और गिलास खाली होने लगा उसके मुंह में जाते हुए!
और फिर,
उँगलियों से अपनी दाढ़ी-मूंछें सँवारीं!
और खीरा चबा गया!
हमने भी अपना अपना गिलास खाली किया!
सहायक फिर से देखे!
शर्मा जी ने फिर उसका,
गिलास भरा!
और वो डकोस गया!
फिर वो उठा,
गिलास झाड़ा,
मूली का एक टुकड़ा उठाया,
और चलता बना!
हम बातें करते रहे!
वो और खाना ले आया!
हमने वो भी रख लिया!
अब बात फिर से,
वहीँ आ रुकी!
"क्या कहते हो? नेतराम बाज आएगा?" मैंने पूछा,
"ना! ना! ऐसा आदमी कभी बाज नहीं आता!" वे बोले,
"हाँ, ये तो सच है!" मैंने कहा,
"वो साला हरामज़ादा ऐसे नहीं मानेगा!" वे बोले,
"हाँ!" मैंने कहा,
तभी फ़ोन बजा!
ये मेरा फ़ोन था,
इलाहबाद से,
एक विशेष साध्वी का फ़ोन था!
बात की मैंने उस से!
और फिर रख दिया फ़ोन!
अभी फ़ोन रखा ही था,
कि विदेश से फ़ोन आ गया,
अब वहाँ बात की,
दस मिनट कम से कम,
और फिर फ़ोन रखा!
और फिर से,
हम मढ़े!
और खाते-पीते रहे!
रात हुई,
तो अब खटिया सम्भाली!
चादर तानी और सो गए!
सुबह उठे!
नहाये-धोये!
और फिर चाय-नाश्ता किया!
उसके बाद शर्मा जी,
चले गए,
अब शाम को आना था उनको,
मित्रगण!
करीब दस दिन गुजर गए!
कुछ नहीं हुआ!
जितेन्द्र साहब रोज ही फ़ोन किया करते थे!
सब ठीक था!
लगता था, नेतराम हट गया है पीछे,
और फिर एक दिन.....
फिर एक दिन,
कोई दो बजे होंगे दोपहर के,
मैं भोजन करके उठा ही था,
कि मेरा फ़ोन बजा,
मैंने फ़ोन उठाया,
ये फोन जितेन्द्र साहब का था,
मैं बात की,
वे बहुत घबराये हुए थे,
उनकी बेटी की तबियत कल रात से बहुत खराब थी,
उसको उल्टियां और दस्त लगे थे,
वो कमज़ोरी के कारण बेहोश हो गयी थी,
और रात से ही अस्पताल में दाखिल थी,
अभी ये समस्या थी उनक साथ,
कि उनकी पत्नी का भी सुबह से ये ही हाल हो गया था,
उल्टियां,
और दस्त,
वो भी ख़ूनी दस्त,
बड़ा बुरा हाल था,
बाप और बेटा और,
उनके दो रिश्तेदार उनके साथ लगे हुए थे,
तीमारदारी में,
अब मैं झुंझलाया,
मांत्रिक ऐसा कर तो सकता है,
लेकिन वो तब,
जब वो मेरी बंदिश काट दे,
बंदिश वो काट नहीं सकता था,
फिर कैसे हुआ ये सब?
घर की औरतों को शिकार बनाया गया था!
मैं झुंझला उठा,
और फिर जितेन्द्र साहब को हिम्म्त बंधाई,
और मैंने कह दिया,
कि मैं आ रहा हूँ उनके पास,
जल्दी से जल्दी,
अब मैंने शर्मा जी को किया फ़ोन,
उन्होंने फ़ोन उठाया,
मैंने बताया,
वे दौड़ पड़े मेरी ओर आने के लिए,
इतने में,
मैंने यहाँ कुछ सामग्री आदि ले ली,
और हो गया तैयार!
शर्मा जी आये,
पानी पिया,
और हमने लगा दी दौड़!
सीधा पहुंचे अस्पताल,
जितेन्द्र साहब के चेहरे पर,
घबराहट,
और बेचैनी के साथ साथ,
किसी अनहोनी घटने के भय ने,
घर बना लिया था!
मुझे देखा,
तो आँखें छलछला गयीं उनकी,
गले से लग गये,
रुलाई फूट पड़ी उनकी.
ये था फल!
क्या फल मिला था उनको!
मैंने हिम्म्त बंधाई उनको!
अब आया मुझे क्रोध!
बस!
बस!
बहुत हुआ!
अब बस,
बहुत हुआ!
"क्या मैं बिटिया को देख सकता हूँ?" मैंने पूछा,
"आइये गुरु जी" वे बोले,
वे ले गये हमे,
एक कमरे में,
बोतल चढ़ रही थीं उस लड़की को,
आँखें बंद किये,
लेटे हुई थी,
कमज़ोर,
और लाचार,
मुझे बहुत दया आयी,
मैंने उसका दायां हाथ उठाया,
उसको सूंघा,
तो मुर्दे की बास आयी!
मैं चौंका!
ऐसा,
कैसे सम्भव?
एक मांत्रिक??
नहीं!
ऐसा नहीं हो सकता!
मैंने एक मंत्र पढ़ा,
और उसको फूंका उसके हाथ पर,
फिर से सूंघा,
मुर्दे की बास!
समस्या उलझ गयी!
अब एक ही उत्तर था इसका!
कि उस मांत्रिक ने,
किसी तांत्रिक से मदद ली है!
जिसने मेरी काट की है,
और इन दोनों पर वार!
बस यही एक कारण स्पष्ट था!
बस यही एक!
मैं उठा, बाहर आया,
और अपना बैग खोला!
उसमे से,
कुछ सामान निकाला,
एक काले धागे में रुद्राक्ष का एक दाना पिरोया,
और एक माला बना दी,
ऐसे ही एक माला और बनायी,
और दीं वे जितेन्द्र साहब को,
"ये एक एक, दोनों के गले में पहना दो" मैंने कहा,
और वे झट से चले बाँधने के लिए,
और मैंने अब शर्मा जी को बताया,
कि क्या मसला है,
और हुआ क्या है!
वे भी चकित!
हैरान!
"अब?" वे बोले,
"आज ही काम करूँगा मैं ये!" मैंने कहा,
"करना ही पड़ेगा!" वे बोले,
"हाँ, अब देर नहीं" मैंने कहा,
जितेन्द्र साहब आ गए,
"बाँध दीं?" मैंने पूछा,
"हाँ जी" वे बोले,
"ठीक है, अभी होश आ जाएगा" मैंने कहा,
और कोई दस मिनट बीते,
दोनों को होश आ गया,
कट गयी तांत्रिक की विद्या!
और मैं हुआ प्रसन्न!
पर!
क्रोधित भी!
धन के लोभ में,
किसी के प्राणों की आहुति चढ़ाने चला था!
वो मांत्रिक!
अब शुरू करना था खेल!
बुज्झन खड़ा हो गया!
"कौन है?" वो चिल्लाया!
चारों तरफ देखा उसने!
और फिर से त्रिशूल तान लिया!
उसकी मुद्रा देखकर,
पता चलता था कि,
वो बंगाल की रीति का तांत्रिक है!
और वे सब!
थर थर काँप रहे थे!
जानते हो मित्रगण!
इबु क्यों आ गया था वापिस,
क्योंकि बाबा बुज्झन ने इस नेतराम के स्थान को,
कीलित किया हुआ था!
मुझे कीलन काटने में समय लगता!
इसी कारण से वापिस आया था वो!
अब यहाँ!
तभी बुज्झन बैठ गया!
अलख में ईंधन झोंका!
और फिर मंत्र पढ़ते हुए,
फिर से ईंधन झोंकता रहा!
रोक दिया कोड़मा को उसने!
कॉम वापिस हो गयी!
और फिर लोप!
अब दौड़ायी नज़र उसने!
चारों तरफ!
अपने चेले से कुछ कहा,
चेला भाग पड़ा!
मैं देखना चाहता था कि वो क्या करना चाहता है!
चेला आया,
एक लकड़ी की पेटी सी लेकर!
बुज्झन ने खोली वो पेटी,
एक डिब्बी निकाली,
और आँखों में लगाया काजल!
देख!
तांत्रिक देख!
अब आँखें बंद कीं!
और मंत्र पढ़े उसने!
आँखें खोलीं!
और आ गया मैं उसकी जद में!
मैं हंसा!
वो चिंतित सा!
मुझे देखा उसने!
और मंत्र पढ़कर ईंधन झोंका उसने!
उसने काजल लगाया था!
देख-काजल!
ये काजल आप भी बना सकते हैं!
बस,
सामग्री मिल जाए तो!
एक हफ्ते में बन जाएगा!
फिर मात्र तीन हज़ार मन्त्र से सिद्ध करना है!
हाँ,
ये काजल,
आप यदि किसी स्त्री, कन्या धन आदि के लिए प्रयोग करोगे,
तो इसका नाश हो जाएगा!
कभी काम नहीं करेगा!
ये समय-कीलित है!
वर्ष में एक बार अवश्य ही बनाना पड़ता है!
सामग्री यदि ढूंढोगे तो मिल ही जाती है!
खैर!
आगे बढ़ते हैं!
नेतराम और वो चले,
चिपक के बैठ गए थे!
मारे भय के गीले हुए पड़े थे!
बुज्झन बाबा ने,
अपने त्रिशूल से भूमि पर एक चिन्ह काढ़ा!
मैं हंस पड़ा!
मैंने एक मंत्र पढ़ा,
और फिर अलख में एक झटके से,
ईंधन झोंका!
उसका त्रिशूल गिर गया नीचे!
हाथ से छिटक कर!
मैंने कुरुष-मालिनी विद्या चलायी थी!
इस विद्या से चलित वस्तु शिथिल हो जाती है!
मात्र वस्तु! संयंत्र! देह नहीं!
बाबा ने त्रिशूल उठाया!
अपने माथे से लगाया!
और फिर अलख में ईंधन झोंका!
अब मैंने कुछ सोचा!
ये बाबा कितना सार्थ है,
इसका पता लगाने के लिए!
मैं एक महाप्रेत का आह्वान किया!
अपने अट्ठहास के साथ वो प्रकट हुआ!
"हे दूर्ग!" मैंने कहा उस से,
"आदेश?" वो बोला,
"काम करेगा?" मैंने पूछा,
"आदेश?" वो बोला,
"दुराल नापेगा?" मैंने पूछा,
"आदेश?" वो बोला,
"छन्ना थामेगा?" मैंने पूछा,
"आदेश?" वो बोला,
"जाएगा?" मैंने पूछा,
"आदेश?" वो बोला!
अर्थात!
वो तैयार था!
और अपना भोग ले,
हुआ रवाना!
और हुआ वहाँ प्रकट!
अट्ठहास लगाया!
केवल सुना बुज्झन ने!
बुज्झन खड़ा हुआ!
अपना त्रिशूल उठाया,
आगे किया,
और फिर एक मंत्र पढ़ा!
और स्पर्श कर दिया भूमि से!
दूर्ग उड़ चला!
चक्कर काटते हुए उनका!
बुज्झन भौंचक्का!
क्या करे?
तभी बैठा!
और सरसों के दाने लिए!
फेंक दिए चारों ओर!
दूर्ग हंसा!
अट्ठहास लगाया!
और फिर सर के एकदम ऊपर खड़ा हो गया!
अट्ठहास लगाता हुआ!
अब बुज्झन ने आव देखा न ताव!
अपना खंजर लिया!
और एक मन्त्र पढ़ते हुए,
अपन अंगूठा चीर लिया!
टपका दिया रक्त अलख में!
इस से पहले कि,
गंध उठे!
दूर्ग गायब हुआ!
पलट गया!
रक्षा-कर्म सफल हुआ बुज्झन का!
उसने मात्र रक्षा ही की थी!
लेकिन दूर्ग ने उसकी पोल खोल दी!
रेत में पड़े थे वो!
थर थर कांपते!
सिकुड़े हुए!
उठने में भी डर लग रहा था!
बुज्झन बाबा तो,
भाग गया था!
क्षमा मांगते हुए!
लेकिन नेतराम और उस जाड़िये को,
सबक देना बहुत ज़रूरी था!
जाडिया उठा,
पीछे भागने को,
और एक लात खायी उसने अपने कन्धों पर,
जोड़ जैसे खुल गए,
औंधे मुंह गिरा नीचे!
उसको गिरता देख,
नेतराम कांपा!
आंसू निकल आये आँखों से,
अपनी रक्षा के लिए,
चालीसा पढ़ने लगा!
जब किसी दूसरे का,
अहित करता था,
तो ऐसा नहीं करता था!
अब सब घूमने लगा उसकी आँखों के आगे!
बैठे बैठे,