गाड़ी एक जगह रोक दी गयी, वहाँ हमने हाथ-मुंह धोये और फिर चाय के लिए कह दिया, साथ में कुछ खाने के लिए भी! हमने खाया-पिया और फिर वहाँ से निकल पड़े! फिर से शहर की भीड़-भाड़ में फंस गये! लेकिन निकलना तो था ही, सो जैसे जैसे रास्ता मिलता चला गया, हम चलते चले गये!
आखिर हम दो घंटे के बाद उस भीड़-भाड़ से निकल कर अब खुले रास्ते पर आ गए, लकिन यहाँ भी ट्रक आदि का काफिला लगा था, लेकिन गाड़ी दौड़ पड़े इसके लिए जगह थी, अब हम चले उसी रास्ते पर, जहां का पता उस सोमेश ने दिया था, थोड़ी देर बाद वहाँ एक सत्संग आश्रम पड़ा, यही बताया था उसने, हमने उसको पार किया और आगे बढ़ गये! थोडा दूर चलने पर एक और रास्ता आया, यहाँ से हमको दायें होना था, अब गाड़ी हमने दायें काट दी, रास्ता बद ही ऊबड़-खाबड़ था! किसी तरह से पार किया, यहाँ आबादी वाला क्षेत्र था, वहीँ एक दुकान से हमने उस जगह का पता पूछा, पता बता दिया उस आदमी ने, हम आगे बढ़ चले!
आगे जाकर एक धर्मशाला सा कोई स्थान पड़ा, यहाँ आशीष ने उतर कर एक दुकान से पता पूछा, पता बता दिया गया, हम और आगे चल पड़े तब, और फिर कोई दस मिनट के बाद वहाँ से बाएं हुए, और फिर उस राते पर चलते बने! यहाँ आबादी कम हुई, ये क्षेत्र खेती आदि का सा लगता था या फिर पौधों की पौधशालाएं थीं ये!
“कहाँ घुस के बैठ गया ये माँ का ** नरना?” जीवेश ने कहा!
“यहीं होगा!” मैंने कहा,
“यहाँ तो साला दूर दूर तक न कोई मंदिर है और न कोई ऐसा स्थान ही?” उसने कहा,
“हाँ, ये तो है” मैंने कहा,
तभी सामने से कुछ औरतें आती दिखायी दीं, आशीष उतरा और उनसे वो पता पूछने लगा, उन औरतों ने पता बता दिया, आशीष वापिस आया और फिर से हम उसी रास्ते पर आगे बढ़ चले!
“बहन के ** ने कहाँ जाकर अपनी माँ *** है! कहाँ बसा है साला!” शर्मा जी ने कहा,
“ये साले ऐसी ही जगह रहते हैं!” मैंने कहा,
“आने दो साले की जगह!” वे बोले,
अब आशीष ने गाड़ी दौड़ायी!
करीब दस मिनट के बाद एक जगह दिखायी दी, यहाँ झंडे लगे थे! काले पीले!
“यही जगह लगती है” मैंने कहा,
आशीष ने उस जगह जाकर गाड़ी रोक दी!
हम गाडी से बाहर निकले!
ये जगह काफी बड़ी थी! पेड़ आदि लगे हुए थे, दीवारें भी काफी मजबूत बनी थीं! ये अवश्य ही कोई स्थान था!
“चलो” मैंने कहा,
अब हम दरवाज़े तक गए!
दरवाज़े पर कोई नहीं था, जीवेश ने दरवाज़ा पीटा! कई बार! तभी एक बूढ़ा सा बाबा आया वहाँ, उसने बंगाली में पूछा, “क्या कम है हमको?”
“नरना बाबा से मिलना है” आशीष ने कहा,
“किसलिए?” उसने पूछा,
“किसी ने भेजा है” आशीष ने कहा,
“किसने?” उसने पूछा,
“सोमेश ने” आशीष ने कहा,
अब बूढ़े ने दरवाज़े की सांकल खोली, और हम अंदर चले! बूढ़ा भी हमारे साथ ही चला!
“कहाँ है बाबा नरना जी?” जीवेश ने पूछा,
“आगे” वो बोला,
“अच्छा जी” जीवेश ने कहा,
मुझे हंसी आ गयी!
“आज तो भाग खुल गए, कितने दिनों से ढूंढ रहे हैं नरना बाबा जी को! जय हो!” जीवेश ने कहा,
अब मेरी और शर्मा जी की हंसी छूटी!
“बाबा जी, और कितना?” जीवेश ने पूछा,
“आगे” उसने कहा,
“अच्छा जी” वो बोला.
और तब वहाँ रिहाइशी क्षेत्र आ गया! कई कमरे बने थे वहाँ! कई चेले-चपाटे बैठे थे पेड़ के नीचे! सभी हमे ही देख रहे थे! सब के सब साले वैद्याचार्य! सोमेश जैसे सारे!
“जय हो बाबा नरना की!” जीवेश ने कहा,
मेरी हंसी फिर छूटी!
“बाबा जी, कहाँ है पूज्यवर बाबा जी?” जीवेश ने पूछा,
“वहाँ” उसने एक कमरे की तरफ इशारा किया!
उस कमरे को हम चारों ने ऐसे देखा जैसे कोई शेर अपने शिकार को देखकर घात लगता है!
“आपका धन्यवाद बाबा जी, बाकी हम मिल लेंगे” जीवेश ने कहा,
अब हम बढ़ चले उस बाबा के कमरे की तरफ! कमरे के सामने आये, अंदर देखा, एक बाबा को तीन चार बाबाओं ने घेर रखा था! बाबा ने हमको देखा! लम्बे लम्बे बाल! दाढ़ी-मूंछ! गले में अंट-शंट की मालाएं! बाजुओं में कौए के पंख बांधे हुए! सामने एक बड़ी सी चिलम दहक रही थी! चित्र बने थे वहाँ शक्ति के!
बाबा ने अंदर आने का इशारा किया! सभी दूसरे बाबाओं ने हमको देखा! और रास्ता बना दिया!
“श्री श्री नरना बाबा जी आप ही हैं?” जीवेश ने हाथ जोड़कर पूछा!
उसने आशीर्वाद की मुद्रा में हाथ उठाया!
“हाँ मैं ही हूँ” वो बोला,
“अच्छा जी!” जीवेश ने कहा,
“आओ बैठो” उसने कहा,
बाबा ने सोचा कोई मोटी मुर्गी फंस गयी जाल में!
हम बैठ गये!
वे चारों बाबा अब उठ गए! और बाहर चले गए! शायद नरना बाबा ने इशारा कर दिया था उन्हें!
अब रह गये हम चार और बाबा नरना वहाँ!
मन तो किया कि साले को उठकर अभी उसको चेहरा उस चिलम में ठोंक दें! लेकिन अभी उस से मालूमात करनी थी! तो गुस्सा दबा दिया!
वो साँसें ले रहा था तेज तेज! कभी पेट को सहलाता तो कभी अपनी छाती को, मैंने उसको अपने जूते से छुआ और कहा, “खड़ा हो?”
उसने बड़ी मुश्किल से करवट बदली और मुझे देखा, फिर हाथ जोड़े, कांपते हुए, अब साला ये अपनी जान बचाने के लिए हाथ जोड़ रहा था! आंसू बह निकले उसके, वो पस्त हो चुका था बिलकुल!
“खड़ा हो ओये हरामज़ादे?” जीवेश ने कहा,
उसने खड़े होने की कोशिश की और फिर बैठ गया, मुंह से खून साफ़ किया,
“जल्दी खड़ा होजा!” जीवेश ने फिर से कहा,
अब उसने लड़खड़ाते हुए खड़े होने की कोशिश की, उसने सहारा माँगा, तो मैं भी हट गया और जीवेश भी!
“ओये, कल्लू बाबा, इधर आ! उठा इसको!” जीवेश ने वहाँ खड़े एक काले-भसाण्ड बाबा को बुलाते हुए कहा,
वो कल्लू बाबा डरा, लेकिन जीवेश ने बुला लिया उसको, वो आ गया वहाँ, अपना सामान वहीँ पेड़ के पास अबने चबूतरे पर रखा और हाथ देकर उस नरना बाबा को खींच कर खड़ा किया!
वो खड़ा हो गया!
अब जीवेश ने उसकी साड़ी मालाएं तोड़-तोड़ कर बिखरा दीं!
“साले कोई हक़ नहीं तुझे और तेरे जैसे कुत्तों को ये सब धारण करने का!” जीवेश ने कहा,
नरना डरा-सहमा सा खड़ा रह गया!
“चल, उस लड़की के पास चल!” नरना के सर पर हाथ मारते हुए जीवेश ने कहा, अब बाबा हिला और चलने लगा, उसी कल्लू बाबा का सहारा लिए हुए! हम उसके पीछे पीछे चले! वो अपने कमरों के पीछे गया, वहाँ भी कमरे बने थे, ऐसे ही एक कमरे के सामने जाकर वो खड़ा हो गया!
“यहीं है वो लड़की?” मैंने पूछा,
“हाँ” उसने मरी-मरी आवाज़ में कहा,
“शर्मा जी, आइये मेरे साथ आप अंदर!” मैंने कहा,
अब शर्मा जी अंदर गए!
अंदर एक लड़की बैठी थी, मैं पहचान गया कि ये ही पूनम है, वो बेचारी भयातुर थी, डरी-सहमी, उसको पता तो चल गया था कि बाहर क्या हो रहा है, लेकिन वो बाहर नहीं आयी थी डर के मारे, इतना खौफ बैठा हुआ था उसको!
“पूनम?” शर्मा जी ने पुकारा,
उसने देखा,
“आओ बेटी!” शर्मा जी ने कहा,
वो बेचारी बैठी रही आँखें फाड़े हमको देखती रही!
“आजा बेटी! तेरे घर से आये हैं, तुझे लिवाने, तेरे गाँव ले जाने! तेरे माँ-बाप और तेरा भाई बहुत दुखी हैं, उन्ही के कहने पर हम आये हैं यहाँ, चल आजा अब!”
बेटी? ये शब्द सुने तो उसको अरसा हो चुका था! कौन हैं ये? गांव? घर? क्या ऐसा सम्भव है?
वो बेचारी इसी ख़याल में वहाँ बैठी रही!
“चल बेटी, देर न कर अब! आजा!” शर्मा जी ने कहा,
बैठी रही वो बेचारी! बस हमे ही देखती रही!
“वो जो तुझे बहका के लाया था सोमेश बंगाली बाबा अब अपनी मौत मांग रहा होगा, वो बाबा लहना अब किसी लायक़ नहीं, और रहा ये नरना, इसका क्या हाल करते हैं तू देखती जा!” शर्मा जी ने बताया उसे!
“पूनम? चल खड़ी हो अब!” मैंने कहा,
वो खड़ी हुई! सारे तथ्य मिलान कर गये थे! अब शक़ नहीं रहा था कोई, हम सच में ही उसके घर से आये थे!
“आ जा!” मैंने कहा,
वो आयी और तेजी से रो पड़ी! दिल फट गया उसका रुदन सुनकर!
“आजा बेटी!” शर्मा जी ने कहा,
वो आयी!
“चल यहाँ से” वे बोले,
अब उसने अपने चप्पल पहने, वो बाहर रखे हुए थे,
“यहीं रुक बेटी!” शर्मा जी ने कहा,
अब वो उस बाबा तक गए! उसकी गरदन पकड़ ली!
“चल, माफ़ी मांग इस से इसके पाँव पकड़कर!” शर्मा जी ने कहा,
मरता क्या नहीं करता! और यहाँ तो उसके पास कोई चारा ही नहीं था! वो बैठा और पांवों को हाथ लगाया उसने, पूनम हट गयी पीछे!
“सही किया! ये साले पाँव छुआने लायक़ भी नहीं!” शर्मा जी ने गुस्से से कहा,
“आशीष, इसको ले जाओ गाड़ी में” शर्मा जी ने कहा,
आशीष ने उसको बुलाया और बाहर ले गया!
अब लड़की आज़ाद थी!
इन कुत्तों की गिरफ्त से आज़ाद!
अब जीवेश और शर्मा जी को आया गुस्सा!
और दोनों फिर से पिल पड़े उस पर! एक झापड़ मारे तो एक लात! गाली-गलौज करते हुए उस बाबा की उन्होंने बखिया उधेड़ दी! वो फिर से नीचे गिर गया!
“जीवेश, दो इसको दंड!” मैंने कहा,
अब जीवेश ने भंजन-मंत्र का संधान किया! टूटे-फूटे बाबा से इतना भी नहीं हुआ कि वो रोये या चिल्लाये, बस हाथ हिलाकर मना करता रहा! अब जीवेश ने थूक दिया उस पर! थूक पड़ते ही उसका शरीर वक्राकार हुआ और उसने करवटें बदलनी शुरू कीं! मैं जान गया था, जीवेश ने प्रबल प्रहार किया है उस पर! अब जब तक जियेगा, रीढ़ की हड्डी नहीं सीधी होगी और उसका हगना-मूतना सब अब चारपाई पर ही होगा! थोड़े समय पश्चात नेत्र भी जवाब दे जायेंगे! मौत मांगता फिरेगा लेकिन मौत नहीं आएगी! एक ज़िंदा लाश की तरह दूसरों पर तो क्या खुद पर भी बोझ बना रहेगा!
“चलो जीवेश!” मैंने कहा,
और अब हम निकले वहाँ से!
पीछे मुड़कर भी नहीं देखा!
दरवाज़े को पार किया और गाड़ी में बैठ गए, पूनम अभी भी सदमाग्रस्त सी बैठी थी! बिलकुल चुपचाप! उस बेचारी की वेश-भूषा ऐसी बना दी थी जैसे कि बंगालन जोगन! वो गाड़ी में रोटी रही और हम सब उसको समझाते रहे कि अब वो आज़ाद है, और जल्दी ही उसको उसके घर ले जायेंगे हम! अब न घबराओ! न ही डरो!
मित्रगण!
हम उसको बेचारी लड़की पूनम को लेकर बाबा शिब्बू के डेरे पर आ गए! जीवेश ने उसको अपना कक्ष दे दिया और पूनम को उसमे ठहरा दिया, अब हम सभी बाबा शिब्बू के पास गए, उनको सबकुछ बता दिया, उन्होंने प्रशंसा की और उस लड़की से मिलने के लिए वो स्व्यं आये, उसको समझाया और अपने बेटी सामान स्नेह दिया! उसके लिए खाने के लिए भोजन और वस्त्र अदि का प्रबंध किया!
उसी शाम करीब छह बजे पूनम के पिता जी का फ़ोन आ गया, ये बहुत बढ़िया हुआ था, शर्मा जी मुझे बिन बताये भागे पूनम के कमरे की तरफ और उसको फ़ोन पकड़ा दिया और कमरे का दरवाज़ा भिड़ा कर मेरे पास आ गए!
“फ़ोन आ गया पूनम के पिता जी का, मैं फ़ोन पकड़ा के आया हूँ उसको!” वे बोले,
“ये ठीक हुआ!” मैंने कहा,
“वो रोती तो हृदय विदीर्ण होता, इसलिए दरवाज़ा भिड़ा कर आपके पास आ गया!” वे बोले,
“कर लेने दो बात! एक साल हो गया है!” मैंने कहा,
जब कोई आधा घंटा हो गया तो शर्मा जी अपना फ़ोन ले आये पूनम के पास से! अब वो खुश थी! पहली बार मुस्कुरायी थी! उसको मुस्कुराते देख कर हम सबकी मेहनत सफल हो गयी उसी क्षण!
उस रात मैं, आशीष, शर्मा जी और जीवेश ने अपनी सफलता के लिए जश्न किया! इस जश्न का मजा ही कुछ और था! हाँ, पूनम को भोजन करवा दिया गया था और ये भी कह दिया गया था कि कल यहाँ से हम उसके गाँव के लिए निकल जायेंगे! वो खुश हो गयी थी!
“जीवेश! तुम्हारा बहुत बहुत धन्यवाद!” मैंने कहा,
“गाली दे लेते आप तो दो पैग और फ़ालतू ले लेता!” उसने कहा,
मैं जानता था, वो धन्यवाद का यही उत्तर देगा!
“आशीष! तुम्हारा भी धन्यवाद!” मैंने कहा,
उसने हाथ जोड़ लिए!
सभी खुश थे!
गोरखपुर से शुरू हुआ सफर यहाँ कोलकाता में सफलता के साथ अंत हुआ था! सबसे बड़ी बात, लड़की मिल गयी थी! बस मेहनत की ज़रुरत थी! उन माँ-बाप के पास न धन था और न ही सामर्थ्य कि वो उनकी बेटी को इस नरक से निकाल सकें! इसीलिए कहा जाता है, यदि आप समर्थ हैं तो आपको अवश्य ही मदद करनी चाहिए, और केवल यही किया था हमने!
अब कल निकलना था यहाँ से!
पूनम को उसको घर पहुंचाने!
अगले दिन सुबह!
हम सभी स्नान आदि से निवृत हुए, आज निकलना था गोरखपुर के लिए, जीवेश भी आ गया था, मैंने शर्मा जी को कहा कि जाकर पूनम से पूछें कि कोई तक़लीफ़ तो नहीं और उसको चाय-नाश्ता मिला या नहीं, शर्मा जी गए तो जीवेश भी साथ चला गया, वो वहाँ पहुंचे, पूनम जागी हुई थी और तैयार थी, शर्मा जी ने चाय-नाश्ता आदि के बार में पूछा, तो उसने हाँ कहा, जीवेश फ़ौरन ही बार निकला और सहायक से कह कर चाय-नाश्ता आदि मंगवा दिया! और फिर वहाँ से बाहर आये, पूनम सही थी, कोई तक़लीफ़ नहीं थी उसको!
अब वे मेरे कक्ष में आ गए! हम सभी साथ बैठे और चाय का लुत्फ़ उठाने लगे! साथ में गरमागरम पकौड़ियां भी खाते रहे!
“बहुत दुःख उठाया है इस लड़की ने” शर्मा जी बोले,
”सही कहा, एक साल छोटा अरसा नहीं” मैंने कहा,
“उम्र भी कच्ची सी है इसकी” वे बोले,
“तभी तो बहकावे में आ गयी” जीवेश ने कहा,
“हाँ, यही बात है” मैंने कहा,
“जीवेश, शुक्र है कि ये हमको मिल गयी, नहीं तो न जाने क्या हाल होता इसका, सोच के देखो तो दिल काँप जाता है” शर्मा जी बोले,
“सही कहा आपने शर्मा जी” जीवेश ने कहा,
“जीवेश? क्या कार्यक्रम है अब?” मैंने कहा,
“चलते हैं आज, दोपहर बाद की गाड़ी है” वो बोला,
“ठीक है” मैंने कहा,
मित्रगण!
उसके बाद हम बाबा शिब्बू से मिलने गए, अब बस कुछ ही देर में यहाँ से निकलना था, बाबा से मिले और उनको सबकुछ बता दिया, उन्होंने आज्ञा दे दी और हम वहाँ से उस लड़की पूनम को लेकर चल दिए, वहाँ से स्टेशन पहुंचे और फिर वहाँ से टिकट खरीद लिए, पूनम चुपचाप थी, लेकिन उसके मन की ख़ुशी का एहसास था हमे!
दोपहर बाद हमने गाड़ी पकड़ ली और फिर जुगाड़ करके हमने अपनी सीट भी आरक्षित करवा ली! अब सफर आराम से कटना था! न मैंने, न शर्मा जी और न ही जीवेश ने पूनम से उसके इस एक साल के विषय में पूछा था, उसका वो ज़ख्म हम उलीचना नहीं चाहते थे! वो चुपचाप से बैठी रही, गाड़ी से बाहर झांकती हुई! कभी-कभार हमसे नज़रें मिला लेती थी! और हम मुस्कुरा जाते थे! गाड़ी में बातें करते हुए, चाय पीते, खाते हुए आखिर सुबह के समय हम गोरखपुर पहुँच गए! हम बाहर आये! यहाँ से सवारी पकड़ी और फिर हम जीवेश के पिता जी के डेरे की तरफ चल पड़े! पूनम हमारे साथ थी, गोरखपुर शहर देख कर उसकी आँखों में चमक आ गयी थी!
आखिर में हम बाबा कैलाश के डेरे पर पहुँच गए! वहाँ जाकर बाबा से मिले, पूनम को देखकर बाबा बहुत खुश हुए, अब जीवेश ने सारी बात बता दी बाबा को! वे बहुत खुश हुए! कमीनों को सजा मिल चुकी थी! वही सजा जिसके वे हक़दार थे! यहाँ हमने अब चाय-पानी लिया और कुछ खाया, पूनम को भी खिलाया, वो खा नहीं रही थी, आंसू थे उसकी आँखों में, लेकिन फिर भी हमने उसको कुछ खिलाया ही! वो घर जाने के लिए बेसब्र थी! मैं समझ सकता था!
मित्रगण!
उसी रोज, करीब ग्यारह बजे सुबह, जीवेश ने एक गाड़ी ली, हम उसमे बैठे और चल पड़े पूनम के गाँव! गाड़ी दौड़ चली! रास्ते में वो डेरा भी मिला जहां इस लड़की पूनम की माँ आया करती थी, रोज! मेरे दिमाग में उस दिन की सारी यादें ताज़ा हो गयीं! हम आगे बढ़े और फिर वो रास्ता आ गया जो पूनम के गाँव को जाता था! पूनम गाड़ी के शीशे से बाहर देखते रही! आंसू छलक जाते थे उसके रह रहकर! हमने कुछ नहीं कहा! ये दुःख जितना आँखों के रास्ते बह जाए उतना अच्छा! और फिर! हम पहुँच गये उसके गाँव!
गाड़ी उसके घर से पहले ही लगायी, आगे जगह नहीं थी, पूनम छटपटाई! जीवेश ने दरवाज़ा खोल दिया और पूनम सीधा जा भागी अपने घर! हम वहीँ बैठे रह गए! मैं नहीं चाहता था कि उस भावनात्मक अवसर पर हमारे भी आंसूं निकल आयें! हम उसके घर पर नज़रें गढ़ाए देखते रहे!
और तभी, तभी वे माता जी और पूनम के पिता जी दौड़े दौड़े आये हमारे पास, हम गाड़ी से निकले! वे पाँव पकड़ने के लिए भागे मैं और शर्मा जी और जीवेश ने रोका उनको! अब माता जी ने मुझे गले से लगा लिया! अश्रु-धारा फूट पड़ी उनकी! उसके पिता जी भी रो पड़े!
अब वे हमको हाथ से खींच कर अंदर ले जाने लगे! लोग इकठ्ठा हो गए वहाँ! सभी पूनम के बारे में जानकर इकट्ठे होने लगे थे!
हम अंदर आये, रास्ता बनाते हुए वे हमे ले गए! उनके मुंह से शब्द नहीं निकल रहे थे, कैसे निकलते! उस ख़ुशी के बोझ ने शब्द दबा दिए थे! घर में आये कुछ रिश्तेदार भी पूनम को देखकर रो रहे थे, उसकी सखियाँ और छोटे भाई आदि!
चारपाई बिछायी गयी!
हम बैठे!
पूनम आयी!
हमारे पाँव पड़ने!
शर्मा जी ने नहीं छूने दिए पाँव!
नहीं! ये ठीक नहीं! किसलिए?
घर में खुशियां लौट आयीं!
और क्या चाहिए था!
हम सफल हुए थे!
ये क्या कम था!
माता जी से बातें हुईं हमारी, वे आशीर्वाद देतीं कभी, कभी रो रो कर गले से लगा लेतीं! उसके पिता जी भी यही करते! और पूनम! वो, उसके तो आंसू भी नहीं रुक रहे थे!
मित्रगण!
वहाँ से जाने से पहले जीवेश ने माता जी को अपना पता और फ़ोन नंबर दे दिया कि कभी भी कोई भी दिक्कत-परेशानी हो तो उनका उसके बसेरे पर स्वागत है! माता जी के लाख मना करने पर भी हम रुके नहीं वहाँ! हाँ, सबसे दूर तक हमे जाते हुए देखने वाली वो पूनम ही थी! हम भी उनको देखते रहे जब तक वे ओझल नहीं हो गए!
इसके बाद हम वापिस जीवेश के डेरे पर आ गए! हम सभी बड़े खुश था! अगले दिन जीवेश के मन करने के बाद भी हम नहीं रुके वहाँ! हमको दिल्ली जाना था, कोई और इंतज़ार कर रहा था वहाँ, कोई दुखियारा!
मित्रगण! ये संसार है, इस संसार में मैं और आप एक अदृश्य डोर से बंधे हुए हैं, देखने से ये डोर दिखती नहीं, ऐसे ही हम सब! यहाँ हाथ को हाथ है! मदद करोगे तो मदद पाओगे! क्योंकि ‘वो’ सब देखता है! ‘वो’ सब जानता है! बस ज़रिया बनाता है! ज़रिया बनो! यही है उसकी सबसे बड़ी पूजा-अर्चना!
साधुवाद!