"क्या बात है?" कहा मैंने,
"अरे कुछ नही" बोले शर्मा जी,
"क्या, कोई बात हुई क्या?" पूछा मैंने,
"वही, घर घर की बात" बोले वो,
'अब, ये तो होता ही है!" कहा मैंने,
"कभी कभार गुस्सा बहुत आता है" बोले वो,
"उस से फायदा?" पूछा मैंने,
"हाँ, जानता हूँ" बोले वो,
"सभी घरों में ऐसा होता है" कहा मैंने,
"समझता हूँ" कहा उन्होंने,
"अब नहीं करा कुछ भी!" कहा मैंने,
"नहीं करूँगा" कहा उन्होंने,
उनका मनमुटाव सा हो गया था अन्य सदस्यों से, इसीलिए उनका थोड़ा मिजाज़ बिगड़ा हुआ था! अभी थोड़ी देर पहले ही खटपट हो गयी थी फ़ोन पर!
"चलो छोडो अब" कहा मैंने,
"वो, देव साहब का फ़ोन आया था" बोले वो,
"क्या कह रहे थे?" पूछा मैंने,
"पूछ रहे थे कि कब मुलाकात होगी होगी गुरु जी से?" बोले वो,
"क्या कहा आपने?" पूछा मैंने,
"कहा कि अभी तो समय नही है" बोले वो,
"सही कहा" मैंने कहा,
तभी सहायक आया अंदर, सामान लाया था, सर्दी के मारे बहुत बुरा हाल था! कंबल लपेट के आया था, मेरे कमरे में अंगीठी सुलग रही थी, उस से कमरा थोड़ा गर्म था बाहर के मौसम से! मैं और शर्मा जी, रजाई में से हए थे! रात के आठ बज रहे थे! खिसकी दरवाज़े सब बंद थे! फिर भी उन खिड़कियों और दरवाज़े की दरारों से जब हवा अंदर आती, तो बदन चीख-पुकार मचा देता था!
"बाहर तो बस बर्फ पड़ने की देर है!" बोले वो,
"हाँ, ठंड इतनी है कि पांवों की उंगलियां भी जम सी गयी हैं!" बोला मैं,
"हां, बड़ा बुरा हाल है" बोले वो,
"लो, शुरू करो, ठंड भगाओ!" कहा मैंने,
और दे दी बोतल, बना लिए दो पैग, रम थी साथ में,और मछली के पकौड़े, हाथ से जब उठाते तो उनकी तपन से बड़ी राहत मिलती!
"बढ़िया बनाये हैं!" बोले शर्मा जी!
"हाँ, तीखा मसाला है!" कहा मैंने,
"नेपाल में यहाँ तो राहत है खाने की!" बोले वो,
"हाँ, नहीं तो नौ बजे ही टीन-टप्पर बंद!" कहा मैंने,
"वो तो डेरा है ये, नहीं तो हाल खराब हो जाए!" बोले वो,
हम खाते रहे, और पीते रहे, सर पर मफलर लपेट रखा था मैंने! उस से बड़ी राहत मिल रही थी! शर्मा जी ने, गरम ऊनी टोपी पहनी थी! अंगीठी में पड़ा कोयला दहक रहा था! उसकी गर्मी से कमरे में राहत थी!
तभी सहायक आया, और अंगीठी में रखे कोयले, कुरेदे, फिर थोड़े और कोयले डाले उसमे! शरण नाथ था उस सहायक का, नेपाल का ही रहने वाला था!
"अबे शरण?" बोले शर्मा जी,
"हाँ जी?" बोला वो,
"अरे ऐसी ही ठंड पड़ती है यहां?" बोले शर्मा जी,
वो हंसा!
"हाँ जी, ठंड तो बहुत पड़ता है यहां!" बोला वो,
"हाँ यार!" बोले शर्मा जी,
"वो पहाड़ है न आसपास, उसका ठंड है" बोला वो,
"हाँ, सही कहा" मैंने कहा,
"आप तो लगा रहा है, कैसा ठंड!" बोला वो,
"तू लगाएगा?" पूछा मैंने,
"नहीं नहीं, वो हम लगा रहा है, दीपू के संग" बोला वो,
'अच्छा, वही, नेपाली?" पूछा शर्मा जी ने,
"हाँ, वो ही पीता है शब यहां!" बोला वो!
"ठीक है!" कहा शर्मा जी ने,
"कुछ और लाऊँ?" पूछा उसने,
"पकौड़े ले आ" बोला मैं,
"अभी लाया" बोला और चला गया!
"आदमी भला है" बोले शर्मा जी,
"कर रहे हैं अपना टाइम पास" कहा मैंने,
आया शरण फिर से, और काफी सारे ले आया!
"ये काम बढ़िया किया तूने यार!" कहा मैंने,
"मच्छी अच्छा लगता है ठंड में" बोला वो,
"हाँ, सच कहा" मैंने एक टुकड़ा खाते हुए कहा,
"और कुछ?" पूछा उसने,
"नहीं, बस!" कहा मैंने,
उसने दरवाज़ा भेड़ दिया था जाते जाते, और हम, हो गए थे फिर शुरू! मछली नेपाली ही थी, खिरस बोलते हैं इस प्रजाति को, स्वाद में लाजवाब थी, कोई शक नहीं था उसमे! और सर्दियों में तो ऐसी गर्म, कि रात को रजाई भी फेंक दो!
कोई दस मिनट बीते होंगे, कि दरवाजे पर दस्त शर्मा जी उठे, दरवाज़ा खोला, तो सामने एक साध्वी खड़ी थी,
"आ जाओ उत्तमा!" कहा मैंने,
आ गयी अंदर, "बैठो" कहा मैंने,
बैठ गयी, वहीं, बिस्तर पर,
"लो ये ले लो, ओढ़ लो" कहा मैंने,
कंबल दिया था उसको मैंने, उसने खोला और ओढ़ लिया!
"बड़ी भयानक सर्दी पड़ती है उत्तमा तुम्हारे नेपाल में तो!" कहा मैंने,
"सर्दी का मौसम है, और फिर, पहाड़ों पर बर्फ पड़ी है" बोली वो,
"हाँ, तभी हवा ऐसी है कि खून जमा दे!" कहा मैंने, 'हाँ" बोली वो, "कैसे आना हुआ ऐसी सर्दी में?" कहा मैंने,
"आपने ऋषभ बाबा से कुछ बात की थी?" पूछा उसने,
"नहीं तो, कल मिले थे, आज तो नहीं मिले?" कहा मैंने,
"कल कुछ कहा हो?" पूछा उसने,
"नहीं तो, कोई ख़ास नहीं" कहा मैंने,
सोच में पड़ी वो!
"क्या बात हुई?" पूछा मैंने,
"कह रहे थे कि आपके साथ कहीं जाना है?" बोली वो,
"मेरे साथ? नहीं तो?" कहा मैंने,
"अच्छा?" बोली वो,
"हाँ?" कहा मैंने,
"किसी कजरी के बारे में कह रहे थे" बोली वो,
मैं पड़ा सोच में!
"अच्छा! याद आया!" कहा मैंने,
"क्या बात थी?" पूछा उसने!
"है एक कजरी! कोई चालीस बरस की होगी" कहा मैंने,
"वहीं के लिए कह रहे थे" बोले वो,
"हाँ, मिलने को कह रहे होंगे" कहा मैंने,
"कुछ विशेष है कजरी के पास क्या?" बोली वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"वो क्या?" बोली वो,
अचरज में थी!
आँखें खोल, मुझे ही देख रही थी!
उत्तमा नेपाल की ही है, उसके पिता महा-प्रबल औघड़ थे, बाबा बरंग नाथ! तूती बोलती थी उनकी! दो वर्ष पहले पूर्ण हो गए थे! उनकी ही पुत्री है ये उत्तमा! करीब पैंतीस-छत्तीस की होगी, सुंदर है, और सुलझे हुए व्यक्तित्व वाली है!
"हाँ! उसको विद्याधर, महाशुण्ड, सिद्ध है!" बोला मैं!
अब तो उत्तमा जैसे पीछे ही गिर जाती!
"विद्याधर?" बोली वो, धीरे से!
"हाँ, महाशुण्ड विद्याधर!" कहा मैंने,
"आपने देखे हैं वो?" बोली वो,
"नहीं" कहा मैंने,
"तो कैसे जानते हैं?" बोली वो,
"मेरे श्री श्री श्री ने बताया था मुझे! मिलवाया भी था!" कहा मैंने,
"कैसे किया सिद्ध?" पूछा उसने,
"कजरी कहती है, कि सिद्ध नहीं किया!" बोला मैं,
"फिर?" पूछा उसने, "वो आसक्त हुआ था उसके ऊपर!" कहा मैंने,
"ओह......" बोली वो!
"हाँ" कहा मैंने,
और तब मैंने एक गिलास और खींचा!
मित्रगण! जैसे यक्ष हैं,असुर हैं, किम्पुरुष हैं, गान्धर्व हैं, ऐसे ही ये विद्याधर हैं! ये भी दिव्य-योनि है! विद्याधर, चीन, रूस, मंगोलिया, भारत, तुर्कमेनिस्तान, अफ़गानिस्तान, भारत, श्रीलंका आदि देशों में,आज भी सक्रिय हैं! उड़ीसा का गन्धमादन पर्वत, इन्ही विद्याधरों का वास-स्थल है! विद्याधर, आज भी नित्य ही श्री महाऔघड़ के समक्ष उनका पूजन करते हैं! क्रौंच पर्वत पर वास है इनका, चित्रकूट में, श्री **म ने इनकी स्त्रियों को क्रीड़ा करते हुए भी देखा था, ये मालाबार, और खंडवा में भी सक्रिय हैं! असुरों से विशेष बैर है इनका! असुर इनकी पत्नियों को हर ले जाते हैं! युद्ध में असुरों के समक्ष नहीं ठहर पाते! इनकी स्त्रियां, सबसे अधिक रूपवान हुआ करती हैं! इनको सभी ज्ञान प्राप्त हैं! ये यक्षों के वासस्थलों में भी भ्रमण करते हैं,यक्ष मित्र हैं इ तसे लेख मिलते हैं इनके विषय में! और एक तथ्य, रीछराज जाम्बवन या जामवंत स्वयं एक विद्याधर के अवतार थे! भारत के कई मंदिरों में इनकी मूर्तियां आदि, आज भी हैं! ये युगल-रूप में दीखते हैं! तो उत्तमा उलझ गयी थी! सोचे जा रही थी पता नहीं क्या क्या!
"क्या हुआ उत्तमा?" पूछा मैंने,
"कुछ नहीं" बोली वो,
"चुप क्यों हो गयीं?" पूछा मैंने,
"ऐसे ही" बोली वो,
मैं भी चुप हो गया फिर!
अपना गिलास बनाया, और गटक गया!
"कैसी दिखती हैं ये कजरी?" पूछा उसने!
"मात्र अठारह की!" कहा मैंने,
"सच में?" पूछा उसने! "हाँ!" कहा मैंने,
"आयु-स्तम्भन हो गया है उनका?" पूछा उसने,
"कह सकते हैं!" कहा मैंने,
"कहाँ रहती हैं?" पूछा उसने,
"यहां से कोई पचास किलोमीटर दूर" कहा मैंने,
"बाबा को ले जाएंगे आप?" पूछा उसने,
"हाँ. कहा था मैंने!" कहा मैंने,
"मैं भी चलूँ?" पूछा उसने,
अब मैं चुप! "क्या करोगी जाकर?" पूछा मैंने,
"ऐसे ही, ले चलिए न?" बोली वो,
"करोगी क्या?" पूछा मैंने,
"मिलना है" बोली वो,
"किससे?" पूछा मैंने,
"कजरी जी से" बोली वो,
"वो क्यों?" पूछा मैंने,
"मन में इच्छा जागी है" बोली वो!
"अजीब सी इच्छा है!" कहा मैंने,
"ले जाएंगे न?" बोली वो,
मैं चुप हुआ फिर से!
अब क्या कहूँ? क्या बताऊँ इसे?
दरअसल मैं ले जाना नहीं चाहता था उसको
बेकार में, लूत संग लिए घूमो! लंगूर की दुम जैसे! जैसे वो, अक्सर उसको मोड़कर बैठता है, वैसे!
"बताइये?" बोली वो,
"सोचने तो दो?" कहा मैंने,
"इसमें क्या सोचना?" बोली वो,
"अब सोचना तो पड़ेगा ही!" कहा मैंने,
"हाँ कहिये बस" बोली वो!
"चलो, सुबह बता दूंगा" कहा मैंने,
"तो रात भर ऐसे ही जागू?" बोली वो,
"जागना क्यों है?" कहा मैंने,
"नींद नहीं आएगी मुझे" बोली वो,
"अब इसमें ऐसी अधीरता क्यों?" पूछा मैंने,
"पता नहीं, आप हाँ तो कहिये?" बोली वो,
पीछे ही पड़ गयी!
कौन सांप गले में लेके घूमे?
वो भी, ऐसी ठंड में?
पता नहीं कई कैसे लोग मिलते हैं वहां,
अक्सर ऐसे डेरों पर, कि नज़र से ही वस्त्र तार-तार कर दें महिलाओं के! इसीलिए नहीं ले जाना चाहता था बस!
ऐसी कड़ाके की सर्दी का मौसम, और साथ में ये साध्वी! वैसे भी सुंदर है! कहीं कोई बवाल न हो जाए!
नेपाली औघड़ कुछ अधिक ही स्वछंद हुआ करते हैं, लड़ाई-झगड़ा तो हमेशा नाक पर धरा रहता है!
"बताइये?" बोली वो,
"बता दूंगा" कहा मैंने,
अब तो मदिरा का भी आनंद खराब करने लगी थी उत्तमा!
"अभी बताओ?" बोली वो,
कैसे पीछे पड़ गयी ये!
जान को ही आ गयी!
"बताओ?" बोली वो,
"अरे? बता दूंगा?" कहा मैंने
"अभी बताओ?" बोली वो.
"एक बात बताओ!" कहा मैंने,
"पूछो?" बोली वो,
"क्या करोगी?" पूछा मैंने,
"अरे?" बोली वो,
"क्या अरे?" कहा मैंने,
"मिलूंगी बस?" बोली वो,
"उस से क्या होगा?" पूछा मैंने,
"इच्छा पूर्ण होगी" बोली वो!
कैसी अजीब इच्छा! और ये कैसी इच्छा?
"देखो, रास्ता दुर्गम है, और ऐसी ठंड?" कहा मैंने,
"मुझे कोई परेशानी नहीं" बोली वो!
"परेशान हो जाओगी!" कहा मैंने,
"नहीं होउंगी" बोली वो,
"पक्का ?" कहा मैंने,
"हाँ, पक्का!" खुश होकर बोली!
"ठीक है फिर!" कहा मैंने,
"चलूँ न?" बोली वो!
"हाँ! चलो, नहीं मान रहीं तो!" कहा मैंने,
हो गयी खुश! उठी और झूली मेरी तरफ! और मेरे गाल पर चूम लिया! उठी, मुस्कुराई और चली गयी फिर!
मैं गिलास बना ही रहा था कि,
फिर से आयी अंदर!
"क्या हुआ?" कहा मैंने,
"चलना कब है?" पूछा उसने,
"परसों चलते हैं" कहा मैंने,
हुई खुश! शुभ-रात्रि कहा और चली गयी!
"चिपकू है ये तो बहुत!" बोले शर्मा जी!
"अब क्या करता मैं भी! आंसू बहाती नहीं तो फिर!" कहा मैंने!
"हाँ, देखकर, लग ही रहा था, कि मना किया तो यहीं अश्रुधारा फूट जायेगी!" बोले वो! "हाँ!" कहा मैंने,
और तब उठा मैं, लघु-शंका निवारण हेतु जाना था!
रजाई से बाहर निकला, तो जैसे शीत पड़ी !
गया, और आया वापिस!
हाथ पोंछे, और तापे अंगीठी पर!
"पानी ऐसा हो रहा है जैसे बर्फ कतई!" कहा मैंने!
"हाँ, जमने की देर है बस!" बोले वो,
"हाँ, हाथ सुन्न पड़ गए!" कहा मैंने!
हाथ गर्म हुए, तो रजाई में घुसा!
आया तभी शरण अंदर! "और कुछ?" पूछा उसने,
"हाँ, पानी ले आ" कहा मैंने,
उठाया जग उसने, और ले गया बाहर!
थोड़ी देर बाद, ले आया पानी!
रख दिया, हाथ तापे अपने, और चला गया!
अब फिर से हुए हम शुरू!
"महाशुण्ड के विषय में बताइये" बोले वो,
"विद्याधर है एक!" कहा मैंने,
"क्या विशेषता है इनकी?" पूछा उन्होंने,
"यक्ष समान ही हैं! परन्तु ज्ञान के ज्ञाता है!" बोला मैं,
"उत्पत्ति कैसे हुई?" पूछा उन्होंने,
"आप जानते ही हो, कुल इक्कीस योनियाँ ऐसी हैं, जिन्हे दिव्यता प्राप्त है! ये उनमे से एक हैं!" कहा मैंने,
"तामसिक है?" पूछा उन्होंने,
"हाँ, परम तामसिक!" कहा मैंने,
"अच्छा!" बोले वो, "और कुछ विशेषता?" बोले वो,
"हाँ, इनकी स्त्रियां, सभी दिव्य योनियों में, सबसे अधिक कामुक और सुंदर हैं!" कहा मैंने,
"अच्छा !" बोले वो!
"हाँ, पौराणिक कथाएँ हैं कि असुर इनको हर लेते थे! और कुछ विद्याएँ प्राप्त कर, छोड़ देते थे!" बताया मैंने।
"अच्छा, योद्धा नहीं हैं ये?" पूछा उन्होंने,
"वैसे तो भीषण हैं! परन्तु युद्ध नहीं करते!" कहा मैंने,
"अच्छा!" बोले वो!
"हाँ, शांतिप्रिय हैं" कहा मैंने,
"अच्छा " बोले वो!
"जब युद्ध हुआ करते थे, तब ये आकाश मार्ग से, पुष्प-वर्षा किया करते थे!" कहा मैंने,
"अच्छा अच्छा!" बोले वो, "इनके आवास स्थलों में, पुष्पही पुष्प हुआ करते हैं!" कहा मैंने,
"तो हिमालय की पुष्प-घाटी का कोई संबंध इनसे?" पूछा उन्होंने,
"हाँ, हिमालय इनका वास-स्थल है!" कहा मैंने!
"अच्छा!" बोले वो!
"मंदिर आदि में, इन विद्याधरों की जो मूर्तियां यहीं, वो अपनी स्त्रियों से छोटे आकार की हैं! अर्थात, वे कद में अपनी स्त्रियों से छोटे हैं!" कहा मैंने,
"कैसे?" बोले वो,
"आकार में ये उन स्त्रियों के कंधे तक भी नहीं आते!" कहा मैंने,
'अरे?" बोले वो!
"हाँ, कभी दिखाऊंगा!" कहा मैंने!
"हाँ, ज़रूर!" बोले वो,
"और तो और!" कहा मैंने,
"क्या" बोले वो, "ये सदैव कामग्रसित रहते हैं!" कहा मैंने,
"सच में?" पूछा उन्होंने,
"हाँ" कहा मैंने,
हाँ, काम-क्रीड़ा में सदैव तल्लीन!" कहा मैंने!
"अच्छा ?" बोले वो!
"हाँ, एक बात और!" कहा मैंने,
"वो क्या?" बोले वो,
"ये मानवों पर आसक्त हो जाते हैं!" बोला मैं,
"क्या रूप पर?" बोले वो,
"रूप यानि कोई गुण!" कहा मैंने,
"जैसे?" पूछा उन्होंने,
"शस्त्र-विद्या, अस्त्र-विद्या, काम-कला, चित्र-कला या अन्य कोई कला, जिसमे निपुणता हो!" कहा मैंने,
"अच्छा !" बोले वो!
"और कजरी में?" पूछा उन्होंने,
"रूप!" कहा मैंने,
"अच्छा !" बोले वो,
"आपने नहीं देखी कजरी?" पूछा मैंने,
"नहीं" बोले वो,
"वहाँ, काशी में, अपने डेरे में?" कहा मैंने!
"नहीं!" बोले वो!
"अच्छा..चलो अब देख लेना!" कहा मैंने,
"हाँ, ज़रूर!" बोले वो!
"कजरी कोई चालीस बरस की होगी लेकिन लगती नहीं, लगती नव-यौवना ही है!" कहा मैंने,
"कमाल है!" बोले वो!
"हाँ!" कहा मैंने, "तो ये महाशुण्ड कब आसक्त हुआ उस पर?" बोले वो,
"जब वो अठारह की रही होगी" कहा मैंने,
"अच्छा !" बोले वो!
और भी बातें होती रहीं हमारी! कुछ और भी प्रश्न और कुछ और उत्तर!
"तो कजरी पर जो आसक्त हुआ, वो महाशुण्ड था!" बोले वो,
"हाँ!" कहा मैंने,
"रूपवान रही होगी कजरी फिर तो!" बोले वो,
"हाँ, आज भी है" कहा मैंने,
"विवाह?" पूछा उन्होंने,
"नहीं किया" कहा मैंने,
"समझ सकता हूँ" बोले वो!
"किसके साथ रहती है?" पूछा उन्होंने,
"माँ है वृद्ध, एक छोटा भाई है" बोला मैं,
"कोई डेरा है?" पूछा उन्होंने,
"हाँ, बाबा वसु का!" कहा मैंने,
"ये कौन हैं?" पूछा उन्होंने,
"पिता भारतीय थे, माँ नेपाली" कहा मैंने,
"अच्छा, तो यहां चले आये" बोले वो,
"हाँ" कहा मैंने,
"अच्छा !" बोले वो,
"बाबा वसु को नेपाल राजसशाहीसे सरंक्षण प्राप्त था!" कहा मैंने,
"अरे वाह!" बोले वो, "हाँ!" कहा मैंने,
"फिर तो कोई चिंता ही नहीं!" बोले वो,
"हाँ, डेरे की ज़मीन उन्ही ने दी थी बाबा वसु को" कहा मैंने,
"समझ गया!" बोले वो!
पानी खत्म हो गया था, और चाहिए था!
"लाओ, लाऊँ मैं" बोले वो,
उठे, और चले गए पानी लेने! थोड़ी देर बाद, ले आये पानी!
और हमने फिर बची-खुची भी निबटा दी! हाथ-मुंह धोये उस बर्फीले पानी में, और जा घुसे रजाई में!
कुछ देर और बातें हुईं, और फिर आँख लग गयी! सो गए हम!
सुबह हुई, हम उठे, जैसे-तैसे करके निवृत हुए!
ठंडे पानी ने तो जान ही सुख दी थी!
शरण पानी ले आया था गरम, उसी से नहाये तो चैन सा पड़ा!
चाय-नाश्ता किया, गरम गरम चाय पीकर, ज़रा राहत मिली उस ठंड से!
कोई साढ़े आठ बजे हम निकले बाहर!
ओहो!
कोहरे के बादल उतर आये थे ज़मीन पर!
ठंड ऐसी, जैसे तेज छुरी की धार!
चेहरे पर भी चाकू से चलें!
"बाप रे! कैसी सर्दी है!" बोले शर्मा जी!
"हाँ, जानलेवा!" कहा मैंने!
"कमरे में ही चलते हैं, कुछ दिख भी नहीं रहा!" बोले वो,
"हाँ, चलो!" कहा मैंने,
और हम वापिस चले! कमरे में अंगीठी जल रही थी, राहत मिली!
"ये कोहरा हटेगा बारह एक बजे!" बोले वो, "हाँ, अभी कोई आसार नहीं!" कहा मैंने,
और तभी कम में आई वो उत्तमा!
"आओ उत्तमा!" कहा मैंने,
नमस्कार हुई उस से, बैठ गयी!
"सर्दी देखी आज?" कहा मैंने,
"हाँ, आज तो कड़क है बहुत!" बोली वो,
"हाँ, दोपहर तक ही कोहरा छंटेगा!" कहा मैंने,
"हाँ" बोली वो, "कहीं जा रही हो क्या?" पूछा मैंने,
"नहीं तो, क्यों?" बोली वो, "बनी-ठनी हो न!" कहा मैंने,
"नहा कर आई थी, हाथ तापे, फिर चली आई यहां" बोली वो,
"चाय पी ली?" पूछा मैंने,
"हाँ, आपने?" पूछा उसने,
"पी ली!" कहा मैंने,
"अच्छा!" बोली वो!
"यहाँ आ जाओ, ये कंबल ले लो" कहा मैंने,
आ गयी बिस्तर पर, बैठ गयी, मैं सरक गया थोड़ा पीछे, कंबल ले लिया उसने, ओढ़ भी लिया!
"कजरी के बारे में बताओ" बोली वो,
"पूछो" कहा मैंने,
"कब आसक्त हुआ वो उस पर?" पूछा उसने,
"जब अठारह या उन्नीस की होगी वो" कहा मैंने
"अच्छा , सुंदर है?" बोली वो,
"खुद ही देख लेना!" कहा मैंने,
मुस्कुरा पड़ी! "कल चलेंगे न?" बोली वो,
"हाँ, पक्का" कहा मैंने,
"मैंने कह दिया है बाबा से" बोली वो,
"ठीक किया" कहा मैंने,
"कितनी उम्र है उनकी?" पूछा उसने,
"कोई चालीस साल" कहा मैंने,
"अच्छा" बोली वो,
"वैसे तुम क्यों इतनी जिज्ञासा पाल कर बैठी हो?" पूछा मैंने,
"ऐसे ही" बोली,
लेकिन मैं कुछ कुछ समझ रहा था उसका आशय!
मैं मुस्कुरा पड़ा!
वो भी मुस्कुरा गयी!
"जैसी हो, अच्छी हो!" कहा मैंने!
हंस पड़ी!
कोहरा छंटा जी जाकर कोई एक बजे! और हम निकले फिर बाहर वहाँ से! एक काम था, वहाँ पहुंचे, काम निबटाया, वापिस हुए और आ गए वापिस वहीं! शाम सी होने लगी थी चार बजे ही! और ठंड का आतंक बढ़ने लगा था! घुस गए रजाई में! उस रात ही आराम से खा-पीकर सो गए थे हम!
और फिर अगले दिन,
बाबा ऋषभ ही आ गए!
उनसे बात हुई,
संग उत्तमा भी थी!
और इस प्रकार हम वहाँ से कोई एक बजे निकल पड़े, बाबा वसु के डेरे की ओर!
छोटी छोटी सी वैन चलती हैं नेपाल में, चीन से आती हैं वो वैन! खड़ा हुआ नहीं जाता, बैठा जाता नहीं! सीट ऐसी, कि घुटने टूट जाएँ! बीच बीच में नेपाल आर्मी द्वारा जांच!
विशेषकर, भारतीयों की! समान आदि की जांच! इसमें बहुत देर लग जाती है!
वो तो बाबा बात कर रहे थे नेपाली भाषा में, तो कहीं कहीं रियायत भी मिल जाती थी! और इस प्रकार हम कोई तीन बजे, पहुंचे वहां! यहां भी सर्दी का प्रकोप था! सर्दी की मार सभी पर थी! क्या इंसान! क्या जानवर! क्या परिंदे! क्या पेड़! और क्या पौधे!
सभी बेहाल थे! जूतों का चमड़ा ऐसा हो रखा था जैसे, लोहे की चादर! पाँव सुन्न पड़े थे! और उंगलियां तो ठंड के मारे जमी पड़ी थीं! मैंने कई ऊनी कपड़े और एक, चमड़े कीजैकेट पहनी थी, फिर भी हवा पता नहीं कहाँ से घुस ही जाती थी! मफलर सर पर बंधा था! लेकिन फिर भी कान ऐसे हो रखे थे, जैसे आइस-क्रीम! ऐसे ठंडे! नाक चलने में कोई देरी नहीं थी! एक जगह रुके, तो चाय दिखी! चाय पी, राहत मिली! और फिर चल पड़े!
रास्ते में एक गाड़ी रुकी! मुझे आवाज़ दी किसी ने! मैंने देखा तो मेरा एक जानकार था!
