!
अब मेरे होंठों पर हंसी आई!
मैं हंस पड़ा! खूब तेज! उनका उपहास उड़ाया मैंने हंस कर!
"महाशुण्ड! तुम विद्याधर हो! मैं सम्मान करता हूँ तुम्हारा! परन्तु मनुष्य भी कम नहीं, जब ठान ले, तो कुछ सम्भव नहीं उसके लिए!" कहा मैंने!
महाशुण्ड ऊपर उठा! घूर्णन करते हुए, और लोप हुआ!
कजरी और उत्तमा, मुझे ही देखे जाएँ!
सोच में पड़ें! उत्तमा सोचे, कि मैं हूँ कौन? और कजरी सोचे, कि मैं कैसे बाधा बन गया हूँ उनके लिए! कैसे हटे ये बाधा?
"कजरी?" कहा मैंने,
कजरी मुझे ही देखे! विस्मय से!
"कजरी? अभी भी समय है, मान जा मेरी बात!" कहा मैंने,
"तुम हार जाओगे!" बोली वो,
"हारूँ या जीतूं! वो मेरा भाग्य! तुझे चिंता करने की आवश्यकता ही नहीं!" कहा मैंने,
"व्यर्थ में प्राण गंवा दोगे!" बोली वो,
"मान लिया! पर पीछे हटना नहीं सीखा मैंने, किसी ने सिखाया ही नहीं!" कहा मैंने,
"लौट जाओ! लौट जाओ!" बोली वो, हाथ से इशारा करते हुए!
"मैं तो लौट ही जाऊँगा! लेकिन इस उत्तमा के साथ!" कहा मैंने,
"अब ये सम्भव नहीं!" बोली वो,
"सम्भव है!" कहा मैंने,
"क्या करोगे?" बोली वो,
"जान जाओगी!" कहा मैंने,
ठहाका लगाया उसने! जैसे मैंने मज़ाक किया हो!
"मान जाओ कजरी!" कहा मैंने,
"तुम मान जाओ!" बोली वो,
"मैं मान तो रहा हूँ?" कहा मैंने,
"तो लौट जाओ" बोली वो,
"नहीं, अकेला तो नहीं जाने वाला मैं!" कहा मैंने,
"अब उत्तमा, उत्तमा शेष नहीं!" बोली वो,
"जानता हूँ, और ये प्रभाव हटाना असम्भव नहीं!" कहा मैंने,
"तो लौट जाओ?" बोली वो,
"सुन कजरी!" कहा मैंने,
और तब मैंने अपने गले में धारण किये हुए पाँचों माल, बाहर निकाले!
एक में अस्थियां पिरोई हुईं थीं!
"ये मेरे श्री महागुरु का दिया माल है! इस जैसे महाशुण्ड उनके समक्ष आ भी नहीं सकते थे! और मैंने भी यही सीखा, सत्य पर आगे बढ़ो तो पीछे कोई स्थान शेष न रखो! तो कजरी! कोई स्थान शेष नहीं!" बोला मैं,
"व्यर्थ!" बोली वो,
"सुन कजरी! जैसा मैं कहता हूँ, मान जा, उस से भी कह दे, मैं लौट जाऊँगा! और अगर मैं अपनी पर आया न, तो तुझे ऐसा सुखाऊंगा कि तेरी परचाहुं भी नहीं पड़ेगी भूमि पर! इस इस महाशुण्ड का मार्ग, अवरुद्ध कर दूंगा सदा के लिए! तुझ तक कभी नहीं पहुँच पायेगा, वो वो खुद और न उसकी विद्याएँ!" कहा मैंने,
इस से पहले कि कजरी कुछ उत्तर देती,
फटाक की सी आवाज़ हुई ऊपर बहुत तेज!
मैंने ऊपर देखा, तो ऊपर, मुझे कुछ पक्षी से दिखे, उड़ते हुए!
ध्यान से देखा, तो पता चला कि वो गरुड़ हैं! बड़े बड़े गरुड़!
उद्देश्य स्पष्ट था, मुझे नोंचने फाड़ने आये थे, वही कर सकता था ये महाशुण्ड!
मैंने तभी डामरी-विद्या का संधान किया और जागृत किया!
जागृत हुई, और उन गरुड़ों के पंखों से आती हवा अब मेरे माथे, सर आदि पर पड़ने लगी थी!
भयानक दुर्गन्ध फ़ैल गयी थी!
जैसे कि कई मुर्दे सड़ रहे हों!
चिपक गए हों एक दूसरे के अंतःस्राव में! ऐसी भयानक दुर्गन्ध!
गरुड़ चीखे! और मैं शांत खड़ा रहा!
एक एक करके, भूमि पर उतरने लगे वो!
बहुत दीर्घ आकार था उनका! ऐसा कि एक एक वयस्क को उठा लें!
वे उतरे, कम से कम, बीस तो रहे ही होंगे!
वे उड़े, और जैसे ही झपट्टा मारने चले मेरी तरफ, डामरी-विद्या ने अपना काम किया!
जैसे ही टकराते, उसके अंग, भंग हो जाते! जैसे मेरी विद्या से कोई अदृश्य तलवार काटे जा रही हो उन्हें!
और इस प्रकार वे बीस के बीस, काट डाले गए, कटते और लोप होते!
कजरी के चेहरे पर अब चिंता सी उभरी!
मैं आगे बढ़ा थोड़ा सा!
"बस कजरी?" कहा मैंने,
कजरी चुप!
"यही हाल इस महाशुण्ड का होना है!" कहा मैंने,
और तभी प्रकाश फूटा!
मैंने ऊपर देखा, जैसे प्रकाश का कोई गोला फूट पड़ा हो!
देखा नहीं गया, आँखें मूँदनी पड़ीं!
और जब खोलीं, तो ऊपर एक महाभट्ट सा योद्धा खड़ा था!
वो कोई विद्याधर तो क़तई नहीं लगता था!
रूप में तो वेताल सा था!
पत्थर की भांति मज़बूत देह थी उसकी!
सफेद बाल थे, उसके शरीर के आकार के बराबर ही!
वो नीचे आया, धीरे धीरे और ठीक उस ढेरी के उस पर उतरा!
शरीर पर मात्र एक लंगोट ही थी उसके,
और मांस-पेशियाँ ऐसीं कि जैसे पत्थर से बनी हों!
हाथ में कोई अस्त्र न था उसके,
लम्बाई कोई बारह फ़ीट रही होगी!
चमक रहा था नीले रंग का सा!
आँखें पीली थीं उसकी, बड़ी बड़ी!
और हाँ, न नाभि ही थी और न पुरुष चुचुक!
वो आगे बढ़ा, उस ढेरी के बाएं से, मेरे पास आने के लिए!
आया मेरे पास, रुका कोई छह फ़ीट पर!
"कौन हो तुम?" बोला वो,
आवाज़ ऐसी कि जैसे किसी मेघ ने कुछ कहा हो!
"तुम कौन हो?" बोला वो,
"पुरुल!" बोला वो!
अच्छा! पुरुल आ गया था! भेजा था उसको उस महाशुण्ड ने!
रक्षा के लिए! एक मानव से डर गया था की महाशुण्ड?
मुझे मन ही मन, बहुत हंसी आई, उस महाशुण्ड पर!
पुरुल! ये भी एक विशेष योनि है! ये वेताल की तरह ही होते हैं, नेपाल में, अक्सर ये पुरूल स्थानीय देवों के रूप में पूजे जाते हैं, विशेषकर, पूर्वी नेपाल में, भारत में, बलिया जिले में भी, बलिया; पूर्वी उत्तर प्रदेश वाला, कई ऐसे पुरुल मंदिर आज भी हैं, जो स्थानीय देवताओं के रूप में पूजे जा रहे हैं! पुरुल, हिमालय वासी हैं, और इन विद्याधरों के अभिन्न मित्र हैं! ये पुरुल इनके मित्र भी हैं और सहचर भी! इसीलिए इस पुरुल-पुरुष को भेज दिया था उस महाशुण्ड ने!
"तुम कौन हो?" पूछा उसने,
"एक साधारण सा मानव!" उत्तर दिया मैंने,
"क्या चाहते हो?" बोला वो,
"वो, वो उत्तमा, मेरी प्रेयसि है!" मैंने कहा, प्रेयसि ही कहा मैंने उत्तमा को!
उसने देखा पीछे उस उत्तमा को, शायद कजरी को तो जानता ही होगा!
"तो?" बोला वो,
"वो उस महशुण्ड के प्रभाव में है! और मैं ऐसा नहीं चाहता!" कहा मैंने!
"तो क्या चाहते हो?" बोला वो,
"मेरी प्रेयसि मुझे मिल जाए, तो मैं सहर्ष चला जाऊँगा!" कहा मैंने,
"अब वो तुम्हारी प्रेयसि नहीं, उन महाशुण्ड की प्रेयसि है!" बोला वो,
"तुम्हारे कहने से मैं मान जाऊँगा पुरुल?" कहा मैंने,
"मानना तो होगा ही!" बोला वो,
"नहीं तो?" बोला मैं,
"मनवाना पड़ेगा, और वो मैं जानता हूँ!" बोला वो!
धमकाया उसने मुझे उस लहजे में!
"अच्छा! तुम्हारा वो महाशुण्ड तो परता नहीं कहाँ मुंह छिपा के पड़ा है! तुम्हे आगे कर दिया! जाओ पुरुल! मेरा तुमसे कोई बैर नहीं! मेरा बैर उस महाशुण्ड से है!" कहा मैंने,
"हम और विद्याधर एक ही हैं!" कहा उसने,
"तो मानव पर ऐसा प्रभाव क्यों?" बोला मैं,
"ये तो तुम्हारी उस, उस प्रेयसि ने चुना था!" बोला उत्तमा की ओर इशारा करके!
"नहीं पुरुल! नहीं चुना! उसको भ्रमित किया गया! और वो, इस कजरी के कहने में आ गयी!" कहा मैंने,
"तो अब?" बोला वो,
बता तो दिया?" कहा मैंने,
"वो तो असम्भव है!" बोला वो,
"कोई असम्भव नहीं!" कहा मैंने,
"क्या करोगे तुम, ओ मानव?" बोला वो,
"ये तो महाशुण्ड देख ही चुका है! तभी तो तुम्हें भेजा है!" कहा मैंने,
"मैं यहां स्वयं आया हूँ!" बोला वो,
"अच्छा! मुझे हटाने! मनवाने!" कहा मैंने, मुस्कुराते हुए!
"हाँ! पर हम दयावान हैं!" बोला वो,
"हाँ! देख ली दया!" कहा मैंने,
"अब देख लो! जाओ, नहीं हरता तुम्हारा जीवन!" बोला वो!
"बहुत दया दिखाई!" मैंने हाथ जोड़कर कहा!
"अब जाओ? लौट जाओ?" बोला वो,
"नहीं पुरुल! ऐसे नहीं!" बोला मैं,
"तो फिर कैसे?" बोला वो,
"अपनी प्रेयसि के बिना नहीं!" कहा मैंने,
"वो अब तुम्हारी प्रेयसि नहीं है! जाओ, लौट जाओ!" बोला वो,
"नहीं! कदापि नहीं!" बोला मैं!
"मुझे विवश कर रहे हो!" बोला वो!
"जैसी तुम्हारी इच्छा!" कहा मैंने,
"फिर कहता हूँ! लौट जाओ!" बोला वो,
"नहीं!" कहा मैंने,
"तो अब जीवन शेष नहीं तुम्हारा!" बोला वो,
"ये जीवन तुमने नही दिया मुझे! हर के देख लो!" कहा मैंने,
अब नहीं बोला कुछ! पीछे हटा! मुझे देखते ही! फिर एक बार कजरी को देखा,
और अचानक से हाथ आगे किया!
भयानक ताप उठा! भयानक! अरिद्राक्षि विद्या संधानित न की होती, तो मेरा शरीर, मेरी अस्थियों समेत ही भस्म रूप ले लेता! लेकिन कुछ अहित नहीं हुआ मेरा!
वो चौंका! संभवतः उसने ऐसा पहली बार ही किया होगा!
उसने दूसरा हाथ आगे किया! फिर से भयानक ताप! और मेरी विद्या ने मेरे प्राणों की रक्षा की!
वो हैरान! स्तब्ध! पहाड़ को भी चूर चूर कर देने वाली उसकी वो शक्ति निष्फल कैसे? अरिद्राक्षि एक महाविद्या की सहोदरी की विद्या है! कभी निष्फल नहीं होती, जब तक इसको काटा न जाए! और काटने के लिए समस्य चाहिए! और समय तो यहां किसी के पास नहीं था!
अचानक से, भूमि हिलने लगी! मैं लड़खड़ा गया! लेकिन संतुलन बनाया मैंने! भूमि ऐसे हिल रही थी कि जैसे अभी पलट जायेगी! और मैं उसमे समा जाऊँगा! जीवित ही! और तभी मेरे पाँव धंसे! मेरे नीचे की मिट्टी रेत बन गयी थी! मैंने झ से माँ तुलजा की विद्या का संधान किया और मैं स्थिर हो गया! मुझे जैसे नीचे खींचे निर्वात और मेरी विद्या मुझे थामे रहे! ऐसे ज़ोर-
आजमाइश सी चलती रही! हाँ, मैं कम से कम ,दस फ़ीट तक पीछे धकेल दिया गया था! और तभी मेरे सामने की भूमि भर्र-भर्र की आवाज़ करती हुई, फट गयी! उसमे दरार पड़ गयी! उसमे से सफेद और पीला सा धुंआ निकलने लगा, वो धुंआ ऊपर उठता और धूम्र-कन्या की आकृति लेने लगता! एक दो नहीं, कम से कम आठ! ऐसी थीं वो धूम्र कन्याएं!
वे बढ़ीं मेरी ओर!
मैंने श्री महाऔघड़ की रुद्रधानिका विद्या का जाप किया!
ज़ोर ज़ोर से!
वे धूम्र-कन्याएं आयीं मेरे समक्ष!
मेरे शरीर के सभी छिद्रों में वो धूम्र प्रवेश करने लगा!
मैं जाप करता रहा! डटा था विद्या के दम पर!
कुछ ही पलों के बाद, वो धूम्र मेरे उदर में इकठ्ठा होने लगा! मेरा उदर जैसे फटने को हो! आँखें सूज गयीं मेरी! पलकें सूज गयीं, कुछ न दिखे, मसूड़े सूज गए, इतने की दांत उनमे ही समा गए! मेरे नथुने गरम हो चले! मेरा सर फटने को हो! मैं डटा रहा! मन ही मन जाप करता रहा! और तभी मैं जैसे हवा में उछला! पीछे गिरा भूमि से कोई एक फ़ीट ऊपर उठकर!
और जैसे ही खड़ा हुआ,
मेरा शरीर एक दम पहले जैसा हो गया!
काट डाला धूम्रा वार मेरी विद्या ने!
मैं जीवित था! अभी भी!
लड़ रहा था इस पुरुल पुरुष से!
फटी भूमि में, मेरे समस्त छिद्रों से निकला वो धूम्र वापिस समा गया उसमे!
हाँ, भूमि फटी ही रही!
मैं भागा आगे! और आया उस ढेरी तक!
वो पुरुल पुरुष इस बार स्तब्ध!
चकित रह गया था वो!
मैं सुरक्षित था! मेरा कुछ भी अहित न हुआ था!
इस से पहले मैं कुछ कहता,
मुझे किसी ने हवा में उठाया!
कम से कम दो फ़ीट! मेरी गरदन को नीचे झुका रहा था कोई!
मैं अरुदण्डिका विद्या के वो मात्र चार शब्द बोले!
और मैं नीचे उतार दिया गया! ठीक वैसे ही, जैसे उठाया था!
मैंने ऊपर देखा, कोई नहीं था! कोई भी नहीं!
मैं अब वो शब्द जपता ही रहा!
बार बार! तेज तेज! ज़ोर ज़ोर से!
तेज वायु बही! पानी की बौछारें मेरे शरीर पर पड़ें!
हिम के टुकड़े थे शायद, चुभें!
आँखें ही न खुलें!
मैंने फिर से अरुदण्डिका के शब्द पढ़े मन ही मन!
और बौछार बंद! वायु तीव्रता से बहे!
खड़ा भी न होया जाए!
तब मैंने महामुण्डिका का महामंत्र पढ़ा!
और दी पाँव से थाप भूमि पर!
सर्र की सी आवाज़ हुई भूमि में!
और वो वहाँ खड़ा पुरुल पुरुष,
हवा में उड़ा! चक्कर काटे बार बार!
कभी इधर, कभी उधर, कभी दायें कभी बाएं!
कभी भूमि पर, कभी आकाश में!
वायु बंद हुई! और उस पुरुल को ऐसा करते देख, कजरी का कलेजा बैठा!
विद्या भड़क उठी थी! अब पुरुल ही जाने! मैंने तो संधान कर ही दिया था!
और अगले ही पल, वो दहाड़ता पुरुल, लोप हो गया!
चला गया था पुरुल पुरुष! जिस तीव्र गति से आया था, उसी तीव्र गति से चला भी गया था! मैं आगे बढ़ा फिर, उस ढेरी तक आया! कजरी को देखा! कजरी भावहीन थी! हाँ, चकित अवश्य ही थी, परन्तु दिखाई नहीं देना चाहती थी!
"देख लिया कजरी?" कहा मैंने,
न बोली कुछ!
"मैंने हुण्डक नाम के पुरुल को तब छकाया था जब मैं शिक्षण में था! ऐसे बात नहीं बनने वाली कजरी! अपने प्रेमी महाशुण्ड से कहो कि कोई प्रबल वार करें! ये पुरुल कुछ नहीं कर पाएंगे!" कहा मैंने,
और हंसा! उसकी हालत पर हंसा!
"उत्तमा?" मैंने फिर से कहा,
उत्तमा ने देखा मुझे,
परन्तु, कोई भाव नहीं, शायद मैं शत्रु था उसका उस वक़्त तो!
"मुझे पहचानो उत्तमा!" कहा मैंने,
कोशिश तो करे! लेकिन विवश!
"उत्तमा?" कहा मैंने,
"ये उत्तमा नहीं है!" बोली कजरी,
"जैसे तू रूपाली नहीं, है न?" कहा मैंने, लताड़ा!
"ये अब स्वर्णिमा है!" बोली वो,
"स्वर्ण को पत्थर भी कहा जाए तो तब भी वो स्वर्ण ही रहेगा कजरी! इस भूल में मत रह, ये कोई स्वर्णिमा नहीं, ये उत्तमा ही है!" बोला मैं,
और तभी बिजली सी कड़की!
मेह बरस उठा! घनघोर मेह!
मैं भीग गया! लेकिन खड़ा ही रहा!
बिजली कड़के, भूमि भी कांपे!
और मुझे हिस्स हिस्स सुनाई दे!
मेह ऐसा घनघोर, कि दो फ़ीट से अधिक कुछ दिखे ही नहीं!
ये सर्प थे, हिस्स हिस्स की आवाज़ उन्ही की होगी!
कोई बात नहीं! कोई बात नहीं!
मैंने तभी नाहर सिंह वीर का रुक्का पढ़ा!
और दी थाप उस गीली मिट्टी पर अपने पाँव से, तीन बार!
रुक्का पूर्ण हुआ, और तभी मेरे घुटने के पीछे, मुझे काटा किसी सर्प ने!
आग सी लग गयी मेरी टांग में!
मैंने पीछे देखा, तो एक चितकबरा सा, बड़ा सा सर्प था वो,
कुंडली मारे, जीभ लपलपा रहा था, डरा रहा हा मुझे!
मैंने रुक्का पढ़ लिया था, विष प्रभावहीन हो जाता, उसकी कोई चिंता नहीं!
मैं आगे बढ़ा, उस सर्प की तरफ!
वो पीछे हटे! हाँ, एक बात और!
वो सर्प नहीं भीग रहा था उस मेह में! मात्र मैं ही भीगे जा रहा था!
मैं आगे बढूँ, और वो पीछे हटे!
तभी मैंने सर्प-कुचंकिणि विद्या का संधान किया ,ये विद्या मुझे बाबा कनफ़ड से मिली थी! मैं नीचे झुका,
मैंने तभी नीचे से मिट्टी उठायी, मुट्ठी में, मंत्र पढ़ा, और ज़ोर से फेंक मारी नीचे!
सर्प में आग लग गयी! जगह जगह! जगह जगह पर बैठे सर्प, जलने लगे! मात्र मायावी ही, और दूसरे नहीं!
उसी मंत्र से, मैंने उस दंश वाले स्थान को भी पुंजित कर दिया! पीड़ा खत्म!
और तभी मेह बंद हुआ! अचानक से ही! भीषण गर्मी! ऐसी गर्मी कि वस्त्र आदि सब सूख गए! कुछ ही पलों में!
ये सब मायावी होता है! सब माया का खेल है!
मैंने अभी तक कोई वार नहीं किया था!
बस, अपना ही बचाव किया था, और कुछ नहीं!
ज़मीन सूख गयी थी, जले हुए सर्प सब, लोप हो गए थे!
ये एक विशेष सर्प होता है, जिसने मुझे काटा था, इसको ताहिन कहा जाता है, अजगर के बाद मात्र यही सर्प है, जिसमे मुख ने दांतों की कतारें हुआ करती हैं! उसका विष मात्र कुछ ही साँसें लेने के पश्चात, प्राण हर लेता है! और यही मंतव्य रहा होगा उस महाशुण्ड का!
मैं आगे बढ़ा, कजरी के पास तलक!
और तभी देखिये हुआ क्या!
वे दोनों लम्पट, जो अब तक सब देख रहे थे, दौड़े दौड़े आ ये अंदर!
बाबा भोला ने तो मेरी भुजा भी पकड़ ली,
गिरफ़्त आम नहीं थी, तेजी से पकड़ा था मेरी भुजा को!
"छोड़ दो बाबा!" कहा मैंने,
"ये क्या कर रहा है तू?" बोले वो,
"देख नहीं रहे क्या?" बोला मैं,
"जो हो रहा है, होने दे?" बोले वो,
"नहीं तो?" बोला मैं,
