“हो सकता है” मैंने कहा,
“जो पहले बंधे हुए होंगे और अब मुक्त हुए हैं” उन्होंने कहा,
“ये भी सम्भव है” मैंने कहा,
अब लाला जी आ आ गए,
मैंने उनको विस्तार से सबकुछ बता दिया,
सुनकर उनकी हवा में बल पड़ गया! घबरा गए बुरी तरह से!
“गुरु जी निदान कीजिये इस समस्या का, हम में बूता नहीं कि ये मकान छोड़ कर कहीं और जा बसें” वे बोले,
“मैं जानता हूँ, आप एक काम कीजिये, आज दो मजदूर बुलवाइये, उस पेड़ के नीचे कुछ दबा हुआ है, वहीँ निकालना है” मैंने कहा,
उनको हैरानी हुई! क्या दबा हुआ है?
धन?
“हाँ, हां! आज ही और भी बुलवाता हूँ जी” वे बोले,
अब धन के पीछे कौन नहीं बौराता!
वहाँ पोटलियाँ तो थीं, अब उनमे धन था या नहीं ये नहीं पता था! मुझे वो धन-रक्षक नहीं लगते थे, धन-रक्षक तभी तंग करते यदि उनके धन या उन्हें छेड़ा जाता!
खैर जी, चाय नाश्ता भेज दिया उन्होंने, हमने चाय नाश्ता करना शुरू किया और स्थानीय अखबार पढ़ते रहे!
“क्या धन इसका कारण है गुरु जी?” शर्मा जी ने पूछा,
“हो भी सकता है” मैंने कहा,
“ये गाँव पुराना लगता है, लेकिन इसकी आबादी मुश्किल बा मुश्किल कोई डेढ़ दो हज़ार ही होगी, धन? अब पता नहीं हो या नहीं” उन्होंने भी एक प्रकार से आशंका ही जताई,
“वहीँ मैं कहना चाहता था, बंजारे अक्सर धन गाड़ा करते थे, लेकिन वो दोआब के क्षेत्र को कभी पार नहीं करते थे, यहाँ तक तो आने का कोई सवाल ही नहीं” मैंने कहा,
“हाँ जी” वे बोले,
हम बातें करते रहे,
करीब ग्यारह बजे लाला जी आये, पान का बीड़ा खोला और एक पान झट से खोंस लिया अपने जबड़ों में!
“गुरु जी, मजदूर ले आया हूँ” वे बोले,
“चलो फिर” मैंने कहा,
हम चले वहाँ,
अब मैंने मजदूरों को एक जगह निशान लगा कर एक परिधि बनायी और वहाँ खोदने को कहा, कम से कम पांच फीट खोदना था, मैंने रक्षा-मंत्र से पोषित कर दी थी वो भूमि! ताकि उन भोले भाले मजदूरों को कोई समस्या न हो!
और इस प्रकार खुदाई आरम्भ हुई!
एक फोल्डिंग-पलंग बिछा दिया गया, हम बैठ गए उस पर,
मिट्टी भुरभुरी थी, जल्दी ही खुदाई हो जाती!
करीब साढ़े बारह बजे एक मजदूर ने कहा, “यहाँ कुछ दबा हुआ है”
हम भागे वहाँ, ये एक लाल रंग का कपडा सा था, रेशम या साटन जैसे, मैंने नीचे गड्ढे में उतरा और उस कपडे को देखा, हाथ से उसके चारों ओर खुदाई की, ये कोई पोटली सी थी, उसमे गांठें मारी गयीं थीं, मैंने और हाथ और एक खुरपी की मदद से उसको निकाला, पोटली निकल गयी!
सभी की आँखें फटी की फटी रह गयीं!
पोटली की गांठें चिपक गयी थीं! खुलने की गुंजाइश नहीं थी! सो मैंने चाकू की सहायता से पोटली फाड़ दी! पोटली में से मिट्टी और कुछ औरतों के केश निकले! मैंने मिट्टी को साफ़ किया, कुछ नहीं निकला, हाँ मिट्टी में रेट बहुत था और कम से कम चार औरतों के समस्त केश थे!
किसी काम के न थे!
और जगह पर खुदाई करवायी, इस तरह तीन और पोटलियाँ निकलीं. उनमे से दो में और ऐसा ही सबकुछ निकला, हाँ एक और पोटली में एक छोटा सा मिट्टी का भांड निकला, वो मिट्टी की
कटोरी से ही ढका था, मैंने चाकू की सहायता से उसको खोला, उसने भस्म थीं, किसी की चिता की भस्म!
किसकी?
अब ये सवाल मायने रखता था!
और उन चारों का इस से क्या लें देना था?
इसका रक्षण?
आखिर किसलिए?
किस प्रकार ये महत्वपूर्ण था?
बहुत सारे प्रश्न दिमाग में कौंध गए!
मजदूरों को पैसे दे कर वापिस भेज दिया गया, जाने से पहले गड्ढे भरवा दिए गए!
लाला जी का धन का सपना भी गड्ढों में दफ़न हो गया!
अब आज की रात महत्वपूर्ण थीं!
मैं उन चारों को आज जगाना चाहता था! उनकी कुछ वस्तुएं मेरे हाथ लग गयी थीं और वो इनको अवश्य ही हथियाना चाहेंगे!
अब शुरू हुआ था खेल!
रात हुई!
मैंने तैयारियां आरम्भ कीं!
सभी तंत्राभूषणों की जांच की और कुछ आवश्यक पहन लिए! कुछ मंत्र आदि विद्याएँ जागृत कीं और फिर उस पेड़ तक गया!
वहाँ पर तीन दिए जलाये!
मांस का एक एक टुकड़ा सिन्दूर में डुबो के रखा!
और वहीँ बैठ गया!
अब मैंने मंत्र पढ़े और फिर प्रत्यक्ष-मंत्र का जाप किय और सरसों वहीँ उछाल फेंकी!
धम्म! धम्म! दो आवाज़ें हुईं!
दो प्रेत उस पेड़ से नीचे कूदे!
लम्बे, कद्दावर प्रेत!
गुस्से में!
भयानक गुस्से में!
कोई और होता तो उसके टुकड़े कर डालते!
गुस्से में फुनकते हुए!
“कौन हो तुम?” मैंने पूछा,
“तू अभी तक गया नहीं?” उसमे से एक ने पूछा,
‘जो पूछा गया वही बता” मैंने कहा,
वो गुस्से में फुफकार उठा! उसकी भुजाएं फड़क उठीं!
अब मैं समझा उस बाबा जी की कैसे मार लगी होगी!
“तूने भसम चोरी की है?” वो बोला,
भस्म?
अच्छा!
वो भस्म!
“चोरी नहीं की, निकाली है” मैंने कहा,
”वापिस गाड़ दे उसको” वो बोला,
“क्यों?” मैंने पूछा,
“अरे मूर्ख! तुझे नहीं पता तूने क्या कर दिया और क्या कर रहा है?” उसने कहा,
“क्या किया मैंने, बता मुझे?” मैंने पूछा,
“वो बाबा अमराल की भसम है, यहाँ स्थान है उनका, हम उनके सेवक हैं, पहरेदार हैं” वो बोला,
“बाबा अमराल?” मैंने पूछा,
“हाँ! बाबा अमराल” उसने कहा,
“तो यहाँ क्यों गाड़ी उसकी भसम?” मैंने पूछा,
“उनका मंदिर बनता यहाँ” वो बोला,
मंदिर!
ओह!
सच में ही भूल हुई!
क्या सच में?
नहीं कैसी भूल?
मुझे क्या पता!
“तुम कब से हो यहाँ?” मैंने पूछा,
“तभी से” वे बोले,
“इस स्थान पर?” मैंने पूछा,
“नहीं, डडोहा में” उसने कहा,
“डडोहा? या क्या है?” मैंने पूछा,
“डडोहा में स्थान है उनका” वो बोला,
बड़ी अजीब सी बात थी, ये भी स्थान और डडोहा में भी स्थान!
कुछ समझ में नहीं आया!
ये महाप्रेत हैं, झूठ बोलना, बरगलाना इनका नैसर्गिक स्वभाव है!
“झूट कहते हो तुम” मैंने कहा,
“हमे झूठ बोलता है?” गुस्से में फटने को वो!
“ज़यादा धमक मत! क़ैद कर लूँगा तो देख भी नहीं पायेगा!” अब मैं असली रूप में आया!
“तू जानता नहीं मैं कौन हूँ” उसने धमकाया मुझे!
‘अच्छा! कौन है तू?” मैंने पूछा,
“मैं हूँ जगराल महाप्रेत!” उसने कहा!
“और तू?” मैंने दूसरे से पूछा!
वो कुछ नहीं बोला, लगता था जगराल का कनिष्ठ था वो!
“अब वो भसम यहाँ गाड़ दे और प्राण बचा अपने” वो बोला,
“नहीं, यदि बाबा अमराल की है ये भसम तो मैं कल ही इसको गंगा जी में प्रवाहित कर दूंगा” मैंने कहा,
“तेरी ये हिम्मत?” आँखें तरेर के कहा उसने!
“तेरी हिम्म्त? मुझे रोकेगा तू?” मैंने कहा,
उसका बस नहीं चल रहा था नहीं तो मुझे ही उस गड्ढे में गाड़ देता!
अब दो और औरतें वहाँ प्रकट हुईं!
साक्षात् चुड़ैल!
ये सहायिकाएं थीं उनकी!
“मंदिर बनेगा तो क्या होगा उस से और कौन बनाएगा मंदिर?” मैंने पूछा,
“अमराल का ज्येष्ठ पुत्र और हम यहाँ वास करेंगे, हम बहुत हैं, सैंकड़ों हैं” उसने कहा!
“सैंकड़ों??” मैं चौंका!
“हाँ! सैंकड़ों! किस किस को रोकेगा?” वो ठहाका मारते हुए बोला!
“रोक लूँगा, उसकी चिंता तू न कर!” मैंने कहा,
सन्न!
वे सभी सन्न!
अब बाबा अमराल थे भी या नहीं, नहीं पता!
कौन ज्येष्ठ पुत्र?
ये भी नहीं पता!
ये बाबा अमराल कब हुए थे, ये भी नहीं पता!
कौन बताये?
यही बताएँगे!
बतायेगा जगराल!
हाँ!
जगराल महाप्रेत!
और गायब!
चारों गायब!
अब मुझे ढूंढना था बाबा अमराल का जंजाल! क्या जंजाल था? क्या ताना-बाना था, यही सब!
ये महाप्रेत हठी थे, ज़िद्दी थे और क्रोधित भी!
वो भसम का पात्र या भांड मेरे पास था अभी, यही थी असली कुंजी! यही खोलने वाला था असली राज जो वहाँ दफ़न था! बाबा अमराल ने यदि सैंकड़ों महाप्रेत सिद्ध किये थे तो वो सच में महा-तांत्रिक रहे होंगे! इसमें कोई शक नहीं!
लेकिन कौन हैं ये बाबा अमराल?
और हाँ!!
हाँ!
कौन है उनका ज्येष्ठ पुत्र?
जाल उलझा हुआ था!
समय निकले जा रहा था!
मई फ़ौरन अपने कक्ष में गया और उस भस्म-पात्र को अपने बैग से निकाला, आठ इंच के इस पात्र ने वहाँ ग़दर मचा के रखा था!
मैंने तभी शाही रुक्का पढ़ा!
तातार खबीस का शाही-रुक्का!
तातार हाज़िर हुआ!
और फिर अचानक से लोप!
मैं समझ गया!
बखूबी समझ गया!
बाबा अमराल का तंत्र अभी जीवित है!
वो पात्र नहीं जीता-जागता तंत्र-संयंत्र है!
अब इस से अधिक यहाँ कुछ नहीं हो सकता था! अर्थात मेरे बूते के बहार था यहाँ कुछ करना! अतः मैंने ये काम एक श्मशान में करना ही उचित समझा!
पात्र को संभालकर मैंने अपने बैग में सम्मान के साथ रख दिया!
अब सारी से अवगत कराया मैंने शर्मा जी को, उनका भी माथा ठनका!
और कुल मिलाकर ये निर्णय लिया गया कि मैं अगले दिन अपने जानकार के यहाँ जाऊँगा और श्मशान से ही इस बारे में जानकारी जुटाऊंगा!
लाला जी को भी मैंने बता दिया!
वे भी संतुष्ट हो गए!
अगली सुबह!
अगली सुबह मेरे दरवाज़े पर दस्तक हुई,
शर्मा जी ने दरवाज़ा खोला,
ये लाला जी थे,
नमस्कार हुई,
“ज़रा बाहर देखिये” उन्होंने कहा,
मेरी रही-सही ऊंघ भी उतर गयी ये सुनकर!
बाहर आया,
पूरे आँगन में कंकड़-पत्थर पड़े थे, जैसे रात में बारिश हुई हो उनकी!
ये उन्ही का काम था!
“अंदर चलिए आप” मैंने कहा,
सब अंदर आये,
“लाला जी, हमे अभी जाना होगा यहाँ से, वे प्रेत बहुत गुस्से में हैं” मैंने कहा,
लाला जी घबरा गए!
उनको समझाया बुझाया और हम वहाँ से निकले आनन-फानन में, घर के बाकी लोगों को मन कर दिया था घर से बाहर निकलने के लिए, वे सभी डर के मारे मानने को विवश थे!
हम निकल दिए वहाँ से!
लाला जी ने गाड़ी दौड़ा दी!
भीड़-भाड़ से बचते बचते आखिर हम शहर पहुँच गए, वहाँ मैं अपने एक जानकार के पास आया, उनसे सारी बात कह सुनायी, अब उन्होंने एक और खुलासा कर दिया!
बाबा अमराल एक समय बहुत बड़े बाबा थे यहाँ के! लेकिन उनके पुत्र आदि के बारे में कुछ पता नहीं बस इतना कि वो कानपुर क रहने वाले थे और कौन कहाँ गया ये नहीं पता, न बाबा अमराल का कोई स्थान है, न था, न कोई समाधि इत्यादि!
अर्थात बाबा अमराल अभी सोये हुए हैं! क्योंकि मेरा खबीस हाज़िर नहीं हुआ था मेरे सामने!
बहुत विकट समस्या थी, काम मुश्किल और जानलेवा था!
एक और बात कही मेरे जानकार ने, वाराणसी से लाला जी का घर काफी दूर पड़ता है, उस घर में और वाराणसी अथवा बाबा अमराल में कोई सम्बन्ध तो अवश्य ही रहा होगा, अब सम्बन्ध क्या था? ये पता चल जाए तो कुछ सूत्र हाथ लगे!
मतलब वही हुआ, चारों तरफ ढोलक बज रहे थे, तबले की थाप पहचाननी थी!
बहुत मुश्किल काम था!
लाला जी को मैंने भेज दिया था वापिस, मैं यहीं रहना चाहता था, आज रात श्मशान प्रयोग करना था, और लाला जी का कोई औचित्य नहीं था!
शाम ढली मैंने सारी सामग्री और सामान खरीद लिया और सीधे क्रिया स्थल में आ गया, वहाँ रख दिया, वहाँ मैंने अब अपना तांत्रिक-सामान निकाला, और उनका पूजन किया, कुछ आवश्यक वस्तुएं जिनकी आवश्यकता था वे भी निकाल कर शुद्ध कर लीं!
उस समय रात के आठ बजे थे,
मैं स्नान करने जा ही रहा था कि शर्मा जी मेरे पास पहुंचे, उन्होंने कहा कि लाला जी का फ़ोन आया था, उनके घर के एक कमरे में से धुआं उठ रहा था, और जब दरवाज़ा तोडा तो सारा सामान बिना आंच के जल कर खाक़ हो चुका था, सभी घर गए थे और उन लोगों ने अपने आसपड़ोस में रहने वाले लोगों के यहाँ शरण ले ली थी, लाला जी भी उन्ही में से एक थे, जिनका परिवार उनके एक पारिवारिक मित्र के यहाँ ठहरा हुआ था!
स्पष्ट था!
महाप्रेत भड़क चुके थे!
अब इनका ही प्रबंध करना था सबसे पहले!
मैं स्नान करने चला गया और फिर वहाँ से सीधा क्रिया-स्थल में पहुंचा! ब्रह्म-अलख उठायी और अलख भोग दिया! अघोर-पुरुष एवं गुरु-नमन किया और फिर सारी सामग्री वहाँ सजा ली!
अब निकाला मैंने वो पात्र!
भस्म-पात्र!
भय!
एक अनजान भय!
उस भय ने मुझे विवश कर दिया बाबा अमराल को नमन करने को!
मैंने माथे से लगाया और फिर एक चरम-पट्टिका पर उसको अपने समक्ष रख दिया!
अब मैंने वाचाल-महाप्रेत को प्रकट करने के लिए उसका आह्वान किया! वो बड़बड़ाते हुए प्रकट हुआ, अपना भोग लिया और मेरा प्रयोजन सुना और उड़ चला! दूसरे ही क्षण वो वापिस आया और मुझे कुछ बताने लगा! जो बताया वो एक मार्गदर्शन था अन्य कुछ उपयोगी नहीं!
अब हारकर मुझे कारण-पिशाचिनी का आह्वान करना पड़ा! मैंने दग्ध-मुद्रा में उसका आह्वान किया, सांस फूल गयी और फिर वो प्रकट हुई!
मैंने प्रश्न करने आरम्भ किया,
और मुझे एक एक प्रश्न का उत्तर मिलता चला गया!
बाबा अमराल!
महातांत्रिक बाबा अमराल!
ग्यारह वर्ष में ही तंत्र-मार्ग पर प्रशस्त हो चुके थे बाबा अमराल! हैरत की बात ये कि उनका कोई गुरु नहीं था, अपने स्व-बल से ही शक्तियों से ही ज्ञान-संवर्धन किया करते थे बाबा अमराल! रहने वाले जिला कानपुर के थे, बालपन से ही सबसे विलक्षण और पृथक!
इक्कीस तक आते आते उनकी तूती बोलने लगी थी चहुंदिश!
उनके दो पुत्र हुए!
ज्येष्ठ पुत्र अरिताम् और कनिष्ठ पुत्र सात्यिक!
दोनों ही तंत्र-मार्ग में अपने पिता का ही अनुसरण करते थे! बाबा अमराल ने दोनों को उच्च-कोटि का तंत्र-ज्ञान प्रदान किया!
अब दोनों ही महातांत्रिक बनने की डगर पर प्रशस्त हो चले थे!
और फिर समय आया बाबा के देह-त्याग का!
उन्होंने अपनी इच्छा से गंगा-तट पर शरीर-त्याग किया! स्थान उनका कोई था नहीं, घुम्मकड़ थे! कभी कहाँ और कभी कहाँ!
ये बात कोई आज से डेढ़ सौ वर्ष पुरानी होगी!
इन्ही बाबा अमराल के एक भक्त थे लाला हरिमल!
हरिमल!
इन्ही लाला हरिमल की वंशबेल में से थे ये लाला हरकिशन!
परतें खुलने लगीं थीं अब!
डेढ़ सौ वर्ष पुराना तिलिस्म टूटने को था!
खैर,
लाला हरिमल ने अरिताम् को भूमि प्रदान की, बाबा अमराल का स्थान बनाने के लिए, अरिताम् और सात्यिक दोनों ने स्वीकार कर लिया!
अरिताम् और सात्यिक वहाँ गए और उन्हों एक स्थान चुना, चौमासे के दिन थे, सो निर्माण सम्भव नहीं था, हाँ वहाँ यही पीपल का वृक्ष अपने किशोरपन में खड़ा था! अरिताम् और सात्यिक ने केश-मुंडन कराया, उनके साथ औरों ने भी करवाया और तीन गड्ढे बना कर, पूजन कर बाबा अमराल का वो भस्म-भांड वहाँ रख दिया! भविष्य में निर्माण करने हेतु!
अब नियति कहिये या ‘उसका’ निर्णय!
लाला हरिमल तीसरे ही महीने हरी को प्रिय हो गए!
उनके बालक भी किशोर-अवश्था में ही थे, थोडा जानते थे, थोडा नहीं!
अरिताम् रोग-ग्रस्त हुए और इस रोगावस्था में शरीर त्याग गए!
सात्यिक तभी पिता-मृत्य के पश्चात और भस्म-भांड गाड़ने के बाद कहाँ चले गए, ऐसे गए कि कभी वापिस नहीं आये!
बाबा अमराल तो अनंत में विलीन हो गए!
और अब रह गए शेष उनके सेवक और सेविकाएं!
ये थी गुत्थी!
गुत्थी सुलझ चुकी थी!
बाबा अमराल के लिए मेरे मन में सम्मान कई गुना बढ़ चुका था!
मैंने उन्हें मन ही मन नमन किया और आशीर्वाद की कामना की! मैंने बाबा को वचन दिया कि बाबा स्थान तो अवश्य ही बनेगा! वो तब न बन कोई बात नहीं, परन्तु अब समय आ गया है!
रहे अब उनके सेवक प्रेत और महाप्रेत!
उनको मैं अब सबक सिखाने वाला था!
उस रात मैं उठा क्रिया स्थल से! और भस्म-भांड वहीँ दीप-दान और धूपदान की बीच संजो के रख दिया और विश्राम करने अपने कक्ष में चला गया!
सच कहता हूँ!
नींद नहीं आयी सारी रात!
करवटें बदल बदल के बाबा के स्मरण में ही खोया रहा!
सुबह सूर्या महाराज ने बड़ा उपकार किया! दिन का टोकरा उठाये आ पहुंचे थे क्षितिज पर! उनका भ्रमण-चक्र आरम्भ हो चुका था!
मैं शीघ्र त्से उठा, स्नान आदि से फ़ौरन ही फारिग हुआ और फिर शर्मा जी को भी जगाया, वे भी तैयार हुए, तभी मेरे कहने पर शर्मा जी ने लाला जी से संपर्क साधा, बात हो गयी, वे शहर की ओर निकल चुके थे!
मैं क्रिया स्थल में गया और वहाँ से वो भस्म-भांड उठा लिया, माथे से लगाया और अपने बैग में रख लिया!
और अपने कक्ष में आ गया!
बैठे बैठे नींद लग गयी!
और जब मुझे शर्मा जी ने जगाया तो मैं जाग, लाला जी आ गए थे!
हम झट से गाड़ी में बैठ गए, मैंने अब सारी कहानी लाला जी को बता दी, लाल हो गया उनका चेहरा!
“ओह!” उनके मुंह से निकला पूरी बात सुनने के बाद!
“लाला जी, अब हमको वो स्थान चाहिए, वहाँ भस्म-भांड स्थापित करना है” मैंने कहा,
उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर लिया!
जब हम वहाँ पहुंचे तो घर में कोई नहीं था, मैंने लाला जी से उनके घर की चाबी ली और उनको अलग भेज दिया, अब शर्मा जी के साथ में अंदर घुसा!
घर में गंदगी फैला दी थीं उन्होंने!
बाल, पत्थर कूड़ा-कचरा सब! हर तरफ!
मैं सीधे पेड़ के पास गया,
प्रत्यक्ष-मंत्र का जाप किया!
वहाँ एक नहीं, न जाने कितने आ गए!
कोई मेरा शत्रु नहीं! मैं उनका शत्रु नहीं!
मैंने उनको अपनी योजना से अवगत करा दिया! वे सभी खुश! और तब जगराल ने मुझे वचन दिया कि भविष्य में कोई भी प्रेत वहाँ कोहराम नहीं मचाएगा! वे सभी वहीँ वास करेंगे!
मुझे कोई आपत्ति नहीं थी!
अब मैंने लाला जी को वहाँ बुलवाया, और फिर स्थान साफ करवाने के लिए मजदूर बुलवाये! वे चले गए, हाँ, मैंने सभी को वहाँ लाने को कह दिया, अब किसी भी पारिवारिक सदस्य को कोई परेशानी नहीं होनी थी!
मित्रगण!
मैं ग्यारह दिन वहाँ रहा कुल!
स्थान बन गया!
एक छोटा सा जड़ में बना हुआ मंदिर!
एक त्रिशूल गड़ा है वहाँ!
अब वहाँ शान्ति है!
सुना है मन-मुराद भी पूरी होने लगी हैं वहाँ!
बाबा अमराल!
मैं भूला नहीं हूँ ये घटना!
मैं वाराणसी में था, दिल्ली आया और फिर से वाराणसी पहुँच गया!
कोई तो चाहता था!
कौन!
लम्बा विवरण है ये!
आज लाला जी खुश हैं!
बहुत खुश!
सभी खुश!
बाबा अमराल को स्थान मिला और लाला जी को चैन! व्यवसाय तरक्की पर हैं, चैन से मंगल हो रहा है!
और क्या चाहिए!
साधुवाद!
