मुझे याद है, वो अमावस की रात थी, मैं अपने कुछ साथी औघड़ों के साथ बैठा था, एक नदी के घाट पर! वहाँ चिताएं जल रही थीं, अचानक से आंधी सी आयी और सारा सामान आदी अस्त-व्यस्त हो गया, ये मौसम ही आंधी-तूफानों का था, वैसे आंधी की कोई उम्मीद तो थी नहीं लेकिन आने वाला आने से पहले की सूचना नहीं देता! हम कुछ देर तो वहीँ टिके रहे, आखिर आंधी के सामने हारे औघड़ और अपना अपना बोरिया-बिस्तरा समेत कर, अपने अपने ठिकाने में पहुँच गए! ज़ोर की आंधी थी! छिटपुट बारिश भी हुई थी! मौसम एक ओर जहां ठंडा हो चला था वहीँ अब नमी ने भी नाक में दम कर दिया था! कीड़े-मकौड़ों का तो मेला सा लग गया था! वे झुण्ड के झुण्ड में निकलते और जश्न मनाते!
शर्मा जी डेरे में आराम कर रहे थे, मैं यहाँ एक साधना के लिए आया था, साधना अभी आरम्भ भी नहीं हुई थी कि मौसम ने मिजाज़ बदल लिया था!
रात के ग्यारह बज चले थे, आखिर में आंधी ने धीरे धीरे करके दम तोडा तो हम मूसों की भांति अपने अपने बिलों से टोह लेने बाहर निकले! कुल मिलकर मौसम बढ़िया हो गया था अब!
हम फिर से अपने अपने गुट में जा बैठे, आसान पुनः व्यवस्थित किये गए और हम विराजे उस पर! सामग्री, कपाल आदी दुबारा से सजाये गए! और मदिराभोग पुनः आरम्भ हुआ! मांस भुना हुआ था, कपडे में बंधा हुआ, मेरा सहायक दुर्गेश मेरे संग ही था, मेरे सारे सामान की ज़िम्मेवारी उसी पर थी!
दुर्गेश ने कपडा खोला और मांस का एक टुकड़ा मुझे दिया, मैंने मांस के टुकड़े को शराब के प्याले में डुबोया और ‘अलख निरंजन’ का जाप करते हुए मुंह में रख लिया! और चबा कर आनंद लेने लगा! मांस सही भुना था और बना भी लजीज़ था! सैंधा नमक लगा हुआ था! मांस देसी मुर्गे का था!
अब औघड़-मण्डली जम गयी!
कोई कुछ कहे और कोई कुछ!
ठहाके लगते गए!
मदिरा असर दिखाती गयी!
और अब उठी अलख!
सभी ने नमन किया!
और अब हुआ नृत्य!
बम बम!
बम बम!
गूँज उठा श्मशान हमारे गान और चिमटों की खंकार से!
नशे में झूमते औघड़!
कोई देख लो तो फ़ौरन ही मानसिक रूप से विक्षिप्त होने का प्रमाण-पत्र काट दे!
हम तो खोये थे शक्ति-मंडल में!
संसार में तो केवल देह थी!
मन नहीं था!
मन तो लगा था शक्ति के पूजन में!
देह से ही यदि पूजन होता तो नेत्रहीनों, अपांग, गूंगे और बहरों का जीवन ही व्यर्थ जाता! पूजन और भक्ति के लिए देह की क्या आवश्यकता!
मन!
हाँ! मन सौंप दो!
तन छोड़ दो!
सभी तन एक से!
क्या मनुष्य! क्या कुत्ता! क्या बकरी और क्या घोडा!
मन!
समझे मित्रगण मन!
यही तो चाहिए!
परन्तु!
मन चंचल है!
इसके अनगिनत हाथ हैं और अनगिनत पाँव!
और मित्र तो पूछो ही मत!
दिशा ज्ञान इसे नहीं!
भाव ज्ञान इसे नहीं!
हाँ विषय-ज्ञान!
इसमें माहिर है!
तो?
मन!
इसको संतुलित कीजिये, तन अपने आप ढल जायेगा!
तो जी हम लगे थे नृत्य में!
कोई गिरता कोई बैठता!
कोई सुर नहीं! कोई ताल नहीं!
हम बेसुरे और बेताल ही अच्छे!
जो थक जाता, मदिरा की घुट्टी भरता! जीवन-संचार होता और फिर से रम जाता!
कुछ ऐसा था वहाँ का दृश्य!
मध्य-रात्रि हो चली थी और अब नृत्य-उल्लास समाप्त हो गया था! अब चिता को घेरे हुए चिता-साधक अपने अपने कर्मों में तल्लीन थे! मंत्र जागृत हो रहे थे और कुछ विद्यायों का पुनः आमंत्रण को रहा था! ये सिलसिला सुबह पांच बजे तक अनवरत चलता रहा और उसके बाद समाप्ति हुई!
सभी उठे और अपने अपने ठिकाने चल दिए!
मैं भी अपने ठिकाने चले आया!
वहाँ शर्मा जी जागे हुए थे, मैंने स्नान किया और हम वहाँ से सीधे अपने डेरे चले गए, आज यहाँ आखिरी दिन था और अंतिम रात्रि की क्रिया पूर्ण हो चुकी थी, अब वापसी दिल्ली का ही कार्यक्रम था, टिकटें भी कल की ही आरक्षित थीं सो उस दिन मैंने आराम किया और रात्रि समय भोग अदि देकर निश्चिन्त हो कर सो गए!
अगली सुबह गाड़ी पकड़ कर हम दिल्ली की ओर कूच कर गए,
अगले दिन दिल्ली पहुँच गए हम!
यहाँ कोई दस दिन रहे होंगे कि एक दिन मेरे फ़ोन पर वाराणसी के ही रहने वाले एक जानकार लाला हरकिशन का फ़ोन आया, उन्होंने जो बताया वो बड़ा अजीबोगरीब सा था! मुझे अत्यंत जिज्ञासा सी हुई! क्योंकि बंजारे कभी भी गंगा पार कर आदि नहीं बसे थे, वे गंगा से पहले ही दोआब क्षेत्र तक ही आया जाया करते थे, लेकिन लाला जी ने जो बात बतायी थी वो किसी बंजारे की ही सी घटना लगती थी! लाला जी और उनका परिवार बेहद परेशान था, घर में भय का माहौल था और संकोच करने के बाद जब कुछ नहीं हुआ था तो लाला जी ने मुझसे संपर्क साधा था!
आखिर में ठीक दो दिन बाद हम वाराणसी के लिए बैठ गए, वहाँ से हमको कोई चालीस-पचास किलोमीटर आगे जाना था उनके गाँव, गांव क्या एक क़स्बा सा था ये, यही लाला जी अपने परिवार के साथ रहा करते थे, संयुक्त परिवार था, वैसे रसोइघर सबका अलग था! वहाँ उनके बड़े और एक छोटे भाई रहा करते थे, माता-पिता का स्वर्गवास हो गया था!
अगले दिन हम वाराणसी पहुँच गए!
लाला जी हमको लेने आये थे, हम उनकी गाड़ी में बैठे और रास्ता तय करने के लिए बातें करने लगे,
“लाला जी, क्या हुआ था?” मैंने पूछा,
“हमारे घर के पास एक बड़ा सा पीपल का पेड़ है, लोगबाग अक्सर उसकी पूजा-वंदना करते हैं, अब पीपल और बरगद तो जी पवित्र हैं ही सो सभी उस वृक्ष की पूजा करना श्रृद्धा का कार्य मानते हैं” वे बोले,
“अच्छा फिर?” मैंने पूछा,
“जी एक रात की बात है, मेरी बड़ी पुत्री निशा अपनी पढाई कर रही थी, कि तभी उसने उस पेड़ से नीचे उतारते हुए किसी आदमी को देखा, उसने सोच कोई चोर है, वो गौर से देखती
रही, वो आदमी नीचे उतरा और पेड़ का एक चक्कर लगाया और फिर पेड़ पर चढ़ गया, बेटी ने सोचा शायद चोर को मौका नहीं मिला, लेकिन उसने ये बात हमे बता दी, हमने बत्तियां जलायीं तो सभी इकठ्ठा हुए, लाठी-बेंत लेकर, टॉर्च ली और उस पेड़ के पास चले गए, पूर पेड़ छान मारा लेकिन कोई नहीं नज़र आया, अब बेटी को धोखा हुआ या क्या हुआ, समझ नहीं आया” वे बोले,
“वो पेड़ सड़क में है या घर में?” मैंने पूछा,
“जी आधा घर की दीवार में है, दीवार फाड़कर बाहर निकला है, बहुत विशाल पेड़ है” वो बोले,
“अच्छा फिर?” मैंने पूछा,
“जी दो दिन बीत गए, मेरे बड़े बही के बेटे ने भी ऐसे ही एक आदमी को देखा, वो नीचे कूदा उकडू बैठ गया, फिर पेड़ का एक चक्कर लगाया और फिर पेड़ पर चढ़ गया! उसने ये बात हमे बतायी, हम फिर वहाँ गए, नतीज़ा वही ज़ीरो! कोई नज़र नहीं आया!” वे बोले,
बड़ी अजीब सी बात थी!
“फिर?” मैंने पूछा,
अब घर में ये बात डर का कारन बन गयी, जी भय का भूत बन गया, वो आदमी अब भूत कहलाने लगा, चोर की बजाय!” लाला जी ने कहा,
लाला जी ने एक बीड़ा खोला पान का और पान खाने लगे! पान के शौक़ीन हैं लाला जी!
“फिर?” मैंने पूछा,
लाला जी मुंह में पान को विश्राम-स्थान देने लगे और फिर बोले, “जी हमने सोचा कि दोनों भाई बहनों को धोखा हुआ है कुछ, वहम है!” इतना केह फिर चुप!
दरअसल पीक फेंकनी थी उनको, उन्होंने पीक फेंकी और फिर बोले,” फिर जी कोई हफ्ता गुजर गया, कुछ नहीं हुआ, लेकिन फिर एक दिन सुबह सुबह की बात है, मेरी पत्नी पूजा करने जा रही थी वहाँ, तभी उसने पेड़ के नीचे कुछ जले हुए से बाल देखे, किसी औरत के जले हुए से बाल” वे बोले,
“बाल?” मैंने पूछा,
“हाँ जी, बाल” वे बोले,
अच्छा, फिर?” मैंने पूछा,
“उसने वो बाल साफ़ कर दिए वहाँ से और पूजा करने लगी, जब पूजा करके आयी तो वो बाल हमारे रसोईघर में पड़े मिले!” लाला जी ने कहा,
“क्या?” मुझे जैसे यक़ीन नहीं हुआ!
‘हाँ जी!” वे बोले,
“अच्छा, फिर?” मैंने जिज्ञासा से पूछा,
“अब यहाँ से घर में भय बैठ गया गुरु जी!” वे बोले,
भय बैठने वाली बात भी थी!
“फिर?” मैंने पूछा,
“जी हमारे पास में एक मुल्ला जी रहते हैं, बुज़ुर्ग आदमी हैं, अमल आदि के जानकार हैं, हम उनके पास गए, उन्होंने हमारी बात सुनी और फिर खुद उस पेड़ को देखने का फैंसला किया, और जी हम उनको ले आये अपने साथ, उन्होंने कुछ सुइयों के साथ प्रयोग सा किया और बोले कि इस पेड़ पर प्रेतों का वास है, कुछ गलत क़िस्म के प्रेतों ने डेरा जमा रखा है वो किसी कि जान भी ले सकते हैं, तो जी हमने उनसे अपनी जान छुड़ाने के लिए पूछा, तो उन्होंने हमको कहा कि वो कुछ अवश्य ही करेंगे, उन्होंने कुछ किया भी, पेड़ पर कुछ अमल भी किये और वहाँ पेड़ के नीचे कुछ चूड़ियाँ और कुछ कीलें भी दबवा दीं, और चले गए, वाक़ई में शान्ति हो गयी, लेकिन ये शान्ति केवल एक महीने करीब के ही थी जी” वे बोले और पीक फिर बाहर फेंकी,
“अच्छा, फिर क्या हुआ?” मैंने पूछा,
“एक रात की बात है, मैं अपने कमरे में सो रहा था, मेरा कमरा दूसरी मंजिल पर है जी, रात के करीं दो बजे होंगे, कि मेरे दरवाज़े पर जैसे किसी ने कोई पत्थर या ईंट फेंकी हैं ऐसी आवाज़ हुई, मैं तो मैं, सभी चौंक पड़े, मैंने दरवाज़ा देखा, एक बड़ा सा निशान पड़ा था, लेकिन हैरत की बात ये कि वहाँ न कोई पत्थर था और न ही कोई ईंट! अब और घबरा गए! सभी के सभी!” लाला जी ने कहा,
और गाड़ी एक जगह रोक ली, कुछ ठंडा-गरम पीने के लिए,
लाला जी उतरे और एक दूकान तक गए, वहाँ से तीन ठन्डे ले आये! हमने पाना शुरू किया और कुछ देर वहीं इमली के पेड़ के नीचे बने थड़े पर बैठ गए, ये जगह एक छोटा सा क़स्बा था, देहाती माहौल था, खल-बिनौले जा रहे थे लदे हुए, चारा आदि, कुछ लोग खड़े हुए थे इंतज़ार में सवारी बसों की, और कुछ लोग वहीँ बैठे ऊंघ रहे थे! कुल मिलकर बढ़िया देहाती चित्रण था!
ठन्डे ख़तम हुए!
हम गाड़ी में जा बैठे!
“अच्छा लाला जी, फिर क्या हुआ?” मैंने पूछा,
“हाँ जी, गुरु जी, हम सब घबराएं अब! अब नींद आये किसे? सब बैठक में बैठ गए, वो पेड़ हमे तो कोई राक्षस सा लगे अब! रात बितायी जैसे तैसे करके, और फिर सुबह हुई! हम लगे अपने अपने कार्यों पर!” वे बोले,
और एक और पान खोला और मुंह में ठूंस लिया!
“अच्छा जी, फिर?” मैंने पूछा,
“करीब दो दिन के बाद!” उन्होंने गरदन ना में हिलाते हुए कहा!
“क्या हुआ जी दो दिन बाद?” मुझे अब उत्सुकता डंक मारे!
“सुबह सुबह की बात होगी जी, मेरा बेटे को जाना था शहर, वो सुबह पांच बजे निकलना चाहता था, सो वो जाने से पहले तैयार हुआ, नहाया-धोया और फिर अपने कमरे में आया, कमरे में जैसे ही आया लगा कोई भाग है खिड़की से बाहर! वो चिलाया ‘चोर चोर!’ सभी भागे उधर, चोर की दिशा में गए, तो साहब वहाँ कौन चोर! ना चोर और ना चोर की लगोटी! अब सबका ध्यान उस पेड़ पर गया! मेरा बेटा पेड़ तक गया तो जैसे ही पेड़ के पास गया, उसके सर में एक कंकड़ आके लगा, खून बह निकला उसका, वो चिल्लाया और भाग घर की तरफ, सभी घबराये और मैं उसको सीधे चिकित्सालय ले गया, कंकड़ अंदर नहीं धंसा था, खरोंचता हुआ निकला गया था, अब सवाल ये कि ये कंकड़ मारा किसने था? उसी भूत ने ना? है नहीं गुरु जी?” मुझसे प्रश्न करते हुए उन्होंने कहा,
“हाँ है तो कुछ ऐसा ही” मैंने कहा,
और क्या कहता?
कहना पड़ा!
“अच्छा फिर?” मैंने पूछा,
“अब हम हो गए जी दुखी बहुत! तो गुरु जी मैं गया वाराणसी और एक जानने वाले बाबा को ले आया यहाँ! बाबा ने कहा कि वो सब ठीक कर देंगे, लेकिन उसके लिए वो यहीं रहेंगे एक हफ्ता, हमे कोई तकलीफ तो थी नहीं, भय और भूत से मुक्ति मिले, और क्या चाहिए था, सो बाबा की बात मान ली!” वे बोले और फिर से पीक थूकी बाहर!
“बस थोड़ी सी दूर और” वे बोले,
“अच्छा जी, बाबा जी आये, फिर?” मैंने पूछा,
“हाँ जी, अब बाबा ने धूनी रमानी शुरू की वहाँ!” वे बोले,
मैंने बात काटी,
“वहीँ पेड़ के नीचे?” मैंने पूछा,
“हाँ जी” वे बोले,
“अच्छा, फिर?” मैंने पूछा,
“वो दिन में धूनी रमाते और रात में नीचे के कमरे में सो जाते!” वे बोले,
“अच्छा, फिर?” मैंने पूछा,
फिर फिर बोलते बोलते मैं पगरा सा गया था!
“चौथी रात की बात होगी जी! करीब रात दो बजे बाबा की चीख आयी, ‘बचाओ! बचाओ!’ हम भागे वहाँ, दरवाज़ा अंदर से बंद था और कोई बाबा को उठा-उठा के मार रहा था! हाँ, एक बात और, दो तीन औरतों की हंसने की आवाज़ आ रही थी! सिट्टी-पिट्टी तो हमारी भी गुम थी लेकिन बाबा की जन का सवाल था, सो जी दरवाज़ा तोड़ दिया!” वे बोले, और फिर पान की पीक फेंकी उन्होंने!
अपने जाने के निशान छोड़ते जा रहे थे वो!
“फिर क्या हुआ लाला जी?” अब शर्मा जी ने पूछा,
कहना पड़ा!
“अच्छा फिर?” मैंने पूछा,
“अब हम हो गए जी दुखी बहुत! तो गुरु जी मैं गया वाराणसी और एक जानने वाले बाबा को ले आया यहाँ! बाबा ने कहा कि वो सब ठीक कर देंगे, लेकिन उसके लिए वो यहीं रहेंगे एक हफ्ता, हमे कोई तकलीफ तो थी नहीं, भय और भूत से मुक्ति मिले, और क्या चाहिए था, सो बाबा की बात मान ली!” वे बोले और फिर से पीक थूकी बाहर!
“बस थोड़ी सी दूर और” वे बोले,
“अच्छा जी, बाबा जी आये, फिर?” मैंने पूछा,
“हाँ जी, अब बाबा ने धूनी रमानी शुरू की वहाँ!” वे बोले,
मैंने बात काटी,
“वहीँ पेड़ के नीचे?” मैंने पूछा,
“हाँ जी” वे बोले,
“अच्छा, फिर?” मैंने पूछा,
“वो दिन में धूनी रमाते और रात में नीचे के कमरे में सो जाते!” वे बोले,
“अच्छा, फिर?” मैंने पूछा,
फिर फिर बोलते बोलते मैं पगरा सा गया था!
“चौथी रात की बात होगी जी! करीब रात दो बजे बाबा की चीख आयी, ‘बचाओ! बचाओ!’ हम भागे वहाँ, दरवाज़ा अंदर से बंद था और कोई बाबा को उठा-उठा के मार रहा था! हाँ, एक बात और, दो तीन औरतों की हंसने की आवाज़ आ रही थी! सिट्टी-पिट्टी तो हमारी भी गुम थी लेकिन बाबा की जन का सवाल था, सो जी दरवाज़ा तोड़ दिया!” वे बोले, और फिर पान की पीक फेंकी उन्होंने!
अपने जाने के निशान छोड़ते जा रहे थे वो!
“फिर क्या हुआ लाला जी?” अब शर्मा जी ने पूछा,
पानी आया, सो पानी पिया!
थोडा सा आराम करने की इच्छा थी सो लेट गए!
अब शर्मा जी ने पूछा, “क्या हो सकता है गुरु जी?”
“कुछ भी हो सकता है शर्मा जी, प्रेत, महाप्रेत हाँ छलावा तो क़तई नहीं” मैंने कहा,
“अच्छा! तो अब एकदम से जागे वो?” उन्होंने सटीक प्रश्न किया था!
“यही समझ नहीं आया! हो सकता है कहीं से आ गए हों? शरण ले ली हो?” मैंने बताया,
“अच्छा” वे बोले,
तभी लाला जी नाश्ता पानी ले आये!
हम नाश्ता पानी करने लगे!
“लाला जी, कब से रह रहे हैं आप सभी लोग यहाँ?” मैंने पूछा,
“जी जनम से ही, हमारे पुरखे भी यहीं रहते थे” वे बोले,
“कभी ऐसा पहले हुआ था?” मैंने पूछा,
“नहीं जी” वे बोले,
आश्वस्त थे!
उस दिन हमने आराम ही किया, शाम को जल्दी ही भोजन किया और सो गए! उस रात कोई घटना नहीं हुई, सुबह मेरी नींद खुली और मैंने शर्मा जी को जगाया, हम एक एक करके स्नानादि से फारिग हुए और फिर उस पेड़ के पास चले, उस समय करीब साढ़े पांच बजे थे!
पेड़ के नीचे आये!
उसको देखा!
निहारा!
बेहद विशाल वृद्ध पेड़ था!
“कितना विशाल है!” शर्मा जी ने कहा,
“हाँ!” मैंने भी समर्थन किया,
अब हम बाहर की तरफ गए, सांकल खोली और बाहर आ गए, लोगबाग पूजा पाठ में लगे थे, घरों से घंटिओं की आवाज़ें आ रही थीं, कुछ दुकानें भी अब खुलने लगी थीं!
बाहर से सब सामान्य ही था, कुछ विशेष बात नहीं थी!
जो कुछ था वो अंदर ही था!
सो हम वापिस लौटे अब!
लाला जी मिल गए!
‘अरे आप यहाँ?” उन्होंने पूछा,
“हाँ, देख रहे थे पेड़ को” मैंने कहा,
“चलिए चाय-नाश्ता तैयार है” वे बोले,
हम चल दिए अंदर,
चाय-नाश्ता किया और फारिग हुए!
“लाला जी, वक बात बताइये, सबसे पहले बेटी ने कब देखा था वो आदमी, कितने दिन हुए होंगे?” मैंने पूछा,
“जी कि ३ महीने हो गए होंगे या थोडा कम” वे बोले,
“हम्म!” मैंने कहा,
“ठीक है, एक काम कीजिये, मुझे कुछ सामान चाहिए, आप मंगवा दीजिये, मई आज एक प्रयोग करूँगा” मैंने कहा,
मैंने सामान लिखवा दिया,
लाला जी ने लिख लिया और दोपहर तक लाने को कह दिया!
मेरे मन में एक ख़याल आया,
क्यों न कलुष-मंत्र चला कर कुछ दिख जाए?
मैंने तभी शर्मा जी को साथ लिया, पेड़ तक आये और मैंने कलुष-मंत्र का जाप किया, मंत्र से अपने व शर्मा जी के नेत्र पोषित किया और सामने देखा!
सामने पेड़ के पास गड्ढे दिखे! गहरे गहरे गड्ढे!
हम आगे बढे!
गड्ढों में झाँका!
गड्ढों में पोटलियाँ! बड़ी बड़ी पोटलियाँ!
ये कुल तीन गड्ढे थे!
पेड़ देखा!
कोई नहीं वहाँ!
हैरान करने वाले थे गड्ढे!
इन पोटलियों में है क्या?”
यही सवाल अब कौंध गया दिल में!
मैंने कलुष मंत्र वापिस कर लिया!
अब यहाँ खुदवाना आवश्यक था!
तभी कुछ पता चलता कि माज़रा आखिर है क्या यहाँ!
अब वहाँ खुदवाना अत्यंत आवश्यक हो चला था, कोई न कोई तो रहस्य था जो इतने बरसों के बाद खुलने वाला था!
क्या रहस्य?
क्या हुआ था?
कौन है वो प्रेत?
क्या चाहते हैं?
ऐसे ही कुछ बुनियादी सवाल!
दोपहर तक सारी सामग्री आ गयी, मैंने सामग्री तैयार भी कर ली, लाला जी के घरवालों से कह दिया कि खिड़की-दरवाज़े बंद रखें, चाहे कुछ भी हो खोलें नहीं, जब तक कि मैं न कहूं!
उन्होंने वैसा ही किया!
रात्रि समय खाना खा लिया गया, मैंने मदिरा-भोग भी लगा लिया और कुछ आवश्यक मंत्र भी जागृत कर लिए!
मैं थी घुप्प अँधेरे में शर्मा जी के साथ उस पेड़ तक पहुंचा, सन्नाटा था वहाँ, बाहर केवल कुत्ते ही भौंक रहे थे, सभी सो रहते थे बस प्रेतों के संसार के अलावा!
मैंने टॉर्च की मदद से वहाँ पर तीन दिए जलाये और एक एक टुकड़ा मांस का सिन्दूर में डुबो कर वहाँ रख दिया और दूर जाकर एक परछत्ती के नीचे खड़ा हो गया!
आधा घंटा बीता!
फिर एक,
बजे रात के बारह!
और तभी!
कोई पेड़ से कूदा, आवाज़ हुई धम्म!
पहले एक दिया बुझा, फिर दूसरा और फिर तीसरा! किसी ने मेरा प्रयोग काटने की चेष्टा की थी!
मैंने टॉर्च जलायी!
वहाँ कोई नहीं था!
मैं पेड़ के पास भागा!
पेड़ पेर टॉर्च दौड़ाई!
कोई नहीं था वहाँ!
कोई कूदा अवश्य ही था!
अब मैंने प्रत्य्क्ष मंत्र पढ़ डाला!
मेरे सामने एक लम्बा-चौड़ा आदमी प्रकट हो गया!
ज़बरदस्त डील-डौल वाला आदमी!
मैंने उसका चेहरा देखा!
लम्बी लम्बी घुंघराली मूंछें और बाल उसके!
शरीर पर मात्र एक धोती पहने हुए!
काला जिस्म!
वो हंसा!
हंसा या दहाड़ा!
बात एक ही थी!
“कौन है तू?” मैंने पूछा,
वो चुप!
मुस्कुराया!
“जा! चला जा!” उसने धमकाया मुझे!
“कौन है तू?” मैंने फिर से पूछा,
“क्यों?” उसने पूछा,
“यहाँ किसलिए आया है?” मैंने पूछा!
वो फिर हंसा!
“बता?” मैंने कहा,
“मेरा घर है यहाँ!” उसने कहा,
और तभी अँधेरे में से दो औरतें और एक और पहलवान प्रकट हुआ!
“जा! चला जा!” वो बोला,
“तूने बताया नहीं?” मैंने पूछा,
उसने मुझ पर झपट कर वार करना चाहा, तंत्राभूषण के प्रभाव से वार नहीं कर सका!
इसने उसे हैरत में डाल दिया!
वो पीछे हट गया!
“अब बता कौन है तू?” मैंने पूछा,
“बता दूंगा, तू कौन है ये बता?” उसने पूछा,
“तू ऐसे नहीं बतायेगा, रुक जा!” मैंने कहा,
और अब मैंने दुह्यक्ष मंत्र पढ़ा!
वो वहीँ डटा रहा!
मतलब वो नहीं डरा!
तभी वे चारों उछले और पेड़ पर छलांग लगा गए!
पता न चल सका कि प्रेत थे कि महाप्रेत!
लेकिन जो भी थे, जीदार थे, ताक़तवर!
जो सम्भवतः अब जागे थे!
वो लोप हो गए!
जवाब नहीं दिया था, मतलब टकराने को तैयार थे!
मुझे भी तैयार होना था!
मैं उस पेड़ के पास से हटा और एक रेखा खींचते हुए अपने कमरे तक आ गया!
अब जो कुछ करना था वो सुबह ही करना था!
सुबह हुई,
मुझे रात वाली सारी घटना याद आ गयी!
मैंने ये घटना शर्मा जी को सुबह ही बताई, रात को मैं स्व्यं आंकलन करता रहा कि आखिर ये हैं कौन?
“कोई पुराने महाप्रेत लगते हैं” शर्मा जी ने संशय जताया,
