"ओह!" उनके मुंह से निकला!
"लेकिन आयुषा से कोई गलती भी हो सकती है" मैंने कहा,
"जैसे?" उन्होंने पूछा,
"उसके स्थान पर मूत्र-त्याग अथवा थूक फेंकना, बैठ जाना, कूड़ा-कचरा डालना आदि" मैंने बताया,
"हम्म! अब आज आप यही देखेंगे?" उन्होंने पूछा,
"हाँ" मैंने कहा,
"ठीक है, मै भी उत्सुक हूँ" मैंने कहा,
"आज पता चल जायेगा रात को" मैंने कहा,
उसके बाद हम गाड़ी में बैठे और गाड़ी दिल्ली की ओर दौड़ा दी शर्मा जी ने! हम दिल्ली पहुंचे, सामान खरीदा और फिर अपने स्थान पर आ गए! शर्मा जी मुझे छोड़ कर चले गए वापिस अपने घर! अब मैंने स्नान किया और फिर तैयारियां शुरू की! और सारा साजो-सामान रख दिया! दो घंटे बाद मै अब क्रिया में बैठने वाला था!
दो घंटे बीते! मैंने तांत्रिक-श्रृंगार किया और आसन बिछाया! रक्त-पात्र, मदिरा-पात्र एवं मांस-पात्र अपने सम्मुख रख लिए! अब मैंने कर्ण-पिशाचिनी का आह्वान आरम्भ किया! मेरे प्रश्नों के उत्तर वही दे सकती थी! मैंने घोर-मंत्रोच्चार किया! मंत्र-ध्वनि से वो कक्ष गुंजायमान हो गया! करीब पंद्रह मिनट के बाद कमरे में ताप बढ़ गया! रक्त-गंध आने लगी! और एक क्षण में कर्ण-पिशाचिनी प्रकट हो गयी! मैंने उसके सम्मुख समस्त भोग अर्पित कर दिए!
अब मैंने प्रश्न पूछने आरम्भ किये! एक एक करके मुझे उनके उत्तर अपने कर्ण-पटल पर मिलते चले गए।
जो पता चला था वो ये कि गलती आयुषा से ही हुई थी! वो एक बार जब लखनऊ में थी तब एक दफ्तर में काम करने वाली सहेली के साथ उसके गाँव गयी थी! उस गाँव में घुसने से पहले एक गूलर का पेड़ पड़ता है, उसी के नीचे चामड-पिंडी थी, पिंडी घास-फूस से ढकी थी! उसने ध्यान नहीं दिया था और थूक दिया था! एक बार नहीं, बल्कि दो बार! वो अपनी सहेली कि स्कूटी पर थी, चलते चलते ऐसा हुआ था! ये था वो प्रमुख कारण! उसके अगले दिन आयुषा अपने घर आ गयी और भूड़ी भ्रमण करते हुए वापिस आई और आयुषा पर सवार हो गयी! कारण मुझे पता चल गया था! अब निदान करना था! भूड़ी से भिड़ना उसका और अपमान होता, वो सहोदरी अपनी मुखिया को कहती, मुखिया यदि आती तो कोई नहीं बचता! न मै और न ही आयुषा!
अब मै क्रिया से उठा और स्नान के पश्चात थोडा भोजन किया और सो गया! तसल्ली तो मिली थी परन्तु निदान केवल भूड़ी के पास ही था! उसको मनाना था, किसी भी तरह! चाहे पाँव पड़ो चाहे हाथ जोड़ो!
रात्रि उधेड़बुन में गयी! अगले दिन शर्मा जी आ गए, मैंने उन्हें अवगत करा दिया सारी स्थिति से, उनके माथे में भी शिकन पड़ गयी! अब मैंने शर्मा जी से कहा कि वो रामपाल को फ़ोन करें और आज रात आयुषा को मेरे यहाँ ले आयें! शर्मा जी ने फ़ोन किया तो पता चला कि आयुषा ने घर में कोहराम मचा
रखा है! गाली-गलौज, तोड़-फोड़ मचा रखी है, संभव नहीं लगता उसको लाना वहाँ! परन्तु फिर भी कोशिश कर लेंगे!
शाम तक ये स्थिति चलती रही और फिर रामपाल का फ़ोन आया कि वो नहीं मान रही, उसको लाना संभव नहीं किसी भी प्रकार से! अब मुझे ही वहाँ जाना था, मैंने और शर्मा जी ने वहाँ से फ़ौरन ही रवानगी डाली और चल दिए! करीब दो घंटे में वहाँ पहुँच गए! रामपाल का पूरा परिवार भय-त्रस्त था! सभी के चेहरे लटके हुए थे, बुझे हुए चहरे!
मैंने देर न की! मैंने दो चुन्नियाँ लीं, मै उसको अब बाँध लेना चाहता था और फिर उसको उठाकर गाड़ी में डाल कर अपने यहाँ लाना चाहता था!
अब मैंने दरवाज़ा खोला और अन्दर चला गया! अन्दर वो पेट के बल लेटी थी! मेरे अन्दर आते ही उसने मुझे देखा और खड़ी हो गयी फिर बैठ गयी! मुझे गुस्से से देखा!
"तू फिर आ गया?" उसने कहा,
"हाँ" मैंने जवाब दिया,
"मरने आया है?" उसने कहा,
"हाँ" मैंने कहा, मेरा जवाब सुनते ही उसने ज़ोर से ठहाका लगाया!
"बाज नहीं आया तू!" उसने मजाक उड़कर कहा,
"हूँ" मैंने कहा,
"मज़बूत है तू" उसने कहा,
"हाँ" मैंने कहा,
"मुझे खुश कर दे" उसने कहा,
"कैसे?" मैंने पूछा,
हालांकि मैं जानता था उसका आशय!
"यहाँ आ" उसने बिस्तर पर हाथ मारके कहा,
"बताओ तो कैसे?" मैंने कहा,
"इधर आ" उसने इशारे से कहा,
मै आगे गया!
"यहाँ बैठ" उसने कहा,
उसने मेरी छाती पर हाथ लगाया! मेरी मालाएं टकरायीं उसके हाथ से, उसने हाथ हटा लिया!
"मुझे खुश करेगा?' उसने पूछा,
"कैसे?" मैंने पूछा,
"तू तो मरघटवासी है, नहीं जानता?" उसने कहा,
"नहीं जानता" मैंने कहा,
उसने तब थूका मेरे मुंह पर! मैंने अपने रुमाल से साफ़ किया चेहरा!
"या तो मर जा या खुश कर दे" उसने कहा,
"नहीं! ना मै मरूँगा, ना मै खुश करूँगा!" मैंने कहा और मै खड़ा हो गया!
"भागता कहाँ है?" उसने मेरा हाथ पकड़ कर एक झटका दिया!
"कहीं नहीं जा रहा मै" मैंने कहा,
"क्या चाहिए तुझे बदले में?" उसने कहा,
"कुछ भी नहीं" मैंने कहा,
अब उसने ठहाका लगाया! मै यथावत खड़ा रहा! मुझे अवसर नहीं मिल रहा था उसको बांधने का!
"अब बैठ जा!" उसने कहा,
मै बैठ गया! "बोल,
करेगा खुश?" उसने जैसे नशे में कहा,
"नहीं" मैंने कहा,
उसने अब मेरा गिरेबान पकड़ लिया,
"बोल?" उसने कहा,
"नहीं?" मैंने कहा,
"जो चाहिए वो बता?" मैंने कहा,
"कुछ नहीं" मैंने कहा,
"तू जानता है?" उसने फिर से नशे के जैसी हालत में कहा,
"क्या?" मैंने कहा,
"मै कौन हूँ?" उसने पूछा,
"कौन? बता?" उसने पूछा,
अब मैंने उसका हाथ हटाया अपने गिरेबान से,
"मै जानता हूँ तू तिक्ता-भूड़ी है, सहोदरी! षोडशी!" मैंने कहा,
"हाँ!" उसने गर्दन नीचे करते हुए कहा, मेरी जाँघों पर उसके बाल झूल गए!
"खुश करेगा तो जो चाहेगा, मिलेगा!" उसने कहा,
"नहीं" मैंने कहा,
मै वचन नहीं दे सकता था! अन्यथा मुझे किसी अन्य किसी साध्वी का सहारा लेना पड़ता!
"गुस्सा ना दिला!" उसने अब सर उठा कर अपना मुंह मेरे कान के पास लाकर धीरे से फुसफुसाया!
"नहीं" मैंने कहा,
"कैसे मानेगा फिर?" उसने अब अपना सर मेरी जाँघों पर रख दिया!
"मैं नहीं जानता" मैंने कहा,
उसने झटके से अपना सर उठाया, दांत भींचे और मेरा गला पकड़ लिया एक हाथ से!
मैंने उसका हाथ हटा दिया!
"देख, इसको तो तू बचा नहीं सकता, तू क्यूँ व्यर्थ में प्राण गंवाता है?" उसने कहा,
"ना ये मरेगी और ना मै!" मैंने कहा,
"अच्छा?" उसने ठहाका लगा के कहा!
"हाँ" मैंने कहा,
"बहुत जान है तुझमे" उसने कहा,
"हूँ" मैंने जवाब दिया!
और वहां से हट गया!
"इधर तो आ" उसने कहा,
मुझे इसकी ऐसी हरक़त से साधना समय प्रणय का सा एहसास हुआ!
"नहीं, सुन तिक्ता, तुझे जाना होगा, इसने जो गलती की इसकी सजा इसको मिल गयी, अब छोड़ दे इसको!" मैंने कहा,
वो शांत हो गयी!
"कमीने? मुझसे ऊंची आवाज़ में बात करता है? तेरी हिम्मत कैसे हुई? तेरा मुंड काट के पिरो दूँगी पिलखनिया में!" उसने कहा और बिफर पड़ी!
"जो मैंने कहा वो सही भी है" मैंने कहा,
"अच्छा मूझे सिखाएगा, क्या सही और क्या गलत?" उसने कहा और ठहाका मारा!
"तू ऐसे बाज नहीं आने वाली" मैंने कहा,
"क्या कहा?" उसने गुस्से से कहा,
"तू ऐसे बाज नहीं आएगी!" मैंने कहा,
अब उसने फिर से ठहाका मारा!
अब मुझे कुछ करना ही था! अतः मैंने ज्वाल-मालिनी की सह-सहोदरी अभिष्टा का आह्वान किया! ये करते देख वो चुप हुई! अब वो टोक भी नहीं सकती थी! अभिष्टा सहोदरी विकराल रूपधारी, मुंड-माल धारण किये हुए होती है! पूरे केश श्वेत होते हैं! आँखें चौड़ी और भयानक होती हैं इसकी! जिसको देख ले वो प्राण छोड़ जाये अपने! ये शमशानी-क्रिया है, वहीं प्रकट होती है, मैंने ये इसको चेताया था!
"अच्छा रुक! रुक जा!" उसने कहा,
मै नहीं रुका! "रुक जा!" उसने कहा,
मै नहीं रुका! "रुक जा?" उसने कहा और बिस्तर से उठकर भागी मेरी तरफ!
मै रुक गया! "बोल?" मैंने कहा,
"क्या चाहता है?" उसने पूछा,
"तू इसको छोड़ दे" मैंने कहा,
"इसकी मृत्यु तो तय है, कुछ और मांग" उसने कहा,
"नहीं" मैंने स्पष्ट कहा,
"कुछ और बोल?" उसने गुस्से से कहा,
"जो कहना था कह दिया" मैंने जवाब दिया,
"नहीं मानेगा?" उसने कहा,
"नहीं" मैंने उत्तर दिया,
उसने फिर ठहाका लगाया! वो मेरे साथ चाल खेल रही थी! समय बीत रहा था, आवर्तकाल आरम्भ होने में मात्र घंटा भर बचा था! इसकी अधिष्ठात्री जागृत हो जाती और फिर मेरा सारा किया धरा नष्ट हो जाता!
कुछ और युक्ति ना सूझ मैंने इसकी अधिष्ठात्री का ही यमल-मंत्र पढ़ डाला! वो पीछे हटी भयानक तरीके से चिल्लाई! उसकी चीख से मेरे भी माथे पर पसीना छलक आया! वो सिमट के बैठ गयी! मै पास गया मंत्र पढता पढता और एक चुन्नी उसके गले में डाल दी! वो शांत बैठ गयी अब! मैंने उसके हाथ, और पाँव मंत्र पढ़ते पढ़ते, बांध दिए! उसने विरोध नहीं किया! उसको आन लगी थी! मन्त्रों की आन! मंत्रोच्चार थमा!
"कहाँ ले जा रहा है मुझे?" उसने पूछा,
"तेरे घर" मैंने कहा,
उसने एक ज़ोर की सांस ली!
"मै तुझसे प्रसन्न हो गयी मानव!" उसने कहा,
"अच्छा?" मैंने पूछा,
"हाँ!" उसने कहा,
"अब छोड़ दे मुझे" उसने कहा और चाल खेली!
"भूड़ी कभी नहीं मानने वाली!" मैंने कहा,
"मैं मान गयी" उसने कहा,
"इसको छोड़ फिर?" मैंने कहा,
"ये? ये तो मरेगी" उसने कहा और जीभ से ना ना किया!
"मैं जानता था" मैंने कहा,
"तो छोड़ मुझे?" उसने कहा,
"छोड़ दूंगा, आज छोड़ दूंगा तुझे" मैंने कहा और उसको चुन्नी के साथ खींच लिया!
मैंने एक और मंत्र पढ़ा और भस्म की एक चुटकी उसके मुंह पर फेंक दी! जिव्हा-शूल लग गया उसको! भूड़ी को नहीं! आयुषा को! जिव्हा-शूल पश्चात मैंने शर्मा जी को बुलाया अन्दर और रामपाल को भी! अब हमने उसको उठाया, उसने पाँव मोड़ लिए अपने! हमने किसी तरह से उसको उठाकर गाड़ी में डाल दिया शर्मा जी की! तमाशबीनों के गुट खड़े थे तमाशा देखने को वहाँ!
अब मैंने रामपाल को भी बिठाया अपने साथ और फिर शर्मा जी ने गाड़ी दौड़ा दी दिल्ली की तरफ! रास्ते
ही आयुषा! शर्मा जी ने भी गाड़ी कहीं ना रोकी और करीब दो घंटे में हम अपने स्थान पर पहुँच गए! मैंने अब आयुषा को उतारा उसके बाल पकड़ कर! मैंने शर्मा जी से कहा कि यहाँ अगर ये तमाशा करे तो इसको खोह में फेंक देना, बाकी मै देख लूँगा!
अब मै भागा अपने क्रिया कक्ष में! वहाँ तैयारी तो मैंने उसी दिन कर दी थी, बस बुहारी करनी थी अपने आसन के स्थान की! मैंने बुहारी की और अपने वस्त्र उतार दिए, भस्म-स्नान किया और समस्त तंत्राभूषण धारण कर लिए! अब मैंने अलख उठा दी! अलख भोग दिया और फिर मदिरा भोग! अब मै भूड़ी का स्वागत करने के लिए तैयार था! मैंने एक अंगोछा लपेटा और मै बाहर गया, आयुषा ज़मीन पर बैठी थी! मुझे देख मुंह खोलकर चिल्लाने की कोशिश करने लगी! मैंने अब उसके बंधन खोले, झुक कर उसको उसके बालों से पकड़ा और उठाया, बाल पकड़ कर मै उसको क्रिया-कक्ष में ले गया! वहाँ अलख के सामने उसको धक्का दे गिरा दिया! मै अपने आसन पर बैठा, अंगोछा उतार दिया था, साधक अलख पर सदैव नग्न ही बैठता है, अन्यथा दुष्परिणाम हो सकते हैं!
अब मैंने भस्म की एक चुटकी ली और उसके ऊपर फेंक कर मार दी! जिव्हा-शूल कट गया! उसने इधर उधर देखा! चिल्लाई और गुस्से में गाली-गलौज करने लगी! मैंने अपना चिमटा खड़काया, उसने चिमटा देखा और फिर मेरी तरफ बढ़ी मैंने अपना त्रिशूल उसको दिखाया तो वो बैठ गयी!
"हाँ भूड़ी! अब बता!" मैंने कहा,
"क्या?' उसने कहा,
"इसको छोडती है या लगाऊं अर्जी?" मैंने कहा,
"इसे नहीं छोडूंगी मै" उसने कहा,
"ठीक है, मै अर्जी लगा देता हूँ!" मैंने कहा,
अब मैंने पांच नीम्बू काटे, मांस का एक बड़ा सा टुकड़ा उठाया और फिर शराब का एक गिलास तैयार किया! और मंत्रोच्चार आरम्भ किया! जैसे ही आरम्भ किया उसने रोक दिया!
"क्या हुआ?" मैंने पूछा,
"इसे छोड़ दूंगी तो मुझे क्या देगा?" उसने कहा,
"क्या चाहिए?" मैंने कहा,
"सहवास" उसने कहा,
"असंभव" मैंने कहा,
"सुन, मै वास कर लूंगी!" उसने कहा,
उसका प्रस्ताव वैसे तो ठीक था! परन्तु मै भूड़ी को चिपकाना नहीं चाहता था इसीलिए मैंने उस से एक बार फिर प्रश्न किया, इसके आलावा?"
"और कुछ नहीं!" वो जिद पर अड़ी थी!
अब मुझे तुरंत निर्णय करना था! कर लिया!
"कब?" मैंने पूछा,
"जब तू चाहे" उसने कहा,
"ठीक है, चौमासे बीतने दे" मैंने कहा,
"हम्म!" उसने हँसते हुए कहा,
और फिर मित्रगण वह हुआ जो होता आ रहा है! तिक्ता से सहवास! चौमासे के बाद की पहली अमावस को! वो वास करेगी एक साध्वी में!
"ठीक है, मुझे स्वीकार है" मैंने कहा,
"मै प्रसन्न हुई तुझसे! मांग क्या मांगता है?" उसने कहा,
"इसको छोड़ दे बस!" मैंने कहा,
"इसको तो मै छोड़ दूंगी! परन्तु याद रखना तेरा वचन भंग हुआ तो मै उसी क्षण इसको मार दूँगी!" उसने चेतावनी दी!
"स्वीकार है!" मैंने कहा,
"ठीक है, मै जाती हूँ अब!
परसों एक श्याम-अजः दे देना मुझको!" उसने कहा,
"घम्म" की आवाज़ हुई!
भूड़ी चली गयी!
आयुषा धड़ाम से गिरी नीचे!
मै भी वहीं लेट गया! फिर उठा और अलख-नमन किया!
मैंने अंगोछा धारण किया और आयुषा को उठा लिया!
उठाकर जहां शर्मा जी और रामपाल बैठे थे वहीं ले आया! वे देखकर घबरा गए! कहीं कोई अनहोनी तो नहीं हो गयी?
मैंने उसको बिस्तर पर लिटा दिया! और कहा, "अब ये बिलकुल ठीक है! भूड़ी जा चुकी है!"
इतना सुन रामपाल मेरे पांवों में रोते रोते गिर गए! बड़ी मुश्किल से मैंने और शर्मा जी ने उनको उठाया! "सुनिए रामपाल जी, संकट समाप्त! अब आप इसको सोने देना, जब उठेगी तो ठीक होगी!" मैंने कहा,
"और हाँ, इसको हफ्ते भर ले लिए डॉक्टर को दिखा देना, सेहत ठीक हो जाएगी इसकी, ये अभी दो दिनों तक उलटी-दस्त करेगी! चिंता ना करना!" मैंने फिर से कहा,
उन्होंने हाँ में गर्दन हिलाई!
अब मैंने शर्मा जी को श्याम-अजः के बारे में बता दिया, उन्होंने रामपाल को बता दिया और मै स्नान करने के लिए चला गया!
सुबह हुई, करीब नौ बजे आयुषा की आँखें खुलीं! अनजाने चेहरे देख घबराई लेकिन जब अपने पिताजी को देखा तो लिपट गयी उनसे! मुझे अत्यंत खुशी का एहसास हआ! किसी परिवार की समस्यायों का अंत हुआ था और किसी को प्राण-दान मिला था!
उसी दिन रवि आयुषा के परिवारजनों को ले आया! आयुषा को देख सबके सब खुशियों के आंसू बहाने लगे! मै और शर्मा जी कमरे से बाहर आ गए!
मित्रो! वे उसी दिन चले गए अपने घर! आशीर्वाद के ढेर दे गए! अगले दिन हम वहां पहुंचे, आयुषा अब ठीक थी! उसी दिन शाम को श्याम-अजः भेंट कर दिया गया चामड को! एक वचन पूरा हुआ, दूसरा शेष था! आज आयुषा बिलकुल ठीक है! लखनऊ में ही है! वो फिर कभी अपनी सहेली के गाँव नहीं गयी! रामपाल जब भी आते है दिल्ली तो हमेशा मिलकर जाते हैं! मेरा कर्तव्य पूर्ण हो गया था! ये घटना मुझे भी झकझोर गयी थी! ये संसार अद्भुत है! और उस से भी अद्भुत इस संसार में अदृश्य शक्तियां! टकरा ही जाते हैं स्थूल और सूक्ष्म कभी कभार!
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