बरसात ऐसी पड़ रही थी कि जैसे आज सारा आसमान ज़मीन पर आ जाएगा! दिन में दो बजे का समय था और लग ये रहा था कि बरसात ने सांठगाँठ करके सूरज को आज अस्तांचल में समय से पहले भेज दिया है! सड़क किनारे बने उस छोटे से ढाबे में मै और शर्मा जी रुके थे! चाय की चुस्कियां ही थीं जो गरम थीं अन्यथा सब कुछ शीत का मारा लग रहा था! आसपास के कुत्ते आ कर ढाबे में घुस गए थे, कोई चारपाई के नीचे तो कोई सूखी जगह जा के पसर जाता था! जब वो बदन झाड़ते तो और बरसात में इजाफा कर देते थे! कबूतर अपने रोंये खड़े कर अपनी मौजूदगी का एहसास करा रहे थे! बरसात का शोर अविरल ज़ारी था! प्राकृतिक शोर! इसका भी एक अलग ही मजा होता है! ये शोर, शोर ना होकर एक लम्बी सुरताल सी लगती है! ढाबे में और भी कई लोग थे! कुछ महिलायें जो अपने सुसज्जित वस्त्रों से छान से टपकते पानी की बूंदों को अपने हाथों से फटकार रही थीं! कुछ पुरुष जो सिगरेट और चाय में मस्त थे! ढाबे वाला काफी खुश था! आज आमदनी दोगुनी जो थी! तब शर्मा जी ने मुझ से कहा, "लगता है आज नहीं रुकेगी ये बरसात!"
तभी बिजली कौंधी! मैंने कहा, "लो शर्मा जी, इसका साक्षी भी हो गए ये मेघ!"
तभी एक निर्धन वयोवृद्ध व्यक्ति ने प्रवेश किया, हाथ में एक झोला लिए, झोला पन्नी में लिपटा था! उसको देख कुछ महिलायों ने मुँहह बिचकाया! पुरुषों ने भी रास्ता दे दिया कि कहीं उसके मलिन वस्त्र उस से छू ना जाएँ! वो गुजरा उनके बीच और मेरे सामने आके चारपाई पर बैठ गया, मैंने उसको देखा, निर्धनता से बड़ा कोई श्राप नहीं मित्रगण! और जो निर्धन का उपहास उड़ाते हैं वो उसकी निर्धनता का कुछ अंश अपने साथ भी ले जाते हैं! वो बेचारा वहाँ बैठ बाहर देख रहा था, कि बारिश रुके तो वो चले आगे! मैंने उस से पूछा, रहा ना गया, मुझसे,
"आज तो बाबा लगता है बारिश नहीं थमने वाली!"
"हाँ बाबू जी, सही कहो हो" उसने कहा,
तभी ज़ोर से बिजली कौंधी!
"बाबा, यहीं कहीं आसपास के ही हो लगता है" मैंने पूछा,
"हाँ बाबू जी, कोई दो कोस पर है गाँव मेरा" उसने कहा,
"अच्छा! और बाबा क्या करते हो?" मैंने पूछा,
"सब्जी का काम है बाबू जी" उसने कहा,
मैंने देखा उसके झोले में एक घीया और कुछ करेले थे! "तो आज तो बाज़ार बंद ही समझो" मैंने कहा, "हाँ बाबू जी, मेह बहुत ज़ोर का है आज" उसने कहा, तभी मेरे पास से ढाबे वाले का एक नौकर निकला, मैंने उसको तीन चाय के लिए कह दिया! उसने हाँ की और चला गया! "आज तो बारिश भी गज़ब की है" मैंने कहा, "बाबू जी, चौमासा है, ऐसा ही होता है" उसने कहा, "सही कहा जी!" मैंने कहा,
तभी ढाबे वाला नौकर चाय ले आया, मैंने एक चाय उठा कर बाबा को दे दी, थोड़ी असहजता के साथ उसने चाय ले ली!
थोडा और समय बीता! थोडा मौसम खुला तो कुछ लोग चले वहाँ से अपना अपना बिल दे कर! हम भी खड़े हुए! वो बाबा वहीं बैठा रहा! उसके लिए बरसात अभी भी तेज थी! मैंने उसको देखा, उसने मुझे!
मैंने कहा,"बाबा कितनी दूर है तुम्हारा गाँव?"
"बस आगे इसी सड़क पर है दो कोस" उसने कहा,
"चलो उठो, आओ हमारे साथ, हम छोड़ देंगे आपको" मैंने कहा,
"बस बाबू जी, मै चला जाऊँगा" उसने संकोचवश कहा,
"अरे चलो ना!" मैंने कहा और उसको हाथ से पकड़ के उठा लिया!
वो उठा तो हमने जाके अपनी गाड़ी के दरवाज़े खोले, मैंने उसको पीछे बिठाया, उसका दरवाज़ा बंद किया और फिर चल पड़े आगे! आगे आ गया गाँव उसका! हमने उसको उतार दिया! उसके पास नहीं था देने के लिए! बस सर पर हाथ रख कर आशीर्वाद दे दिया!
मित्रगण! ये आशीर्वाद आपकी ढाल है! महा-ढाल! इसको कोई नहीं भेद सकता! चाहे आपके समक्ष साक्षात काल ही क्यों ना हो! ऐसे आशीर्वाद ग्रहण करते रहिये! जहां मिले ले लीजिये! धन प्रचुर मात्रा में मिल जाएगा परन्तु आशीर्वाद नहीं! किसी निर्धन का आशीर्वाद बिना लालच का होता है! अवसर ना गंवाइये! चाहे पाँव ही क्यों ना पड़ने पड़ें!
हम अब आगे बढे, बारिस थोड़ी हलकी अवश्य ही थी परन्तु विराम ना लगा था! शनै: शनै: वर्षा रानी अपना यौवन दिखा ही देती थीं!
मित्रगण! ये घटना है दिल्ली से कोई सत्तर किलोमीटर दूर एक गाँव की, उस गाँव से हम कोई बारह बजे निकले थे, पूरे चार दिन मुझे यहाँ मेहनत करनी पड़ी थी! एक परिवार की जान का प्रश्न था! मैंने वही किया था जो न्यायोचित था!
ये कहानी आरंभ होती है एक सुन्दर कन्या आयुषा से! आयुषा ने अपनी स्नातक परीक्षा पास कर एक अच्छी कंपनी में नौकरी पा ली थी! वो लखनऊ में थी पदस्थ! घर में दो छोटी बहनें और थीं, पिता जी अब बूढ़े हो चले थे, भाई कोई था नहीं, चाचा जी थे सो वो भी इंदौर में रेल-गार्ड थे, अब वहीं बस गए थे! गाँव से कोई लेना-देना नहीं रह गया था उनका, कभी तीन-चार साल में आते वो भी खेती की रकम उगहाने! ने ये जान लिया था कि उसके परिवार में और कोई नहीं है उद्धार करने वाला, इसीलिए वो जी जान से जुट गयी पढ़ाई में, आखिर नौकरी बढ़िया मिली उसे! अब परिवार में खुशियाँ अ गयी थी! दोनों छोटी बहनों की पढ़ाई का खर्च भी आराम से निकलने लगा था! पिता जी को भी अब आराम मिलने लगा था! समय बीतता रहा, कुछ माह बीते, आयुषा हर महीने घर आती और कुछ तनख्वाह की रकम दे जाती घर पर! घर का गुजर-बसर आराम से हो जाता!
अब चिंता लगी आयुषा के पिता रामपाल को अपनी बेटी के ब्याह की, आखिर बेटी तो पराया धन हैं! यही सोचते रामपाल! अपनी पत्नी से बातें करते तो वो भी सुझाव देती! चिंता दिन पर दिन बढती जाती! एक तो कन्या घर से बहुत दूर! और उसकी उम्र भी अब बाइस की हो चली थी, ब्याह आवश्यक था! रामपाल की समस्याएं बढती जा रही थी! और यहाँ इस आयुषा ने अपने माँ-बाप पर इच्छा छोड़ रखी थी कि जैसा भी वर होगा वो बिना नागा हाँ कर देगी! ऐसे पवित्र विचारों वाली थी वो लड़की आयुषा! तभी शर्मा जी बोले, "गुरु जी? ये आयुषा बेहद शालीन लड़की है, मुझे बहुत पसंद आई ये बिटिया!" "मै
तभी यहाँ आया शर्मा जी! और आज प्रसन्न हूँ वो ठीक है!" मैंने कहा! "गुरु जी, मुझे आज वही वो वाक्या याद आ गया वारणसी का!" वे बोले, "अरे छोडो शर्मा जी! जो होता है वो पूर्व-लिखित होता है" मैंने कहा! शर्मा जी हँसे और धीरे धीरे गाड़ी आगे बढाते रहे!
हम किसी तरह धीरे ही गए अपने डेरे! हवा सर्द हो चली थी, और थके भी हुए थे काफी, पहले स्नान किया और फिर विश्राम! नींद रात्रि में ही खुली! करीब दस बज गए थे! तांत्रिकों के लिए सुबह का आगमन हो गया था! मैंने क्रिया के लिए आवश्यक तैयारियां कीं,
शर्मा जी ने भी मदद की, कुछ उधार भोग थे वो चुकता करने थे! करीब दो घंटे बाद में भोग चुकता कर दिए! अब मै आपको बताता हूँ कि उस लड़की आयुषा के साथ हुआ क्या था! आयुषा लखनऊ में एक अच्छे पद पर पदासीन थी, उसके गाँव की एक लड़की ब्याही थी लखनऊ में ही, सो उसी लड़की ने आयुषा के रहने खाने का प्रबंध किया था! आयुषा उसके बदले पैसे भी चुकता कर देती थी प्रत्येक माह! आयुषा अपने गाँव भी जाया करती थी प्रत्येक माह, ऐसे ही एक सिलसिले में एक बार वो अपने गाँव आई, कामकाज से छुट्टी ले रखी थीं तो कुछ समय अपने घर में ही बिताना चाहती थी! घर में रहते उसको तीन दिन हुए थे, कि एक दिन खाना खाते समय उसको चक्कर आये, उसकी माता जी ने उसको बिस्तर पर लिटा दिया, लेकिन उसकी तबियत लगातार खराब होती रही! तब उसके पिता जी उसको लेकर डॉक्टर के पास गए, डॉक्टर ने परीक्षण किया तो उसको किसी नर्सिंग-होम में ले जाने की सलाह दी, अब उसके माता-पिता घबराए, और यहाँ आयुषा बेहोशी की कगार पर पहुँच गयी थी! जल्दबाजी में उसको एक नर्सिंग होम में भर्ती कराया गया, जहां वो बेहोश हो ही गयी! उसके माता-पिता बड़े परेशान हुए, पड़ोस का एक लड़का, रवि उनके साथ निरंतर बना रहा, उसने उनकी बड़ी मदद की, उसके पास अपनी गाड़ी थी, उसने बिना किसी लालच के मदद करना जारी रखा!
करीब तीन दिन बीते, डॉक्टर्स को उसकी अचानक से हई तबियत खराब होने का कोई माकूल कारण नज़र नहीं आया, सभी चिकित्सीय-परीक्षण सही आये थे, किसी में भी किसी प्रकार का रोग या लक्षण स्पष्ट नहीं हुए थे! चौथी रात को आयूषा को होश आया! लेकिन उसने किसी को भी पहचाना नहीं, न ही बात की, वो सभी को अनजान नज़रों से देखती थी, अस्पताल की दीवारों को और छत पर टकटकी लगाए देखते रहती! डॉक्टर्स के अनुसार कोई मानसिक सदमा पहुंचा था, इसीलिए उन्होंने उसके माता-पिता से उसको दिल्ली ले जाने की सलाह दी, अब तो दुखों का जैसे पहाड़ टूट पड़ा आयुषा के परिवारजनों पर, माता-पिता के साथ उसकी बहनें भी साए के तरह उसके साथ थीं!
खैर, उसको दिल्ली लाया गया, दिल्ली में एक बड़े अस्पताल में भर्ती कराया गया, डॉक्टर्स ने फिर मानसिक-परीक्षण किये लेकिन वो भी सही आये, किसी भी प्रकार का कोई रोग नहीं आया था, न ही कोई संभावित लक्षण! फिर भी डॉक्टर्स ने उसको वहाँ करीब दस दिन भर्ती रखा, और इन दस दिनों में उसने किसी से कोई बात नहीं की! ये कैसी अजीब सी मुसीबत आ पड़ी थी उनके गले! एक हँसता-खेलता परिवार दुःख के दरिया में डूब रहा था! वो जो कर सकते थे कर रहे थे, लेकिन आखिर डॉक्टर्स ने उसको घर ले जाने को कह दिया,
कुछ दवाईयां भी लिख दीं, बड़े भारी मन से वे उसको दिल्ली से वापिस अपने गाँव लेकर चले! अभी भी वो लड़का रवि इनके साथ था! मदद करने में कोई कमी नहीं छोड़ी थी उसने!
जब रवि उनको अपनी गाड़ी से वापिस गाँव ला रहा था तो अचानक से आयुषा ने एक जगह गाड़ी रुकवाई, हाथों से इशारा करके! गाड़ी रोक दी गयी सड़क किनारे! अब आयुषा उतरी और सड़क किनारे लगे एक खजूर के पेड़ को एकटक नज़र से देखने लगी! ये देख अब रामपाल के मन में दुविधा उत्पन्न हुई, कोई किया-कराये का मामला तो नहीं? रामपाल और उनकी पत्नी गाड़ी से उतरे तो उन्होंने आयुषा को खजूर के पेड़ को एकटक देखते हुए कुछ बड़बड़ाते हुए सुना, वो कह रही थी 'बड़े वाला मर गया, छोटे वाला भी मर जाएगा' ऐसा वो लगातार कहे जा रही थी! रामपाल ने उसको कंधे से पकड़ा तो उसने उनका हाथ झिड़क दिया! फिर उसकी माता जी ने उसका हाथ पकड़ा, उसने अपनी माँ को गुस्से से घूरा और बोली, 'बड़े वाला मर गया, छोटे वाला भी मर जाएगा' इतना सुन वो रो पड़ीं! "आयुषा?" रामपाल ने कहा, उसने अब उनको घूर के देखा! "गाड़ी में बैठो?" वे बोले, उसने गाड़ी को घूरा! "गाड़ी में बैठ जा बेटी?' वे बोले, उसने फिर से उनको घूरा, अब उसकी छोटी बहन आई उतर के! "दीदी?" उसने कहा, "हाँ?" उसने जवाब दिया! उसने पहली बार कुछ बोला था! "गाड़ी में बैठो?" उसकी बहन ने कहा, "बड़े वाला मर गया, छोटे वाला भी मर जाएगा" उसने हाथ के इशारे से कहा,
और फिर से खजूर के पेड़ को घूर के देखने लगी! "दीदी?" उसकी बहन ने कहा, "हाँ?" आयुषा ने जवाब दिया, "गाड़ी में बैठो न?" उसकी बहन ने कहा, ___उसने इतना सुना और भागी नीचे खेतों की तरफ! चिल्लाते हुए, 'बड़ा वाला मर गया, छोटे वाला भी मर जाएगा'
उसको भागते देखा अब रवि और रामपाल भागे उसको पकड़ने! उन्होंने उसको पकड़ लिया! उसने खूब छूटने की कोशिश की लेकिन रवि ने नहीं छोड़ा! उसको उठा कर गाड़ी में डाल दिया! गाड़ी में आते ही वो शांत हो गयी! और खिड़की से उस खजूर के पेड़ को घूरने लगी! यही बोलते हुये 'बड़ा वाला मर गया, छोटे वाला भी मर जाएगा' रवि ने अब गाड़ी भगाई गाँव की तरफ! रास्ते में शांत रही आयुषा! अपने हाथ बार बार ऐसे चलाती जैसे सर पे पल्लू ढक रही हो! रामपाल और उनकी पत्नी, बेटी सभी के आँखों में आंसू छलक रहे थे!
"बाबू, एक बात कहूँ?" रवि ने कहा,
"बोलो बेटे?" रामपाल ने कहा,
"आप आयुषा का ऊपरी इलाज करवाओ" रवि ने सुझाव दिया,
अब मित्रगण! जिसके समक्ष ऐसी विकट स्थिति हो, तो वो क्या करेगा? जो जैसा कहेगा, सुझाव देगा, वो करेगा ही अवश्य! मरता क्या नहीं करता!
"लेकिन मेरी जान-पहचान में कोई नहीं है ऐसा" रामपाल ने कहा,
"अपने गाँव में सूरज प्रजापत है न? वो करता है ऐसे काम" रवि ने बताया,
"हाँ! हाँ! मैं भूल गया था" वे बोले,
"मै ले आऊंगा उसको आज घर पर" रवि ने कहा,
"तेरा धन्यवाद रवि" वे बोले,
"मेरी भी तो बड़ी बहन है न ये, तो कैसा धन्यवाद?" रवि ने कहा,
और फिर कोई एक घंटे में वो अपने गाँव पहुँच गए!
आयुषा घर आ कर शांत हो गयी थी, लेकिन अब किसी से भी नहीं बोल रही थी, सभी हार गए थे, वो अपना नाम भी नहीं जानती थी! बस ऐसे हाथ चलाती थी कि जैसे सर पर पल्लू ढक रही हो जो कि बार बार ढलक रहा है! शाम को रवि सूरज को ले आया, सूरज अपने साथ कुछ सामान भी लाया था, कुछ अगरबत्ती, फूल, इत्र आदि, उसने आयुषा को देखा और सभी से कह दिया कि वहाँ से हट जाएँ केवल रामपाल और रवि ही मौजूद रहें वहाँ! ऐसा ही किया गया! आयुषा बिस्तर पर बैठी थी सामने दरवाज़े को घूरते हुए, कमरे में कौन है कौन नहीं इसका उसको कुछ आभास नहीं था! अब सूरज ने ज़मीन पर एक बोरी बिछायी! और उस पर बैठ गया! एक कटोरा निकाला और उसमे कुछ २ फूल डाले और दो अगरबत्ती जला कर उस कटोरे में टिका दीं! अब उसने आयुषा से प्रश्न किया, "आयुषा?"
आयुषा ने अपनी नज़रें दरवाज़े से हटायीं और सूरज को देखा घूर के!
"आयुषा?" सूरज ने फिर पूछा,
उसने अपलक नज़र टिकाये रखीं सूरज पर!
"तुम आयुषा ही हो ना?" सूरज ने पूछा,
उसने कोई जवाब नहीं दिया!
"कौन हो तुम?" सूरज ने पूछा,
उसने कोई जवाब नहीं दिया!
"मुझे बताओ?" सूरज ने कहा,
कोई जवाब नहीं!
"आयुषा?" सूरज ने कहा, कोई जवाब नहीं!
अब सूरज ने कटोरे में से एक फूल निकाला, और उसको अभिमंत्रित कर फेंका आयषा पर, फूल आयुषा को जा लगा, लेकिन आयुषा को इसका कोई आभास नहीं हुआ, वो जस की तस घूरते रही उसको!
"कौन हो तुम? अपना नाम बताओ?" सूरज ने कहा, कोई जवाब नहीं!
सूरज ने मंत्र पढ़ा और खड़ा हआ! आयुषा ने उसकी आँखों से आँखें नहीं हटायीं! ये देख रवि और रामपाल की साँसें थामे जा रही थीं!
सूरज ने अपनी पैन्ट की जेब से एक माला निकाली, उलटे हाथ पर लपेट ली! और फिर से एक फूल फेंका उस पर! कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई!
"कौन है तू?" अब सूरज गुस्सा हुआ!
कोई जवाब नहीं!
"नहीं बोलेगी?" उसने पूछा,
कोई जवाब नहीं!
तब सूरज ने माला हाथ से खोली और कटोरे में रख दी, उसके बाद उसने एक फूल लिया और कोई शक्तिशाली मंत्र से अभिमंत्रित कर फेंका उसने आयुषा पर! इस बार आयुषा ने फूल को देखा, वो उसकी छाती से टकराया था, उसने फूल उठाया और उसको घूरने लगी!
"अब बता कौन है तू?" सूरज ने कहा,
कोई जवाब नहीं आया!
"तू ऐसे नहीं मानेगी!
ज़िद पर अड़ी है, तेरे को डंडा भांजना पड़ेगा" सूरज ने कहा,
तब खिलखिलाकर हंसी आयुषा!
"जवाब दे?" सूरज ने कहा,
"नीलम कैसे मरी?" आयुषा ने पूछा,
ये नाम सुनकर जैसे ह्रदयाघात हुआ सूरज पर!
"जवाब दे?" आयुषा ने पूछा,
सूरज बगलें झाँकने लगा!
"अब जवाब क्यों नहीं देता?" आयुषा ने पूछा!
सूरज की बोलती बंद अब!
दरअसल नीलम सूरज की बड़ी बहन थी! उसका इलाज किया था सूरज ने! लेकिन वो बच ना सकी थी! उसी नीलम के बारे में पूछा था आयुषा ने! ये कोई चार साल पहले की बात थी!
"वो मेरी गलती नहीं थी" सूरज ने कहा,
अब जब रवि और रामपाल ने सूरज का जवाब सुना तो भौंचक्के रह गए! मारे भय के जैसे ज़मीन हिलने लगी उनके पाँव के नीचे की!
"गलती तो तेरी ही थी" आयुषा ने बताया,
"कैसे?" सूरज ने पूछा,
"तूने मारा उसको" आयुषा ने कहा,
"नहीं! मैंने नहीं मारा!" कान पर हाथ रखते हुए कहा सूरज ने!
"अब झूठ बोलता है मेरे सामने?" आयुषा ने गुस्से से कहा,
"मै सच बोल रहा हूँ" सूरज ने कहा,
सूरज इलाज करने आया था, स्वयं बीमारी का शिकार हो गया था!
"निकल जा यहाँ से अभी, इसी वक़्त" आयुषा ने सूरज को धमकाते हुए कहा,
सूरज की बोलती बंद!
"आज के बाद यहाँ कभी आया तो आग लगा दूँगी तेरे घर को!" आयुषा चिल्लाई!
सूरज उठा! सारा सामान उठाया और अनमने मन से फ़ौरन बाहर चला गया!
अब एक बात निश्चित हो ही गयी थी कि आयुषा अब आयुषा ना होकर कोई और है? लेकिन कौन? बाहर जाते सूरज को रामपाल ने रोका और पूछा," सूरज क्या समस्या है?"
"बाबू जी, मामला बहुत खतरनाक है, इसमें जो भी है वो ताक़तवर है, मेरे बस की बात नहीं, कोई और आदमी ढूँढिये आप" सूरज ने कहा और चला गया!
रामपाल दौड़ के अन्दर आये! अन्दर आते ही आयुषा ने कहा,
"मेरी फिक्र ना करो, मै ठीक हूँ"
"बेटी? तुझे हुआ क्या है?" उन्होंने पूछा,
"क्या हुआ? मै ठीक तो हूँ?" उसने हाथ खोल के कहा,
"तू ठीक नहीं है बेटी" उन्होंने कहा,
"मेरी फिक्र नहीं करो बस" आयुषा ने कहा,
रामपाल खड़े हुए, बेबस!
"अब दरवाज़ा बंद कर दो, कोई नहीं आये यहाँ, समझे? अब जाओ"
उसने अपने बाप से कहा, उनका तो कलेजा ही बैठ गया! आंसू बहाने के अलावा कुछ नहीं कर सकते थे बेचारे! रामपाल बाहर निकले और दरवाज़ा बंद कर दिया! रवि बाहर ही खड़ा था, उसने सारी बातें सुन ली थीं! "आप चिंता ना करें, मै ले आऊंगा, एक आदमी है सिकंदराबाद में, मै आज पता करत हूँ रवि ने कहा और नमस्कार करते हुए बाहर चला गया! बिना कुछ बोले ताकते रहे रामपाल रवि को जाते हुए!
और फिर अगले दिन रवि सिकंदराबाद से एक आदमी को लाया, इसका नाम था अब्दुल, उम्र होगी करीब पचास साल! उसके अनुसार वो जिन्नाती-इल्म में माहिर था! उसने ऐसे कई इलाज किये थे!
रामपाल भी थोडा प्रसन्न हुए उस आदमी के बारे में जानकर! अब्दुल ने आयुषा को देखने को कहा तो रामपाल ले गए उसको आयुषा के कमरे में! वो लेटी हुई थी, लेकिन अब्दुल को देखकर खड़ी हो गयी! उसने रवि और अपने बाप को गुस्से से देखा! अब्दुल देखते ही समझ गया कि मामला बहुत संगीन है! अब्दुल ने उन दोनों को वहाँ से जाने को कह दिया! वे बाहर चले गए! अब्दुल बैठ गया वहां एक कुर्सी पर! आयुषा ने उसको घूर के देखा! अब्दुल ने भी नज़र नहीं हटाई!
"कौन है री तू?" अब्दुल ने गुस्से से पूछा,
कोई जवाब नहीं! "बोल?" उसने कहा,
कोई जवाब नहीं!
"ऐसे ना बाज आयेगी तू, रुक जा!" अब्दुल ने कहा,
अब अब्दुल ने इल्म पढना शुरू किया! और आँखें खोली उसने! सामने आयुषा नहीं थी! अब्दुल उठा और उसको ढूँढने लगा, उसने अपनी कुर्सी के पीछे देखा तो आयुषा वहाँ खड़ी थी!
"अच्छा! चालबाज भी है तू!" अब्दुल ने कहा,
अब्दुल ने फिर से इल्म पढ़ा! ..
अब ठहाका लगाया आयुषा ने ज़ोर से!
"बच्चा है तू मेरे सामने!" आयुषा ने कहा,
"अच्छा, तू हमारी माँ हो गयी!" अब्दुल ने कहा,
"चला जा बेटा चला जा!" आयुषा ने कहा,
"बिन माँ ना जाएँ हम!" अब्दुल ने कहा,
"क्यूँ मरने की सोच रहा है अब्दुल" आयुषा ने कहा,
अपना नाम सुन कर एक बार को चौंका अब्दुल!
"तू तो क़तई खिलंदरी है री!" अब्दुल ने कहा,
"मेरा खेल अभी तूने देखा ही कहा है" आयुषा ने कहा और फिर ठहाका मारा!
"चुप????" अब्दुल ने डांटा उसको!
आयुषा चुप हुई! और फिर से हंसने लगी!
"कमीनी मुझे खेल दिखायेगी?" अब्दुल ने कहा,
"अब्दुल वक़्त है चला जा, क्यों हाड़ तुड़वाता है अपने?" आयुषा ने कहा,
"हाड़ तोड़ेगी हमारे? तू तोड़ेगी?" अब्दुल ने गुस्से से पूछा!
"हाँ, मै ही तोडूंगी!" वो बोली,
"तू मुझे पढ़ नहीं पायी सही ढंग से" अब्दुल ने कहा,
"पढ़ लिया तभी कहा" आयुषा ने कहा और ठहाका मारा!
"ठीक है अब देख तू!" अब्दुल ने इल्म पढना शुरू किया!
वो अपने जिन्नात बुलाना चाहता था! इस से पहले कि वो पूरा करता आयूषा ने उसके हाथ पर काट लिया! चीख पड़ा अब्दुल दर्द के मारे! लेकिन अब्दुल के मारने पीटने के बाद भी हाथ नहीं छोड़ा उसने! आखिर में अब्दुल ने किसी तरह से छुड़वाया अपने आप को!
"हरामज़ादी!" अब्दुल ने गाली दी उसको!
वहाँ आयुषा उसके खून का स्वाद चख रही थी!
"भाग जा! भाग जा अब्दुल, भाग जा!" आयुषा ने कहा,
"मै नहीं भागूंगा! तू भागेगी" अब्दुल ने कहा!
"अब तू मारा जाएगा अब्दुल" आयुषा ने कहा,
"कौन मरेगा पता चल जाएगा" अब्दुल ने कहा,
"जो करना है कर ले अब्दुल" आयुषा ने कहा,
अब अब्दुल ने रुक्का पढना शुरू किया! रुक्का पश्न समाप्त हुआ लेकिन कोई नहीं आया वहाँ! उसने दुबारा से रुक्का पढ़ा! लेकिन कोई प्रकट नहीं हुआ वहाँ!
"क्या हुआ अब्दुल बेटा?" आयुषा ने कुटिल मुस्कान सहित पूछा!
अब अब्दुल को काटो तो खून नहीं! मारे भय के पीला पड गया! खडे खडे कांपने लगा! उसने दोनों हाथ जोड़े और कहा,
"माफ़ कर दे, गलती हो गयी, अब नहीं आऊंगा कभी" आयुषा ने ठहाका मारा!
"मैंने तुझे चेताया था ना?" उसने पूछा,
"हाँ, गलती हो गयी मुझसे" अब्दुल ने कहा,
"लेकिन अब मैं नहीं छोड़ने वाली तुझे कुत्ते?" आयुषा ने कहा,
"तूने मुझे बेटा कहा, मुझे माफ़ कर दे" उसने कहा,
"नहीं" आयुषा ने चिल्ला के कहा,
अब तो जैसे कलेजा मुंह को आ गया अब्दुल का! रोने लगा! माफ़ी मांगने लगा यकीन आयुषा ठहाके ही मारती रही! बाहर बैठे लोगों को पता ही नहीं था कि अन्दर क्या से क्या हो गया है!
"माफ़ कर दो मुझे" अब्दुल गिड़गिडाया!
"तेरी इतनी हिम्मत हुई कैसे यहाँ आने की?" उसने गुस्से से कहा,
"मुझे मालूम नहीं था" उसने हाथ जोड़ते हुए कहा,
"तेरे सिपाही ने नहीं बताया?" उसने पूछा,
"नहीं" अब्दुल ने कहा,
"आज के बाद तू मेरे सामने तो क्या किसी के सामने नहीं आएगा!
"रहम! रहम!" अब्दुल बोला!
उसने हाथ पीट के ठहाका मारा! "माफ़ी दे दो"
अब्दुल नीचे बैठा अब!
आयुषा खड़ी हुई! "माफ़ी?" उसने पूछा,
अब्दुल ने हाथ जोड़ कर कहा,
"माफ़ कर दो मुझे" आयुषा फिर से हंसी!
अब आयुषा झुकी और अब्दुल को उसकी गर्दन से पकड़ कर मारा दीवार पर फेंक कर! 'आह' की आवाज़ करता हुआ अब्दुल गिरा! जब बाहर शोर सुना तो रवि और रामपाल भागे कमरे में! अब्दुल नीचे गिरा था, उसका कन्धा उतर गया था! फिर से उठाया उसने अब्दुल को और बाहर दरवाज़े पर फेंक के मारा! उसका चेहरा दरवाज़े पर लगा और उसके होंठ फट गए! खून बहने लगा! अब रामपाल ने उठाया अब्दुल को और रवि गया आयुषा के पास! गुस्से के मारे फुनक रही थी आयुषा!
"ले जाओ इस कमीने को यहाँ से, नहीं तो जान से मार डालूंगी!" उसने गुस्से से कहा,
अब घबराए सभी! उसने रवि की कमीज का कॉलर पकड कर बाहर जाने को कहा! रवि फ़ौरन बाहर चला गया!
अब्दुल की हालत खराब थी! रवि फ़ौरन ही उसको अपनी गाड़ी में बिठा कर ले गया डॉक्टर के पास! अब घर में अफरातफरी मच गयी! जो कुछ देखा था वो विश्वास से परे था!
अब घर में भय व्याप्त हो गया! कोई भी नहीं जाता आयुषा के पास, सभी का रो रो के बुरा हाल था, बेबस और लाचार! रामपाल भी अपनी किस्मत को कोसते! आयुषा की माँ को अपनी बेटी शरीर से तो लगती थी लेकिन अब वो कोई और थी!
थोडा समय बीता! एक डेढ़ हफ्ता, एक बार रामपाल के एक जानकार आये उनके घर पर, रामपाल ने अपनी बेटी की दुर्दशा उनको बताई, वो सज्जन दिल्ली में ही निवास करते थे, उन्होंने रामपाल को मेरे बारे में बताया, उन्होंने तभी मुझे फ़ोन किया, मै उस दिन अपने स्थान पर ही था, उन्होंने मुझे आयुषा की दुर्दशा से परिचित करवाया! मुझे बेहद अफ़सोस हुआ! मैंने रामपाल से बात की और उनको तसल्ली दी, और कहा कि दो दिनों के बाद में उनके पास आ जाऊँगा! चौमासे का मौसम था उन दिनों, बारिश घनघोर हो रही थी यहाँ! इसीलिए दो दिनों के बाद कहा था मैंने! उस दिन शर्मा जी भी देर से आये थे! आते ही हमारा दौर-ए-जाम शुरू हआ, अब मैंने उनको उस लड़की आयुषा के बारे में बताया, उनको भी अफ़सोस हुआ! कुल मिलाकर दो दिनों के बाद का कार्यक्रम निर्धारित हो गया! अब चाहे बारिश हो या तुफ़ान! किसी की जान पर बनी थी!
और फिर वो दिन आ गया, शर्मा जी सुबह नौ बजे मेरे पास आ गए थे! मै तैयार था! पिछले दो दिनों में मैंने सभी आवश्यक तैयारियां कर ली थीं! हम अपने स्थान से कोई साढ़े नौ बजे निकल दिए, रामपाल को फ़ोन पर खबर कर दी!
अभी हम दादरी ही पहुंचे थे कि रामपाल का फ़ोन आया, कि आयुषा मारा-पीटी कर रही है, हमने उसको कमरे में बंद कर दिया था! अब गाड़ी दौड़ाई शर्मा जी ने! करीब एक घंटे में हम गाँव की कीचड़ भरे रास्ते पर पहुँच गए थे! कहीं रास्ता कच्चा सा था और कहीं पक्का! खैर, रामपाल से फ़ोन पर बात हुई तो उन्होंने अपने घर आने के लिए एक पहचान बता दी, हम वहाँ पहुँच गए! सौभाग्य से बारिश थमी हुई थी! आखिर हम पहुँच ही गए उनके घर! घर के अन्दर घुसे! अन्दर रामपाल और रवि बैठे हए थे, हमे देख खडे हए और स्वागत किया हमारा, नमस्कार आदि हुई तो मैंने पूछा अब आयुषा के बारे में! वे खड़े हुए और उसका कमरा बता दिया! मै कमरे की तरफ चला! कमरा बाहर से बंद था!
शान्ति छाई हुई थी! मैंने दरवाज़ा खोला, और अन्दर झाँका! अन्दर आयुषा अपनी गर्दन में चुन्नी लपेटे हुए तेज तेज पाँव हिला रही थी! उसने अपने कपडे जगह जगह से फाड़ लिए थे, उसको देख के लगता था कि जैसे किसी मानसिक रोग से पीड़ित है! मै अब अन्दर घुस गया! शर्मा जी भी आ गए!
"कौन हो तुम लोग?" आयुषा ने पूछा,
"वो तो हम बता ही देंगे, लेकिन तुम कौन हो?" मैंने पूछा,
"तेरे जैसे बहुत आये और बहुत गए" उसने धमकाया मुझे!
"मेरे जैसा नहीं आया होगा कोई!" मैंने मजाक उड़ाया उसका!
"अच्छा! खिलाड़ी है तू तो" उसने कहा,
"हाँ! हूँ मै खिलाड़ी!" मैंने कहा,
"मेरे खेल देखना है?"
"हाँ हाँ! खेल देखने ही तो आये हैं हम यहाँ!" मैंने कहा,
"भागेगा तो नहीं?" उसने पूछा और अपने कपड़े और फाड़ लिए जैसे उसको परेशानी और अधिक हो रही हो!
"नहीं! नहीं भागूंगा!" मैंने कहा,
"तो आज तेरा आखिरी दिन है ये, जानता है?" उसने ऊँगली दिखा के कहा,
"तू ऐसा मानती है?" मैंने कहा,
"मानती नहीं जानती हूँ" उसने कहा,
"तू कुछ नहीं जानती कुतिया!" मैंने अब गाली दी उसे!
इतना सुनकर वो लपकी मेरी ओर! जैसे ही आई मैंने उसके गाल पर एक झन्नाटेदार थप्पड़ रसीद कर दिया! वो गिर पड़ी नीचे! फिर से लपकी तो मैंने एक लात मारी उसकी छाती में! वो गर्राई!
"अब नहीं बचेगा तू!" वो दौड़ी मेरी तरफ,
मै खड़ा हुआ और उसके बाल पकड़ लिए! उसने मेरे हाथ में अपने नाखून घुसेड़ दिए! मैंने उसका सर हिलाया बालों से पकड़ कर! झिंझोड़ा कई बार! वो गाली गलौज करती रही! मैंने बाल नहीं छोड़े उसके! कम से कम पांच मिनट में उसके बालों से उसको हिलाता रहा! वो साँसें लेती रही तेज तेज!
"छोड़ दे, छोड़े दे मझे?' वो चिल्लाई,
"ऐसे नहीं छोडूंगा! पहले तेरा खेल देखूगा, फिर खेल दिखाऊंगा मै अपना तुझे!
" मैंने कहा, "छोड़, छोड़ मुझे!" उसने कहा,
अब मैंने एक तमाचा जड़ा उसे!
"छोड़ देऐऐऐए" वो चिल्लाई!
"ऐसे नहीं कुतिया! खेल दिखा मुझे पहले!" मैंने कहा,
उसने मुंह नीचे किया और मुझे काटने के लिए मुंह आगे बढाया!
अब शर्मा जी उठे!
"शर्मा जी, इसके मुंह में चाकू घुसेड़ दो अभी!" मैंने कहा,
उसने सुना और मुंह पीछे हटा लिया! वो सोच रही थी कि अब्दुल को उठा के फेंक दिया तो मुझे भी फेंक देगी! वो नहीं जानती थी कि मैं सदैव अपना सशक्तिकरण करके चलता हूँ! तैयारियां करता हूँ! क्रिया करता हूँ! मंत्र और विद्याएँ जागृत करता हूँ! यही कारण था कि उसमे मात्र अब एक लड़की के बराबर ही जान थी! उसकी प्रेत-शक्ति मेरे सामने नहीं चल रही थी!
"अच्छा छोड़!" उसने अब गंभीर होकर कहा,
मैंने उसको उसके बालों से पकड़ के एक ज़ोर का झटका दिया! उसके मुंह से एक करुण पुकार निकली!
"खेल शुरू नहीं किया तूने?" मैंने पूछा,
"अच्छा छोड़ दे मुझे" उसने धीमे स्वर से कहा,
"पहले खेल दिखा मुझे" मैंने कहा!
"सुन तो सही,, छोड़ दे मुझे" उसने कहा,
अब मैंने एक ज़ोर का झटका मारा उसको और उसको छोड़ दिया! वो गिरी जा कर सोफे पर! वहाँ बैठ गयी! और घूर घूर के देखने लगी!
"ओये आँखें नीचे कर!" मैंने धमकाया उसको!
उसने आँखें नीचे नहीं की! बल्कि ठहाका मारा उसने! अपने कपड़े फाड़ने लगी, ऊपर के सारे कपड़े फाड़ डाले उसने! "तेरा खेल शुरू हुआ या नहीं?" मैंने पूछा,
"अभी दिखाती हूँ" उसने हँसते हुए कहा,
"दिखा?" मैंने कहा!
"रुक जा!" उसने कहा,
"मै रुका हआ हूँ, अगर मैंने खेल दिखाया तो तुझे छिपने की जगह भी नहीं मिलेगी!" मैंने कहा,
"रुक जा! तेरा आज आखिरी दिन है!" उसने एक अजीब से अंदाज़ में ऐसा कहा!
"आखिरी दिन!" मैंने कहा,
"हाँ!" उसने फिर से लरजते हुए कहा,
"अब मुझे ये बता तू है कौन?" मैंने पूछा,
"क्या करेगा?" उसने पूछा,
"इसे क्यूँ तंग कर रही है?" मैंने पूछा,
"मेरी मर्जी" उसने कहा,
"बहत हो गयी तेरी मर्जी" मैंने कहा,
"इसे तो साथ ले कर जाउंगी मै" उसने कहा,
"क्यों?" मैंने पूछा,
"तुझे क्यूँ बताऊँ?" उसने कहा,
उसने अब सलवार फाड़नी शुरू कर दी, पहले पोंचा फाड़ा उसका, ये गन्दी ताक़तों में ऐसा उनकी फ़ितरत में शुमार होता है!
"क्यों नहीं बताएगी?' मैंने कहा,
"मै नहीं बताउंगी" उसने कहा,
"बतायेगा तो तेरा बाप भी" मैंने कहा,
"तू जान से जायेगा फिर" उसने मुस्कुरा के कहा,
"देखा जायेगा" मैंने कहा,
"मारा जाएगा तू" उसने कहा,
"तुझमे इतनी ताक़त नहीं कुतिया!" मैंने कहा,
"मै बुला लूंगी फिर" उसने कहा,
"किसको?" मैंने पूछा,
अब वो चुप हो गयी!
"किसको?" मैंने फिर से पूछा,
अब वो चुप!
"जवाब नहीं देगी?" मैंने कहा,
वो अब सोफे से नीचे ढलक गयी! और नीचे चौकड़ी मार ली! दोनों हाथ अपनी जाँघों पर रखे और सर एक दम नीचे झुका लिया, ज़मीन पर लगा लिया! मै समझ गया, ये किसी की आमद है! मैंने शर्मा जी को बाहर भेज दिया अब! मैं नहीं चाहता था उनको कोई नुक्सान हो! मेरे सामने बेठी आयुषा ने अब अपनी गर्दन हिलानी शुरू की! आगे पीछे, दायें-बाएं घूमने लगी! उसकी तेज साँसे पूरे कमरे में सुनाई देने लगी! लेकिन अभी तक ये पता नहीं चल सका था कि उसके अन्दर है कौन? वो बार बार उठती और अपनी सलवार फाड़ती जाती! तभी कमरे में भयानक दुर्गन्ध फैलने लगी! कोई साधारण व्यक्ति हो तो कै लग जाए उसे उसी क्षण! मै किसी तरह वहाँ बैठा रहा! मै किसी भी आमद के किये पूर्ण रूप से तैयार था! तभी वो रुकी और बायीं तरफ झुक गयी! उसके चेहरे पर उसके बाल ढलक गए थे, वो मुझे देख रही है, मुझे पता नहीं चल रहा था! तभी वो उठी, उसने फटी हुई सलवार भी निकाल दी, मेरे पास
आई और मेरे सामने बैठ गयी! उसके बाल अभी भी उसके चेहरे पर थे लेकिन मै अब उसकी दायीं आँख देख सकता था, आँखें दहकती हुई लाल हो गयी थीं! उसने अब अपने बाल हटाये चेहरे से और मुझे घूरने लगी!
"कौन है तू?" मैंने कहा,
उसने कोई जवाब नहीं दिया!
"कौन है तू हराम की जनी?" मैंने पूछा,
उसने कोई जवाब नहीं दिया, बस जैसे कुछ खा रखा हो उसने, ऐसे मुंह करके चबा रही थी!
"जवाब दे मुझे?" मैंने कहा,
"आज मारा जाएगा तू" उसने कहा,
"तू मारेगी मुझे?" मैंने कहा,
"हाँ, मै मारूंगी" उसने कहा,
"तेरा खेल ख़तम करता हूँ मै हरामज़ादी!" मैंने कहा और चांटा मारा उसको खींच के, लेकिन वो जस की तस बैठी रही! मेरा हाथ जैसे किसी लकड़ी के तख्ते पर जा कर लगा हो!
उसने ठहाका लगाया और उठ खड़ी हुई! मसानी-नाच नाचने लग गयी! लेकिन अभी तक ये पता नहीं चला कि इसके अन्दर कौन वास कर रही है! उसने अब अपने अन्तःवस्त्र भी उतार दिए, फाड़ दिए! और दोनों हाथों से तालियाँ मार कर नाचती रही!
मै अब खड़ा हुआ और जेब से एक कील निकाली, उस कील को अभिमंत्रित किया और अपने अंगूठे में घुंस लिया, कील पर रक्त लगा मेरा मैंने अब वो कील उस नाचती हई आयूषा पर फेंक दिया! उसका नाच बंद हो गया! वो नीचे बैठी, चौकड़ी मार, फिर कुत्ते के तरह से बैठ गयी और अपनी जीभ बाहर निकाली! उसकी जीभ एकदम भक्क काली थी! अब मै जान गया कि ये कौन है! ये थी भूड़ी! चामड सहोदरी भूड़ी! अक्सर गाँवों के किनारे पर वहाँ के लोग एक ग्राम-देवी को स्थापित करते हैं, इसको कहीं कहीं नगर-देवी, ग्राम-देवी अथवा चामड-देवी कहते हैं! ये भूड़ी-माई उसकी प्रधान सहोदरी होती है! इसको हराना अत्यंत दुष्कर कार्य है! ये जिसको चुन लेती है उसको ले ही जाती है! वो उठी और फिर से छाती पर थाप देते हुए नाचने लग गयी!
मेरे मन में उधेड़बुन जारी रही! हाँ, वो मुझे मार तो नहीं सकती थी परन्तु मुझे अशक्त अवश्य कर सकती थी! अशक्त के उपरान्त वो सम्भोग करती और फिर मेरा प्राणांत निश्चत था! ये मंशा होती है भूड़ी की! उन्मुक्त शक्ति है ये! कोई इसके क्षेत्र में फटक भी नहीं सकता! यही कारण था कि अब्दुल के सिपाही नहीं हाज़िर हए थे! वो नाचे जा रही थी डामरी की तरह! मेरी नज़र उसी पर टिकी थी! उसकी निरंतर मदद होती रहती है चामड से!
अब वो धम्म से बैठी! नीचे उतरी और खड़े खड़े ही वहाँ मूत्र-त्याग किया! इसी कारण से जिन्न नहीं आ सकते वहाँ! अब्दुल यहीं मार खा गया था! मूत्र-त्याग करते करते वो हँसे जा रही थी! मै सकते में था अब! इसका इलाज यहाँ नहीं हो सकता था, इसका इलाज शमशान में ही संभव था! और यहाँ शमशान नहीं था! होगा भी तो कीलित होगा, कीलन हटाने में तीन दिन लग जाते और इतना समय मेरे पास नहीं
था! उसने मूत्र-त्याग किया और अपने घुटनों पर लगे मूत्र को अपने हाथों से साफ़ किया! फिर हाथ अपनी छातियों से पोंछ लिए और दीवार के साथ जाकर बैठ गयी! अब उसने चौकड़ी मारी और फिर से दोनों हाथ जाँघों पर रख कर लगी खेलने! ज़ोर ज़ोर से उसने अब चारों ओर घूमना आरम्भ किया! करीब सात-आठ मिनट और फिर पस्त हो कर वहीं लेट गयी! भूड़ी चली गयी थी! मैंने राहत की सांस ली अब! परन्तु जाने के बाद भी आयुषा के शरीर पर उसी का संचालन था! मै सीधे सीधे उस पर वार नहीं कर सकता था, उस समय मै बेबस था!
आयुषा धौंकनी के समान सांस ले रही थी! अंट-शंट बके जा रही थी! फिर उठी और बिस्तर पर लेट गयी! क्या हाल कर दिया था इस बेचारी लड़की का उस भूड़ी ने! अब गलती किस से हई थी? आयुषा से या फिर ये किसी कि चाल थी? यदि गलती थी तो सुधारी जा सकती थी, यदि चाल थी तो जिसने भी ये चाल चली थी वो निसंदेह माहिर था!
"देखा मेरा खेल?" आयुषा ने कहा,
"हाँ देख लिया" मैंने कहा,
"चल जा, छोड़ देती हूँ तुझे" उसने हाथों के इशारे से कहा,
मै कुछ नहीं बोला, बोल भी नहीं सकता था! अभी सत्ता भूड़ी की थी! और मेरे पास कोई काट नहीं थी उसकी!
"गया या नहीं?" उसने कहा,
"जा रहा हूँ" मैंने कहा और उठ गया,
"जा, अब न आना दुबारा" उसने कहा,
"ठीक है" मैंने कहा और बाहर आ गया!
मै बाहर आया, सभी इंतज़ार कर रहे थे मेरा बेसब्री से! मैंने उनको सारी बात बता दी! सुनकर वो दंग रह गए! रामपाल से या उनके परिवार से ऐसी कोई भी गलती नह इसका अर्थ यही था कि आयुषा से ही कोई गलती हुई है! लेकिन ये केवल मेरी शंका थी, अब मुझे शंका-निवारण करना था अपना! मैंने उनको अगले दिन के लिए कहा कि वो कल रात को मेरे पास ले आयें इसको, अगर नहीं आती तो फिर हम आ जायेंगे! उन्होंने हामी भर ली! और फिर मै और शर्मा जी निकल आये वहाँ से! रास्ते में एक जगह रुक कर चाय पी और कुछ बातें करते रहे आयुषा के विषय में ही, शर्मा जी बोले,"गुरु जी, ये मामला गंभीर है बहुत"
"हाँ शर्मा जी" मैंने कहा,
"एक बात बताइये?" उन्होंने पूछा,
"पूछिए?" मैंने कहा,
"क्या भूड़ी को कोई भेज भी सकता है?" उन्होंने पूछा,
"हाँ, जिसने इसको सिद्ध किया हो" मैंने बताया,